असाध्य वीणा Show आ गए प्रियंवद! केशकंबली! गुफा-गेह! लघु संकेत समझ राजा का 'यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रांतर से राजा रुके साँस लंबी ले कर फिर बोले : केशकंबली गुफा-गेह ने खोला कंबल। ध्यान-मात्र इन का तो गद्गद विह्वल कर देने वाला है!' चुप हो गया प्रियंवद। वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया। पर उस स्पंदित सन्नाटे में 'ओ विशाल तरु! 'नहीं, नहीं! वीणा यह मेरी गोद रखी है, रहे, 'गा तू! 'हाँ, मुझे स्मरण है : 'हाँ, मुझे स्मरण है : 'मुझे स्मरण है : और साँझ को 'मुझे स्मरण है : 'मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं! राजा जागे। सहसा वीणा झनझना उठी- डूब गए सब एक साथ। राजा ने अलग सुना : रानी ने अलग सुना : सब ने भी अलग-अलग संगीत सुना। इसे संझा-गोधूली की लघु टुन-टुन- वीणा फिर मूक हो गई। साधु! साधु!! राजा सिंहासन से उतरे- संगीतकार नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकंबली। प्रिय पाठक! यों मेरी वाणी भी उधार सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी सब से उधार माँगा, सब ने दिया। मैंने कहा : प्यार? उधार? रहस्यवाद मैं भी एक प्रवाह में हूँ- उड़ चल हारिल उड़ चल हारिल, लिए हाथ में यही अकेला ओछा तिनका। शक्ति रहे तेरे हाथों में-छुट न जाए यह चाह सृजन की; ऊपर-ऊपर, ऊपर-ऊपर-बढ़ा चीरता चल दिङ्मंडल : सावन-मेघ घिर गया नभ, उमड़ आए मेघ काले, ऋतुराज शिशिर ने पहन लिया वसंत का दुकूल जन्म-दिवस मैं मरूँगा सुखी देखती है दीठ हँस रही है वधू-जीवन तृप्तिमय है एक ऑटोग्राफ अल्ला रे अल्ला पराजय है याद भोर वेला-नदी तट की घंटियों का नाद। दूर्वांचल पाश्र्व गिरि का नभ्र, चीड़ों में शरणार्थी-6 समानांतर साँप केंचुलें हैं, केंचुलें हैं, झाड़ दो। सो रहा है झोंप सो रहा है झोंप अँधियाला नदी की जाँघ पर : हमारा देश इन्हीं तृण फूस-छप्पर से नई व्यंजना तुम जो कहना चाहोगे विगत युगों में कहा जा चुका : कवि, हुआ क्या फिर कवि, हुआ क्या फिर पहला दौंगरा गगन में मेघ घिर आए। कलगी बाजरे की हरी बिछली घास। नदी के द्वीप हम नदी के द्वीप हैं। काँगड़े की छोरिया काँगड़े की छोरियाँ कुछ भोरियाँ सब गोरियाँ आज तुम शब्द न दो आज तुम शब्द न दो, न दो, कल भी मैं कहूँगा। यह दीप अकेला यह दीप अकेला स्नेह भरा साँप साँप! तुम सभ्य तो हुए नहीं- मैं वहाँ हू दूर-दूर-दूर... मैं वहाँ हूँ। यह जो कचरा ढोता है दूर-दूर-दूर... मैं वहाँ हूँ। मैं आस्था हूँ तो मैं निरंतर उठते रहने की शक्ति हूँ? सर्जना के क्षण एक क्षण भर और रहने दो मुझे अभिभूत : शब्द और सत्य यह नहीं कि मैंने सत्य नहीं पाया था पूनो की साँझ पति सेवारत साँझ मानव अकेला भीड़ों में चिड़िया की कहानी उड़ गई चिड़िया नया कवि : आत्म-स्वीकार किसी का सत्य था, इशारे ज़िंदगी के ज़िंदगी हर मोड़ पर करती रही हमको इशारे नंदा देवी नंदा, जियो, मेरे जियो, मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो जियो, मेरे आज़ाद देश के शानदार शासको जियो, मेरे आज़ाद देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधियो जियो, मेरे आज़ाद देश के रौशन ज़मीर लोक-नेताओ : देवता अब भी देवता अब भी कहीं की ईंट कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा अपने प्रेम के उद्वेग में अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुम से कहता हूँ, वह सब पहले कहा जा चुका है। चुक गया दिन 'चुक गया दिन'- एक लंबी साँस घृणा का गान सुनो, तुम्हें ललकार रहा हूँ, सुनो घृणा का गान! तुम, जो बड़े-बड़े गद्दों पर ऊँची दूकानों में, तुम, जो महलों में बैठे दे सकते हो आदेश, तुम, जो पा कर शक्ति कलम में हर लेने की प्राण- तुम, जो मंदिर में वेदी पर डाल रहे हो फूल, तुम, सत्ताधारी, मानवता के शव पर आसीन, अचरज आज सवेरे एक घने, पर धूल-भरे-से अर्जुन तरु के नीचे मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! तुम विमुख हो, किंतु मैंने कब कहा उन्मुख रहो तुम? क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी? रात आती है, मुझे क्या? मैं नयन मूँदे हुए हूँ, मूक संसृति आज है, पर गूँजते हैं कान मेरे, जगत है सापेक्ष, याँ है कलुष तो सौंदर्य भी है, वेदना अस्तित्च की, अवसान की दुर्भावनाएँ- बह गया जग मुग्ध-सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! आज थका हिय-हारिल मेरा! इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा? दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता, ऊषा से ही उड़ता आया, पर न मिल सकी तेरी झाँकी तृषित, श्रांत, तम-भ्रांत और निर्मम झंझा-झोंकों से ताड़ित- गा उठते हैं, 'आओ आओ!' केकी प्रिय घन को पुकार कर चातक-तापस तरु पर बैठा स्वाति-बूँद में ध्यान रमाये, हारिल को यह सह्य नहीं है- वह पौरुष का मदमाता है : 'बैठो, रहो, पुकारो-गाओ, मेरा वैसा धर्म नहीं है; तुम प्रिय की अनुकंपा माँगो, मैं माँगूँ अपना समकक्षी यों कहता उड़ जाता हारिल ले कर निज भुज-बल का संबल कोई गाता, किंतु सदा मिट्टी से बँधा-बँधा रहता है, चातक हैं, केकी हैं, संध्या को निराश हो सो जाते हैं, कोई प्यासा मर जाता है, कोई प्यासा जी लेता है आज प्राण मेरे प्यासे हैं, आज थका हिय-हारिल मेरा मुझे उतरना नहीं भूमि पर तब इस सूने में खोऊँगा पर प्रिय! अंत समय में क्या तुम इतना मुझे दिलासा दोगे- इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा? आशी : फूल काँचनार के, सुमन-वृंत बावले बबूल के! बूर बिखराता जा पराग अंगराग का, कली री पलास की! वासना-सी मुखरा, वेदना-सी प्रखरा वीर-बहू एक दिन देवदारु-वन बीच छनी हुई बालुका में अँकी-सी रहस्यमयी वीर-बहू पानी बरसा! ओ पिया, पानी बरसा! घास हरी हुलसानी खडख़ड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात। राह बदलती नही राह बदलती नहीं- प्यार ही सहसा मर जाता है, इत्यादि किसकी कविता है?इसलिए कभी कभी पुलिस की गोली से मार दिए जाते थे। कुछ तो ऐसी दुर्घटना में भी इत्यादि रह जाते थे।
राजेश जोशी की कविता का नाम क्या है?मुख्य रचनाएँ
'समरगाथा- एक लम्बी कविता', 'एक दिन बोलेंगे पेड़', 'मिट्टी का चेहरा', 'दो पंक्तियों के बीच', 'पतलून पहना आदमी धरती का कल्पतरु'।
नागार्जुन की कविता कौन कौन सी है?कविता-संग्रह. हज़ार-हज़ार बाहों वाली / नागार्जुन. सतरंगे पंखोवाली / नागार्जुन. खिचड़ी विप्लव देखा हमने / नागार्जुन. युगधारा / नागार्जुन. इस गुब्बारे की छाया में / नागार्जुन. मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा / नागार्जुन. अपने खेत में / नागार्जुन. भूल जाओ पुराने सपने / नागार्जुन. कविता कितने प्रकार के होते हैं?काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य दो प्रकार का होता है, गद्य और पद्य।
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