17 जून 2019 महान कवि एवं संत कबीर दास की जयंती है। कबीर भारतीय मनीषा के प्रथम विद्रोही संत हैं, उनका विद्रोह अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के विरोध में सदैव मुखर रहा है।
महात्मा कबीर के प्राकट्यकाल में समाज ऐसे चौराहे पर खड़ा था, जहां चारों ओर धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, अंधश्रद्धा से भरे कर्मकांड, मौलवी, मुल्ला तथा पंडित-पुरोहितों का ढोंग और सांप्रदायिक उन्माद चरम पर था। आम जनता धर्म के नाम पर दिग्भ्रमित थी।
मध्यकाल जो कबीर की चेतना का प्राकट्यकाल है, पूरी तरह सभी प्रकार की संकीर्णताओं से आक्रांत था। धर्म के स्वच्छ और निर्मल आकाश में ढोंग-पाखंड, हिंसा तथा अधर्म व अन्याय के बादल छाए हुए थे। उसी काल में अंधविश्वास तथा अंधश्रद्धा के कुहासों को चीर कर कबीर रूपी दहकते सूर्य का प्राकट्य भारतीय क्षितिज में हुआ।
वैसे संत कबीर के कोई जीवन वृत्तांत का पता नहीं चलता परंतु, विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर साहेब का जन्म विक्रम संवत 1455 तथा मृत्यु विक्रम संवत 1575 माना जाता है। जिस तरह माता सीता के जन्म का पता नहीं चलता, उसी तरह कबीर के जन्म का भी रहस्य आज भी भारतीय लोकमानस में जीवंत है।
कबीर बीच बाजार और चौराहे के संत हैं। वे आम जनता से अपनी बात पूरे आवेग और प्रखरता के साथ किया करते हैं, इसलिए कबीर परमात्मा को देखकर बोलते हैं और आज समाज के जिस युग में हम जी रहे हैं, वहां जातिवाद की कुत्सित राजनीति, धार्मिक पाखंड का बोलबाला, सांप्रदायिकता की आग में झुलसता जनमानस और आतंकवाद का नग्न तांडव, तंत्र-मंत्र का मिथ्या भ्रम-जाल से समाज और राष्ट्र आज भी उबर नहीं पाया है।
छह सौ वर्षों के सुदीर्घ प्राकट्यकाल के बाद भी कबीर हमारे वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के लिए बेहद प्रासंगिक एवं समीचीन लगते हैं।
वे हमारे लोकजीवन के इर्द-गिर्द घूमते नजर आते हैं। साहेब की बीजक वाणी में हिन्दू और मुस्लिम के साथ-साथ ब्रह्मांड के सभी लोगों को एक ही धरती पर प्रेमपूर्वक आदमी की तरह रहने की हिदायत देते हैं।
वे कहते हैं : ‘वो ही मोहम्मद, वो ही महादेव, ब्रह्मा आदम कहिए, को हिन्दू, को तुरूक कहाए, एक जिमि पर रहिए।’ कबीर मानवीय समाज के इतने बेबाक, साफ-सुथरे निश्छल मन के भक्त कवि हैं जो समाज को स्वर्ग और नर्क के मिथ्या भ्रम से बाहर निकालते हैं।
वे काजी, मुल्ला और पंडितों को साफ लफ्जों में दुत्कारते हैं- ‘काजी तुम कौन कितेब बखानी, झंखत बकत रहहु निशि बासर, मति एकऊ नहीं जानी/दिल में खोजी देखि खोजा दे/ बिहिस्त कहां से आया?’ कबीर ने घट-घट वासी चेतन तत्व को राम के रूप में स्वीकार किया है।
उन्होंने राम को जीवन आश्रय माना है, इसीलिए कबीर के बीजक में चेतन राम की एक सौ सत्तर बार अभिव्यंजना हुई है। कबीर आज भी दहकते अंगारे हैं। कानन-कुसुम भी हैं कबीर जिनकी भीनी-भीनी गंध और सुवास नैसर्गिक रूप से मानवीय अरण्य को सुवासित कर रही है। हिमालय से उतरी हुई गंगा की पावनता भी है कबीर। कबीर भारतीय मनीषा के भूगर्भ के फौलाद हैं जिसके चोट से ढोंग, पाखंड और धर्मांधता चूर-चूर हो जाती है। कबीर भारतीय संस्कृति का वह हीरा है जिसकी चमक नित नूतन और शाश्वत है।
साधू भूखा भाव का, धन का भूख नाहिं।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहिं।।
साधु प्रेम-भाव का भूखा होता है, वह धन का भूखा नहीं होता। जो धन का भूखा होकर लालच में फिरता रहता है, वह सच्चा साधु नहीं होता।
निरबैरी निहकांमता, साईं सेती नेह।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग एह।।
वैररहित होना, निष्काम भाव से ईश्वर से प्रेम और विषयों से विरक्ति- यही संतों के लक्षण हैं।
तन मन ताको दीजिए, जाके विषया नाहिं।
आपा सबहीं डारिकै, राखै साहेब माहिं।।
कबीर साहब कहते हैं कि अपना तन-मन उस गुरु को सौंपना चाहिए जिसमें विषय-वासनाओं के प्रति आकर्षण न हो और जो शिष्य के अहंकार को दूर करके ईश्वर की ओर लगा दे।
जाका गुरु भी अंधला, चेरा खरा निरंध
अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडंत।।
जिसका गुरु भी अंधा है अर्थात अज्ञानी है और चेला सर्वथा अंध भक्त है। तब अंधा अंधे को ठेलता है अर्थात एक अज्ञानी दूसरे अज्ञानी को धकेलता है, दोनों ही अज्ञान एवं विषय-वासना के अंधेरे कुएं में गिर जाते और खत्म हो जाते हैं।
बिन देखे वह देस की, बात कहै सो कूर।
आपै खारी खात हैं, बेचत फिरत कपूर।।
परमात्मा के देश को देखे बिना जो उस देश की बातें करता है, वह झूठा है। ऐसा व्यक्ति स्वयं तो खारा (कड़वा) खाता है और दूसरों को कपूर बेचता फिरता है अर्थात स्वयं तो परम पद को जानता नहीं है और दूसरों को उपदेश देता फिरता है।
साधु भया तौ का भया, बूझा नहीं विवेक।
छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक।।
हे मनुष्य, वैष्णव या शैव मत में दीक्षित होने मात्र से क्या लाभ, यदि तुम्हारे भीतर विवेक जागृत नहीं हैं? चिह्न छापा और तिलक धारण करके भी यदि अनेक लोगों को ठगते रहे अथवा अनेक लोगों में विषयों की ज्वाला में जलते रहे तो क्या लाभ?
पंडित और मसालची, दोनों सूझे नाहिं।
औरन को कर चांदना, आप अंधेरे माहिं।।
पंडित और मशाल वाले दोनों को ही परमात्मा विषयक वास्तविक ज्ञान नहीं है। दूसरों को उपदेश देते फिरते हैं और स्वयं अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं।
फूटी आंखि विवेक की, लखै न संत असंत।
जाके संग दस बीस हैं, ताका नाम महंत।।
जब विवेकयुक्त दृष्टि नहीं रह जाती है तो व्यक्ति साधु और ढोंगी में अंतर नहीं कर पाता। जो दस-बीस शिष्यों को अपने साथ लगा लेता है, वही महंत कहलाने लगता है।
कबीर को आप संत मानते हैं या समाज-सुधारक? | Kanir sant hai ya samaj sudharak
कबीर को आप संत मानते हैं या समाज-सुधारक? तर्कसहित अपना उत्तर दीजिए।
कबीर को आप संत मानते हैं या समाज-सुधारक? : कबीर के समय में समाज में अंधविश्वासों, आडम्बरों, कुरीतियों एवं विभिन्न धर्मों का बोलबाला था।
कबीर को आप संत मानते हैं या समाज-सुधारक?
कबीर महान समाज सुधारक थे उन्होने सत्य प्रेम का भण्डन तथा अज्ञान तथा घृणा का खण्डन किया है। कबीदास संत , कवि और समाजसुधारक थे , वे पूरे संसार में सुधार लाना चाहते थे , कबीर ने सधुक्कड़ी भाषा में समाज में फैली कुरीतियों का खण्डन किया। कबीर अमीर - गरीब , जाति पाति भेदभाव धन धान्य से परिपूर्ण जीवन में विश्वास नहीं करते थे।
कबीर के जन्म के बारे में अनेक कथायें प्रचलित हैं। माना जाता है कि उनका जन्म 1398 में काशी में हुआ। नीरू और नीमा ने कबीर का पालन पोषण करा। नीरू एक जुलाहा था। उसे एक बच्चा लहरतारा ताल के पास पड़ा मिला। वह उसे अपने घर ले आया और उसका नाम कबीर रखा। कुछ लोग कहते हैं कबीर जन्म से मुसलमान थे। युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म का ज्ञान हुआ।
वे एक क्रांतदर्शी कवि थे जिनके दोहों और साखियों में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। वे हिन्दू और मुसलमान के भेद भाव को नहीं मानते थे। उनका कहना था कि राम और रहीम एक हैं। वे सामाजिक ऊँच नीच को नहीं मानते थे। उनके लिए सब समान थे।
वे सामाजिक कुरीतियों को हटाना चाहते थे। सबको प्रेम और भाईचारे के साथ रहने की सीख देते थे। वे परोपकार को महत्वपूर्ण मानते थे। उदाहरण के लिए, एक दोहे में वे कहते हैं - बड़ा हुआ तो क्या हुआ .... पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।। अर्थात बड़े होने का कोई लाभ नहीं है यदि एक व्यक्ति दूसरे के काम न आये। जिस प्रकार खजूर का पेड़ बहुत बड़ा होता है, पर उसके फल बहुत दूर होते हैं इसलिए उनको खा नहीं सकते हैं। खजूर का पेड़ यात्रियों को छाया भी नहीं देता है।
”कबीर एक युगद्रष्टा तथा क्रांतिकारी कवि थे। राजनैतिक वातावरण में सजीव सामाजिक और धार्मिक सिद्धान्तों के प्रवर्तक कबीर ने प्राचीन मान्यताओं का खण्डन किया और समाज में परिवर्तन की धारा को प्रवाहित किया था। कबीर ने ज्ञान के हाथी पर चढ़कर सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक चेतना जागृत करने का प्रयत्न किया।“ कबीरदास को समाज से घृणा, तिरस्कार, अपमान और अवहेलना ही मिली। कबीर एक विद्रोही कवि बन गए। उन्होंने समाज की रूढ़ियों तथा आडंबरों का विरोध किया।
कबीर के समय में समाज में हर प्रकार के अंधविश्वासों, आडम्बरों, कुरीतियों एवं विभिन्न धर्मों का बोलबाला था। कबीर ने इन सब का विरोध करते हुए समाज को एक नवीन दिशा देने का पूरा प्रयास किया। इनके अलावा वे प्रेम की महत्ता को जानते थे इसलिए प्रेम को ऐसा कोड मानते थे जो स्वाद लाता है पर अपनी गुण को कह नहीं पाता।इनका प्रारंभिक जीवन काशी में बीता और मृत्यु मगहर में 1528 ई. में हुआ।
कबीर की समाज सुधार की भावना
कबीर महान समाज सुधारक थे। उनके समकालीन समाज में अनेक अंधविश्वासों, आडम्बरों, कुरीतियों एवं विभिन्न धर्मों का बोलबाला था। कबीर ने इन सब का विरोध करते हुए समाज को एक नवीन दिशा देने का पूर्ण प्रयास किया। उन्होंने जाती-पांति के भेदभाव को दूर करते हुए शोषित जनों के उद्धार का प्रयत्न किया तथा हिंदू मुस्लिम एकता पर बल दिया उनका मत था।
जाति-पांति पूछै नहीं कोई।हरि को भजै सो हरि का होई।।
कबीर ने विभिन्न क्षेत्रों में समाज सुधार का प्रयास किया। उनके द्वारा किए गए इस प्रयास को निम्न शिर्षकों में समझाया जा सकता है:
1. मूर्ति पूजा का विरोध :-
कबीर नहीं समाज में मूर्ति पूजा का डटकर विरोध किया वह सामान्य जनता को समझाते हुए कहते हैं की मूर्ति पूजा से भगवान नहीं मिलते हैं इससे तो अच्छा है कि आप घर की चक्की को ही पूजा करें क्योंकि चक्की हमें खाने भर के लिए अनाज पीस कर दे देती है।
पाहन पूजैं हरि मिलैं तौ मैं पूजूं पहार।घर की चाकी कोई ना पूजै पीस खाय संसार।
2.जीव हिंसा का विरोध
कबीर ने धर्म के नाम पर व्यक्त हिंसा का विरोध किया। हिंदुओं में शाक्तो और मुसलमानों में कुर्बानी देने वालों को उन्होंने निर्भीकता से फटकारा और कहा कि दिन में रोजा रखने वाले रात को गाय काटते हैं।इस कार्य से भला खुदा कैसे प्रसन्न हो सकता है।
दिन भर रोजा रखत है रात हनन है गाय।यह तो खून वह बंदगी कैसी खुशी खुदा है।।
बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात है ताको कौन हवाल।।
3. राम रहीम की एकता का प्रतिपादन:-
कभी चाहते थे कि हिंदू मुसलमान प्रेम एवं भाईचारे की भावना से एक साथ मिल कर रहें। उन्होंने राम और रहीम की एकता स्थापित करते हुए बताया कि ईश्वर दो नहीं हो सकते। यह तो लोगों का भ्रम है जो खुदा को परमात्मा से अलग मानते हैं-
दुई जगदीस कहां ते आया कहु कौने भरमाया।4. जाति-पाति तथा छुआछूत का विरोध
कबीर भक्त और कभी बात में है समाज सुधारक पहले हैं। उनकी कविता का उद्देश्य जनता को उपदेश देना और उसे सही रास्ता दिखाना है। उन्होंने जो गलत समझा उसका निर्भीकता से खंडन किया। अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी कबीर की सबसे बड़ी विशेषता है। कबीर ने समाज में व्याप्त जाति प्रथा छुआछूत एवं ऊंच-नीच की भावना पर प्रहार करते हुए कहा कि जन्म के आधार पर कोई ऊंचा नहीं होता ऊंचा हुआ है जिस के कर्म अच्छे हैं
ऊंचे कुल का जनमिया करनी ऊंच न होय।सुबरन कलस सुरा भरा साधू निंदत सोय।।
5. हिंदू पाखंड का खंडन
कबीर ने हिंदू पाखंड साधुओं एवं अंधविश्वासी जैसे हिंदुओं पर फटकारा। वे कहते थे की माला फेरने से परमात्मा या ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती हैं ईश्वर को अगर प्राप्त करना है तो मन की सुधि से ईश्वर प्रश्न होता है बल्कि हाथ में माला फेरने से और मुंह से ईश्वर का नाम जपते रहने से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। उसके लिए मन भी स्थिर होना आवश्यक है। वे इस पर कहते हैं
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख माहिं।मनुवा तो चहुँदिसि फिरै, यह ते सुमिरन नाहिं।।माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर।
कर का मनका डारि कै मन का मनका फेर।।
6. मुस्लिम प्रखंड का खंडन
कबीर सिर्फ हिंदुओं पर ही नहीं बल्कि मुसलमानों को भी पाखंडी कहा। मुसलमान दिन भर रोजा रखकर रात को यादी गौ हत्या करके ईश्वर को प्रसन्न करना चाहे तो यह नीरा भ्रम है। ईश्वर इस से प्रसन्न होने वाला नहीं है। वे समाज में व्याप्त बुराइयों के कटु आलोचक थे किंतु उनकी आलोचना सुधार भावना से प्रेरित था वे मुल्ला जो अजान के वक्त जोर-जोर से माइक में अल्लाह का नाम लेते हैं उन पर भी वे कड़ी फटकार लगाते हुए कहा
कंकर पत्थर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय
7.तीर्थाटन का विरोध
कबीर ने हिंदू तथा मुसलमान जो तीर्थ यात्रा या भगवान की प्राप्ति के लिए यहां वहां भटकते हैं उन पर भी विरोध किया और कहा कि
गंगा नहाए कहो को नर तरिंगेमछरी न तरी जाको पानी में घर है।
8. संप्रदायिकता का विरोध
कबीर नहीं हिंदू और मुसलमान दोनों को ही एक समान माना है फिर चाहती थी कि हिंदू मुसलमानों में भाईचारे की भावना उत्पन्न हो। लेकिन वे आपस में ही लड़ मरते थे इस पर भी उन्होंने कहा
हिंदू कहे मोहे राम पियारा और तुरक रहमान।आपस में दोऊ लरि मुए मरम न काहू जाना।।
निष्कर्ष
कबीर नैतिक मूल्यों को लोगों के अंदर से बाहर निकालना चाहते थे कबीर ऐसे संत थे जो जनता के सच्चे पथ प्रदर्शक कहे जा सकते हैं। उन्होंने व्यक्ति के सुधार पर इसलिए बल दिया क्योंकि व्यक्तियों से ही समाज बनता है वे चाहते थे कि हिंदू और मुसलमान में जो विडंबना है उसे खत्म कर सके उन दोनों में भाईचारे की भावना उत्पन्न कर सके और वैसे साधु या ढोंगी और अंधविश्वासों को भी समाप्त करना चाहते थे कबीर को समाज सुधारक के रूप में आज भी याद किया जाता है।