देवनागरी लिपि का जन्मदाता कोई एक व्यक्ति नहीं था। इसका विकास भारत की प्राचीन लिपि ब्राहमी से हुआ। ब्राहमी की दो शाखाएं थीं, उत्तरी और दक्षिणी।
देवनागरी का विकास उत्तरी शाखा वाली लिपियों से हुआ माना जाता है। ब्राहमी की उत्तरी शाखा से गुप्तवंशीय राजाओं के काल में, यानी चौथी पांचवीं शताब्दी में, जिस गुप्तलिपि का विकास हुआ, उसके अक्षरों का लेखन एक विशेष टेढ़े या कुटिल ढंग से किया जाता था, जिससे आगे चलकर कुटिल लिपि का जन्म हुआ।
विद्वानों और भाषा वैज्ञानिकों के मत में नवीं शताब्दी के अंतिम चरण में इसी कुटिल लिपि से देवनागरी का विकास हुआ। जहां तक देवनागरी नाम का सवाल है उसे लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ इसे नागर अपभ्रंश से जोड़ते हैं और कुछ इसके प्राचीन दक्षिणी नाम नंदिनागरी से। यह भी संभव है कि नागर जन द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम नागरी पड़ा और देवभाषा यानी संस्कृत के लिए अपनाई जाने के कारण इसे देवनागरी कहा जाने लगा, लेकिन इस बारे में कोई निश्चित प्रमाण नहीं हैं।
अपसौर दिवस
हर साल जुलाई में अपसौर दिवस के दिन धरती, सूर्य के सबसे दूर पहुंच जाती है। यह दूरी 15 करोड़ 21 लाख किलोमीटर के आसपास होती है। इतनी दूरी पर होने के बावजूद इस दिन तापमान कम नहीं होता है। इसके कई कारण है। धरती का अपने धुरी पर झुकाव भी इसका एक कारण है। मौसम का निर्धारण सूरज से धरती की दूरी पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह धरती के झुकाव से निर्धारित होता है।
Devnagri lipi :- देवनागरी एक भारतीय लिपि है जिसमें अनेक भारतीयभाषाएँ तथा कई विदेशी भाषाएँ लिखी जाती हैं। यह बायें से दायें लिखी जाती है। इसकी पहचान एक क्षैतिज रेखा से है जिसे ‘शिरोरेखा’ कहते हैं संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, हरियाणवी, बुंदेली भाषा, डोगरी, खस, नेपाल भाषा (तथा अन्य नेपाली भाषाएँ), तमांग भाषा, गढ़वाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, नागपुरी, मैथिली, संताली, राजस्थानी भाषा, बघेली आदि भाषाएँ और स्थानीय बोलियाँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। देवनागरी विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त लिपियों में से एक है। यह दक्षिण एशिया की 175 से अधिक भाषाओं को लिखने के लिए प्रयुक्त हो रही है।
अधिकतर भाषाओं की तरह देवनागरी भी बायें से दायें लिखी जाती है। प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती है (कुछ वर्णों के ऊपर रेखा नहीं होती है) इसे शिरोरेखा कहते हैं। देवनागरी का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल अध्वव लिपि है। भारत की कई लिपियाँ देवनागरी से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं, जैसे- बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि। कम्प्यूटर प्रोग्रामों की सहायता से भारतीय लिपियों को परस्पर परिवर्तन बहुत आसान हो गया है।
भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है और फिर लिखे पाठ को लगभग ‘हू-ब-हू’ उच्चारण किया जा सकता है, जो कि रोमन लिपि और अन्य कई लिपियों में सम्भव नहीं है, जब तक कि उनका विशेष मानकीकरण न किया जाये, जैसे आइट्रांस या IAST ।
इसमें कुल ५२ अक्षर हैं, जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) में प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं, परन्तु उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं, क्योंकि वे सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं (उर्दू को छोड़कर)। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।
Devnagri lipi देवनागरी लिपि गुण , महत्व
देवनागरी’ शब्द की व्युत्पत्ति
देवनागरी या नागरी नाम का प्रयोग “क्यों” प्रारम्भ हुआ और इसका व्युत्पत्तिपरक प्रवृत्तिनिमित्त क्या था- यह अब तक पूर्णतः निश्चित नहीं है।
(क) ‘नागर’ अपभ्रंश या गुजराती “नागर” ब्राह्मणों से उसका सम्बन्ध बताया गया है। पर दृढ़ प्रमाण के अभाव में यह मत सन्दिग्ध है।
(ख) दक्षिण में इसका प्राचीन नाम “नंदिनागरी” था। हो सकता है “नन्दिनागर” कोई स्थानसूचक हो और इस लिपि का उससे कुछ सम्बन्ध रहा हो।
(ग) यह भी हो सकता है कि “नागर” जन इसमें लिखा करते थे, अत: “नागरी” अभिधान पड़ा और जब संस्कृत के ग्रंथ भी इसमें लिखे जाने लगे तब “देवनागरी” भी कहा गया।
(घ) सांकेतिक चिह्नों या देवताओं की उपासना में प्रयुक्त त्रिकोण, चक्र आदि संकेतचिह्नों को “देवनागर” कहते थे। कालान्तर में नाम के प्रथमाक्षरों का उनसे बोध होने लगा और जिस लिपि में उनको स्थान मिला- वह ‘देवनागरी’ या ‘नागरी’ कही गई। इन सब पक्षों के मूल में कल्पना का प्राधान्य है, निश्चयात्मक प्रमाण अनुपलब्ध हैं।
देवनागरी लिपि का उपयोग करने वाली भाषाएँ
- अवधी
- कनौजी
- कश्मीरी
- कांगड़ी
- किन्नौरी
- कुड़माली
- कुमाऊँनी
- कोंकणी
- कोया
- खानदेशी
- खालिङ
- खड़िया
- गढ़वाली
- गुर्जरी
- गुरुङ
- गोण्डी
- चम्बयाली
- चाम्लिङ
- चुराही
- chepang language
- छत्तिसगढ़ी
- छिन्ताङ
- जिरेल
- जुम्ली
- तिलुङ
- वारली
- वासवी
- वागडी
- वाम्बुले
- हिन्दी
- संस्कृत
- मराठी
देवनागरी वर्णमाला
देवनागरी की वर्णमाला में १२ स्वर और ३४ व्यंजन हैं। शून्य या एक या अधिक व्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है।
स्वर
निम्नलिखित स्वर आधुनिक हिन्दी (खड़ी बोली) के लिये दिये गये हैं। संस्कृत में इनके उच्चारण थोड़े अलग होते हैं।
संस्कृत में ऐ दो स्वरों का युग्म होता है और “अ-इ” या “आ-इ” की तरह बोला जाता है। इसी तरह औ “अ-उ” या “आ-उ” की तरह बोला जाता है।
इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में य
- ऋ — आधुनिक हिन्दी में “रि” की तरह
- ॠ — केवल संस्कृत में
- ऌ — केवल संस्कृत में
- ॡ — केवल संस्कृत में
- अं — आधे न् , म् , ङ् , ञ् , ण् के लिये या स्वर का नासिकीकरण करने के लिये
- अँ — स्वर का नासिकीकरण करने के लिये
- अः — अघोष “ह्” (निःश्वास) के लिये
- ऍ और ऑ — इनका उपयोग मराठी और और कभी-कभी हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का निकटतम उच्चारण तथा लेखन करने के लिये किया जाता है।
देवनागरी अंक
देवनागरी अंक निम्न रूप में लिखे जाते हैं :
०१२३४५६७८९
देवनागरी लिपि के गुण
- भारतीय भाषाओं के लिये वर्णों की पूर्णता एवं सम्पन्नता (५२ वर्ण, न बहुत अधिक न बहुत कम)।
- एक ध्वनि के लिये एक सांकेतिक चिह्न — जैसा बोलें वैसा लिखें।
- लेखन और उच्चारण और में एकरुपता — जैसा लिखें, वैसे पढ़े (वाचें)।
- एक सांकेतिक चिह्न द्वारा केवल एक ध्वनि का निरूपण — जैसा लिखें वैसा पढ़ें।
- स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास – देवनागरी के वर्णों का क्रमविन्यास उनके उच्चारण के स्थान (ओष्ठ्य, दन्त्य, तालव्य, मूर्धन्य आदि) को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इसके अतिरिक्त वर्ण-क्रम के निर्धारण में भाषा-विज्ञान के कई अन्य पहलुओ का भी ध्यान रखा गया है। देवनागरी की वर्णमाला (वास्तव में, ब्राह्मी से उत्पन्न सभी लिपियों की वर्णमालाएँ) एक अत्यन्त तर्कपूर्ण ध्वन्यात्मक क्रम (phonetic order) में व्यवस्थित है। यह क्रम इतना तर्कपूर्ण है कि अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक संघ (IPA) ने अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के निर्माण के लिये मामूली परिवर्तनों के साथ इसी क्रम को अंगीकार कर लिया।
- वर्णों का प्रत्याहार रूप में उपयोग : माहेश्वर सूत्र में देवनागरी वर्णों को एक विशिष्ट क्रम में सजाया गया है। इसमें से किसी वर्ण से आरम्भ करके किसी दूसरे वर्ण तक के वर्णसमूह को दो अक्षर का एक छोटा नाम दे दिया जाता है जिसे ‘प्रत्याहार’ कहते हैं। प्रत्याहार का प्रयोग करते हुए सन्धि आदि के नियम अत्यन्त सरल और संक्षिप्त ढंग से दिए गये हैं (जैसे, आद् गुणः)
- देवनागरी लिपि के वर्णों का उपयोग संख्याओं को निरूपित करने के लिये किया जाता रहा है। (देखिये कटपयादि, भूतसंख्या तथा आर्यभट्ट की संख्यापद्धति)
- मात्राओं की संख्या के आधार पर छन्दों का वर्गीकरण : यह भारतीय लिपियों की अद्भुत विशेषता है कि किसी पद्य के लिखित रूप से मात्राओं और उनके क्रम को गिनकर बताया जा सकता है कि कौन सा छन्द है। रोमन, अरबी एवं अन्य में यह गुण अप्राप्य है।
- लिपि चिह्नों के नाम और ध्वनि में कोई अन्तर नहीं (जैसे रोमन में अक्षर का नाम “बी” है और ध्वनि “ब” है)
- लेखन और मुद्रण में एकरूपता (रोमन, अरबी और फ़ारसी में हस्तलिखित और मुद्रित रूप अलग-अलग हैं)
- देवनागरी, ‘स्माल लेटर” और ‘कैपिटल लेटर’ की अवैज्ञानिक व्यवस्था से मुक्त है।
देवनागरी लिपि के दोष
- (१) कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकण, मुद्रण में कठिनाई। किन्तु आधुनिक प्रिन्टर तकनीक के लिए यह कोई समस्या नहीं है।
- (२) कुछ लोग शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक मानते हैं।
- (३) अनावश्यक वर्ण (ऋ, ॠ, लृ, ॡ, ष)— बहुत से लोग इनका शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाते।
- (४) द्विरूप वर्ण (अ, ज्ञ, क्ष, त्र, छ, झ, ण, श) आदि को दो-दो प्रकार से लिखा जाता है।
- (५) समरूप वर्ण (ख में र+व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)।
- (६) वर्णों के संयुक्त करने की व्यवस्था एकसमान नहीं है।
- (७) अनुस्वार एवं अनुनासिक के प्रयोग में एकरूपता का अभाव।
- (८) त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार–बार उठाना पड़ता है।
- (९) वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर अनेक लोगों को भ्रम की स्थिति।
- (११) इ की मात्रा (ि) का लेखन वर्ण के पहले, किन्तु उच्चारण वर्ण के बाद।
देवनागरी लिपि पर महापुरुषों के विचार
आचार्य विनोबा भावे संसार की अनेक लिपियों के जानकार थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि देवनागरी लिपि भारत ही नहीं, संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। अगर भारत की सब भाषाओं के लिए इसका व्यवहार चल पड़े तो सारे भारतीय एक दूसरे के बिल्कुल नजदीक आ जाएंगे। हिंदुस्तान की एकता में देवनागरी लिपि हिंदी से ही अधिक उपयोगी हो सकती है। अनन्त शयनम् अयंगार तो दक्षिण भारतीय भाषाओं के लिए भी देवनागरी की संभावना स्वीकार करते थे। सेठ गोविन्ददास इसे राष्ट्रीय लिपि घोषित करने के पक्ष में थे।
- (१) हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है।
- (२) देवनागरी किसी भी लिपि की तुलना में अधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित लिपि है।
- (३) मानव मस्तिष्क से निकली हुई वर्णमालाओं में नागरी सबसे अधिक पूर्ण वर्णमाला है।
- (४) उर्दू लिखने के लिये देवनागरी लिपि अपनाने से उर्दू उत्कर्ष को प्राप्त होगी।
- (५) The Devanagri alphabet is a splendid monument of phonological accuracy, in the sciences of language.
- (६) एक सर्वमान्य लिपि स्वीकार करने से भारत की विभिन्न भाषाओं में जो ज्ञान का भंडार भरा है उसे प्राप्त करने का एक साधारण व्यक्ति को सहज ही अवसर प्राप्त होगा। हमारे लिए यदि कोई सर्व-मान्य लिपि स्वीकार करना संभव है तो वह देवनागरी है।
- (७) प्राचीन भारत के महत्तम उपलब्धियों में से एक उसकी विलक्षण वर्णमाला है जिसमें प्रथम स्वर आते हैं और फिर व्यंजन जो सभी उत्पत्ति क्रम के अनुसार अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत किये गए हैं। इस वर्णमाला का अविचारित रूप से वर्गीकृत तथा अपर्याप्त रोमन वर्णमाला से, जो तीन हजार वर्षों से क्रमशः विकसित हो रही थी, पर्याप्त अंतर है।
भारत के लिये देवनागरी लिपि का महत्त्व
बहुत से लोगों का विचार है कि भारत में अनेकों भाषाएँ होना कोई समस्या नहीं है जबकि उनकी लिपियाँ अलग-अलग होना बहुत बड़ी समस्या है। गांधीजी ने १९४० में गुजराती भाषा की एक पुस्तक को देवनागरी लिपि में छपवाया और इसका उद्देश्य बताया था कि मेरा सपना है कि संस्कृत से निकली हर भाषा की लिपि देवनागरी हो।