अंग्रेजों ने भारतीय किसानों पर क्या तोहफा - angrejon ne bhaarateey kisaanon par kya tohapha

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भारत के किसान अपनी एकता और संघर्ष की नई इबारत लिख रहे हैं, एक नया इतिहास गढ़ रहे हैं। किसानों के हुजूम के हुजूम सड़कों पर हैं। देश उबाल पर है। जनता - जिसमें किसानों का बहुमत शामिल है - के वोटों से चुनी केंद्र सरकार संविधान, लोकतंत्र और जनहित सब कुछ भूल भाल कर पूरी तरह कारपोरेट की चाकर बनी हुयी है। जिन्हें रक्षक होना था वे ही भक्षक बने हुए हैं। किसानों की यह लड़ाई भारत के किसानों के संगठित होकर लड़ने के इतिहास का एक चमकीला अध्याय है। और चूंकि इतिहास सिर्फ कथा कहानी नहीं होते, वे आज के लिए सबक और आने वाले कल पथप्रदर्शक भी होते हैं। इसलिए जरूरी हो जाता आंदोलन के इतिहास पर सरसरी नज़र डाल ली जाए। भारत में किसानों के संघर्ष का इतिहास उतना पुराना है जितनी खेती और किसानी है। धरती के इस हिस्से पर कृषि काफी पुरानी है। यहां के बाशिंदों 10 हजार साल तांबे का उपयोग सीख लिया गया था। इससे कृषि और पशुपालन में तेजी बढ़ोत्तरी हुयी। करीब 7 हजार साल पुरानी सभ्यता का आधार कृषी और वाणिज्य था। मगर यहां हम इस इतिहास विस्तार जाने की बजाय आधुनिक काल के संगठित किसान आंदोलन सीमित रहें तो उपयोगी होगा।

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कालापानी की जेल जाते गदरी बाबा

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केरल के कुट्टनाड में एक खेत में धान की पिटाई करते कृषि मजदूर

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सोहन सिंह भकना

अखिल भारतीय किसान सभा: देश के किसानों का पहला अखिल भारतीय संगठन

इसके गठन की ज़रुरत तीन महत्वपूर्ण कारणों से हुयी। एक: देश के किसान अंग्रेजों की गुलामी से आजादी चाहते थे। उस समय चल रहे स्वतन्त्रता संग्राम के आम एजेंडे को सिर्फ राजनीतिक आजादी से आगे ले जाकर किसानों और मजदूरों सहित भारतीय अवाम की सच्ची मुक्ति तक ले जाना चाहते थे।दो: अंग्रेजों द्वारा की गयी भारतीय खेती और अर्थव्यवस्था के सत्यानाश को दुरुस्त कर आने वाले दिनों में किसानों की सामथ्र्य बढ़ाने वाली नीतियां लाना चाहते थे।तीन: उनका लक्ष्य सिर्फ अंग्रेजों के भगाने का नहीं था। वे राजे रजवाड़ों, धन्नासेठों, देसी विदेशी पूँजी घरानों की सत्ता खत्म कर किसानों मजदूरों का राज लाना चाहते थे।

अंगरेजी राज में भारतीय किसानों और जनता की लूट

अंगरेजी राज में भारतीय किसानों और जनता की लूट हमारे इतिहास की सबसे भयानक विनाशकारी और सर्वआयामी लूट है। अंगरेजी पूंजी व्यापार करने के नाम पर दाखिल हुयी और विषबेल की तरह फैल गयी। इसने जितनी जबरदस्त और भयानक अमानवीय परिणाम देने वाली लूट की है उसकी इतनी बड़ी मिसाल तब तक के इतिहास में और कोई नहीं थी। इसमें किसानों के साथ क्या हुआ इसकी झलक इन दो तीन उदाहरणों से मिल जाती है - अंग्रेजों ने कृषि संबंधों में विनाशकारी परिवर्तन किये। मालगुजारी की दरें भयानक रूप से बढ़ा दी थीं। लगान की दर 1895 में 61 प्रतिशत थी जो 1921 में 73 प्रतिशत हो गयी। अंग्रेजों के पहले के हिन्दुस्तानी शासकों ने बंगाल में 1764 में 8 लाख 17 हजार पौंड मालगुजारी वसूली थी - जो कार्नवालिस के आने और इस्तेमरारी बंदोबस्त के बाद 1793 में 34 लाख पौंड तक जा पहुँची। नतीजा ये निकला कि खुद वारेन हेस्टिंग्स की रिपोर्ट के मुताबिक 1770 के बंगाल, बिहार, ओडिसा के अकाल में 1 करोड़ लोग मारे गए जो आबादी का एक तिहाई थे। एक तिहाई जमीन जंगल बन गयी जहां जंगली जानवर रहने लगे। इसके बाद भी मालगुजारी पिछले वर्षों की तुलना में अधिक हुयी । कारिंदों की लूट इसके अलावा थी। (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); इसी दौर में यूरोप और आस्ट्रेलिया के लिए नील पैदा करने के नाम पर एक बार फिर किसान और खेती दोनों को और बर्बाद किया गया। मुगल काल में किसानों से 1/3 लगान था जो विलायती जमींदारी प्रणाली लाकर अंग्रेजों ने दोगुना कर दिया। नतीजे में किसानों का 80 प्रतिशत हिस्सा कर्ज में डूब गया इसमें से चौथाई कर्ज लगान चुकाने के लिए लिया जाने वाला था।

बाकी ग्रामीण आबादी भी इससे अछूती नहीं रही। खेत मजदूर की आमदनी पर भी इसका विनाशकारी असर हुआ। यह 1842 में एक आना थी जो 90 साल बाद 1922 में 4 से 6 आना हुयी। दिखने में यह बढ़ी मगर असल में यह आधी रह गयी। कैसे? ऐसे कि 1842 में चावल की कीमत 40 सेर प्रति रुपया थी जबकि 1922 में चावल 1 रूपये का पांच सेर था। मतलब एक खेत मजदूर 1842 में दिन भर की मजदूरी से ढाई किलो चावल खरीद सकता था जो 1922 में दिन भर की मजदूरी के बाद सिर्फ सवा किलो रह गया। इस त्रासदी का शोर मचा तो खेती की दुर्दशा और किसानों की मौतें रोकने के लिए अंग्रेज सरकार ने रॉयल कमीशन (1926) भेजा। मगर उसे सौंपे गए कामों के बारे में साफ निर्देश था कि "लगान, जमींदारी, मालगुजारी और आबपाशी की मौजूदा व्यवस्था के बारे में किसी तरह का सुझाव पेश करना कमीशन का काम नहीं होगा।"इस लूट के बारे में दादा भाई नौरोजी ने 1901 में लिखा था कि "महमूद गजनवी 18 बार में जितना लूट कर नहीं ले गया था उससे अधिक अंग्रेज एक साल में लूट कर लन्दन ले जाते हैं।" मगर गजनवी के 18वें हमले के बाद उसके दिए गए घाव भर गए थे - अंग्रेजों की लूट ने बुनियादी शक्तियों का ध्वंस कर दिया था वे घाव कभी नहीं भर पाए।इतना ही नहीं सारे दस्तकार खेती की ओर वापस गए जो पहले ही थी। इससे पहले अंग्रेज भारत उस आर्थिक ढाँचे; और दस्तकारी, जिसकी धाक दुनिया भर थी, कमर तोड़ यह तरह से किया- भारतीय उत्पादों पर चुंगी बढ़ाकर और माल को बिना चुंगी लाकर। भारत रेशम और सिल्क की मशीनों बनने वाले अंगरेजी सूती कपड़े आधी से भी कम थी, भारत की छींट पर प्रतिशत चुंगी लगा दी गयी। करघे दिए गए। कहते हैं कि ढाका के मलमल बुनकरों के अंगूठे भी कुचललोहे, तांबे और पीतल उद्योग यह निकला कि मुर्शिदाबाद, जो सम्पन्नता और आबादी में लन्दन बराबर था भुतहा हो गया। ढाका की आबादी में लाख और एक करोड़ का था, वह 1890 घटकर आबादी 79 हजार का निर्यात में लाख रह गया। सूरत तबाह हो गया।

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हरकिशन सिंह सुरजीत

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गोरखपुर में 1 लाख 75 हजार 600 महिलायें चरखा कातकर सूत उत्पादन करती बेरोजगार हो गयीं। पुरानी ग्राम व्यवस्था का आधार कृषि और दस्तकारी था, पूरी तरह टूट गया। मार्क्स लिखते हैं कि "हिन्दुस्तान के मैदानों में जुलाहों की हड्डियां बिखरी हुयी हैं।” 18वीं सदी में देश में शहरी आबादी करीब 50 प्रतिशत थी जो 19वीं सदी के अंत में घटकर सिर्फ 15 प्रतिशत रह गयी। जीविका निर्वाह के दूसरे साधन बंद होने से खेती करने वालों की संख्या बहुत बढ़ गयी। (1891 में 61.1 प्रतिशत से 1921 में 73 प्रतिशत)। खेतिहर मजदूर 33 से बढ़कर 50 प्रतिशत हो गए।

किसानों के उबाल : संघर्ष और बगावतों की कोख से जन्मी किसान सभा

जाहिर है इस तरह की असहनीय स्थितियों में ग्रामीण आबादी में उबाल आना ही था। यही उबाल अनगिनत संघर्षों और बगावतों, विद्रोहों में उभर कर सामने आया। इन बगावतों का विस्तार अखिल भारतीय था। वे विराट थीं। क्रूर और अमानवीय दमन के बावजूद काफी अरसे तक चली थीं। अखिल भारतीय किसान सभा इन्हीं संघर्षों, बगावतों, विद्रोहों की सांगठनिक राजनीतिक अभिव्यक्ति थी है । 1855 की संथाल आदिवासियों की बगावत, 1875 में दक्खिन के किसानों का विद्रोह, मुम्बई में भील कोल, राजपूताना में मेव, कांची, छोटा नागपुर, खोंडस, उड़ीसा, गोंड मध्यप्रांत, मोपला मालाबार, सन्यासी और फकीर बगावतें और चौरीचौरा इनमें से कुछ नाम हैं। उत्तरप्रदेश में शायद ही कोई जिला बचा हो जहां ये बगावतें नहीं हुयी हों।भारत का पहला स्वतन्त्रता संग्राम 1857 की लड़ाई, जिसे सिपाही विद्रोह कहा गया, भी मूलतः इस किसान असंतोष विस्फोट था इसकी लामबंदी के लिए एक गाँव से दूसरे गाँव तक एक रोटी पर नमक और मांस का टुकड़ा रखकर भेजा जाना देसी किसानी प्रतीकात्मकता भर नहीं थी। दिल्ली फतह करने के बाद गठित शासन प्रणाली भी कमाल की मौलिक थी। इसलिए और ज्यादा मानीखेज कि यह पेरिस कम्यून के भी पहले हुयी थी। भारत का स्वतन्त्रता संग्राम मूलतः किसानों की लड़ाई था। गांधी द्वारा इसकी शुरुआत के लिए चम्पारण को चुनना अचानक लिया गया फैसला नहीं था। बिहार उस समय किसानों के विक्षोभ में डूबा हुआ था।नागपुर, खोंडस, उड़ीसा, गोंड मध्यप्रांत, मोपला मालाबार, सन्यासी और फकीर बगावतें और चौरीचौरा इनमें से कुछ नाम हैं। उत्तरप्रदेश में शायद ही कोई जिला बचा हो जहां ये बगावतें नहीं हुयी हों।भारत का पहला स्वतन्त्रता संग्राम 1857 की लड़ाई, जिसे सिपाही विद्रोह कहा गया, भी मूलतः इस किसान असंतोष विस्फोट था इसकी लामबंदी के लिए एक गाँव से दूसरे गाँव तक एक रोटी पर नमक और मांस का टुकड़ा रखकर भेजा जाना देसी किसानी प्रतीकात्मकता भर नहीं थी। दिल्ली फतह करने के बाद गठित शासन प्रणाली भी कमाल की मौलिक थी। इसलिए और ज्यादा मानीखेज कि यह पेरिस कम्यून के भी पहले हुयी थी। भारत का स्वतन्त्रता संग्राम मूलतः किसानों की लड़ाई था। गांधी द्वारा इसकी शुरुआत के लिए चम्पारण को चुनना अचानक लिया गया फैसला नहीं था। बिहार उस समय किसानों के विक्षोभ में डूबा हुआ था।

इन किसान संघर्षों दौरान बनी देश भर की किसान कमे को एकजुट करने के लिए श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय की अध्यक्षता में एक बैठक ने जयप्रकाश नारायण और प्रोफेसर एन जी रंगा के संयुक्त संयोजकत्व में एक समिति बनाई और इसे लखनऊ में किसानों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने का दायित्व सौंपा। गर्व की बात है कि अखिल भारतीय किसान सभा के संगठन के निर्माण के फैसले वाली बैठक की अध्यक्षता एक महिला ने की थी।

शुरुआत ही एकता के लिए संघर्ष और संघर्ष के लिए एकता की लड़ाई के साथ

सामंतों और अंग्रेजों की लूट के खिलाफ लड़ाइयों को चलाने के लिए किसानों ने खुद आगे बढाकर ग्राम सभाएं बनाई। इन्हीं ग्राम सभाओं ने अपने आपको जिले / जनपद के स्तर पर संगठित किया । यही जिला किसान सभाएं बाद में सूबाई कमेटियों तक पहुँची। अंततः यह सारे संघर्ष किसानों के एक संगठन में मूर्तिमान हुए। संघर्ष की इन विविध धाराओं में से विकसित हुआ किसान आंदोलन 11 अप्रैल 1936 को लखनऊ में हुए स्थापना सम्मेलन के साथ एक अखिल भारतीय संगठन अखिल भारतीय किसान सभा - में बदल गया। में बदल सम्मेलन की अध्यक्षता उस दौर के और कुल मिलाकर भारत के अब तक के सबसे महान किसान नेताओं में से एक स्वामी सहजानंद सरस्वती ने की। अपने उद्घाटन भाषण कि यह किसान संगठन पूर्ण में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया स्वतन्त्रता का हामी है और इसकी लड़ाई किसानों-मजदूरों और शोषितों को पूरी आर्थिक राजनीतिक ताकत दिलाने की लड़ाई है। प्रोफेसर एन जी रंगा इसके महासचिव चुने गए। तबसे इसका संघर्ष अनवरत रूप से जारी है।

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संस्थापक अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती

लाल झण्डे और मजदूर किसानों के औजारों को अपना निशान बनाने का फैसला

किसान सभा बनाने वाले देश के स्वतन्त्रता आंदोलन के नामी यौद्धा थे। तिरंगा झंडा लेकर जेल जाने, लाठी और गोलियां खाने वाले सैनानी थे। संगठन का नाम तय करने के बाद उन्होंने एकमत से निर्णय लिया कि अखिल भारतीय किसान सभा के हर सम्मेलन में तिरंगा फहराया जाएगा – मगर उसका खुद का झण्डा लाल होगा और इस पर किसान का हंसिया और मजदूर का हथौड़ा दोनों रहेंगे। नाम और झण्डे का मुद्दा सिर्फ नाम और झण्डे भर का सवाल नहीं था। यह किसानों की अपनी राजनीति और कार्यनीति दोनों से जुड़ा सवाल था। सार रूप में यह वैचारिक मोर्चे पर वर्ग संघर्ष की अभिव्यक्ति था। शुरुआत अखिल भारतीय किसान कांग्रेस के नाम से हुयी। मगर कांग्रेस नेताओं के रुख को देखने के बाद संगठन की स्वतंत्र छवि बनाने की जरूरत प्रमुख हो गयी और जुलाई 1937 में नाम अखिल भारतीय किसान सभा करने का निर्णय हो गया। लाल झण्डे का उपयोग किसान सभा पहले से ही कर रही थी मगर अक्टूबर 1937 में कलकत्ता में हुयी सीकेसी मीटिंग में हँसिये हथौड़े के साथ लालझण्डा संगठन का झण्डा बन गया। किसान सभा ने अपने पहले सम्मेलन से ही किसान मजदूरों की मुक्ति के लिए किसानों-खेतमजदूरों-गरीब किसानों और मजदूरों को मुक्तिकामी संघर्ष की धुरी बताया है लिहाजा हंसिया हथोड़ा होना सिर्फ प्रतीकात्मकता की बात नहीं थी। इसका रीति, नीति, रणनीति और कार्यनीति दोनों से सीधा ताल्लुक था। इसीलिये स्वामी सहजानन्द सरस्वती, एन जी रंगा, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव तक सभी अध्यक्षों ने जिनमे में से कोई भी कम्युनिस्ट नहीं था – ने इस झण्डे को किसान सभा का झंडा बनाया और अपने कन्धों पर इसे उठाकर किसान आंदोलनों को आगे बढ़ाया । इसलिए यह झंडा किसी राजनीतिक पार्टी का झण्डा नहीं है - किसानों का अपना झण्डा है जिसमें कोई फल, फूल, हाथ-पाँव, घोड़े-खच्चर नहीं दुनिया के सृजन में किसानो मजदूरों के रोज काम आने वाले औजार हंसिया हथौड़ा हैं। उसकी अपनी जिंदगी के सहारे ही उसके भविष्य के निर्माण के सहारे हैं।किसान सभा कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है। राजनीतिक पार्टियों के साथ किसान सभा के रिश्ते पर उसकी समझ एकदम साफ है। उसका संगठन आम किसानों का वास्तविक संगठन है। इसकी सदस्यता लेने तथा नेतृत्व में आने के लिए किसी भी तरह की राजनीतिक शर्त नहीं है। देश भर में 1 करोड़ 70 लाख से ज्यादा सदस्यता तक रखने वाली किसान सभा चुनाव नहीं लड़ती। कौन किसको वोट देता है, किस पार्टी में रहता है यह उसके साथ जुड़ाव का आधार नहीं है। स्थापना के वक्त से इसने तय किया हुआ है कि 18 वर्ष से ऊपर का कोई भी व्यक्ति 6 आना सदस्यता शुल्क देकर सदस्य बन सकता है। (अब सदस्यता राशि 2 रुपया वार्षिक कर दी गयी है। )

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जयप्रकाश नारायण

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आचार्य नरेन्द्र देव

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वर्ली आदिवासी विद्रोह की नायिका गोदावरी पारुलकर

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हरेकृष्ण कोनार

असाधारण संघर्षों का इतिहास

जिन महान संघर्षों ने अखिल भारतीय किसान सभा के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार की थी अपने निर्माण के बाद के जीवन में किसान सभा ने उन्हें आगे बढ़ाया। ये इतने अधिक और इतने विराट हैं कि इन्हें एक ग्रन्थ में भी नहीं समेटा जा सकता। इनमें से कुछ की बानगी काफी है बाकी की झलक दिखाने के लिए। आजादी की लड़ाई में किसानों की भागीदारी के लिए जरूरी था कि जमींदारों के अन्याय तथा प्रत्यक्ष शोषण के खिलाफ संघर्ष छेड़े जाएँ। इनकी शुरुआत 1936 से ही हो गयी थी। खुद इसके राष्ट्रीय नेताओं ने इनकी अगुआई की। सातवें सम्मेलन (अमृतसर 2-4 अप्रैल 1943 ) के दौरान ही कय्यूर के शहीदों को फांसी की खबर आयी थीआजादी के ठीक पहले तेलंगाना के किसानों का निजाम और उसके रजाकारों के खिलाफ शानदार सशस्त्र संग्राम ( अक्टूबर 1946 से 21 अक्टूबर 1951) चला। इसमें किसानों ने 3000 गाँवों राज स्थापित किया, 10 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन बांटी। इस तरह भूमि वितरण को तात्कालिक राष्ट्रीय एजेंडे पर लाया ।दूसरी बड़ी लड़ाई पुनप्रा व्यालार की लड़ाई थी। केरल के अलेप्पी जिले में खाद्य कपड़ों केरोसीन, चीनी की कमी के संकट और जमींदारों तथा नारियल रेशा उद्योग मालिकों के हमलों के खिलाफ अक्टूबर 1946 में यह बगावत हुयी। सैकड़ों किसानों की शहादतें हुईं।तीसरी बड़ी लड़ाई बंगाल के अनेक जिलों में एक साथ उभरा तेभागा आंदोलन था जो जोतदारों को उपज का एक और बंटाईदारों को दो हिस्से देने की मांग पर हुआ था।सूरमा वैली, गोरा घाटी, वर्ली आदिवासियों का विद्रोह आदि शानदार लड़ाईयां भी इतिहास का हिस्सा हैं। इनके अलावा चौथे दशक में बंगाल में खास लैंड और लगान को लेकर बिहार में बख्शत सत्याग्रह और पंजाब में टेनेन्सी बिल को लेकर संघर्ष हुए। छोटा नागपुर की आदिवासी लड़ाइयां और मध्यप्रांत में गोंडो और भीलों के संघर्षों में किसान सभा ने अगुआई की।पंजाब और पेप्सू के किसानों की बेटरमेंट लेवी की लड़ाई ने अपनी छाप छोड़ी।आजादी के बाद भूमि सुधार के वादे से कांग्रेस के मुकरने के चलते किसान सभा ने भूमि कब्जे की अनगिनत लड़ाईयां छेड़ी । 1960 का बंगाल का खाद्य आंदोलन भी हुआ।

साठ के दशक और उसके बाद केरल में तथा सत्तर के दशक में बंगाल में युनाइटेड फ्रंट की सरकारों के दौरान भूमि सुधार के के सरकार के फैसलों को लागू करवाने के लिए किसान मैदान में डटे और बाद में वाम मोर्चा के दौर में भूमि वितरण को संरक्षण देकर बंगाल ग्रामीण वर्ग संतुलन में बुनियादी बदलाव ला दिया। किसान सभा ने यही भूमिका त्रिपुरा में भी निबाही। किसानों के हितों की रक्षा, विश्व व्यापार संगठन सहित नवउदारीकरण के हमलों तथा पशु व्यापार पर साम्प्रदायिक हमलों से लेकर भूमि अधि ग्रहण कानून को उलटवाने और आदिवासियों के वनाधिकार तक के शानदार संघर्ष इस बीच हुए और किसान सभा इसकी धुरी रही। हाल के राजस्थान और महाराष्ट्र के देश भर में असर डालने वाले शानदार किसान आन्दोलनों सहित ताजे अतीत के आंदोलन हमारी स्मृति में हैं ही इसलिए उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); किसान सभा का इतिहास इन संघर्षों में सहे दमन और उनमे किये बलिदानों का इतिहास है। इसे यहां दोहराने की बजाय देश के किसानों की एकता बनाने और संघर्षों को आगे बढ़ाने में इसके योगदान पर नजर डाल लेते हैं। आज किसानों की विराट एकता दिखाई दे रही है। यह यह रातोंरात नहीं हुआ। इसके पीछे अखिल भारतीय किसान सभा द्वारा धीरज से किये गए जतन हैं।

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ए. के. गोपालन

किसानों की एकता बनाने की लड़ाई

अखिल भारतीय किसान सभा की कोशिश रही कि देश के सारे किसान एक साथ आएं। बाकी सभी किसान संगठनों को भी एक साझे मंच पर लाने के प्रयास किये जाते रहे। हाल के दौर में जब भारत की खेती-किसानी और देहातों के हर कोने को नवउदारीकरण ने अपनी विनाशलीला का रंगमंच बना दिया है तब यह काम और भी तेजी से किया जाना आवश्यक था। किसान सभा ने इसे सफलता के साथ निबाहा और देश के किसानों की अब तक के इतिहास की व्यापकतम एकता संगठित करने में अपनी भूमिका निबाही । सबसे पहले भूमि अधिकार आंदोलन बनाया गया। जो मोदी सरकार द्वारा 2014 में लाये गए भूमि अधिग्रहण कानून के विरुद्ध सफल संघर्ष का परिणाम था। इसमें 86 संगठन शामिल हैं। इसकी तरफ से दो दो संसद मार्च हुए। इसने पशु व्यापार पर रोक और उसकी आड़ में साम्प्रदायिक तथा जातीय आधार पर अल्पसंख्यकों एवं दलितों पर किये जा रहे हमलों के विरुद्ध अनेक आंदोलन चलाये। इसी के साथ किसान सभा ने देश भर में संघर्ष सन्देश जत्था निकाला जिसका समापन 24 नवम्बर 2016 की दिल्ली रैली में हुआ। इसने देश भर के अन्य किसान संगठनों को भी प्रेरित करने का काम किया।6 जून 2017 को मंदसौर (मध्यप्रदेश) में किसानों पर हुए गोलीकांड और 6 किसानो की मौत के बाद फसलों के वाजिब दाम तथा कर्ज मुक्ति का सवाल मुखर होकर सामने आया । इस गोलीकांड के खिलाफ सबसे पहले किसान सभा ने खुद वहां जाकर हस्तक्षेप किया, इसे देश भर का मुद्दा बनाया। अन्य संगठनो को जोड़ा और इस तरह अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का साझा मंच अस्तित्व में आया जिसमें अब तक 234 संगठन सदस्य बन चुके हैं। इस संयुक्त मंच की तरफ से फसल के दाम तय करने के लिए स्वामीनाथन आयोग के फार्मूले (लागत 50 प्रतिशत) अमल में लाने तथा कर्ज मुक्ति करने की मांग को लेकर अभियान चलाने के बाद 20-21 नवम्बर 2017 में दिल्ली पर किसान पार्लियामेंट लगाई गयी और इन दोनों कानूनों का मसविदा अपने सांसदों के माध्यम से संसद के दोनों सदनों में निजी कानून के रूप में रखवाया।यह एकता और इसके लिए चले अभियान का प्रभाव इतना था कि 21 राजनीतिक पार्टियां दिल्ली में इस मंच पर आईं और अपने पूर्ण समर्थन का एलान किया।अखिल भारतीय किसान महासंघ के नाम से एक संयुक्त समन्वय भी विकसित हुआ। किसान सभा इसमें भी शामिल है।

यही एकता है जो बाद में तीनों कृषि कानूनों के खात्मे और एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग को लेकर दिल्ली की पाँचों बॉर्डर्स पर डटी और देश भर में किसान लामबन्दियों की अगुआई करने वाले संयुक्त किसान मोर्चे तक पहुँची है। इस तरह भारत का किसान अपने अस्तित्व और स्वाभिमान, जमीन और जिंदगी के लिए लगातार लड़ता रहा है। पहले राजे रजवाड़ों उसके बाद अंग्रेजों से लड़ा और अब कारपोरेटों के सामने एकजुट होकर खड़ा है। इन संघर्षों के दौरान ही उसने अपनी एकता बढ़ाई, लड़ाई के औजार गढ़े अपना इतिहास रचा भी लिखा भी। अखिल भारतीय किसान सभा इन्ही में हासिल हुआ मजबूत औजार है। उसका इतिहास इन्हीं किसानों द्वारा अपने हकों और भारतीय समाज की मेहनतकश आबादी के सबसे बड़े हिस्से के संघर्षों, उपलब्धियों और ताकत में लगातार वृद्धि का ऐसा इतिहास है जो वर्तमान से भिड़ंत करते हुए भविष्य की राह खोलने की सामथ्र्य रखता है।

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अंग्रेजों ने भारतीय किसान पर क्या थोपा?

1857 से 50 साल पहले ही अंग्रेजों ने किसानों पर नील की खेती करना थोप दिया था. नील यानी ब्लू डाई की तब यूरोप में जबरदस्त मांग होती थी. सफेद कपड़ों और सफेद मकानों से भद्र लोगों की मुहब्बत के कसीदों से इतिहास भरा पड़ा है. हां, इस सफेद रंग को चमकदार बनाने के लिए नील की खेती में भारत के किसानों की पीढ़ियां बर्बाद हो गयीं.

अंग्रेज ने किसानों पर क्या अत्याचार करते थे?

अंग्रेजों ने तिकड़म लगाकर इन तीन घरानों से खेती योग्य भूमि हथिया ली। अंग्रेजों ने अपना व्यापार व मुनाफा बढ़ाने के लिए खेती में तीन कठिया प्रथा लागू की। इसके लिए बनाए गए नियम के मुताबिक प्रत्येक किसान को अपने 20 कट्ठा (एक बीघा) भूमि में से तीन कट्ठा भूमि में नील की खेती करना अनिवार्य था।

1857 के विद्रोह में किसानों की क्या भूमिका थी?

गाँवों में किसान और ज़मींदार भारी-भरकम लगान और कर वसूली के सख्त तौर-तरीकों से परेशान थे। बहुत सारे लोग महाजनों से लिया कर्ज़ नहीं लौटा पा रहे थे। इसके कारण उनकी पीढ़ियों पुरानी ज़मीनें हाथ से निकलती जा रही थीं। कंपनी के तहत काम करने वाले भारतीय सिपाहियों के असंतोष की अपनी वजह थी

अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह को कुचलने के लिए क्या कदम उठाए?

में गाँव-गाँव जाकर बात की और लोगों को अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह के लिए तैयार किया । बहुत सारे दूसरे स्थानों की तरह यहाँ भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आंदोलन एक व्यापक विद्रोह में तब्दील हो गया।