॥श्रीगणेशाय नमः॥ आकाशवदनन्तोऽहं घटवत् प्राकृतं जगत्। मेरी लगी
श्याम संग प्रीत ये दुनिया क्या जाने!
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः। असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे। त्वमेव माता च पिता त्वमेव। कर्पूरगौरं करुणावतारं,संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम्।
पुष्पाणि सन्तु तव देव ममेन्द्रियाणि। ॥तुम भोले भाले शम्भो…॥ भववारण कारण कर्मततौभवसिन्धुजले शिव
मग्नमत:। ॐ अघोरेभ्यो,अथ घोरेभ्यो, घोर घोरतरेभ्यः। न जानामि योगं जपं नैव पूजां। पार्वतीनन्दनं शम्भोरानन्दपरिवर्धनम्। मित्रों! जब हम मंदिर में दर्शन करने जाते हैं तो खुली आंखों से भगवान को देखना चाहिए,निहारना चाहिए,उनके दर्शन करना चाहिए।कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं।आंखें बंद क्यों करना हम तो बिग्रह दर्शन करने आए हैं।भगवान के स्वरूप का,श्री चरणों का,मुखारविंद का,श्रंगार का,संपूर्णानंद लेंना चाहिए।आंखों में भर ले स्वरूप का दर्शन करना चाहिए और दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठे तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किए हैं उस स्वरूप का ध्यान करें।मंदिर में नेत्र नहीं बंद करना।बाहर आने के बाद पैड़ी पर बैठकर जब ठाकुर जी का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें और अगर ठाकुर जी का स्वरूप ध्यान में नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और भगवान का दर्शन करें।नेत्रों को बंद करने के पश्चात यह प्रार्थना करें:- अनायासेन मरणम्,विना देन्येन जीवनम्। ‘अनायासेन मरणम्’ -बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और हम कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर पड़े पड़े।कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हो,चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं। हे मेरे प्रभु ! मेरे ह्रदय में विराजमान हों। ॥तुभ्यं नमामि
नारायणाय॥ जिस देश में,जिस भेष में,जिस धाम में रहो। ॥मृत्युके पश्चात मनुष्य के साथ यह जाता है॥ ॐ पितृगणाय विद्महे!जगत धारिणी धीमहि!! नमामीशमीशान निर्वाण रूपं,विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम्। मित्रो!शिव को ही रुद्र कहा जाता है।क्योंकि-रुतम्-दु:खम्,द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं।हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं।रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है।रूद्र शिव जी का ही एक स्वरूप हैं।रुद्राभिषेक मंत्रों का वर्णन ऋग्वेद,यजुर्वेद और सामवेद में भी किया गया है।शास्त्र और वेदों में वर्णित हैं की शिव जी का अभिषेक करना परम कल्याणकारी है।रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे पातक कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।’रूद्रहृदयोपनिषद‘ में शिव के बारे में कहा गया है कि-‘सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:’ अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।इसको करना परम कल्याण कारी है।रुद्राभिषेक अद्भुत व् शीघ्र फल प्रदान करने वाला होता है।हमारा यह निजी अनुभव भी है। ॥ॐ शिव ॐ शिव…॥ ध्यायामि शीतलां देवीं,रासभस्थां दिगम्बराम्। ॥मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे॥ ॥तुमसे मिलने से पहले न निकले ये दम॥ ॥सांवरे से मिलने का सत्संग ही बहाना है॥ एक बार सन्त तुलसीदासजी से एक भक्त ने पूछा: कभी-कभी भक्ति करने को मन नहीं करता फिर भी नाम जपने के लिये बैठ जाते है,क्या उसका भी कोई फल मिलता है? वन्दे नितरां भारतवसुधाम्। ॥उत्तराखंड की धार्मिक स्थानों की यात्राएँ॥ ॥उत्तरप्रदेश की धार्मिक स्थलों की यात्राएँ॥ ॥हिमाचल
प्रदेश की धार्मिक स्थानों की यात्राए॥ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥-(ऋग्वेद) उत्तराखंड की धार्मिक स्थानों की यात्राएँ:- १- श्रीबद्रीनाथ धाम,उत्तराखंड:- श्री बद्रीवन विच बद्री तरू तल बद्रीकाश्रम शोभितम्। पवन मंद सुगंध शीतल हेम मंदिर शोभितम्, वन्दे श्रीनारसिंहं गरुड़सुरमुनिक्रोडकेदारगङ्गा। ॥सर्वबाधा निवारक
घंटाकर्ण मंत्र॥ बहूनि सन्ति तीर्थानि,दिवि
भूमौ रसातले। श्री बद्रीनाथ धाम दो पर्वतों पर स्थित है जिन्हें नर-नारायण के नाम से जाना जाता है। भू-वैण्ठकृतावासं देवदेवं जगत्पतिम्। बदरीनाथ में “ब्रह्मकपाल” में पिण्डदान; ॥श्री हनुमान
चट्टी॥ २-श्री केदारनाथ:- वंदे देवम् उमापतिम् सुरगुरूं,वंदे जगत कारणम्। जय केदार उदार शंकर,मन भयंकर दु:ख हरम्। ॥लिङ्गाष्टकम्॥ पशूनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्। ॥जय केदारनाथ जी॥ केदारनाथ धाम यानी भगवान शिव की पावन स्थली। देश के प्रसिद्ध द्वादश
ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ धाम में भगवान शिव लिंग रूप में विराजमान हैं।इसका उल्लेख स्कंद पुराण के केदार खंड में भी हुआ है।यहां पहुंचने वाले श्रद्धालु कण-कण में भगवान शिव की उपस्थिति की अनुभूति करते हैं।कहा जाता है कि पांडवों के वंशज जन्मेजय ने यहां इस मंदिर की स्थापना की थी।मंदिर का निर्माण कत्यूरी शैली में हुआ है।श्री केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है।उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में
सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पंच केदार में से भी एक है।यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्य ही दर्शन के लिए खुलता है।पत्थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डव वंश के जनमेजय ने कराया था।यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है।आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया।श्री केदारनाथ धाम,रुद्रप्रयाग।माताजी,धर्मपत्नी एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ। ॥जय पँच केदारजी॥ ॥श्री शिवाष्टक स्तोत्रं॥ ॥मैं तुमको शीश नवाता हूँ और धन्य धन्य हो जाता हूँ॥ जहाँ पवन बहे संकल्प लिए,जहाँ पर्वत गर्व सिखाते हैं, अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्। ३- गंगोत्री :- गंगोत्री गंगा नदी का उद्गम स्थान है।गंगाजी का मंदिर,समुद्र तल से ३०४२ मीटर की ऊँचाई (ASML) पर स्थित है।भागीरथी के दाहिने ओर का परिवेश अत्यंत आकर्षक एवं मनोहारी है।यह स्थान उत्तरकाशी से लगभग १०० किमी की दूरी पर स्थित है।गंगा मैया के मंदिर का निर्माण गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा १८वी शताब्दी के शुरूआत में किया गया था वर्तमान मंदिर का पुननिर्माण जयपुर के राजघराने द्वारा किया गया था।प्रत्येक वर्ष मई से अक्टूबर के महीनो के बीच पतित पावनी गंगा मैंया के दर्शन करने के लिए लाखो श्रद्धालु तीर्थयात्री यहां आते है।यमुनोत्री की ही तरह गंगोत्री का पतित पावन मंदिर भी अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर खुलता है और दीपावली के दिन मंदिर के कपाट बंद होते है।गंगोत्रीमन्दिर,उत्तरकाशी में माताजी,धर्मपत्नी एवँ दोनों पुत्र दीपक एवँ अनुराग के साथ गङ्गा स्नान एवं मन्दिर में माँ गङ्गा को प्रणाम किया। ४-श्री यमुनोत्री मन्दिर,उत्तरकाशी:- सर्वलोकस्य जननी देवी त्वं पापनाशिनी। आवाहयामि यमुने त्वं श्रीकृष्ण भामिनी॥ ५- माँ चन्द्रबदनी मंदिर:- दृष्ट्वा तां चन्द्रबदनां विश्वानन्दन तत्पराम्। महान्तं
विश्वासं तव चरणपङ्केरुयुगे निधायान्यन्नैवाश्रितमिह मया दैवतमुमे। सर्वस्वरूपे सर्वेशे
सर्वशक्ति-समन्विते। ६- माँ धारी देवी मंदिर:- काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी। ॐ नमस्ते चंडिके चण्डी चण्डमुण्डविनाशिनिम्। ७- देवलगढ़ की
गौरा माँ मन्दिर :- देवलगढ़ एक पहाड़ीपर स्थिति है।यह उत्तराखंड के पौड़ी जिले में स्थित है और एक अन्य लोकप्रिय पर्यटन स्थल खिरसू से १५ किलोमीटर दूर स्थित है।इस स्थान का नाम कांगड़ा के राजा देवल से पड़ा है जिसने इस शहर की स्थापना की थी।श्रीनगर से पहले,१६ वीं शताब्दी में अजय पाल के शासनकाल के दौरान देवलगढ़ गढ़वाल साम्राज्य की राजधानी था। अपने अतीत के अतीत के कारण,यह शहर अपने पूजनीय मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है।विशेषकर “राज राजेश्वरी” मंदिर।जो अति सुंदर प्राचीन गढ़वाली
वास्तुकला को दर्शाता है जो इस खूबसूरत शहर को सुशोभित करता है।माँ की कृपा से गौरा माँ एवं समीप ही माँ राज राजेश्वरी माँ के दर्शनों का हम पति-पत्नी को परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ।देवलगढ़ का पहाड़ी शहर तब लोकप्रिय हुआ जब गढ़वाल राज्य के राजा अजयपाल ने अपनी राजधानी को चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ स्थानांतरित कर दिया। ८-राज राजेश्वरी माँ मन्दिर देवलगढ़:- ॥श्रीराजराजेश्वरीम्…॥ श्री राज-राजेश्वरी मंदिर पौड़ी गढ़वाल,उत्तराखंड के देवलगढ़ में प्रसिद्ध तीर्थस्थल है।यहाँ बड़ी संख्या में भक्तों को आकर्षित करता है भक्त यहाँ देवी से आशीर्वाद लेने के लिए आते हैं।४००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित,मंदिर देवी राजेश्वरी माँ को समर्पित है जो गढ़वाल राजाओं के स्थानीय देवता हैं।हर साल अप्रैल के महीने में मेला लगता है।धार्मिक महत्व के अलावा,मंदिर पुरातत्व दृष्टिकोण से भी एक सुप्रसिद्ध है।हम पति-पत्नी को माँ के दरबार मेंदो बार पूजा अर्चना करने का मौका मिला है।इसमें एक बार हमारे सँग छोटा बेटा अनुराग,बहू ऋतु एवं पोती नैवेद्या सम्लित थीं। ॥श्री राजराजेश्वरी अष्टकम्॥ ९- डाण्डा का नागराजा मन्दिर:- डांडा नागराजा मंदिर,कोट विकास क्षेत्र के चार गाँव नौड,रीई,सिल्सू एव लसेरा का प्रसिद्द धाम है,जिसका इतिहास १४० साल पुराना है।डांडा नागराजा मंदिर की मान्यता के अनुसार १४० वर्ष पहले लसेरा में गुमाल जाति के पास एक दुधारू गाय थी,जो डांडा में स्थित एक पत्थर पर हर दिन अपने दूध से निल्हाती थी,जिसकी वजह से घर के लोगों को उसका दूध नहीं मिल पाता था इसलिए गुस्से में आकर गाय के मालिक ने गाय के ऊपर कुल्हाड़ी से वार किया।मगर कुल्हाड़ी का वार गाय को कुछ नहीं कर पाया और कुल्हाड़ी का वार सीधा जाकर उस पत्थर पर लगा जिसे गाय दूध से निल्हाती थी।कुल्हाड़ी के वार से वह पत्थर दो भागों में टूट गया और इसका एक भाग आज भी डांडा नागराजा में मौजूद है।इस क्रूर घटना के बाद गुमाल जाति पूरी तरह से समाप्त हो गई।पौराणिक कथा के अनुसार यह स्थान भगवान श्री कृष्ण को अत्यधिक भा गया था,जिसके लिए उन्होंने नाग का रूप धारण करके लेट-लेट के इस स्थान की परिक्रमा की,तभी से इस मंदिर का नाम डांडा नागराजा पड़ गया।नाग और साँपों को महाभारत में महर्षि कश्यप और दक्ष प्रजाति पूरी कद्रू का संतान बताया गया था।पुराकाल से ही मध्य हिमालय में नागराजा लोकिक देवता के रूप में ही परिचित है।यह मंदिर पहाड़ी की ऊँचाई पर स्थित है,जहाँ से माँ चन्द्रबदनी(टिहरी),देवप्रयाग के ऊपरी गांव रामपुर,काण्डाधार,कोटी आदि, भैरवगढ़ी(कीर्तिखाल),महाबगढ़(यमकेश्वर),कंडोलिया(पूरी) की पहाड़ियों का सुन्दर दृश्य साफ़ नज़र आता है।अपनी माँ के साथ बचपन से ही इस मन्दिर में जाता रहा हूँ।विगत सालों में हम सपत्नी एक बार ज्येष्ठ पुत्र दीपक,बहू शालिनी,पोता विहान के साथ व एक बार छोटे पुत्र अनुराग,बहु ऋतु एवँ पोती नैवेद्या के सँग नागराजा के दर्शनों के लिए गए हैं। १०- माँ काली मंदिर ऊखीमठ:- कालीमठ मंदिर रुद्रप्रयाग में स्थित है।यहां से करीब आठ किलोमीटर खड़ी चढ़ाई के बाद कालीशिला के दर्शन होते हैं।विश्वास है कि मां दुर्गा शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज का संहार करने के लिए कालीशिला में १२ वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हुई थीं। कालीशिला में देवी-देवताओं के ६४ यंत्र हैं।मान्यता है कि इस स्थान पर शुंभ-निशुंभ दैत्यों से परेशान देवी-देवताओं ने मां भगवती की तपस्या की थी।तब मां प्रकट हुई। असुरों के आतंक के बारे में सुनकर मां का शरीर क्रोध से काला पड़ गया और उन्होंने विकराल रूप धारण कर लिया।मां ने युद्ध में दोनों दैत्यों का संहार कर दिया।मां को इन्हीं ६४ यंत्रों से शक्ति मिली थी।अपनी केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर माँ गोदाम्बरी सँग ऊखीमठ “माँ काली” के इस मन्दिर में हम सपत्नीक छोटे पुत्र अनुराग के सँग माँ के दरबार में पहुँचे।माताजी,धर्मपत्नी एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ। ॥श्री महाकाली स्तवन॥ ॥माँ महाकाली की आरती॥ ११-जागेश्वर धाम :- ॥शिव स्तुति:॥ रुद्र ही जगतपति और सर्वज्ञ हैं।ये ही देवताओं अर्थात इन्द्रादि की उतपत्ति और ऐश्वर्य प्राप्ति का कारण हैं।इनकी दो आकृतियां हैं,जिनमें एक घोरा(संहारकारी) और दूसरी अघोरा (मंगलकारी) है।जो अघोरा-शिवा यानी आल्हादकारिणी और पापकाशिनी है,जिसके स्मरण मात्र से ही समस्त पापों का नाश हो जाता है,हे गिरिशन्त!उस पूर्णानन्द स्वरूप
मूर्ति में रहकर हमारे सुख का विस्तार करें,हमें कल्याण पथ से युक्त करें। निराकारमोङ्करमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम्। ॥शिव स्तुति॥ १२- देवप्रयाग :- ॥ॐ श्रीरामाय नमः॥ विष्णु ने की शिव की पूजा, कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम। ॥हमारे साथ श्री रघुनाथ,तो किस बात की चिंता॥ ॥श्री जानकी स्रोत्र:अष्टकम॥ ॥जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना॥ ॥देवप्रयाग के शिव मंदिर॥ विश्वेश्वराय नरकार्णवतारणाय। १३- चितई गोल्ज्यू देवता:- १४- श्री सूर्यनारायण मन्दिर कटारमल:- विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः। सूर्य मंदिर उत्तराखड में कटारमल (अल्मोड़ा) समुद्र की
सतह से सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित एकमात्र सूर्य मंदिर है।यह कोणार्क (ओडिशा) के सूर्य मंदिर के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा सूर्य मंदिर है।यह मंदिर अल्मोड़ा शहर से रानीखेत की ओर जाने वाले मार्ग पर १४ किलोमीटर दूर कोसी नामक स्थान के बाद तीन किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पैदल मार्ग पर बसे अधेली सुनार नामक गॉंव में स्थित है।धर्मपत्नी श्रीमती मीना ध्यानी,अनुज भ्राता डॉ पीताम्बर ध्यानी एवँ बहुरानी श्रीमती रेणु ध्यानी के सँग यहाँ देखने का मौका मिला।इस सूर्य मंदिर तक पहुंचने के लिए दूसरी ओर से एक मोटर मार्ग भी बनाया
गया है लेकिन बरसात और भूस्खलन के चलते वह टूट-फूटकर जर्जर अवस्था में रहता है।ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि यह मंदिर कोणार्क के विश्वविख्यात सूर्य मंदिर से लगभग दो सौ वर्ष पुराना है।इसका निर्माण प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में कुमाऊँ क्षेत्र के कत्यूरी राजवंश के तत्कालीन शासकों द्वारा छठीं से नवीं शताब्दी के बीच कराया गया था।जबकि यहां स्थित ४४ अन्य मंदिरों का निर्माण अलग-अलग समय पर किया गया. इस मंदिर की स्थापना के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं।कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस मंदिर का
जीर्णोद्धार समय-समय पर होता रहा है।यह कुमाऊॅं के विशालतम ऊँचे मंदिरों में से एक तथा उत्तर भारत में विलक्षण स्थापत्य एवं शिल्प कला का बेजोड़ उदाहरण है।समुद्र तल से २११६ मीटर की ऊंचाई पर स्थित यहां का मुख्य मंदिर पूर्वाभिमुख है।जिसका निर्माण इस प्रकार करवाया गया है कि सूर्य की पहली किरण मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर पड़ती है।मंदिर एक ऊँचे वर्गाकार चबूतरे पर है बना हुआ है।इसकी दीवार पत्थरों से बनी है और इनके खम्भों पर खूबसूरत नक्काशी की गई है।मंदिर के गर्भगृह का प्रवेश द्वार उत्कीर्ण की हुई लकड़ी का
था,जो इस समय दिल्ली के ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ की दीर्घा में रखा हुआ है।आजकल देवदार की लकड़ी से बने हुए इसके सुंदर दरवाजे पर्यटकों को बहुत चित्ताकर्षक लगते हैं।मंदिर का परिसर लगभग एक हज़ार साल पुराना है।यहां का मुख्य मंदिर ४४ छोटे-छोटे मंदिरों से घिरा हुआ है।यह मंदिर प्राचीन देवता सूर्य को समर्पित होने से वर्धादित्य या बड़ादित्य कहलाता है।मंदिर परिसर में सूर्य की तीन प्रतिमाओं के अतिरिक्त शिव-पार्वती,लक्ष्मी-नारायण,नृसिंह,गणेश,कार्तिकेय आदि देवी-देवताओं की अनेक नयनाभिराम प्रतिमाएं भी हैं।मंदिर के
ऊँचे खंडित शिखर को देखकर इसकी विशालता व वैभव का अनुमान सहज ही हो जाता है।मुख्य मंदिर की संरचना त्रिरथ है,जो वर्गाकार गर्भगृह के साथ नागर शैली के वक्र रेखी शिखर सहित निर्मित है। १५- श्री दक्षेश्वर मन्दिर कनखल:- १६- हरिद्वार महाकुम्भ स्नान:- १७-
माँ नैना देवी मन्दिर:- १८- श्री सिद्धबली हनुमान मंदिर:- जहाँ-जहाँ भगवान श्रीरघुनाथजी के नामका कीर्तन और कथा होती है वहाँ वहाँआँखों में आँसू भरे हुए और नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये हुए प्रपत्ति भाव से उपस्थित रहने वाले,राक्षसों का संघार करने वाले पवन पुत्र श्री हनुमानजी को
मैं नमस्कार करता हूँ। मनोजवं मारुततुल्यवेगं
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्। ॥संकटमोचन हनुमानाष्टक॥
१९- माँ सुरकण्डा मन्दिर:- २०- श्री कमलेश्वर महादेव मंदिर,श्रीनगर:- केदारखंड अध्याय -१८८:८८,८९) में वर्णित है:- वंदे देवम् उमापतिम् सुरगुरूं,वंदे जगत कारणम्। पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। देवभूमि उत्तराखंड के श्रीनगर में प्राचीन
कमलेश्वर महादेव मंदिर मध्य हिमालय की तलहटी में अलकनंदा नदी के किनारे स्थित है।पौराणिक कमलेश्वर महादेव मंदिर से श्रद्धालुओं की अटूट आस्था के पीछे कई किवदंतियां हैं।कहा जाता है कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने जामवंती के कहने पर कमलेश्वर मंदिर में भगवान शिव की आराधना की। जिसके बाद उन्हें ‘स्वाम’ नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।इस अनुष्ठान को एक नि:संतान दंपति ने देखा और शिव की आराधना की जिसके बाद उन्हें भी संतान की प्राप्ति हुई।मन्दिर से जुड़ी एक और मान्यता के अनुसार ब्राह्मण हत्या से
मुक्ति पाने के लिए श्रीराम चन्द्र जी ने इसी स्थल पर शिव की तपस्या की थी। ॥महादेव आह्वान महामंत्र स्तुति:॥ २१- नृसिंह मंदिर जोशीमठ
:- २२- माँ नन्दा देवी अल्मोड़ा:- २३-देवराडा नन्दा देवी मंदिर:– ‘सिद्धपीठ देवराडा’ चमोली जिले के ग्वालदम के समीप देवराडा गाँव में स्थित है।गढ़वाल क्षेत्र में “मां नंदा देवी” छ महीने अपने ननिहाल ‘सिद्धपीठ देवराडा’ में निवास करतीं हैं तथा छ
महीने अपने मायके ‘सिद्धपीठ नन्दा धाम कुरुड मंन्दिर’ मे निवास करतीं हैं।जब माँ के छः महीने ननिहाल में पूर्ण हो जातें हैं तब मां नंदा देवी की उत्सव डोली अपने ननिहाल ‘सिद्धपीठ देवराडा’ से छः माह प्रवास कर विकास खण्ड घाट के श्री लक्ष्मी नारायण मंन्दिर सैती से सिद्देश्वर महादेव शिव मन्दिर घाट होते हुए अपने मायके ‘सिद्धपीठ नन्दा धाम कुरुड मंन्दिर’ मे छः माह प्रवास पर विराजमान रहती है।मुझे माँ नन्दा के उनके ननिहाल देवराडा के मंदिर में दिसम्बर २००९ में दर्शन करने का परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ। २४- मलयनाथ;सिराकोट मंदिर डीडीहाट:- परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से,न बुद्धि से,न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है।यह जिसे स्वीकार कर लेता है,उसको ही प्राप्त हो सकता है।यह परमात्मा उसे अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है। उत्तराखंड राज्य,पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट में स्थित हैं यह मंदिर चंद राजाओं ने चौदहवीं सदी में बाद बहादुर चन्द ने राजकोट में स्थापित किया कहा जाता हैं की चन्द राजाओ के समय “मलयनाथ” प्रकट हुए थे तब यहाँ की जनता ना के बराबर थी तभी चंद राजा
ने इस स्थान में जनता को बसाया और मंदिर के लिए एक पुजारी को नियुक्त किया गया और मंदिर की देखरेख के लिए गणपतिं रसीला लोगों को नियुक्त किया गया इस मंदिर में स्थानीय लोग शिख (अनाज) चढाते हैं।डीडीहाट की पहाड़ी में स्थित सिराकोट मंदिर भव्य एवं आकर्षण स्थल हैं।डीडीहाट से लगभग ३ किलोमीटर खड़ी चढ़ाई चढ़ कर आता है यह भव्य मंदिर यहां से हिमालय की चोटियों का बिहंगम नजारा दिखता है।इसके अलावा घाटी का नजारा भी दिखता है।डीडीहाट नगर भी यहां से साफ दिखता है।सीराकोट में हर समय भक्तों का तांता लगा रहता है। मित्रों!बड़े
संकोच के साथ निवेदन कर रहा हूँ कि-१८ फरवरी २००४ को ऊत्तराखण्ड प्रान्त के डीडीहाट स्थित मलयनाथ मन्दिर परिसर में महाशिवरात्रि के अवसर पर प्रातः चार बज़े के क़रीब सपत्नीक बाबा भोलेनाथ के नटराज दर्शनों की अहेतुकी कृपा प्राप्त कर अभीभूत हुए।सर्वप्रथम,यानी मन्दिर खुलने से कुछ समय पूर्व ही हम दोनों पति-पत्नी मन्दिर में पहुँच गए थे डीडीहाट (पिथौरागढ़) से लगभग तीन किलोमीटर पर्वत चढ़ाई तय करके।
॥ॐ नमः शिवाय॥ 🌻🙏🌻 ॥मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं॥ २५- कुंजापुरी देवी दुर्गा का मंदिर:- २६-ओंकारेश्वर मन्दिर ऊखीमठ:- सर्दियों के दौरान,केदारनाथ मंदिर और मध्यमहेश्वर से मूर्तियों (डोली) को उखीमठ रखा जाता है और छह माह तक उखीमठ में इनकी पूजा की
जाती है।उषा (बाणासुर की बेटी) और अनिरुद्ध (भगवान कृष्ण के पौत्र) की शादी यहीं सम्पन्न की गयी थी।उषा के नाम से इस जगह का नाम उखीमठ पड़ा।सर्दियों के दौरान भगवान केदारनाथ की उत्सव डोली को इस जगह के लिए केदारनाथ से लाया जाता है।भगवान केदारनाथ की शीतकालीन पूजा और पूरे साल भगवान ओंकारेश्वर की पूजा यहीं की जाती है।यह मंदिर उखीमठ में स्थित है।अपनी धर्मपत्नी,माताजी एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ ऊखीमठ में श्री ओंकारेश्वर महादेव के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।ऊखीमठ का नाम उषा से निकला है।स्कन्दपुराण
में इस बारे में जो वर्णन मिलता है उसके अनुसार दैत्यराज बाणासुर की पुत्री ऊषा रात्रि स्वप्न में एक नवयुवक को देख उसका वरण कर लेती है।यह बात वह अपनी निकटतम सहेली चित्रलेखा को बता कर मनोभावों के आधार चित्र बनवाती है और वास्तविक जीवन में उसे ही जीवनसाथी बनाने की बात करती है। चित्र बनने पर ज्ञात होता है वह युवक और कोई नहीं श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का है।यह बात ऊषा आपने पिता को बताती है तो वे क्रुद्ध हो उठते है।उधर अनिरुद्ध को जब यह पता चलता है तो वह उसके बारे में जानने को वहां चला आता है। इस पर
बाणासुर उसे बन्दी बना देता है। द्वारिका में श्रीकृष्ण पता चलने पर कि अनिरुद्ध बंदी बना दिया गया है मुक्त कराने यहां आते हैं। इस पर शिवभक्त बाणासुर और उनके बीच एक अनिर्णायक संग्राम छिड़ जाता है। इसका अन्त न होते देख चिंतित ऊषा शिव की तपस्या में लीन हो जाती है।अन्तः में शिव प्रकट होकर इस संग्राम को रुकवा कर दोनों पक्षों के बीच सुलह करा कर उनके मध्य विवाह का मार्ग प्रशस्त करते हैं।इस प्रकार यह स्थान शिव की प्राकट्यस्थली बनता है।वहीं वैदिक साहित्य में ओंकारेश्वर को लेकर भी एक प्रसंग भी है जिसका
सम्बन्ध मान्धा से है।इस कारण ऊखीमठ का एक नाम मान्धाता भी था।यद्यपि आज यह नाम प्रचलित नहीं है किन्तु आज भी केदारनाथ की बहियों का प्रारम्भ जय मान्धाता से होता है।इस बारे में स्कन्द पुराण के केदारखण्ड के १९वें अध्याय में मिलता है।इसके अनुसार सतयुग के प्रतापी राजा कुवलाशव की पांचवी पीढ़ी में राजा यौवनाश्व की सौ कन्याएं थी पर पुत्र न हुआ।पुत्र प्राप्ति हेतु कुलगुरु के कहने पर वे पुत्रोष्ठी यज्ञ कराते हैं।यज्ञ संपन्न कराने पर राजा को अभिमंत्रित जलकलश प्राप्त होता है।लेकिन रात्रि को प्यास लगने पर वे
अज्ञानतावश रानियों को पिलाये जाने वाले अभिमंत्रित जल को स्वयं ग्रहण कर लेते हैं।इस जल के प्रभाव से राजा यौवनाश्व की छाती फट जाती है और पुत्र का जन्म होता है।माँ की कोख से पैदा न होने के कारण ही बालक का मान्धाता नाम हुआ जो बाद चक्रवर्ती सम्राट बनते है।सुखपूर्वक राज्य को चलाने के बाद वानप्रस्थ की दशा आने पर राजा मान्धाता हिमालय की गोद में शिव की तपस्या में लीन हो जाते हैं। जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें ओंकारेश्वर रूप में दर्शन देते और वरदान मांगने को कहते हैं।राजा मान्धाता शिवजी से विश्व
कल्याण व भक्तों के उद्धार के लिए इसी स्थान परं निवास करने का अनुरोध करते है। तब से लेकर वर्तमान समय तक भगवान शिव यहीं पर ओंकारेश्वर रूप में विराजित हैं।इस स्थान को मान्धाता भी कहा गया है। हालांकि लगभग यही बात मध्यप्रदेश में पड़ने वाले द्वादस ज्योर्तिलिंगों में से एक ओंकारेश्वर मन्दिर से भी जुड़ी है जो नर्मदा के किनारे मान्धाता नामक स्थान पर बसा है।मन्दिर में अनादि काल से पूजा अर्चना होती आई है। माना जाता है कि वर्तमान मन्दिर पुराने मन्दिर के स्थान पर बनाया गया।यह मन्दिर आस-पास बने दूसरे शिव
मन्दिरों के सापेक्ष नया है हांलाकि यह दूसरे मन्दिरों के सापेक्ष बहुत विशाल नहीं है।दूसरे मन्दिरों की तरह से इसमें कोई मण्डप नहीं है। मन्दिर का शिखर काष्ठ छत्र युक्त है और उत्तर भारत की नागर शैली का है।उत्तराखण्ड के दूसरे मन्दिरों की तरह ही इसमें इस क्षेत्र की शैली यानि काष्ठ जंगले युक्त छत है।मन्दिर में शिव के अलावा ऊषा,अनिरुद्ध और मान्धाता की मूर्तियां हैं।एवं विवाह वेदिका है।समीप मे भैरव मन्दिर है।यह मन्दिर ऊखीमठ बाजार से से डेढ़ किमी पहले एक अलग मार्ग मन्दिर तक जाता है। २७- श्री सिद्धेश्वर महादेव मंदिर देहरादून:- ॥सिद्धि के दाता सिर्फ महादेव ही है॥ ॐ वन्दे देव उमापतिं सुरगुरुं,वन्दे जगत्कारणम्। ॥सिद्धेश्वर महादेव स्तुति॥ न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्॥ ॥ जय शिव ओंकारा…॥ उत्तर प्रदेश के धार्मिक स्थानों की यात्राएँ:- १- काशी विश्वनाथ:- कण्ठे यस्य लसत्करालगरलं गंगाजलं मस्तके, ॥श्री
विश्वनाथाष्टकम्॥ वाराणसीपुरस्नायी कॊल्हापुरजपादरः। ॥ॐ तत्सत॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥ २- श्री कृष्ण जन्मभूमि मथुरा:- ॥बृज
के नंदलाला राधा के सांवरिया॥ ३- श्री बाँकेबिहारी मन्दिर वृंदावन:- ॥मन चल वृंदावन धाम,रटेंगे राधे राधे
नाम॥ श्रीकृष्ण जी की के सात विशेष
विग्रह ॥बाँके बिहारी कृष्ण मुरारी॥ ॥बांके बिहारी तेरे नैना कजरारे॥
४- गोवर्धन:- गोवर्धन पर्वत भगवान का हृदय है।दीपावली की अगले दिन गोवर्धन पूजा की जाती है।लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं।इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है।इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है।इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है।गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है।शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती है जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है।देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं।इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है।इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है।गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की।जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे।सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और हर वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी।तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।मित्रों १३ मार्च २०१२ इस पुण्य क्षेत्र के दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ।गोवर्धन पर्वत भगवान का हृदय है। ॥श्री गोवर्धन महाराज आरती॥ ५-नन्दगाँव:- ॥किशोरी
जी के नन्दगाँव में प्रवेश॥ ॥बृज में हो रही जय जयकार॥ ॥नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥ ॥बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया॥ ६- बरसाना:- बृंदावन का कण कण बोले श्री राधा राधा। ॥किशोरी जी तो मेरी है…॥ ॥करुणामयी
कृपा कीजिये श्री राधे॥ ॥किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना…॥ ॥किशोरी जी के बरसाने में प्रवेश॥ ॥हमारो धन राधा श्री राधा श्री राधा॥ ॥मोहन से दिल क्यूँ लगाया है…॥ ७:- शाकम्भरी देवी माँ मन्दिर:- ॥संकटमोचन हनुमाष्टक॥ ॥विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रम्॥
हिमाचल प्रदेश की धार्मिक यात्राएँ:- १- महासू देवता मन्दिर हनोल:- २- महिषासुर मर्दनी मन्दिर हाटकोटी:- ३- माँ ज्वाला देवी का मंदिर:- ४-भीमकाली मंदिर,सराहन,हिमाचल प्रदेश:- तमिलनाडु के धार्मिक स्थलों की यात्रा:- १- श्री रामेश्वरम धाम:- राम – रावण युद्ध में रावण के सब साथी राक्षस मारे गये।रावण भी मारा गया; और अन्ततः सीताजी को मुक्त कराकर श्रीराम वापस लौटे।इस युद्ध हेतु राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था।रावण भी साधारण राक्षस नहीं था।वह पुलस्त्य महर्षि का नाती था।चारों वेदों का जाननेवाला था और था शिवजी का बड़ा भक्त।इस कारण राम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ।ब्रह्मा-हत्या का पाप उन्हें लग गया।इस पाप को धोने के लिए उन्होने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया।यह निश्चय करने के बाद श्रीराम ने हनुमान को आज्ञा दी कि काशी जाकर वहां से एक शिवलिंग ले आओ।हनुमान पवन-सुत थे।बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े।लेकिन शिवलिंग की स्थापना की नियत घड़ी पास आ गई।हनुमान का कहीं पता न था।जब सीताजी ने देखा कि हनुमान के लौटने मे देर हो रही है, तो उन्होने समुद्र के किनारे के रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना दिया।यह देखकर राम बहुत प्रसन्न हुए और नियम समय पर इसी शिवलिंग की स्थापना कर दी।छोटे आकार का सही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है।बाद में हनुमान के आने पर पहले छोटे प्रतिष्ठित छोटे शिवलिंग के पास ही राम ने काले पत्थर के उस बड़े शिवलिंग को स्थापित कर दिया।ये दोनों शिवलिंग रामेश्वरम् के विख्यात मुख्य मंदिर में आज भी पूजित हैं।यही मुख्य शिवलिंग ज्योतिर्लिंग है।रामेश्वरम भगवान शंकर के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है।श्रीरामजी एवँ भगवान भोलेनाथ जी की अहैतुकी कृपा से अपनी माताजी (श्रीमती गोदम्बरी देवी) अपनी धर्मपत्नी श्रीमती मीना ध्यानी एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ १० और ११ जनवरी २००९ को श्री रामनाथ पूरी रामेश्वरम धाम में निवास किया।२२ जल कुण्डों से हम सभी ने स्नान किया तदोपरांत श्री रामेश्वर शिवलिंग के दर्शन लिए।गंगोत्री से लाया जल रामेश्वर ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाया।अद्भुत आनँद की अनुभूति हुई।मित्रों!रामेश्वरम हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ है।यह तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है।यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है।इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है।भारत के उत्तर मे काशी की जो मान्यता है,वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है।रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है।यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है।बहुत पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था,परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया।यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था,जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई।बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था।आज भी इस ३० मील (४८किलोमीटर) लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं।यहां के मंदिर के तीसरे प्रकार का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है।रामेश्वरम् के विख्यात मंदिर की स्थापना के बारें में यह रोचक कथाऐ कही जाती है।सीताजी को छुड़ाने के लिए राम ने लंका पर चढ़ाई की थी।उन्होने युद्ध के बिना सीताजी को छुड़वाने का बहुत प्रयत्न किया,पर जब रावण के न मानने पर विवश होकर उन्होने युद्ध किया।इस युद्ध हेतु राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था।तब श्री राम ने, युद्ध कार्य में सफलता ओर विजय के पश्र्चात कृतज्ञता हेतु उनके आराध्य भगवान शिव की आराधना के लिए समुद्र किनारे की रेत से शिवलिंग का अपने हाथों से निर्माण किया,तभी भगवान शिव सव्यम् ज्योति स्वरुप प्रकट हुए ओर उन्होंने इस लिंग को “श्री रामेश्वरम” की उपमा दी।यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था।भगवान राम ने पहले सागर से प्रार्थना की,कार्य सिद्ध ना होने पर धनुष चढ़ाया,तो सागरदेव ने प्रकट होकर मार्ग दीया।इस युद्ध में रावण के साथ,उसका पुरा राक्षस वंश समाप्त हो गया और अन्ततः सीताजी को मुक्त कराकर श्रीराम वापस लौटे।हमनें भी श्रीरामेश्वर धाम में सागर में स्नान किया।हमनें ११ जनवरी २००९ को माताजी के सन्मुख ही पिताजी के पिंडदान करने का पुनीत कार्य किया। २- कन्याकुमारी :- कन्याकुमारी भारत के तमिलनाडु राज्य के कन्याकुमारी ज़िले में स्थित एक नगर है। यह भारत की मुख्यभूमि का दक्षिणतम नगर है।यहाँ से दक्षिण में हिन्द महासागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है। इनके साथ सटा हुआ तट ७१.५ किलोमीटर तक विस्तारित है।समुद्र के साथ तिरुवल्लुवर मूर्ति और विवेकानन्द स्मारक शिला खड़े हैं।‘कन्याकुमारी’ एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थल भी है।सागर के मुहाने के दाई ओर स्थित यह एक छोटा सा मंदिर है जो ‘पार्वती‘ को समर्पित है।मंदिर तीनों समुद्रों के संगम स्थल पर बना हुआ है।यहां सागर की लहरों की आवाज स्वर्ग के संगीत की भांति सुनाई देती है। 🌹🙏🌹 ३- मीनाक्षी सुन्दरेश्वरर मन्दिर मदुरै:- ॥मीनाक्षी
पँचरत्नम्॥ ४-मरीना बीच
(चेन्नई):-
१- नागपुर के टेकड़ी गणेश:- दन्ताभये
चक्रवरौ दधानं कराग्रगं स्वर्ण घटं त्रिनेत्रम्। ॥रिद्धि सिद्धि का देव निराला शिव पार्वती का लाला॥ २- शिरडी:- ३- शनि शिंगणापुर:- जय गणेश गिरिजा सुवन,मंगल करण कृपाल। अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। ४- दगड़ू सेठ हलवाई
‘गणपति मंदिर’ पुणे,महराष्ट्र:- बिहार के धार्मिक स्थलों की यात्राएं:- १-गया तीर्थ:- पितृ (पितर ) प्रार्थना मंत्र; विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी २- बोधगया :- गुज़रात के धार्मिक स्थानों की यात्राएं; १- सोमनाथ मन्दिर:- अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम्। ॥कैलाश के निवासी…॥ २- भालका तीर्थ:- भालका तीर्थ गुजरात के सौराष्ट्र के प्रभास क्षेत्र में वेरावल नगर में स्थित है।सोमनाथ मंदिर से लगभग ५ किलोमीटर दूर स्थित इस तीर्थस्थान के बारे में मान्यता है कि यहाँ पर विश्राम करते समय ही भगवान श्री कृष्ण को जर नामक शिकारी ने गलती से तीर मारा था,जिसके पश्चात् उन्होनें पृथ्वी पर अपनी लीला समाप्त करते हुए निजधाम प्रस्थान किया।यहाँ पर स्थित हिरण नदी के किनारे पहुंचे।हिरण नदी सोमनाथ से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है।कहा जाता है कि उसी जगह पर भगवान पंचतत्व में ही विलीन हो गए।श्री सोमनाथ ट्रस्ट द्वारा प्रबंधित इस स्थान को एक भव्य तीर्थ एवं पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना पर कार्य चल रहा है।अपनी धर्मपत्नी जी,बड़ी बहू शालिनी एवँ पौत्र विहान के साथ श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ३- नागेश्वर मन्दिर :- नागेश्वर मन्दिर एक प्रसिद्द मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह द्वारका,गुजरात के बाहरी क्षेत्र में स्थित है।यह शिव जी के बारह (१२) ज्योतिर्लिंगों में से एक है।हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है।यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है।रुद्र संहिता में इन भगवान को दारुकावने नागेशं कहा गया है।भगवान् शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग १७ मील की दूरी पर स्थित है।इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है।कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान् शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा।अपनी धर्मपत्नी जी के साथ श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ४-हरसिद्धि
माता मन्दिर:- ५- द्वारिकाधीश मंदिर:- ६- रुक्मिणी माई मन्दिर:- ७- श्री बेट द्वारकाधीश मंदिर:- असम के धार्मिक स्थलों की यात्राएं:- १- माँ कामाख्या मंदिर असम :- कामाख्ये वरदे देवी नील पर्वत वासिनी। जम्मू कश्मीर की धार्मिक यात्राएँ:- १-श्री शंकचार्य मन्दिर,श्रीनगर:- डल झील किनारे गोपाद्री पर्वत के शिखर पर भगवान शंकर का मंदिर है।मंदिर को राजा संधिमान ने २६०५ ईसा पूर्व में बनाया था।मंंदिर को जेष्ठस्वर और गोपाद्री पर्वत को संधिमान पर्वत पुकारा जाने लगा।आदि शंकराचार्य ने जेष्ठस्वर मंदिर के प्रांगण में डेरा डाल शिव की साधना की।उनके ज्ञान व साधना से प्रभावित होकर कश्मीरी विद्वानों,संत-महात्माओं ने सम्मान स्वरूप संधिमान पर्वत और मंदिर का नामकरण शंकराचार्य पर्वत और “शंकराचार्य मंदिर” कर दिया। यह मंदिर समुद्र तल से ११००फीट की ऊंचाई पर स्थित है।शंकराचार्य मंदिर को तख़्त-ए-सुलेमन के नाम से भी जाना जाता है।यह मंदिर कश्मीर स्थित सबसे पुराने मंदिरों में से एक है।डोगरा शासक महाराजा गुलाब सिंह ने मंदिर तक पँहुचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई थी।इस मंदिर की वास्तुकला भी काफ़ी ख़ूबसूरत है।शिव का यह मंदिर क़रीब दो सौ साल पुराना है।जगदगुरु शंकराचार्य अपनी भारत यात्रा के दौरान यहाँ आये थे।उनका साधना स्थल आज भी यहाँ बना हुआ है।लेकिन ऊँचाई पर होने के कारण यहाँ से श्रीनगर और डल झील का बेहद ख़ूबसूरत नज़ारा दिखाई देता है।भारत सरकार की सेवा में रहते यहाँ सुरक्षा ड्यूटी के दौरान ही सन २००२ में श्री शंकचार्य मन्दिर में भोलेनाथ के बृहदाकार शिवलिंग के दर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ। २-श्री रघुनाथ मन्दिर जम्मू:-राम नाम का तीन बार उच्चारण हजारों देवताओं को स्मरण करने के समान है।महाभारत में वर्णित है कि एक बार भगवान शिव ने कहा था कि ‘राम का नाम तीन बार उच्चारण करने से हजार देवताओं के नामों का उच्चारण करने के बराबर फल की प्राप्ति होती है।’ मान्यतानुसार भगवान शिव भी ध्यानावस्था में भगवान ‘राम’ के नाम का ही उच्चारण करते
हैं।भगवान राम को मानव रूप में पूजे जाने वाले सबसे पुराने देवता के रूप में जाना जाता है,क्योंकि भगवान राम का जन्म त्रेता युग में हुआ था और ऐसा माना जाता है कि त्रेता युग की समाप्ति आज से करीब ‘बारह लाख छियानबे हज़ार साल’ पहले हो चुकी है।रघुनाथ मंदिर जम्मू और कश्मीर राज्य के जम्मू शहर के मध्य में स्थित है।यह मन्दिर आकर्षक कलात्मकता का विशिष्ट उदाहरण है।रघुनाथ मंदिर भगवान राम को समर्पित है।यह मंदिर उत्तर भारत के सबसे प्रमुख एवं अनोखे मंदिरों में से एक है।इस मंदिर को सन् १८३५ में इसे
महाराज गुलाब सिंह ने बनवाना शुरू किया पर निर्माण की समाप्ति राजा रणजीत सिंह के काल में हुई। ३-वैष्णो देवी मंदिर:- वैष्णो देवी मंदिर,हिन्दू मान्यतानुसार,शक्ति को समर्पित पवित्रतम हिंदू मंदिरों में से एक है,जो भारत के जम्मू और कश्मीर में वैष्णो देवी की पहाड़ी पर स्थित है।इस धार्मिक स्थल की आराध्य देवी,वैष्णो देवी को सामान्यतः माता रानी और वैष्णवी के नाम से भी जाना जाता है। ‘माँ’ पिंडियाँ दर्शन:क्या हैं पिंडियां? दिल्ली के धार्मिक स्थानों की यात्रा:- १-स्वामिनारायण अक्षरधाम मन्दिर:- देश की राजधानी नई दिल्ली में बना स्वामिनारायण अक्षरधाम मन्दिर एक अनोखा सांस्कृतिक तीर्थ है।इसे ज्योतिर्धर भगवान स्वामिनारायण की पुण्य स्मृति में बनवाया गया है।यह परिसर १०० एकड़ भूमि में फैला हुआ है।दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मन्दिर परिसर होने के नाते २६ दिसम्बर २००७ को यह गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में शामिल किया गया।मंदिर में रोजाना शाम को दर्शनीय फव्वारा शो का आयोजन किया जाता है।हमनें छोटे बेटे अनुराग एवं बहू के साथ फव्वारा शो को देखा।इस शो में जन्म-मृत्यु चक्र का उल्लेख किया जाता है।फव्वारे में कई कहानियों का बयां किया जाता है।यह मंदिर सोमवार को बंद रहता है।’अक्षरधाम मंदिर’ में २८७० सीढियां बनी हुई हैं।मंदिर में एक कुंड भी है,जिसमें भारत के महान गणितज्ञों की महानता को दर्शाया गया है। ॥उड़ीसा की धार्मिक यात्राएँ॥ १-श्री लिंगराज मंदिर;- भगवान त्रिभुवनेश्वर को समर्पित लिंगराज मंदिर भारत के ओडिशा प्रांत की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित है।यह भुवनेश्वर का मुख्य मन्दिर है तथा इस नगर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है।१३ अगस्त २०१७ को भगवान त्रिभुवनेश्वर के दर्शनार्थ अपनी धर्मपत्नि मीना,ज्येष्ठ पुत्र दीपक,बहुरानी शालिनी एवँ पौत्र विहान के सँग लिंगराज मंदिर में भगवान दर्शन का असवर प्राप्त हुआ।धार्मिक कथानुसार ‘लिट्टी’ तथा ‘वसा’ नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध देवी पार्वती ने यहीं पर किया था।संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी,तो शिवजी ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया।यहीं पर बिन्दुसागर सरोवर है तथा उसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मन्दिर है।सैकड़ों वर्षों से भुवनेश्वर यहीं पूर्वोत्तर भारत में शैवसम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र रहा है।कहा जाता हैं कि मध्ययुग में यहाँ सात हजार से अधिक मन्दिर और पूजास्थल थे,जिनमें से अब लगभग पाँच सौ ही शेष बचे हैं। २-श्री जगन्नाथ पुरी:- नीलाचलनिवासाय नित्याय परमात्मने। द्वापर युग में महाभारत के युद्ध के ३६ साल बाद और द्वारिका नगरी के नष्ट हो जाने के बाद श्री कृष्ण जब हिरण्य नदी के किनारे विश्राम कर रहे थे तब जला नाम के पारधी ने उनके पैर पर बाण मार था और यही पर श्रीकृष्ण ने अपना देह त्याग किया था।सत्य,प्रेम,भक्ति और शक्ति के पुजारी श्रीकृष्ण जब अपने मानव शरीर को छोड़कर चले गए तब अर्जुन द्वारा श्री कृष्ण का अंतिम संस्कार किया गया।परंतु बहुत कोशिश के बाद भी श्री कृष्ण के शरीर का एक अंग (नाभि) नही जला।तब अर्जुन ने नाभि को समुद्र में विसर्जित कर दिया।कुछ समय बाद वह नाभि श्री कृष्ण के नीले रंग की एक मूर्ति में परिवर्तित हो गई और विस्वावस्थ नाम के आदिवासी को मिली।मूर्ति नीले रंग की होने के कारण विस्वावस्थ ने मूर्ति का नाम नीलमाधव रखा।विस्वावस्थ ने नीलमाधव की मूर्ति को पास के जंगल मे एक गुफा में छुपा दिया और बड़े भक्ति भाव से नीलमाधव की पूजा करने लगे।इस बात की खबर राजा इंद्रद्युम को लगी।मूर्ति के बारे में पता लगाने के लिए राजा इंद्रद्युम अपने विश्वासपात्र मंत्री विद्यापति जी को जंगल भेजते है।विद्यापति मूर्ति के बारे में जानने के लिए विस्वावस्थ के पास आते है।परंतु विद्यापति को विस्वावस्थ की पुत्री से प्रेम हो जाता है और वह विस्वावस्थ की पुत्री से विवाह कर लेते है।एक बार विद्यापति अपने ससुर विस्वावस्थ को मूर्ति के दर्शन कराने की विनती करता है।विद्यापति के बार बार विनती करने कारण एक बार विस्वावस्थ आपने दामाद को मना नही कर पाये।विस्वावस्थ विद्यापति आंखों पर पट्टी बांध कर उस गुफा में ले जाते है।परंतु विद्यापति भी बहुत चालक है, वह रास्ते मे सरसो के बीज गिरा देते है। कुछ दिनों के बाद वह बीज अंकुरित होते है तो गुफा का रास्ता साफ दिखाई देता है।गुफा के बारे में विद्यापति राजा इंद्रद्युम को बताते है। जब राजा इंद्रद्युम नीलमाधव के दर्शन करने के लिए गुफा में जाते है तो उन्हें वंहा पर नीलमाधव की मूर्ति नही मिलती है।नीलमाधव के दर्शन ना होने कारण राजा इंद्रद्युम बहुत निराश होकर अपने राज भवन में लौट जाते है और अपनी गलती का पश्चाताप अन्तरहृदय से करते है।एक रात जब राजा इंद्रद्युम सो रहे होते है तब स्वयं भगवान विष्णु उनके सपने में आते है और कहते है की.….’कुछ दिनों में समुद्र तट पर एक लकड़ी का लट्ठा तैरते हुए आएगा और उस पर शंख का चिह्न भी बना होगा,उसी लकड़ी के मूर्ति बनाकर मंदिर में स्थापित करने की बात कहते है।’ भगवान विष्णु के कहे अनुसार एक लकड़ी का लट्ठा समुद्र में तैरते हुए आया।राजा इंद्रद्युम फौरन अपने राज्य के महान शिल्पकारों की बुलाकर उस लकड़ी में से मूर्ति बनाने का कार्य देते है।परंतु लकड़ी के स्पर्श से ही शिल्पकारों के औजार टूट जाते थे।इस बात से राजा इंद्रद्युम काफी परेशान रहने लगे।फिर एक दिन देवताओ के शिल्पकार श्री विश्वकर्मा जी राजा इंद्रद्युम के राज्य में एक बुजुर्ग का वेश धारण कर आये। उन्होंने लकड़ी में से मूर्ति बनाने का कार्य एक शर्त के साथ करने की इच्छा रखी।शर्त के तहत वह मूर्तियो को एक बंद कक्ष २१ दिनों में बनाएंगे।राजा इंद्रद्युम ने उनकी शर्त को स्वीकार कर लिया।कुछ दिनों के बाद उस कमरे में से आवाज आनी बंद हो गई।इसलिए राजा इंद्रद्युम की पत्नी गुंडिचादेवी के कहने पर राजा ने समय के पहले ही कक्ष को खुलवा दिया।जब कक्ष खोला गया तब भगवान जगन्नाथजी,बहन सुभद्राजी और बड़े भाई बलरामजी की मूर्तिया थी।परंतु उनके हाथ और कमर के नीचे का भाग नही था और सभी की आंखे भी बहुत बड़ी-बड़ी बनी हुई थी।कुछ समय बार राजा इंद्रद्युम की मृत्यु हो जाती है. फिर राजा इंद्रद्युम का पुत्र ययाति केशरी एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाते है और मूर्तियो को मंदिर में स्थापित करवाते है।वर्तमान मंदिर का निर्माण कलिंक पुरी के राजा चोला गंगादेव ने प्राम्भ करवाया था…और अनंत महादेव द्वारा मंदिर का कार्य पूरा करवाया गया।उस समय जगन्नाथ मंदिर को नीलाद्रि के नाम से जाना जाता था।💓🙏💓 जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी भगवान जगन्नाथ की एक बेहद रहस्यमय कहानी प्रचलित है।जिसके अनुसार मंदिर में मौजूद भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्वयं ब्रह्मा विराजमान हैं।ब्रह्मा कृष्ण के नश्वर शरीर में विराजमान थे और जब कृष्ण की मृत्यु हुई तब पांडवों ने उनके शरीर का दाह-संस्कार कर दिया।लेकिन कृष्ण का दिल (पिंड) जलता ही रहा।ईश्वर के आदेशानुसार पिंड को पांडवों ने जल में प्रवाहित कर दिया।उस पिंड ने लट्ठे का रूप ले लिया।राजा
इन्द्रद्युम्न,जो कि भगवान जगन्नाथ के भक्त थे, को यह लट्ठा मिला और उन्होंने इसे जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थापित कर दिया।उस दिन से लेकर आज तक वह लट्ठा भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर है।हर बारह वर्ष के अंतराल में भगवान जगन्नाथ की मूर्ति तो बदलती है लेकिन यह लट्ठा उसी में रहता है। हम अपने को परम् सौभाग्यशाली समझते हैं कि हमनें श्री जगन्नाथपुरी में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन १४/१५ अगस्त २०२१ को (धर्मपत्नी,ज्येष्ठ पुत्र दीपक,बहुरानी शालिनी एवँ पोते विहान के साथ) भगवान जगन्नाथ
स्वामी,सुभद्राकुमारी एवँ श्री बलरामजी के दर्शन किये। ॥श्री जगन्नाथ अष्टकम्॥ ।। 💓🙏💓 ३-कोणार्क सूर्यमन्दिर:- विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः। ॥सूर्याष्टकम्॥ आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर, ॥आदित्य हृदय स्तोत्रम्॥ ॥केरल की धार्मिक यात्राएँ॥ १-पद्मनाभस्वामी मंदिर:- पद्मनाभ स्वामी मंदिरभारत के केरल राज्य के तिरुअनन्तपुरम में स्थित भगवान विष्णु का प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर है।भारत के प्रमुख वैष्णव मंदिरों में शामिल यह ऐतिहासिक मंदिर तिरुअनंतपुरम के अनेक पर्यटन स्थलों में से एक है।पद्मनाभ स्वामी मंदिर विष्णु-भक्तों की महत्वपूर्ण आराधना-स्थली है।मंदिर की संरचना में सुधार कार्य किए गए जाते रहे हैं।१७३३ ई.में इस मंदिर का पुनर्निर्माण त्रावनकोर के महाराजा मार्तड वर्मा ने करवाया था।पद्मनाभ स्वामी मंदिर के साथ एक पौराणिक कथा जुडी है।मान्यतानुसार-सबसे पहले इस स्थान से विष्णु भगवान की प्रतिमा प्राप्त हुई थी जिसके बाद उसी स्थान पर इस मंदिर का निर्माण किया गया है।श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर के प्रमुख देवता की प्रतिमा अपने निर्माण के लिए जानी जाती है जिसमें १२,००८ शालिग्राम हैं जिन्हें नेपाल की नदी गंधकी के किनारों से लाया गया था। श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर का गर्भगृह एक चट्टान पर स्थित है और मुख्य प्रतिमा जो लगभग १८ फीट लंबी है, को अलग-अलग दरवाजों से देखा जा सकता है।पहले दरवाजे से सिर और सीना देखा जा सकता है जबकि दूसरे दरवाजे से हाथ और तीसरे दरवाजे से पैर देखे जा सकते हैं।११ फ़रवरी २०१९ को अपनी धर्मपत्नी श्रीमती मीना ध्यानी,बहुरानी ऋतु ध्यानी,अनुज पुत्र डॉ अनुराग ध्यानी एवँ पौत्री नैवेद्या ध्यानी के सँग श्री पद्मनाभस्वामी के दर्शन करने का परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ।भगवान पद्मनाभस्वामी की अहैतुकी कृपा से ही पद्मनाभस्वामीकी एक मूर्ति भी मन्दिर प्राँगण से लाए जो तब यह धातु की प्रतिमा की हम निज़ पूजा स्थल पर नित्य पूजन करतें है। ॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥ ॥श्री गुरुभ्यो नमः॥ विनयावनत;दिगम्बर ध्यानी ॥ श्री वैंकटेश्वर स्वामी मंदिर॥ ॥देशाटन॥ १-ताजमहल;दुनियाँ का सातवाँ आश्चर्य:- ताजमहल भारत के उत्तरप्रदेश के आगरा शहर में स्थित एक विश्व धरोहर मक़बरा है।इसका निर्माण मुग़ल सम्राट शाहजहाँ ने अपनी पत्नी मुमताज़ महल की याद में करवाया था।ताजमहल मुग़ल वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है।इसकी वास्तु शैली
फ़ारसी,तुर्क,भारतीय और इस्लामी वास्तुकला के घटकों का अनोखा सम्मिलन है।सन् १९८३ में,ताजमहल युनेस्को विश्व धरोहर स्थल बना।इसके साथ ही इसे विश्व धरोहर के सर्वत्र प्रशंसा पाने वाली,अत्युत्तम मानवी कृतियों में से एक बताया गया।ताजमहल को भारत की इस्लामी कला का रत्न भी घोषित किया गया है।साधारणतया देखे गये संगमर्मर की सिल्लियों की बडी-बडी पर्तो से ढंक कर बनाई गई इमारतों की तरह न बनाकर इसका श्वेत गुम्बद एवं टाइल आकार में संगमर्मर से ढका है।केन्द्र में बना मकबरा अपनी वास्तु श्रेष्ठता में
सौन्दर्य के संयोजन का परिचय देते हैं।ताजमहल इमारत समूह की संरचना की खास बात है,कि यह पूर्णतया सममितीय है।इसका निर्माण सन् १६४८ के लगभग पूर्ण हुआ था।उस्ताद अहमद लाहौरी को प्रायः इसका प्रधान रूपांकनकर्ता माना जाता है।जैसे ही कोई ताजमहल के द्वार से प्रविष्ट होता है,सुलेख है:- २- पटनीटॉप जम्मू:- पटनी टॉप,जम्मू और कश्मीर के उधमपुर जिले में स्थित एक सुंदर हिल रिसॉर्ट है।इस स्थान को वास्तविक रूप से
‘पाटन दा तालाब’ नाम से जाना जाता था जिसका अर्थ है ‘राजकुमारी का तालाब’।एक कहावत के अनुसार राजकुमारी नहाने के लिए प्रतिदिन इस तालाब का उपयोग करती थीं।हालांकि कुछ सालों बाद इसका नाम ‘पाटन का तालाब’ से बदलकर पटनीटॉप हो गया।यह रिसॉर्ट समुद्र सतह से २०२४ मीटर की ऊँचाई पर एक पठार पर स्थित है। ३- नन्दन कानन चिड़ियाघर(जूलॉजिकल पार्क):- मित्रों
केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण, एक सांविधिक निकाय (Statutory Body) है जिसका मुख्य उद्देश्य भारत में जानवरों के रख-रखाव और स्वास्थ्य देखभाल के लिए न्यूनतम मानकों तथा मानदंडों को लागू करना है।चिड़ियाघरों को वन्य जीवन(संरक्षण)अधिनियम,१९७२ के प्रावधानों के अनुसार विनियमित तथा राष्ट्रीय चिड़ियाघर नीति,१९९२द्वारा निर्देशित किया जाता हैं।१९९१ में केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण स्थापित करने के लिये वन्य जीवन संरक्षण को संशोधित किया गया था।नंदनकानन,जिसका शाब्दिक अर्थ है:-गार्डन ऑफ हेवन
(Garden of Heaven). ॥चरित्र की रक्षा करनी चाहिए॥ वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च। ॥हमे मिलने वाले सुख या दुःख का कारण भगवान नहीं,अपितु हम ही हैं॥ क्या देवता संभोग करते हैं?मंदिर में पूजा करने वाले भी आते हैं और सेक्सुअल पोज़ीशन की कलाकृतियां देखने वाले भी. देवी-देवताओं की मूर्तियों के बीच ही यौन संबंध को खुलकर दर्शाने वाली ये मूर्तियां आज के भारत में देखकर हैरानी होती है. मगर प्राचीन भारत में सेक्स को लेकर ज़्यादा खुलापन था, ये बात ये मंदिर ज़ाहिर करते हैं.
कामदेव के धनुष का क्या नाम था?कामदेव के 5 बाणों के नाम : 1. मारण, 2. स्तम्भन, 3. जृम्भन, 4.
कामदेव के कितने बाण है?(कामदेव के पाँच बाण माने गए हैं; इसी से बाण से ५ की संख्या का बोध होता है) । ७.
Kamdev कौन है?उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मनमथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधंव आदि प्रसिद्ध हैं। कामदेव, हिंदू देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न, कामदेव का अवतार है। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण भी माना जाता है।
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