पूर्वरागपहला गीतओ पथ के किनारे खड़े छायादार पावन अशोक-वृक्ष Show
फिर भी
तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया, दूसरा गीतयह जो अकस्मात् सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को- पर हाय मुझे क्या मालूम था तीसरा गीतघाट से लौटते हुए दिन पर दिन बीतते गये और मुझे क्या मालूम था कि इस सम्पूर्ण के लोभी तुम चौथा गीतयह जो दोपहर के सन्नाटे में क्या तुम समझते हो कि मैं नहीं, मेरे साँवरे ! मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है यह क्या तुम समझते हो पाँचवाँ गीतयह जो मैं गृहकाज से अलसा कर अक्सर यह पछतावा अब मुझे हर क्षण कैसे हो जी तुम ? और जब वापस नहीं आना चाहती मंजरी-परिणयआम्र-बौर का गीतयह जो मैं
कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्यमयी लीला की एकान्त संगिनी मैं भय, संशय, गोपन, उदासी गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली
आँखों से ++ +++ आम्र-बौर का अर्थअगर मैं आम्र-बौर का ठीक-ठीक
कितनी बार जब तुम ने अर्द्धोन्मीलित कमल भेजा आज अगर आम के बौर का संकेत नहीं भी
मैं मानती हूँ तुम ने कितनी बार कहा है: तुम ने कितनी बार कहा है: हाँ चन्दन, मुझे नित नये शिल्प मे ढालने वाले ! मैं क्यों भूल गयी थी कि तुम्हारे इस अत्यन्त रहस्यमय संकेत को सुनो मेरे मित्र और मान लो न भी रीते मेरे हर बावलेपन पर आज इस निभृत एकांत में आम के बौर की महक तुर्श होती है- आम का वह पहला बौर तो क्या तुम्हारे पास की डार पर खिली यह क्यों मेरे प्रिय! और जब तुम ने कहा कि, “माथे पर पल्ला डाल लो!” हाय! मैं सच कहती हूँ कि श्याम ले लो! श्याम ले लो! फिर मैं उपनी माँग पर आज इस निभृत एकांत में छोड़ क्यों देता ही प्रिय? तुम मेरे कौन होतुम मेरे कौन हो कनु बार-बार मुझ से मेरे मन ने बार-बार मुझ से मेरी सखियों ने बार-बार मुझ से मेरे गुरुजनों ने
मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पाई अक्सर जब तुम ने अक्सर जब तुम ने अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है ‘कनु मेरा लक्ष्य है, मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!’ पर जब तुम ने दुष्टता से पर दूसरे ही क्षण और जब मैंने सखियों को बताया कि लेकिन जब तुम्हीं ने बन्धु किन्तु दूसरे ही क्षण पर जब मुझे चेत हुआ इस यात्रा का आदि न तो तुम्हें स्मरण है न मुझे पर तुम इतने निठुर हो मेरे साँवले समुद्र सृष्टि-संकल्पसृजन-संगिनीसुनो मेरे प्यार- इनका अन्तिम अर्थ आखिर है क्या? यदि इस सारे सृजन, विनाश, प्रवाह कौन है वह वह मैं हूँ मेरे प्रियतम! और यह समस्त सृष्टि रह नहीं जाती यह निखिल सृष्टि लय हो जाती है और मैं प्रसुप्त, संज्ञाशून्य, और लो और मैं फिर थक कर सो जाती हूँ और यह प्रवाह में बहती हुई तुम्हारी सम्पूर्ण सृष्टि का अर्थ है और तुम्हारी सम्पूर्ण इच्छा का अर्थ हूँ आदिम भयअगर यह निखिल सृष्टि अगर ये उत्तुंग हिमशिखर अगर यह चाँदनी में अगर ये उमड़ती हुई मेघ-घटाएँ अगर सूर्यास्त वेला में और अगर यह रात मेरी प्रगाढ़ता है तो यह तो बताओ मेरे लीलाबंधु – क्यों मेरे लीलाबन्धु और अक्सर जब मैंने और अगर ये सारे रहस्य मेरे हैं और अगर यह चन्द्रमा मेरी उँगलियों के – उद्दाम क्रीड़ा की वेला में सुनो मेरे बन्धु केलिसखीआज की रात हवा के हर झोंके का स्पर्श और यह क्यों लगता है और ऐसा क्यों भान होने लगा है और भय, मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है और यह मेरा कसाव निर्मम है यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा है उठो मेरे उत्तर! और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से आओ मेरे अधैर्य! तुम्हारी अंतरंग केलिसखी! इतिहासविप्रलब्धाबुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चाँद, कौन था वह सेतु : मैंनीचे की घाटी से सुनो कनु, सुनो अब इन सूने शिखरों, मृत्यु-घाटियों में बने - जिस को जाना था वह चला गया उसी आम के नीचेउस तन्मयता में आम-मंजरियों से भरी हुई मांग के दर्प में पर इतना जरूर जानती हूँ न, और ज्यों ही सचेत हो कर (उसे मिटाते दुःख क्यों नहीं होता कनु! --- लेकिन मैं कुछ नहीं सोच पाती वह
सब अब भी नया है उस तन्मयता में - आम-मंजरी से सजी माँग को अमंगल छायाघाट से आते हुए उजड़े हुए कुंज आज उस पथ से अलग हट कर खड़ी हो यह आम्रवृक्ष की डाल आज यह आम की डाल और यह पथ के किनारे खड़ा दुःख क्यों करती है पगली उदास क्यों होती है नासमझ गर्व कर बावरी! एक प्रश्नअच्छा, मेरे महान् कनु, मान लो कि तो भी मैं क्या करूँ कनु, अपनी जमुना में धारा में बह-बह कर आते हुए, टूटे रथ हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ जितनी समझ अब तक तुमसे पाई है कनु, मान लो कि मेरी तन्मयता के गहरे क्षण शब्द : अर्थहीनपर इस सार्थकता को तुम मुझे शब्द, शब्द, शब्द……. - तुम्हारा साँवरा लहराता हुआ जिस्म मैं कल्पना करती हूँ कि कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व, और तुम्हारे जादू भरे होठों से शब्द, शब्द, शब्द, फिर उन शब्दों से समुद्र-स्वप्नजिसकी शेषशय्या पर लहरों के नीले अवगुण्ठन में और मैंने देखा कि अन्त में तुम आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु! विष भरे फेन, निर्जीव सूर्य, निष्फल सीपियाँ, निर्जीव
मछलियाँ…. अन्त में तुम हार कर, लौट कर, थक कर नींद में तुम्हारे होठ
धीरे-धीरे हिलते हैं तुम्हारे माथे पर पसीना झलक आया है और तुम फिर उदास हो कर किनारे बैठ जाते हो तट पर जल-देवदारुओं में समुद्र के किनारे नारियल के कुंज हैं और चारों ओर और इस क्षण काँपती हुई दीप लौ जैसे उतरता हुआ अँधियारा…… समुद्र की लहरें और अब इस क्षण में तुम सब त्याग कर समापनसमापनक्या तुमने उस वेला मुझे बुलाया था कनु ? इसी लिए तब क्योंकि मुझे फिर आना था ! तुमने मुझे पुकारा था न और जन्मांतरों की अनन्त पगडण्डी के सुनो मेरे प्यार ! बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता सुनो मेरे प्यार ! मैं आ गई हूँ प्रिय ! तुमने मुझे पुकारा था न! मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर कनुप्रिया के लिए शब्द क्या है?कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व।
कनुप्रिया कविता में आज कौन सा वृक्ष खंड खंड हो जाएगा?अब अशोक वृक्ष पर अमंगल की छाया पड़ चुकी है और यह युद्ध के परिणाम की भेंट चढ़ने वाला है—“और यह पथ के किनारे खड़ा/ छायादार पावन अशोक वृक्ष/ आज खंड-खंड हो जाएगा तो क्या—/ यदि ग्रामवासी, सेनाओं के स्वागत में/ तोरण नहीं सजाते/ तो क्या सारा ग्राम नहीं उजाड़ दिया जाएगा?”[v] इसी तरह पहले सर्ग के 'तीसरे गीत' में कदंब वृक्ष का ...
राधा को क्यों लगता है कि वह सिर्फ एक सेतु थी कनु के लिए?(५) प्रतीक विधान : राधा कनु को संबोधित करते हुए कहती है कि मेरे प्रेम को तुमने साध्य न मानकर साधन माना है। इस लीला क्षेत्र से युद्ध क्षेत्र तक की दूरी तटा करने के लिए तुमने मुझे ही सेतु बना दिया। यहाँ लीला क्षेत्र और युद्ध क्षेत्र को जोड़ने के लिए सेतु जैसे प्रतीक का प्रयोग किया गया है।
कनुप्रिया के लेखक कौन हैं?धर्मवीर भारतीकनुप्रिया / लेखकnull
|