किस हिंदू देवता के पास गन्ने से बना धनुष और फूलों से बने तीर्थे - kis hindoo devata ke paas ganne se bana dhanush aur phoolon se bane teerthe

॥श्रीगणेशाय नमः॥
करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥
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गोविन्द गोविन्द हरे मुरारे गोविन्द गोविन्द मुकुन्द कृष्ण।
गोविन्द गोविन्द रथांगपाणे गोविन्द दामोदर माधवेति॥
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आकाशवदनन्तोऽहं घटवत् प्राकृतं जगत्।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥
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अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं-आकाश के समान मैं अनंत हूँ और यह जगत घड़े के समान महत्त्वहीन है,यह ज्ञान है।इसका न त्याग करना है और न ग्रहण,बस इसके साथ एकरूप होना है।(अष्टावक्र गीता से)
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I am infinite like space,and this world is unimportant like a jar.This is Knowledge. This is neither to be renounced nor to be accepted but to be one with it.
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मेरी लगी श्याम संग प्रीत ये दुनिया क्या जाने!
मुझे मिल गया मन का मीत ये दुनिया क्या जाने!!


जगत के रंग क्या देखूं,तेरा दीदार काफी है।
क्यों भटकूँ गैरों के दर पे,तेरा दरबार काफी है॥
🌻🙏🌻 कौन कहता है कि ईश्वर नजर नहीं आता,सिर्फ वही तो नजर आता है जब कोई नजर नहीं आता। 🌻🙏🌻
एकदंताय विद्‍महे!वक्रतुण्डाय धीमहि!!तन्नो दंती प्रचोदयात!!!
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एकदंत को हम जानते हैं!वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं!!वह दन्ती (गजानन) हमें प्रेरणा प्रदान करें!!!
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वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं,वन्दे जगत्कारणम्,
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं,वन्दे पशूनाम्पतिम्।
वन्दे सूर्यशशाङ्कवह्निनयनं,वन्दे मुकुन्दप्रियम्,
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं,वन्दे शिवं शंकरम्॥
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नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां,
परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम्।
नगेन्द्रकन्यावृषकेतनाभ्यां,
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्॥
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न जानामि योगं जपं नैव पूजां।
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्॥
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं।
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥
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मैं न तो योग जानता हूँ,न जप और न पूजा ही।हे शम्भो!मैं तो सदा-सर्वदा आप को ही नमस्कार करता हूँ।हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए।हे शम्भो,मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
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शिव कैलाशों के वासी,धौलीधारों के राजा।शंकर संकट हारना॥ॐ नमः शिवाय!!!
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तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥
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जिसका मन तद्रूप [उसी के समान,अनुरूप/concordant] हो रहा है,जिसकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा मै ही जिनकी निरंतर एकीभाव से स्थित है,ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पापरहित हो कर अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं।
🌻🙏🌻

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी॥
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति॥
💓🙏💓
हे ईश,यदि समुद्रस्य मसीपात्रं भवति,कृष्णपर्वतस्य कज्जलं भवति,कल्पवृक्षस्य शाखा लेखनी भवति,पृथ्वी पत्रं भवति,तथा च एतैः साधनैः शारदा देवी सर्वकालं तव गुणान् लिखति,तथापि सा तव गुणानां पारं न गमिष्यति॥
💓🙏💓 Perhaps taking the mountain of ink,dark ocean as the pot,
branch of the heavenly tree as the pen and earth as the leaf (paper)
even if sharada (divine of knowledge) write forever,
even then,Oh GOD,the boundaries of Your glory cannot be found!! ॥ॐ उमामहेश्वराभ्याम् नमः॥
॥ॐ शङ्करपार्वतीभ्याम् नमः॥
💓🙏💓
मंत्रे तीर्थे द्विजे देवे,दैवज्ञे भेषजे गुरो।
यादृशी भावना यस्य,सिद्धिर्भवति तादृशी॥
💓🙏💓
मंत्रमें,तीर्थमें,ब्राह्मण में,देवता में,ज्योतिषीमें,वैद्य में एवँ गुरू में जिसकी जैसी भावना होती है उसको वैसे ही सिद्धि मिलती है,अर्थात फ़ल होता है।
💓🙏💓
जाकी रही भावना जैसी,प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
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त्वमेव माता च पिता त्वमेव।
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव।
त्वमेव सर्व मम देव देव॥
💓🙏💓

कर्पूरगौरं करुणावतारं,संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम्।
सदावसन्तं हृदयारविन्दे,भवं भवानीसहितं नमामि॥


प्रणम्य शिरसा देवं गौरी विनायकम्।
भक्तावासं स्मेर नित्यमाय्ः कामार्थसिद्धये॥
💓🙏💓
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा,
श्रवणनयनजं वाँ मानसं वापराधम्।
विहितंविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व,
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेवशम्भो॥
💓🙏💓
हे उमापति! हे गिरिजापति!! हे महादेव!!! हम अपने दोनो हाथों को जोड़ कर आपके चरणों मे विनती करते हैं कि,अगर हमारे (सामान्यतः सभी-सभी कुछ अच्छा अच्छा करने के बाबजूद भी कहीं न कहीं कोई न कोई किसी भी प्रकार की चूक तो हो ही जाती है)-करने मे,कहने मे,सुनने मे,या अन्य कोई भी किसी भी प्रकार की जाने या अनजाने मे मानसिक अपराध हो गया हो तो हमें आप सभी प्रकार से क्षमा कर दीजियेगा-हम आपकी हर प्रकार से शरण मे हैं-शरण मे हैं-शरण मे हैं,हे करुणानिधान महादेव!करुणा करें-करुणा करें-करुणा करें-कृपा करें,कृपा करें-कृपा मात्र केवलम्।
हे पन्चानन करुणा वरुणालय श्री महादेव शम्भो आपकी जय हो,जय जय हो,जय ही जय जय हो।

पुष्पाणि सन्तु तव देव ममेन्द्रियाणि।
धूपोगरुर्वपुरिदं हृदयं प्रदीप:॥
प्राणा हवीषि करणानि तवाक्षताश्च।
पूजाफलं व्रततु साम्प्रतमेष जीव:॥ 💓🙏💓
हे महादेव,आपकी पूजा के लिए मेरी इन्द्रियां फूल बन  जाएं।मेरा शरीर सुगन्धित धूप और अगरु  बन जाए॥ मेरा हृदय दीप हो जाए,मेरी जीवनशक्ति यानी  प्राण हविष और सारी कर्मेन्द्रियां अक्षत बन जाएं।इस तरह मैं आपकी उपासना करता हुआ पूजा का  फल प्राप्त करूं॥   
💓🙏💓
उपरोक्त अद्भुत ‘शिव मंत्र स्तुति’ द्वारा हर  भक्त मन,प्राण,इन्द्रियों और कर्म को ही पूजा सामग्री के रूप में शिव को  समर्पित करता है।इसलिए बिना शिवालय जाए या किसी विवशता में भी  इस मंत्र मात्र से अद्भुत भक्ति आशुतोष शिव को जल्द  प्रसन्न करती है।
💓🙏💓
॥ॐ नमः शिवाय॥   
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॥तुम भोले भाले शम्भो…॥
तुम भोले भाले शम्भो,भस्मी रमाने वाले।
हे नाथ!भक्त जन के,संकट मिटाने वाले॥
तुमने सुधा सहित सब,सम्पत्ति बाँट डाली।
अबघड़ उदार दानी,रखते हो हाथ खाली॥
जगहित स्वयँ गरल भी,मुख से लगाने वाले॥
वे भेश तो अशिव पर,कल्याण रूप तुम हो।
तुम आशुतोष भी हो,तप,त्याग रूप तुम हो॥
पिछड़ों को साथ लेकर,आगे बढ़ाने वाले॥
तुम सन्त सज्जनों के,रक्षक हो सदा शिव हो।
हो रुद्र रूप भी तुम,यदि सामने अशिव हो॥
हो ज्ञान भावना की,धारा बहाने वाले॥
तुम भोले भाले शम्भो,भस्मी रमाने वाले।
हे नाथ!भक्त जन के,संकट मिटाने वाले॥
💓🙏💓
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भववारण कारण कर्मततौभवसिन्धुजले शिव मग्नमत:।
करुणाञ्च सम‌र्प्यतरिं त्वरितंजनतारण तारय तापितकम्॥
💓🙏💓
हे संसार की निवृत्ति करने वाले! हे कर्म विस्तार के कारण स्वरूप ! हे कल्याणमय! हे जीवोंका निस्तार करने वाले! संसार समुद्र के जल में डूबकर सन्तप्त होते हुए इस दास को अपनी करुणारूप नौका समर्पण करके यहाँ से तुरन्त उद्धार कीजिए।
💓🙏💓

ॐ अघोरेभ्यो,अथ घोरेभ्यो, घोर घोरतरेभ्यः।
सर्वतः सर्व सर्वेभ्यो,नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः॥ मृत्युंजय, त्र्यम्बकं, सदाशिव नमस्ते नमस्ते!!!

न जानामि योगं जपं नैव पूजां।
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्॥
💓🙏💓  
मैं न तो योग जानता हूँ,न जप और न पूजा ही।हे शम्भो,मैं तो सदा-सर्वदा आप को ही नमस्कार करता हूँ।
💓🙏💓 ॥जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
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पार्वतीनन्दनं शम्भोरानन्दपरिवर्धनम्।
भक्तानन्दकरं नित्यं मयूरेशं नमाम्यहम्॥
💓🙏💓
जो पार्वती जी को पुत्र रूप से आनन्द प्रदान करते और भगवान् शंकर का भी आनन्द बढ़ाते हैं,उन भक्तानन्दवर्धन मयूरेश गणेश को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ।
💓🙏💓

मित्रों! जब हम मंदिर में दर्शन करने जाते हैं तो खुली आंखों से भगवान को देखना चाहिए,निहारना चाहिए,उनके दर्शन करना चाहिए।कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं।आंखें बंद क्यों करना हम तो बिग्रह दर्शन करने आए हैं।भगवान के स्वरूप का,श्री चरणों का,मुखारविंद का,श्रंगार का,संपूर्णानंद लेंना चाहिए।आंखों में भर ले स्वरूप का दर्शन करना चाहिए और दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठे तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किए हैं उस स्वरूप का ध्यान करें।मंदिर में नेत्र नहीं बंद करना।बाहर आने के बाद पैड़ी पर बैठकर जब ठाकुर जी का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें और अगर ठाकुर जी का स्वरूप ध्यान में नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और भगवान का दर्शन करें।नेत्रों को बंद करने के पश्चात यह प्रार्थना करें:-

अनायासेन मरणम्,विना देन्येन जीवनम्।
देहान्त तव सानिध्यम्,देहि मे परमेश्वरम्॥

अनायासेन मरणम्’ -बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और हम कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर पड़े पड़े।कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हो,चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।
‘विना देन्येन जीवनम्’-परवशता का जीवन ना हो।मतलब हमें कभी किसी के सहारे ना पड़े रहना पड़े।जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है वैसे परवश या बेबस ना हो।ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सके।
‘देहांते तव सानिध्यम’– जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो।जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर जी उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए।उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।
‘देहि में परमेशवरम्’-हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना यह प्रार्थना करें घर,गाड़ी,पुत्र-पुत्री,पति,पत्नी,धन यह नहीं मांगना है।यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं।इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठकर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए।
यह प्रार्थना है,याचना नहीं है।याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है जैसे कि घर,व्यापार, नौकरी,पुत्र,पुत्री,सांसारिक सुख,धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है वह याचना है वह भीख है।हम प्रार्थना करते हैं प्रार्थना का विशेष अर्थ होता है अर्थात विशिष्ट।श्रेष्ठ प्रार्थना अर्थात निवेदन ठाकुर जी से प्रार्थना करें और प्रार्थना क्या करना है,यह श्लोक बोलना है।सब से जरूरी बात जब हम मंदिर में दर्शन करने जाते हैं तो खुली आंखों से भगवान को देखना चाहिए,निहारना चाहिए।उनके दर्शन करना चाहिए।कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं।आंखें बंद क्यों करना हम तो दर्शन करने आए हैं।भगवान के स्वरूप का,श्री चरणों का,मुखारविंद का,श्रंगार का,आनंद लें।आंखों में भर ले स्वरूप को ।दर्शन करें और दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठे तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किए हैं उस स्वरूप का ध्यान करें।मंदिर में नेत्र नहीं बंद करना।बाहर आने के बाद मंदिर की पैड़ी पर बैठकर जब ठाकुर जी का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें और अगर ठाकुर जी का स्वरूप ध्यान में नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और भगवान का दर्शन करें।नेत्रों को बंद करने के पश्चात उपरोक्त श्लोक का पाठ करें।मित्रों!
मन्त्र अर्थ से अधिक भाव प्रधान है।
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हे मेरे प्रभु ! मेरे ह्रदय में विराजमान हों।
दुनिया में जहाँ कहीं जाऊं,जिधर भी चलूँ,जो भी कर्म करूँ,हर समय मै तुझे याद रखूं।हे मेरे प्रभु! मैंने श्रद्धा का आसन बिछाया है,इस पर विराजमान हों।आपने जो अनंत-अनंत कृपाएं मेरे ऊपर की है,उन सबके प्रति मै आपका आभारी हूँ।
हे प्रभु! भूलकर मै आपको भूल भी जाऊं,पर मेरे प्रभु ! तेरी राह पर चलते चलते मेरा पग कभी रुके नहीं,मेरा मन थके नहीं,मेरी वाणी पर तेरा नाम बस जाए,कानो में तेरी महिमा सुनने के लिए उत्सुकता हो।
ये आँखें तेरी महिमा देखने के लिए सदैव तत्पर हो।ह्रदय में प्रेम देना,माथे पे शीतलता देना,घर में खुशहाली देना।
हे प्रभु!यही हम याचना करते है,यही वंदना है,यही अभ्यर्थना है हमारी,स्वीकार करो मेरे प्रभु।

॥तुभ्यं नमामि नारायणाय॥
पवन पुत्र के संग में,उड़ चलो पंख पसार। (तुभ्यं नमामि गजदीश्वराय)
गरुड़ राज पुलकित हृदय,मन में करत विचार।
नारायण के दर्शन होंगे,धन धन भाग हमारे।
धन धन भाग हमारे॥
बस एक झलक की ललक से झिलमिल।
नैनो के दो तारे,धन धन भाग हमारे।
श्रीमन नारायण गरिमा गायन,निस दिन तीनो भुवन करे।
भव भव भय भंजन,नित्य निरंजन अंजन करिजन नयन भरे॥
प्रभु परम प्रतापी प्रबल प्रभावी,आप ताप संताप हरे।
नित नारद शारद शेष महेश्वर,पार न पावे ध्यान धरे।
मोहे दूजी चाहन,करि के वाहन,राखो संग तिहारे॥
धन धन भाग्य हमारे॥
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॥श्रीकृष्ण:शरणं मम॥
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जिस देश में,जिस भेष में,जिस धाम में रहो।
राधा रमण,राधा रमण,राधा रमण कहो॥
जिस धाम में,जिस काम में,जिस नाम में रहो।
राधा रमण,राधा रमण,राधा रमण कहो॥
जिस रंग में,जिस संग में,जिस ढंग में रहो।
राधा रमण,राधा रमण,राधा रमण कहो॥
जिस रोग में,जिस भोग में,जिस योग में रहो।
राधा रमण,राधा रमण,राधा रमण कहो॥
जिस हाल में,जिस चाल में,जिस काल में रहो।
राधा रमण,राधा रमण,राधा रमण कहो॥
जिस ध्यान में,जिस ज्ञान में,परिधान में रहो।
राधा रमण,राधा रमण,राधा रमण कहो॥
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॥श्रीराधा रमण की जय हो॥
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॥श्री गुरुवे नमः॥
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॥मृत्युके पश्चात मनुष्य के साथ यह जाता है॥
१- कामना:-यदि मृत्यके समय हमारे मनमें किसी वस्तु विशेषके प्रति कोई आसक्ति शेष रह जाती है,कोई इच्छा अधूरी रह जाती है,कोई अपूर्ण कामना रह जाती है,तो मरणोपरान्त वही कामना उस जीवात्माके सङ्ग जाती है।
२-वासना:-वासना कामनाकी ही साथी है।वासनाका अर्थ मात्र शारीरिक भोगसे नहीं;अपितु इस संसारमें भोगे हुए प्रत्येक उस सुखसे है,जो उस जीवात्माको प्रसन्नता प्रदान करता है।चाहे वह घर हो,पैसा,गाड़ी,प्रतिष्ठा हो अथवा शौर्य।मृत्युके पश्चात भी ये अधूरी वासनाएं मनुष्यके सङ्ग ही जाती हैं तथा मोक्ष प्राप्तिमें बाधक होती हैं।
३-कर्म:-मृत्युके पश्चात हमारेद्वारा किए गए कर्म,चाहे वे सुकर्म हों अथवा कुकर्म,हमारे सङ्ग ही जाते हैं।मरणोपरान्त,जीवात्मा अपनेद्वारा किए गए कर्मों की पूंजी भी सङ्ग ले जाता है,जिसके लेखा-जोखाद्वारा उस जीवात्मा का,अर्थात हमारा,अगला जन्म निर्धारित किया जाता है।
४-ऋण:-यदि मनुष्यने,अर्थात हमने-आपने,जीवनमें कभी भी किसी भी प्रकारका ऋण लिया है,तो उस ऋण को यथासम्भव उतार देना चाहिए।जिससे मरणोपरान्त,इस लोकसे उस लोकमें उस ऋणको अपने सङ्गन ले जाना पडे।
५-पुण्य:-हमारेद्वारा किए गए दान-दक्षिणा व परमार्थ के कार्य ही हमारे पुण्योंकी पूंजी होती है;इसलिए हमें समय-समयपर अपने सामर्थ्य अनुसार दान-दक्षिणा एवं परमार्थ तथा परोपकार आवश्य ही करने चाहिए।
६-साधना:-मनुष्य मृत्युसे पूर्व जितनी भी साधना करता है,वह साथ जाती है;इसलिए साधना अवश्य करनी चाहिए।
इन छह तथ्यों के आधार पर ही मनुष्यको इस मृत्युलोक को छोड़कर,परलोक जानेपर,उस लोक अथवा अगले जन्मकी प्रक्रिया का चयन किया जाता है।
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॥श्री गुरुवे नमः॥
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विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

ॐ पितृगणाय विद्महे!जगत धारिणी धीमहि!!
तन्नो पितृो प्रचोदयात्!!!
ॐ देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नम: स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नम:॥
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॥पितरों को नमन:पितृ देवाय नम:॥
वो कल थे तो आज हम हैं,उनके ही तो अंश हम हैं।
जीवन मिला उन्हीं से,उनके कृतज्ञ हम हैं॥
सदियों से चलती आयी,श्रंखला की कड़ी हम हैं।
गुण धर्म उनके ही दिये,उनके प्रतीक हम हैं॥
रीत रिवाज़ उनके हैं दिये,संस्कारों में उनके हम हैं।
देखा नहीं सब पुरखों को,पर उनके ऋणी तो हम हैं॥
पाया बहुत उन्हीं से पर,न जान पाते हम हैं।
दिखते नहीं वो हमको,पर उनकी नज़र में हम हैं॥
देते सदा आशीष हमको,धन्य उनसे हम हैं।
खुश होते उन्नति से,दुखी होते अवनति से।
देते हमें सहारा,उनकी संतान जो हम हैं॥
इतने जो दिवस मनाते,मित्रता प्रेम आदि के।
पितरों को भी याद कर लें,जिनकी वजह से हम हैं॥
आओ नमन कर लें कृतज्ञ हो लें,क्षमा माँगलें आशीषलें।
पितरों से जो चाहते हमारा भला,उनके जो अंश हम हैं॥
॥पितरों को नमन:पितृ देवाय नम:॥
🌻🙏🌻

नमामीशमीशान निर्वाण रूपं,विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम्‌।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं,चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्‌॥
निराकार मोंकार मूलं तुरीयं,गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्‌।
करालं महाकाल कालं कृपालुं,गुणागार संसार पारं नतोऽहम्‌॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं,मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्‌।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा,लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥
चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं,प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्‌।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं,प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥
प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं,अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्‌।
त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं,भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम्‌ ॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी,सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी,प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं,भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्‌।
न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं,प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजा,न तोऽहम्‌ सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्‌।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं,प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो॥

मित्रो!शिव को ही रुद्र कहा जाता है।क्योंकि-रुतम्-दु:खम्,द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानि की भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं।हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं।रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है।रूद्र शिव जी का ही एक स्वरूप हैं।रुद्राभिषेक मंत्रों का वर्णन ऋग्वेद,यजुर्वेद और सामवेद में भी किया गया है।शास्त्र और वेदों में वर्णित हैं की शिव जी का अभिषेक करना परम कल्याणकारी है।रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे पातक कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।’रूद्रहृदयोपनिषद‘ में शिव के बारे में कहा गया है कि-‘सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:’ अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।इसको करना परम कल्याण कारी है।रुद्राभिषेक अद्भुत व् शीघ्र फल प्रदान करने वाला होता है।हमारा यह निजी अनुभव भी है।

॥ॐ शिव ॐ शिव…॥
ॐ शिव ॐ शिव,परात्परा शिव,ॐकारा शिव तव शरणम्।
हे शिव शँकर,भवानी शँकर,उमा महेश्वर तव शरणम्॥
हे वृषभध्वज,धर्मध्वज,शंभू सदाशिव तव शरणम्।
हे जगदीश पिनाकि महेश्वर,त्रिनयन शँकर तव शरणम्॥
हे शशिशेखर,शंभू शिवाप्रिय,शिव गङ्गाधर तव शरणम्।
हे शूलपाणि सोम शिवाप्रिय,शिव शिपिविष्ट: तव शरणम्॥
हे मृत्युन्जय पशुपति शँकर,भुजंग भूषण तव शरणम्।
कैलाशवासी रुद्र गिरीश,पार्वती पति शिव तव शरणम्॥
💓🙏💓

ध्यायामि शीतलां देवीं,रासभस्थां दिगम्बराम्।
मार्जनी-कलशोपेतां शूर्पालङ्कृत-मस्तकाम्॥
🌻🙏🌻
॥शीतलाअष्टक स्तोत्रं॥
वन्दे अहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बराम्।
मार्जनी कलशोपेतां शूर्पालं कृत मस्तकाम्॥१॥
वन्देअहं शीतलां देवीं सर्व रोग भयापहाम्।
यामासाद्य निवर्तेत विस्फोटक भयं महत्॥२॥
शीतले शीतले चेति यो ब्रूयाद्दारपीड़ितः।
विस्फोटकभयं घोरं क्षिप्रं तस्य प्रणश्यति॥३॥
यस्त्वामुदक मध्ये तु धृत्वा पूजयते नरः।
विस्फोटकभयं घोरं गृहे तस्य न जायते॥४॥
शीतले ज्वर दग्धस्य पूतिगन्धयुतस्य च।
प्रनष्टचक्षुषः पुसस्त्वामाहुर्जीवनौषधम्॥५॥
शीतले तनुजां रोगानृणां हरसि दुस्त्यजान्।
विस्फोटक विदीर्णानां त्वमेका अमृत वर्षिणी॥६॥
गलगंडग्रहा रोगा ये चान्ये दारुणा नृणाम्।
त्वदनु ध्यान मात्रेण शीतले यान्ति संक्षयम्॥७॥
न मन्त्रा नौषधं तस्य पापरोगस्य विद्यते।
त्वामेकां शीतले धात्रीं नान्यां पश्यामि देवताम्॥८॥
॥फल-श्रुति॥
मृणालतन्तु सद्दशीं नाभिहृन्मध्य संस्थिताम्।
यस्त्वां संचिन्तये द्देवि तस्य मृत्युर्न जायते॥९॥
अष्टकं शीतला देव्या यो नरः प्रपठेत्सदा।
विस्फोटकभयं घोरं गृहे तस्य न जायते॥१०॥
श्रोतव्यं पठितव्यं च श्रद्धा भक्ति समन्वितैः।
उपसर्ग विनाशाय परं स्वस्त्ययनं महत्॥११॥
शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता।
शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः॥१२॥
रासभो गर्दभश्चैव खरो वैशाख नन्दनः।
शीतला वाहनश्चैव दूर्वाकन्दनिकृन्तनः॥१३॥
एतानि खर नामानि शीतलाग्रे तु यः पठेत्।
तस्य गेहे शिशूनां च शीतला रूङ् न जायते॥१४॥
शीतला अष्टकमेवेदं न देयं यस्य कस्यचित्।
दातव्यं च सदा तस्मै श्रद्धा भक्ति युताय वै॥१५॥
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॥श्रीस्कन्दपुराणे शीतलाअष्टक स्तोत्रं॥
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॥ॐ ह्रीं श्रीं शीतलायै नमः॥
विनयावत; दिगम्बर ध्यानी

॥मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे।
कैसे तारोगे प्रभु जी मेरो,प्रभु जी कैसे तारोगे।
मैली चारद मैली झील,कहो ना कैसे तारोगे॥
पाप करंता हँसे यह मनवा,जाप करंता रोवे।
भोग रोग में निसदिन जागे,कथा कीर्तन सोवे।
नित नित सोचे उलटा तदबीर,कहो ना कैसे तारोगे॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
मीरा तुलसी नहीं सुहावे,नौटंकी मन भावे।
राम नाम से जी कतरावे,पल पल काम सतावे।
हमे रुचे ना सूर कबीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
कंचन और कामिनी मन ने करनी एक करी ना।
हीरे छोड़ बटोरी कंकर,तृष्णा तनिक मरी ना।
ऐसी फूटी पड़ी तकदीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे…॥
मेरा अवगुण भरा शरीर,कहो ना कैसे तारोगे।
कैसे तारोगे प्रभु जी मेरो,प्रभु जी कैसे तारोगे॥
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॥तुमसे मिलने से पहले न निकले ये दम॥
सांस देना प्रभु इतनी तो कम से कम,
तुमसे मिलने से पहले न निकले ये दम॥
जो चलता है ये सारे संसार को,
मैं भी कर लू ज़रा उसका दीदार तो,
क्या पता फिर मिले ना मिले ये जनम,
तुमसे मिलने से पहले न निकले ये दम॥
आज जो खुश भी हूँ तेरा उपकार है,
मेरे जीवन का एक तू ही आधार है,
तेरा कर दू अदा शुकरियाँ कम से कम,
तुमसे मिलने से पहले न निकले ये दम॥
जितनी सेवा तेरी करनी थी न वो की,
मुँह दिखने की मैं तुझको मैं काबिल नहीं,
फिर भी मुझको यकीन तू करेगा रहम,
तुमसे मिलने से पहले न निकले ये दम॥
बस ऐसी आस में बीते जीवन मेरा,
एक दिन तो होगा प्रभु दर्शन तेरा,
किन्तु तरसे तुझे देखने को नयन,
तुमसे मिलने से पहले न निकले ये दम॥
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॥सांवरे से मिलने का सत्संग ही बहाना है॥
सांवरे से मिलने का,सत्संग ही बहाना है,
चलो सत्संग में चलें,हमें हरी गुण गाना है।
मेरे सांवरे से मिलने का सत्संग ही बहाना है॥
मथुरा में ढूँढा तुझे,गोकुल में पाया है,
वृन्दावन की गलियों में,मेरे श्याम का ठिकाना है।
सांवरे से मिलने का,सत्संग ही बहाना है॥
बाग़ों में ढूँढा तुझे,फूलों मे पाया है,
मोगरे की कलियोँ में,मेरे श्याम का ठिकाना है।
साँवरे से मिलने का,सतसंग ही बहाना है॥
सखियों ने ढूँढा तुझे,गोपियों ने पाया है,
राधा जी के हृदय में,मेरे श्याम का ठीकाना है।
साँवरे से मिलने का,सत्संग ही बहाना है॥
राधा ने ढूँढा तुझे,मीरा ने पाया है,
मैंने तुझे पा ही लिया,मेरे दिल में ठिकाना है।
साँवरे से मिलने का,सतसंग ही बहाना है॥
महलों मे ढूँढा तुझे,झोपड़ी में पाया है,
सुदामा की कुटियाँ में,मेरे श्याम का बसेरा है। 
साँवरे से मिलने का,सत्सङ्ग ही बहाना है॥
मीरां पुकार रही,आओ मेरे गिरधारी,
विष भरे प्याले को,तुम्हें अमृत बनाना है।
साँवरे से मिलने का,सत्संग ही बहाना है॥
चलो सत्संग में चलें,हमें हरी गुण गाना है, 
साँवरे से मिलने का,सतसंग ही बहाना है॥
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एक बार सन्त तुलसीदासजी से एक भक्त ने पूछा: कभी-कभी भक्ति करने को मन नहीं करता फिर भी नाम जपने के लिये बैठ जाते है,क्या उसका भी कोई फल मिलता है?
सन्त तुलसीदासजी ने मुस्करा कर कहा;
तुलसी मेरे राम को,रीझ भजो या खीज।
भौम पड़ा जामे सभी,उल्टा सीधा बीज॥
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भूमि में जब बीज बोये जाते हैं तो यह नहीं देखा जाता कि बीज उल्टे पड़े हैं या सीधे पर फिर भी कालांतर में फसल बन जाती है।
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प्रभु नाम सुमिरन कैसे भी किया जाये उसके सुमिरन का फल अवश्य ही मिलता है।
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राम जैसा नगीना नहीं सारे जग की बजरिया में।
नील मणि ही सजाऊँगा नयनो की पुतलिया में॥
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bhaktipath.wordpress.com अध्यात्म अपनी चेतना को अंतर्मुखी कर आंतरिक रूपांतरण की प्रक्रिया को क्रियाशील करने का नाम है।सँसार की पहचान अध्यात्म की शक्ति से ही की जा सकती है।इसके लिए कर्म,ज्ञान और भक्ति मार्ग का रास्ता आपके सामने खुला है।ये मार्ग अध्यात्म की यात्रा है।हमनें तो भक्तिमार्ग ही चुना है और इसी भक्तिपथ पर अग्रसर हैं।
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॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥
॥श्री गुरुभ्यो नमः॥
शरणागत; दिगम्बर
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धनानि भूमौ पशवो हि गोष्ठे,नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने।
देहश्चितायाम् परलोकमार्गे,धर्मानुगो गच्छति जीव एकः॥
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मित्रों!इसका भावार्थ यह हुआ कि-मनुष्य का शरीर शांत होने पर,धन सम्पदा भूमि पर ही पड़ी रह जाती है,मोटर गाड़ियाँ घर में,पशु अस्तबल में रह जाते हैं,पत्नी घर के द्वार तक साथ देती है,बन्धुजन श्मशान तक साथ चलते हैं और अपनी स्वयं की देह भी चिता में अर्पित हो जाती है।तत्पश्चात् परलोक मार्ग पर जीव को अकेला ही जाना होता है।केवल धर्म ही उसका अनुगमन करता हुआ साथ चलता है।भारत के चार धाम आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा परिभाषित चार वैष्णव तीर्थ हैं।जहाँ हर हिंदू को अपने जीवन काल मे अवश्य जाना चाहिए,जो हिंदुओं को मोक्ष प्राप्त करने में मदद करेंगे।इसमें उत्तर दिशा मे बद्रीनाथ, पश्चिम की ओर द्वारका,पूर्व दिशा मे जगन्नाथ पुरी और दक्षिण मे रामेश्वरम धाम है।बड़े सँकोच के साथ कहने का दुस्साहस कर रहा हूँ कि जीवन के ६८ साल में भारत के सिर्फ़ ‘तेरह राज्यों’ के ‘छियासठ धार्मिक’ एवँ तीन अन्य महत्वपूर्ण यात्रायें कुल ६९ यात्राएँ ही सम्पन्न हो सकीं है,जिनमें यह चारों धाम भी सम्लित हैं। अभी धार्मिक यात्राएँ करने के लिए प्रयासरत रहतें है।
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वन्दे नितरां भारतवसुधाम्।
दिव्यहिमालय-गंगा-यमुना-सरयू-कृष्णशोभितसरसाम्॥
💓🙏💓
Salutations to the land of Bharat that shines with Devine Himalayas,Ganga,Yamuna,Sarayu Krishna and many more rivers.
💓🙏💓 अन्य प्रदेशात्स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे स नर: सुखी स्यात्।
गृहाद्गतो यो न पुन: प्रयाति तस्मै नम: श्रीरविनन्दनाय॥
💓🙏💓 दूसरे स्थान से यात्रा करके शनिवार के दिन अपने घर में जो प्रवेश करता है,वह सुखी होता है और जो अपने घर से बाहर जाता है वह शनि के प्रभाव से पुन: लौटकर नहीं आता है,ऐसे शनिदेव को नमस्कार है॥
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मित्रों यह श्लोक दशरथकृत “शनि स्तवन” का ७वां श्लोक है।इससे हमें भरसक प्रयास करना चाहिए कि हम किसी विशेष यात्रा के लिए घर से शनिवार को प्रस्थान नहीं करेंगें और यात्रा समाप्ति के बाद घर वापिसी शनिवार के दिन हो तो बेहतर।पुनःशनिदेव को नमस्कार है॥मङ्गलं॥
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विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

॥उत्तराखंड की धार्मिक स्थानों की यात्राएँ॥
१- ॥श्रीबद्रीनाथ धाम,उत्तराखंड॥
२- ॥श्री केदारनाथ॥
३- ॥श्री गंगोत्री॥
४- ॥श्री यमनोत्री॥
५- ॥माँ चन्द्रबदनी॥
६- ॥माँ धारी देवी॥
७- ॥देवलगढ़ की गौरा माँ॥
८- राज राजेश्वरी माँ,देवलगढ़॥
९- ॥डांडा का नागराजा॥
१०- ॥काली माता ऊखीमठ॥
११- ॥जागेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग॥
१२- ॥देवप्रयाग॥
१३- ॥चितई गोल्ज्यू देवता॥
१४- ॥सूर्यनारायण मन्दिर कटारमल॥
१५- ॥श्री दक्षेश्वर मन्दिर कनखल॥
१६- ॥हरिद्वार,महाकुंभ स्नान॥
१७- ॥माँ नैना देवी नैनीताल॥
१८- ॥श्री सिद्धबली मन्दिर कोटद्वार॥
१९- ॥सुरकण्डा माँ मन्दिर,कद्दूखाल॥
२०- ॥श्री कमलेश्वर महादेव,श्रीनगर॥
२१- ॥श्री नरसिंह मन्दिर जोशीमठ॥
२२- ॥माँ नन्दा देवी,अल्मोड़ा॥
२३- ॥माँ नन्दा देवी मन्दिर,देवराडा॥
२४- ॥मलयनाथ;सिराकोट मंदिर डीडीहाट॥
२५- ॥कुंजापुरी देवी दुर्गा का मंदिर॥
२६- ॥ओंकारेश्वर मन्दिर ऊखीमठ॥
२७- ॥श्री सिद्धेश्वर महादेव,केदारपुर,देहरादून॥

॥उत्तरप्रदेश की धार्मिक स्थलों की यात्राएँ॥
१- ॥ काशी विश्वनाथ वाराणसी॥
२- ॥ श्री कृष्ण जन्मभूमि मथुरा॥
३- ॥ श्री बाँकेबिहारी मन्दिर वृंदावन॥
४- ॥ श्री गोवर्धन॥
५- ॥ नन्दगाँव॥
६- ॥ बरसाना॥
७- ॥ शाकम्भरी देवी,सहारनपुर॥
८- ॥ लखनऊ,अमीनाबाद ‘हनुमान मंदिर’॥

॥हिमाचल प्रदेश की धार्मिक स्थानों की यात्राए॥
१- महासू देवता मन्दिर हनोल।
२- महिषासुर मर्दनी मन्दिर हाटकोटी।
३- माँ ज्वाला देवी मंदिर।
४- माँ भीमकाली मन्दिर सराहन।
॥तमिलनाडु की धर्मिक स्थानों की यात्राएं॥
१- श्री रामेश्वरम।
२- कन्याकुमारी।
३- मीनाक्षी सुन्दरं मदुरै।
४- मरीना बीच चिन्नई।
॥महाराष्ट्र की धार्मिक स्थानों की यात्राएँ॥
१- नागपुर के टेकड़ी गणेश।
२- शिरड़ी।
३- शनि शिंगणापुर।
४- दगड़ू सेठ हलवाई गणपति मन्दिर पुणे। 
॥बिहार की धार्मिक स्थानों की यात्राए॥
१- गया तीर्थ।
२ – बोध गया। 
॥गुजरात की तीर्थ स्थानों की यात्राएँ॥
१- श्री सोमनाथ मंदिर।
२- भालका तीर्थ।
३- श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग।
४-श्री हरिसिद्ध माता मंदिर।
५- श्री द्वारिकाधीश मन्दिर।
६- रुक्मिणी माई मन्दिर।
७ – श्री बेंट द्वारका मन्दिर।
॥असम के धार्मिक स्थानों की यात्राएँ॥
१- माँ कामाख्या मंदिर गौहाटी।
॥जम्मू कश्मीर की धार्मिक यात्राएँ॥
१- श्री शंकराचार्य “शिव मंदिर” श्रीनगर।
२- श्री रघुनाथ मंदिर जम्मू। 
३- माँ वैष्णवदेवी मन्दिर।
॥दिल्ली के धार्मिक स्थानों की यात्राएं॥
१-श्री अक्षर धाम।
॥ओडिशा के धार्मिक स्थानों की यात्राएँ॥
१- श्री लिङ्गराज मन्दिर,भुवनेश्वर।
२- श्री जगन्नाथपुरी।
३- कोणार्क सूर्य मन्दिर। 
॥केरल की धार्मिक यात्राएँ॥
१-श्री पद्मनाभस्वामी मन्दिर त्रिवेंद्रम।
॥आंध्रप्रदेश की धार्मिक यात्राएँ॥
१-श्री बैंकटेशस्वामी मन्दिर तिरुपति बालाजी।     
💓🙏💓                      
॥देशाटन॥
१-॥ताजमहल;दुनियाँ का सातवाँ आश्चर्य॥
२-॥पटनीटॉप जम्मू॥
३-॥नन्दन कानन चिड़ियाघर(जूलॉजिकल पार्क)॥
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ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥-(ऋग्वेद)
उस प्राणस्वरूप,दुःखनाशक,सुखस्वरूप,श्रेष्ठ,तेजस्वी, पापनाशक,देवस्वरूप परमात्मा को हम अंत:करण में धारण करें।वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
मित्रों इस मंत्र या ऋग्वेद के पहले वाक्य का निरंतर ध्यान करते रहने से व्यक्ति की बुद्धि में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाता है।
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उत्तराखंड की धार्मिक स्थानों की यात्राएँ:-

१- श्रीबद्रीनाथ धाम,उत्तराखंड:-

श्री बद्रीवन विच बद्री तरू तल बद्रीकाश्रम शोभितम्।
शैलशुभ हिमाल चाहुदिसि बदरीनाथ नमाभ्यहम्॥
ऋषि गंगा अलकनन्दा कुर्मधार प्रहृलादकम्।
शिला पंच शिर विरंजी बदरीनाथ नमाभ्यहम्॥
श्वसनमंद सुगन्ध शीतल बहत त्रिविध सुधाकरम्।
स्वर्ण मंदिर अति सुन्दर बदरीनाथ नमाभ्यहम्॥
तप्तकुंड प्रचंड पावन धार गौमुख युग युगम्।
निकट नारद कुंड मंडित बरदीनाथ नमाभ्यहम्॥
नर नारायण वाम साजे दाहिजे धनकेश्वरम्।
अग्र नारद गरूड उद्वव बदरीनाथ नमाभ्यहम्॥
श्री बदरीनाथ बिशाल स्तुति पढत पाप विनाशनम्।
श्री बदरीनाथ विश्वम्भरम्॥। भनत लज्जाराम द्विजवर श्री बदरीनाथनमाभ्यहम्॥
श्री बदरीनाथ नमाभ्यहम्॥ [लज्जाराम जी हमारे प्रपितामह थे।]

पवन मंद सुगंध शीतल हेम मंदिर शोभितम्,
निकट गंगा बहत निर्मल श्री बदरींनाथ विश्वम्भरम्।
💓🙏💓
अन्यत्र मरणामुक्ति: स्वधर्म विधिपूर्वकात।
बदरीदर्शनादेव मुक्ति: पुंसाम करे स्थिता॥
💓🙏💓
अन्य तीर्थों में तो स्वधर्म का विधिपूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने से ही मनुष्य की मुक्ति होती है,किन्तु बदरीविशाल के दर्शन मात्र से ही मुक्ति उसके हाथ में आ जाती है।[महाभारत]
💓🙏💓

वन्दे श्रीनारसिंहं गरुड़सुरमुनिक्रोडकेदारगङ्गा।
मार्कण्डेयाग्नितीर्थद्रविणभगवत्पाद्दुर्गागणेशान्॥
घण्टाकर्णोद्धव श्रीनरनगबदरीनाथ नारायणाख्यम्।
ब्रह्मप्रह्लादयोगीश्वर पदकमल श्रीनृसिंहाँश्च भक्तया॥

॥सर्वबाधा निवारक घंटाकर्ण मंत्र॥
ॐ घंटाकर्णो महावीरः सर्वव्याधि-विनाशकः।
विस्फोटक भयं प्राप्ते,रक्ष-रक्ष महाबलः॥१॥
यत्र त्व तिष्ठसे देव!लिखितोऽक्षर-पंक्तिभिः।
रोगास्तत्र प्रणश्यन्ति,वात पित्त कफोद्भवाः॥२॥
तत्र राजभयं नास्ति,यान्ति कर्णे जपात्क्षयम्‌।
शाकिनी-भूत वेताला,राक्षसाःप्रभवन्ति नो॥३॥
ज़नाकाले मरण तस्य,न च सर्पेण दृश्यते।
अग्नि चौर भयं नास्ति,ॐ ह्वीं श्रीं घंटाकर्ण।
नमोस्तुते!ॐ नरवीर! ठः ठः ठः स्वाहा॥
💓🙏💓
भगवान महावीर के ‘सर्वबाधा निवारक घंटाकर्ण मंत्र’ को रोजाना २१ (इक्कीस) बार जाप करने से आपके मन में आने वाली सभी प्रकार की बाधाएं,जैसे-चोरी का भय,राज भय,आग अथवा सर्प भय एवं भूत-प्रेत आदि की समस्त बाधाएं दूर होकर मनुष्य अपनी सारी परेशानियों से मुक्ति पा सकता है।
💓🙏💓
विनयावनत; दिगम्बर

बहूनि सन्ति तीर्थानि,दिवि भूमौ रसातले।
बदरी सदृशं तीर्थ,न भूतं न भविष्यति॥ मित्रों महाभारत में श्री बदरीनाथ धाम का उल्लेख करते हुए लिखा गया है:- अन्यत्र मरणामुक्ति: स्वधर्म विधिपूर्वकात।
बदरी दर्शना देव मुक्ति: पुंसाम करे स्थिता॥
अर्थात अन्य तीर्थों में तो स्वधर्म का विधिपूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने से ही मनुष्य की मुक्ति होती है,किन्तु बाबा बदरीविशाल के दर्शन मात्र से ही मुक्ति उसके हाथ में आ जाती है।💓🙏💓 श्री बदरीनाथ जी का मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले में स्थित है।बद्रीनाथ भारत के सबसे लोकप्रिय तथा पवित्र मन्दिर माने जाने वाले चार धामों में से एक है;अन्य धाम रामेश्वरम,पुरी और द्वारका हैं।यद्यपि इन धामों की उत्पत्ति स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है,परन्तु आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित हिंदू धर्म के अद्वैत सम्प्रदाय ने इनकी उत्पत्ति का श्रेय शंकराचार्य को ही दिया है।भारत के चार कोनों में स्थित इन धामों की यात्रा हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाती है,और हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कम से कम एक बार तो इन धामों का दौरा करने की इच्छा रखता है।परंपरागत रूप से,यह तीर्थयात्रा पूर्वी छोर पर स्थित पुरी से शुरू होती है,और फिर दक्षिणावर्त -घड़ी की सुलटी दिशा में-(Clock-Wise)आगे बढ़ती है।ये मन्दिर हैं:- उत्तर में– बद्रीनाथ में स्थित बद्रीनाथ मन्दिर, पूर्व में- उड़ीसा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मन्दिर, पश्चिम में- गुजरात के द्वारका में स्थित द्वारकाधीश मन्दिर। दक्षिण में- श्री रामेश्वरम। भगवान की अहैतुकी कृपा से हम दोनों पति-पत्नी को इन चारों धामों के दर्शनार्थ यात्रा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ हैं।श्री बद्रीनाथ धाम में तो हमारे पूर्वजों की विरासत है श्री लज्जागढ़ में जहाँ हमारा पैतृक निवास भी है।बड़े सँकोच के साथ यह कह रहा हूँ कि हमारे प्रपितामह स्व० लज्जाराम जी ने यहाँ मन्दिर परिसर के पीछे ही निज एवँ यात्रियों के निवास हेतु”लज्जागढ़” का निर्माण किया था तथा मंदिर के नीचे अलकनन्दा नदी के तट पर “तप्तकुण्ड”(गरम पानी का कुण्ड) का जीर्णोद्धार निज़ी द्रव्य से किया था।इस संदर्भ में निम्नलिखित नकल प्रस्तुत-(तप्तकुण्ड की मरम्मत)-नकल रिपोर्ट धर्मदत्त डिमरी मुख्तार मन्दिर बद्रीनाथ न. दी.२६६ /ता०२९ अगस्त १८८९ इ० दरम्यान मुद्दई अनन्तराम वगैरह पंच पंडा मुद्दालै पुरुषोत्तम रावल काशीराम लेखवार मन्दिर बद्रीनाथ।दावा तप्तकुण्ड मे कानूनगो का लड़का श्रीरामशाह नारदशिला हट जाने से खड्डे मे गिर पड़े,सख्त चोट लगी।खतरे की जगह हो गई है।इसको बनाने का काम पंचदेवप्रयागियों का है।जो कि ख्याल नहीं करते।इनसे तैयार न कराएँगे तो संगीन खतरा होने वाला है। रि.ता. ०७ सितंबर १८८९ ई० हुक्म इतलाय हुआ ता, 07-09-1889 ई० रसीद नारायण रावल बद्रीनाथ सं. १९०५ (सन १८४८) के आषाढ़ ८ गते देवप्रयाग का जगतराम देवीदत्त रामचन्द्र धनीराम पंचो को बचणी आगे २९० रुपये बाबत तप्तकुण्ड काष्ठते छौंणको तुमन देया।साल हाल मा तप्तकुण्ड छवांई की तैयार कर देणी रसीद चिठ्ठी दी। हु० महाराजा प्रतापशाहजी से सं० १९४० (सन १८८३) का सावन ११गते आगे १ रुपया नजराना का तुम्हारा सरकार मे आया,और तुमने लिखा कि मु.बद्रीनाथजी मे तप्तकुण्ड उखड़ जाना नारदशिला के हट जाने से पेश हुई।लिखा जाता है कि यह कुण्ड जबकि सरकारी इलाके मे नहीं है,न दखल है तो कैसे मरम्मत सरकार करेगी।जिसकी आजीविका है वह अपना खर्च करके तामीर कराय देव फक्त। डि. न. दर्जे अव्वल चन्द्रादत्त पाण्डे हुक्म सर्व दुखदाई कामों के हटाने का (द.११३जमीमा ५ न० १६ के) मु.ता. जुलाई १९१३ई. बनाम मुसम्मी पंचदेवप्रयागि पंडा बद्रीनाथ।बाबत जो कि हमारे जाहिर किया गया है कि(१) तप्तकुण्ड की छत को बहुत नीचे कर दिया है जिससे हर वक्त यात्रियों के सिर पर चोट आने का अंदेशा रहता है तुमको हिदायत की जाती है कि तुम दस रोज के अंदर तप्तकुण्ड की छत को इतना ऊँचा कर दो कि सिर पर चोट न लगे ता० २० जुलाई १९१३ को हाजिर होकर हुक्म की तामीली क्यों न कराई जाय जाहिर करो। चिo रावल वासुदेव बद्रीनाथ ताo १० जुलाई २६ स्या. ७० सेठ रामनाथ देवीप्रसाद बंशीधर रामप्रसाद वगैरह पंच पंडा देवप्रयागी बद्रीनाथ।लिखा जाता है कि तप्तकुण्ड अगल बगल बड़ा ऊपर का धारा गरूड छुनेर कुण्ड को बनाने को मन्दिर मे गुंजाइश नहीं यजमान से दिलाने पर ही हो सकता है आप लोग अपने ठेकेदार को भी कहना कि जो नुकसान,मैला करे उसकी रिपोर्ट कर दो।
{पंचायत की ओर से श्री लज्जाराम ध्यानी ने तप्तकुण्ड का निर्माण कराया।}
(1) लज्जाराम ध्यानी,राणाकोट में जन्मे,समाज के हितचिन्तक थे,बद्रीनाथ में तप्तकुण्ड में देवप्रयागियों का दान लेने का अधिकार उन्ही के प्रयासों का प्रतिफल है,सँवत १९६९ (सन १९१२) में तप्तकुण्ड का जीर्णोद्धार कराया,सँवत १९८६ (सन १९२९) में पण्डावृति सुधार करवाया !बद्रीनाथ की यात्रा प्रचारित करने हेतु “बद्रीश यात्रा दर्शन” पद्यावली की रचना की,जिसमें यात्रा मार्ग,तीर्थ,चट्टियों का विस्तृत वर्णन है,बचपन में मैने देखी थी,अब नही दिखती,उसमें देवप्रयाग के बारे में लिखा था;
देवपुरी सम देवप्रयागा,बँदन करत सहित अनुरागा।
बसहि बिप्र नही दूसरी जाता,कर्म अपूर्व करहिं दिन राता॥ 💓🙏💓

श्री बद्रीनाथ धाम दो पर्वतों पर स्थित है जिन्हें नर-नारायण के नाम से जाना जाता है।
“नर और नारायण” जुड़वाँ संत थे जो कि भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं।इन्होंने ब्रह्मा के पुत्र ‘धर्म’ की पत्नी रूचि के गर्भ से जन्म लिया था।भगवान नर-नारायण की जय हो।श्री बदरीविशाल की जय हो।

भू-वैण्ठकृतावासं देवदेवं जगत्पतिम्।
चतुर्वर्गप्रदातारं श्रीबद्रीशं नमाम्यहम्॥१॥
तापत्रयहरं साक्षाच्छान्तिपुष्टिबलप्रदम्।
परमानन्ददातारं श्रीबद्रीशं नमाम्यहम्॥२॥
सद्यः पापक्षयकरं सद्यः कैवल्यदायकम्।
लोकत्रयविधातारं श्रीबद्रीशं नमाम्यहम्॥३॥
भक्तवाञ्छाकल्पतरुं करुणासारविग्रहम्।
भवाब्धिपारकर्तारं श्रीबद्रीशं नमाम्यहम्॥४॥
सर्वदेवनुतं शश्वत् सर्वतीर्थास्पदं विभुम्।
लीलयोपात्तवपुषं श्रीबद्रीशं नमाम्यहम्॥५॥
अनादिनिधनं कालकालं भीमयमच्युतम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवं श्रीबद्रीशं नमाम्यहम्॥६॥
गन्धमादनकूटस्थं नरनारायणात्मकम्।
बदरीखण्डमध्यस्थं श्रीबद्रीशं नमाम्यहम्॥७॥
शत्रूदासीनमित्राणां सर्वज्ञं समदर्शिनम्।
ब्रह्मानन्दचिदाभासं श्रीबद्रीशं नमाम्यहम्॥८॥
श्रीबद्रीशाष्टमिदं यः पठेत्प्रयतः शुचिः।
सर्वपापविनिर्मुक्तः स शान्तिं लभते पराम्॥९॥
💓🙏💓
॥जय श्रीबदरीविशाल जी की॥

बदरीनाथ में “ब्रह्मकपाल” में पिण्डदान;
चारो धामों में प्रमुख उत्तराखंड के बदरीनाथ के पास स्थित ब्रह्माकपाल के बारे में मान्यता है कि यहाँ पर पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को नरकलोक से मुक्ति मिल जाती है। स्कंद पुराण में ब्रह्मकपाल को गया से आठ गुणा अधिक फलदायी पितरकारक तीर्थ कहा गया है।
सृष्टि की उत्पत्ति के समय जब तीन देवों में ब्रह्मा जी, अपने द्वारा उत्तपत्तित कन्या के रुप पर मोहित हो गए थे, उस समय भोलेनाथ ने गुस्से में आकर ब्रह्मा के सिरों में से एक को त्रिशूल के काट दिया था।
इस प्रकार शिव पर ब्रह्म हत्या का पाप लग गया था और वह कटा हुआ सिर शिवजी के हाथ पर चिपक गया था। ब्रह्मा की हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए जब भोलेनाथ पूरी पृथ्वी लोक के भ्रमण पर गए परन्तु कहीं भी ब्रह्म हत्या से मुक्ति नही मिली।
भृमण करते करते शिवजी बदरीनाथ पहुँचे वहाँ पर ब्रह्मकपाल शिला पर शिवजी के हाथ से ब्रह्माजी का सिर जमीन पर गिर गया और शिवजी को ब्रह्म हत्या से मुक्ति मिली।तभी से यह स्थान ब्रह्मकपाल के रुप में प्रसिद्ध हुआ।ब्रह्मकपाल शिला के नीचे ही ब्रह्मकुण्ड है जहाँ पर ब्रह्मा जी ने तपस्या की थी।
शिवजी ने ब्रह्महत्या से मुक्त होने पर इस स्थान को वरदान दिया कि यहाँ पर जो भी व्यक्ति श्राद्ध करेगा उसे प्रेत योनी में नहीं जाना पड़ेगा एवं उनके कई पीढ़ियों के पितरों को मुक्ति मिल जाएगी।पुराणों में बताया गया है कि उत्तराखंड की धरती पर भगवान बद्रीनाथ के चरणों में बसा है ब्रह्म कपाल।अलकनंदा नदी ब्रह्मकपाल को पवित्र करती हुई यहाँ से प्रवाहित होती है।इस स्थान के विषय में मान्यता है कि इस स्थान पर जिस व्यक्ति का श्राद्ध कर्म होता है उसे प्रेत योनी से तत्काल मुक्ति मिल जाती है और भगवान विष्णु के परमधाम में उसे स्थान प्राप्त हो जाता है।जिस व्यक्ति की अकाल मृत्यु होती है उसकी आत्मा व्याकुल होकर भटकती रहती है।ब्रह्म कपाल में अकाल मृत्यु प्राप्त व्यक्ति का श्राद्ध करने से आत्मा को तत्काल शांति और प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है।
भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के समाप्त होने के बाद पाण्डवों को ब्रह्मकपाल में जाकर पितरों का श्राद्ध करने का निर्देश दिया था।इसलिये भगवान श्रीकृष्ण कीआज्ञा मानकर पाण्डव बद्रीनाथ की शरण में गए और ब्रह्मकपाल तीर्थ में पितरों एवं युद्ध में मारे गए सभी लोगों के लिए श्राद्ध किया।पुराणों में बताया गया है कि उत्तराखंड की भूमि पर बद्रीनाथ धाम में बसा है ब्रह्मकपाल तीर्थ,जिसको अलकनंदा नदी पवित्र करती हुई प्रवाहित होती है।इस स्थान के विषय में मान्यता है कि ब्रह्मकपाल में जिस व्यक्ति का श्राद्ध कर्म होता है उसे प्रेत योनि से तत्काल मुक्ति मिल जाती है और वह भगवान विष्णु के परमधाम में स्थान प्राप्त करता है।जिस व्यक्ति की अकाल मृत्यु होती है और उसकी आत्मा व्याकुल होकर भटकती रहती है उस व्यक्ति का श्राद्ध ब्रह्मकपाल तीर्थ पर करने से उस की आत्मा को तत्काल शान्ति मिलती है और प्रेत योनि से मुक्ति मिल जाती है।
bhaktipath.wordpress.com मित्रों परम् सौभाग्यशाली हूँ कि इन विद्वान धर्मशील परोपकारी बद्रीनाथ धाम के पुरोहित लज्जाराम जी की मैं चौथी पीढ़ी हूँ (लज्जाराम-द्वारिका प्रसाद-मुकुट बिहारी-दिगम्बर)।बचपन में पिताश्री के साथ ४-५ बार श्री बद्रीविशाल के दर्शन किये थे जिनमें २-३ बार जोशीमठ से बद्रीनाथ पैदल यात्रा भी की क्योंकि तब वहाँ जाने हेतु मोटर मार्ग नहीं था (सन १९६६ तक) मैं तो अभी तक बारह बार श्री बद्रीनाथ जी के दर्शन कर चुका हूँ जबकि श्रीमती जी तीन बार।पिछली बार,श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन,०६ सितम्बर २०१५ को धर्मपत्नी श्रीमती मीना ध्यानी,छोटे पुत्र डॉ अनुराग,बहू ऋतु एवँ पौत्री नैवेद्या के साथ श्री बदरीनाथ धाम में श्री बद्रीविशालजी के दर्शन करके आनन्दनभूति प्राप्त हुई।

श्री हनुमान चट्टी॥   
(बद्रीनाथ)
एक बार ईशानकोण से अकस्मात वायु चली और सूर्य के समान तेजस्वी एक दिव्य ब्रह्मकमल गंगा में बहता हुआ पांडवों की ओर पहुँचा उस कमल को देखकर द्रौपदी अत्यंत प्रसन्न हुई और उन्होंने भीम से अन्य ब्रह्मकमल लाने की अपनी इच्छा प्रकट की;
यदि तेऽहं प्रिया पार्थ बहूनीमान्युपाहर।
तान्यहं नेतुमिच्छामि काम्यकं पुनराश्रमम्॥   
(महाभारत,वनपर्व अध्याय-१४६,७वां श्लोक)
महाबली भीम उस ब्रह्मकमल पुष्प को लेने के लिए बदरीवन में प्रवेश करते हैं और मार्ग में एक विशालकाय वानर को पढ़ा हुआ देखते हैं जिसकी पूँछ से मार्ग अवरुद्ध हुआ रहता है भीम उस विशालकाय वानर को मार्ग से हटने के लिए कहते हैं लेकिन वह वानर कहता है कि;
प्रसीद नास्ति मे शक्तिरूत्थातुं जरयानघ।
ममानुकम्पया त्वेतत् पुच्छमुत्सार्य गम्यताम्॥   
बुढ़ापे के कारण मुझ में उठने की शक्ति नहीं रह गई इसलिए मेरे ऊपर दया करके इस पूँछ को हटा दो और चले जाओ,भीम अनेकानेक प्रयत्न करते हैं लेकिन उनकी पूँछ हिला पाना भी भीम के सामर्थ्य से बाहर हो जाता है तब भीम समझ जाते हैं यह कोई सामान्य वानर नहीं फिर हनुमान जी उन्हें अपने विशालकाय स्वरूप का दर्शन कराते हैं और इस लीला के माध्यम से वे भीम का गर्व चूर-चूर कर देते हैं।
तभी से इस स्थान को ‘हनुमानचट्टी’ के नाम से जाना जाता है इसी स्थान पर हनुमान जी पूँछ फैलाकर लेटे हुए थे।
शीतकाल में जब भगवान बदरीनाथ जी के कपाट छ माह के लिए बंद हो जाते हैं तो इस हनुमानचट्टी से ऊपर धार्मिक कार्यों के लिए मनुष्य पर प्रतिबंध लग जाता है,शास्त्रों में उसे विष्णुद्रोही कहा गया जो इस स्थान को पार कर शीतकाल में धार्मिक क्रियाकलापों के लिए बदरीनाथ जाते हैं।
🌻🙏🌻
सतयुग में राजा मरूत ने इस स्थान में यज्ञ किया था जिसके अवशेष आज भी हनुमान चट्टी के पास एक टीले पर दिखाई देते हैं हल्की सी खुदाई करने पर यहां जौ एवं तिल आज भी दिखाई पड़ते हैं।
🌻🙏🌻
श्री बदरीनाथ धाम में प्रवेश से पूर्व हनुमान चट्टी पर माथा टेकना आवश्यक है इसीलिए सभी श्रद्धालुओं को यहाँ पर हनुमान जी के दर्शन करके ही बदरीनाथ धाम के लिए आना चाहिए॥   
जय श्री बदरीविशाल की॥   
🌻🙏🌻॥जय श्री हनुमान जी की॥  
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२-श्री केदारनाथ:-

वंदे देवम् उमापतिम् सुरगुरूं,वंदे जगत कारणम्।
वंदे पन्नगभूषणम् मृगधरं,वंदे पशूनाम् पतिम्॥
वंदे सूर्य शशांक वन्हिनयनम्,वंदे मुकंदप्रियम्।
वंदे भक्त जनाश्रयम् च वरदम्,वंदे शिवम् शंकरम्॥ ॐकारं बिंदुसंयुक्तं नित्यं ध्यायंति योगिनः।
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः॥
नमंति ऋषयो देवा नमन्त्यप्सरसां गणाः।
नरा नमंति देवेशं नकाराय नमो नमः॥
महादेवं महात्मानं महाध्यानं परायणम्।
महापापहरं देवं मकाराय नमो नमः॥
शिवं शांतं जगन्नाथं लोकानुग्रहकारकम्।
शिवमेकपदं नित्यं शिकाराय नमो नमः॥
वाहनं वृषभो यस्य वासुकिः कंठभूषणम्।
वामे शक्तिधरं देवं वकाराय नमो नमः॥
यत्र यत्र स्थितो देवः सर्वव्यापी महेश्वरः।
यो गुरुः सर्वदेवानां यकाराय नमो नमः॥
षडक्षरमिदं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसंनिधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥

जय केदार उदार शंकर,मन भयंकर दु:ख हरम्।
गौरी गणपति स्कन्द नन्दी,श्री केदार नमाम्यहम्।
शैल सुन्दर अति हिमालय,शुभ्र मन्दिर सुन्दरम्।
निकट मंदाकिनी सरस्वती,जय केदार नमाम्यहम्।
उदक कुण्ड हे अधम पावन,जय केदार नमाम्यहम्।
हँस कुंड समीप सुन्दर,रेतस कुण्ड मनोहरम्।
अन्नपूर्णा सह अर्पणा,काल भैरव शोभितम्।
पाँच पाँडव द्रोपदी सह,जय केदार नमाम्हयम्।
शिव दिगम्बर भस्मधारी,अर्द्ध चन्द्र विभूषितम्।
शीश गंगा कंठ फणिपति,जय केदार नमाम्यहम्म्।
कर त्रिशूल विशाल डमरू,ज्ञान गान विशारदम्।
मध्य महेश्वर तुंग ईश्वर,रुद्र कल्प महेश्वरम्।
पँच धन्य विशाल आलय,जय केदार नमाम्यहम्।
नाथ पावन हे विशालम्,पुण्यप्रद हर दर्शनम्।
जय केदार उदार शंकर,पाप ताप नमाम्यहम्।
💓🙏💓॥ॐ नमः शिवाय॥💓🙏💓
महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः। सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यैरू केदारमीशं शिवमेकमीडे॥
💓🙏💓

॥लिङ्गाष्टकम्॥
ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिङ्गं निर्मलभासितशोभितलिङ्गम्।
जन्मजदुःखविनाशकलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम्॥१॥
देवमुनिप्रवरार्चितलिङ्गं कामदहं करुणाकरलिङ्गम्।
रावणदर्पविनाशनलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम्॥२॥
सर्वसुगन्धिसुलेपितलिङ्गं बुद्धिविवर्धनकारणलिङ्गम्।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम्॥३॥
कनकमहामणिभूषितलिङ्गं फणिपतिवेष्टितशोभितलिङ्गम्।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम्॥४॥
कुङ्कुमचन्दनलेपितलिङ्गं पङ्कजहारसुशोभितलिङ्गम्।
सञ्चितपापविनाशनलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम्॥५॥
देवगणार्चितसेवितलिङ्गं भावैर्भक्तिभिरेव च लिङ्गम्।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम्॥६॥
अष्टदलोपरिवेष्टितलिङ्गं सर्वसमुद्भवकारणलिङ्गम्।
अष्टदरिद्रविनाशितलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम्॥७॥
सुरगुरुसुरवरपूजितलिङ्गं सुरवनपुष्पसदार्चितलिङ्गम्।
परात्परं परमात्मकलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम्॥८॥
॥लिङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥
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॥ॐ नमः शिवाय॥
विनयावनत; दिगम्बर

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम्।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं महादेवमेकं स्मरामि स्मरामिम्॥
💓🙏💓 आशुतोष शशाँक शेखर,चन्द्र मौली चिदंबरा।
कोटि कोटि प्रणाम शम्भू,कोटि नमन दिगम्बरा॥ 💓🙏💓       
॥शिव कैलाशो के वासी…॥
शिव कैलाशो के वासी,धौली धारों के राजा।
शंकर संकट हरना,शंकर संकट हरना॥
तेरे कैलाशों का अंत ना पाया,
तेरे कैलाशों का अंत ना पाया।
अंत बेअंत तेरी माया।
ओ भोले बाबा,अंत बेअंत तेरी माया॥
शिव कैलाशों के वासी,धौली धारों के राजा।
शंकर संकट हरना,शंकर संकट हरना॥
बेल की पत्तियां भांग धतुरा,
बेल की पत्तियां भांग धतुरा।
शिव जी के मन को लुभायें।
ओ भोले बाबा,शिव जी के मन को लुभायें॥
शिव कैलाशों के वासी,धौली धारों के राजा।
शंकर संकट हरना,शंकर संकट हरना॥
एक था डेरा तेरा,चम्बे रे चौगाना।
दुज्जा लायी दित्ता भरमौरा,
ओ भोले बाबा,दुज्जा लायी दित्ता भरमौरा।
शिव कैलाशों के वासी,धौली धारों के राजा॥
शंकर संकट हरना,शंकर संकट हरना॥
शिव कैलाशो के वासी,धौली धारों के राजा।
शंकर संकट हरना,शंकर संकट हरना॥

॥जय केदारनाथ जी॥ केदारनाथ धाम यानी भगवान शिव की पावन स्थली। देश के प्रसिद्ध द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ धाम में भगवान शिव लिंग रूप में विराजमान हैं।इसका उल्लेख स्कंद पुराण के केदार खंड में भी हुआ है।यहां पहुंचने वाले श्रद्धालु कण-कण में भगवान शिव की उपस्थिति की अनुभूति करते हैं।कहा जाता है कि पांडवों के वंशज जन्मेजय ने यहां इस मंदिर की स्थापना की थी।मंदिर का निर्माण कत्यूरी शैली में हुआ है।श्री केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है।उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पंच केदार में से भी एक है।यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्‍य ही दर्शन के लिए खुलता है।पत्‍थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डव वंश के जनमेजय ने कराया था।यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है।आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया।श्री केदारनाथ धाम,रुद्रप्रयाग।माताजी,धर्मपत्नी एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ। ॥जय पँच केदारजी॥        
कैलाश वासी शिव,जो हिमालय और हिमालय से निकलने वाली अनगिनत जल धाराओं के स्वामी है वे उत्तराखंड राज्य के वर्षों से आराध्य रहे हैं उन्ही के कारण उत्तराखंड का अस्तित्व है और उन्हीं से उत्तराखंड की पहचान है।ऐसा इसलिए कि देवभूमि हिमालय का यह भू-भाग आदिकाल से ही ‘केदारखंड‘ के नाम से प्रसिद्ध था और आज भी केदारेश्वर के नाम से ही इस भूमि को जाना जाता है।उत्तराखंड में लोग यहाँ की खूबसूरती को कम बल्कि शिव की तलाश में ज्यादा निकलते हैं।जिनमें शामिल है उत्तराखंड के कई सिद्ध पीठ व भगवान शिव के पांच अंगो से निर्मित पंच केदार..हिन्दू ग्रन्थ कहते हैं कि इन पंच केदार के एक बार कोई दर्शन कर ले तो उसके सारे कुल और पूर्वजों का तरण हो जाता है।यह हैं:-
१-केदारनाथ, २-मदमहेश्वर ३-तुंगनाथ ४-रुद्रनाथ और ५-कल्पेश्वर।
मित्रों!इन पंच केदार के इतिहास के बारे में जाना है।असल में पंच केदार की सारी कहानी पांडवों के स्वर्गा रोहण और उनके केदारखंड में शिव के दर्शनों से जुड़ी हुई है।और इन पांच केदारों का उद्गमन भी उसी घटना का परिणाम है।पौराणिक कथानुसार जब महाभारत युद्ध में पांडवों की विजय हुई तो उनपर वंश हत्या का पाप लगा तो भगवान कृष्ण ने उन्हें शिव के दर्शन करने को कहा।स्वर्गारोहण के समय पांडव अलकनंदा के किनारे-किनारे गुजर कर जब इस क्षेत्र में पहुंचे तो उन्होंने अलग- अलग स्थानों पर शिव की स्तुति की।मगर भगवान शिव ठहरे त्रिनेत्र धारी वे पांडवों प्रयोजन जानते थे इसलिए उन्होंने महिष (भैंसे) का रूप धारण किया (केदारखंड के अनुसार) और यह रूप धारण करके वे जानवरों के झुण्ड में मिल गए।जैसे -जैसे पांडव स्वर्गा रोहण के लिए चलते गए वे अलग-अलग स्थानों पर शिव का ध्यान करते गए मगर शिव उनके आस पास होके भी उनके पास नहीं आये। इस बात का पता पांडवो को तब लगा जब वे घूम कर गुप्तकाशी के नजदीक पहुंचे और उन्होंने जानवरों का झुण्ड में महिष को देखा। ये समझकर बलशाली भीम ने दो शिलाओं के बीच टांगे फैला दी और बाकी पांडवों ने जानवरों को उस ओर भेजा।जानवरों का बाकी झुण्ड तो नीचे से निकल गया मगर भगवान शिव धरती में समाने लगे।ये देख कर भीम ने महिष की पीठ को पकड़ दिया और उन्हें जाने से रोका।पर शिव अंतर्ध्यान हो गए और उनके शरीर के पंच भाग नेपाल सहित उत्तराखंड के पांच भागों में प्रकट हुए।ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान शिव महीष के रूप में अंतर्ध्यान हुए तो उनके धड़ का ऊपरी भाग काठमांडू में प्रकट हुआ,जहां पर पशुपतिनाथ का मंदिर है।वहीँ उनके हिस्से गढ़वाल के अन्य भागों में प्रकट हुये जिनमें शामिल है केदारनाथ, मद्महेश्वर, रुद्रनाथ, तुंगनाथ और कल्पेश्वर।
१-केदारनाथ:-
केदारनाथ रुद्रप्रयाग जिले में स्तिथ है।यह शिव का प्रमुख धाम है और पंच केदार में सर्वप्रथम केदरेश्वर शिव के ही दर्शन किये जाते हैं।कहते हैं शिव जब धरती समाने लगे तो भीम ने उनके पीठ को पकड़ लिया।मगर शिव अंतर्ध्यान हो गए और उनके पीठ की आकृति पिंड रूप में केदारनाथ में प्रकट हुई।केदारनाथ में उसी शिलाखंड की पूजा अर्चना की जाती है।भीम द्वारा शिव के पीठ को पकड़ने से उनकी पीठ पर घाव बन गए थे यही केदारनाथ में पूजा के समय शिला पर घी, चन्दन आदि समाग्रियों का लेप लगाया जाता है।
२-मदमहेश्वर:-
मदमहेश्वर रुद्रप्रयाग जिले में रांसी उखीमठ में समुद्रतल से ३,४९७ मीटर ऊंचाई पर स्थित है।मदमहेश्वर में शिव के नाभि की पूजा अर्चना की जाती है। पंच केदारों मदमहेश्वर को द्वितीय स्थान पर पूजा जाता है।मद्महेश्वर का पौराणिक नाम मध्यमहेश्वर था। जो कालांतर में मदमहेश्वर के नाम से जाना जाने लगा।
३-तुंगनाथ:-
रुद्रप्रयाग के चोपता में स्तिथ तुंगनाथ में भगवान शिव के भुजाओं की पूजा की जाती है।यह मंदिर टोंगनाथ या टुनगनाथ पर्वत के शिखर पर है।इस मंदिर में शिव के अलावा पांच पांडवो के छोटे मंदिर भी स्तिथ हैं।कहा जाता है कि जहाँ तुंगनाथ मंदिर विद्यमान है वहाँ सर्वारोहणी को बढ़ते हुए पांडवों ने इस जगह पर भगवान शिव की अराधना की थी।
४-रुद्रनाथ:-
समुद्रतल से इस मंदिर की ऊँचाई २,२९० मीटर है।रुद्रनाथ यात्रा गोपेश्वर के सगर गाँव से लगभग ४ किमी की चढ़ाई कर उत्तराखंड के सुंदर ‘पुंग बुग्यालों‘ से प्रारंभ होती है।पर्यटक एवं भक्तगण चढ़ाई पार करके पहुँचते है पित्रधार स्थान पर जहाँ भगवान शिव,पार्वती और भगवान विष्णु का मंदिर स्थित है।यहाँ शिव के मुख की पूजा अर्चना की जाती है।
५-कल्पेश्वर:-
कल्पेश्वर कल्पगंगा घाटी में स्थित है,कल्पगंगा को प्राचीन काल में नाम हिरण्यवती नाम से पुकारा जाता था। इसके दाहिने स्थान पर स्थित भूमि को दुर्बासा भूमि कही जाता है इस जगह पर ध्यान बद्री का मंदिर भी है। कल्पेश्वर में शिव की जटा प्रकट हुई थी।पंच केदार में पांचवे स्थान पर कल्पेश्वर महादेव की पूजा की जाती है।
💓🙏💓
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दिगम्बर ध्यानी

॥श्री शिवाष्टक स्तोत्रं॥
जय शिवशंकर,जय गंगाधर,करुणा-कर करतार हरे,
जय कैलाशी,जय अविनाशी,सुखराशि,सुख-सार हरे।
जय शशि-शेखर,जय डमरू-धर जय-जय प्रेमागार हरे,
जय त्रिपुरारी,जय मदहारी,अमित अनन्त अपार हरे।
निर्गुण जय जय,सगुण अनामय,निराकार साकार हरे॥
जय रामेश्वर,जय नागेश्वर वैद्यनाथ,केदार हरे।
मल्लिकार्जुन,सोमनाथ,जय,महाकाल ओंकार हरे॥
त्र्यम्बकेश्वर,जय घुश्मेश्वर भीमेश्वर जगतार हरे,
काशी-पति,श्री विश्वनाथ जय मंगलमय अघहार हरे।
नील-कण्ठ जय,भूतनाथ जय,मृत्युंजय अविकार हरे॥
पार्वती पति हर-हर शम्भो,पाहि पाहि दातार हरे॥
जय महेश जय जय भवेश,जय आदिदेव महादेव विभो,
किस मुख से हे गुरातीत प्रभु! तव अपार गुण वर्णन हो।
जय भवकार,तारक,हारक पातक-दारक शिव शम्भो,
दीन दुःख हर सर्व सुखाकर,प्रेम सुधाधर दया करो।
पार लगा दो भव सागर से,बनकर कर्णाधार हरे॥
पार्वती पति हर-हर शम्भो,पाहि पाहि दातार हरे॥
जय मन भावन,जय अति पावन,शोक नशावन,
विपद विदारन,अधम उबारन,सत्य सनातन शिव शम्भो,
सहज वचन हर जलज नयनवर धवल-वरन-तन शिव शम्भो।
मदन-कदन-कर पाप हरन-हर, चरन-मनन,धन शिव शम्भो॥
विवसन,विश्वरूप,प्रलयंकर,जग के मूलाधार हरे॥
पार्वती पति हर-हर शम्भो,पाहि पाहि दातार हरे॥
भोलानाथ कृपालु दयामय,औढरदानी शिव योगी,सरल हृदय,
अतिकरुणा सागर, अकथ-कहानी शिव योगी,निमिष में देते हैं।
नवनिधि मन मानी शिव योगी,भक्तों पर सर्वस्व लुटाकर,बने मसानी।
शिव योगी,स्वयम्‌ अकिंचन,जनमनरंजन पर शिव परम उदार हरे॥
पार्वती पति हर-हर शम्भो,पाहि पाहि दातार हरे॥
आशुतोष! इस मोह-मयी निद्रा से मुझे जगा देना,
विषम-वेदना,से विषयों की मायाधीश छड़ा देना।
रूप सुधा की एक बूँद से जीवन मुक्त बना देना,
दिव्य-ज्ञान-भंडार-युगल-चरणों को लगन लगा देना।
एक बार इस मन मंदिर में कीजे पद-संचार हरे॥
पार्वती पति हर-हर शम्भो,पाहि पाहि दातार हरे॥
दानी हो,दो भिक्षा में अपनी अनपायनि भक्ति प्रभो,
शक्तिमान हो,दो अविचल निष्काम प्रेम की शक्ति प्रभो।
त्यागी हो,दो इस असार-संसार से पूर्ण विरक्ति प्रभो,
परमपिता हो,दो तुम अपने चरणों में अनुरक्ति प्रभो।
स्वामी हो निज सेवक की सुन लेना करुणा पुकार हरे॥
पार्वती पति हर-हर शम्भो,पाहि पाहि दातार हरे॥
तुम बिन ब्याकुल हूँ प्राणेश्वर,आ जाओ भगवन्त हरे,
चरण शरण की बाँह गहो,हे उमारमण प्रियकन्त हरे।
विरह व्यथित हूँ दीन दुःखी हूँ दीन दयालु अनन्त हरे,
आओ तुम मेरे हो जाओ,आ जाओ श्रीमंत हरे।
मेरी इस दयनीय दशा पर कुछ तो करो विचार हरे॥
पार्वती पति हर-हर शम्भो,पाहि पाहि दातार हरे॥
॥इति श्री शिवाष्टक स्तोत्रं संपूर्णम्‌॥ मित्रों!एक बार जब अहंकारवश लँकापति रावण नें कैलाश को उठाने का प्रयत्न किया तो भगवान शिव ने अपने अंगूठे से पर्वत को दबाकर स्थिर कर दिया।जिससे रावण का हाथ पर्वत के नीचे दब गया।तब पीड़ा में रावण छटपटाने लगा तब उसने आर्त्त भाव से भगवान शिव की स्तुति की।रावण द्वारा गाई गई,यही स्तुति “शिव तांडव स्तोत्र” के नाम से जानी जाती है।शिव तांडव स्तोत्र का पाठ अन्य किसी भी पाठ की तुलना में भगवान शिव को अधिक प्रिय है।यह पाठ करने से भगवान शिव बहुत ही जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं।यह स्तोत्र बहुत चमत्कारिक माना जाता है। ॥शिव तांडव स्तोत्र॥
जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम॥१॥
जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं॥२॥
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥३॥
जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि॥४॥
सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः॥५॥
ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः॥६॥
कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम॥७॥
नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः॥८॥
प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे॥९॥
अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे॥१०॥
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः॥११॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे॥१२॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌कदा सुखी भवाम्यहम्‌॥१३॥
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः॥१४॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌॥१५॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम॥१६॥
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः॥१७॥
॥इति रावण विरचित शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌॥
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॥ॐ नमः शिवाय॥
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विनयावनत; दिगम्बर ‘ध्यानी’

॥मैं तुमको शीश नवाता हूँ और धन्य धन्य हो जाता हूँ॥ जहाँ पवन बहे संकल्प लिए,जहाँ पर्वत गर्व सिखाते हैं,
जहाँ ऊँचे नीचे सब रस्ते बस भक्ति के सुर में गाते हैं,
उस देव भूमि के ध्यान से ही,मैं सदा धन्य हो जाता हूँ।
है भाग्य मेरा,सौभाग्य मेरा,मैं तुमको शीश नवाता हूँ॥
जहाँ अंजुली में गंगा जल हो,जहाँ हर मन निश्छल हो,
जहाँ गाँव गाँव में देश भक्त,जहाँ नारी में सच्चा बल हो,
उस देवभूमि का आशीर्वाद लिए,मैं चलता जाता हूँ।
है भाग्य मेरा,सौभाग्य मेरा,मैं तुमको शीश नवाता हूँ॥
मंडवे की रोटी,हुड़के की थाप,
हर एक मन करता,शिवजी का जाप।
ऋषि मुनियों की है,ये तपो भूमि,
कितने वीरों की है,ये जन्म भूमि।
मैं तुमको शीश नवाता हूँ और धन्य धन्य हो जाता हूँ॥(प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी)
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परम् शिव भक्त भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा ०४ दिसंबर २०२१ को देहरादून के परेड ग्राउंड के मैदान में अपार उत्तराखंडी जन समुदाय के सामने देवभूमी ये देवभूमि की महिमा को उज़ागर करती उपरोक्त कविता कही।
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अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्।
देहान्ते तव सायुज्यं देहि मे पार्वतीपते॥
Death without exertion,life without affliction,your proximity (attainment of your abode) upon leaving the body- grant me these,O husband of Parvati!bhaktipath.wordpress.com
॥ॐ नमः शिवाय॥
॥ॐ गुरुवे नमः॥
विनयावनत; दिगम्बर’ध्यानी’

३- गंगोत्री :- गंगोत्री गंगा नदी का उद्गम स्थान है।गंगाजी का मंदिर,समुद्र तल से ३०४२ मीटर की ऊँचाई (ASML) पर स्थित है।भागीरथी के दाहिने ओर का परिवेश अत्यंत आकर्षक एवं मनोहारी है।यह स्थान उत्तरकाशी से लगभग १०० किमी की दूरी पर स्थित है।गंगा मैया के मंदिर का निर्माण गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा १८वी शताब्दी के शुरूआत में किया गया था वर्तमान मंदिर का पुननिर्माण जयपुर के राजघराने द्वारा किया गया था।प्रत्येक वर्ष मई से अक्टूबर के महीनो के बीच पतित पावनी गंगा मैंया के दर्शन करने के लिए लाखो श्रद्धालु तीर्थयात्री यहां आते है।यमुनोत्री की ही तरह गंगोत्री का पतित पावन मंदिर भी अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर खुलता है और दीपावली के दिन मंदिर के कपाट बंद होते है।गंगोत्रीमन्दिर,उत्तरकाशी में माताजी,धर्मपत्नी एवँ दोनों पुत्र दीपक एवँ अनुराग के साथ गङ्गा स्नान एवं मन्दिर में माँ गङ्गा को प्रणाम किया।

४-श्री यमुनोत्री मन्दिर,उत्तरकाशी:- सर्वलोकस्य जननी देवी त्वं पापनाशिनी। आवाहयामि यमुने त्वं श्रीकृष्ण भामिनी॥
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च यमुना। तत्र निस्रता सर्व पाप विनिर्मुक्तःपुनात्यासप्तमं कुलम।
अर्थात जहाँ से यमुना नदी निकली है वहां स्नान करने और वहां का जल पीने से मनुष्य पापमुक्त होता है और उसके सात कुल तक पवित्र हो जाते हैं!
अक्षयतृतीया के दिन हर तरह के शुभ काम शुरू हो जातें हैं।इस दिन जो भी कार्य शुरू होता है वह अक्षय फलदायक होता है।अक्षयतृतीया के दिन ही माँ यमुनोत्री धाम के कपाट खुलतीं हैं।भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि को सतयुग और त्रेतायुग का प्रारंभ हुआ था।इसलिए यह अपने आप में स्वयँ सिद्ध मुहूर्त है।
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bhaktipath.wordpress.com यमुनोत्री उत्तरकाशी जिले में समुद्रतल से ३२३५ मीटर की ऊंचाई (ASML) पर स्थित एक मंदिर है। यह मंदिर देवी यमुना का मंदिर है।माताजी गोदाम्बरी,धर्मपत्नी मीना तथा दोनों पुत्र दीपक एवँ अनुराग के साथ स्नान एवँ दर्शन किये।

५- माँ चन्द्रबदनी मंदिर:-

दृष्ट्वा तां चन्द्रबदनां विश्वानन्दन तत्पराम्।
उत्न पूर्ण घटस्थां च कोटिबालार्क सान्निभाम्॥

महान्तं विश्वासं तव चरणपङ्केरुयुगे निधायान्यन्नैवाश्रितमिह मया दैवतमुमे।
तथापि त्वच्चेतो यदि मयि न जायेत सदयं
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥
-हे लम्बोदर गणेश को जन्म देने वाली उमे!मैंने तुम्हारे युगल चरणार विन्दों में बहुत बड़ा विश्वास रखकर किसी अन्य देवता का आश्रय नहीं लिया,तथापि यदि तुम्हारा चित्त मुझ पर सदय न हो तो अब मैं किसकी शरण जाऊँगा? विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति-समन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देविदुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥ माँ चन्द्रबदनी मंदिर देवी सती की शक्तिपीठों में से एक एवम् पवित्र धार्मिक स्थान है।यह हम राणाकोट,रामपुर (देवप्रयाग) के ध्यानी लोगों की ‘कुलदेवी’ भी है।चन्द्रबदनी मंदिर टिहरी मार्ग पर चन्द्रकूट पर्वत पर स्थित लगभग आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदिर देवप्रयाग से ३३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने यहां शक्तिपीठ की स्थापना की।धार्मिक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि में चन्द्रबदनी उत्तराखंड की शक्तिपीठों में महत्वपूर्ण है।स्कंदपुराण,देवी भागवत व महाभारत में इस सिद्धपीठ का विस्तार से वर्णन हुआ है।प्राचीन ग्रन्थों में भुवनेश्वरी सिद्धपीठ के नाम से चन्द्रबदनी मंदिर का उल्लेख है।चन्द्रबदनी मंदिर से सुरकंडा,केदारनाथ,बद्रीनाथ चोटी आदि का बड़ा ही मन मोहक,आकर्षक दृश्य दिखाया देता है।मंदिर परिसर में ‘पुजार गांव’ के निवासी ब्राहमण ही मंदिर में पूजा अर्चना करने आते हैं।मंदिर में माँ चन्द्रबदनी की मूर्ति न होकर श्रीयंत्र ही अवस्थित है। किवंदती है कि सती का बदन भाग इस स्थान पर गिरने से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है।पुजारी भी आँखों पर पट्टी बाँध कर माँ चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं।जनश्रुति है कि कभी किसी पुजारी ने अज्ञानतावश अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी,तो पुजारी अंधा हो गया था।चंद्रबदनी मंदिर में माता के दर्शन करने को हमेशा श्रद्धालुओं की भीड़ जुटी रहती है।सिद्धपीठ चन्द्रबदनी मंदिर में जो भी भक्त एवम् श्रद्धालु भक्तिभाव के साथ मन्नते मांगने आता है माँ चन्द्रबदनी भक्त एवम् श्रद्धालु की मन्नतो को पर्ण कर देती है।मन्नते पूर्ण होने जाने श्रद्धालु जन घण्टा, नारियल,धूपबत्ती,चुन्नी,चाँदी के छत्तर चढ़वा के रूप में समर्पित करते है।बचपन में माताजी के साथ दर्शन हेतु जाता था।बाद में अनेक बार धर्मपत्नी के सँग श्री चन्द्रबदनी।माँ के मन्दिर में दर्शनार्थ गए है।विगत सालों में हम माताजी,धर्मपत्नी एवँ दोनों पुत्र दीपक एवँ अनुराग के साथ।तथा दोनों बहुओं एवँ पोता-पोतियों के सँग अपनी कुलदेवी चन्द्रबदनी की पूजा अर्चना करनें गये हैं।
या देवी सर्वभूतेषु बुध्दिरुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु मातृरुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
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{मित्रों!”देविसूक्तम”में ३१ मंत्र हैं।
उनमें से उपरोक्त मन्त्र क्रमश: ०८,१२,२० और २५ में वर्णित हैं।} ॥मेरा जीवन तेरी शरण॥
मेरा जीवन तेरी शरण।
सारे राग विराग हुए अब,मोह सारे त्याग हुए अब।
एक यही मेरा बंधन,मेरा जीवन तेरी शरण॥
अविरत रहा भटकता अब तक,भटकूँ और अभी मैं कब तक।
पालूं केवल तुझ हो ही माँ,एक यही मेरी है लगन॥
तेरे चरणों पर हों अर्पण,मेरे जीवन के गुण अवगुण।
सारी व्यथाएं दूर करो माँ,हो सुमित मेरा नंदन॥
जय जय माँ,जय माँ,जय जय माँ।
जय जय माँ,जय माँ,जय जय माँ॥
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॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥
विनयावनत; दिगम्बर

६- माँ धारी देवी मंदिर:-

काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी।
सर्वानन्दकरी देवी नारायणि नमोऽस्तुते॥ महामाया (महाकाली) ब्रह्माजी की स्तुति करने पर प्रकट हुई थीं।कमलजन्मा ब्रह्माजी द्वारा स्तवित महाकाली अपने दस हाथों में:- खड्ग,चक्र,गदा,बाण,धनुष,परिघ,शूल,भुशुण्डि,मस्तक और शंख धारण करती हैं।त्रिनेत्रा भगवती के समस्त अंग दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं।माँ काली भगवती दुर्गा माँ का काला और डरावना रूप हैं।इसकी उत्पत्ति राक्षसों को मारने के लिए ही हुई थी।महाकाली ने देवताओं की रक्षा के लिए विकराल रूप धारण कर युद्ध भूमि में प्रवेश किया था।माँ काली की प्रतिमा देखें तो देखा जा सकता है की वह विकराल माँ हैं।जिसके हाथ में खप्पर है,लहू टपकता है तो गले में खोपड़ीयों की माला है मगर माँ की आंखे और ह्रदय से अपने भक्तों के लिए प्रेम की गंगा बहती रहती है।
॥ॐ क्रीं कालिकायै नमः॥
॥ॐ कपालिन्यै नमः॥
देवी काली को समर्पित धारी माता का मंदिर इस क्षेत्र(श्रीनगर-गढ़वाल) में बहुत पूजनीय है,प्रसिद्ध है।महामाया (महाकाली) ब्रह्माजी की स्तुति करने पर प्रकट हुई थीं।कमलजन्मा ब्रह्माजी द्वारा स्तवित महाकाली अपने दस हाथों में खड्ग,चक्र,गदा,बाण,धनुष,परिघ, शूल,भुशुण्डि,मस्तक और शंख धारण करती हैं।त्रिनेत्रा भगवती के समस्त अंग दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं।माँ काली भगवती दुर्गा माँ का काला और डरावना रूप हैं।इसकी उत्पत्ति राक्षसों को मारने के लिए ही हुई थी।महाकाली ने देवताओं की रक्षा के लिए विकराल रूप धारण कर युद्ध भूमि में प्रवेश किया था।माँ काली की प्रतिमा देखें तो देखा जा सकता है की वह विकराल माँ हैं।जिसके हाथ में खप्पर है,लहू टपकता है तो गले में खोपड़ीयों की माला है मगर माँ की आंखे और ह्रदय से अपने भक्तों के लिए प्रेम की गंगा बहती रहती है।
॥ॐ क्रीं कालिकायै नमः॥
॥ॐ कपालिन्यै नमः॥
लोगों का मानना है कि यहाँ धारी माँ की मूर्ति एक दिन में तीन बार अपना रूप बदलती हैं पहले एक लड़की फिर महिला और अंत में बूढ़ी महिला।एक पौराणिक कथन के अनुसार कि एक बार भीषण बाढ़ से एक मंदिर बह गया और धारी देवी की मूर्ति धारो गांव के पास एक चट्टान के रुक गई थी।गांव वालों ने मूर्ति से विलाप की आवाज सुनाई सुनी और पवित्र आवाज़ ने उन्हें मूर्ति स्थापित करने का निर्देश दिया।हर साल नवरात्रों के अवसर पर देवी कालीसौर को विशेष पूजा की जाती है।देवी काली के आशीर्वाद पाने के लिए दूर और नजदीक के लोग इस पवित्र दर्शन करने आते रहे हैं।मंदिर के पास एक प्राचीन गुफा भी मौजूद है। यह मंदिर दिल्ली-राष्ट्रीय राष्ट्रीय राजमार्ग NH-58 पर श्रीनगर से १५ किमी दूर है।अलकनंदा नदी के किनारे पर मंदिर के पास तक एक किमी-सीमेंट मार्ग जाता है।श्रीनगर में लगभग उन्नीस साल का निवास (२००२ से २०२१)।अनेक बार सपरिवार माँ के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ।माताजी,धर्मपत्नी एवँ दोनों पुत्र दीपक एवँ अनुराग के साथ।तथा दोनों बहुओं एवँ पोता-पोतियों के सँग भी।

ॐ नमस्ते चंडिके चण्डी चण्डमुण्डविनाशिनिम्।
नमस्ते धारी कलिके कालम् महाभयनाशिनिम्॥
शिवे रक्ष जगतधात्री प्रसीद हर्वल्लभे।
प्रण्मामी जगत्धात्रिं जगत्पल्कर्णिम्॥
जगत स्शोब्करिं विद्याम् जगत्शृष्टीविधयिनींंम्।
करालां विक्टां घोरांम् मुंडमालाविभूषितम्॥
हरार्चिंताम हाराराध्यांम् नमामि हर्र्वल्ल्भाम्।
गौरि गुरुप्रिय्मम् गौर्वार्न्णलन्कारभुशिताम्॥
हरिप्रिया महामायांम् नममिबृह्मपुजितम्।
सिद्धांं सिद्धहेश्वरिम् सिद्धिविघ्याधृम्नेयुर्ताम्॥
मन्तृसिद्धिपृदां योनिसिद्धिदां लींगशोभिताम्।
उग्रामुगृमयिमुउगृतारामुग्रनेयुर्ताम्।
नीलाम नीलघन्श्यामम्ं नमामि नीलसुन्दरींम्॥
श्यामंगी श्यामघटितांम् श्यामवर्णविभूषितम्॥
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जय महाकालिका!
जय माँ धारी देवी!!! ॥ॐ क्रीं कालिकायै नमः॥
॥ॐ कपालिन्यै नमः॥bhaktipath.wordpress.com
॥शुभ शुक्रवार॥
विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

७- देवलगढ़ की गौरा माँ मन्दिर :- देवलगढ़ एक पहाड़ीपर स्थिति है।यह उत्तराखंड के पौड़ी जिले में स्थित है और एक अन्य लोकप्रिय पर्यटन स्थल खिरसू से १५ किलोमीटर दूर स्थित है।इस स्थान का नाम कांगड़ा के राजा देवल से पड़ा है जिसने इस शहर की स्थापना की थी।श्रीनगर से पहले,१६ वीं शताब्दी में अजय पाल के शासनकाल के दौरान देवलगढ़ गढ़वाल साम्राज्य की राजधानी था। अपने अतीत के अतीत के कारण,यह शहर अपने पूजनीय मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है।विशेषकर “राज राजेश्वरी” मंदिर।जो अति सुंदर प्राचीन गढ़वाली वास्तुकला को दर्शाता है जो इस खूबसूरत शहर को सुशोभित करता है।माँ की कृपा से गौरा माँ एवं समीप ही माँ राज राजेश्वरी माँ के दर्शनों का हम पति-पत्नी को परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ।देवलगढ़ का पहाड़ी शहर तब लोकप्रिय हुआ जब गढ़वाल राज्य के राजा अजयपाल ने अपनी राजधानी को चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ स्थानांतरित कर दिया।
मित्रों १५१३ से १५१७ तक श्रीनगर में स्थानांतरित होने से पहले यह गढ़वाल साम्राज्य की भागदौड़ वाली राजधानी बनी रही।उसके बाद भी,शाही दल देवगढ़ में अपनी गर्मी और श्रीनगर में सर्दियाँ बिताता था।ऐसा था देवलगढ़ शहर की खूबसूरती।वर्तमान में यहाँ कई ऐतिहासिक मंदिर हैं।जो देवलगढ़ की खूबसूरती में चार चाँद लगाता हैं।
गौरा देवी मंदिर देवी पार्वती को समर्पित है और माना जाता है कि इसे ७वीं शताब्दी ईस्वी में बनाया गया था और इसे केदारनाथ और बद्रीनाथ के रूप में काफी पुराना माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि मंदिर का निर्माण भगवान कुबेर ने किया था।फसल के मौसम के दौरान,एक बड़े मेले का आयोजन किया जाता है।स्थानीय लोग ताज़े गेहूँ से बने रोटी को देवता को (सीख)प्रसाद के रूप में चढ़ाते हैं। देवलगढ़ में अन्य महत्वपूर्ण स्थान लक्ष्मीनारायण मंदिर और सोम-की-डंडा (राजा का मचान) है।गौरा देवी (गैरजादेवी) मन्दिर प्रसिद्ध हैं।गौरा देवी (गैरजादेवी) मन्दिर की गणना प्राचीन सिद्धपीठों में की जाती है।सातवीं शताब्दी का बना यह पाषाण मन्दिर प्राचीन वास्तुकला का अतुलनीय उदाहरण है। राजराजेश्वरी गढ़वाल के राजवंश की कुलदेवी थी इसलिये उनकी पूजा देवलगढ़ स्थित राजमहल के पूजागृह में होती थी।जनता के लिये एक और मन्दिर की आवश्यकता महसूस करते हुये गौरा मन्दिर का निर्माण कराया गया। निर्माण कार्य उपरान्त होने के पश्चात विषुवत संक्रान्ति (वैशाखी) को सुमाड़ीगांव से श्री राजीवलोचन काला जी की अगुवाई में देवलगढ़ मन्दिर में स्थापित किया गया।इस मन्दिर में शाक्त परंपरा प्रचलित रही है।यहां मुख्यरूप से भगवती गौरी व सिंह वाहिनी देवी कि प्रतिमा स्थापित हैं।

८-राज राजेश्वरी माँ मन्दिर देवलगढ़:-

॥श्रीराजराजेश्वरीम्…॥
कल्याणायुतपूर्णचन्द्रवदनां प्राणेश्वरानन्दिनीं,
पूर्णां पूर्णतरां परेशमहिषीं पूर्णामृतास्वादिनीम्।
सम्पूर्णां परमोत्तमामृतकलां विद्यावतीं भारतीं,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥१॥
एकारादिसमस्तवर्णविविधाकारैकचिद्रूपिणीं,
चैतन्यात्मकचक्रराजनिलयां चन्द्रान्तसञ्चारिणीम्।
भावाभावविभाविनीं भवपरां सद्भक्तिचिन्तामणिं,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥२॥
ईहाधिक्परयोगिवृन्दविदितां स्वानन्दभूतां परां,
पश्यन्तीं तनुमध्यमां विलसिनीं श्रीवैखरीरूपिणीम्।
आत्मानात्मविचारिणीं विवरगां विद्यां त्रिबीजात्मिकां,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥३॥
लक्ष्यालक्ष्यनिरीक्षणां निरूपमां रुद्राक्षमालाधरां,
त्र्यक्षार्धाकृतिदक्षवंशकलिकां दीर्घाक्षिदीर्घस्वराम्।
भद्रां भद्रवरप्रदां भगवतीं भद्रेश्वरीं मुद्रिणीं,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥४॥
ह्रींबीजागतनादबिन्दुभरितामोङ्कारनादात्मिकां,
ब्रह्मानन्दघनोदरीं गुणवतीं ज्ञानेश्वरीं ज्ञानदाम्।
ज्ञानेच्छाकृतिनीं महीं गतवतीं गन्धर्वसंसेवितां,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥५॥
हर्षोन्मत्तसुवर्णपात्रभरितां पीनोन्नताघूर्णितां,
हुंकारप्रियशब्दजालनिरतां सारस्वतोल्लासिनीम्।
सारासारविचारचारुचतुरां वर्णाश्रमाकारिणीं,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥६॥
सर्वेशाङ्गविहारिणीं सकरुणां सन्नादिनीं नादिनीं,
संयोगप्रियरूपिणीं प्रियवतीं प्रीतां प्रतापोन्नताम्।
सर्वान्तर्गतिशालिनीं शिवतनूसन्दीपिनीं दीपिनीं,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥७॥
कर्माकर्मविवर्जितां कुलवतीं कर्मप्रदां कौलिनीं,
कारुण्याम्बुधिसर्वकामनिरतां सिन्धुप्रियोल्लासिनीम्।
पञ्चब्रह्मसनातनासनगतां गेयां सुयोगान्वितां,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥८॥
हस्त्युत्कुम्भनिभस्तनद्वितयतः पीनोन्नतादानतां,
हाराद्याभरणां सुरेन्द्रविनुतां शृङ्गारपीठालयाम्।
योन्याकारकयोनिमुद्रितकरां नित्यां नवार्णात्मिकां,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥९॥
लक्ष्मीलक्षणपूर्णभक्तवरदां लीलाविनोदस्थितां,
लाक्षारञ्चितपादपद्मयुगलां ब्रह्मेन्द्रसंसेविताम्।
लोकालोकितलोककामजननीं लोकाश्रयाङ्कस्थितां
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥१०॥
ह्रींकाराश्रितशङ्करप्रियतनुं श्रीयोगपीठेश्वरीं,
माङ्गल्यायुतपङ्कजाभनयनां माङ्गल्यसिद्धिप्रदाम्।
तारुण्येन विशेषिताङ्गसुमहालावण्यसंशोभितां,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥११॥
सर्वज्ञानकलावतीं सकरुणां सर्वेश्वरीं सर्वगां,
सत्यां सर्वमयीं सहस्रदलजां सत्त्वार्णवोपस्थिताम्।
सङ्गासङ्गविवर्जितां सुखकरीं बालार्ककोटिप्रभां,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥१२॥
कादिक्षान्तसुवर्णबिन्दुसुतनुं सर्वाङ्गसंशोभितां,
नानावर्णविचित्रचित्रचरितां चातुर्यचिन्तामणिम्।
चित्तानन्दविधायिनीं सुचपलां कूटत्रयाकारिणीं,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥१३॥
लक्ष्मीशानविधीन्द्रचन्द्रमकुटाद्यष्टाङ्गपीठाश्रितां,
सूर्येन्द्वग्निमयैकपीठनिलयां त्रिस्थां त्रिकोणेश्वरीम्।
गोप्त्रीं गर्वनिगर्वितां गगनगां गङ्गागणेशप्रियां,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥१४॥
ह्रींकूटत्रयरूपिणीं समयिनीं संसारिणीं हंसिनीं,
वामाचारपरायणीं सुकुलजां बीजावतीं मुद्रिणीम्।
कामाक्षीं करुणार्द्रचित्तसहितां श्रीं श्रीत्रिमूर्त्यम्बिकां,
श्रीचक्रप्रियबिन्दुतर्पणपरां श्रीराजराजेश्वरीम्॥१५॥
या विद्या शिवकेशवादिजननी या वै जगन्मोहिनी,
याब्रह्मादिपिपीलिकान्तजगदानन्दैकसन्दायिनी।
या पञ्चप्रणवद्विरेफनलिनी या चित्कलामालिनी,
सा पायात्परदेवता भगवती श्रीराजराजेश्वरीम्॥१६॥
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श्री राज-राजेश्वरी मंदिर पौड़ी गढ़वाल,उत्तराखंड के देवलगढ़ में प्रसिद्ध तीर्थस्थल है।यहाँ बड़ी संख्या में भक्तों को आकर्षित करता है भक्त यहाँ देवी से आशीर्वाद लेने के लिए आते हैं।४००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित,मंदिर देवी राजेश्वरी माँ को समर्पित है जो गढ़वाल राजाओं के स्थानीय देवता हैं।हर साल अप्रैल के महीने में मेला लगता है।धार्मिक महत्व के अलावा,मंदिर पुरातत्व दृष्टिकोण से भी एक सुप्रसिद्ध है।हम पति-पत्नी को माँ के दरबार मेंदो बार पूजा अर्चना करने का मौका मिला है।इसमें एक बार हमारे सँग छोटा बेटा अनुराग,बहू ऋतु एवं पोती नैवेद्या सम्लित थीं।

॥श्री राजराजेश्वरी अष्टकम्॥
अम्बा शाँभवि चन्द्रमौलि रमलाऽपर्णा उमा पार्वती।
काली हैमवती शिवा त्रिनयनी कात्यायनी भैरवी।
सावित्री नवयौवना शुभकरी साम्राज्य लक्ष्मीप्रदा।
चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी॥१॥
अम्बा मोहिनी देवता त्रिभुवनी आनन्द सन्दायिनी।
वाणी पल्लव पाणि वेणु मुरली गानप्रिया लोलिनी।
कल्याणी उडुराजबिंब वदना धूम्राक्ष संहारिणी।
चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी॥२॥
अम्बा नूपुर रत्न कंकणधरी केयूर हारावली।
जाती चंपक वैजयन्ति लहरी ग्रैवेयकै राजिता।
वीणा वेणु विनोद मण्डित करा वीरासने संस्थिता।
चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी॥३॥
अम्बा रौद्रिणि भद्रकालि बगुला ज्वालामुखी वैष्णवी।
ब्रह्माणी त्रिपुरान्तकी सुरनुता देदीप्यमानोज्वला।
चामुण्डा श्रितरक्षपोष जननी दाक्षायणी वल्लवी।
चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी॥४॥
अम्बा शूल धनु: कशाँकु़शधरी अर्धेन्दु बिम्बाधरी।
वाराही मधुकैटभ प्रशमनीवाणी रमा सेविता।
मल्लाद्यासुर मूकदैत्य मथनी माहेश्वरी चाम्बिका।
चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी॥५॥
अम्बा सृष्टिविनाश पालनकरी आर्या विसंशोभिता।
गायत्री प्रणवाक्षरामृतरस:पूर्णनुसन्धी कृता।
ओंकारी विनतासुतार्चित पदा उद्दण्ड दैत्यापहा।
चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी॥६॥
अम्बा शाश्वत आगमादि विनता आर्या महादेवता।
या ब्रह्मादिपिपलिकान्त जननी या वै जगन्मोहिनी।
या पन्चप्रणवादि रेफजननी या चित्कला मालिनी।
चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी॥७॥
अम्बा पालित भक्तराजमनिशं अम्बाष्टकमं य: पठेत्।
अम्बा लोल कटाक्षवीक्ष ललितं चैश्वर्यमव्याहतम्।
अम्बा पावन मन्त्र राज पठनात् अन्ते च मोक्षप्रदा।
चिद्रूपी परदेवता भगवती श्री राजराजेश्वरी॥८॥
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विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

९- डाण्डा का नागराजा मन्दिर:- डांडा नागराजा मंदिर,कोट विकास क्षेत्र के चार गाँव नौड,रीई,सिल्सू एव लसेरा का प्रसिद्द धाम है,जिसका इतिहास १४० साल पुराना है।डांडा नागराजा मंदिर की मान्यता के अनुसार १४० वर्ष पहले लसेरा में गुमाल जाति के पास एक दुधारू गाय थी,जो डांडा में स्थित एक पत्थर पर हर दिन अपने दूध से निल्हाती थी,जिसकी वजह से घर के लोगों को उसका दूध नहीं मिल पाता था इसलिए गुस्से में आकर गाय के मालिक ने गाय के ऊपर कुल्हाड़ी से वार किया।मगर कुल्हाड़ी का वार गाय को कुछ नहीं कर पाया और कुल्हाड़ी का वार सीधा जाकर उस पत्थर पर लगा जिसे गाय दूध से निल्हाती थी।कुल्हाड़ी के वार से वह पत्थर दो भागों में टूट गया और इसका एक भाग आज भी डांडा नागराजा में मौजूद है।इस क्रूर घटना के बाद गुमाल जाति पूरी तरह से समाप्त हो गई।पौराणिक कथा के अनुसार यह स्थान भगवान श्री कृष्ण को अत्यधिक भा गया था,जिसके लिए उन्होंने नाग का रूप धारण करके लेट-लेट के इस स्थान की परिक्रमा की,तभी से इस मंदिर का नाम डांडा नागराजा पड़ गया।नाग और साँपों को महाभारत में महर्षि कश्यप और दक्ष प्रजाति पूरी कद्रू का संतान बताया गया था।पुराकाल से ही मध्य हिमालय में नागराजा लोकिक देवता के रूप में ही परिचित है।यह मंदिर पहाड़ी की ऊँचाई पर स्थित है,जहाँ से माँ चन्द्रबदनी(टिहरी),देवप्रयाग के ऊपरी गांव रामपुर,काण्डाधार,कोटी आदि, भैरवगढ़ी(कीर्तिखाल),महाबगढ़(यमकेश्वर),कंडोलिया(पूरी) की पहाड़ियों का सुन्दर दृश्य साफ़ नज़र आता है।अपनी माँ के साथ बचपन से ही इस मन्दिर में जाता रहा हूँ।विगत सालों में हम सपत्नी एक बार ज्येष्ठ पुत्र दीपक,बहू शालिनी,पोता विहान के साथ व एक बार छोटे पुत्र अनुराग,बहु ऋतु एवँ पोती नैवेद्या के सँग नागराजा के दर्शनों के लिए गए हैं।

१०- माँ काली मंदिर ऊखीमठ:- कालीमठ मंदिर रुद्रप्रयाग में स्थित है।यहां से करीब आठ किलोमीटर खड़ी चढ़ाई के बाद कालीशिला के दर्शन होते हैं।विश्वास है कि मां दुर्गा शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज का संहार करने के लिए कालीशिला में १२ वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हुई थीं। कालीशिला में देवी-देवताओं के ६४ यंत्र हैं।मान्यता है कि इस स्थान पर शुंभ-निशुंभ दैत्यों से परेशान देवी-देवताओं ने मां भगवती की तपस्या की थी।तब मां प्रकट हुई। असुरों के आतंक के बारे में सुनकर मां का शरीर क्रोध से काला पड़ गया और उन्होंने विकराल रूप धारण कर लिया।मां ने युद्ध में दोनों दैत्यों का संहार कर दिया।मां को इन्हीं ६४ यंत्रों से शक्ति मिली थी।अपनी केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर माँ गोदाम्बरी सँग ऊखीमठ “माँ काली” के इस मन्दिर में हम सपत्नीक छोटे पुत्र अनुराग के सँग माँ के दरबार में पहुँचे।माताजी,धर्मपत्नी एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ।

॥श्री महाकाली स्तवन॥
नमामि कृष्णरूपिणीं कृष्णाङ्गयष्टि धारिणीम्।
समग्र तत्वसागर भपारगह्वराम॥
शिवा प्रभां समुज्जवलां स्फुरच्छशांक शेखरां।
ललाटरत्न भास्करां जगत्प्रदीप्ति भास्कराम्॥
महेन्द्र कश्यपर्चितां सनत्कुमात संस्तुतां।
सुरासुरेन्द्र वंदितो यथार्थ निर्मलादभुतां॥
अतर्क्यरोचिरूर्जितां विकारदोष वर्जितां।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तितां विशेषतत्व सूचितां॥
मृतास्थिनिर्मित स्त्रजां मृगेन्द्र वाहनाग्रजाम्।
सुशुद्ध तत्वतोष्णां त्रिवेद परभूषणां॥
भुजंग हार हारिणी कपालखंड घारिणीम्।
सुधार्मि कोप कारणीं सुरेन्द्र वैरधातिनीम्॥
कुठारपाशचापिनीं कृतान्त काममोदिनीं।
शुभां कपाल मालिनीं सुवर्णकन्याशाखिनीं॥
श्मशान भूमि वासिनीं द्निजेन्द्रमौलिभाविनीम्।
तमोsन्धकार यामिनीं शिवस्वभाव कामिनीम्॥
सहस्त्र सूर्य्यराजिकां धनञ्जयोर्ग्रकारिकाम्।
सुशुद्ध काल कंदलां सुभृंगवृन्दमन्जुलाम् ॥
प्रजायिनीम प्रजावतीं नमामि मातरम् सतीम्।
स्वकर्म कारिणे गतिं हरि प्रियाञ्च पार्वतीम् ॥
अनंतशक्तिकान्तिदां यशोsर्थभुक्तिमुक्तिदाम्।
पुन: पुन्जगद्धितां नमाम्यहङ सुरार्चिताम् ॥
जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवी पाहिमाम्।
जयन्ति ते स्तुवन्ति ये शुभं लभन्त्यमोक्षत:॥
सदैव त हतद्बिष: परं भवन्ति सज्जुष: ।
जरा: परे शिवधुना प्रसाधि मां करोमि किम् ॥
अतीव मोहितात्मनो वृथा विचेष्टि तस्य मे।
कुरू प्रसादितं मनो यथास्मि जन्म भंजन:॥
तथा भवन्तु ताका यथैव घोषितालका: 
इमां स्तुतिं ममेरितां पठन्ति कालिसाधक:॥
न ते पुन: सदुस्तरे पतन्ति मोहगह्वरे॥
॥इति॥
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॥माँ महाकाली की आरती॥
जय काली माता,माँ जय महा काली माँ।
रतबीजा वध कारिणी माता।
सुरनर मुनि ध्याता,माँ जय महा काली माँ॥
दक्ष यज्ञ विदवंस करनी माँ शुभ निशूंभ हरलि।
मधु और कैितभा नासिनी माता।
महेशासुर मारदिनी,ओ माता जय महा काली माँ॥
हे हीमा गिरिकी नंदिनी प्रकृति रचा इत्ठि।
काल विनासिनी काली माता।
सुरंजना सूख दात्री हे माता॥
अननधम वस्तराँ दायनी माता आदि शक्ति अंबे।
कनकाना कना निवासिनी माता।
भगवती जगदंबे,ओ माता जय महा काली माँ॥
दक्षिणा काली आध्या काली,काली नामा रूपा।
तीनो लोक विचारिती माता धर्मा मोक्ष रूपा॥
॥जय महा काली माँ॥
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११-जागेश्वर धाम :-

॥शिव स्तुति:॥
॥आशुतोष शशाँक शेखर॥
आशुतोष शशाँक शेखर,चन्द्र मौली चिदंबरा।
कोटि कोटि प्रणाम शम्भू,कोटि नमन दिगम्बरा॥
निर्विकार ओमकार अविनाशी,तुम्ही देवाधि देव।
जगत सर्जक प्रलय करता,शिवम सत्यम सुंदरा॥
निरंकार स्वरूप कालेश्वर,महा योगीश्वरा।
दयानिधि दानिश्वर जय,जटाधार अभयंकरा॥
शूल पानी त्रिशूल धारी,औगड़ी बाघम्बरी।
जय महेश त्रिलोचनाय,विश्वनाथ विशम्भरा॥
नाथ नागेश्वर हरो हर,पाप साप अभिशाप तम।
महादेव महान भोले,सदा शिव शिव संकरा॥
जगत पति अनुरकती भक्ति,सदैव तेरे चरण हो।
क्षमा हो अपराध सब,जय जयति जगदीश्वरा॥
जनम जीवन जगत का,संताप ताप मिटे सभी।
ओम नमः शिवाय मन,जपता रहे पञ्चाक्षरा॥
आशुतोष शशाँक शेखर,चन्द्र मौली चिदंबरा।
कोटि कोटि प्रणाम शम्भू,कोटि नमन दिगम्बरा॥
कोटि नमन दिगम्बरा॥
कोटि नमन दिगम्बरा॥
कोटि नमन दिगम्बरा॥
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विनयावनत;दिगम्बर

रुद्र ही जगतपति और सर्वज्ञ हैं।ये ही देवताओं अर्थात इन्द्रादि की उतपत्ति और ऐश्वर्य प्राप्ति का कारण हैं।इनकी दो आकृतियां हैं,जिनमें एक घोरा(संहारकारी) और दूसरी अघोरा (मंगलकारी) है।जो अघोरा-शिवा यानी आल्हादकारिणी और पापकाशिनी है,जिसके स्मरण मात्र से ही समस्त पापों का नाश हो जाता है,हे गिरिशन्त!उस पूर्णानन्द स्वरूप मूर्ति में रहकर हमारे सुख का विस्तार करें,हमें कल्याण पथ से युक्त करें।
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दिगम्बर ध्यानी पतित पावन जटागंगा के तट पर समुद्रतल से लगभग पांच हजार फुट की ऊंचाई पर देवदार के घने जंगल के मध्य स्थित हिमालय की पहाडियों के कुमाऊं क्षेत्र में पवित्र जागेश्वर की नैसर्गिक सुंदरता अतुलनीय है। कुदरत ने इस स्थल पर अपने अनमोल खजाने से खूबसूरती जी भरकर लुटाई है।लोक विश्वास और लिंग पुराण के अनुसार जागेश्वर संसार के पालनहार भगवान विष्णु द्वारा स्थापित बारह ज्योतिर्लिगों का उद्गम स्थल है।पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी।कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था। आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की। शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं।जागेश्वर को पुराणों में हाटकेश्वर और भू-राजस्व लेखा में पट्टी पारूणके नाम से जाना जाता है।जागेश्वर का प्राचीन मृत्युंजय मंदिर धरती पर स्थित बारह ज्योतिर्लिंगों का उद्गम स्थल है।देवाधिदेव महादेव यहां आज भी वृक्ष के रूप में मां पार्वती सहित विराजते हैं।दूर-दूर से लोग यहां दर्शन के लिए आते हैं और आत्मिक शांति प्राप्त करते हैं।मित्रोँ २९ अप्रैल २०१७ को सपत्निक,अनुज डॉ पीताम्बर ध्यानी एवँ बहुरानी जी के साथ जागेश्वर महादेव के दर्शन किए। 💓🙏💓

निराकारमोङ्करमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोऽहम्॥
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जिनका कोई आकार नहीं,जो ॐ के मूल हैं,जिनका कोई राज्य नहीं,जो गिरी के वासी हैं,जो कि सभी ज्ञान,शब्द से परे हैं,जो कि कैलाश के स्वामी हैं,जिनका रूप भयावह हैं,जो कि काल के स्वामी हैं,जो उदार एवम् दयालु हैं,जो गुणों का खजाना हैं,जो पुरे संसार के परे हैं उनके सामने मैं नत मस्तक हूँ।
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॥ॐ नमः शिवाय॥
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दिगम्बर ध्यानी

॥शिव स्तुति॥
सदा शंकरं,शंप्रदं,सज्जनानंददं,शैल-कन्या-वरं,परमरम्यं।
काम-मद-मोचनं,तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं॥१॥
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं,सुंदरं,सच्चिदानंदकंदं।
सिद्ध-सनकादि-योगींद्र-वृंदारका,विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं॥२॥
ब्रह्म-कुल-वल्लभं,सुलभ मति दुर्लभं, विकट-वेषं,विभुं,वेदपारं।
नौमि करुणाकरं,गरल-गंगाधरं,निर्मलं, निर्गुणं,निर्विकारं॥३॥
लोकनाथं,शोक-शूल-निर्मूलिनं,शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं।
कालकालं,कलातीतमजरं,हरं,कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं॥४॥
तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं,सर्वगं,सर्वसौभाग्यमूलं।
प्रचुर-भव-भंजनं,प्रणत-जन-रंजनं,दास तुलसी शरण सानुकूलं॥५॥
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॥ॐ नमः शिवाय॥॥ॐ गुरुवे नमः॥
उत्तराखंड के अल्मोड़ा शहर से लगभग ३५ किलोमीटर दूर स्थित केंद्र जागेश्वर धाम के प्राचीन मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस क्षेत्र को सदियों से आध्यात्मिक जीवंतता प्रदान कर रहे हैं।यहां लगभग २५० मंदिर हैं जिनमें से एक ही स्थान पर छोटे-बडे २२४ मंदिर स्थित हैं।पुराणों के अनुसार शिवजी तथा सप्तऋषियों ने यहां तपस्या की थी।कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं जिसका भारी दुरुपयोग हो रहा था।आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य जागेश्वर आए और उन्होंने महामृत्युंजय में स्थापित शिवलिंग को कीलित करके इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की।शंकराचार्य जी द्वारा कीलित किए जाने के बाद से अब यहां दूसरों के लिए बुरी कामना करने वालों की मनोकामनाएंपूरी नहीं होती केवल यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं।भगवान भोलेनाथ की कृपा से २९ अप्रैल २०१७ को सपत्नीक श्री जागेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग के दर्शन एवँ विधिवत पूजा की।कहा जाता है कि जागेश्वर धाम प्रथम मंदिर है जहां लिंग के रूप में शिवपूजन की परंपरा सर्वप्रथम आरंभ हुई।जागेश्वर को उत्तराखंड का पांचवां धाम भी कहा जाता है।जागेश्वर धाम को भगवान शिव की तपस्थली माना जाता है।यह ज्योतिर्लिंग योगेश्वर नाम से भी जाना जाता है।

१२- देवप्रयाग :-

॥ॐ श्रीरामाय नमः॥
॥ऊँ जानकी रामाभ्यां नमः॥
लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम।
पाणौ महासायकचारूचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम॥O
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे।
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:॥ भारत और नेपाल के १०८ दिव्य धार्मिक स्थलों में देवप्रयाग का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है।यहीं अलकनंदा और भागीरथी के संगम से गंगा का उद्भव होता है।इसी कारण देवप्रयाग को को पंच प्रयागों में सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है। स्कंद पुराण के केदारखंड में देवप्रयाग पर.ग्यारह अध्य्याय हैं।मान्यतानुसार यहाँ ब्रह्मा ने दस हजार सालों तक भगवान विष्णु की अराधना की और उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त कर लिया।इस वजह से भी देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ और सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। एक मान्यता यह भी है कि मुनि देव शर्मा ने ग्यारह हजार वर्षों तक तपस्या की थी और भगवान विष्णु यहीं प्रकट हुए थे।उन्होंने देव शर्मा को वचन दिया कि वे त्रेता युग में वापस देवप्रयाग आएँगे।बाद में भगवान विष्णु ने राम का अवतार लिया और अपना वचन पूरा किया। कहा जाता है कि देव शर्मा के नाम पर ही देवप्रयाग का नाम पड़ा।मित्रों मैं सौभाग्यशाली हूँ कि ३० जून १९५३ (१६ गते आषाढ़ संवत २०१०) को मैने देवभूमि “देवप्रयाग” की पावन धरती पर श्रीबद्रीनाथ के तीर्थ पुरोहित श्री मुकुटबिहारी एवँ श्रीमती गोदम्बरीदेवी के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में जन्म लिया।जीवन का बाल्यकाल अठारह साल की अवस्था तक यहाँ जीवन यापन किया।बड़े सँकोच के साथ यह भी कहता हूँ कि हमारे दोनों पुत्रों (डॉ दीपक एवँ डॉ अनुराग) की जन्मस्थली भी देवप्रयाग ही है।उत्तराखंड में पँच प्रयागों में एक “देवप्रयाग” है जो कि ऋषिकेश से लगभग ७० किलोमीटर की दूर पर स्थित है।यहाँ पर गौमुख (गंगोत्री)से निकलने वाली भगीरथी और अल्कापुरी बांक{(वसुधारा,बद्रीनाथ}से बहने वाली अलकनन्दा का सँगम है।वास्तव में दो नदियों के इस मिलन स्थली”सँगम”से ही यहाँ से ही “माँ गङ्गा”का उद्गमस्थल माना गया है।वर्ष १७८५ में पंवार राजा जयकृत सिंह ने देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में अपनी जान दे दी थी।माना जाता है कि राजा की चार रानियां भी यहां सती हो गईं,जिन्हें रानी सती मंदिर समर्पित है।माना जाता है कि उन्होंने पंवार वंश को शापित कर दिया था।जिस कारण आज भी पंवार वंश की कोई सदस्य मंदिर की ओर नहीं झांकता।पूर्व में भी जब राजा देवप्रयाग आते थे तो मंदिर को पूरी तरह ढक दिया जाता था।मंदिर के ठीक पीछे मौजूद शिलालेखों पर ब्राह्मी लिपि में १९ लोगों के नाम खुदे हैं,जिनके बारे में कहा जाता है कि स्वर्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने यहां संगम पर जल-समाधि ले ली थी।
श्रीहरि विष्णु के पांच अवतारों का देवप्रयाग से संबंध:-
देवप्रयाग से भगवान विष्णु के श्रीराम समेत पांच अवतारों का संबंध माना गया है।जिस स्थान पर वे वराह के रूप में प्रकट हुए,उसे वराह शिला और जहां वामन रूप में प्रकट हुए, उसे वामन गुफा कहते हैं।देवप्रयाग के निकट नृसिंहाचल पर्वत के शिखर पर भगवान विष्णु नृसिंह रूप में शोभित हैं।इस पर्वत का आधार स्थल परशुराम की तपोस्थली थी,जिन्होंने अपने पितृहंता राजा सहस्रबाहु को मारने से पूर्व यहां तप किया।इसके निकट ही शिव तीर्थ में श्रीराम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिए तपस्या की थी।श्रृंगी मुनि के यज्ञ के फलस्वरूप ही दशरथ को श्रीराम पुत्र के रूप में प्राप्त हुए।श्रीराम के गुरु भी इसी स्थान पर रहे थे,जिसे वशिष्ठ गुफा कहते हैं।गंगा के उत्तर में एक पर्वत को राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है।देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर अवस्थित है उसे गिद्धांचल कहते हैं।यह स्थान जटायु की तपोभूमि थी।पहाड़ी के आधार स्थल पर श्रीराम ने एक सुंदर अप्सरा को शाप मुक्त किया था,जो ऋषि विष्वामित्र के शाप से मकरी (मगरमच्छ) में परिवर्तित हो गई थी।इसी स्थान के निकट एक स्थान पर ओडिसा के राजा इंद्रद्युम्न ने भगवान विष्णु की आराधना की थी।’प्रयाग’ किसी भी सँगम को कहा जाता है।भू वैकुण्ठ श्री बद्रीनाथ जी की यात्रा का पँच आभूषण,पँच प्रयाग का प्रथम प्रयाग है देवप्रयाग।
उत्तराखण्ड राज्य में स्थित एक नगर एवं प्रसिद्ध तीर्थस्थान है।यह अलकनंदा तथा भागीरथी नदियों के संगम पर स्थित है।इसी संगम स्थल के बाद इस नदी को पहली बार ‘गंगा’ के नाम से जाना जाता है।यहाँ श्री रघुनाथ जी का मंदिर है,जहाँ हिंदू तीर्थयात्री भारत के कोने कोने से आते हैं।देवप्रयाग अलकनंदा और भागीरथी नदियों के संगम पर बसा है।यहीं से दोनों नदियों की सम्मिलित धारा ‘गंगा’ कहलाती है।प्राचीन हिंदू मंदिर के कारण इस तीर्थस्थान का विशेष महत्व है।संगम पर होने के कारण तीर्थराज प्रयाग की भाँति ही इसका भी नामकरण हुआ है।मान्यतानुसार भगीरथी नदी को सास तथा अलकनंदा नदी को बहू कहा जाता है। यहां के मुख्य आकर्षण में संगम के अलावा एक शिव मंदिर तथा रघुनाथ मंदिर हैं जिनमें रघुनाथ मंदिर द्रविड शैली से निर्मित है।देवप्रयाग प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण है।यहां का सौन्दर्य अद्वितीय है।देवप्रयाग को ‘सुदर्शन क्षेत्र’ भी कहा जाता है।मान्यतानुसार लंका विजय उपरांत भगवान राम के वापस लौटने पर जब एक धोबी ने माता सीता की पवित्रता पर संदेह किया,तो उन्होंने सीताजी का त्याग करने का मन बनाया और लक्ष्मण जी को सीताजी को वन में छोड़ आने को कहा।तब लक्ष्मण जी सीता जी को उत्तराखण्ड देवभूमि के ऋर्षिकेश से आगे तपोवन में छोड़कर चले गये।जिस स्थान पर लक्ष्मण जी ने सीता को विदा किया था वह स्थान देव प्रयाग के निकट ही ४ किलोमीटर आगे पुराने बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित है।तब से इस गांव का नाम सीता विदा पड़ गया और निकट ही सीताजी ने अपने आवास हेतु कुटिया बनायी थी,जिसे अब सीता कुटी या सीता सैंण भी कहा जाता है।यहां के लोग कालान्तर में इस स्थान को छोड़कर यहां से काफी ऊपर जाकर बस गये और यहां के बावुलकर लोग सीता जी की मूर्ति को अपने गांव मुछियाली ले गये।वहां पर सीता जी का मंदिर बनाकर आज भी पूजा पाठ होता है।बाद में सीता जी यहा से बाल्मीकि ऋर्षि के आश्रम आधुनिक कोट महादेव चली गईं।त्रेता युग में रावण भ्राताओं का वध करने के पश्चात कुछ वर्ष अयोध्या में राज्य करके राम ब्रह्म हत्या के दोष निवारणार्थ सीता जी,लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग में अलकनन्दा भागीरथी के संगम पर तपस्या करने आये थे।इसका उल्लेख केदारखण्ड में आता है।उसके अनुसार जहां गंगा जी का अलकनन्दा से संगम हुआ है और सीता-लक्ष्मण सहित श्री रामचन्द्र जी निवास करते हैं।देवप्रयाग के उस तीर्थ के समान न तो कोई तीर्थ हुआ और न होगा।इसमें दशरथात्मज रामचन्द्र जी का लक्ष्मण सहित देवप्रयाग आने का उल्लेख भी मिलता है।तथा रामचन्द्र जी के देवप्रयाग आने और विश्वेश्वर लिंग की स्थापना करने का उल्लेख है।देवप्रयाग से आगे श्रीनगर में रामचन्द्र जी द्वारा प्रतिदिन सहस्त्र कमल पुष्पों से कमलेश्वर महादेव जी की पूजा करने का वर्णन आता है।रामायण में सीता जी के दूसरे वनवास के समय में रामचन्द्र जी के आदेशानुसार लक्ष्मण द्वारा सीता जी को ऋषियों के तपोवन में छोड़ आने का वर्णन मिलता है।गढ़वाल में आज भी दो स्थानों का नाम तपोवन है एक जोशीमठ से सात मील उत्तर में नीति मार्ग पर तथा दूसरा ऋषिकेश के निकट तपोवन है।केदारखण्ड में रामचन्द्र जी का सीता और लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग पधारने का वर्णन मिलता है।

विष्णु ने की शिव की पूजा,
कमल चढाऊँ मन में सूझा।
एक कमल जो कम था पाया,
अपना सुंदर नयन चढ़ाया।
साक्षात तब शिव थे आये,
कमल नयन विष्णु कहलाये
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ॐ नमः शिवाय॥ ॥श्री कमलेश्वर महादेव की जय हो॥
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दिगम्बर

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥
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जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है,वैसे ही हे रघुनाथजी।हे राम जी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥
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(रामचरितमानस,उत्तरकाण्ड:१३०ख)
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विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

॥हमारे साथ श्री रघुनाथ,तो किस बात की चिंता॥
हमारे साथ श्री रघुनाथ तो किस बात की चिंता।
शरण में रख दिया जब माथ तो किस बात की चिंता।
किया करते हो तुम दिन रात क्यों बिन बात की चिंता।
किया करते हो तुम दिन रात क्यों बिन बात की चिंता।
तेरे स्वामी,तेरे स्वामी,तेरे स्वामी,
तेरे स्वामी को रहती है,तेरे हर बात की चिंता।
॥ हमारे साथ श्री रघुनाथ तो…॥
न खाने की,न पीने की,न मरने की,न जीने की।
न खाने की,न पीने की,न मरने की,न जीने की।
न खाने की,न पीने की,न मरने की,न जीने की।
रहे हर स्वास,रहे हर स्वास,रहे हर स्वास
रहे हर स्वास में भगवान के प्रिय नाम की चिंता।
॥ हमारे साथ श्री रघुनाथ तो…॥
विभीषण को अभय वर दे किया लंकेश पल भर में।
विभीषण को अभय वर दे किया लंकेश पल भर में।
विभीषण को अभय वर दे किया लंकेश पल भर में।
उन्ही का हाँ,उन्ही का हाँ,उन्ही का हाँ
उन्ही का हाँ कर रहे गुण गान तो किस बात की चिंता।
उन्ही का हाँ कर रहे गुण गान तो किस बात की चिंता।
॥ हमारे साथ श्री रघुनाथ तो…॥
हुई भक्त पर किरपा,बनाया दास प्रभु अपना।
हुई भक्त पर किरपा,बनाया दास प्रभु अपना।
हुई भक्त पर किरपा,बनाया दास प्रभु अपना।
उन्ही के हाथ,उन्ही के हाथ,उन्ही के हाथ,
उन्ही के हाथ में अब हाथ तो किस बात की चिंता।
उन्ही के हाथ में अब हाथ तो किस बात की चिंता।
॥ हमारे साथ श्री रघुनाथ तो…॥
हमारे साथ श्री रघुनाथ तो किस बात की चिंता।
शरण में रख दिया जब माथ तो किस बात की चिंता।
किया करते हो तुम दिन रात क्यों बिन बात की चिंता।
किया करते हो तुम दिन रात क्यों बिन बात की चिंता।
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॥श्री रघुनाथजी की जय हो॥
॥श्री सद्गुरु भगवान की जय हो॥
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विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

॥श्री जानकी स्रोत्र:अष्टकम॥
जानकी त्वां नमस्यामि सर्वपापप्रणाशिनीम्।
जानकी त्वां नमस्यामि सर्वपापप्रणाशिनीम्॥१॥
दारिद्र्यरणसंहर्त्रीं भक्तानाभिष्टदायिनीम्।
विदेहराजतनयां राघवानन्दकारिणीम्॥२॥
भूमेर्दुहितरं विद्यां नमामि प्रकृतिं शिवाम्।
पौलस्त्यैश्वर्यसंहत्रीं भक्ताभीष्टां सरस्वतीम्॥३॥
पतिव्रताधुरीणां त्वां नमामि जनकात्मजाम्।
अनुग्रहपरामृद्धिमनघां हरिवल्लभाम्॥४॥
आत्मविद्यां त्रयीरूपामुमारूपां नमाम्यहम्।
प्रसादाभिमुखीं लक्ष्मीं क्षीराब्धितनयां शुभाम्॥५॥
नमामि चन्द्रभगिनीं सीतां सर्वाङ्गसुन्दरीम्।
नमामि धर्मनिलयां करुणां वेदमातरम्॥६॥
पद्मालयां पद्महस्तां विष्णुवक्ष:स्थलालयाम्।
नमामि चन्द्रनिलयां सीतां चन्द्रनिभाननाम्॥७॥
आह्लादरूपिणीं सिद्धिं शिवां शिवकरीं सतीम्।
नमामि विश्वजननीं रामचन्द्रेष्टवल्लभाम्।
सीतां सर्वानवद्याङ्गीं भजामि सततं हृदाम्॥८॥
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॥ॐ जानकी रामाभ्यां नमः॥
॥ॐ तत्सत॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥
विनयावनत; मुकुटात्मज-दिगम्बर ध्यानी

॥जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना॥
राम बिना नर ऐसे जैसे,अश्व लगाम बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना॥
क्षत्रिय आन बिना,ब्रह्मणज्ञान बिना,घर संतान बिना।
देहप्रान बिना,हाथ दान बिना,भोजन मान बिना।
हम सब का बेकार है जीना,रघुवर नाम बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना॥
पंछी पंख बिना,बिछू डंक बिना,आरति शंख बिना।
गणित अंक बिना,कमल भँवर बिना,निशा मयंक बिना।
ब्यर्थ भ्रमण चिंतन भाषण सब,हरिके नाम बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना॥
प्रियाकंत बिना,हस्तिदंत बिना,आदी अंत बिना।
वेद मंत्र बिना,मठ महंथ बिना,कुटिया संत बिना।
भजन बिना नर ऐसे जैसे,अश्व लगाम बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना॥
पुष्प बाग बिना,संत त्याग बिना,गाना राग बिना।
शीश नमन बिना,नयन दरश बिना,नारी सुहाग बिना।
संत कहै ये जग है सूना,आत्मा ज्ञान बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना।
जल जाये जिह्वा पापिनी,राम के बिना॥
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॥श्रीराम जय राम जय जय राम॥
विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

देवप्रयाग के शिव मंदिर॥
१-आदि विश्वेश्वर मंदिर:-

विश्वेश्वराय नरकार्णवतारणाय।
कर्णामृताय शशिशेखरधारणाय॥
कर्पूरकांतिधवलाय जटाधराय।
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय॥ देवप्रयाग के श्रीरघुनाथ जी मन्दिर के समीप ही विश्वेश्वर महाड़ यह शिवलिंग अत्यंत प्राचीन है। इस शिवलिंग का महात्म्य भगवान् राम जी से जुडा हुआ है।मान्यता है की जब श्रीराम चंद्र जी ने रावण का वध किया तो रामजी पर ब्राह्मण हत्या का पाप लगा तब राम चंद्र जी देवप्रयाग में आये और यहाँ तप कर ब्राह्मण हत्या के पाप से मुक्त हुए।भगवान राम चंद्र जी ने तब रामेश्वर की तर्ज पर देवप्रयाग मे भी शिवलिंग की स्थापना कर आराधना की यही शिवलिंग ‘विश्वेश्वर महादेव’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।यह शिवलिंग दो भागों में है मान्यता है कि महीने के एक पक्ष में इस शिवलिंग का एक भाग व दूसरे पक्ष में दूसरा भाग बढता है इस शिवलिंग के एक भाग को शिव व दूसरे भाग को पार्वती का प्रतीक माना जाता है।अतः इस शिवलिंग को अर्धनारीश्वर भी कहते हैं।वर्तमान में जो शिव मंदिर बना है वह रघुनाथ मंदिर से भी पहले का है।यह मंदिर देवप्रयाग तीर्थ के केन्द्र में स्थित है।रामेश्वर धाम के बाद यहीं भगवान श्री राम ने त्रेतायुग में पूर्ण विधान से शिवलिंग स्थापित किया था।
राम भूत्वा महाभाग गतो देवप्रयागके।
विश्वेश्वरे शिवे स्थाप्य पूजियित्वा यथाविधि॥
-केदारखण्ड(१६२:५०)
केदारखण्ड के अनुसार,करोड़ों शिवलिंगों की पूजन या फल देने वाले ’विश्वेश्वर’ की जो व्यक्ति पूजा किये बिना तीर्थयात्रा करता है उन्हे यात्रा का संम्पूर्ण फल प्राप्त नही हो पाता।
विश्वेश्वरम पूजित्वा तीर्थाटनरतो भवेत्।
तत्सर्व निष्फलं याति मृतों नरकमानुयात्॥
केदारखण्ड(१६२:५५)
२-धनेश्वर मंदिर :-
देवप्रयाग के बाहबजार से एक कीलोमीटर दूर बद्रीनाथ पैदल मार्ग मे स्थित धनेश्वर मंदिर का भी अपना एक अलग ही महात्म्य है। बहुत कम लोग जानते होंगे इस का एक नाम “दनविश्वर” भी है। इस मंदिर के बारे में दो तथ्य हैं।प्रथम तथ्य कश्यप ऋषि से जुडा हुआ है कश्यप ऋषि जोे कि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र हैं उन्होने दक्ष प्रजापती की १७ पुत्रियों के साथ विवाह किया सतरह पुत्रियों मे एक “दनु” भी थीं जिनको “दक्षयाणि दनु” भी कहा जाता है। दनु अौर कश्यप ऋषि से ही ६० दानव पैदा हुए।ऐसी मान्यता है कि शिवजी को प्रसन्न करने के लिए दनु ने धनेश्वर मे ही तप किया था जहाँ शिवजी ने दनु की तपस्या से प्रसन्न होकर दर्शन दिया। दूसरा तथ्य है कि एक धनवती नाम की भक्त यहाँ तपस्या करती थीं उन्हीं के नाम पर इस मंदिर का नाम बाद मे धनेश्वर पडा।
यहाँ समीप ही धनवती नदी भी बहती है।
३-तांटेश्वर मंदिर:-
तांटेश्वर मंदिर शान्ति बाजार में चंडी के बगीचे में स्थित है।इस मंदिर का सम्बन्ध शिव और सती से है। जब दक्ष प्रजापति के यज्ञ मे सती जी प्राण त्याग देती हैं तब शिव जी उनकी काया कन्धे मे रख कर ब्रमांड में घूमने लग जाते हैं तब इस प्रक्रम में सती जी का कर्ण फूल यानी की तांट फूल आभूषण यहाँ गिर जाता है इसी आभूषण को यहाँ शिव के रूप मे पूजा जाता है।
४-विल्वेश्वर:- देवप्रयाग बस अड्डे से एक कीलोमीटर आगे श्रीनगर रोड पर ‘बेली घूम’ के पास बिल्व वृक्ष के नीचे यहाँ यह मंदिर स्थित है। लगभग पचास साल पहले यह शिव लिंग प्राकृतिक कारणो से दब गया था,बाद मे डॉ प्रभाकर जोशी जी के मार्गदर्शन मे लगभग दस साल पहले उस स्थान पर खुदाई हुयी औऱ दुबारा शिवलिंग प्रकट हुआ।पूर्वकाल मे इस शिवलिंग पर सांप भी लिपटे रहते थे।
५-तुंडिश्वर या टोण्डेश्वर महादेव:- इसकी स्तिथि संगम के सामने टापूनुमा चट्टान पर स्थित हैं वर्तमान में यहाँ घंटाघर भी है।यहाँ मंदिर का निर्माण नही है। यह शिवलिंग बेल वृक्ष के नीचे स्थापित हैं। जनश्रुति है की यहाँ तुंडी नामक भील ने शिवजी की आराधना की थी जिससे शिवजी ने प्रसन्न होकर वहाँ शिवलिंग में स्थापित होकर वास करना स्वीकार किया व तुंडी भील को अपने गणों में स्थान दिया।यही जगह उस भील के नाम से तुंडिश्वर या टोण्डेश्वर के नाम से जानी जाती है।
६-ललितेश्वर महादेव:-
यह ‘गुप्त शिवलिंग’ है अब यह शिवलिंग जलमग्न हो गया है फिर भी अत्यंत पुण्यात्माओं को ही इस शिवलिंग के दर्शन हो पाते हैं।इसकी वास्तविक स्थिति अभी ठीक तरह से ज्ञात नही है पर फिर भी देवप्रयाग संगम से गंगा की ओर गंगा की धारा में एक किलोमीटर तक के क्षेत्र मे इसका अनुमान लगाया जाता है।
७-जोगबाड़ा या ‘जोगेश्वर महादेव’:-
यह शिवलिंग गङ्गा संगम से ऊपर और बस अड्डा देवप्रयाग से कुछ ही मीटर दूर सड़क के नीचे स्थित है। जोगियों और औघडो के निरंतर निवास के कारण यहाँ का नाम “जोगबाड़ा” पड़ा।यहाँ अघोरी साधू सिद्धि हेतू शमशान साधना मे लीन आज भी मिल जाते हैं। ॥ॐ नमः शिवाय॥॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥ मित्रों!देवभूमि देवप्रयाग में “बसंत पंचमी”का त्योहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।आगामी १६ फरवरी २०२१ को इस साल की बसंत पँचमी है हमारे जीवन की ६८वी बसंत पँचमी।आप सभी को हार्दिक बधाई एवँ मङ्गलकामनाएं!!!
ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा देवीभागवत पुराण के अनुसार जो मानव माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि के दिन संयमपूर्वक उत्तम भक्ति के साथ षोडशोपचार से भगवती सरस्वती की अर्चना करता है,वह वैकुण्ठ धाम में स्थान पाता है।माघ शुक्ल पंचमी विद्यारम्भ की मुख्य तिथि है।
॥माघस्य शुक्लपञ्चम्यां विद्यारम्भदिनेऽपि च॥
भगवान श्रीकृष्ण ने सरस्वती से कहा था:-
प्रतिविश्वेषु ते पूजां महतीं ते मुदाऽन्विताः।
माघस्य शुक्लपञ्चम्यां विद्यारम्भेषु सुन्दरि॥
मानवा मनवो देवा मुनीन्द्राश्च मुमुक्षवः। सन्तश्च योगिनः सिद्धा नागगन्धर्वकिंनराः॥
मद्वरेण करिष्यन्ति कल्पे कल्पे यथाविधि।
भक्तियुक्ताश्च दत्त्वा वै चोपचारांश्च षोडश॥
काण्वशाखोक्तविधिना ध्यानेन स्तवनेन च।
जितेन्द्रियाः संयताश्च पुस्तकेषु घटेऽपि च।
कृत्वा सुवर्णगुटिकां गन्धचन्दन चर्च्चिताम्।
कवचं ते ग्रहीष्यन्ति कण्ठे वा दक्षिणे भुजे॥
पठिष्यन्ति च विद्वांसः पूजाकाले च पूजिते।
इत्युक्त्वा पूजयामास तां देवीं सर्वपूजितः॥
ततस्तत्पूजनं चक्रुर्ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। अनन्तश्चापि धर्मश्च मुनीन्द्राः सनकादयः॥
सर्वे देवाश्च मनवो नृपा वा मानवादयः।
बभूव पूजिता नित्या सर्वलोकैः सरस्वती॥
उपरोक्त कथन का भावार्थ इसप्रकार हुआ कि,
“सुन्दरि! प्रत्येक ब्रह्माण्ड में माघ शुक्ल पंचमी के दिन विद्यारम्भ के शुभ अवसर पर बड़े गौरव के साथ तुम्हारी विशाल पूजा होगी।मेरे वर के प्रभाव से आज से लेकर प्रलयपर्यन्त प्रत्येक कल्प में मनुष्य,मनुगण,देवता, मोक्षकामी प्रसिद्ध मुनिगण,वसु, योगी,सिद्ध,नाग,गन्धर्व और राक्षस-सभी बड़ी भक्ति के साथ सोलह प्रकार के उपचारों के द्वारा तुम्हारी पूजा करेंगे।उन संयमशील जितेन्द्रिय पुरुषों के द्वारा कण्वशाखा में कही हुई विधि के अनुसार तुम्हारा ध्यान और पूजन होगा।वे कलश अथवा पुस्तक में तुम्हें आवाहित करेंगे।तुम्हारे कवच को भोजपत्र पर लिखकर उसे सोने की डिब्बी में रख गन्ध एवं चन्दन आदि से सुपूजित करके लोग अपने गले अथवा दाहिनी भुजा में धारण करेंगे।पूजा के पवित्र अवसर पर विद्वान पुरुषों के द्वारा तुम्हारा सम्यक प्रकार से स्तुति-पाठ होगा।इस प्रकार कहकर सर्वपूजित भगवान श्रीकृष्ण ने देवी सरस्वती की पूजा की।तत्पश्चात,ब्रह्मा,विष्णु, शिव,अनन्त,धर्म,मुनीश्वर, सनकगण,देवता,मुनि,राजा और मनुगण-इन सब ने भगवती सरस्वती की आराधना की।तब से ये सरस्वती सम्पूर्ण प्राणियों द्वारा सदा पूजित होने लगीं॥
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वसन्त पंचमी पर सरस्वती मूल मंत्र की कम से कम एक माला(१०८) जप जरूर करना चाहिए॥
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मूल मंत्र :-॥श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा॥
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सरस्वती जी का वैदिक अष्टाक्षर मूल मंत्र जिसे भगवान शिव ने कणादमुनि तथा गौतम को,श्रीनारायण ने वाल्मीकि को,ब्रह्मा जी ने भृगु को,भृगुमुनि ने शुक्राचार्य को, कश्यप ने बृहस्पति को दिया था जिसको सिद्ध करने से मनुष्य बृहस्पति के समान हो जाता है॥
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नैवेद्य:- (ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार)
नवनीतं दधि क्षीरं लाजांश्च तिललड्डुकान्।
इक्षुमिक्षुरसं शुक्लवर्णं पक्वगुडं मधु॥
स्वस्तिकं शर्करां शुक्लधान्यस्याक्षतमक्षतम्। अस्विन्नशुक्लधान्यस्य पृथुकं शुक्लमोदकम्॥
घृतसैन्धवसंस्कारैर्हविष्यैर्व्यञ्जनैस्तथा।
यवगोधूमचूर्णानां पिष्टकं घृतसंस्कृ तम्॥
पिष्टकंस्वस्तिकस्यापि,पक्वरम्भाफलस्य च।
परमान्नं च सघृतं,मिष्टान्नं च सुधोपमम्।I
नारिकेलं तदुदकं केशरं मूलमार्द्रकम्। पक्वरम्भाफलं चारु श्रीफलं बदरीफलम्।
कालदेशोद्भवं पक्वफलं शुक्लं सुसंस्कृतम्॥
{ताजा मक्खन,दही,दूध,धान का लावा,तिल के लड्डू,सफेद गन्ना और उसका रस,उसे पकाकर बनाया हुआ गुड़,स्वास्तिक (एक प्रकार का पकवान),शक्कर या मिश्री,सफेद धान का चावल जो टूटा न हो (अक्षत), बिना उबाले हुए धान का चिउड़ा, सफेद लड्डू,घी और सेंधा नमक डालकर तैयार किये गये व्यंजन के साथ शास्त्रोक्त हविष्यान्न,जौ अथवा गेहूँ के आटे से घृत में तले हुए पदार्थ, पके हुए स्वच्छ केले का पिष्टक,उत्तम अन्न को घृत में पकाकर उससे बना हुआ अमृत के समान मधुर मिष्टान्न,नारियल,उसका पानी,कसेरू,मूली, अदरख,पका हुआ केला,बढ़िया बेल, बेर का फल,देश और काल के अनुसार उपलब्ध ऋतुफल तथा अन्य भी पवित्र स्वच्छ वर्ण के फल-ये सब नैवेद्य के समान हैं॥}
सुगन्धि शुक्लपुष्पं च गन्धाढ्यं शुक्लचन्दनम्।
नवीनं शुक्लवस्त्रं च शङ्खं च सुमनोहरम्।
माल्यं च शुक्लपुष्पाणां मुक्ताहीरादिभूषणम्॥
{सुगन्धित सफेद पुष्प,सफेद स्वच्छ चन्दन तथा नवीन श्वेत वस्त्र और सुन्दर शंख देवी सरस्वती को अर्पण करना चाहिये।श्वेत पुष्पों की माला और श्वेत भूषण भी भगवती को चढ़ावे।}
स्मरण शक्ति प्राप्त करने के लिए वसंत पंचमी से शुरू करके प्रतिदिन याज्ञवल्क्य द्वारा रचित भगवती सरस्वती की स्तुति करनी चाहिए॥विनयावनत;दिगम्बर ध्यानी ॥देवप्रयाग:मेरी जन्मभूमि॥
*यत्र ने जान्हवीं साक्षादल कनदा समन्विता।
यत्र सम: स्वयं साक्षात्स सीतश्च सलक्ष्मण॥
सममनेन तीर्थेन भूतो न भविष्यति॥
*पुनर्देवप्रयागे यत्रास्ते देव भूसुर:।
आहयो भगवान विष्णु राम-रूपतामक: स्वयम्॥
*राम भूत्वा महाभाग गतो देवप्रयागके॥
*विश्वेश्वरे शिवे स्थाप्य पूजियित्वा यथाविधि॥
इत्युक्ता भगवन्नाम तस्यो देवप्रयाग के।
लक्ष्मणेन सहभ्राता सीतयासह पार्वती॥”

१३- चितई गोल्ज्यू देवता:-
चितई गोल्ज्यू देवता को भगवान शिव का अवतार माना जाता है।गोल्ज्यू के दर्शन और पूजन के लिए यहां भक्त दूर-दूर से आते हैं।मान्यतानुसार यहां जो भी सच्चे दिल से भगवान से अपनी बात कहता है वह जरूर पूरा करते हैं।उत्तराखण्ड अपने प्राकृतिक सौंदर्य और धार्मिक स्थलों के लिए देश व दुनिया में अलग पहचान रखता है।एक तरफ जहां चार धाम सदियों से श्रद्धालुओं के आस्था का प्रतीक है,तो दूसरी और कुछ ऐसे भी मंदिर हैं,जो अपनी अलग पहचान रखते हैं।एक ऐसा ही मंदिर हैं गोल्ज्यू देवता का।
अल्मोड़ा शहर से लगभग १५ किलोमीटर आगे हैं मंदिर।जनपद अल्मोड़ा से करीब पंद्रह किलोमीटर दूर इस मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं.।इस मंदिर को चिट्ठियों और घंटियों का मंदिर भी कहा जाता है।गोल्ज्यू के दर्शन और पूजन के लिए यहां भक्त दूर-दूर से आते हैं।तीन बार भीगोल्ज्यू देवता के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।एक बार मनोकामना पूर्ण होनें पर घँटी भी अर्पित की थीं।मित्रों मान्यता है कि यहां जो सच्चे दिल से अपनी बात देवता से कहता है वह जरूर पूरा करते हैं।

१४- श्री सूर्यनारायण मन्दिर कटारमल:-

विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः।
लोक प्रकाशकः श्री माँल्लोक चक्षुर्मुहेश्वरः॥
लोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिस्रहा।
तपनस्तापनश्चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनः॥
गभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृतः।
एकविंशतिरित्येष स्तव इष्टः सदा रवेः॥
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विकर्तन,विवस्वान,मार्तण्ड,भास्कर,रवि,लोकप्रकाशक,श्रीमान,लोकचक्षु, महेश्वर,लोकसाक्षी,त्रिलोकेश,कर्ता, हर्त्ता,तमिस्राहा,तपन,तापन,शुचि,सप्ताश्ववाहन,गभस्तिहस्त,ब्रह्मा और सर्वदेव नमस्कृत।इस प्रकार इक्कीस नामों का यह स्तोत्र भगवान सूर्य को सदा प्रिय है।-(ब्रह्म पुराण :३१.३१.३३)
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यह शरीर को निरोग बनाने वाला,धन की वृद्धि करने वाला और यश फैलाने वाला स्तोत्रराज है।इसकी तीनों लोकों में प्रसिद्धि है।जो सूर्य के उदय और अस्तकाल में दोनों संध्याओं के समय इस स्तोत्र के द्वारा भगवान सूर्य की स्तुति करता है,वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।
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॥ॐ सूर्याय नमः॥॥

सूर्य मंदिर उत्तराखड में कटारमल (अल्मोड़ा) समुद्र की सतह से सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित एकमात्र सूर्य मंदिर है।यह कोणार्क (ओडिशा) के सूर्य मंदिर के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा सूर्य मंदिर है।यह मंदिर अल्मोड़ा शहर से रानीखेत की ओर जाने वाले मार्ग पर १४ किलोमीटर दूर कोसी नामक स्थान के बाद तीन किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पैदल मार्ग पर बसे अधेली सुनार नामक गॉंव में स्थित है।धर्मपत्नी श्रीमती मीना ध्यानी,अनुज भ्राता डॉ पीताम्बर ध्यानी एवँ बहुरानी श्रीमती रेणु ध्यानी के सँग यहाँ देखने का मौका मिला।इस सूर्य मंदिर तक पहुंचने के लिए दूसरी ओर से एक मोटर मार्ग भी बनाया गया है लेकिन बरसात और भूस्खलन के चलते वह टूट-फूटकर जर्जर अवस्था में रहता है।ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि यह मंदिर कोणार्क के विश्वविख्यात सूर्य मंदिर से लगभग दो सौ वर्ष पुराना है।इसका निर्माण प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में कुमाऊँ क्षेत्र के कत्यूरी राजवंश के तत्कालीन शासकों द्वारा छठीं से नवीं शताब्दी के बीच कराया गया था।जबकि यहां स्थित ४४ अन्य मंदिरों का निर्माण अलग-अलग समय पर किया गया. इस मंदिर की स्थापना के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं।कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस मंदिर का जीर्णोद्धार समय-समय पर होता रहा है।यह कुमाऊॅं के विशालतम ऊँचे मंदिरों में से एक तथा उत्तर भारत में विलक्षण स्थापत्य एवं शिल्प कला का बेजोड़ उदाहरण है।समुद्र तल से २११६ मीटर की ऊंचाई पर स्थित यहां का मुख्य मंदिर पूर्वाभिमुख है।जिसका निर्माण इस प्रकार करवाया गया है कि सूर्य की पहली किरण मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर पड़ती है।मंदिर एक ऊँचे वर्गाकार चबूतरे पर है बना हुआ है।इसकी दीवार पत्थरों से बनी है और इनके खम्भों पर खूबसूरत नक्काशी की गई है।मंदिर के गर्भगृह का प्रवेश द्वार उत्कीर्ण की हुई लकड़ी का था,जो इस समय दिल्ली के ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ की दीर्घा में रखा हुआ है।आजकल देवदार की लकड़ी से बने हुए इसके सुंदर दरवाजे पर्यटकों को बहुत चित्ताकर्षक लगते हैं।मंदिर का परिसर लगभग एक हज़ार साल पुराना है।यहां का मुख्य मंदिर ४४ छोटे-छोटे मंदिरों से घिरा हुआ है।यह मंदिर प्राचीन देवता सूर्य को समर्पित होने से वर्धादित्य या बड़ादित्य कहलाता है।मंदिर परिसर में सूर्य की तीन प्रतिमाओं के अतिरिक्त शिव-पार्वती,लक्ष्मी-नारायण,नृसिंह,गणेश,कार्तिकेय आदि देवी-देवताओं की अनेक नयनाभिराम प्रतिमाएं भी हैं।मंदिर के ऊँचे खंडित शिखर को देखकर इसकी विशालता व वैभव का अनुमान सहज ही हो जाता है।मुख्य मंदिर की संरचना त्रिरथ है,जो वर्गाकार गर्भगृह के साथ नागर शैली के वक्र रेखी शिखर सहित निर्मित है।
मंदिर परिसर में पहुंचते ही इसकी विशालता और वास्तु शिल्प बरबस ही पर्यटकों का मन मोह लेते हैं।गर्भगृह का प्रवेश द्वार बेजोड़ काष्ठ कला द्वारा उत्कीर्ण था,जो कुछ अन्य अवशेषों के साथ वर्तमान में नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रदर्शित है।मंदिर स्वयं में वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है।यहां की दीवारों पर बेहद जटिल नक्काशी की गई है।यह सूर्य मंदिर अपनी शानदार वास्तुकला, कलात्मक रूप से तराशे गये पत्थरों और धातुकर्म तथा खूबसूरती से बनाये गए नक्काशीदार खंभों और लकड़ी के दरवाजों के लिए प्रसिद्ध है।वर्तमान मंडप और बाड़े के भीतर कई धार्मिक स्थलों का निर्माण बहुत बाद में किया गया है।मंदिर में स्थापित पद्मासन मुद्रा में बैठे सूर्य की १२वीं शताब्दी में बनी प्रतिमा (मूर्ति) सहित नक्काशीदार दरवाजों और पैनलों को वर्तमान समय में नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा गया है।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा इस मंदिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया जा चुका है और वर्तमान समय में यह मंदिर परिसर इसी विभाग के अधीन है,जबकि पूजा-पाठ स्थानीय लोगों के पास परंपरागत रूप से है।रख-रखाव तथा समुचित मरम्मत आदि के अभाव में मुख्य मंदिर के शीर्ष का कुछ भाग ढह चुका है।

१५- श्री दक्षेश्वर मन्दिर कनखल:-
कनखल, हरिद्वार शहर से बिलकुल सटा हुआ है।कनखल के विशेष आकर्षण प्रजापति मंदिर,सती कुंड एवं ‘दक्ष महादेव’ मंदिर हैं।यहाँ धर्म पत्नी जी के साथ ८ मई २०१४ को धर्मपत्नी जी के साथ भोलेनाथ के शिवलिंग के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

१६- हरिद्वार महाकुम्भ स्नान:-
मित्रों हम अपने की परम् सौभाग्यशाली मानतें हैं कि २०१० के “महाकुंभ” में हरिद्वार पहुँचकर १५ मार्च सोमवती अमावस्या के पवित्र स्नान दिन पर परम् पवित्र बिन्दु(ब्रह्मकुंड)पर ही प्रातः ३:४५ बज़े महाकुंभ स्नान सपत्नीक किया।इसे हम अपने पूर्वजन्मों का पुण्य प्रताप समझते हैं।किसी कुंभ में सोमवती अमावस्या इस समय २०१० में ७६० वर्ष बाद आई थीं।यह पुनीत मौका हमें मिला।भगवान की अहैतुकी कृपा।

१७- माँ नैना देवी मन्दिर:-
उत्तराखंड के नैनीताल में,नैनी झील के उत्त्तरी किनारे पर नैना देवी मंदिर स्थित है।१८८०में भूस्‍खलन से यह मंदिर नष्‍ट हो गया था।बाद में इसे दुबारा बनाया गया।यहां सती के शक्ति रूप की पूजा की जाती है।
मंदिर में दो नेत्र हैं जो नैना देवी को दर्शाते हैं।नैनी झील के बारें में माना जाता है कि जब शिव सती की मृत देह को लेकर कैलाश पर्वत जा रहे थे,तब जहां-जहां उनके शरीर के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठों की स्‍थापना हुई।नैनी झील के स्‍थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे।इसीसे प्रेरित होकर इस मंदिर की स्‍थापना की गई है।पौराणिक कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था।शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे,परन्तु वह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे,इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था।एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने यहाँ यज्ञ में बुलाया,परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमन्त्रण तक नहीं दिया।उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची।जब उसने हरिद्वार स्थित कनरवन में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपने पति और अपना निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दु:खी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि ‘मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी। आपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर किया इसके प्रतिफल-स्वरुप यज्ञ के हवन-कुण्ड में स्वयं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ।’ जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सती हो गयी,तो उनके क्रोध का पारावार न रहा।उन्होंने अपने गणों के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट – भ्रष्ट कर डाला।सभी देवी-देवता शिव के इस रौद्र-रूप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर ड़ालें। इसलिए देवी-देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध के शान्त किया।दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी।शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया।परन्तु सती के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा।उन्होंने सती के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश-भ्रमण करना शुरु कर दिया।ऐसी स्थिति में जहाँ-जहाँ पर शरीर के अंग किरे,वहाँ-वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए। जहाँ पर सती के नयन गिरे थे ;वहीं पर नैना देवी के रूप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया।आज का नैनीताल वही स्थान है,जहाँ पर उस देवी के नैन गिरे थे। नयनों की अश्रुधार ने यहाँ पर ताल का रूप ले लिया। तबसे निरन्तर यहाँ पर शिवपत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रूप में होती है।

१८- श्री सिद्धबली हनुमान मंदिर:-

जहाँ-जहाँ भगवान श्रीरघुनाथजी के नामका कीर्तन और कथा होती है वहाँ वहाँआँखों में आँसू भरे हुए और नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये हुए प्रपत्ति भाव से उपस्थित रहने वाले,राक्षसों का संघार करने वाले पवन पुत्र श्री हनुमानजी को मैं नमस्कार करता हूँ।
॥श्री हनुमान स्तवन॥
सोरठा;
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ज्ञानघन ।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥१॥
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्।
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्॥२॥
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्।
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥३॥
॥श्रीहनुमन्नमस्कारः॥
गोष्पदी-कृत-वारीशं मशकी-कृत-राक्षसम्।
रामायण-महामाला-रत्नं वन्देऽनिलात्मजम्॥१॥
अञ्जना-नन्दनं-वीरं जानकी-शोक-नाशनम्।
कपीशमक्ष-हन्तारं वन्दे लङ्का-भयङ्करम्॥२॥
महा-व्याकरणाम्भोधि-मन्थ-मानस-मन्दरम्।
कवयन्तं राम-कीर्त्या हनुमन्तमुपास्महे॥३॥
उल्लङ्घ्य सिन्धोः सलिलं सलीलंयः शोक-वह्निं जनकात्मजायाः।
आदाय तेनैव ददाह लङ्कांनमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम्॥४॥
मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगंजितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानर-यूथ-मुख्यंश्रीराम-दूतं शिरसा नमामि॥५॥
आञ्जनेयमतिपाटलाननंकाञ्चनाद्रिकमनीय-विग्रहम्।
पारिजात-तरु-मूल-वासिनंभावयामि पवमान-नन्दनम्॥६॥
यत्र यत्र रघुनाथ-कीर्तनंतत्र तत्र कृत-मस्तकाञ्जलिम्।
बाष्प-वारि-परिपूर्ण-लोचनंमारुतिर्नमत राक्षसान्तकम्॥७॥
[जहाँ-जहाँ भगवान श्रीरघुनाथजी के नामका कीर्तन और कथा होती है वहाँ वहाँआँखों में आँसू भरे हुए और नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये हुए प्रपत्ति भाव से उपस्थित रहने वाले,राक्षसों का संघार करने वाले पवन पुत्र श्री हनुमानजी को मैं नमस्कार करता हूँ।]
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मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये॥
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श्री रामरक्षास्तोत्रम्:२३ से उद्धरित श्री हनुमानजी के इस ध्यान मन्त्र का हिंदी में भावार्थ यह कि-‘जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है,जो परम जितेन्दिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं,उन पवनपुत्र वानरों में प्रमुख श्रीरामदूत की मैं शरण लेता हूँ।’ मित्रों!इस कलियुग में हनुमानजी की भक्ति से बढ़कर किसी भक्ति में शक्ति नहीं है।श्री रामरक्षा स्तोत्र से लिए गए हनुमानजी के प्रति शरणागत होने के लिए इस श्लोक या मंत्र का जप करने से हनुमानजी तुरंत ही साधना करने वाले की विनती सुन लेते हैं और वे उनको अपनी शरण में ले लेते हैं।जो व्यक्ति हनुमानजी का प्रतिदिन ध्यान करते रहते हैं,हनुमानजी उनकी बुद्धि से क्रोध को हटाकर बल का संचार करते हैं॥ नासै रोग हरे सब पीरा।जपत निरन्तर हनुमत बीरा॥

॥संकटमोचन हनुमानाष्टक॥
[मक्तगयंद छंद]
बाल समय रवि भक्षी लियो तब,
तीनहुं लोक भयो अंधियारों।
ताहि सों त्रास भयो जग को,
यह संकट काहु सों जात न टारो॥
देवन आनि करी बिनती तब,
छाड़ी दियो रवि कष्ट निवारो।
को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो॥१॥
बालि की त्रास कपीस बसैं गिरि,
जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महामुनि साप दियो तब,
चाहिए कौन बिचार बिचारो॥
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु,
सो तुम दास के सोक निवारो॥कोo-२
अंगद के संग लेन गए सिय,
खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु,
बिना सुधि लाये इहाँ पगु धारो॥
हेरी थके तट सिन्धु सबे तब,
लाए सिया-सुधि प्राण उबारो॥कोo-३॥
रावण त्रास दई सिय को सब,
राक्षसी सों कही सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु,
जाए महा रजनीचर मरो॥
चाहत सीय असोक सों आगि सु,
दै प्रभुमुद्रिका सोक निवारो॥कोo-४॥
बान लाग्यो उर लछिमन के तब,
प्राण तजे सूत रावन मारो।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत,
तबै गिरि द्रोण सु बीर उपारो॥
आनि सजीवन हाथ दिए तब,
लछिमन के तुम प्रान उबारो॥कोo-५॥
रावन जुध अजान कियो तब,
नाग कि फाँस सबै सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल,
मोह भयो यह संकट भारो॥
आनि खगेस तबै हनुमान जु,
बंधन काटि सुत्रास निवारो॥कोo-६॥
बंधू समेत जबै अहिरावन,
लै रघुनाथ पताल सिधारो।
देबिन्हीं पूजि भलि विधि सों बलि,
देउ सबै मिलि मन्त्र विचारो॥
जाये सहाए भयो तब ही,
अहिरावन सैन्य समेत संहारो॥कोo-७॥
काज किये बड़ देवन के तुम,
बीर महाप्रभु देखि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को,
जो तुमसे नहिं जात है टारो॥
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु,
जो कछु संकट होए हमारो॥कोo-८॥
॥दोहा॥
लाल देह लाली लसे,अरु धरि लाल लंगूर।
वज्र देह दानव दलन,जय जय जय कपि सूर॥
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॥इति संकट मोचन हनुमानाष्टक सम्पूर्ण॥
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श्री हनुमंत लाल की पूजा आराधना में हनुमान चालीसा,बजरंग बाण और संकटमोचन अष्टक का पाठ बहुत ही प्रमुख माने जाते हैं।संकटमोचन हनुमान अष्टक का नियमित पाठ करने से भक्तों पर आये गंभीर संकट का भी निवारण हो जाता है।
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॥श्री हनूमते नमः॥
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१९- माँ सुरकण्डा मन्दिर:-
सिद्धपीठ मां सुरकंडा देवी का मंदिर टिहरी के जौनुपर पट्टी में सुरकुट पर्वत पर स्थित है।पौराणिक मान्यता के अनुसार जब राजा दक्ष ने कनखल में यज्ञ का आयोजन किया तो उसमें भगवान शिव को नहीं बुलाया। शिवजी के मना करने पर भी सती यज्ञ में पहुंच गईं।वहां सती और भगवान शिव का अपमान किया गया।जिसके बाद माता सती यज्ञ कुंड में कूद गईं।पौराणिक मान्यता के अनुसार यहां सती का सिर सुरकुट पर्वत पर गिरा था।तभी से ये स्थान सुरकंडा देवी सिद्धपीठ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।इसका उल्लेख केदारखंड व स्कंद पुराण में मिलता है।कहा जाता है कि देवताओं को हराकर राक्षसों ने स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था।ऐसे में देवताओं ने माता सुरकंडा देवी के मंदिर में जाकर प्रार्थना की कि उन्हें उनका राज्य मिल जाए।राजा इंद्र ने यहां मां की आराधना की थी।उनकी मनोकामना पूरी हुई और देवताओं ने राक्षसों को युद्घ में हराकर स्वर्ग पर अपना आधिपत्य स्‍थापित किया।इसलिए इस जगह को मनोकामना सिद्धि का मंदिर कहा जाता है।सुरकंडा मंदिर में गंगा दशहरा के मौके पर देवी के दर्शनों का विशेष महात्म्य है।माना जाता है कि इस समय जो देवी के दर्शन करेगा, उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। यह जगह बहुत रमणीक है।खास बात ये है कि मां अपने दरबार से किसी को खाली हाथ नहीं जाने देती।अब आपको यहां के नजारों के बारे में भी बता देते हैं।आप सुरकंडा मां के दरबार में खड़े हो जाइए,यहां से बदरीनाथ केदारनाथ,तुंगनाथ, चौखंबा,गौरीशंकर,नीलकंठ आदि सहित कई पर्वत श्रृखलाएं दिखाई देती हैं।मां सुरकंडा देवी के कपाट साल भर खुले रहते हैं।सर्दियों में अधिकांश समय यहां पर बर्फ गिरी रहती है।मार्च और अप्रैल में भी मौसम ठंडा ही रहता है।मई से अगस्त तक अच्छा मौसम रहता है।क्योंकि हमनें लगभग अठारह साल (१९८४ से २००२ तक) चम्बा (टिहरी) में भारत सरकार की सेवा की।अस्तु,सपरिवार यहाँ माँ सुरकण्डा के दर्शनों के लिए आते ही रहते थे।

२०- श्री कमलेश्वर महादेव मंदिर,श्रीनगर:-

केदारखंड अध्याय -१८८:८८,८९) में वर्णित है:-
पुनः कदाचित भगवान्नमरूपी जनार्दनः।
पूजयामास कमलैः प्रत्यहं शत सम्मितैः।
तोतद्धवधि महाराज कमलेश्वरतां गतः॥
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अनंतर में किसी समय जनार्दन श्री विष्णु भगवान ने राम रूप धारण कर प्रतिदिन सौ-सौ कमलों से उनकी पूजा की थी।तभी से इस लिंग का नाम कमलेश्वर प्रसिद्ध हो गया॥
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वंदे देवम् उमापतिम् सुरगुरूं,वंदे जगत कारणम्।
वंदे पन्नगभूषणम् मृगधरं,वंदे पशूनाम् पतिम्॥
वंदे सूर्य शशांक वन्हिनयनम्,वंदे मुकंदप्रियम्।
वंदे भक्त जनाश्रयम् च वरदम्,वंदे शिवम् शंकरम्॥

पूजन रामचंद्र जब कीन्हा।
जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी।
कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
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[हे नीलकंठ आपकी पूजा करके ही भगवान श्री रामचंद्रजी लंका को जीत कर उसे विभीषण को सौंपने में कामयाब हुए।इतना ही नहीं जब श्री राम ने माँ शक्ति की पूजा कर रहे थे और सेवा में कमल अर्पण कर रहे थे, तो आपके ईशारे पर ही देवीमाँ ने उनकी परीक्षा लेते हुए एक कमल को छुपा लिया।]
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एक कमल प्रभु राखेउ जोई।
कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर।
भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
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[अपनी पूजा को पूरा करने के लिए राजीवनयन भगवान श्रीराम ने,कमल की जगह अपनी आँख से पूजा संपन्न करने की ठानी,तब आप प्रसन्न हुए और उन्हें इच्छित वर प्रदान किया।]
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॥ॐ श्री कमलेश्वराय नमः॥
॥ॐ श्री गुरुवे नमः॥
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दिगम्बर ध्यानी

देवभूमि उत्तराखंड के श्रीनगर में प्राचीन कमलेश्वर महादेव मंदिर मध्य हिमालय की तलहटी में अलकनंदा नदी के किनारे स्थित है।पौराणिक कमलेश्वर महादेव मंदिर से श्रद्धालुओं की अटूट आस्था के पीछे कई किवदंतियां हैं।कहा जाता है कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने जामवंती के कहने पर कमलेश्वर मंदिर में भगवान शिव की आराधना की। जिसके बाद उन्हें ‘स्वाम’ नामक पुत्र की प्राप्ति हुई।इस अनुष्ठान को एक नि:संतान दंपति ने देखा और शिव की आराधना की जिसके बाद उन्हें भी संतान की प्राप्ति हुई।मन्दिर से जुड़ी एक और मान्यता के अनुसार ब्राह्मण हत्या से मुक्ति पाने के लिए श्रीराम चन्द्र जी ने इसी स्थल पर शिव की तपस्या की थी।
यहां आज भी नि:संतान दंपति शिव की आराधना करने आते हैं।यहां कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी(वैकुण्ठ चतुर्दशी) के दिन हजारों लोगों का हुजूम उमड़ता है जिसके पीछे यह अनोखी मान्यता है कि यहां जो नि:संतान दंपति खड़े दीये के पवित्र अनुष्ठान में शामिल होते हैं उन्हें संभवतः संतान सुख की प्राप्ति होती है।इसमे देश-विदेश से सैकड़ों दंपति ने खड़े दीये का अनुष्ठान पूरा करतें हैं।
श्रीनगर गढ़वाल के कमलेश्वर महादेव मंदिर में हर साल बैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन एक विशेष अनुष्ठान हेाता है।इस ऐतिहासिक व धार्मिक मेले का अपना महत्व है।हजारों दर्शनार्तथि भगवान भोलेनाथ के दर्शन कर जहां मेले का लुत्फ उठाते हैं वहीं नि:संतान बैकुण्ठ चतुर्दशी पर्व की रात्रि को घी का दीप प्रज्वति कर रात भर खड़े होकर भगवान शिव की स्तुति करते हैं।मित्रों!खड़े दिये की पूजा बहुत कठिन है।उन्होंने बताया कि बैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन की वेदनी बेला पर शुरू हुए उपवास के बाद रात्रि के लगभग २ बजे महंत द्वारा शिवलिगं के आगे एक विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है।जिसमें सौ व्यजनों का भोग लगाकर शिवलिगं को मक्खन से ढक दिया जाता है।इसके बाद नि:संतान दंपति को अनुष्ठान पूरा करना होता है।जिसके तहत वे जलता हुआ दीपक लेकर पूरी रात ‘ॐ नम: शिवाय’ का जप करते हुए खड़े रहते हैं।मित्रों अपने श्रीनगर-गढ़वाल निवास के लगभग उन्नीस सालों (२००२ से २०२१) के दौरान श्री कमलेश्वर महादेव मंदिर में शिवलिंग की पूजा की।एक बार ११ दिनों १९ जुलाई से २९ जुलाई २०१४)तक ‘शिव रुद्राभिषेक अनुष्ठान’ भी संपन्न करके मनोवांछित फल भी प्राप्त किया है।इस रुद्राभिषेक के मुख्य यजमान छोटा पुत्र अनुराग ध्यानी एवँ उनकी धर्मपत्नी श्रीमती ऋतु रहे हैं।

॥महादेव आह्वान महामंत्र स्तुति:॥
कैलासशिखरस्यं च पार्वतीपतिमुर्त्तममि।
यथोक्तरूपिणं शंभुं निर्गुणं गुणरूपिणम्॥
पंचवक्त्र दशभुजं त्रिनेत्रं वृषभध्वजम्।
कर्पूरगौरं दिव्यांग चंद्रमौलि कपर्दिनम्॥
व्याघ्रचर्मोत्तरीयं च गजचर्माम्बरं शुभम्।
वासुक्यादिपरीतांग पिनाकाद्यायुद्यान्वितम्॥
सिद्धयोऽष्टौ च यस्याग्रे नृत्यन्तीहं निरंतरम्।
जयज्योति शब्दैश्च सेवितं भक्तपुंजकै:॥
तेजसादुस्सहेनैव दुर्लक्ष्यं देव सेवितम्।
शरण्यं सर्वसत्वानां प्रसन्न मुखपंकजम्॥
वेदै: शास्त्रैर्ययथागीतं विष्णुब्रह्मनुतं सदा।
भक्तवत्सलमानंदं शिवमावाह्याम्यहम्॥
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२१- नृसिंह मंदिर जोशीमठ :-
ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम्॥🙏
(हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, तुम्हारी ज्वाला एवं ताप चतुर्दिक फैली हुई है।हे नरसिंहदेव,तुम्हारा चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं तुम्हारे समक्षा आत्मसमर्पण करता हूँ।)दिगम्बर ध्यानी🙏 नृसिंहमंदिर एक हिन्दू मंदिर है जो भगवान विष्णु के चैथे अवतार नरसिंह को समर्पित है।यह मंदिर भारत के राज्य उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ में स्थित है।नरसिंह मंदिर जोशीमठ के सबसे लोकप्रिय मंदिरों में से एक है।इस मंदिर को ‘नरसिंह बद्री’ या ‘नरसिम्हा बद्री’ भी कहा जाता है। नरसिंह मंदिर को जोशीमठ में नरसिंह देवता मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर को सप्त मंदिर की यात्रा में से एक है।भगवान नरसिंह को अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा करने के लिए एवं राक्षस हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए जाना जाता है।
नरसिंह मंदिर में मुख्य मूर्ति जो आधा शेर और आधा आदमी के रूप में स्थिपित है,जो भगवान विष्णु के चैथे अवतार है।ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर के स्थापना आदि गुरू शंकरचार्य ने की थी।मंदिर में स्थापित भगवान नरसिंह की मूर्ति शालिग्राम के पत्थर से बनी है।इस मूर्ति का निमार्ण आठवी शताब्दी में कश्मीर के राजा ललितादत्य युक्का पीडा के शासनकाल के दौरान किया गया था। ऐसा भी माना जाता है कि नरसिंह देवता की यह मूर्ति स्वंय भू है।छवि दस इंच (२५ सेमी) ऊंची है और कमल की स्थिति में बैठे भगवान को दर्शाती है।
नरसिंह ब्रदी मंदिर की कथा भविष्य बद्री मंदिर की पौराणिक कथा से निकटता से जुड़ा हुआ है।ऐसा माना जाता है कि मूर्ति की बायीं भुजा समय के साथ कम होती जा रही है और अंत में जब गायब हो जाएगी।बद्रीनाथ का मुख्य मंदिर व बद्रीनाथ धाम का रास्ता अवरुद्ध व दुर्गम हो जायेगा।तब भगवान बद्री,भविष्य बद्री मंदिर में भी दर्शन देगें।बद्रीनाथ मंदिर के बजाय भविष्य बद्री मंदिर पूजा की जाएगी।
जब सर्दियों में मुख्य बद्रीनाथ मंदिर बंद हो जाता है,तो बद्रीनाथ के पुजारी इस मंदिर में चले जाते हैं और यहां बद्रीनाथ की पूजा जारी रखते हैं। केंद्रीय नरसिम्हा मूर्ति के साथ,मंदिर में बद्रीनाथ की एक मूर्ति भी है। प्रहलाद हृदयाहलादं भक्ता विधाविदारण।
शरदिन्दु रुचि बन्दे पारिन्द् बदनं हरि॥१॥
नमस्ते नृसिंहाय प्रहलादाहलाद-दायिने। हिरन्यकशिपोर्ब‍क्षः शिलाटंक नखालये॥२॥
इतो नृसिंहो परतोनृसिंहो,यतो-यतो यामिततो नृसिंह।
बर्हिनृसिंहो ह्र्दये नृसिंहो,नृसिंह मादि शरणं प्रपधे॥३॥
तव करकमलवरे नखम् अद् भुत श्रृग्ङं।
दलित हिरण्यकशिपुतनुभृग्ङंम्।
केशव धृत नरहरिरुप,जय जगदीश हरे॥४॥
वागीशायस्य बदने लर्क्ष्मीयस्य च बक्षसि।
यस्यास्ते ह्र्देय संविततं नृसिंहमहं भजे॥५॥
श्री नृसिंह जय नृसिंह जय जय नृसिंह।
प्रहलादेश जय पदमामुख पदम भृग्ह्र्म॥६॥
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२२- माँ नन्दा देवी अल्मोड़ा:-
मित्रों माँ नन्दा देवी का प्राचीन मंदिर अल्मोड़ा शहर में स्थित है।कुमाऊँ के अतिरिक्त भी नन्दादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं तथा माँ नन्दा के मंदिर अन्यत्र (चमोली गढ़वाल के ग्वालदम के नज़दीक देवराड़ा,नौटी आदि)भी हैं।नन्दा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों,उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं। रूप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है।भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नन्दा भी एक है।नन्दा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है।भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी,नन्दा,क्षेमकरी,शिवदूती, महाटूँडा,भ्रामरी,चंद्रमंडला,रेवती और हरसिद्धी हैं।शिवपुराण में वर्णित नन्दा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है।
शक्ति के रूप में नन्दा ही सारे हिमालय में पूजित हैं।माँ नन्दा के इस शक्ति रूप की पूजा गढ़वाल में करुली,कसोली,नरोना,हिंडोली,तल्ली दसोली,सिमली,तल्ली धूरी नौटी,चांदपुर,गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है।
गढ़वाल में ‘राज जात यात्रा’ का आयोजन भी नन्दा के सम्मान में होता है।
कुमाऊँ में अल्मोड़ा,रणचूला,डंगोली, बदियाकोट,सोराग,कर्मी,पोंथिग,कपकोट तहसील,चिल्ठा,सरमूल आदि में नन्दा के मंदिर हैं।अनेक स्थानों पर नन्दा के सम्मान में मेलों के रूप में समारोह आयोजित होते हैं।नन्दाष्टमी को कोट की माई का मेला,माँ नन्दा भगवती मन्दिर पोथिंग (कपकोट) में नन्दा देवी मेला (जिसे पोथिंग का मेला के नाम से भी जानते हैं) और नैतीताल में नन्दादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नन्दादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है।
अल्मोड़ा में नन्दादेवी के मेले का इतिहास यद्यपि अधिक ज्ञात नहीं है तथापि माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् १६३८-७८) ही नन्दा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे।इस विग्रह को वर्तमान में कचहरी स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया।बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नन्दा की प्रतिमा को वर्तमान से दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया था।अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छटे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रूप में विकसित किया गया था।यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है तथा लोक जगत के विविध पक्षों से जुड़ने में भी हिस्सेदारी करता है।
पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं।पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है।यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं।नन्दा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नन्दादेवी के सद्वश बनाया जाता है।स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नन्दा पर्वत के शीर्ष पर नन्दादेवी का वास है।कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नन्दादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है।
भगवती नन्दा की पूजा तारा शक्ति के रूप में षोडशोपचार,पूजन,यज्ञ और बलिदान से की जाती है।सम्भवत: यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ।षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के पोड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है।
षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन,अक्षत,पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है।धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं।जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है।जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं।कुछ विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं।पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान ‘महिषासुर मर्दिनी’ के रूप में किया जाता है।सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है।उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है।प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है।मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है।
मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं।दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं। अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं।मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है।अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं।नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं।अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है।मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक ‘जगरिये’ मंदिर में आकर नन्दा की गाथा का गायन करते हैं।मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है।इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नन्दा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं।झोड़े,छपेली,छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं।कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नन्दादेवी मेला देखना जरुरी है।माँ नन्दा के प्राचीन मंदिर अल्मोड़ा में तीनबार दर्शन किये एवँ चमोली गढ़वाल के देवराड़ा(ग्वालदम के पास) सन २००९ में सेवानिवृत्त से कुछ समय पूर्व ही किये थे।देवी माँ की अपार कृपा।

२३-देवराडा नन्दा देवी मंदिर:

‘सिद्धपीठ देवराडा’ चमोली जिले के ग्वालदम के समीप देवराडा गाँव में स्थित है।गढ़वाल क्षेत्र में “मां नंदा देवी” छ महीने अपने ननिहाल ‘सिद्धपीठ देवराडा’ में निवास करतीं हैं तथा छ महीने अपने मायके ‘सिद्धपीठ नन्दा धाम कुरुड मंन्दिर’ मे निवास करतीं हैं।जब माँ के छः महीने ननिहाल में पूर्ण हो जातें हैं तब मां नंदा देवी की उत्सव डोली अपने ननिहाल ‘सिद्धपीठ देवराडा’ से छः माह प्रवास कर विकास खण्ड घाट के श्री लक्ष्मी नारायण मंन्दिर सैती से सिद्देश्वर महादेव शिव मन्दिर घाट होते हुए अपने मायके ‘सिद्धपीठ नन्दा धाम कुरुड मंन्दिर’ मे छः माह प्रवास पर विराजमान रहती है।मुझे माँ नन्दा के उनके ननिहाल देवराडा के मंदिर में दिसम्बर २००९ में दर्शन करने का परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ।
सभी भक्तो पर मां नंदा देवी की कृपा बनी रहें जय माँ नंदा राजराजेश्वरी।

२४- मलयनाथ;सिराकोट मंदिर डीडीहाट:-

परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से,न बुद्धि से,न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है।यह जिसे स्वीकार कर लेता है,उसको ही प्राप्त हो सकता है।यह परमात्मा उसे अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।
“नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥”
🌻🙏🌻 शिवरात्रि १८ फरवरी २००४प्रातः चार बज़े के करीब सिराकोट मंदिर डीडीहाट में मलयनाथ महादेव के दर्शन से धन्य हुए हम दोनों पति -पत्नी (दिगंबर -मीना),कठोपनिषद का उपरोक्त मंत्र अक्षरश:सत्य -विनयावनत ;दिगंबर ध्यानी

उत्तराखंड राज्य,पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट में स्थित हैं यह मंदिर चंद राजाओं ने चौदहवीं सदी में बाद बहादुर चन्द ने राजकोट में स्थापित किया कहा जाता हैं की चन्द राजाओ के समय “मलयनाथ” प्रकट हुए थे तब यहाँ की जनता ना के बराबर थी तभी चंद राजा ने इस स्थान में जनता को बसाया और मंदिर के लिए एक पुजारी को नियुक्त किया गया और मंदिर की देखरेख के लिए गणपतिं रसीला लोगों को नियुक्त किया गया इस मंदिर में स्थानीय लोग शिख (अनाज) चढाते हैं।डीडीहाट की पहाड़ी में स्थित सिराकोट मंदिर भव्य एवं आकर्षण स्थल हैं।डीडीहाट से लगभग ३ किलोमीटर खड़ी चढ़ाई चढ़ कर आता है यह भव्य मंदिर यहां से हिमालय की चोटियों का बिहंगम नजारा दिखता है।इसके अलावा घाटी का नजारा भी दिखता है।डीडीहाट नगर भी यहां से साफ दिखता है।सीराकोट में हर समय भक्तों का तांता लगा रहता है। मित्रों!बड़े संकोच के साथ निवेदन कर रहा हूँ कि-१८ फरवरी २००४ को ऊत्तराखण्ड प्रान्त के डीडीहाट स्थित मलयनाथ मन्दिर परिसर में महाशिवरात्रि के अवसर पर प्रातः चार बज़े के क़रीब सपत्नीक बाबा भोलेनाथ के नटराज दर्शनों की अहेतुकी कृपा प्राप्त कर अभीभूत हुए।सर्वप्रथम,यानी मन्दिर खुलने से कुछ समय पूर्व ही हम दोनों पति-पत्नी मन्दिर में पहुँच गए थे डीडीहाट (पिथौरागढ़) से लगभग तीन किलोमीटर पर्वत चढ़ाई तय करके।                                      ॥ॐ नमः शिवाय॥                                                      🌻🙏🌻                                                     
मित्रों डीडीहाट एक शांत पर्यटन स्थल है जो कि पिथौरागढ़ जिले में स्थित है।डीडीहाट पर्यटन स्थल होने के साथ-साथ एक नगर पंचायत है एवम् डीडीहाट पिथौरागढ़ शहर से ५४ कि.मी. की दूरी पर स्थित है।इस नगर के निकट सुंदर “हाट घाटी” स्थित है,जहाँ भगवान शिव को समर्पित “सीराकोट”नामक एक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है।’डीडीहाट‘ को उत्तराखंड का चीरापूँजी भी कहा जाता है।क्योंकि यहाँ अत्यधिक बर्षा होती है।भारत सरकार की सेवा में रहते २००३-०४ में लगभग एक साल यहाँ देश सेवा में समर्पित रहा हूँ।श्री मलयनाथ महादेव के दर्शन करने के बाद से ही धार्मिक जीवन में अभिरुचि होने लगीं और पूर्ण शाकाहारी जीवनशैली अपनाना शुरू किया।विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

॥मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं॥
मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं,
मैं और क्या माँगू शंकर से॥
मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं,
मैं और क्या मंगू शंकर से॥
मेरे मन में के डेरे हैं,
मैं और क्या माँगू शंकर से,
मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं॥
मैने बहुत बड़ी खाई ठोकरी
गिरते को संभाला है उसने,
औकत मेरी से ऊपर ही,
कितना कुछ दियाला उसने,
मेरे पर लगे बेधे हैं,
पर वक्त बने नेड़े हैं,
मेरे दिन बाबा ने फेरे हैं,
मैं और क्या मांगू शंकर से,
मैं और क्या माँगू शंकर से,
मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं॥
मैं जब से शिव का भकत हुआ,
मेरे दिल से बिदा हुई नफ़रत।
पशु पक्षियों से भी प्रेम हुआ,
मासूम सी हो गई ये फितरत।
सब चेहरे उसके चेहरे हैं,
उसके अंधेर सारे है,
शिव प्रेम ही मुझे घेरे हैं,
मैं और क्या मांगू शंकर से,
मैं और क्या माँगू शंकर से,
मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं॥
भोले ने दिया है ये जीवन,
भोले के नाम पे है जीवन,
रवि राज के दिल में है शंकर,
ऐसे ही नहीं चलती है धड़कन,
हर साँस पर उनके पहरे हैं,
सब रास्ते पे उनपे ठहरे हैं,
मेरे सब दिन रात सुनहरे हैं,
मैं और क्या मांगू शंकर से,
मैं और क्या माँगू शंकर से,
मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं॥
जिद्दा तां तेरा चोला काला डोरा॥
ओह शम्भुआ,
हत्थे सोटी ओ,
मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं।
मैं और क्या माँगू शंकर से॥
मैं शिव का हूँ शिव मेरे हैं॥
💓🙏💓
॥ॐ नमः शिवाय॥
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दिगम्बर ध्यानी

२५- कुंजापुरी देवी दुर्गा का मंदिर:-
कुंजापुरी देवी माँ का मंदिर शिवालिक रेंज में तेरह शक्ति पीठों में से एक है और जगदगुरु शंकराचार्य द्वारा टिहरी जिले में स्थापित तीन शक्ति पीठों में से एक है।जिले के अन्य दो शक्ति पीठो में एक ‘सुरकंडा देवी’ का मंदिर और ‘चन्द्रबदनी देवी’ का मंदिर हैं।कुंजापुरी,इन दोनों पीठों के साथ एक पवित्र त्रिकोण बनाता हैं।शक्ति पीठ उन जगहों पर हैं जहां भगवान् शिव द्वारा बाहों में हिमालय की ओर ले जा रहे देवी सती (भगवान् शिव की पत्नी एवं राजा दक्ष की पुत्री) के मृत शरीर के अंग गिरे थे।देवी सती के पिता राजा दक्ष के द्वारा भगवान शिव के बारे में अपमानजनक बातें सुनने पर सती यज्ञ कुण्ड में जल गई थी,जब भगवान शिव को सती की मृत्यु का पता चला तो वे शोक में चले गए और सटी के पार्थिव शरीर को लेके हिमालय की ओर निकल पड़े,शिव की उदासीनता को तोड़ने और सृष्टी को बचाने के लिए भगवान् विष्णु ने शिव द्वारा ले जा रहे सती के शरीर को सुदर्शन चक्र से काट दिया जिससे सती के अंग विभिन्न पहाड़ियों पर गिर गए थे।कुंजापुरी दुर्गा मंदिर पूरे वर्ष हजारों आगंतुकों का आगमन होता रहता है,लेकिन नवरात्र के दौरान भक्तों का बहुत अधिक प्रवाह होता है।माँ कुंजापुरी के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
स्कन्दपुराण के अनुसार राजा दक्ष की पुत्री,सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था।त्रेता युग में असुरों के परास्त होने के बाद दक्ष को सभी देवताओं का प्रजापति चुना गया।उन्होंने इसके उपलक्ष में कनखल में यज्ञ का आयोजन किया।उन्होंने,हालांकि,भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया क्योंकि भगवान शिव ने दक्ष के प्रजापति बनने का विरोध किया था।भगवान शिव और सती ने कैलाश पर्वत,जो भगवान शिव का वास-स्थान है,से सभी देवताओं को गुजरते देखा और यह जाना कि उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है।जब सती ने अपने पति के इस अपमान के बारे में सुना तो वे यज्ञ-स्थल पर गईं और हवन कुंड में अपनी बलि दे दी।जब तक शिव वहां पहुंचते तब तक वे बलि हो चुकी थीं।
भगवान शिव ने क्रोध में आकर तांडव किया और अपनी जटाओं से गण को छोड़ा तथा उसे दक्ष का सर काट कर लाने तथा सभी देवताओं को मार-पीट कर भगाने का आदेश दिया।पश्चातापी देवताओं ने भगवान शिव से क्षमा याचना की और उनसे दक्ष को यज्ञ पूरा करने देने की विनती की।लेकिन, दक्ष की गर्दन तो पहले ही काट दी गई थी।इसलिए,एक भेड़े का गर्दन काटकर दक्ष के शरीर पर रख दिया गया ताकि वे यज्ञ पूरा कर सकें।
भगवान शिव ने हवन कुंड से सती के शरीर को बाहर निकाला तथा शोकमग्न और क्रोधित होकर वर्षों तक इसे अपने कंधों पर ढोते विचरण करते रहें।इस असामान्य घटना पर विचार-विमर्श करने सभी देवतागण एकत्रित हुए क्योंकि वे जानते थे कि क्रोध में भगवान शिव समूची दुनिया को नष्ट कर सकते हैं।आखिरकार,यह निर्णय लिया गया कि भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र का उपयोग करेंगे।भगवान शिव के जाने बगैर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को ५२ टुकड़ों में विभक्त कर दिया। धरती पर जहां कहीं भी सती के शरीर का टुकड़ा गिरा, वे स्थान सिद्ध पीठों या शक्ति पीठों (ज्ञान या शक्ति के केन्द्र) के रूप में जाने गए।उदाहरण के लिए हिमाचल प्रदेश की नैना देवी वहां हैं,जहां उनकी आंखें गिरी थीं,सहारनपुर की शाकम्भरी देवी जहाँ उनका शीश गिरा था, ज्वाल्पा देवी वहां हैं,जहां उनकी जिह्वा गिरी थी, सुरकंडा देवी वहां हैं,जहां उनकी गर्दन गिरी थी और चंदबदनी देवी वहां हैं,जहां उनके शरीर का नीचला हिस्सा गिरा था।
उनके शरीर के ऊपरी भाग, यानि कुंजा उस स्थान पर गिरा जो आज कुंजापुरी के नाम से जाना जाता है। इसे शक्तिपीठों में गिना जाता है।

२६-ओंकारेश्वर मन्दिर ऊखीमठ:-

सर्दियों के दौरान,केदारनाथ मंदिर और मध्यमहेश्वर से मूर्तियों (डोली) को उखीमठ रखा जाता है और छह माह तक उखीमठ में इनकी पूजा की जाती है।उषा (बाणासुर की बेटी) और अनिरुद्ध (भगवान कृष्ण के पौत्र) की शादी यहीं सम्पन्न की गयी थी।उषा के नाम से इस जगह का नाम उखीमठ पड़ा।सर्दियों के दौरान भगवान केदारनाथ की उत्सव डोली को इस जगह के लिए केदारनाथ से लाया जाता है।भगवान केदारनाथ की शीतकालीन पूजा और पूरे साल भगवान ओंकारेश्वर की पूजा यहीं की जाती है।यह मंदिर उखीमठ में स्थित है।अपनी धर्मपत्नी,माताजी एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ ऊखीमठ में श्री ओंकारेश्वर महादेव के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।ऊखीमठ का नाम उषा से निकला है।स्कन्दपुराण में इस बारे में जो वर्णन मिलता है उसके अनुसार दैत्यराज बाणासुर की पुत्री ऊषा रात्रि स्वप्न में एक नवयुवक को देख उसका वरण कर लेती है।यह बात वह अपनी निकटतम सहेली चित्रलेखा को बता कर मनोभावों के आधार चित्र बनवाती है और वास्तविक जीवन में उसे ही जीवनसाथी बनाने की बात करती है। चित्र बनने पर ज्ञात होता है वह युवक और कोई नहीं श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का है।यह बात ऊषा आपने पिता को बताती है तो वे क्रुद्ध हो उठते है।उधर अनिरुद्ध को जब यह पता चलता है तो वह उसके बारे में जानने को वहां चला आता है। इस पर बाणासुर उसे बन्दी बना देता है। द्वारिका में श्रीकृष्ण पता चलने पर कि अनिरुद्ध बंदी बना दिया गया है मुक्त कराने यहां आते हैं। इस पर शिवभक्त बाणासुर और उनके बीच एक अनिर्णायक संग्राम छिड़ जाता है। इसका अन्त न होते देख चिंतित ऊषा शिव की तपस्या में लीन हो जाती है।अन्तः में शिव प्रकट होकर इस संग्राम को रुकवा कर दोनों पक्षों के बीच सुलह करा कर उनके मध्य विवाह का मार्ग प्रशस्त करते हैं।इस प्रकार यह स्थान शिव की प्राकट्यस्थली बनता है।वहीं वैदिक साहित्य में ओंकारेश्वर को लेकर भी एक प्रसंग भी है जिसका सम्बन्ध मान्धा से है।इस कारण ऊखीमठ का एक नाम मान्धाता भी था।यद्यपि आज यह नाम प्रचलित नहीं है किन्तु आज भी केदारनाथ की बहियों का प्रारम्भ जय मान्धाता से होता है।इस बारे में स्कन्द पुराण के केदारखण्ड के १९वें अध्याय में मिलता है।इसके अनुसार सतयुग के प्रतापी राजा कुवलाशव की पांचवी पीढ़ी में राजा यौवनाश्व की सौ कन्याएं थी पर पुत्र न हुआ।पुत्र प्राप्ति हेतु कुलगुरु के कहने पर वे पुत्रोष्ठी यज्ञ कराते हैं।यज्ञ संपन्न कराने पर राजा को अभिमंत्रित जलकलश प्राप्त होता है।लेकिन रात्रि को प्यास लगने पर वे अज्ञानतावश रानियों को पिलाये जाने वाले अभिमंत्रित जल को स्वयं ग्रहण कर लेते हैं।इस जल के प्रभाव से राजा यौवनाश्व की छाती फट जाती है और पुत्र का जन्म होता है।माँ की कोख से पैदा न होने के कारण ही बालक का मान्धाता नाम हुआ जो बाद चक्रवर्ती सम्राट बनते है।सुखपूर्वक राज्य को चलाने के बाद वानप्रस्थ की दशा आने पर राजा मान्धाता हिमालय की गोद में शिव की तपस्या में लीन हो जाते हैं। जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें ओंकारेश्वर रूप में दर्शन देते और वरदान मांगने को कहते हैं।राजा मान्धाता शिवजी से विश्व कल्याण व भक्तों के उद्धार के लिए इसी स्थान परं निवास करने का अनुरोध करते है। तब से लेकर वर्तमान समय तक भगवान शिव यहीं पर ओंकारेश्वर रूप में विराजित हैं।इस स्थान को मान्धाता भी कहा गया है। हालांकि लगभग यही बात मध्यप्रदेश में पड़ने वाले द्वादस ज्योर्तिलिंगों में से एक ओंकारेश्वर मन्दिर से भी जुड़ी है जो नर्मदा के किनारे मान्धाता नामक स्थान पर बसा है।मन्दिर में अनादि काल से पूजा अर्चना होती आई है। माना जाता है कि वर्तमान मन्दिर पुराने मन्दिर के स्थान पर बनाया गया।यह मन्दिर आस-पास बने दूसरे शिव मन्दिरों के सापेक्ष नया है हांलाकि यह दूसरे मन्दिरों के सापेक्ष बहुत विशाल नहीं है।दूसरे मन्दिरों की तरह से इसमें कोई मण्डप नहीं है। मन्दिर का शिखर काष्ठ छत्र युक्त है और उत्तर भारत की नागर शैली का है।उत्तराखण्ड के दूसरे मन्दिरों की तरह ही इसमें इस क्षेत्र की शैली यानि काष्ठ जंगले युक्त छत है।मन्दिर में शिव के अलावा ऊषा,अनिरुद्ध और मान्धाता की मूर्तियां हैं।एवं विवाह वेदिका है।समीप मे भैरव मन्दिर है।यह मन्दिर ऊखीमठ बाजार से से डेढ़ किमी पहले एक अलग मार्ग मन्दिर तक जाता है।
मन्दिर में शिवजी की ६ माह तक ओंकारेश्वर के रूप में निरन्तर पूजा होती है किन्तु शीतकालीन प्रवास के छह माह तक यहां पर उनकी केदार रूप की पूजा अर्चना होती है।इस कारण से वे श्ऱद्धालु जो शीतकाल में केदारनाथ जी के दर्शन करना चाहते हैं वे ऊखीमठ आते हैं।

२७- श्री सिद्धेश्वर महादेव मंदिर देहरादून:-

॥सिद्धि के दाता सिर्फ महादेव ही है॥ ॐ वन्दे देव उमापतिं सुरगुरुं,वन्दे जगत्कारणम्।
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं,वन्दे पशूनां पतिम्॥
वन्दे सूर्य शशांक वह्नि नयनं,वन्दे मुकुन्दप्रियम्।
वन्दे भक्त जनाश्रयं च वरदं,वन्दे शिवंशंकरम्॥
🌹🙏🌹आज १३ फ़रवरी २०२१ को धर्मपत्नी के सँग केदारपुर,देहरादून में स्थित “सिद्धपीठ श्रीसिद्धेश्वर महादेव” के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
लिङ्गं एकादशं विद्धि देवि सिद्धेश्वरम् शुभम।
वीरभद्र समीपे तु सर्व सिद्धि प्रदायकम्॥
श्री सिद्धेश्वर महादेव की स्थापना की कथा ब्राह्मणों द्वारा स्वार्थवश सिद्धि प्राप्त करने की दशा में नास्तिकता की ओर बढ़ने और फिर उनकी महादेव आराधना से जुड़ी हुई है।पौराणिक कथानुसार एक बार देवदारु वन में समस्त ब्राह्मणगण एकत्रित हो सिद्धि प्राप्त करने हेतु तप करने लगे।किसी ने शाकाहार से,किसी ने निराहार से,किसी ने पत्ते के आहार से,किसी ने वीरासन से,आदि प्रकारों से ब्राह्मण तपस्या करने लगे।किन्तु सैकड़ों वर्षों के बाद भी उन्हें सिद्धि प्राप्त नहीं हुई।इसके फलस्वरूप ब्राह्मण बेहद दुखी हुए एवं उनका ग्रंथों,वचनों पर से विश्वास उठने लगा।वे नास्तिकता की ओर बढ़ने लगे।तभी आकाशवाणी हुई कि आप सभी ने स्वार्थवश एक दूसरे से स्पर्धा करते हुए तप किया है इसलिए आपमें से किसी को भी सिद्धि प्राप्त नहीं हुई।काम,वासना,अहंकार,क्रोध,मोह,लोभ आदि तप की हानि करने वाले कारक हैं।इन सभी कारकों से वर्जित होकर जो तपस्या व देव पूजा करते हैं उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है।अब आप सभी महाकाल वन में जाएं और वहां वीरभद्र के पास स्थित लिंग की पूजा-अर्चना करें।
मित्रों!सिद्धि के दाता सिर्फ महादेव ही है,उन्हीं की कृपा से सनकादिक देवता को सिद्धि प्राप्त हुई थी।इसी लिंग के पूजन से राजा वामुमन को खंड सिद्धि,राजा हाय को आकाशगमन की सिद्धि,कृतवीर्य को हज़ार घोड़े,अरुण को अदृश्य होने की,इत्यादि सिद्धियां प्राप्त हुई हैं।उस लिंग की निस्वार्थ आराधना करने से आप सभी को भी सिद्धि प्राप्त होगी।
तब वे सभी ब्राह्मणगण महाकाल वन में आए और सर्वसिद्धि देने वाले इस शिव लिंग के दर्शन किये जिससे उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई।उसी दिन से वह लिंग सिद्धेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।
दर्शन लाभ:-
मान्यतानुसार जो भी मनुष्य छ (६) महीने तक नियमपूर्वक श्री सिद्धेश्वर का दर्शन करते हैं उन्हें वांछित सिद्धि प्राप्त होती है।कृष्णपक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी को जो सिद्धेश्वर महादेव के दर्शन करता है उसे शिवलोक प्राप्त होता है।श्री सिद्धेश्वर महादेव उज्जैन में भेरूगढ़ क्षेत्र में स्थित सिद्धनाथ के मुख्य द्वार पर स्थित है।सिद्धनाथ जाने वाले श्रद्धालु यहां आकर दर्शन लाभ लेते हैं।मान्यता है कि जो भी मनुष्य सिद्धेश्वर के दर्शन करता है वह विभिन्न सिद्धियों को प्राप्त करता है और अंतकाल में मोक्ष को प्राप्त करता है।मित्रों आज १३ फ़रवरी २०२१,शनिवार,द्वितीय गुप्त नवरात्रि के दिन द्रोण नगरी देहरादून के सिधेश्वर महादेव के दर्शन सहित धर्मपत्नीश्रीमती मीना,अनुज भ्राता की धर्मपत्नी श्रीमती रेणु,भतीजा पीयुष के सँग करके आनन्दानुभूति हुई।अब आगामी वक़्त से यही हमारे स्थान देवता होंगे जो कि हमारे निर्माणाधीन मकान से लगभग एक किलोमीटर पर ही स्थिति है जो कि संयोगवश उतनी ही दूरी बनती है जितने श्रीनगर-गढ़वाल सम्प्रति निवास भक्तियाना से श्री कलेश्वर महादेव।श्री सिद्धेश्वर मंदिर,देहरादून घंटाघर से लगभग पांच किमी दूरी पर मोथरोवाला रोड,केदारपुरम में स्थित स्थित है।हम’दिगम्बर’-‘दिगम्बर’के।तभी तो साथ नहीं छोड़ते।आज श्री सिधेश्वर महादेव से हमने यही प्रार्थना की;
अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्।
देहान्ते तव सायुज्यं देहि मे पार्वतीपते॥ ॥ॐ नमः शिवाय॥

॥सिद्धेश्वर महादेव स्तुति॥
॥दोहा॥
पार्वती पति अति प्रबल,विमल सदा नरवेश।
नंदि संग उमंग नीत,समरत जेहि गुन शेष॥
॥छंद त्रिभंगी॥
समरत जेहि शेषा,दिपत सुरेशा,पुत्र गणेशा,निज प्यारा।
ब्रह्मांड प्रवेशा,प्रसिद्ध परेशा,अजर उमेशा,उद्धारा॥
बेहद नरवेसा,क्रत सिर केशा,टलत अशेषाअधरेशा।
जयदेव सिद्धेशा,हरन कलेशा,मगन हमेशा,महेशा॥१॥
भक्तन थट भारी,हलक हजारी,कनक अहारी,सुखकारी।
सिर गंग सुंधारी,द्रढ ब्रह्मचारी,हरदुख हारी,त्रिपुरारी॥
रहे ध्यान खुमारी,ब्रह्म विहारी,गिरजा प्यारी,जोगेशा।
जयदेव सिद्धेशा,हरन कलेशा,मगन हमेशा,महेशा॥२॥
कैलाश निवासी,जोग अध्यासी,रिध्धि सिध्धि दासी,प्रति कासी।
चित व्योम विलासी,हित जुत हासी, रटत प्रकासी,सुखरासी॥
मुनि सहस्त्र अठयासी,कहि अविनासी,जेही दुख त्रासी,उपदेशा।
जयदेव सिद्धेशा,हरन कलेशा,मगन हमेशा,महेशा॥३॥
गौरीनीत संगा,अति सुभ अंगा,हार भुजंगा,सिर गंगा।
रहवत निज रंगा,उठत अवंगा,ज्ञान तरंगा,अति चंगा॥
उर होत उमंगा,जयक्रत जंगा,अचल अभंगा,आवेशा।
जयदेव सिद्धेशा,हरन कलेसा,मगन हमेसा,महेशा॥४॥
नाचंत नि:शंका,मृगमद पंका,घमघम घमका,घुघरू का।
ढोलु का धमका,होव हमका,डम डम डमका,डमरु का॥
रणतुर रणंका,भेर भणंका,गगन झणंका,गहरेशा।
जयदेव सिद्धेशा,हरन कलेशा,मगन हमेशा महेशा॥५॥
मणिधर गल माळा,भुप भुजाळा,शिश जटाळा,चरिताळा।
जगभुल प्रजाळा,शुळ हथाळा,जन प्रतिपाळा,जोराळा॥
दंग तुतिय कराळा,हार कुणाळा,रहत कपाळा,राकेशा।
जयदेव सिद्धेशा,हरन कलेशा,मगन हमेशा,महेशा॥६॥
खळकत शिर निरा,अदल अमिरा,पिरन पिरा,हर पिरा।
विहरत संग विरा,ध्यावत धीरा,गौर सरीरा,गंभीरा॥
दातार रधिरा,जहाज बुध्धिरा,कांत सिध्धिरा,शिर केशा।
जयदेव सिद्धेशा,हरन कलेशा,मगन हमेशा,महेशा॥७॥
नररुप बनाया,अकळ अमाया,कायम काया,जगराया।
तनकाम जलाया,साब सुहाया,मुनिउर लाया,मनभाया॥
सिद्धेश्वर छाया,जनसुख पाया,मुनि ब्रह्म गाया,गुण लेशा।
जयदेव सिद्धेशा हरन कलेशा,मगन हमेशा महेशा॥८॥
॥छप्पय॥
जय जय देव सिद्धेश,शेष निश दिन गुण गावे।
दरश परस दुखदुर,सुरजन अंतर लावे॥
अणभय अकळ अपार,सार सुंदर जग स्वामी।
अगणित कीन उद्धारा,नार नर चेतन धामी॥
नररूप मुर्ति नवल,नहि शंख्या जेहि नाम की।
कहे ब्रह्म मुनि बलिहारी मे,सिद्धेश्वर जग सामकी॥
💓🙏💓

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्॥
जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥
💓🙏💓 मैं न तो योग जानता हूँ,न जप और न पूजा ही।हे शम्भो,मैं तो सदा-सर्वदा आप को ही नमस्कार करता हूँ।हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए।हे शम्भो,मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
॥ॐ नमः शिवाय॥
॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥
विनयावनत; दिगम्बर
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॥ जय शिव ओंकारा…॥
जय शिव ओंकारा,ॐ जय शिव ओंकारा।
ब्रह्मा,विष्णु,सदाशिव,अर्द्धांगी धारा॥
॥ जय शिव ओंकारा…॥
एकानन चतुरानन पंचानन राजे ।
हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे॥
॥ जय शिव ओंकारा…॥
दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे॥
॥ जय शिव ओंकारा…॥
अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी।
चंदन मृगमद सोहै भाले शशिधारी॥
॥ जय शिव ओंकारा…॥
श्वेतांबर पीतांबर बाघंबर अंगे।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे॥
॥ जय शिव ओंकारा…॥
कर के मध्य कमंडल चक्र त्रिशूलधारी।
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी॥
॥ जय शिव ओंकारा…॥
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका॥
॥ जय शिव ओंकारा…॥
त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे।
कहत शिवानंद स्वामी सुख संपति पावे॥
॥ जय शिव ओंकारा…॥
अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्।
देहान्ते तव सायुज्यं देहि मे पार्वतीपते॥
🌹🙏🌹॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥
शुभ शनिवार,द्वितीय गुप्त नवरात्रि,श्रीसिद्धेश्वर शक्ति पीठ,देहरादून (उत्तराखंड)से-दिगम्बर ध्यानी
१३-०२-२०२१

उत्तर प्रदेश के धार्मिक स्थानों की यात्राएँ:-

१- काशी विश्वनाथ:-

कण्ठे यस्य लसत्करालगरलं गंगाजलं मस्तके,
वामांगे गिरिराजराजतनया जया भवानी सती।
नन्दी स्कन्द गणाधिराज सहिता श्रीविश्वनाथप्रभुः,
काशीमन्दिरसंस्थितोखिलगुरुर्देयातसदामंगलम्॥
🌹🙏🌹
जिनका कण्ठ विष से नील वर्णी है,मस्तक पर गङ्गा जल की धारा प्रवाहित हो रही है,वामाँग में पर्वतराज सुता माता सती भवानी पत्नी रूप में विराजमान है,नन्दी स्कन्द गणाधिराज श्री विश्वनाथ प्रभु के समक्ष उपस्थित हैं,ऐसे काशी के मंदिर मे नित्य वास करने वाले जिनको समस्त ब्रह्माण्ड विश्व गुरू के रूप में पूजता है वे देवाधिदेव महादेव सदैव सबका मंगल करें। काश्याः ब्रह्मतत्वस्य प्रकाशः यस्यागवस्यायां सा काशी।तथा भूतायामवस्थायां मरणान्मुक्तिः॥ काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।ज्ञानव्यापी मस्जिद ही असल काशी विश्वनाथ मंदिर है,ऐसा दावा किया जाता है।यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है।काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है।ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य,सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस,स्‍वामी विवेकानंद,महर्षि दयानंद, गोस्‍वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं।यहीं पर सन्त एकनाथजीने वारकरी सम्प्रदायका महान ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पूरा किया और काशिनरेश तथा विद्वतजनोद्वारा उस ग्रन्थ कि हाथी पर से शोभायात्रा खूब धूमधामसे निकाली गयी।महाशिवरात्रि की मध्य रात्रि में प्रमुख मंदिरों से भव्य शोभा यात्रा ढोल नगाड़े इत्यादि के साथ बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर तक जाती है।१९८९ में भगवान शिव के इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

॥श्री विश्वनाथाष्टकम्॥
गंगातरंगरमणीय जटाकलापं गौरीनिरन्तर विभूषितवामभागम्।
नारायणप्रिय मनंगमदापहारं वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥१॥
वाचामगोचर मनेकगुणस्वरूपं वागीशविष्णु सुरसेवित पादपीठम्।
वामेन विग्रहवरेण कलत्रवन्तम् वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥२॥
भूताधिपं भुजंगभूषणभूषितांगं व्याघ्रजिनाम्बरधरं जटिल त्रिनेत्रम्।
पाशांकुशभयवर प्रदशूलपाणिम् वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥३॥
शीतांशु शोभितकिरीट विराजमानं भालेक्षणानल विशोषित पन्चवाणम्।
नागाधिपा रचितभासुर कर्णपूरम् वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥४॥
पन्चाननं दुरितमत्तमतंगजानां नागान्तकं दनुजपुंगव पन्नगानाम्।
दावानलं मरणशोक जराटवीनाम् वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥५॥
तेजोमयं सगुणनिर्गुणमद्वितीय मानन्दकन्द पराजितमप्रमेयम्।
नागात्मकं सकलनिष्कलमात्मरूपम् वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥६॥
रागादिदोषरहितं स्वजनानुरागं वैराग्यशान्तिनिलयं गिरिजासहायम्।
माधुर्यधैर्यसुभगं गरलाभिरामम् वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥७॥
आशा विहाय परिहृत्य परस्य निन्दां पापेरतिं च सुनिवार्य मन: समाधौ।
आदायहृत्कमलमध्यगतं परेशम् वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्॥८॥
वाराणसी पुरपते: स्तवनं शिवस्य व्याख्यातमष्टकमिदं पठते मनुष्य:।
विद्या श्रियं विपुल सौख्यमनन्तकीर्तिं सम्प्राप्यदेहविलये लभते च मोक्षम्॥९॥
विश्वनाथाषटकमिदमं य: पठेच्छिवसन्निधौ।शिवलोकमवाप्नोति शिवेन वसहमोदते॥१०॥
॥हिंदी में अनुवाद॥
-जिनकी जटाँए गंगा जी की लहरों से भी सुन्दर प्रतीत हो रही हैं।जिनका वाम भाग सदा ही माता पार्वती के लिये सुशोभित रहता है,जो नारायण के प्रिय और कामदेव के मद का नाश करने वाले हैं उन काशी विश्वनाथ को भज।वाणी के द्वारा जिनका वर्णन नही हो सकता,जिनके अनेकों गुण एवं स्वरूप हैं।ब्रह्मा,विष्णु और अन्य देवता जिनकी चरण पादुका का सेवन करते हैं,जो अपने सुन्दर वामांग के द्वारा (अर्धनारीश्वर)ही सपत्नीक हैं उन काशी विश्वनाथ को भज।
जो भूतों के अधिपति हैं,जिनका शरीर सर्प रूपी गहनों से विभूषित है,जो बाघ की खाल का वस्त्र पहनते हैं तथा हाथो मे पाश,अंकुश,अभयवर,और शूल है,उन जटाधारी त्रिनेत्र काशी विश्वनाथ को भज।जो चन्द्रमा द्वारा प्रकाशित किरीट से शोभित हैं,जिन्होंने अपने भालस्थ नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया है,जिनके कानों मे बड़े बड़े साँपों के कुण्डल चमक रहे हैं उन्ही काशीपति विश्वनाथ को भज।
जो पापरूपी मतवाले हाथियों को मारने वाले सिंह हैं,दैत्य समूहरूपी साँपों को मारने वाले गरुड़ हैं,जो मरण,शोक,और बुढ़ापा रूपी भीषण वन को जलाने वाले दावानल हैं,एैसे काशीपति विश्वनाथ को भज।जो तेजपूर्ण, सगुण,निर्गुण,अद्वितीय, आनन्दकन्द,अपराजित,और अतुलनीय हैं,जो अपने शरीर पर साँपों को धारण करते हैं,जिनका रूप ह्रास-वृद्धि रहित है (चिर युवा) एैसे आत्मस्वरूप काशीपति विश्वनाथ को भज।
जो रागादि दोषों से रहित हैं,औरअपने भक्तों पर सदा कृपा रखते हैं,वैराग्य और शान्ति के स्थान है,माता पार्वती जिनके सदा साथ रहती हैं,जो धीरता और सुन्दर स्वभाव से सुन्दर जान पड़ते हैं तथा जिनका कण्ठ गरल के पान के चिन्ह (नीलकण्ठ) से सुशोभित है उन काशीपति विश्वनाथ को भज।सब आशाओं को छोड़कर,दूसरों की निन्दा त्यागकर,पॉपकर्म से अनुराग हटाकर,चित्त को समाधि मे लगा कर हृदयकमल मे प्रकाशमान परमेश्वर काशीपति विश्वनाथ को भज।
जो मनुष्य महादेव शिव के इन आठ श्लोकों का स्तवन का पाठ करता है वह विद्या,धन,प्रचुर सौख्य और अनन्तकीर्ति प्राप्त कर देहावसान होने पर मोक्ष प्राप्त करता है।जो महादेव शिव के समीप इस विश्वनाथाष्टकम् का पाठ करता है वह शिवलोक को प्राप्त करता है और महादेव शिव के साथ आनन्दित होता है।
🌹🙏🌹
॥ॐ नमःशिवाय॥

वाराणसीपुरस्नायी कॊल्हापुरजपादरः।
माहुरीपुरभीक्षाशी सह्यशायी दिगम्बरः॥

॥ॐ तत्सत॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥
विनयावनत; मुकुटात्मज-दिगम्बर ध्यानी

२- श्री कृष्ण जन्मभूमि मथुरा:-

॥बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया॥
बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
मीरा पुकारी जब गिरिधर गोपाला,
ढल गया अमृत में विष का भरा प्याला।
कौन मिटाए उसे,जिसे तू राखे पिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
जब तेरी गोकुल पे आया दुख भारी,
एक इशारे से सब विपदा टारी।
मुड़ गया गोवर्धन तुने जहाँ मोड़ दिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
नैनो में श्याम बसे,मन में बनवारी,
सुध बिसराएगी मुरली की धुन प्यारी।
मन के मधुबन में रास रचाए रसिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
॥श्रीकृष्ण:शरणं मम॥
॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥
विनयावनत; दिगम्बर मित्रों!श्रीकृष्ण जन्म भूमि मथुरा का एक प्रमुख धार्मिक स्थान है जहाँ हिन्दू धर्म के अनुयायी कृष्ण भगवान का जन्म स्थान मानते हैं।यह विवादों में भी घिरा हुआ है क्योंकि इससे लगी हुई जामा मस्जिद मुसलमानों के लिये धार्मिक स्थल है।भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि का न केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्व है बल्कि वैश्विक स्तर पर जनपद मथुरा भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है।आज वर्तमान में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षक मन्दिर के रूप में स्थापित है।पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी श्रद्धालु भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन आते हैं। भगवान श्रीकृष्ण को विश्व में बहुत बड़ी संख्या में नागरिक आराध्य के रूप में मानते हुए दर्शनार्थ आते हैं।
भगवान श्री कृष्ण की ही कृपा से १२ एवँ १४ मई २०१२ को दो बार हम दोनों पति-पत्नि ने भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली देखी।
भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी इहलौकिक लीला संवरण की।उधर युधिष्ठर महाराज ने परीक्षित को हस्तिनापुर का राज्य सौंपकर श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को ‘मथुरा मंडल’ के राज्य सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया।चारों भाइयों सहित युधिष्ठिर स्वयं महाप्रस्थान कर गये।महाराज वज्रनाभ ने महाराज परीक्षित और महर्षि शांडिल्य के सहयोग से मथुरा मंडल की पुन: स्थापना करके उसकी सांस्कृतिक छवि का पुनरूद्वार किया। वज्रनाभ द्वारा जहाँ अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया गया,वहीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की जन्मस्थली का भी महत्व स्थापित किया।यह कंस का कारागार था,जहाँ वासुदेव ने भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की आधी रात अवतार ग्रहण किया था।आज यह कटरा केशवदेव नाम से प्रसिद्व है।यह कारागार केशवदेव के मन्दिर के रूप में परिणत हुआ।इसी के आसपास मथुरा पुरी सुशोभित हुई।यहाँ कालक्रम में अनेकानेक गगनचुम्बी भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ।इनमें से कुछ तो समय के साथ नष्ट हो गये और कुछ को विधर्मियों ने नष्ट कर दिया।
प्रथम मन्दिर :-
ईसवी सन् से पूर्ववर्ती ८०-५७ के महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि किसी वसु नामक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक मंदिर तोरण द्वार और वेदिका का निर्माण कराया था। यह शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है।
द्वितीय मन्दिर :-
दूसरा मन्दिर विक्रमादित्य के काल में सन् ८०० ई॰ के लगभग बनवाया गया था। संस्कृति और कला की दृष्टि से उस समय मथुरा नगरी बड़े उत्कर्ष पर थी। हिन्दू धर्म के साथ बौद्ध और जैन धर्म भी उन्नति पर थे। श्रीकृष्ण जन्मस्थान के संमीप ही जैनियों और बौद्धों के विहार और मन्दिर बने थे। यह मन्दिर सन १०१७-१८ ई॰ में महमूद ग़ज़नवी के कोप का भाजन बना।इस भव्य सांस्कृतिक नगरी की सुरक्षा की कोई उचित व्यवस्था न होने से महमूद ने इसे ख़ूब लूटा।भगवान केशवदेव का मन्दिर भी तोड़ डाला गया।
तृतीय मन्दिर:-
महाराज विजयपाल देव तोमर के शासन काल में जाट शासक जज्ज (जाजन सिंह) ने तीसरे मंदिर का निर्माण करवाया।यह मथुरा क्षेत्र में मगोर्रा के सामंत शासक थे इनका राज्य नील के व्यापार के लिए जाना जाता था। जाजन सिंह तोमर (कुंतल) ने ११५० ईस्वी में करवाया। इस जाजन सिंह को जण्ण और जज्ज नाम से भी सम्बोधित किया गया है। इनके वंशज आज जाजन पट्टी, नगला झींगा,नगला कटैलिया में निवास करते है।
खुदाई में मिले संस्कृत के एक शिलालेख से भी जाजन सिंह (जज्ज) के मंदिर बनाने का पता चलता है। शिलालेख के अनुसार मंदिर के व्यय के लिए दो मकान,छः दुकान और एक वाटिका भी दान दी गई दिल्ली के राजा के परामर्श से १४ व्यक्तियों का एक समूह बनाया गया जिसके प्रधान जाजन सिंह थे।इस मंदिर को १६वी शताब्दी के प्रारम्भ में सिकन्दर लोदी के शासन काल में नष्ट कर डाला गया था।
चतुर्थ मन्दिर :-
मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शासन काल में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर पुन: एक नया विशाल मन्दिर निर्माण कराया गया।ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जूदेव बुन्देला द्वारा इसकी ऊँचाई २५०फीट रखी गई थी।ऐसा बताया जाता है कि यह आगरा से भी दिखाई देता था।उस समय इस निर्माण की लागत ३३लाख रुपये आई थी।इस मन्दिर के चारों ओर एक ऊँची दीवार का परकोटा बनवाया गया था, जिसके अवशेष अब तक विद्यमान हैं।दक्षिण पश्चिम के एक कोने में कुआँ भी बनवाया गया था जिस का पानी ६० फीट ऊँचा उठाकर मन्दिर के प्रागण में फब्बारे चलाने के काम आता था। यह कुआँ और उसका बुर्ज आज तक विद्यमान है।सन १६६९ ई॰ में पुन: यह मन्दिर नष्ट कर दिया गया और इसकी भवन सामग्री से ईदगाह बनवा दी गई जो आज विद्यमान है।

३- श्री बाँकेबिहारी मन्दिर वृंदावन:-

॥मन चल वृंदावन धाम,रटेंगे राधे राधे नाम॥
मन चल वृंदावन धाम,रटेंगे राधे राधे नाम।
मिलेंगे कुंज बिहारी,ओढ़ के कांबल काली॥
प्रात होत हम श्री यमूनाजी जाएँगे,
करके पान हम जीवन सफल बनाएँगे।
होवे सब तो पूरण काम,रटेंगे राधे राधे नाम॥१॥
श्री गोवर्धन रूप के दर्शन पाएँगे,
परिक्रमा के जीवन सफल बनाएँगे।
करे मानसी गंगा स्नान,रटेंगे राधे राधे नाम॥२॥
श्री बरसाने धाम की महिमा न्यारी है,
महलोकी की सरकार श्री राधा रानी है।
डफ़ ढोल की दे दे ताल,रटेंगे राधे राधे नाम॥३॥
दूर दूर से नर और नारी यहा आते है,
दर्शन करके जीवन सफल बनाते है।
मिले जीवन मे विश्राम,रटेंगे राधे राधे नाम॥४॥
मन चल वृंदावन धाम,रटेंगे राधे राधे नाम।
मिलेंगे कुंज बिहारी,ओढ़ के कांबल काली॥
💓🙏💓

श्रीकृष्ण जी की के सात विशेष विग्रह
मित्रों!वृंदावन वह स्थान है,जहां भगवान श्रीकृष्ण ने बाललीलाएं की व अनेक राक्षसों का वध किया।यहां श्रीकृष्ण के विश्वप्रसिद्ध मंदिर भी हैं।इन सात प्रतिमाओं में से तीन आज भी वृंदावन के मंदिरों में स्थापित हैं,वहीं चारअन्य स्थानों पर प्रतिष्ठित हैं:-
१-गोविंद देवजी, जयपुर
रूप गोस्वामी को श्रीकृष्ण की यह मूर्ति वृंदावन के गौमा टीला नामक स्थान से वि. सं.१५९२(सन्१५३५) में मिली थी।उन्होंने उसी स्थान पर छोटी सी कुटिया इस मूर्ति को स्थापित किया।इनके बाद रघुनाथ भट्ट गोस्वामी ने गोविंदजी की सेवा पूजा संभाली,उन्हीं के समय में आमेर नरेश मानसिंह ने गोविंदजी का भव्य मंदिर बनवाया।इस मंदिर में गोविंद जी ८० साल विराजे।औरंगजेब के शासनकाल में ब्रज पर हुए हमले के समय गोविंदजी को उनके भक्त जयपुर ले गए,तब से गोविंदजी जयपुर के राजकीय (महल) मंदिर में विराजमान हैं।
२-मदन मोहनजी,करौली
यह मूर्ति अद्वैतप्रभु को वृंदावन में कालीदह के पास द्वादशादित्य टीले प्राप्त हुई थी।उन्होंने सेवा-पूजा के लिए यह मूर्ति मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को सौंप दी और चतुर्वेदी परिवार से मांगकर सनातन गोस्वामी ने वि.सं.१५९० (सन्१५३३) में फिर से वृंदावन के उसी टीले पर स्थापित की।बाद में क्रमश: मुलतान के नमक व्यापारी रामदास कपूर और उड़ीसा के राजा ने यहां मदनमोहनजी का विशाल मंदिर बनवाया।मुगलिया आक्रमण के समय इन्हें भी भक्त जयपुर ले गए पर कालांतर में करौली के राजा गोपालसिंह ने अपने राजमहल के पास बड़ा सा मंदिर बनवाकर मदनमोहनजी की मूर्ति को स्थापित किया। तब से मदनमोहनजी करौली (राजस्थान) में ही दर्शन दे रहे हैं।
३-गोपीनाथजी,जयपुर
श्रीकृष्ण की यह मूर्ति संत परमानंद भट्ट को यमुना किनारे वंशीवट पर मिली और उन्होंने इस प्रतिमा को निधिवन के पास विराजमान कर मधु गोस्वामी को इनकी सेवा पूजा सौंपी।बाद में रायसल राजपूतों ने यहां मंदिर बनवाया पर औरंगजेब के आक्रमण के दौरान इस प्रतिमा को भी जयपुर ले जाया गया,तब से गोपीनाथजी वहां पुरानी बस्ती स्थित गोपीनाथ मंदिर में विराजमान हैं।
४-जुगलकिशोर जी,पन्ना
भगवान श्रीकृष्ण की यह मूर्ति हरिरामजी व्यास को वि.सं.१६२०की माघ शुक्ल एकादशी को वृंदावन के किशोरवन नामक स्थान पर मिली।व्यासजी ने उस प्रतिमा को वहीं प्रतिष्ठित किया।बाद में ओरछा के राजा मधुकर शाह ने किशोरवन के पास मंदिर बनवाया।यहां भगवान जुगलकिशोर अनेक वर्षों तक बिराजे पर मुगलिया हमले के समय जुगलकिशोरजी को उनके भक्त ओरछा के पास पन्ना ले गए।पन्ना (मध्य प्रदेश) में आज भी पुराने जुगलकिशोर मंदिर में दर्शन दे रहे हैं।
५-राधारमणजी,वृंदावन
गोपाल भट्ट गोस्वामी को गंडक नदी में एक शालिग्राम मिला।वे उसे वृंदावन ले आए और केशीघाट के पास मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया।एक दिन किसी दर्शनार्थी ने कटाक्ष कर दिया कि चंदन लगाए शालिग्रामजी तो ऐसे लगते हैं मानो कढ़ी में बैगन पड़े हों।यह सुनकर गोस्वामीजी बहुत दुखी हुए पर सुबह होते ही शालिग्राम से राधारमण की दिव्य प्रतिमा प्रकट हो गई।यह दिन वि.सं.१५९९ (सन्१५४२) की वैशाख पूर्णिमा का था। वर्तमान मंदिर में इनकी प्रतिष्ठापना सं.१८८४में की गई।उल्लेखनीय है कि मुगलिया हमलों के बावजूद यही एक मात्र ऐसी प्रतिमा है,जो वृंदावन से कहीं बाहर नहीं गई। इसे भक्तों ने वृंदावन में ही छुपाकर रखा।इनकी सबसे विशेष बात यह है कि जन्माष्टमी को जहां दुनिया के सभी कृष्ण मंदिरों में रात्रि बारह बजे उत्सव पूजा-अर्चना,आरती होती है,वहीं राधारमणजी का जन्म अभिषेक दोपहर बारह बजे होता है,मान्यता है ठाकुरजी सुकोमल होते हैं उन्हें रात्रि में जगाना ठीक नहीं।
६- राधाबल्लभजी,वृंदावन
भगवान श्रीकृष्ण की यह सुंदर प्रतिमा हित हरिवंशजी को दहेज में मिली थी।उनका विवाह देवबंद से वृंदावन आते समय चटथावल गांव में आत्मदेव ब्राह्मण की बेटी से हुआ था। पहले वृंदावन के सेवाकुंज में (संवत्१५९१) और बाद में सुंदरलाल भटनागर (कुछ लोग रहीम को यह श्रेय देते हैं) द्वारा बनवाए गए लाल पत्थर वाले पुराने मंदिर में राधाबल्लभजी प्रतिष्ठित हुए।
मुगलिया हमले के समय भक्त इन्हें कामा (राजस्थान) ले गए थे।वि.सं.१८४२ में एक बार फिर भक्त इस प्रतिमा को वृंदावन ले आए और यहां नवनिर्मित मंदिर में प्रतिष्ठित किया, तब से राधाबल्लभजी की प्रतिमा यहीं विराजमान है।
७-बांकेबिहारीजी, वृंदावन
मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को स्वामी हरिदासजी की आराधना को साकार रूप देने के लिए बांकेबिहारीजी की प्रतिमा निधिवन में प्रकट हुई।स्वामीजी ने इस प्रतिमा को वहीं प्रतिष्ठित कर दिया।मुगलों के आक्रमण के समय भक्त इन्हें भरतपुर ले गए।वृंदावन के भरतपुर वाला बगीचा नाम के स्थान पर वि.सं. १९२१में मंदिर निर्माण होने पर बांकेबिहारी एक बार फिर वृंदावन में प्रतिष्ठित हुए,तब से यहीं भक्तों को दर्शन दे रहे हैं। बिहारीजी की प्रमुख विशेषता यह है कि यहां साल में केवल एक दिन (जन्माष्टमी के बाद भोर में) मंगला आरती होती है,जबकि वैष्णवी मंदिरों में यह नित्य सुबह मङ्गला आरती होने की परंपरा है।साल भर मेँ सिर्फ़ एक दिन ‘अक्षय तृतीया के दिन’ ही वृन्दावन के स्वामी श्री बांकें बिहारी के चरणों के दर्शन होते हैं और उनका सर्वांग शृंगार होता है।
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॥बाँके बिहारी कृष्ण मुरारी॥
बांके बिहारी कृष्ण मुरारी,मेरे बारी कहाँ छुपे।(३)
दर्शन दीज्यो शरण में लीज्यो,(२)
हम बलहारी कहाँ छुपे॥
॥बाँके बिहारी कृष्ण मुरारी,मेरे बारी कहाँ छुपे॥
आँख मिचौली हमें ना भाये,
जग माया के जाल बिछाये,
रास रचा कर बंसी बजा कर,
धेनु चरा कर प्रीत जगा कर।
नटवर नागर निष्ठुर छलियाँ,(२)
लीलाधारी कहाँ छुपे॥
॥बाँके बिहारी कृष्ण मुरारी,मेरे बारी कहाँ छुपे॥
दर्शन दीज्यो शरण में लीज्यो,(२)
हम बलहारी कहाँ छुपे॥
॥बाँके बिहारी कृष्ण मुरारी,मेरे बारी कहाँ छुपे॥
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॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥
॥ॐ श्रीगुरुभ्यो नमः॥विनयावनत; दिगम्बर श्री बाँके बिहारी मंदिर भारत में मथुरा जिले के वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित है।यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है।बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है।इसका निर्माण १८६४ में स्वामी हरिदास ने करवाया था।
श्री बाँकेबिहारी जी का संक्षिप्त इतिहास:-श्रीधाम वृन्दावन,यह एक ऐसी पावन भूमि है,जिस भूमि पर आने मात्र से ही सभी पापों का नाश हो जाता है। ऐसा आख़िर कौन व्यक्ति होगा जो इस पवित्र भूमि पर आना नहीं चाहेगा तथा श्री बाँकेबिहारी जी के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करना नहीं चाहेगा।यह मन्दिर श्री वृन्दावन धाम के एक सुन्दर इलाके में स्थित है। कहा जाता है कि इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत १९२१ के लगभग किया गया।मन्दिर निर्माण के शुरूआत में किसी दान-दाता का धन इसमें नहीं लगाया गया।श्रीहरिदास स्वामी विषय उदासीन वैष्णव थे।उनके भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से श्री बाँकेबिहारीजी प्रकट हुये थे। स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत १५३६ में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजपुर नामक गाँव में हूआ था।इनके आराध्यदेव श्याम-सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था।हरिदास जी,स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगल-महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे है। हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है।ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे।किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुना समीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे।जब ये २५ वर्ष के हुए तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्तावेष प्राप्त किया एवं संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन करने में रह गये।
निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ था।तब उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को धरा को गोद से बाहर निकाला गया।यही सुन्दर मूर्ति जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई यह मूर्ति मार्गशीर्ष, शुक्ला के पंचमी तिथि को निकाला गया था।अतः प्राकट्य तिथि को हम विहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मानते है।युगल किशोर सरकार की मूर्ति राधा कृष्ण की संयुक्त छवि या ऐकीकृत छवि के कारण बाँके बिहारी जी के छवि के मध्य ऐक अलौकिक प्रकाश की अनुभूति होती है,जो बाँके बिहारी जी में राधा तत्व का परिचायक है।
श्री बाँकेबिहारी जी निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी हरिदासजी द्वारा सेवित होते रहे थे।फिर जब मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो गया,तब उनको वहाँ लाकर स्थापित कर दिया गया।सनाढय वंश परम्परागत श्रीकृष्ण यति जी,बिहारी जी के भोग एवं अन्य सेवा व्यवस्था सम्भाले रहे। फिर इन्होंने संवत १९७५ में हरगुलाल सेठ जी को श्रीबिहारी जी की सेवा व्यवस्था सम्भालने हेतु नियुक्त किया।तब इस सेठ ने वेरी, कोलकत्ता,रोहतक,इत्यादि स्थानों पर श्रीबाँकेबिहारी ट्रस्टों की स्थापना की। इसके अलावा अन्य भक्तों का सहयोग भी इसमें काफी सहायता प्रदान कर रहा है।आनन्द का विषय है कि जब काला पहाड़ के उत्पात की आशंका से अनेकों विग्रह स्थानान्तरित हुए।परन्तु श्रीबाँकेविहारी जी यहां से स्थानान्तरित नहीं हुए।आज भी उनकी यहां प्रेम सहित पूजा चल रही हैं।कालान्तर में स्वामी हरिदास जी के उपासना पद्धति में परिवर्तन लाकर एक नये सम्प्रदाय,निम्बार्क संप्रदाय से स्वतंत्र होकर सखीभाव संप्रदाय बना।इसी पद्धति अनुसार वृन्दावन के सभी मन्दिरों में सेवा एवं महोत्सव आदि मनाये जाते हैं।श्रीबाँकेबिहारी जी मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं।केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं एवं जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला-आरती होती हैं।जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं।और चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है।इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है। स्वामी हरिदास जी संगीत के प्रसिद्ध गायक एवं तानसेन के गुरु थे।एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी देखने लगे कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं।यह देखकर स्वामी जी बोले-अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा हैं।वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे।शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे।किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी, को विस्तर पर रखकर चले गये।स्वामी जी,वृद्ध अवस्था में दृष्टि जीर्ण होने के कारण उनकों कुछ नजर नहीं आय। इसके पश्चात श्री बाँकेबिहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर के कपाट खोले तो उन्हें श्री बाँकेविहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर में कपट खोले तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी के पलने में चुड़ा एवं वंशी नजर नहीं आयी।किन्तु मन्दिर का दरवाजा बन्द था। आश्चर्यचकित होकर पुजारी जी निधिवन में स्वामी जी के पास आये एवं स्वामी जी को सभी बातें बतायी। स्वामी जी बोले कि प्रातःकाल कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था।वो जाते वक्त कुछ छोड़ गया हैं।तब पुजारी जी ने प्रत्यक्ष देखा कि पंलग पर श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा-वंशी विराजमान हैं।इससे प्रमाणित होता है कि श्रीबाँकेबिहारी जी रात को रास करने के लिए निधिवन जाते हैं।
इसी कारण से प्रातः श्रीबिहारी जी की मंगला-आरती नहीं होती हैं। कारण-रात्रि में रास करके यहां बिहारी जी आते है।अतः प्रातः शयन में बाधा डालकर उनकी आरती करना अपराध हैं।स्वामी हरिदास जी के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेकों सम्राट यहाँ आते थे।एक बार दिल्ली के सम्राट अकबर, स्वामी जी के दर्शन हेतु यहाँ आये थे।सामान्यतः ठाकुर जी के दर्शन प्रातः ९ बजे से दोपहर १२ बजे तक एवं सायं ६ बजे से रात्रि ९ बजे तक होते हैं।विशेष तिथि उपलक्ष्यानुसार समय के परिवर्तन कर दिया जाता हैं।
श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन सम्बन्ध में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं।जिनमें से एक तथा दो निम्नलिखित हैं-एक बार एक भक्तिमती ने अपने पति को बहुत अनुनय–विनय के पश्चात वृन्दावन जाने के लिए राजी किया। दोनों वृन्दावन आकर श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे।कुछ दिन श्रीबिहारी जी के दर्शन करने के पश्चात उसके पति ने जब स्वगृह वापस लौटने कि चेष्टा की तो भक्तिमति ने श्रीबिहारी जी दर्शन लाभ से वंचित होना पड़ेगा, ऐसा सोचकर वो रोने लगी। संसार बंधन के लिए स्वगृह जायेंगे,इसलिए वो श्रीबिहारी जी के निकट रोते–रोते प्रार्थना करने लगी कि- ‘हे प्रभु में घर जा रही हुँ,किन्तु तुम चिरकाल मेरे ही पास निवास करना,ऐसा प्रार्थना करने के पश्चात वे दोनों रेलवे स्टेशन की ओर घोड़ागाड़ी में बैठकर चल दिये। उस समय श्रीबाँकेविहारी जी एक गोप बालक का रूप धारण कर घोड़ागाड़ी के पीछे आकर उनको साथ लेकर ले जाने के लिये भक्तिमति से प्रार्थना करने लगे। इधर पुजारी ने मंदिर में ठाकुर जी को न देखकर उन्होंने भक्तिमति के प्रेमयुक्त घटना को जान लिया एवं तत्काल वे घोड़ा गाड़ी के पीछे दौड़े।गाड़ी में बालक रूपी श्रीबाँकेबिहारी जी से प्रार्थना करने लगे।दोनों में ऐसा वार्तालाप चलते समय वो बालक उनके मध्य से गायब हो गया।तब पुजारी जी मन्दिर लौटकर पुन श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे।इधर भक्त तथा भक्तिमति श्रीबाँकेबिहारी जी की स्वयं कृपा जानकर दोनों ने संसार का गमन त्याग कर श्रीबाँकेबिहारी जी के चरणों में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। ऐसे ही अनेकों कारण से श्रीबाँकेबिहारी जी के झलक दर्शन अर्थात झाँकी दर्शन होते हैं।
मित्रों १२,१३ एवँ १४ मार्च २०१२ को त्रिरात्री निवास किया हम दोनों पति-पत्नी ने वृंदावन धाम में।श्रीबाँकेबिहारी मन्दिर में ठाकुर जी के दर्शन किये।सांयकालीन आरती में भी शामिल हुए।

॥बांके बिहारी तेरे नैना कजरारे॥
बांके बिहारी तेरे नैना कजरारे।
नज़र ना लग जाए,ओये ओये ओये॥
मोर का मुकुट शीश पे शोभा पा रहा,
मुखड़े को देख के चाँद भी लज्जा रहा।
अधरों से छलके हैं रस की फुआरें॥
तीखी कतारें,दोनों नैनो में कजरा,
बाल हैं तिहारे जैसे सावन के बदरा।
गालों पे छाए कारे कारे घुंघराले॥
पतली कमर तेरी लचके कमाल की,
वारि वारि जाऊं तेरी मस्तानी चल की।
करती पायलिया तेरी मीठी झंकारें॥
रमण बचाऊं तोहे सब की नज़र से,
आजा छिपालूं तोहे नैनो के घर से।
सुन मेरे प्यारे इस दिल की पुकारें॥
बांके बिहारी तेरे नैना कजरारे।
नज़र ना लग जाए,ओये ओये ओये॥
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॥बांके बिहारी मुझको देना सहारा॥
बांके बिहारी मुझे देना सहारा,
कहीं छूट जाए ना दामन तुम्हारा॥
तेरे सिवा दिल में समाए ना कोई,
लगन का यह दीपक भुजाये ना कोई,
तू ही मेरी कस्ती तू ही है किनारा,
कहीं छूट जाए ना दामन तुम्हारा।
॥ बांके बिहारी मुझे देना सहारा…॥
तेरे रास्ते से हटाती है दुनिया,
इशारों से मुझको भूलती है दुनिया,
देखो ना हरगिज मैं दुनिया का इशारा
कहीं छूट जाए ना दामन तुम्हारा।
॥ बांके बिहारी मुझे देना सहारा…॥
तेरे नाम का गान गाता रहूं मैं,
सुबह शाम तुझको रिझाता रहूं मैं,
तेरा नाम मुझको है प्राणों से प्यारा,
कहीं छूट जाए ना दामन तुम्हारा।
॥ बांके बिहारी मुझे देना सहारा…॥
बड़ी भूल की जो मैं दुनिया में आया,
मूल भी खोया और ब्याज भी खोया,
दुनिया में मुझको ना भेजो ना दोबरा
कहीं छूट जाए ना दामन तुम्हारा।
॥ बांके बिहारी मुझे देना सहारा…॥
बांके बिहारी मुझे देना सहारा,
कहीं छूट जाए ना दामन तुम्हारा॥
🌹🙏🌹दिगम्बर🌹🙏🌹

४- गोवर्धन:- गोवर्धन पर्वत भगवान का हृदय है।दीपावली की अगले दिन गोवर्धन पूजा की जाती है।लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं।इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है।इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है।इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है।गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है।शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती है जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है।देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं।इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है।इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है।गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की।जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे।सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और हर वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी।तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।मित्रों १३ मार्च २०१२ इस पुण्य क्षेत्र के दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ।गोवर्धन पर्वत भगवान का हृदय है।

॥श्री गोवर्धन महाराज आरती॥
श्री गोवर्धन महाराज,ओ महाराज,
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।
॥ श्री गोवर्धन महाराज…॥
तोपे* पान चढ़े,तोपे फूल चढ़े,
तोपे चढ़े दूध की धार।
॥ श्री गोवर्धन महाराज…॥
तेरे गले में कंठा साज रेहेओ,
ठोड़ी पे हीरा लाल।
॥ श्री गोवर्धन महाराज…॥
तेरे कानन कुंडल चमक रहेओ,
तेरी झांकी बनी विशाल।
॥ श्री गोवर्धन महाराज…॥
तेरी सात कोस की परिकम्मा,
चकलेश्वर है विश्राम।
श्री गोवर्धन महाराज,ओ महाराज,
तेरे माथे मुकुट विराज रहेओ।
गिरिराज धारण प्रभु तेरी शरण।
(तोपे=तुम पर /तुम्हारे ऊपर)

५-नन्दगाँव:-

॥किशोरी जी के नन्दगाँव में प्रवेश॥
नंदगांव में,राधे राधे,
नंदीश्वर पर्वत,राधे राधे,
नंदीश्वर महादेव,राधे राधे,
नंदीश्वरकुण्ड पे,राधे राधे,
पावन सरोवर,राधे राधे,
यशोदाकूप में,राधे राधे,
यशोदाकुण्ड पे,राधे राधे,
कदम्ब टेर पे,राधे राधे,
दोयानी कुंड पे,राधे राधे,
सांच कुण्ड पे,राधे राधे,
श्री मानसी देवी,राधे राधे,
मुक्ता कुण्ड पे,राधे राधे,
फुलवारी कुण्ड पे,राधे राधे,
विलास वट पे,राधे राधे,
सारसी कुण्ड पे,राधे राधे।
श्याम पिपडी,राधे राधे॥
भजमन श्री राधे गोपाल,
भजमन श्री राधे गोपाल,
भजमन श्री राधे गोपाल,
भजमन श्री राधे गोपाल॥
केवारी कुंड पे,राधे राधे,
वृक्ष मंडला,राधे राधे,
आशीषश्वर महादेव,राधे राधे,
आशीषश्वर वन में,राधे राधे,
चंद्रकुण्ड पे,राधे राधे,
गुफा की कुंड पे,राधे राधे,
कदम्ब खण्डिनी,राधे राधे,
मुखशोधन कुंड पे,राधे राधे,
कज्जर कुंड पे,राधे राधे,
हिण्डोला वेदी,राधे राधे,
सुर्यकुण्ड पे,राधे राधे,
पुर्णमासी कुण्ड पे,राधे राधे।
श्रीउद्धव क्यारी,राधे राधे॥
नंदपोखरा,राधे राधे,
नंदसरोवर,राधे राधे,
नंदभवन में,राधे राधे,
पारलथाटी,राधे राधे,
हाऊ विलाऊ,राधे राधे।
हमारो धन श्री राधा॥
श्री राधा श्री राधा श्री राधा।
जीवन धन श्रीराधा श्रीराधा॥
राधा राधा राधा॥
हमारो धन श्री राधा।
श्री राधा श्री राधा श्री राधा।॥
कोकिलावन में,राधे राधे,
रत्नाकर कुण्ड पे,राधे राधे,
आँजनाउ गांव में,राधे राधे,
बिजवारी गांव में,राधे राधे,
श्री परसों गांव में,राधे राधे,
कामई गांव में,राधे राधे,
करहला गांव में,राधे राधे,
लुढौली गांव में,राधे राधे,
सहार गांव में,राधे राधे,
साखी गांव में,राधे राधे,
छत्रवन में,राधे राधे,
कोसी कलां में,राधे राधे,
रणवाडी गांव में,राधे राधे,
नरीसेमरी,राधे राधे,
खादिरवन में,राधे राधे,
खायरो गांव में,राधे राधे,
हमारो धन श्री राधा।
श्री राधा श्री राधा श्री राधा॥
ब्रह्म घाट पे,राधे राधे,
कच्छवन में,राधे राधे,
भुषणवन में,राधे राधे,
गुंजा वन में,राधे राधे,
विहार वन में,राधे राधे,
अक्षय वट पे,राधे राधे,
तपोवन में,राधे राधे,
गोपी घाट पे,राधे राधे॥
चीर घाट पे,राधे राधे,
नंद घाट पे,राधे राधे,
बसई गांव में,राधे राधे,
कुनाई गांव में,राधे राधे,
पालहारा गांव में,राधे राधे,
जामुहा गांव में,राधे राधे॥
श्रीराधे श्रीराधे श्रीराधे
बरसाने वाली श्री राधे
श्रीराधे श्रीराधे श्रीराधे
बरसाने वाली श्री राधे॥
बसौंती गांव में,राधे राधे,
तरौली गांव में,राधे राधे,
बरौली गांव में,राधे राधे,
तमाल वन में, राधे राधे,
आटस गांव में,राधे राधे,
मगेरा गांव में राधे राधे,
संगरोया गांव में,राधे राधे,
हाण्डीर वन में,राधे राधे,
भद्रवन में, राधे राधे,
भाण्डीरवन में,राधे राधे,
वेणुकूप पे,राधे राधे,
श्री दामवट पे,राधे राधे,
श्याम तलैया, राधे राधे,
वृंदावन का कण कण बोले
श्रीराधा श्रीराधा॥
श्याम सुंदर की बंशी बोले
श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा
निधिवन जी में बंदर बोले
श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा,
माट वन में, राधे राधे,
माट गांव में, राधे राधे,
पान गांव में, राधे राधे,
मानसरोवर, राधे राधे,
बेलवन में, राधे राधे,
लौहवन में, राधे राधे,
महावन में, राधे राधे,
ब्रह्माण्ड घाट पे, राधे राधे,
चिंताहरण घाट पे, राधे राधे,
श्री गोकुल जी में, राधे राधे,
अक्रुर घाट पे, राधे राधे,
श्री रावल गाँव में,राधे राधे॥
वृंदावन का कण कण बोले
श्री राधा श्री राधा श्री राधा॥
रसिक जनो की वाणी बोले
श्रीराधा श्रीराधा श्री राधा॥
बृंदावन का कण कण बोले श्री राधा राधा।
श्री यमुनाजी की लहरें बोले श्री राधा राधा॥

॥बृज में हो रही जय जयकार॥
बृज में वे हो रही जय जयकार,
बृज में वे रही जय जयकार,
नन्द घर लाला जायो है,
लाला जायो है॥
नन्द घर लाला जायो है,
बृज में वे रही जय जयकार,
नन्द घर लाला जायो है॥
यूथ के यूथ नन्द घर आवें,
ग्वाल बाल सब हिलमिल गावें,
ब्रह्मानन्द समान आज सुख सबनें पायो है,
बृज में वे रही जय जयकार,
नन्द घर लाला जायो है॥
शिव ब्रह्मा सनकादिक आए,
सिद्ध मुनि सब देव भी आएं,
धर ग्वालन को रुप,सबही मिल मंगल गायो है।
बृज में वे रही जय जयकार,
नन्द घर लाला जायो है॥
बृज चौरासी कोस में भैया,
सब कहे धन्य यशोदा मैया,
साठ साल की आयु में सुत ऐसा जायो है,
बृज में वे रही जय जयकार,
नन्द घर लाला जायो है
नन्द यशोदा भाग्य बड़ाई,
सब ही देने लगे बधाई,
ऐसो अद्भुत सुत ओर नही कोई जायो है,
बृज में वे रही जय जयकार,
नन्द घर लाला जायो है॥
🌻🙏🌻

नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥
नचावे हरि की मैया,नचावे हरि की मैया।
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥
मथुरा में हरि जन्म लियो है॥
गोकुल मे पग,धरो री कन्हैया॥
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥
रुनुक-झुनुक पग घुँघरू बाज़े॥
ठुमुक-ठुमुक पग,धरो री कन्हैया॥
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥
धोतो न बांधे लाला जामो न पहिरे॥
पिताम्बर को,बडो रे पहरैया॥
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया ॥
टोपी न ओढ़े लाला साफा न बांधे॥
मोर-मुकुट को,बडो रे ओढैया॥
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥
शाल न ओढ़े लाला दुशाला नहीं ओढ़े॥
काली रे कमरिया को,बडो रे ओढैया॥
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥
ढूध न पीवे लाला,दही नहीं खावे॥
माखन-मिसरी को,बड़ो रे खवैया॥
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥
नाचे नन्दलाल,नचावे हरि की मैया॥
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॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥

॥बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया॥
बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
मीरा पुकारी जब गिरिधर गोपाला,
ढल गया अमृत में विष का भरा प्याला।
कौन मिटाए उसे,जिसे तू राखे पिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
जब तेरी गोकुल पे आया दुख भारी,
एक इशारे से सब विपदा टारी।
मुड़ गया गोवर्धन तुने जहाँ मोड़ दिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
नैनो में श्याम बसे,मन में बनवारी,
सुध बिसराएगी मुरली की धुन प्यारी।
मन के मधुबन में रास रचाए रसिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया,
सभी दुःख दूर हुए,जब तेरा नाम लिया॥
॥श्रीकृष्ण:शरणं मम॥
॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥
विनयावनत; दिगम्बर 
मित्रों १३ मार्च २०१२ को हम नन्दगाँव पहुँचे जहाँ हमने नन्दबाबा के परिवार के दर्शन किये।मन्दिर में पूजा अर्चना की।नंदगांव उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा जिले में प्रसिद्ध पौराणिक ग्राम बरसाना के पास एक बडा नगरीय क्षेत्र है।यह नंदीश्वर नामक सुन्दर पहाड़ी पर बसा हुआ है।यह कृष्ण भक्तों के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। किंवदंती के अनुसार यह गांव भगवान कृष्ण के पिता नंदराय द्वारा एक पहाड़ी पर बसाया गया था। इसी कारण इस स्थान का नाम नंदगांव पड़ा।गोकुल को छोड़ कर नंदबाबा श्रीकृष्ण और गोप ग्वालों को लेकर नंदगाँव आ गए थे।

६- बरसाना:-

बृंदावन का कण कण बोले श्री राधा राधा।
श्री यमुनाजी की लहरें बोले श्री राधा राधा॥

॥किशोरी जी तो मेरी है…॥
किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना,
लाडो रानी तो मेरी है,मेरो है बरसाना॥
मेरो है बरसाना री सजनी,मेरो है बरसाना।
किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना॥
कुटिया भी ले लो,सामान भी ले लो,
बदले में चाहे मेरी,जान भी ले लो।
ये राख़ की ढेरी है,सब कुछ छोड़ के जाना,
मेरो है बरसाना किशोरी जी तो मेरी है,
मेरो है बरसाना॥
एक देखी देखी मैंने,श्री निधिवन में,
एक दिन देखी मैंने,घेहबरबन में,
जो सखियों ने घेरी है,मेरो है बरसाना।
किशोंरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना॥
बोलो तो आसुओ,भर दू समंदर,
बोलो तो सीना चीर,दिखला दूँ अंदर,
प्रीत घनेरी है, सब कुछ छोड़ के जाना,
मेरो है बरसाना किशोरी जी तो मेरी है,
मेरो है बरसाना॥
कोई कहे वृषभानु दुलारी,
कोई कहे इन्हे किरत कुमारी।
श्री धामा कहे मेरी है,मेरो है बरसाना,
किशोंरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना॥
हरि दासी ने दुनियाँ में धूम मचाई,
क्या खूब लिखती,गोपाली बाई।
पूनम भी तो चेरी है,पूनम भी तो तेरी है,
मेरो है बरसाना किशोरी जी तो मेरी है।
किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना,
लाडो रानी तो मेरी है,मेरो है बरसाना।
मेरो है बरसाना री सजनी,मेरो है बरसाना,
किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना॥

॥करुणामयी कृपा कीजिये श्री राधे॥
करुणामयी कृपा कीजिये श्री राधे।
चरणों से लगा लीजिये श्री राधे॥
जय राधा राधा श्री राधा।
जय राधा राधा श्री राधा॥
ना मैं जानू भजन,साधना श्री राधे।
ना मैं जानू भजन,साधना श्री राधे॥
मुझे अपना बना लीजिये श्री राधे।
करुणामयी कृपा कीजिए श्री राधे॥
चरणों से लगा लीजिये श्री राधे।
जय राधा राधा श्री राधा।
जय राधा राधा श्री राधा॥
दे के चरणों की सेवा श्री राधे।
मेरी किस्मत बना दीजिये श्री राधे॥
जय राधा राधा श्री राधा।
जय राधा राधा श्री राधा॥
बीच मझधार में आ फसी श्री फसी।
पार नैया लगा दीजिये श्री राधे॥
जय राधा राधा श्री राधा।
जय राधा राधा श्री राधा॥
छोड़ दर तेरा जाये कहा लाडली यु,
वृन्धावन में वसा लीजिये,
जय राधा राधा श्री राधा।
जय राधा राधा श्री राधा॥
कहे चित्र विचित्र लाडली श्री राधे।
अपने काबिल बना लीजिये श्री राधे॥
जय राधा राधा श्री राधा।
जय राधा राधा श्री राधा॥
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॥किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना…॥
किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना,
लाडो रानी तो मेरी है,मेरो है बरसाना।
मेरो है बरसाना री सजनी,मेरो है बरसाना
किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना॥
कुटिया भी ले लो,सामान भी ले लो,
बदले में चाहे मेरी,जान भी ले लो।
ये राख़ की ढेरी है,सब कुछ छोड़ के जाना,
मेरो है बरसाना किशोरी जी तो मेरी है,
मेरो है बरसाना॥
एक देखी देखी मैंने,श्री निधिवन में,
एक दिन देखी मैंने,घेहबरबन में।
जो सखियों ने घेरी है,मेरो है बरसाना
किशोंरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना॥
बोलो तो आसुओ,भर दू समंदर,
बोलो तो सीना चीर,दिखला दूँ अंदर।
प्रीत घनेरी है,सब कुछ छोड़ के जाना,
मेरो है बरसाना किशोरी जी तो मेरी है,
मेरो है बरसाना॥
कोई कहे वृषभानु दुलारी,
कोई कहे इन्हे किरत कुमारी।
श्री धामा कहे मेरी है,मेरो है बरसाना
किशोंरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना॥
हरि दासी ने दुनियाँ,में धूम मचाई,
क्या खूब लिखती,गोपाली बाई।
पूनम भी तो चेरी है,पूनम भी तो तेरी है,
मेरो है बरसाना किशोरी जी तो मेरी है।
किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना,
लाडो रानी तो मेरी है,मेरो है बरसाना।
मेरो है बरसाना री सजनी, मेरो है बरसाना
किशोरी जी तो मेरी है,मेरो है बरसाना॥
🌻🙏🌻

॥किशोरी जी के बरसाने में प्रवेश॥
बरसाने में,राधे राधे,
ब्रह्म पर्वत पे,राधे राधे,
विष्णु पर्वत पे,राधे राधे।
श्री ललिता मंदिर,राधे राधे॥
दानगढ़ में,राधे राधे,
मानगढ़ में,राधे राधे,
मान मंदिर में राधे राधे,
मोरकुटि पे,राधे राधे,
रासमण्डल में,राधे राधे,
खोड़सांकरी,राधे राधे,
गहरवन वन में,राधे राधे,
राधा सरोवर,राधे राधे,
दोहिनी कुण्ड में,राधे राधे,
मयूर सरोवर,राधे राधे,
श्री मानसरोवर,राधे राधे,
सिरपिता कुंड पे,राधे राधे,
श्री गोवर्धन पर्वत भी बोले,
श्री राधा श्री राधा श्री राधा॥
बरसाने के मोर बोलें,
श्री राधा श्री राधा श्री राधा।
विहार कुण्ड पे,राधे राधे,
दोहिनि कुण्ड पे,राधे राधे,
तिलक कुंड पे,राधे राधे,
ब्रजेश्वर महादेव,राधे राधे,
पीली पोखर,राधे राधे,
प्रिया सरोवर,राधे राधे,
विलासगढ में,राधे राधे,
चिकसौली गांव में,राधे राधे॥
ऊंचा गांव में,राधे राधे,
कार्तिक सरोवर,राधे राधे,
महारुद्र जी,राधे राधे,
रंगीली गली में,राधे राधे,
रीठौरा गांव में,राधे राधे,
चंद्रावली कुण्ड पे,राधे राधे,
यशोदा मंदिर,राधे राधे,
हो ललिता कुण्ड पे,राधे राधे,
वृंदावन का कण कण बोले,
श्री राधा श्री राधा श्री राधा॥
रसिक जनों की वाणी बोले,
श्री राधा श्री राधा श्री राधा॥
विशाखा कुण्ड पे,राधे राधे,
मधुसूदन कुण्ड पे,राधे राधे,
संकेतवट पे,राधे राधे,
संकेतकुण्ड पे,राधे राधे,
संकेतबिहारी,राधे राधे,
हो विह्वल कुण्ड पे,राधे राधे,
हो विह्वल वन में,राधे राधे,
प्रेम सरोवर,राधे राधे,
जावट गांव में,राधे राधे,
किशोरी कुण्ड पे,राधे राधे,
सिद्ध कुण्ड पे,राधे राधे,
कुण्डलकुण्ड पे,राधे राधे,
मुक्ताकुण्ड पे,राधे राधे।
लाडलीकुण्ड पे,राधे राधे॥
भजमन श्री राधे गोपाल,
भजमन श्री राधे गोपाल।
भजमन श्री राधे गोपाल,
भजमन श्री राधे गोपाल॥

॥हमारो धन राधा श्री राधा श्री राधा॥
हमारो धन राधा श्री राधा श्री राधा।
जीवन धन राधा राधा राधा,
हमारो धन राधा श्री राधा श्री राधा॥
परम धन राधा राधा राधा,
राधा घर आँगन में-राधा नित यमुना के तीर।
राधा मोद-प्रमोद राधिका,राधा नित यमुना के तीर,
राधा प्राण बुद्धि-मन राधा,
राधा नैनों की तारा,राधा तन इन्द्रियों में राधा॥
राधा मन है राधा धन है।
राधा धाम सब है राधा-राधा धाम सब है राधा॥
राधा भजन-ध्यान है राधा,राधा जप तप भजन सभी है राधा,
राधा हरे सभी की बाधा-राधा हरे सभी की बाधा।
राधा उठते और बैठते राधा,हँसने में भी है श्री राधा।
राधा धन है राधा,राधा हर आँगन में राधा॥
हमारो धन राधा श्री राधा श्री राधा।
जीवन धन राधा राधा राधा राधा॥
💓🙏💓 कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण की राधा बरसाना की ही रहने वाली थीं।क़स्बे के मध्य श्री राधा की जन्मस्थली माना जाने वाला श्री राधावल्ल्भ मन्दिर स्थित है।राधा का जिक्र पद्म पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी मिलता है।पद्म पुराण के अनुसार राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थीं।ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण का बाल विवाह हुआ।कुछ विद्वान मानते हैं कि राधाजी का जन्म यमुना के निकट बसे स्थित रावल ग्राम में हुआ था और बाद में उनके पिता बरसाना में बस गए।इस मान्यता के अनुसार नन्दबाबा एवं वृषभानु का आपस में घनिष्ठ प्रेम था।कंस के द्वारा भेजे गये असुरों के उपद्रवों के कारण जब नन्दराज अपने परिवार,समस्त गोपों एवं गौधन के साथ गोकुल-महावन छोड़ कर नन्दगाँव में निवास करने लगे,तो वृषभानु भी अपने परिवार सहित उनके पीछे-पीछे गाँव को त्याग कर चले आये और नन्दगाँव के पास बरसाना में आकर निवास करने लगे।
लेकिन लोग अधिकतर मानते हैं कि उनका जन्म बरसाना में हुआ था।राधारानी का प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है।बरसाना में राधा जी को ‘लाड़लीजी’ कहा जाता है।कहानी के अनुसार ब्रज में निवास करने के लिये स्वयं ब्रह्मा भी आतुर रहते थे एवं श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का आनन्द लेना चाहते थे। अतः उन्होंने सतयुग के अंत में विष्णु से प्रार्थना की कि आप जब ब्रज मण्डल में अपनी स्वरूपा श्री राधा जी एवं अन्य गोपियों के साथ दिव्य रास-लीलायें करें तो मुझे भी उन लीलाओं का साक्षी बनायें एवं अपनी वर्षा ऋतु की लीलाओं को मेरे शरीर पर संपन्न कर मुझे कृतार्थ करें। ब्रह्मा की इस प्रार्थना को सुनकर भगवान विष्णु ने कहा -“हे ब्रह्मा!आप ब्रज में जाकर वृषभानुपुर में पर्वत रूप धारण कीजिये।पर्वत होने से वह स्थान वर्षा ऋतु में जलादि से सुरक्षित रहेगा,उस पर्वतरूप तुम्हारे शरीर पर मैं ब्रज गोपिकाओं के साथ अनेक लीलाएं करुंगा और तुम उन्हें प्रत्यक्ष देख सकोगे।यहाँ के पर्वतों पर श्री राधा-कृष्ण जी ने अनेक लीलाएँ की हैं।अतएव बरसाना में ब्रह्मा पर्वत रूप में विराजमान हैं।पद्म पुराण के अनुसार यहाँ विष्णु और ब्रह्मा नाम के दो पर्वत आमने सामने विद्यमान हैं।दाहिनी ओर ब्रह्म पर्वत और बायीं विष्णु पर्वत है।लाड़ली जी के मंदिर में राधाष्टमी का त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।यह त्यौहार भद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को आयोजित किया जाता है।राधाष्टमी के उत्सव में राधाजी के महल को काफी दिन पहले से सजाया जाता है।राधाजी को लड्डूओं का भोग लगाया जाता है और उस भोग को मोर को खिला दिया जाता है जिन्हें राधा कृष्ण का स्वरूप माना जाता है।राधा रानी मंदिर में राधा जी का जन्मदिवस राधा अष्टमी मनाने के अलावा कृष्ण जन्माष्टमी,गोवर्धन-पूजन,गोप अष्टमी और होली जैसे पर्व भी बहुत धूम-धाम से मनाए जाते हैं।इन त्योहारों में मंदिर को मुख्य रूप से सजाया जाता है,प्रतिमाओं का श्रृंगार विशेष रूप से होता है,मंदिर में सजावटी रोशनी की जाती है और सर्वत्र सुगन्धित फूलों से झांकियां बना कर विग्रह का श्रृंगार किया जाता है।राधा को छप्पन भोग भी लगाए जाते हैं।राधाष्टमी अष्टमी से चतुर्दशी तक यहां मेले का आयोजन भी होता है।मित्रों, हम पति-पत्नी बड़े भाग्यशाली रहे हैं कि १३ मार्च २०१२ को हमने श्री बृषभानुकुमारी राधारानी,श्री कीर्तिकुमारी राधा रानी के पुराने व नए दोनों मंदिरों में राधे माँ के दर्शन किये॥राधा और रुक्मिणी दोनों एक ही थीं।रुक्मिणी को राधा का अध्यात्मिक अवतार माना गया है।💓🙏💓    भज मन श्री राधे गोपाल॥श्रीराधे श्याम॥ ॥जय राधा माधव:जय कुन्ज बिहारी॥
जय राधा माधव,जय कुन्ज बिहारी।
जय राधा माधव,जय कुन्ज बिहारी॥
जय गोपी जन बल्लभ,जय गिरधर हरी।
जय गोपी जन बल्लभ,जय गिरधर हरी॥
॥ जय राधा माधव…॥
यशोदा नंदन,ब्रज जन रंजन,
यशोदा नंदन,ब्रज जन रंजन॥
जमुना तीर बन चारि,जय कुन्ज बिहारी॥
॥ जय राधा माधव…॥
मुरली मनोहर करुणा सागर।
मुरली मनोहर करुणा सागर।
जय गोवर्धन हरी,जय कुन्ज बिहारी॥
॥ जय राधा माधव…॥
💓🙏💓

॥मोहन से दिल क्यूँ लगाया है…॥
मोहन से दिल क्यूँ लगाया है,यह मैं जानू या वो जाने।
छलिया से दिल क्यूँ लगाया है,यह मैं जानू या वो जाने॥
हर बात निराली है उसकी,हर बात में है इक टेडापन।
टेड़े पर दिल क्यूँ आया है,यह मैं जानू या वो जाने॥
जितना दिल ने तुझे याद किया,उतना जग ने बदनाम किया।
बदनामी का फल क्या पाया हैं,यह मैं जानू या वो जाने॥
तेरे दिल ने दिल दीवाना किया,मुझे इस जग से बेगाना किया।
मैंने क्या खोया क्या पाया हैं,यह मैं जानू या वो जाने॥
मिलता भी है वो मिलता भी नहीं,नजरो से मेरी हटता भी नहीं।
यह कैसा जादू चलाया है,यह मैं जानू या वो जाने॥
॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥
💓🙏💓
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॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥
विनयावनत; दिगम्बर

७:- शाकम्भरी देवी माँ मन्दिर:-
माँ शाकम्भरीआदिशक्ति का एक सौम्य अवतार हैं।इन्हें चार भुजाओं और कही पर अष्टभुजाओं वाली के रुप में भी दर्शाया गया है। ये माँ ही वैष्णो देवी,चामुंडा,कांगड़ा वाली,ज्वाला,चिंतपूर्णी,कामाख्या,शिवालिक पर्वत वासिनी, चंडी,बालासुंदरी,मनसा,नैना और शताक्षी देवी।कहलाती है।माँ शाकम्भरी ही रक्तदंतिका, छिन्नमस्तिका,भीमादेवी,भ्रामरी और श्री कनकदुर्गा है।माँ श्री शाकंभरी के देश मे अनेक सिद्धपीठ है।जिनमे शाकम्भरी माता राजस्थान,को सकरायपीठ कहते हैं जोकि राजस्थान मे है और सांभर पीठ भी राजस्थान मे है सहारनपुर पीठ उत्तर प्रदेश मे है।तीनों पीठों का सम्बन्ध शिवालिक पर्वतमाला पर विराजमान शाकम्भरी देवी से है इसकी गणना प्रसिद्ध ५१ शक्तिपीठों मे होती है यहाँ सती का शीश गिरा था।पुराणों में इस देवी पीठ को शक्तिपीठ,परमपीठ,महाशक्तिपीठ और सिद्धपीठ कहा गया है।मुख्य प्रतिमा के दायीं और भीमा एवं भ्रामरी तथा बायीं और शताक्षी देवी की प्राचीन प्रतिमायें विराजमान है पास ही प्रथम पुज्य विघ्नहर्ता गणेश जी विराजमान है इनके प्रसाद में हलवा पूरी,शाक,फल,सब्जी,मिश्री मेवे और शाकाहारी भोजन का भोग लगता है प्रत्येक वर्ष आश्विन नवरात्र मे सहारनपुर के शिवालिक क्षेत्र मे शाकम्भरी देवी का विशाल मेला लगता है इसके अलावा चैत्र नवरात्र और होली पर माता के मेले लगते हैं।उत्तर भारत की नौ देवी यात्रा मे सबसे अंत मे माँ शाकम्भरी देवी का ही नौवां दर्शन होता है इनके दर्शन पूजन से अन्न,फल,धन,धान्य और अक्षय फल की प्राप्ति होती है।
साल १९७६ में भारत सरकार की सेवा के दौरान माँ शाकुम्भरी के दर्शन किये।उस समय मनोवांछित फ़ल भी प्राप्त हुआ था,तब सिर्फ़ २३ साल की अवस्था थीं।८-लखनऊ,अमीनाबाद ‘हनुमान मंदिर’:- अमीनाबाद,लखनऊ का एक बाजार है जिसे शाह आलम द्वितीय ने १७५९ से १८०६ के दौरान विकसित किया था।उसने ही इमामबाड़ा,फीलखाना और कई अन्‍य दुकानों के अलावा एक उद्यान भी बनवाया था।उसकी मृत्‍यु के बाद,उसकी पत्‍नी ने नवाब वाजिद अली शाह के मंत्री,इमदाद हुसैन खान अमीनाद्दौला को सम्‍पत्ति देकर निपटारा कर दिया।बाद में उसने यहां कई गार्डन,पार्क,बड़े-बड़े घर,एक मस्जिद और एक बाजार विकसित कर दिया जिसे अमीनाबाद के नाम से जाना जाता है।अमीनाबद के विशाल बाजार परिसर में एक पार्क भी है जिसका उद्घाटन लेफ्टिनेंट द्वारा किया गया था।१८ फरवरी १९११को जनरल हेविट ने अमीनाबाद को ‘लखनऊ का दिल’ कहा था।यह बाजार लगभग लगभग डेढ़ सौ साल पुराना है।यहां वास्‍तव में कई बाजारों का समूह है जैसे-प्रताप मार्केट,स्‍वदेश मार्केट,मोहन मार्केट और भी अन्‍य बाजार।अमीनाबाद में कई खाने-पीने की दुकानें भी हैं जहां,द्विवेदी सारी,प्रकाश कुल्‍फी,माताबदल पंसारी जैसे कई ब्रांड भी मिलते हैं।२००९ में यहाँ के इस नज़ारे को ख़ूब देखा।मित्रों!अमीनाबाद घंटाघर स्थित ‘हनुमान मंदिर’ का महत्व कुछ अलग ही है।यहां पर हर बड़ा मंगल पर भक्तों की भीड़ देखते ही बनती है।यहां पर श्रद्धालुओं ने अपनी भक्ति से बजरंगबली के अलावा माँ दुर्गा और श्रीराधाकृष्ण की मूर्ती की भी स्थापना की है।मान्यतानुसार यह मंदिर मुगलकाल में बना था।ऐसी मान्यता है कि सन् १९१० में नवाब गुलाम हुसैन खान ने तत्कालीन उप कमिश्नर एवं म्युनिसिपल के अध्यक्ष की रजामंदी से मंदिर का जीर्णोद्वार किया था।तब से आज तक यह अपनी आभा बिखेर रहा है।बताया जाता है कि,बाद में भक्तों द्वारा परिसर में राम दरबार का निर्माण हुआ।यहां भक्तों की संख्या सिर्फ बड़े मंगल पर ही नहीं अपितु ‘नवरात्री’ पर भी रहती है। इस मंदिरमें तीन द्वार हैं:-पहला बाली सुग्रीव,दूसरा:- श्री गणेश द्वार,तीसरा:-माँ सरस्वती द्वार।
इस मंदिर में-पूजा ब्रम्ह मुहूर्त में बजरंग बली को सिन्दूर,चमेली का तेल व चांदी के वर्क के अभिषेक से होती है।फिर इसके बाद श्रीहनुमान जी की आरती की जाती है। बजरंगबली की महिमा अपरम्पार है।मान्यतानुसार,जिस लड़की की शादी नहीं हो रही है अगर वो यहां आकर अपनी मुंह दिखाई कराए तो निश्चित रूप से ही उसकी शादी हो जाएगी।यहां पर मन्नत मांगने आए भक्त बजरंग बली को पूरी तरह समर्पित हैं।जो की मन्नत पूरी हो जाने पर मंदिर में लंगोट व मेंवे भी चढ़ाते हैं तो कुछ श्रद्धानुसार भंडारा व पाठ भी कराते हैं।बजरंगबली की अहैतुकी कृपा से २००९ में इस प्रसिद्ध हनुमानजी के मंदिर में पवनपुत्र श्री हनुमानजी के दर्शन करनें का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
मनोजवं मारुतुल्यवेगं जितेंद्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये
🌹🙏🌹
मित्रों श्रीहनुमान जी की पूजा करते समय इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए:-
१- तिल के तेल में मिला हुआ सिंदूर हनुमान जी को लेपना अच्छा होता है।
२- हनुमान जी को कमल,गेंदे, सूरजमुखी फूल अर्पित करें।
३-चंदन को घिसकर केसर में मिलाएं और इसे हनुमान जी को लगाएं।
४- हनुमान जी की मूर्ति के के नेत्रों में देखते हुए मंत्रों का जाप करें।
५-हनुमान जी को पूजा करते समय ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
॥ॐ ऐं भ्रीम हनुमते,श्रीरामदूताय नम:॥

॥संकटमोचन हनुमाष्टक॥
बाल समय रबि भक्षि लियो तब
तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को
यह संकट काहु सों जात न टारो॥
देवन आनि करी बिनती तब
छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो॥को०-१॥
बालि की त्रास कपीस बसै गिरि
जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महा मुनि साप दियो तब
चाहिय कौन बिचार बिचारो॥
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु
सो तुम दास के सोक निवारो॥को०-२॥
अंगद के सँग लेन गये सिय
खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु
बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो॥
हेरि थके तट सिंधु सबै तब लाय
सिया-सुधि प्रान उबारो॥को०-३॥
रावन त्रास दई सिय को सब
राक्षसि सों कहि सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु
जाय महा रजनीचर मारो॥
चाहत सीय असोक सों आगि सु
दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो॥को०-४॥
बान लग्यो उर लछिमन के तब
प्रान तजे सुत रावन मारो।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत
तबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो॥
आनि सजीवन हाथ दई तब
लछिमन के तुम प्रान उबारो॥को-०५॥
रावन जुद्ध अजान कियो तब
नाग कि फाँस सबै सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल
मोह भयो यह संकट भारो॥
आनि खगेस तबै हनुमान जु
बंधन काटि सुत्रास निवारो॥को०-६॥
बंधु समेत जबै अहिरावन
लै रघुनाथ पताल सिधारो।
देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि
देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो॥
जाय सहाय भयो तब ही
अहिरावन सैन्य समेत सँहारो॥को०-७॥
काज कियो बड़ देवन के तुम
बीर महाप्रभु देखि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को
जो तुमसों नहिं जात है टारो॥
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु
जो कुछ संकट होय हमारो॥को०-८॥
दोहा-
लाल देह लाली लसे अरू धरि लाल लँगूर।
बज्र देह दानव दलन जय जय जय कपि सूर॥
॥इति संकटमोचन हनुमाष्टक सम्पूर्ण॥
॥श्रीहनूमते नमः॥
॥श्री गुरुवे नमः॥
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दिगम्बर प्रसाद ध्यानी

॥विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रम्॥
॥हनूमान्स्तोत्राणि विभीषणः ॥
॥श्रीगणेशाय नमः॥
नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारुतसूनवे।
नमः श्रीरामभक्ताय श्यामास्याय च ते नमः॥१॥
नमो वानरवीराय सुग्रीवसख्यकारिणे।
लङ्काविदाहनार्थाय हेलासागरतारिणे॥२॥
सीताशोकविनाशाय राममुद्राधराय च।
रावणान्तकुलच्छेदकारिणे ते नमो नमः॥३॥
मेघनादमखध्वंसकारिणे ते नमो नमः।
अशोकवनविध्वंसकारिणे भयहारिणे॥४॥
वायुपुत्राय वीराय आकाशोदरगामिने।
वनपालशिरश्छेदलङ्काप्रासादभञ्जिने॥५॥
ज्वलत्कनकवर्णाय दीर्घलाङ्गूलधारिणे।
सौमित्रिजयदात्रे च रामदूताय ते नमः॥६॥
अक्षस्य वधकर्त्रे च ब्रह्मपाशनिवारिणे।
लक्ष्मणाwङ्गमहाशक्तिघातक्षतविनाशिने॥७॥
रक्षोघ्नाय रिपुघ्नाय भूतघ्नाय च ते नमः।
ऋक्षवानरवीरौघप्राणदाय नमो नमः॥८॥
परसैन्यबलघ्नाय शस्त्रास्त्रघ्नाय ते नमः।
विषघ्नाय द्विषघ्नाय ज्वरघ्नाय च ते नमः॥९॥
महाभयरिपुघ्नाय भक्तत्राणैककारिणे।
परप्रेरितमन्त्राणां यन्त्राणां स्तम्भकारिणे॥१०॥
पयःपाषाणतरणकारणाय नमो नमः।
बालार्कमण्डलग्रासकारिणे भवतारिणे॥११॥
नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च।
रिपुमायाविनाशाय रामाज्ञालोकरक्षिणे॥१२॥
प्रतिग्रामस्थितायाथ रक्षोभूतवधार्थिने।
करालशैलशस्त्राय द्रुमशस्त्राय ते नमः॥१३॥
बालैकब्रह्मचर्याय रुद्रमूर्तिधराय च।
विहङ्गमाय सर्वाय वज्रदेहाय ते नमः॥१४॥
कौपिनवाससे तुभ्यं रामभक्तिरताय च।
दक्षिणाशाभास्कराय शतचन्द्रोदयात्मने॥१५॥
कृत्याक्षतव्यथाघ्नाय सर्वक्लेशहराय च।
स्वाम्याज्ञापार्थसङ्ग्रामसङ्ख्ये सञ्जयधारिणे॥१६॥
भक्तान्तदिव्यवादेषु सङ्ग्रामे जयदायिने।
किल्किलाबुबुकोच्चारघोरशब्दकराय च॥१७॥
सर्पाग्निव्याधिसंस्तम्भकारिणे वनचारिणे।
सदा वनफलाहारसन्तृप्ताय विशेषतः॥१८॥
महार्णवशिलाबद्धसेतुबन्धाय ते नमः।
वादे विवादे सङ्ग्रामे भये घोरे महावने॥१९॥
सिंहव्याघ्रादिचौरेभ्यः स्तोत्रपाठाद् भयं न हि।
दिव्ये भूतभये व्याधौ विषे स्थावरजङ्गमे॥२०॥
राजशस्त्रभये चोग्रे तथा ग्रहभयेषु च।
जले सर्वे महावृष्टौ दुर्भिक्षे प्राणसम्प्लवे॥२१॥
पठेत् स्तोत्रं प्रमुच्येत भयेभ्यः सर्वतो नरः।
तस्य क्वापि भयं नास्ति हनुमत्स्तवपाठतः॥२२॥
सर्वदा वै त्रिकालं च पठनीयमिदं स्तवम्।
सर्वान् कामानवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा॥२३॥
विभीषणकृतं स्तोत्रं तार्क्ष्येण समुदीरितम्।
ये पठिष्यन्ति भक्त्या वै सिद्ध्यस्तत्करे स्थिताः॥२४॥
॥इति श्रीसुदर्शनसंहितायां विभीषणगरुडसंवादे
विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रं सम्पूर्णम्॥
🌹🙏🌹
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॥ॐ श्री हनुमते नमः॥॥श्री गुरुभ्यो नमः॥
विनयावनत;दिगम्बर ध्यानी


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॥ॐ श्री हनुमते नमः॥
॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥
दिगम्बर ध्यानी


हरे कृष्णा हरे कृष्णा,कृष्णा कृष्णा हरे हरे।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा,कृष्णा कृष्णा हरे हरे॥
हरे रामा हरे रमा,रामा रामा हरे हरे।
हरे रामा हरे रमा,रामा रामा हरे हरे॥
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हरे कृष्णा हरे कृष्णा,कृष्णा कृष्णा हरे हरे।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा,कृष्णा कृष्णा हरे हरे॥
हरे रामा हरे रमा,रामा रामा हरे हरे।
हरे रामा हरे रमा,रामा रामा हरे हरे॥
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हिमाचल प्रदेश की धार्मिक यात्राएँ:-

१- महासू देवता मन्दिर हनोल:-
प्रकृति की गोद में बसा एक प्रसिद्ध मंदिर है ‘महासू देवता’।माना जाता है कि जो भी यहां सच्चे दिल से कुछ मांगता है कि महासू देवता उसकी मुराद पूरी करते हैं।यह मंदिर देहरादून से लगभग १९०।किलोमीटर और मसूरी से लगभग १५६ किमी दूर है।यह मंदिर चकराता के पास हनोल गांव में टोंस नदी के पूर्वी तकट पर स्थित है।महासू देवता के मंदिर के गर्भ गृह में भक्तों का जाना मना है।केवल मंदिर का पुजारी ही मंदिर में प्रवेश कर सकता है।यह बात आज भी रहस्य है। मंदिर में हमेशा एक ज्योति जलती रहती है जो दशकों से जल रही है।मंदिर के ‘गर्भ गृह में पानी की एक धारा‘ भी निकलती है,लेकिन वह कहां जाती है,कहां से निकलती है यह अज्ञात है।दरअसल ‘महासू देवता’ एक नहीं चार देवताओं का सामूहिक नाम है और स्थानीय भाषा में महासू शब्द ‘महाशिव’ का अपभ्रंश है। चारों महासू भाइयों के नाम बासिक महासू,पबासिक महासू,बूठिया महासू (बौठा महासू) और चालदा महासू है,जो कि ‘भगवान शिव के ही रूप‘ हैं।
उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी,संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र,रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर,सोलन,शिमला,बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता की पूजा होती है।
इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मन्दिर को न्यायालय के रूप में माना जाता है।वर्तमान में महासू देवता के भक्त मन्दिर में न्याय की गुहार करते हैं जो उनकी पूरी होती है।यह मंदिर ९वीं शताब्दी में बनाया गया था।वर्तमान में यह मंदिर पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) के संरक्षण में है।महासू देवता भगवान भोलेनाथ के रूप हैं।मान्यता भी है कि महासू ने किसी शर्त पर हनोल का यह मंदिर जीता था।महासू देवता जौनसार बावर,हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के ईष्ट देव हैं।किवदंती है कि महासू देवता का मंदिर जिस गांव में बना है उस गांव का नाम ‘हुना भट्ट’ ब्राह्मण के नाम पर रखा गया है।इससे पहले यह जगह चकरपुर के रूप में जानी जाती थी।पांडव लाक्षाग्रह (लाख का महल) से निकलकर यहां आए थे।’हनोल का मंदिर’लोगों के लिए तीर्थ स्थान के रूप में भी जाना जाता है।देहरादून से महासू देवता के मंदिर पहुंचने के लिए तीन रास्ते हैं।
१-पहला रास्ता:- देहरादून,विकासनगर, चकराता,त्यूणी होते हुये हनोल जो कि लगभग१८८ किमी है।
२- दूसरा रास्ता:- देहरादून,मसूरी,नैनबाग,पुरोला,मोरी होते हुये हनोल जो कि लगभग १७५ किमी है।{२००९ में इसी रास्ते का अनुसरण करते हम श्रीनगर से टिहरी,धरासू बैंड(उत्तरकाशी),ब्रह्मखाल, बरकोट,पुरोला,मोरी होते हुए हनोल पहुंचे थे।”}
३- तीसरा रास्ता:- देहरादून से विकासनगर,छिबरौ डैम,क्वाणू,मिनस,हटाल,त्यूणी होते हुये लगभग १७८ किलोमीटर दूर हनोल पहुंचा जा सकता है।

२- महिषासुर मर्दनी मन्दिर हाटकोटी:-
शिमला से लगभग ८४ किलोमीटर दूर, शिमला-रोहड़ू मार्ग पर पब्बर नदी के दाहिने किनारे पर धान के खेतों के बीच माता हाटकोटी के प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर के लिए जाना जाता है।
लगभग १३७० मीटर की उंचाई पर बसा पब्बर नदी के किनारे हाटकोटी में महिषासुर र्मदिनी का पुरातन मंदिर हे। जिसमें वास्तुकला,शिल्पकला के उत्कृष्ठ नमूनों के साक्षात दर्शन होते हैं। कहते हैं कि यह मंदिर १०वीं शताब्दी के आस-पास बना है।इसमें महिषासुर र्मदिनी की दो मीटर ऊंची कांस्य की प्रतिमा है तोरण सहित है। इसके साथ ही शिव मंदिर है जहां पत्थर पर बना प्राचीन शिवलिंग है।द्वार को कलात्मक पत्थरों से सुसज्जित किया गया है।छत लकड़ी से र्निमित है,जिस पर देवी देवताओं की अनुकृतियों बनाई गई हैं।मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मी,विष्णु,दुर्गा,गणेश आदि की प्रतिमाएं हैं।इसके अतिरिक्त यहां मंदिर के प्रांगण में देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं।बताया जाता है कि इनका निर्माण पांडवों ने करवाया था।मित्रों २००९ में माँ महिसासुर मर्दनी के दर्शन किए।

३- माँ ज्वाला देवी का मंदिर:-
हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा लगभग ३० किलोमीटर दूर ज्वाला देवी का प्रसिद्ध मंदिर है।ज्वाला मंदिर को जोता वाली मां का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है।यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। ५१ शक्तिपीठ में से एक इस मंदिर में नवरात्र में इस मंदिर पर भक्तों का तांता लगा रहता है।बादशाह अकबर ने इस ज्वाला को बुझााने की कोशिश की थी लेकिन वो नाकाम रहे थे।
इस मन्दिर में १९८० में माँ की अखण्ड ज्योत के दर्शन किये।
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४-भीमकाली मंदिर,सराहन,हिमाचल प्रदेश:-
सराहन सतलुज नदी के किनारे बसा एक गाँव है।यह शिमला से १८० किलोमीटर दूर है।यह हिमाचल प्रदेश की सबसे पुरानी जगहों में से एक है।इस जगह को खूबसूरत सिर्फ यहाँ की हरियाली,पहाड़ और बर्फ नहीं बनाते।इस जगह को और भी खास बनाते हैं यहाँ के प्राचीन मंदिर।इसमें से एक है भीमकाली मंदिर जिसकी बनावठ एक मठ के जैसी है।हिंदू और बौद्ध वास्तुशिल्प वाला यह मंदिर लगभग २००० साल पुराना है।पत्थरों और लकड़ी से बना ये मंदिर ५१ शक्तिपीठों में से एक है।इसकी बनावट को देखकर आप तन और मन से प्रसन्न हो जाएँगे।दो बार यहाँ दर्शन करनें का सौभाग्य मिला,पहले १९७३ एवं दूसरी बार १९८० में।यहाँ का भीमकाली मन्दिर अंदर से इतना खूबसूरत है कि आप एक जगह बैठ ही नहीं पाएँगे।आप पैदल चलकर इस मंदिर की करीने को अच्छी तरह से देखना चाहेंगे।इस मंदिर की बनावट आपके अंदर की जिज्ञासा जगा देगी।
भीमकाली मंदिर का परिसर खूबसूरत ढंग से सुसज्जित है।मंदिर के दरवाजों पर चाँदी की नक्काशी भी आपको अच्छी लगेगी।इस मंदिर के लिए यहाँ के स्थानीय लोगों की आस्था अनंत है।स्थानीय लोग इस मंदिर की देवी को क्षेत्र का रक्षक मानते हैं।कहा जाता है कि सराहन रियासत बुशहर की राजधानी रही है।यहा आप आस-पास घूमेंगे तो पहाड़ी रहन-सहन देखकर आपको अच्छा लगेगा।दिन ढलते ही सभी मंदिर में पूजा करने के लिए जुटने लगते हैं।अगर आप सराहन आते हैं तो आपको शाम की पूजा को जरुर देखना चाहिए। 🌹🙏🌹

तमिलनाडु के धार्मिक स्थलों की यात्रा:-

१- श्री रामेश्वरम धाम:- राम – रावण युद्ध में रावण के सब साथी राक्षस मारे गये।रावण भी मारा गया; और अन्ततः सीताजी को मुक्त कराकर श्रीराम वापस लौटे।इस युद्ध हेतु राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था।रावण भी साधारण राक्षस नहीं था।वह पुलस्त्य महर्षि का नाती था।चारों वेदों का जाननेवाला था और था शिवजी का बड़ा भक्त।इस कारण राम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ।ब्रह्मा-हत्या का पाप उन्हें लग गया।इस पाप को धोने के लिए उन्होने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया।यह निश्चय करने के बाद श्रीराम ने हनुमान को आज्ञा दी कि काशी जाकर वहां से एक शिवलिंग ले आओ।हनुमान पवन-सुत थे।बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े।लेकिन शिवलिंग की स्थापना की नियत घड़ी पास आ गई।हनुमान का कहीं पता न था।जब सीताजी ने देखा कि हनुमान के लौटने मे देर हो रही है, तो उन्होने समुद्र के किनारे के रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना दिया।यह देखकर राम बहुत प्रसन्न हुए और नियम समय पर इसी शिवलिंग की स्थापना कर दी।छोटे आकार का सही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है।बाद में हनुमान के आने पर पहले छोटे प्रतिष्ठित छोटे शिवलिंग के पास ही राम ने काले पत्थर के उस बड़े शिवलिंग को स्थापित कर दिया।ये दोनों शिवलिंग रामेश्वरम् के विख्यात मुख्य मंदिर में आज भी पूजित हैं।यही मुख्य शिवलिंग ज्योतिर्लिंग है।रामेश्वरम भगवान शंकर के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है।श्रीरामजी एवँ भगवान भोलेनाथ जी की अहैतुकी कृपा से अपनी माताजी (श्रीमती गोदम्बरी देवी) अपनी धर्मपत्नी श्रीमती मीना ध्यानी एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ १० और ११ जनवरी २००९ को श्री रामनाथ पूरी रामेश्वरम धाम में निवास किया।२२ जल कुण्डों से हम सभी ने स्नान किया तदोपरांत श्री रामेश्वर शिवलिंग के दर्शन लिए।गंगोत्री से लाया जल रामेश्वर ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाया।अद्भुत आनँद की अनुभूति हुई।मित्रों!रामेश्वरम हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ है।यह तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है।यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है।इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है।भारत के उत्तर मे काशी की जो मान्यता है,वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है।रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है।यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है।बहुत पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था,परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया।यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था,जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई।बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था।आज भी इस ३० मील (४८किलोमीटर) लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं।यहां के मंदिर के तीसरे प्रकार का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है।रामेश्वरम् के विख्यात मंदिर की स्थापना के बारें में यह रोचक कथाऐ कही जाती है।सीताजी को छुड़ाने के लिए राम ने लंका पर चढ़ाई की थी।उन्होने युद्ध के बिना सीताजी को छुड़वाने का बहुत प्रयत्न किया,पर जब रावण के न मानने पर विवश होकर उन्होने युद्ध किया।इस युद्ध हेतु राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था।तब श्री राम ने, युद्ध कार्य में सफलता ओर विजय के पश्र्चात कृतज्ञता हेतु उनके आराध्य भगवान शिव की आराधना के लिए समुद्र किनारे की रेत से शिवलिंग का अपने हाथों से निर्माण किया,तभी भगवान शिव सव्यम् ज्योति स्वरुप प्रकट हुए ओर उन्होंने इस लिंग को “श्री रामेश्वरम” की उपमा दी।यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था।भगवान राम ने पहले सागर से प्रार्थना की,कार्य सिद्ध ना होने पर धनुष चढ़ाया,तो सागरदेव ने प्रकट होकर मार्ग दीया।इस युद्ध में रावण के साथ,उसका पुरा राक्षस वंश समाप्त हो गया और अन्ततः सीताजी को मुक्त कराकर श्रीराम वापस लौटे।हमनें भी श्रीरामेश्वर धाम में सागर में स्नान किया।हमनें ११ जनवरी २००९ को माताजी के सन्मुख ही पिताजी के पिंडदान करने का पुनीत कार्य किया।

२- कन्याकुमारी :- कन्याकुमारी भारत के तमिलनाडु राज्य के कन्याकुमारी ज़िले में स्थित एक नगर है। यह भारत की मुख्यभूमि का दक्षिणतम नगर है।यहाँ से दक्षिण में हिन्द महासागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है। इनके साथ सटा हुआ तट ७१.५ किलोमीटर तक विस्तारित है।समुद्र के साथ तिरुवल्लुवर मूर्ति और विवेकानन्द स्मारक शिला खड़े हैं।‘कन्याकुमारी’ एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थल भी है।सागर के मुहाने के दाई ओर स्थित यह एक छोटा सा मंदिर है जो ‘पार्वती‘ को समर्पित है।मंदिर तीनों समुद्रों के संगम स्थल पर बना हुआ है।यहां सागर की लहरों की आवाज स्वर्ग के संगीत की भांति सुनाई देती है। 🌹🙏🌹

३- मीनाक्षी सुन्दरेश्वरर मन्दिर मदुरै:-

॥मीनाक्षी पँचरत्नम्॥
उद्यद्भानुसहस्रकॊटिसदृशां कॆयूरहारॊज्ज्वलां।
बिम्बॊष्ठीं स्मितदन्तपङ्क्तिरुचिरां पीताम्बरालङ्कृताम्।
विष्णुब्रह्मसुरॆन्द्रसॆवितपदां तत्वस्वरूपां शिवां।
मीनाक्षीं प्रणतॊस्मि सन्ततमहं कारुण्य वारांनिधिम्॥१॥
मुक्ताहारलसत्किरीटरुचिरां पूर्णॆन्दुवक्त्रप्रभां।
शिञ्जन्नूपुरकिङ्किणीमणिधरां पद्मप्रभाभासुराम्।
सर्वाभीष्टफलप्रदां गिरिसुतां वाणीरमासॆवितां।
मीनाक्षीं प्रणतॊस्मि सन्ततमहं कारुण्य वारांनिधिम्॥२॥
श्रीविद्यां शिववामभागनिलयां ह्रीङ्कारमन्त्रॊज्ज्वलां।
श्रीचक्राङ्कितबिन्दुमध्यवसतिं श्रीमत्सभानायिकाम्।
श्रीमत्षण्मुखविघ्नराजजननीं श्रीमज्जगन्मॊहिनीं।
मीनाक्षीं प्रणतॊस्मि सन्ततमहं कारुण्य वारांनिधिम्॥३॥
श्रीमत्सुन्दरनायिकां भयहरां ज्ञानाप्रदां निर्मलां।
श्यामाभां कमलासनार्चितपदां नारायणस्यानुजाम्।
वीणावॆणुमृदङ्गवाद्यरसिकां नानाविधामम्बिकां।
मीनाक्षीं प्रणतॊस्मि सन्ततमहं कारुण्य वारांनिधिम्॥४॥
नानायॊगिमुनीन्द्रहृत्सुवसतिं नानार्थसिद्धिप्रदां।
नानापुष्पविराजिताङ्घ्रियुगलां नारायणॆनार्चिताम्।
नादब्रह्ममयीं परात्परतरां नानार्थतत्वात्मिकां।
मीनाक्षीं प्रणतॊस्मि सन्ततमहं कारुण्य वारांनिधिम्॥५॥
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[श्री मीनाक्षी देवी जी माँ लक्ष्मीजी का ही स्वरुप माना जाता हैं और मीनाक्षी पञ्चरत्नम् का पाठ श्री मीनाक्षी देवी जी की पूजा अर्चना में किया जाता है।इसके रचयिता श्री शंकराचार्य जी हैं।]
मुझे अपने जीवनकाल में सर्वाधिक मनोहारी यह मन्दिर लगा जिसे हमने अपनी माता गोदाम्बरी देवी,धर्मपत्नी मीना एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ तमिलनाडु के मदुरै शहर के मध्य स्थित 9 जनवरी 2009 को देखा।रात्रिकालीन विश्राम भी मदुरै में किया।यह है सुप्रसिद्ध “श्री मीनाक्षी अम्मा मन्दिर” (Sri Meenakshi Amman Mandir,Madurai) मित्रों!हिन्दु पौराणिक कथानुसार भगवान शिव सुन्दरेश्वर रूप में अपने गणों के साथ पांड्य राजा मलयध्वज की पुत्री राजकुमारी मीनाक्षी से विवाह रचाने मदुरई (मदुरै) नगर में आये थे।मीनाक्षी को देवी पार्वती का अवतार माना जाता है।इस मन्दिर को देवी पार्वती के सर्वाधिक पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है।
कांची तु कामाक्षी,
मदुरै मिनाक्षी,
दक्षिणे कन्याकुमारी ममः
शक्ति रूपेण भगवती,
नमो नमः नमो नमः।।
मीनाक्षी सुन्दरेश्वरर मन्दिर’ या :मीनाक्षी अम्मां मन्दिर’या केवल ‘मीनाक्षी मन्दिर’।भारत के तमिल नाडु राज्य के मदुरई नगर,में स्थित एक ऐतिहासिक मन्दिर है।यह हिन्दू देवता शिव (“सुन्दरेश्वर’ या सुन्दर ईश्वर के रूप में) एवं उनकी भार्या देवी पार्वती (मीनाक्षी या मछली के आकार की आंख वाली देवी के रूप में) दोनो को समर्पित है।यह ध्यान योग्य बात है कि मछली पांड्य राजाओं का राजचिह्न था।यह मन्दिर तमिल भाषा के गृहस्थान ढाई हजार वर्ष पुराने मदुरई नगर की जीवनरेखा है।मीनाक्षी मंदिर मदुरई में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम इतना अद्भुत है कि १४ एकड़ में फैले मंदिर परिसर से पानी की हर बूंद मंदिर में स्थित कमल तालाब में आकर गिरती है।मंदिर के स्तंभों को ही पाइप का रूप दे दिया गया है आश्चर्य की बात है कि २५०० वर्ष बाद भी इसमें लेश मात्र भी खराबी नहीं है।मदुरई शहर के मध्य में अति विशाल भव्य मंदिर हमनें पहली बार अपनी जिंदगी में देखा था माताजी का सानिध्य में अत्यंत आनन्दमयी रहा।विनयावनत; दिगम्बर bhaktipath.wordpress.com

४-मरीना बीच (चेन्नई):-
तमिलनाडु के शहर चेन्नई का यह एक पर्यटन स्थल है।सेन्ट जॉर्ज क़िले से यह बीच महाबलीपुरम तक फैला हुआ है।मरीना बीच सूर्यास्त के समय बहुत ही आकर्षक दिखाई देता है।चेन्नई का मरीना बीच विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बीच है।चेन्नई आए पर्यटकों को यहाँ की मनमोहक और लुभावनी शाम आकर्षित करती है।
मरीना बीच दक्षिण भारत का चेन्नै महानगर में एक बीच है।ये बीच विश्व के सबसे लम्बे तट (बीच) में से एक है।यह भारत का सबसे बड़ा और दुनिया का दुसरा समुद्र तटो में गिना जाता है।मरीना बीच भारत के बंगाल की खाड़ी के साथ चेन्नई,तमिलनाडु में एक प्राकृतिक शमरी समुद्र तट रहा हैै।यह तट १३ किलोमीटर रेतीली नदी दक्षिण के वाइस नगर से उत्तर में फोर्ट सेंट जॉर्ज तक फैैला हुआ हैै मरीना तट मुख्य रुप से रेतीली,चट्टनों संरचनाओं के विपरित रेतीला है जो मुंबई के जुहू समुद्र तट को दर्शता है। समुद्र तट की औसत चौड़ाई ३०० मीटर (९८०फीट) जबकि पश्चमि चौड़ाई ४३७ मीटर (१४३४) फीट है। मरीना बीच चेन्नई शहर के उन चुनिदा स्थलों में आते जहाँ शहर के लोग गर्मियों,छुट्टियों के दिनों थकान भरी सुबह और शाम मनोरंजन के साथ ही सुख-शांति,शीतला प्रदान करती है। सूर्योदय और सूर्यास्त के दौरान समुद्र तटों पर टहलना लोगों को एक सुखदद का अनुभव करते है।यहाँँ कलाकृतियाँ,दस्तकारी,खाद पदार्थों की बिक्री,बच्चों के खेल का मैदान विशेष आकर्षण का केन्द्र रहता है। इसके साथ यहाँ पतंगबाजी,क्रिकेट खेल आमतौर पर खेले जाते है।यहाँ टट्टू,घोड़े की सवारी,मेरी-गो-राउंड, मिनी विशालकाय पहिए आमोद-प्रमोद के साधन है।


महाराष्ट्र के धार्मिक स्थानों की यात्राएँ:-

१- नागपुर के टेकड़ी गणेश:-

दन्ताभये चक्रवरौ दधानं कराग्रगं स्वर्ण घटं त्रिनेत्रम्।
धृताब्जयालिंगितमब्धिपुत्र्या लक्ष्मी गणेशं कनकाभमीडे
ॐ नमो विघ्नराजाय सर्वसौख्यप्रदायिने। 
दुष्टारिष्ट विनाशाय पराय परमात्मने॥
लम्बोदरं महावीर्यं नागयज्ञाय शोभितम्।
अर्धचन्द्रधरं देवं विघ्न व्यूह विनाशनम्॥ 
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः हेरम्बाय नमो नमः। 
सर्वसिद्धिप्रदो सित्वं सिद्धिबुद्धिप्रदोभव॥ 
चिन्तितार्थ प्रदस्त्व हि सततं मोदकप्रियः।
सिन्दुरारुणत्रस्त्रेश्च पूजितो वरदायकः॥
इदं गणपतिस्तोत्रं यः पठेद् भक्तिमान् नरः।
तस्य देहं च गेहं च स्वयं लक्ष्मीर्न मुञ्चति॥
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सुप्रभातम्
दिगम्बर ध्यानी

॥रिद्धि सिद्धि का देव निराला शिव पार्वती का लाला॥
रिद्धि सिद्धि का देव निराला,
शिव पार्वती का लाला।
सदा ही कल्याण करता,
मेरा देव है मंगलकारी,
सभी के भंडार भरता।
सभी के भण्डार भरता॥
शिव का दुलारा है,ये गौरा महतारी है,
गज सा बदन तेरा,मूष की सवारी है।
चढ़े पान फूल फल मेवा,सारे सन्त करे तेरी सेवा,
सभी का तू ही मान रखता।
मेरा देव है मंगलकारी, सभी के भंडार भरता॥
सभी के भण्डार भरता,
दूँन्द दुन्दाला है,सूंड सुन्डाला है,
भक्तों का मंगल,करने वाला है।
तुझे मन से जो भी बुलाता,पल भर में दौड़ा आता,
सफल सारे काम करता।
मेरा देव है मंगल कारी,सभी के भंडार भरता।
सभी के भण्डार भरता॥
हर्ष कहे रे पहले इसको मनाले,
चरणों में इसके तू शीश झुका ले।
सारे विघ्न हटादे तेरे,सारे काम बना दे तेरे,
दीनों के दुख दूर करता।
मेरा देव है मंगलकारी,सभी के भंडार भरता।
सभी के भण्डार भरता॥
रिद्धि सिद्धि का देव निराला,
शिव पार्वती का लाला,
सदा ही कल्याण करता,
मेरा देव है मंगलकारी,
सभी के भंडार भरता।
सभी के भंडार भरता॥
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२८ अगस्त २०१७ को नागपुर में अपनी धर्मपत्नी श्रीमति मीना,बड़े पुत्र दीपक,बहू शालिनी एवँ पोता विहान के साथ नागपुर के टेकड़ी गणेश के दर्शन किये।टेकड़ी गणेशकी प्रतिमा दिव्य और स्वयंभू,ऐसी प्रतिमा शायद ही संसार में कहीं और होगी।प्रथम पूज्य की यह दुर्लभ प्रतिमा पीपल के पेड़ की जड़ से निकली है यानी इस पावन स्थल पर गणपति के साथ ही पीपल के पेड़ के रूप में भगवान विष्णु भी विराजमान हैं।नागपुर के टेकड़ी में भगवान गणेश के साथ-साथ विष्णु की भी पूजा हो जाती है।इस तरह यहां आने वाले श्रद्धालुओं को प्रथम पूज्य की आराधना के साथ विष्ण भगवान का भी आशीर्वाद मिल जाता है।मान्यता है कि गणेश और भगवान विष्णु की एक साथ पूजा करने से शनि के सारे कष्ट भी दूर हो जाते हैं।यही वजह है कि चारों पहर यहां भक्तों की भारी भीड़ लगी रहती है।हालांकि स्वयंभू गणेश की यह प्रतिमा यहां प्रकट हुई कैसे,इस बारे में किसी को कोई जानकारी तो नहीं है,लेकिन इतना कहा जाता है कि गणेश की ये प्रतिमा सैकड़ों साल पुरानी है।टेकड़ी गणपति की दिन में चार बार आरती होती है,जो यहां खास आकर्षण का केंद्र होती है।श्री गणेश जी को प्रसन्न करने का सबसे सरल तरीका है हर दिन सुबह स्नान पूजा करके श्री गणेश जी को पाँच दूर्वा (दूब) अर्पित करें।ध्यान रखें कि दुर्वा श्री गणेश जी के मस्तक पर रखना चाहिए।चरणों में दुर्वा नहीं रखें।दुर्वा अर्पित करते हुए मंत्र बोलें:-
“इदं दुर्वादलं-ॐ गं गणपतये नम:।”
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विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

२- शिरडी:-
अहमदनगर,महाराष्ट्र में १८ जून २०११ को हमनें अपनी धर्मपत्नी, छोटे पुत्र एवं बहू के सँग श्री साईं धाम शिरड़ी की यात्रा की।साईं बाबा कौन थे और उनका जन्म कहां हुआ था यह प्रश्न ऐसे हैं जिनका जवाब किसी के पास नहीं है।साईं ने कभी इन बातों का जिक्र भी नहीं किया था।इनके माता-पिता कौन थे इसकी भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।बस एक बार अपने एक भक्त के पूछने पर साईं ने कहा था कि,उनका जन्म २८ सितंबर १८३६ को हुआ था।इसलिए हर साल २८ सितंबर को साईं का जन्मोत्सव मनाया जाता है। साईं बाबा ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा एक पुराने मस्जिद में बिताया जिसे वह द्वारका माई कहा करते थे।सिर पर सफेद कपड़ा बांधे हुए फकीर के रूप में साईं शिरडी में धूनी रमाए रहते थे।इनके इस रूप के कारण कुछ लोग इन्हें मुस्लिम मानते हैं।जबकि द्वारिका के प्रति श्रद्घा और प्रेम के कारण कुछ लोग इन्हें हिन्दू मानते है।लेकिन साईं ने कबीर की तरह कभी भी अपने को जाति बंधन में नहीं बांधा।हिन्दू हो या मुसलमान साई ने सभी के प्रति समान भाव रखा और कभी इस बात का उल्लेख नहीं किया कि वह किस जाति के हैं।साईं ने हमेशा मानवता,प्रेम और दयालुता को अपना धर्म माना। जो भी इनके पास आता उसके प्रति बिना भेद भाव के उसके प्रति कृपा करते।साई के इसी व्यवहार ने उन्हें शिरडी का साई बाबा और भक्तों का भगवान बना दिया।हलांकि साईं बाबा का साईं नाम कैसे पड़ा इसकी एक रोचक कथा है। फकीर से साई बाबा बनने की कहानी कहा जाता है कि सन् १८५४ ई. में पहली बार साई बाबा शिरडी में दिखाई दिए। उस समय बाबा की उम्र लगभग सोलह वर्ष थी।शिरडी के लोगों ने बाबा को पहली बार एक नीम के वृक्ष के नीचे समाधि में लीन देखा। कम उम्र में सर्दी-गर्मी,भूख-प्यास की जरा भी चिंता किए बगैर बालयोगी को कठिन तपस्या करते देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ।त्याग और वैराग्य की मूर्ति बने साईं ने धीरे-धीरे गांव वालों का मनमोह लिया।कुछ समय शिरडी में रहकर साईं एक दिन किसी से कुछ कहे बिना अचानक वहां से चले गए। कुछ सालों के बाद चांद पाटिल नाम के एक व्यक्ति की बारात के साथ साई फिर शिरडी में पहुंचे। खंडोबा मंदिर के पुजारी म्हालसापति ने साईं को देखते ही कहा ‘आओ साईं’ इस स्वागत संबोधने के बाद से ही शिरडी का फकीर ‘साईं बाबा’ कहलाने लगा।शिरडी के लोग शुरू में साईं बाबा को पागल समझते थे लेकिन धीरे-धीरे उनकी शक्ति और गुणों को जानने के बाद भक्तों की संख्या बढ़ती गयी। साईं बाबा शिरडी के केवल पांच परिवारों से रोज दिन में दो बार भिक्षा मांगते थे।वे टीन के बर्तन में तरल पदार्थ और कंधे पर टंगे हुए कपड़े की झोली में रोटी और ठोस पदार्थ इकट्ठा किया करते थे।सभी सामग्रियों को वे द्वारका माई लाकर मिट्टी के बड़े बर्तन में मिलाकर रख देते थे।कुत्ते, बिल्लियां,चिड़िया निःसंकोच आकर खाने का कुछ अंश खा लेते थे,बची हुए भिक्षा को साईं बाबा भक्तों के साथ मिल बांट कर खाते थे। साईं ने अपने जीवनकाल में कई ऐसे चमत्कार दिखाए जिससे लोगों ने इनमें ईश्वर का अंश महसूस किया।इन्हीं चमत्कारों ने साईं को भगवान और ईश्वर का अवतार बना दिया।लक्ष्मी नामक एक स्त्री संतान सुख के लिए तड़प रही थी।एक दिन साईं बाबा के पास अपनी विनती लेकर पहुंच गई। साईं ने उसे उदी यानी भभूत दिया और कहा आधा तुम खा लेना और आधा अपने पति को दे देना।लक्ष्मी ने ऐसा ही किया।निश्चित समय पर लक्ष्मी गर्भवती हुई।साईं के इस चमत्कार से वह साईं की भक्त बन गयी और जहां भी जाती साईं बाबा के गुणगाती।साईं के किसी विरोधी ने लक्ष्मी के गर्भ को नष्ट करने के लिए धोखे से गर्भ नष्ट करने की दवाई दे दी।इससे लक्ष्मी को पेट में दर्द एवं रक्तस्राव होने लगा।लक्ष्मी साईं के पास पहुंचकर साईं से विनती करने लगी।साईं बाबा ने लक्ष्मी को उदी खाने के लिए दिया।उदी खाते ही लक्ष्मी का रक्तस्राव रूक गया और लक्ष्मी को सही समय पर संतान सुख प्राप्त हुआ।हालांकि शिरडी के साईं बाबा की जन्मतिथि को लेकर कोई पुख्ता प्रणाम नहीं हैं।

३- शनि शिंगणापुर:-

जय गणेश गिरिजा सुवन,मंगल करण कृपाल।
दीनन के दुख दूर करि,कीजै नाथ निहाल॥
जय जय श्री शनिदेव प्रभु,सुनहु विनय महाराज।
करहु कृपा हे रवि तनय,राखहु जन की लाज॥
💓🙏💓मित्रों हमें अपनी धर्मपत्नी मीना ध्यानी,छोटे पुत्र अनुराग एवँ बहु ऋतु के साथ १८-०६-२०११ में ‘श्रीशनि शिंगणापुर’ के स्वयम्भू शनि विग्रह के दर्शन का सौभाग्य मिला है।श्री शनिदेव महाराज की कृपा आप सब पर बनी रहे।
दिगम्बर ध्यानी

अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर॥
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रय मेव च।
आगता: सुख-संपत्ति पुण्योऽहं तव दर्शनात्॥

४- दगड़ू सेठ हलवाई ‘गणपति मंदिर’ पुणे,महराष्ट्र:-
दगड़ू सेठ हलवाई गणपति मंदिर महराष्ट्र के पुणे स्थित है।यह महाराष्ट्र का दूसरा सबसे मशहूर और लोकप्रिय गणेश मंदिर है।इस मंदिर का निर्माण बड़ी ही खूबसूरती से किया गया है।भगवान गणेश की साढ़े सात फीट ऊंची है और ४ फीट चौड़ी है।इस मूर्ति को सजाने में ८ किलोग्राम सोना लगा है।इस सिद्ध गणेश मन्दिर में अपनी धर्मपत्नी,छोटे पुत्र व बहु के साथ १७ जून २०११ हाज़िरी लगाई और भगवान गणपति के दर्शन किये।
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बिहार के धार्मिक स्थलों की यात्राएं:-

१-गया तीर्थ:-
गया भारत के बिहार राज्य के गया ज़िले में स्थित एक नगर है।यह ज़िले का मुख्यालय और बिहार राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर है।इस नगर का हिन्दू,बौद्ध और जैन धर्मों में गहरा ऐतिहासिक महत्व है।शहर का उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है।गया तीन ओर से छोटी व पत्थरीली पहाड़ियों से घिरा है,जिनके नाम मंगला-गौरी,श्रृंग स्थान,रामशिला और ब्रह्मयोनि हैं।नगर के पूर्व में फल्गू नदी बहती है।(भूमिगत).
मनुष्य पर देव ऋण,गुरु ऋण और पितृ ऋण होते हैं।माता-पिता की सेवा करके मरणोपरांत पितृपक्ष में पूर्ण श्रद्धा से श्राद्ध करने पर पितृऋण से मुक्ति मिलती है।हिंदू धर्म या पंचाग के अनुसार अश्विनी महीने के कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक १५ दिनों तक का समय पितृपक्ष का होता है। पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है।जब मनुष्य का जीवन मिलता है तो कई प्रकार के ऋण होते है।इनमे मनुष्य पर देव ऋण,गुरु ऋण और पितृ ऋण होते हैं।माता-पिता की सेवा करके मरणोपरांत पितृपक्ष में पूर्ण श्रद्धा से श्राद्ध करने पर पितृऋण से मुक्ति मिलती है।
देश के बद्रीनाथ(ब्रह्मकपाल),पुष्कर,गंगासागर,कुरुक्षेत्र, हरिद्वार,चित्रकूट सहित कई स्थानों में भगवान श्रीहरि पितरों को श्रद्धापूर्वक किए गए श्राद्ध से मोक्ष प्रदान कर देते हैं।गया में किए गए श्राद्ध की महिमा का गुणगान तो भगवान राम ने भी किया है।कहा जाता है कि भगवान राम ने अपने पिता व माता सीताजी ने भी अयोध्या के राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था। मोक्षदायिनी भूमि है गया में पितरों का पिण्डदान:-
भारतीय धर्मग्रंथ में बिहार के गया को विष्णु की नगरी माना जाता है।यह मोक्ष की भूमि कहलाती है।गरुड़ पुराण के अनुसार गया जाने के लिए घर से निकले एक-एक कदम पितरों को स्वर्ग की ओर ले जाने के लिए सीढ़ी बनाते हैं।विष्णु पुराण के अनुसार गया में पूर्ण श्रद्धा से पितरों का श्राद्ध करने से उन्हें मोक्ष मिलता है।मान्यतानुसार गया में भगवान विष्णु स्वयं पितृ देवता के रूप में उपस्थित रहते हैं,इसलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहते हैं।इसलिये यहाँ पितरों को पिण्डदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
गयासुर की कथा:- बिहार प्रान्त के गया भस्मासुर के वंशज दैत्य गयासुर की देह पर फैला है।पुराण में उल्लेख है कि गयासुर ने ब्रह्माजी को अपने कठोर तप से प्रसन्न कर वरदान मांगा कि उसकी देह देवताओं की भांति पवित्र हो जाए और उसके दर्शन से लोगों को पापों से मुक्ति मिल जाए। वरदान मिलने के बाद स्वर्ग में जन्संख्या बढऩे लगी और लोग अधिक पाप करने लगे।इन पापों से मुक्ति के लिए वे गयासुर के दर्शन कर लेते थे।इस समस्या से बचने के लिए देवताओं ने गयासुर से कहा कि उन्हें यज्ञ के लिए पवित्र स्थान दें।गयासुर ने देवताओं को यज्ञ के लिए अपना शरीर दे दिया।
दैत्य गयासुर जब लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया।यही पांच कोस का स्थान आगे चलकर गया के नाम से जाना गया।गया के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा कम नहीं हुई, इसलिए उसने देवताओं से फिर वरदान की मांग कि यह स्थान लोगों के लिए पाप मुक्ति वाला बना रहे।जो भी श्रद्धालु यहां श्रद्धा से पिंडदान करते हैं,उनके पितरों को मोक्ष मिलता है।
गया में ही पिंडदान बहुत महत्वपूर्ण है।गया में फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किए बिना पिंडदान हो ही नहीं सकता। गया में पहले विभिन्न नामों की ३६०वेदियां थीं,जहां पिंडदान किया जाता था।इनमें से इन दिनों ४८ ही बची हैं।वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं।पिंडदान के लिए प्रतिवर्ष गया में देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं। हर इंसान की यह इच्छा होती है कि मरने के बाद गया धाम में उसका पिंडदान किया जाए ताकि उसकी आत्मा को शांति मिल सके।
पितृपक्ष के पहले दिन की शुरुआत पावन फल्गु नदी के जल में पितरों को तपर्ण करने के साथ होती है।एक पखवारे तक चलने वाले पितृपक्ष मेले की शुरुआत यहीं से मानी जाती है।फल्गु तीर्थ और विष्णुपद में तादात्म्य संबंध है।भगवान विष्णु भी गया तीर्थ में जल रूप में विराजमान हैं।इसलिए गरुड़ पुराण में वर्णित है कि इक्कीस (२१) पीढि़यों में किसी भी एक व्यक्ति का कदम ‘फल्गु’ में पड़ जाए तो उसके समस्त कुल का उद्धार हो जाता है।’ब्रह्मवैवर्त पुराण’ में लिखा गया कि फल्गु सर्वनाश और गदाधर देव का दर्शन एवं गयासुर की परिक्रमा ब्रह्म हत्या जैसे पाप से मुक्ति दिलाती है। गयासुर की परिक्रमा का अभिप्राय समस्त पिंडवेदियों से है,क्योंकि एक कोशिश का मतलब तीन किलोमीटर के क्षेत्र से है,जिसमें मुख्य वेदियां सम्मलित हैं।भगवान राम,अनुज लक्ष्मण के साथ माता सीता भगवान दशरथ का पिंडदान करने गयाजी आए थे।राम-लक्ष्मण पिंडदान करने के लिए सामग्री एकत्रित करने चले गये और सीताजी गया धाम में फल्गु नदी के किनारे दोनों के वापस लौटने का इंतजार कर रही थीं।पिंडदान का समय निकला जा रहा था तभी राजा दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी।समय को हाथ से निकलता देख सीता जी ने फल्गु नदी के साथ वटवृक्ष,केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया।गरुण पुराणनुसार जब भगवान श्रीराम और लक्ष्मण वापस लौटे तो सीता ने पिंडदान की बात बताई जिसके बाद श्रीराम ने सीता से इसका प्रमाण मांगा। सीता जी ने जब फल्गु नदी, गाय और केतकी के फूल से गवाही देने के लिए कहा तो तीनों अपनी बात से मुकर गए,सिर्फ वटवृक्ष ने ही सीता के पक्ष में गवाही दी।इसके बाद सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की। सीताजी की प्रार्थना सुनकर स्वयं दशरथ जी की आत्मा ने यह घोषणा की कि सीता ने ही उन्हें पिंडदान दिया है।स्वयं सीता जी ने अपने ससुर राजा दशरथ का पिंडदान गया में किया था और गरुड़ पुराण में भी इस धाम का उल्लेख मिलता है इसलिए हर इंसान मृत्यु के बाद मुक्ति और शांति पाने के लिए गया में ही अपना पिंडदान कराने की इच्छा रखता है।मित्रों!१७ दिसम्बर २०१७ को गया में फल्गु नदी तट पर स्थित “सीता मन्दिर ” जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।वाल्मिकी रामायण में सीता द्वारा पिंडदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है।वनवास के दौरान भगवान राम लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुंचे। वहां श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए।उधर दोपहर हो गई थी।पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराहन में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी।गया जी के आगे फल्गू नदी पर अकेली सीता जी असमंजस में पड गई।उन्होंने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया।थोडी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया।बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है, इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण मांगा।तब सीता जी ने कहा कि यह फल्गू नदी की रेत केतकी के फूल, गाय और वटवृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं।इतने में फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए। सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही।तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की।दशरथ जी ने सीता जी की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि ऐन वक्त पर सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया।इस पर राम आश्वस्त हुए लेकिन तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीता जी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी- जा तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी, तुझमें पानी नहीं रहेगा।इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है।गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी।और केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं चढाया जाएगा।वटवृक्ष को सीता जी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी।यही कारण है कि गाय को आज भी जूठा खाना पडता है, केतकी के फूल को पूजा पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव है और फल्गू में आज भी बड़ी कठिनाई से खुदाई करके जगह जगह पिण्डदान हेतु थोड़ा जल प्रॉप्त करके हमने भी १७ दिसम्बर २०१७ को माता-पिता एवम सास ससुरादि पूर्वजों का पिण्डदान विधिवत सम्पन्न किया।विष्णुपद मन्दिर में भगवान के चरणों मे शीश नवाया।
विष्णुपद मंदिर:-
फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है।कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान विष्णु के पदचिन्हों पर किया गया है।यह मंदिर ३० मीटर ऊंचा है जिसमें आठ खंभे हैं।इन खंभों पर चांदी की परतें चढ़ाई हुई है।मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के ४० सेंटीमीटर लंबे पांव के निशान हैं।इस मंदिर का १७८७ में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने नवीकरण करवाया था। पितृपक्ष के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जुटती है।यहाँ एक बटबृक्ष है जहाँ अपना एक प्रिय फ़ल जीवनभर के लिए त्यागने का संकल्प लिया जाता है और एक वर मांगा जाता है।मैंने कदली फ़ल का जीवन भर के लिए त्याग किया व भगवान की अचल भक्ति की प्रार्थना की। बार बार बर मांगउं हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग॥
🌻🙏🌻
हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही वरदान दीजिए कि मुझे आपके चरणकमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो।मैं बार-बार आपसे यही वरदान मांगता हूँ॥ 🌻🙏🌻

पितृ (पितर ) प्रार्थना मंत्र;
पितृभ्य:स्वधायिभ्य:स्वधा नम:।पितामहेभ्य:स्वधायिभ्य:स्वधा नम:।प्रपितामहेभ्य:स्वधायिभ्य:स्वधा नम:।
सर्व पितृभ्यो श्र्द्ध्या नमो नम:॥
🌻🙏🌻
ॐ नमो व :पितरो रसाय नमो व:पितर: शोषाय नमो। व:पितरो जीवाय नमो व:पीतर: स्वधायै नमो।
व:पितर: पितरो नमो वोगृहान्न: पितरो दत्त:सत्तो व:॥
🌻🙏🌻
तर्पण विधि;
पितृ पक्ष में हर दिन पितरों के लिए तर्पण करना चाहिए। तर्पण के समय सबसे पहले देवों के लिए तर्पण करते हैं। तर्पण के लिए आपको कुश,अक्षत्,जौ और काला तिल का उपयोग करना चाहिए।
तर्पण करने के बाद पितरों से प्रार्थना करनी चाहिए ताकि वे संतुष्ट हों और आपको आशीर्वाद दें।
*देवताओं के लिए आप पूर्व दिशा में मुख करके कुश लेकर अक्षत् से तर्पण करें।
**इसके बाद जौ और कुश लेकर ऋषियों के लिए तर्पण करें।
***फिर उत्तर दिशा में अपना मुख कर लें. जौ और कुश से मानव तर्पण करें।
**** अंत में दक्षिण दिशा में मुख कर लें और काले तिल व कुश से पितरों का तर्पण करें॥
🌻🙏🌻
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विनयावनत ;दिगम्बर ध्यानी

विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

२- बोधगया :-
बोधगया बिहार राज्य के गया ज़िले में स्थित एक नगर है।इसका गहरा ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व है।यहाँ ‘महात्मा बुद्ध’ ने ‘बोधि वृक्ष’ के तले निर्वाण प्राप्त करा था।बोधगया राष्ट्रीय राजमार्ग NH-83 पर स्थित है।
महाबोधि मन्दिर:-
बुद्ध के ज्ञान की यह भूमि आज बौद्धों के सबसे बड़े तीर्थस्‍थल के रूप में प्रसिद्ध है।आज विश्‍व के हर धर्म के लोग यहां घूमने आते हैं।”बुद्धम्-शरनम्-गच्‍छामि” की हल्‍की ध्‍वनि अनोखी शांति प्रदान करती है।मंदिर को यूनेस्‍को ने २००२ में वर्ल्‍ड हेरिटेज साइट घोषित किया था।बुद्ध के ज्ञान प्रप्ति के २५० साल बाद राजा अशोक बोध्गया गए। माना जाता है कि उन्होंने महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराया।कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पह्ली शताब्दी में इस मन्दिर का निर्माण कराया गया या उस्की मरम्मत कराई गई।हिन्दुस्तान में बौद्ध धर्म के पतन के साथ साथ इस मन्दिर को लोग भूल गए थे और ये मन्दिर धूल और मिट्टी में दब गया था। १९वीं सदी में Sir Alexander Cunningham ने इस मन्दिर की मरम्मत कराई। १८८३ में उन्होंने इस जगह की खुदाई की और काफी मरम्मत के बाद बोधगया को अपने पुराने शानदार अवस्था में लाया गया।धर्मपत्नी के साथ यहाँ बौद्ध बृक्ष,भगवान बुद्ध की मनोहारी प्रतिमा के दर्शन किये।महाबोधि मंदिर बोधगया में महात्मा बुद्ध की महान प्रतिमा है।यह मंदिर मुख्‍य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।इस मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्‍थापित स्‍तूप के समान हे।इस मंदिर में बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूर्त्ति स्‍थापित है।यह मूर्त्ति पदमासन की मुद्रा में है।यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूर्त्ति उसी जगह स्‍थापित है जहां बुद्ध को ज्ञान निर्वाण (ज्ञान) प्राप्‍त हुआ था।मंदिर के चारों ओर पत्‍थर की नक्‍काशीदार रेलिंग बनी हुई है।ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्‍त सबसे पुराना अवशेष है। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रा‍कृतिक दृश्‍यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्‍यान साधना करते हैं।आम लोग इस पार्क में मंदिर प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं।इस मंदिर परिसर में उन सात स्‍थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्‍ताह व्‍यतीत किया था।जातक कथाओं में उल्‍लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है।यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्‍य मंदिर के पीछे स्थित है।कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्‍त हुआ था।वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है।मंदिर समूह में सुबह के समय घण्‍टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है।
मुख्‍य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्‍थर की ७ फीट ऊंची एक मूर्त्ति है।यह मूर्त्ति विजरासन मुद्रा में है। इस मूर्त्ति के चारों ओर विभिन्‍न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्‍ट आकर्षण प्रदान करते हैं।कहा जाता है कि तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व में इसी स्‍थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्‍वी का नाभि केंद्र कहा था।इस मूर्त्ति की आगे भूरे बलुए पत्‍थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्‍ह बने हुए हैं।बुद्ध के इन पदचिन्‍हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है।बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्‍ताह ‘बोधि वृक्ष’ के आगे खड़ा अवस्‍था में बिताया था।यहां पर बुद्ध की इस अवस्‍था में एक मूर्त्ति बनी हुई है।इस मूर्त्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है।मुख्‍य मंदिर के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्‍य बना हुआ है।
मुख्‍य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है।इसी स्‍थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्‍ताह व्‍यतीत किया था।अब यहां पर काले पत्‍थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है।महाबोधि मंदिर के पश्चिमोत्तर भाग में एक छतविहीन भग्‍नावशेष है जो रत्‍नाघारा के नाम से जाना जाता है।इसी स्‍थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्‍ताह व्‍यतीत किया था। दन्‍तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्‍यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्‍हीं रंगों का उपयोग विभिन्‍न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है।माना जाता है कि बुद्ध ने मुख्‍य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्‍ताह व्‍य‍तीत किया था।बुद्ध ने छठा सप्‍ताह महाबोधि मंदिर के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्‍यतीत किया था।यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है।इस क्षील के मध्‍य में बुद्ध की मूर्त्ति स्‍थापित है। इस मूर्त्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है।इस मूर्त्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है।इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्‍लीन थे कि उन्‍हें आंधी आने का ध्‍यान नहीं रहा।बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की।
इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृ‍क्ष है।बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना सांतवा सप्‍ताह इसी वृक्ष के नीचे व्‍यतीत किया था।यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्‍या‍पारियों से मिले थे।इन व्‍यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। इन प्रार्थना के रूप में ‘बुद्धमं शरणम गच्‍छामि!’ (मैं अपने को भगवान बुद्ध को सौंपता हूँ।) का उच्‍चारण किया। इसी के बाद से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई।🌹🙏🌹

गुज़रात के धार्मिक स्थानों की यात्राएं;

१- सोमनाथ मन्दिर:-

अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम्।
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्॥
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ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिंम् पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ॥
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॥जय सोमनाथ महादेव॥
॥श्री महारुद्राय सोमेश्वराय ज्योतिर्लिंगाय नम:॥ श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर भारत के बारह (१२) आदि ज्योतिर्लिंगों में से सबसे प्रथम है।सोमनाथ मे सोम का अर्थ है चंद्र देव (चंद्रमा),तथा नाथ का अर्थ भगवान है।बड़ी बहू शालिनी एवँ पौत्र विहान के साथ बाबा सोमनाथ के दर्शनों करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में पुराणों यह कथा वर्णित है:-
सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था।वह भगवान्‌ शिव का अनन्य भक्त था।वह निरन्तर उनकी आराधना,पूजन और ध्यान में तल्लीन रहता था।अपने सारे कार्य वह भगवान्‌ शिव को अर्पित करके करता था।मन,वचन,कर्म से वह पूर्णतः शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्व रहता था उसे भगवान्‌ शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी।वह निरन्तर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि उस सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुँचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था। उस दुष्ट राक्षस दारुक ने यह उपयुक्त अवसर देखकर नौका पर आक्रमण कर दिया।उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया।सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्यनियम के अनुसार भगवान्‌ शिव की पूजा-आराधना करने लगा।अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा।दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस कारागर में आ पहुँचा। सुप्रिय उस समय भगवान्‌ शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आँखें बंद किए बैठा था।उस राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देखकर अत्यन्त भीषण स्वर में उसे डाँटते हुए कहा:- ‘अरे दुष्ट वैश्य! तू आँखें बंद कर इस समय यहाँ कौन:- से उपद्रव और षड्यन्त्र करने की बातें सोच रहा है?’ उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिवभक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह दारुक राक्षस क्रोध से एकदम पागल हो उठा।उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया।सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ।वह एकाग्र मन से अपनी और अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान्‌ शिव से प्रार्थना करने लगा।उसे यह पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान्‌ शिवजी इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएँगे।उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शंकरजी तत्क्षण उस कारागार में एक ऊँचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए।उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत-अस्त्र भी प्रदान किया।इस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायक का वध करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया। भगवान्‌ शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बंदरगाह में स्थित इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था,जिसका उल्लेख ऋग्वेद में स्पष्ट है।इसका धार्मिक महत्व इस प्रकार है कि।’सोम’ नाम चंद्र का है,जो दक्ष के दामाद थे।एक बार उन्होंने दक्ष की आज्ञा की अवहेलना की,जिससे कुपित होकर दक्ष ने उन्हें श्राप दिया कि उनका प्रकाश दिन-प्रतिदिन धूमिल होता जाएगा।जब अन्य देवताओं ने दक्ष से उनका श्राप वापस लेने की बात कही तो उन्होंने कहा कि सरस्वती के मुहाने पर समुद्र में स्नान करने से श्राप के प्रकोप को रोका जा सकता है।सोम ने सरस्वती के मुहाने पर स्थित अरब सागर में स्नान करके भगवान शिव की आराधना की।प्रभु शिव यहां पर अवतरित हुए और उनका उद्धार किया व सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने ८ मई १९५० को मंदिर की आधारशिला रखी तथा ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित किया।नवीन सोमनाथ मंदिर १९६२ में पूर्ण निर्मित हो गया। १९७० में जामनगर की राजमाता ने अपने पति की स्मृति में उनके नाम से ‘दिग्विजय द्वार’ बनवाया।इस द्वार के पास राजमार्ग है और पूर्व गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा है।सोमनाथ मंदिर निर्माण में पटेल का बड़ा योगदान रहा।गुजरात प्रांत के काठियावाड़ क्षेत्र में समुद्र के किनारे सोमनाथ नामक विश्वप्रसिद्ध मंदिर में यह ज्योतिर्लिंग स्थापित है।पहले यह क्षेत्र प्रभासक्षेत्र के नाम से जाना जाता था।यहीं प्रभासक्षेत्र में भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जरा नामक व्याध के बाण को निमित्त बनाकर (भालका तीर्थ में) अपनी लीला का संवरण किया था।अपनी धर्मपत्नी जी के साथ श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

॥कैलाश के निवासी…॥
कैलाश के निवासी नमों बार-बार हूँ,
आयो शरण तिहारी,भोले तारो-तारो तुम।
कैलाश के निवासी…॥
भक्तों को कभी तूने शिव निराश न किया,
माँगा जिन्होंने जो भी बरदान दे दिया,
बड़ा ही तेरा दायजा,बड़े दातार तुम,
आयो शरण तिहारी,भोले तारो तारो तुम।
बखान क्या करूँ मैं राखों के ढेर का,
तपती भभूत में है,खजाना कुबेर का,
है गङ्गाधर,मुक्तिद्वार,ॐकार तुम,
आयो शरण तुम्हारी,भोले तारो-तारो तुम।
क्या-क्या नहीं दिया हमें,हम क्या प्रमाण दें,
बस गये हैं त्रिलोक,शंभू तेरे दान से,
ज़हर पिया,जीवन दिया,कितने उदार तुम,
आयो शरण तिहारी भोले तारो-तारो तुम।
तेरी कृपा बिना न हिले,एक भी अणु,
लेते हैं श्वास तेरी दया से तनू-तनू,
कहे दास एक बार,मुझको निहारो तुम,
आयो शरण तिहारी,भोले तारो-तारो तुम।
कैलाश के निवासी नमों बार-बार हूँ, आयो शरण तिहारी,भोले तारो-तारो तुम।
कैलाश के निवासी…॥
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॥ॐ नमः शिवाय॥
दिगम्बर
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२- भालका तीर्थ:- भालका तीर्थ गुजरात के सौराष्ट्र के प्रभास क्षेत्र में वेरावल नगर में स्थित है।सोमनाथ मंदिर से लगभग ५ किलोमीटर दूर स्थित इस तीर्थस्थान के बारे में मान्यता है कि यहाँ पर विश्राम करते समय ही भगवान श्री कृष्ण को जर नामक शिकारी ने गलती से तीर मारा था,जिसके पश्चात् उन्होनें पृथ्वी पर अपनी लीला समाप्त करते हुए निजधाम प्रस्थान किया।यहाँ पर स्थित हिरण नदी के किनारे पहुंचे।हिरण नदी सोमनाथ से महज डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है।कहा जाता है कि उसी जगह पर भगवान पंचतत्व में ही विलीन हो गए।श्री सोमनाथ ट्रस्ट द्वारा प्रबंधित इस स्थान को एक भव्य तीर्थ एवं पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना पर कार्य चल रहा है।अपनी धर्मपत्नी जी,बड़ी बहू शालिनी एवँ पौत्र विहान के साथ श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

३- नागेश्वर मन्दिर :- नागेश्वर मन्दिर एक प्रसिद्द मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह द्वारका,गुजरात के बाहरी क्षेत्र में स्थित है।यह शिव जी के बारह (१२) ज्योतिर्लिंगों में से एक है।हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है।यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है।रुद्र संहिता में इन भगवान को दारुकावने नागेशं कहा गया है।भगवान्‌ शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग १७ मील की दूरी पर स्थित है।इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है।कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान्‌ शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा।अपनी धर्मपत्नी जी के साथ श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

४-हरसिद्धि माता मन्दिर:-
हरसिद्धि देवी का एक मंदिर द्वारका (सौराष्ट्र) में भी है।दोनों स्थानों (उज्जयिनी तथा द्वारका) पर देवी की मूर्तियाँ एक जैसी हैं।हरसिद्धि मंदिर में उज्जैन के राजा रहे विक्रमादित्य की आराध्य देवी का वास इनकी कृपा से शहर में कोई भूखा नहीं सोता।किसी के पास पैसे की तंगी नहीं रहती है शिवपुराण के अनुसार दक्ष प्रजापति के हवन कुंड में माता के सती हो जाने के बाद भगवान भोलेनाथ सती को उठाकर ब्रह्मांड में ले गए थे।इस दौरान माता सती के अंग जिन स्थानों पर गिरे,वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गए।कहा जाता है इस स्थान पर माता के ‘दाहिने हाथ की कोहनी’ गिरी थी और इसी कारण से यह स्थान भी एक शक्तिपीठ बन गया है।धर्मपत्नी श्रीमती मीना,बड़ी बहू शालिनी एवँ पौत्र विहान के साथ माँ के दर्शन किये।

५- द्वारिकाधीश मंदिर:-
द्वारिकाधीश मंदिर भारत के गुजरात के द्वारका में स्थित है।आदि गुरु शंकराचार्य के अनुसार ‘द्वारका’ को ‘शारदा मठ’ का नाम दिया गया है।शारदा मठ के अंतर्गत दीक्षा प्राप्त करने वाले सन्यासियों के नाम के पीछे तीर्थ या आश्रम नाम विशेषण लगाया जाता है।इस मठ का महावाक्य है ‘तत्त्वमसि’ तथा इसके अंतर्गत आने वाला वेद सामवेद को रखा गया है।शारदा मठ के प्रथम मठाधीश हस्तामलक जी (पृथ्वीधर) थे।हस्तामलक जी आदि शंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे।बहत्तर (७२) स्तंभों द्वारा समर्थित पाँच मंजिला इमारत का मुख्य मंदिर,जगत मंदिर या निज मंदिर के रूप में जाना जाता है,पुरातात्विक निष्कर्ष यह बताते हैं कि यह २२००-२५००साल पुराना है।१५वीं -१६वीं शताब्दी में मंदिर का विस्तार किया गया। द्वारकाधीश मंदिर एक पुष्टिमार्ग मंदिर है,इसलिए यह वल्लभाचार्य और विठ्लेसनाथ द्वारा बनाए गए दिशानिर्देशों और अनुष्ठानों का पालन करता है।परंपरानुसार,मूल मंदिर का निर्माण कृष्ण के पड पोते वज्रनाभ ने हरि-गृह (भगवान कृष्ण के आवासीय स्थान) पर किया था।मंदिर भारत में हिंदुओं द्वारा पवित्र माने जाने वाले चार धाम तीर्थ का हिस्सा बन गया,८वीं शताब्दी के हिंदू धर्मशास्त्री और दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने मंदिर का दौरा किया।अन्य तीन में रामेश्वरम,बद्रीनाथ और पुरी शामिल हैं।आज भी मंदिर के भीतर एक स्मारक उनकी यात्रा को समर्पित है। द्वारकाधीश उपमहाद्वीप में विष्णु के ९८वें दिव्य देशम हैं,जो दिव्य प्रभा पवित्र ग्रंथों में महिमा मंडित करते हैं।
मंदिर के ऊपर का ध्वज सूर्य और चंद्रमा को दर्शाता है,जो माना जाता है कि यह दर्शाता है कि कृष्ण तब तक रहेंगे जब तक सूर्य और चंद्रमा पृथ्वी पर मौजूद रहेंगे।ध्वज को दिन में पाँच बार से बदल दिया जाता है,लेकिन प्रतीक समान रहता है।मंदिर में पचहत्तर स्तंभों पर निर्मित पांच मंजिला संरचना है।मंदिर का शिखर ७८.३मीटर ऊंचा है।मंदिर का निर्माण चूना पत्थर से हुआ है जो अभी भी प्राचीन स्थिति में है।मंदिर में क्षेत्र पर शासन करने वाले राजवंशों के उत्तराधिकारियों द्वारा की गई जटिल मूर्तिकला का विस्तार दिखाया गया है। इन कार्यों से संरचना का अधिक विस्तार नहीं हुआ।मंदिर में दो प्रवेश द्वार हैं।मुख्य प्रवेश द्वार (उत्तर प्रवेश द्वार) को “मोक्ष द्वार” कहा जाता है। यह प्रवेश द्वार एक को मुख्य बाजार में ले जाता है।दक्षिण प्रवेश द्वार को “स्वर्ग द्वार” कहा जाता है।इस द्वार के बाहर ५६ सीढ़ियाँ हैं जो गोमती नदी की ओर जाती हैं।मंदिर सुबह ६ बजे से दोपहर १ बजे तक और शाम ५ बजे से रात ९:३० बजे तक खुला रहता है।कृष्णजन्माष्टमी त्योहार,या गोकुलाष्टमी,कृष्ण का जन्मदिन वल्बा (१४७३-१५३१)द्वारा शुरू किया गया था।भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं में एक लीला है ‘तुलादान लीला’ जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने तुलसी के महत्व को बताया है।इस लीला से प्रेरित होकर भगवान द्वारकाधीश मंदिर के साथ ही एक अन्य मंदिर का निर्माण किया गया है जिसे तुलादान मंदिर के नाम से जाना जाता है।इस मंदिर का नाम तुलादान मंदिर इसलिए है क्योंकि मान्यताओं के अनुसार यही वह स्थान है जहां पर स्त्यभामाजी ने श्रीकृष्ण का तुलादान किया था।यहां मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण के ठीक सामने एक बड़ा सा तुला यानी तराजू रखा हुआ है जिस पर तुलादान किया जाता है।धर्मपत्नी श्रीमती मीना,बड़ी बहू शालिनी एवँ पौत्र विहान के साथ द्वारिकाधीश के दर्शन किये।पौत्र विहान का तुलादान भी विधिवत सम्पन्न करवाया।इस अवसर पर विहान के नानी-नानाजी भी मौजूद थे।

६- रुक्मिणी माई मन्दिर:-
द्वारका के द्वारकाधीश मंदिर से २ किलोमीटर की दूरी पर रुक्मिणी का यह मंदिर स्थित है।आपको जानकर आश्चर्य होगा कि यह मंदिर द्वारका की सीमा में ना होते हुए नगर के बिलकुल बाहर बना हुआ है।हो सकता है कि प्राचीनकाल में यहाँ जंगल रहा हो। द्वारकाधीश के मुख्य मंदिर का समकालीन यह मंदिर अनुमानतः १२ वीं. शताब्दी में बनवाया गया है। वर्तमान में यहाँ केवल यह एक मंदिर है व समीप ही एक छोटा जल स्त्रोत है। मैंने इस जल स्त्रोत में कई पक्षी देखे जो इस मंदिर का साथ निभाते प्रतीत हो रहे थे।
रुक्मिणी मंदिर के शीर्ष पर एक ऊंचा शिखर है जिस पर प्राचीन नक्काशियां अब भी स्पष्ट देखी जा सकती हैं। शिखर के सम्पूर्ण सतह पर कई मदनिकाएं अर्थात् रूपवती स्त्रियों की नक्काशी है।वहीं मंदिर का आधार उल्टे कमल पुष्प के आकार का है। इस पुष्प के ऊपर हाथियों की कतार है जिन के ऊपर बने आलों के भीतर विष्णु की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। आप समझ गए होंगे कि मैं अपने सम्मुख नागर पद्धति के वास्तुशिल्प का अभूतपूर्व चित्रण देख रही थी।शिखर के ऊपर फहराता चटक केसरिया ध्वज इस मंदिर की सुन्दरता को और बढ़ा रहा था।मित्रों हम दोनों को रुक्मिणी देवी के मंदिर में दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।रुक्मिणी मंदिर में प्रवेश करते से ही वहां के पंडित आप को रोक कर सर्वप्रथम रुक्मिणी की कथा सुनायेंगे।तत्पश्चात छोटे छोटे जत्थों में आपको मुख्य मंदिर के भीतर प्रवेश की अनुमति देंगे।मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही रुक्मिणीजी की मनमोहक छवि आपका मन मोह लेगी।मंदिर की भीतरी भित्तियों पर भी उनसे जुड़े अनेक प्रसंगों को सुन्दरता से चित्रित किया गया है।इनसे आप अनुमान लगा सकते हैं कि जनमानस में उनकी कितनी महत्ता है।
रुक्मिणी देवी मंदिर परिसर में एक और मंदिर भी है जो कि अम्बा देवी को समर्पित था।’अम्बा देवी’ श्रीकृष्ण जी की कुलदेवी थी।कहा जाता है कि यादवों के कुलगुरु, ऋषी दुर्वासा का आश्रम द्वारका से कुछ दूरी पर, पिंडारा नामक स्थान में था। एक बार श्रीकृष्ण व रुक्मिणी के मन में उनका अतिथी सत्कार करने की इच्छा उत्पन्न हुई। वे दोनों अपने रथ में सवार होकर ऋषी को निमंत्रण देने उनके आश्रम पहुंचे। ऋषि दुर्वासा का चिड़चिड़ा स्वभाव तथा त्वरित क्रोध किसी के छुपा नहीं है। दुर्वासा ऋषि ने कृष्ण रुक्मिणी का आमंत्रण स्वीकार तो किया किन्तु एक शर्त भी रख दी। शर्त थी कि उन्हें ले जाने वाले रथ को न तो घोड़े हांकेंगे ना ही कोई अन्य जानवर। बल्कि रथ को केवल कृष्ण व रुक्मिणी हांकेंगे।कृष्ण व रुक्मिणी ने उनकी मांग सहर्ष स्वीकार कर ली।चूंकि रुक्मिणी एक रानी थी,इन्हें रथ हांकने का कोई अनुभव नहीं था।कुछ समय पश्चात वे थक गयीं व प्यास से उनका कंठ सूखने लगा।उन्होंने कातर दृष्टी से कृष्ण की ओर देखा।स्थिति को भांप कर कृष्ण ने शीघ्र अपने दाहिने चरण का अंगूठा धरती पर दबाया।और वहीं गंगा नदी प्रकट हो गयीं।यहाँ रुक्मिणी से एक बड़ी भूल हो गयी।तृष्णा से वशीभूत रुक्मिणी दुर्वासा मुनि से जल ग्रहण का आग्रह करना भूल गयी तथा उनसे पूर्व,स्वयं ही जल ग्रहण कर लिया।यह देख दुर्वासा मुनि कुपित हो गए।उन्होंने तुरंत ही कृष्ण व रुक्मिणी को विछोह का श्राप दे डाला।यही कारण है कि रुक्मिणी का मंदिर कृष्ण मंदिर से दूर बनाया गया है।मानो वे अब भी दुर्वास मुनि के श्राप को जी रहे हों।स्थानीय लोगों का कहना है कि कृष्ण व रुक्मिणी को श्राप देकर भी दुर्वासा मुनि का क्रोध शांत नहीं हुआ।उन्होंने द्वारका नगरी को भी बंजर हो जाने का श्राप दे दिया।उनके श्राप का प्रभाव आज भी यहाँ देखा जा सकता है।द्वारका के आसपास की धरती सूखी व बंजर है जिस पर कुछ उगता नहीं।स्थानीय लोग नमक बना कर अपना जीवन यापन करते हैं। १८ अक्टूबर २०१८ को धर्मपत्नी श्रीमती मीना ध्यानी जी साथ दर्शन किये।मित्रों राधा और रुक्मिणी दोनों एक ही।रुक्मिणी को राधा का अध्यात्मिक अवतार माना गया है।भज मन श्री राधे गोपाल॥श्रीराधे श्याम॥॥जय राधा माधव॥

७- श्री बेट द्वारकाधीश मंदिर:-
श्री बेट द्वारकाधीश मंदिर,द्वारका द्वीप पर भगवान कृष्ण के निवास स्थान पर ही है,मंदिर में श्री कृष्ण की मूल मूर्ति उनकी पत्नी देवी रुक्मानी द्वारा स्थापित की गई है।मंदिर की वर्तमान संरचना ५०० वर्ष पहले श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित की गई है।यह भी माना जाता है कि,श्री कृष्ण और उनके मित्र सुदामा इस जगह पर ही मिले थे और उन्होंने श्री कृष्ण को उपहार स्वरूप चावल भेंट किए।अतः अपनी द्वारका धाम यात्रा के दौरान, भक्तों द्वारा ब्राह्मणों को चावल दान करने की महिमा है।
बेट द्वारका को भारतीय महाकाव्य महाभारत और स्कंद पुराण में प्राचीन शहर माना गया है।बेट द्वारका को शंखोद्धार भी कहा जाता है।यहाँ भगवान विष्णु ने राक्षस शंखासुर को संहार किया था।शंखोद्धार नाम के पीछे का दूसरा विचार इस द्वीप पर पाए जाने वाले शंख के बड़े स्रोतों के कारण भी है।

असम के धार्मिक स्थलों की यात्राएं:-

१- माँ कामाख्या मंदिर असम :-

कामाख्ये वरदे देवी नील पर्वत वासिनी।
त्वं देवी जगत माता योनिमुद्रे नमोस्तुते।।माँ कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से ८ किलोमीटर दूर।है।कामाख्या से भी १० किलोमीटर दूर नीलाचल पव॑त पर स्थित है।यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है।यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है व इसका महत् तांत्रिक महत्व है।प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है।पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से ६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। १९७९ में माँ कामाख्या के दर्शन करने का परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ।यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है।दर्शन किये।देश भर मे अनेकों सिद्ध स्थान है जहाँ माता सुक्ष्म स्वरूप मे निवास करती है प्रमुख महाशक्तिपीठों मे माता कामाख्या का यह मंदिर सुशोभित है हिंगलाज की भवानी,कांगड़ा की ज्वालामुखी (दर्शन किये),सहारनपुर की शाकम्भरी देवी(दर्शन किये),विन्ध्याचल की विन्ध्यावासिनी देवी आदि महान शक्तिपीठ श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र एवं तंत्र- मंत्र, योग-साधना के सिद्ध स्थान है।यहाँ मान्यता है,कि जो भी बाहर से आये भक्तगण जीवन में तीन बार दर्शन कर लेते हैं उनके सांसारिक भव बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
या देवी सर्व भूतेषू मातृ रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान माँ भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है।यह अपने आप में, इस कलिकाल में एक अद्भुत आश्चर्य का विलक्षण नजारा है।
कहतें हैं कि ‘अम्बूवाची योग पर्व’ के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है।इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे विश्व से इस पर्व में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना हेतु सभी प्रकार की सिद्धियाँ एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटियों के तांत्रिकों-मांत्रिकों,अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है।तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है।मित्रों! जब मैं सशस्त्र सीमा बल में सेवारत था तब एक आईपीएस महिला IG जो असम की रहने वाली थीं ने मुझे मेरी भक्ति देखकर अपने पर्स से माँ भगवती कामाख्या के रजस्वला के रक्त रंजित वस्त्र का चीर भेंट किया था। योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा।
रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥
शरणागतदिनार्त परित्राण परायणे ।
सर्वस्याति हरे देवि नारायणि नमोस्तु ते॥
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या देवी सर्वभूतेषु बुध्दिरुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
या देवी सर्वभूतेषु मातृरुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
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दिगम्बर ध्यानी

जम्मू कश्मीर की धार्मिक यात्राएँ:-

१-श्री शंकचार्य मन्दिर,श्रीनगर:- डल झील किनारे गोपाद्री पर्वत के शिखर पर भगवान शंकर का मंदिर है।मंदिर को राजा संधिमान ने २६०५ ईसा पूर्व में बनाया था।मंंदिर को जेष्ठस्वर और गोपाद्री पर्वत को संधिमान पर्वत पुकारा जाने लगा।आदि शंकराचार्य ने जेष्ठस्वर मंदिर के प्रांगण में डेरा डाल शिव की साधना की।उनके ज्ञान व साधना से प्रभावित होकर कश्मीरी विद्वानों,संत-महात्माओं ने सम्मान स्वरूप संधिमान पर्वत और मंदिर का नामकरण शंकराचार्य पर्वत और “शंकराचार्य मंदिर” कर दिया। यह मंदिर समुद्र तल से ११००फीट की ऊंचाई पर स्थित है।शंकराचार्य मंदिर को तख़्त-ए-सुलेमन के नाम से भी जाना जाता है।यह मंदिर कश्मीर स्थित सबसे पुराने मंदिरों में से एक है।डोगरा शासक महाराजा गुलाब सिंह ने मंदिर तक पँहुचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई थी।इस मंदिर की वास्तुकला भी काफ़ी ख़ूबसूरत है।शिव का यह मंदिर क़रीब दो सौ साल पुराना है।जगदगुरु शंकराचार्य अपनी भारत यात्रा के दौरान यहाँ आये थे।उनका साधना स्थल आज भी यहाँ बना हुआ है।लेकिन ऊँचाई पर होने के कारण यहाँ से श्रीनगर और डल झील का बेहद ख़ूबसूरत नज़ारा दिखाई देता है।भारत सरकार की सेवा में रहते यहाँ सुरक्षा ड्यूटी के दौरान ही सन २००२ में श्री शंकचार्य मन्दिर में भोलेनाथ के बृहदाकार शिवलिंग के दर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ।

२-श्री रघुनाथ मन्दिर जम्मू:-राम नाम का तीन बार उच्चारण हजारों देवताओं को स्मरण करने के समान है।महाभारत में वर्णित है कि एक बार भगवान शिव ने कहा था कि ‘राम का नाम तीन बार उच्चारण करने से हजार देवताओं के नामों का उच्चारण करने के बराबर फल की प्राप्ति होती है।’ मान्यतानुसार भगवान शिव भी ध्यानावस्था में भगवान ‘राम’ के नाम का ही उच्चारण करते हैं।भगवान राम को मानव रूप में पूजे जाने वाले सबसे पुराने देवता के रूप में जाना जाता है,क्योंकि भगवान राम का जन्म त्रेता युग में हुआ था और ऐसा माना जाता है कि त्रेता युग की समाप्ति आज से करीब ‘बारह लाख छियानबे हज़ार साल’ पहले हो चुकी है।रघुनाथ मंदिर जम्मू और कश्मीर राज्य के जम्मू शहर के मध्य में स्थित है।यह मन्दिर आकर्षक कलात्मकता का विशिष्ट उदाहरण है।रघुनाथ मंदिर भगवान राम को समर्पित है।यह मंदिर उत्तर भारत के सबसे प्रमुख एवं अनोखे मंदिरों में से एक है।इस मंदिर को सन् १८३५ में इसे महाराज गुलाब सिंह ने बनवाना शुरू किया पर निर्माण की समाप्ति राजा रणजीत सिंह के काल में हुई।
मंदिर के भीतर की दीवारों पर तीन तरफ से सोने की परत चढ़ी हुई है।इसके अलावा मंदिर के चारों ओर कई मंदिर स्थित है जिनका सम्बन्ध रामायण काल के देवी-देवताओं से हैं।रघुनाथ मन्दिर में की गई नक़्क़ाशी को देख कर पर्यटक एक अद्भुत सम्मोहन में बंध कर मन्त्र-मुग्ध से हो जाते हैं।। ॥श्री राम स्तुति: श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन॥
॥दोहा॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमनहरण भवभय दारुणं।
नव कंज लोचन कंज मुखकर कंज पद कंजारुणं॥१॥
कन्दर्प अगणित अमित छविनव नील नीरद सुन्दरं।
पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचिनोमि जनक सुतावरं॥२॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानवदैत्य वंश निकन्दनं।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशलचन्द दशरथ नन्दनं॥३॥
शिर मुकुट कुंडल तिलकचारु उदारु अङ्ग विभूषणं।
आजानु भुज शर चाप धरसंग्राम जित खरदूषणं॥४॥
इति वदति तुलसीदास शंकरशेष मुनि मन रंजनं।
मम् हृदय कंज निवास कुरुकामादि खलदल गंजनं॥५॥
मन जाहि राच्यो मिलहि सोवर सहज सुन्दर सांवरो। करुणा निधान सुजान शीलस्नेह जानत रावरो॥६॥
एहि भांति गौरी असीस सुन सियसहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहि पूजी पुनि-पुनिमुदित मन मन्दिर चली॥७॥
॥सोरठा॥
जानी गौरी अनुकूल सियहिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल वामअङ्ग फरकन लगे॥
(रचयिता: गोस्वामी तुलसीदास)
मित्रों!श्री राम नवमी,विजय दशमी, सुंदरकांड,रामचरितमानस कथा,श्री हनुमान जन्मोत्सव और अखंड रामायण के पाठ में प्रमुखता से वाचन किया जाने वाली प्रमुख राम स्तुति है यह। ॥जयश्रीराम॥ ॥ॐ श्री गुरुभ्यो नमः॥विनयावनत;दिगम्बर
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३-वैष्णो देवी मंदिर:- वैष्णो देवी मंदिर,हिन्दू मान्यतानुसार,शक्ति को समर्पित पवित्रतम हिंदू मंदिरों में से एक है,जो भारत के जम्मू और कश्मीर में वैष्णो देवी की पहाड़ी पर स्थित है।इस धार्मिक स्थल की आराध्य देवी,वैष्णो देवी को सामान्यतः माता रानी और वैष्णवी के नाम से भी जाना जाता है।
यह मंदिर,जम्मू और कश्मीर राज्य के जम्मू जिले में कटरा नगर के समीप अवस्थित है।यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है।मंदिर,५२०० फ़ीट की ऊंचाई पर,कटरा से लगभग बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।हर वर्ष,लाखों तीर्थ यात्री,इस मंदिर का दर्शन करते हैं।और यह भारत में तिरूमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला तीर्थस्थल है।इस मंदिर की देख-रेख श्री माता वैष्णो देवी तीर्थ मंडल नामक न्यास द्वारा की जाती है।यहाँ तक पहुँचने के लिए उधमपुर से कटरा तक एक रेल संपर्क को हालही में निर्मित किया गया है।माता वैष्णो देवी का स्थान हिंदुओं का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है,जहाँ सम्पूर्ण भारत और विश्वभर से लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं।

‘माँ’ पिंडियाँ दर्शन:क्या हैं पिंडियां?
दरअसल,जहां माता वैष्णव देवी का मंदिर है और पवित्र गुफा है,त्रिकुटा पर्वत कहा जाता है।त्रिकुटा पर्वत, नीचे से एक और ऊपर से तीन चोटियों वाला है,जिसके कारण उसे त्रिकूट भी कहा जाता है।पवित्र गुफा में एक प्राकृतिक शिला या चट्टान के रूप में है,उसमें ऊपर तीन चोटियां सिरों के रूप में हैं।एक चट्टान की ये तीन चोटियां पवित्र “पिंडियां” कही जाती हैं और देवी माता के प्रतीक स्वरूप पूजी जाती हैं।यहां प्रमुख दर्शन तीनों पवित्र पिण्डियों के ही हैं।
पिंडी के अलग-अलग हैं प्रतीक;
इनमें दायीं ओर माता महाकाली की पिंडी है,जो काले रंग की है।महाकाली के नाम के साथ ही काला रंग जुड़ा हुआ है।काला रंग अज्ञात को प्रस्तुत करता है जो ‘माता काली’ से सम्बद्ध है।अपने महाकाली के रूप में देवी माता अपने श्रद्धालुओं को लगातार अंधकार की शक्तियों से जीतने के लिए प्रेरित करती हैं और राह दिखाती हैं।वहीं,दूसरी पिंडी मध्य में माता ‘महालक्ष्मीजी’ की पीतांबर-हल्के लाल रंग की छवि वाली पवित्र पिंडी है।यह राजस गुण का प्रतिनिधित्व करती है। सोने का रंग भी पीला होता है और इसलिए यह रंग माता महालक्ष्मी से सम्बद्ध है।
वहीं बाईं ओर वाली पिंडी को माता ‘महासरस्वती’ के रूप में पूजा जाता है।माता महासरस्वती निर्माण की सर्वोच्च ऊर्जा है।ध्यानपूर्वक देखने पर यह पिण्डी श्वेत रंग की दिखाई पड़ती है. श्वेत रंग महासरस्वती से सम्बद्ध रंग माना जाता है।सृजन की सर्वोच्च ऊर्जा महासरस्वती है।माना जाता है कि पवित्र गुफा के भीतर शिला में बनी प्राकृतिक पिण्डियों के रूप में माता जी के दर्शन होते हैं।[मंदिर में कोई बुत,मूर्ति या चित्र नहीं है।सारे रास्ते में और भवन पर अनेक चित्र लगे हुए हैं जो गुफा के भीतर होने वाले दर्शन के रूप को समझाने के लिए लगाए गए हैं।]. bhaktipath.wordpress.com

दिल्ली के धार्मिक स्थानों की यात्रा:-

१-स्वामिनारायण अक्षरधाम मन्दिर:- देश की राजधानी नई दिल्ली में बना स्वामिनारायण अक्षरधाम मन्दिर एक अनोखा सांस्कृतिक तीर्थ है।इसे ज्योतिर्धर भगवान स्वामिनारायण की पुण्य स्मृति में बनवाया गया है।यह परिसर १०० एकड़ भूमि में फैला हुआ है।दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मन्दिर परिसर होने के नाते २६ दिसम्बर २००७ को यह गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिका‌र्ड्स में शामिल किया गया।मंदिर में रोजाना शाम को दर्शनीय फव्वारा शो का आयोजन किया जाता है।हमनें छोटे बेटे अनुराग एवं बहू के साथ फव्वारा शो को देखा।इस शो में जन्म-मृत्यु चक्र का उल्लेख किया जाता है।फव्वारे में कई कहानियों का बयां किया जाता है।यह मंदिर सोमवार को बंद रहता है।’अक्षरधाम मंदिर’ में २८७० सीढियां बनी हुई हैं।मंदिर में एक कुंड भी है,जिसमें भारत के महान गणितज्ञों की महानता को दर्शाया गया है।

॥उड़ीसा की धार्मिक यात्राएँ॥

१-श्री लिंगराज मंदिर;- भगवान त्रिभुवनेश्वर को समर्पित लिंगराज मंदिर भारत के ओडिशा प्रांत की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित है।यह भुवनेश्वर का मुख्य मन्दिर है तथा इस नगर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है।१३ अगस्त २०१७ को भगवान त्रिभुवनेश्वर के दर्शनार्थ अपनी धर्मपत्नि मीना,ज्येष्ठ पुत्र दीपक,बहुरानी शालिनी एवँ पौत्र विहान के सँग लिंगराज मंदिर में भगवान दर्शन का असवर प्राप्त हुआ।धार्मिक कथानुसार ‘लिट्टी’ तथा ‘वसा’ नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध देवी पार्वती ने यहीं पर किया था।संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी,तो शिवजी ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया।यहीं पर बिन्दुसागर सरोवर है तथा उसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मन्दिर है।सैकड़ों वर्षों से भुवनेश्वर यहीं पूर्वोत्तर भारत में शैवसम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र रहा है।कहा जाता हैं कि मध्ययुग में यहाँ सात हजार से अधिक मन्दिर और पूजास्थल थे,जिनमें से अब लगभग पाँच सौ ही शेष बचे हैं।

२-श्री जगन्नाथ पुरी:-

नीलाचलनिवासाय नित्याय परमात्मने।
बलभद्रसुभद्राभ्यां जगन्नाथाय ते नमः॥
जगदानन्दकन्दाय प्रणतार्तहराय च।
नीलाचलनिवासाय जगन्नाथाय ते नमः॥
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॥श्री जगन्नाथ प्रार्थना॥
रत्नाकरस्तव गृहं गृहिणी च पद्मा,
किं देयमस्ति भवते पुरुषोत्तमाय।
अभीर,वामनयनाहृतमानसाय,
दत्तं मनो यदुपते त्वरितं गृहाण॥
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भक्तानामभयप्रदो यदि भवेत् किन्तद्विचित्रं प्रभो
कीटोऽपि स्वजनस्य रक्षणविधावेकान्तमुद्वेजितः।
ये युष्मच्चरणारविन्दविमुखा स्वप्नेऽपि नालोचका- स्तेषामुद्धरण-क्षमो यदि भवेत् कारुण्यसिन्धुस्तदा॥
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अनाथस्य जगन्नाथ नाथस्त्वं मे न संशयः,
यस्य नाथो जगन्नाथस्तस्य दुःखं कथं प्रभो॥
या त्वरा द्रौपदीत्राणे या त्वरा गजमोक्षणे,
मय्यार्ते करुणामूर्ते सा त्वरा क्व गता हरे॥

द्वापर युग में महाभारत के युद्ध के ३६ साल बाद और द्वारिका नगरी के नष्ट हो जाने के बाद श्री कृष्ण जब हिरण्य नदी के किनारे विश्राम कर रहे थे तब जला नाम के पारधी ने उनके पैर पर बाण मार था और यही पर श्रीकृष्ण ने अपना देह त्याग किया था।सत्य,प्रेम,भक्ति और शक्ति के पुजारी श्रीकृष्ण जब अपने मानव शरीर को छोड़कर चले गए तब अर्जुन द्वारा श्री कृष्ण का अंतिम संस्कार किया गया।परंतु बहुत कोशिश के बाद भी श्री कृष्ण के शरीर का एक अंग (नाभि) नही जला।तब अर्जुन ने नाभि को समुद्र में विसर्जित कर दिया।कुछ समय बाद वह नाभि श्री कृष्ण के नीले रंग की एक मूर्ति में परिवर्तित हो गई और विस्वावस्थ नाम के आदिवासी को मिली।मूर्ति नीले रंग की होने के कारण विस्वावस्थ ने मूर्ति का नाम नीलमाधव रखा।विस्वावस्थ ने नीलमाधव की मूर्ति को पास के जंगल मे एक गुफा में छुपा दिया और बड़े भक्ति भाव से नीलमाधव की पूजा करने लगे।इस बात की खबर राजा इंद्रद्युम को लगी।मूर्ति के बारे में पता लगाने के लिए राजा इंद्रद्युम अपने विश्वासपात्र मंत्री विद्यापति जी को जंगल भेजते है।विद्यापति मूर्ति के बारे में जानने के लिए विस्वावस्थ के पास आते है।परंतु विद्यापति को विस्वावस्थ की पुत्री से प्रेम हो जाता है और वह विस्वावस्थ की पुत्री से विवाह कर लेते है।एक बार विद्यापति अपने ससुर विस्वावस्थ को मूर्ति के दर्शन कराने की विनती करता है।विद्यापति के बार बार विनती करने कारण एक बार विस्वावस्थ आपने दामाद को मना नही कर पाये।विस्वावस्थ विद्यापति आंखों पर पट्टी बांध कर उस गुफा में ले जाते है।परंतु विद्यापति भी बहुत चालक है, वह रास्ते मे सरसो के बीज गिरा देते है। कुछ दिनों के बाद वह बीज अंकुरित होते है तो गुफा का रास्ता साफ दिखाई देता है।गुफा के बारे में विद्यापति राजा इंद्रद्युम को बताते है। जब राजा इंद्रद्युम नीलमाधव के दर्शन करने के लिए गुफा में जाते है तो उन्हें वंहा पर नीलमाधव की मूर्ति नही मिलती है।नीलमाधव के दर्शन ना होने कारण राजा इंद्रद्युम बहुत निराश होकर अपने राज भवन में लौट जाते है और अपनी गलती का पश्चाताप अन्तरहृदय से करते है।एक रात जब राजा इंद्रद्युम सो रहे होते है तब स्वयं भगवान विष्णु उनके सपने में आते है और कहते है की.….’कुछ दिनों में समुद्र तट पर एक लकड़ी का लट्ठा तैरते हुए आएगा और उस पर शंख का चिह्न भी बना होगा,उसी लकड़ी के मूर्ति बनाकर मंदिर में स्थापित करने की बात कहते है।’ भगवान विष्णु के कहे अनुसार एक लकड़ी का लट्ठा समुद्र में तैरते हुए आया।राजा इंद्रद्युम फौरन अपने राज्य के महान शिल्पकारों की बुलाकर उस लकड़ी में से मूर्ति बनाने का कार्य देते है।परंतु लकड़ी के स्पर्श से ही शिल्पकारों के औजार टूट जाते थे।इस बात से राजा इंद्रद्युम काफी परेशान रहने लगे।फिर एक दिन देवताओ के शिल्पकार श्री विश्वकर्मा जी राजा इंद्रद्युम के राज्य में एक बुजुर्ग का वेश धारण कर आये। उन्होंने लकड़ी में से मूर्ति बनाने का कार्य एक शर्त के साथ करने की इच्छा रखी।शर्त के तहत वह मूर्तियो को एक बंद कक्ष २१ दिनों में बनाएंगे।राजा इंद्रद्युम ने उनकी शर्त को स्वीकार कर लिया।कुछ दिनों के बाद उस कमरे में से आवाज आनी बंद हो गई।इसलिए राजा इंद्रद्युम की पत्नी गुंडिचादेवी के कहने पर राजा ने समय के पहले ही कक्ष को खुलवा दिया।जब कक्ष खोला गया तब भगवान जगन्नाथजी,बहन सुभद्राजी और बड़े भाई बलरामजी की मूर्तिया थी।परंतु उनके हाथ और कमर के नीचे का भाग नही था और सभी की आंखे भी बहुत बड़ी-बड़ी बनी हुई थी।कुछ समय बार राजा इंद्रद्युम की मृत्यु हो जाती है. फिर राजा इंद्रद्युम का पुत्र ययाति केशरी एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाते है और मूर्तियो को मंदिर में स्थापित करवाते है।वर्तमान मंदिर का निर्माण कलिंक पुरी के राजा चोला गंगादेव ने प्राम्भ करवाया था…और अनंत महादेव द्वारा मंदिर का कार्य पूरा करवाया गया।उस समय जगन्नाथ मंदिर को नीलाद्रि के नाम से जाना जाता था।💓🙏💓

जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी भगवान जगन्नाथ की एक बेहद रहस्यमय कहानी प्रचलित है।जिसके अनुसार मंदिर में मौजूद भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्वयं ब्रह्मा विराजमान हैं।ब्रह्मा कृष्ण के नश्वर शरीर में विराजमान थे और जब कृष्ण की मृत्यु हुई तब पांडवों ने उनके शरीर का दाह-संस्कार कर दिया।लेकिन कृष्ण का दिल (पिंड) जलता ही रहा।ईश्वर के आदेशानुसार पिंड को पांडवों ने जल में प्रवाहित कर दिया।उस पिंड ने लट्ठे का रूप ले लिया।राजा इन्द्रद्युम्न,जो कि भगवान जगन्नाथ के भक्त थे, को यह लट्ठा मिला और उन्होंने इसे जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थापित कर दिया।उस दिन से लेकर आज तक वह लट्ठा भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर है।हर बारह वर्ष के अंतराल में भगवान जगन्नाथ की मूर्ति तो बदलती है लेकिन यह लट्ठा उसी में रहता है।
भगवान जगन्नाथ की एक बेहद रहस्यमय कहानी से जुड़ी सत्यता इससे भी प्रतीत होती है कि भगवान जगन्नाथ की यह मूर्ति हर बारह साल में एक बार बदलती तो है लेकिन लट्ठे को आज तक किसी ने नहीं देखा। मंदिर के पुजारी जो इस मूर्ति को बदलते हैं,उनका कहना है कि उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है।हाथों पर कपड़ा ढक दिया जाता है। भगवान जगन्नाथ की एक बेहद रहस्यमय लठ्ठे से जुड़ी उत्सुकता तब और बढ़ जाती है कि किसी को उस लठ्ठे को देखने नहीं दिया जाता है। इसलिए पुजारी भी ना तो उस लट्ठे को देख पाए हैं और सिर्फ छूकर महसूस कर पाए हैं।पुजारियों के अनुसार वह लट्ठा इतना मुलायम होता है मानो कोई खरगोश उनके हाथ में फुदक रहा है।पुजारियों का ऐसा मानना है कि अगर कोई व्यक्ति इस मूर्ति के भीतर छिपे ब्रह्मा को देख लेगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी।
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भगवान जगन्नाथ की एक बेहद रहस्यमय संसार की वजह से जिस दिन जगन्नाथ की मूर्ति बदली जानी होती है,उड़ीसा सरकार द्वारा पूरे शहर की बिजली बाधित कर दी जाती है।यह बात आज तक एक रहस्य ही है कि क्या वाकई भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में श्री कृष्ण का वास है।
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हम अपने को परम् सौभाग्यशाली समझते हैं कि हमनें श्री जगन्नाथपुरी में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन १४/१५ अगस्त २०२१ को (धर्मपत्नी,ज्येष्ठ पुत्र दीपक,बहुरानी शालिनी एवँ पोते विहान के साथ) भगवान जगन्नाथ स्वामी,सुभद्राकुमारी एवँ श्री बलरामजी के दर्शन किये।
॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥
पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है,जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है।यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है।जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है।इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है।इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है।मित्रों यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है,जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है।इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है।इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता,भगवान जगन्नाथ,उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों,तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं।श्री जगन्नथपुरी पहले नील माघव के नाम से पुजे जाते थे।जो भील सरदार विश्वासु के आराध्य देव थे।अब से लगभग हजारों वर्ष पुर्व भील सरदार विष्वासु नील पर्वत की गुफा के अंदर नील माघव जी की पूजा किया करते थे।मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है,एवं यात्रा निकाली जाती है।जगन्नाथपुरी मंदिर से जुड़ी एक प्रचलित कथा के अनुसार माता यशोदा,देवकी जी और उनकी बहन सुभद्रा वृन्दावन से द्वारका आईं।उनके साथ मौजूद रानियों ने उनसे निवेदन किया कि वे उन्हें श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के बारे में बताएं।इस बात पर माता यशोदा और देवकी उन रानियों को लीलाएं सुनाने के लिए राज़ी हो गई।उनकी बातों को कान्हा और बलराम सुन ना लें इसीलिए माता देवकी की बहन सुभद्रा बाहर दरवाजे पर पहरा देने लगीं।माता यशोदा ने कृष्ण की लीलाओं की गाथा आरंभ की और जैसे-जैसे वो बोलती चली गईं सब उनकी बातों में मग्न होते गए।खुद सुभद्रा भी पहरा देने का ख्याल भूलकर उनकी बातों सुनने लगीं।इस बीच कृष्ण और बलराम दोनों वहां आ गए और इस बात की किसी को भनक नहीं हुई, सुभद्रा भी इतनी मग्न थीं कि उन्हें पता ना चला कि कान्हा और बलराम कब वहां आ गए।भगवान कृष्ण और भाई बलराम दोनों भी माता यशोदा से मुख से अपनी लीलाओं को सुनने लगे।अपनी शैतानियों और क्रियाओं को सुनते-सुनते उनके बाल खड़े होने लगे,आश्चर्य की वजह से आंखे बड़ी हो गईं और मुंह खुला रह गया।वहीं, खुद सुभद्रा भी इतनी मंत्रमुग्ध हो गईं कि प्रेम भाव में पिघलने लगीं।यही कारण है कि जगन्नाथ मंदिर में उनका कद सबसे छोटा है।सभी कृष्ण जी लीलाओं को सुन रहे थे कि इस बीच यहां नारद मुनि आ गए।नारद जी सबके हाव-भाव देखने लगे ही थे कि सबको अहसास हुआ कि कोई आ गया है।इस वजह से कृष्ण लीला का पाठ यहीं रुक गया।नारद जी ने कृष्ण जी के उस मन को मोह लेने वाले अवतार को देखकर कहा कि ‘वाह प्रभु,आप कितने सुन्दर लग रहे हैं।आप इस रूप में अवतार कब लेंगे?’ उस वक्त कृष्ण जी ने कहा कि वह कलियुग में ऐसा अवतार लेगें।कलियुग में श्री कृष्ण ने राजा इन्द्रद्युम्न के सपने में आए और उनसे कहा कि वह पुरी के दरिया किनारे एक पेड़ के तने में उनका विग्रह बनवाएं और बाद में उसे मंदिर में स्थापित करा दें।श्रीकृष्ण के आदेशानुसार राजा ने इस काम के लिए काबिल बढ़ई की तलाश शुरू की।कुछ दिनों में एक बूढ़ा ब्राह्मण उन्हें मिला और इस विग्रह को बनाने की इच्छा जाहिर की।लेकिन इस ब्राह्मण ने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वह इस विग्रह को बन्द कमरे में ही बनाएगा और उसके काम करते समय कोई भी कमरे का दरवाज़ा नहीं खोलेगा नहीं तो वह काम अधूरा छोड़ कर चला जाएगा।शुरुआत में काम की आवाज़ आई लेकिन कुछ दिनों बाद उस कमरे से आवाज़ आना बंद हो गई।राजा सोच में पड़ गया कि वह दरवाजा खोलकर एक बार देखे या नहीं।कहीं उस बूढ़े ब्राह्मण को कुछ हो ना गया हो।इस चिंता में राजा ने एक दिन उस कमरे का दरवाज़ा खोल दिया।दरवाज़ा खुलते ही उसे सामने अधूरा विग्रह मिला।तब उसे अहसास हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं बल्कि खुद विश्वकर्मा थे,शर्त के खिलाफ जाकर दरवाज़ा खोलने से वह चले गए।
उस वक्त नारद मुनि पधारे और उन्होंने राजा से कहा कि जिस प्रकार भगवान ने सपने में आकर इस विग्रह को बनाने की बात कही ठीक उसी प्रकार इसे अधूरा रखने के लिए भी द्वार खुलवा लिया।राजा ने उन अधूरी मूरतों को ही मंदिर में स्थापित करवा दिया।यही कारण है कि जगन्नाथ पुरी के मंदिर में कोई पत्थर या फिर अन्य धातु की मूर्ति नहीं बल्कि पेड़ के तने को इस्तेमाल करके बनाई गई मूरत की पूजा की जाती है।
इस मंदिर के गर्भ गृह में श्रीकृष्ण,सुभद्रा एवं बलभद्र (बलराम) की मूर्ति विराजमान है।कहा जाता है कि माता सुभद्रा को अपने मायके द्वारिका से बहुत प्रेम था इसलिए उनकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण,बलराम और सुभद्रा जी ने अलग रथों में बैठकर द्वारिका का भ्रमण किया था।तब से आज तक पुरी में हर वर्ष रथयात्रा निकाली जाती है।यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है।यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिये खास महत्व रखता है।इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।भाप से पकाया हुआ भोजन सबसे पहले भगवान जगन्नाथ को चढ़ाया जाता है।इसके बाद देवी विमला को चढ़ाया जाता है,जिसे ‘महाप्रसाद’ के नाम से जाना जाता है।

॥श्री जगन्नाथ अष्टकम्॥
कदाचित् कालिन्दी तट विपिन सङ्गीत तरलो,
मुदाभीरी नारी वदन कमला स्वाद मधुपः।
रमा शम्भु ब्रह्मामरपति गणेशार्चित पदो,
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥१॥
भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे,
दुकूलं नेत्रान्ते सहचर-कटाक्षं विदधते।
सदा,श्रीमद्‍-वृन्दावन-वसति-लीला-परिचयो,
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥२॥
महाम्भोधेस्तीरे कनक रुचिरे नील शिखरे,
वसन् प्रासादान्तः सहज बलभद्रेण बलिना।
सुभद्रा मध्यस्थः सकलसुर सेवावसरदो,
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥३॥
कृपा पारावारः सजल जलद श्रेणिरुचिरो,
रमा वाणी रामः स्फुरद् अमल पङ्केरुहमुखः।
सुरेन्द्रैर् आराध्यः श्रुतिगण शिखा गीत चरितो,
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥४॥
रथारूढो गच्छन् पथि मिलित भूदेव पटलैः,
स्तुति प्रादुर्भावम् प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः।
दया सिन्धुर्बन्धुः सकल जगतां सिन्धु सुतया,
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥५॥
परंब्रह्मापीड़ः कुवलय-दलोत्‍फुल्ल-नयनो,
निवासी नीलाद्रौ,निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि।
रसानन्दी,राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो,
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे॥६॥
न वै याचे राज्यं न च कनक माणिक्य विभवं,
न याचेऽहं रम्यां सकल जन काम्यां वरवधूम्।
सदा काले काले प्रमथ पतिना गीतचरितो,
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥७॥
हर त्वं संसारं द्रुततरम् असारं सुरपते,
हर त्वं पापानां विततिम् अपरां यादवपते।
अहो दीनेऽनाथे निहित चरणो निश्चितमिदं,
जगन्नाथः स्वामी नयन पथ गामी भवतु मे॥८॥
जगन्नाथाष्टकं पुन्यं यः पठेत् प्रयतः शुचिः।
सर्वपाप विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति॥९॥
॥इति श्रीमत् शंकराचार्यविरचितं जगन्नाथाष्टकं संपूर्णम्॥
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इस स्तोत्र में भगवान श्रीजगन्नाथ जी के चरित का वर्णन हैं कैसे हैं भगवान,उनका सम्पूर्ण गुणगान इसमें विद्यमान है।॥जय जगन्नाथ॥
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विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी

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३-कोणार्क सूर्यमन्दिर:-

विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः।
लोक प्रकाशकः श्री माँल्लोक चक्षुर्मुहेश्वरः॥
लोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिस्रहा।
तपनस्तापनश्चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनः॥
गभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृतः।
एकविंशतिरित्येष स्तव इष्टः सदा रवेः॥
“विकर्तन,विवस्वान,मार्तण्ड,भास्कर,रवि,लोकप्रकाशक,श्रीमान,लोकचक्षु,महेश्वर,लोकसाक्षी,त्रिलोकेश,कर्ता,हर्त्ता,तमिस्राहा,तपन,तापन,शुचि,सप्ताश्ववाहन,गभस्तिहस्त,ब्रह्मा और सर्वदेव नमस्कृत-इस प्रकार इक्कीस नामों का यह स्तोत्र भगवान सूर्य को सदा प्रिय है।’
-(ब्रह्म पुराण :३१.३१-३३)
यह शरीर को निरोग बनाने वाला,धन की वृद्धि करने वाला और यश फैलाने वाला स्तोत्रराज है।इसकी तीनों लोकों में प्रसिद्धि है।जो सूर्य के उदय और अस्तकाल में दोनों संध्याओं के समय इस स्तोत्र के द्वारा भगवान सूर्य की स्तुति करता है,वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।भगवान सूर्य के सान्निध्य में एक बार भी इसका जप करने से मानसिक,वाचिक,शारीरिक तथा कर्मजनित सब पाप नष्ट हो जाते हैं।अतः यत्नपूर्वक संपूर्ण अभिलक्षित फलों को देने वाले भगवान सूर्य का इस स्तोत्र के द्वारा स्तवन करना चाहिए।
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॥सूर्याष्टकम्॥ आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर,
दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते।
सप्ताश्वरथमारूढं प्रचण्डं कश्यपात्मजम्,
श्वेतपद्मधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।
लोहितं रथमारूढं सर्वलोकपितामहम्,
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।
त्रैगुण्यं च महाशूरं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरम्,
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।
बृंहितं तेजःपुञ्जं च वायुमाकाशमेव च,
प्रभुं च सर्वलोकानां तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।
बन्धुकपुष्पसङ्काशं हारकुण्डलभूषितम्,
एकचक्रधरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।
तं सूर्यं जगत्कर्तारं महातेजः प्रदीपनम्
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।
तं सूर्यं जगतां नाथं ज्ञानविज्ञानमोक्षदम्,
महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्॥
O Lord Sun,who is existing in this world from very olden time I preach you.
भगवान सूर्यदेव आपको सदैव आरोग्य रखे!!!
सुप्रभातम्,शुभ रविवार!!!
विनयावनत; दिगम्बर ध्यानी
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मित्रों कोणार्क ‘सूर्य मन्दिर‘ भारत में उड़ीसा राज्य में जगन्नाथ पुरी से लगभग ३५ किमी उत्तर-पूर्व में कोणार्क नामक शहर में प्रतिष्ठित है।इस ‘सन टेम्पल‘ को १९८४ में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी है।यह मन्दिर सूर्य देव को समर्पित था,जिन्हें स्थानीय लोग ‘बिरंचि-नारायण’ कहते थे।इसी कारण इस क्षेत्र को उसे अर्क-क्षेत्र (अर्क=सूर्य) या पद्म-क्षेत्र कहा जाता था।पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को उनके श्राप से कोढ़ रोग हो गया था।साम्ब ने मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर कोणार्क में,बारह वर्षों तक तपस्या की और सूर्य देव को प्रसन्न किया था।सूर्यदेव, जो सभी रोगों के नाशक थे,ने इसके रोग का भी निवारण कर दिया था।तदनुसार साम्ब ने सूर्य भगवान का एक मन्दिर निर्माण का निश्चय किया।अपने रोग-नाश के उपरांत,चंद्रभागा नदी में स्नान करते हुए,उसे सूर्यदेव की एक मूर्ति मिली।यह मूर्ति सूर्यदेव के शरीर के ही भाग से,देवशिल्पी श्री विश्वकर्मा ने बनायी थी।साम्ब ने अपने बनवाये मित्रवन में एक मन्दिर में,इस मूर्ति को स्थापित किया,तब से यह स्थान पवित्र माना जाने लगा।
इस मन्दिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं:
बाल्यावस्था-उदित सूर्य- ८ फ़िट।
युवावस्था-मध्याह्न सूर्य- ९.५ फ़िट।
प्रौढ़ावस्था-अपराह्न सूर्य-३.५ फ़िट।
इसके प्रवेश पर दो सिंह हाथियों पर आक्रामक होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाये गए हैं।दोनों हाथी,एक-एक मानव के ऊपर स्थापित हैं।ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं।इस विश्व धरोहर को देखने का मौका १४ अगस्त २०१७ को अपनी धर्मपत्नी मीना,ज्येष्ठ पुत्र डॉ दीपक,बहुरानी डॉ शालिनी एवँ पौत्र विहान के सँग प्राप्त हुआ।

॥आदित्य हृदय स्तोत्रम्‌॥
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्‌।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्‌॥१॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्‌।
उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा॥२॥
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम्‌।
येन सर्वानरीन्‌ वत्स समरे विजयिष्यसे ॥३॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्‌।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्‌॥४॥
सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्‌। चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्‌॥५॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्‌।
पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्‌॥६॥
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन:।
एष देवासुरगणांल्लोकान्‌ पाति गभस्तिभि:॥७॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति:।
महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यापां पतिः॥८॥
पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु:।
वायुर्वहिन: प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर:॥९॥
आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान्‌।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकर:॥१०॥
हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान्‌।
तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्‌॥११॥
हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि:।
अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन:॥१२॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग:।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः॥१३॥
आतपी मण्डली मृत्यु: पिगंल: सर्वतापन:।
कविर्विश्वो महातेजा: रक्त:सर्वभवोद् भव:॥१४॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन:।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्‌ नमोऽस्तु ते॥१५॥
नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम:।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम:॥१६॥
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम:।
नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम:॥१७॥
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नम:।
नम: पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते॥१८॥
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे। भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम:॥१९॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम:॥२०॥
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे। नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे॥२१॥
नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभु:।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि:॥२२॥
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित:।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्‌॥२३॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभु:॥२४॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन्‌ पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव॥२५॥
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम्‌।
एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥२६॥
अस्मिन्‌ क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्‌॥२७॥
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्‌ तदा॥
धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान्‌॥२८॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्‌।
त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्‌॥२९॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम्‌।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्‌॥३०॥
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण:।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥३१॥
॥सम्पूर्णम्‌॥
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आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ नियमित करने से अप्रत्याशित लाभ मिलता है।आदित्य हृदय स्तोत्र के पाठ से नौकरी में पदोन्नति,धन प्राप्ति,प्रसन्नता, आत्मविश्वास के साथ-साथ समस्त कार्यों में सफलता मिलती है।हर मनोकामना सिद्ध होती है।
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दिगम्बर ध्यानी

॥केरल की धार्मिक यात्राएँ॥ 

१-पद्मनाभस्वामी मंदिर:- पद्मनाभ स्वामी मंदिरभारत के केरल राज्य के तिरुअनन्तपुरम में स्थित भगवान विष्णु का प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर है।भारत के प्रमुख वैष्णव मंदिरों में शामिल यह ऐतिहासिक मंदिर तिरुअनंतपुरम के अनेक पर्यटन स्थलों में से एक है।पद्मनाभ स्वामी मंदिर विष्णु-भक्तों की महत्वपूर्ण आराधना-स्थली है।मंदिर की संरचना में सुधार कार्य किए गए जाते रहे हैं।१७३३ ई.में इस मंदिर का पुनर्निर्माण त्रावनकोर के महाराजा मार्तड वर्मा ने करवाया था।पद्मनाभ स्वामी मंदिर के साथ एक पौराणिक कथा जुडी है।मान्यतानुसार-सबसे पहले इस स्थान से विष्णु भगवान की प्रतिमा प्राप्त हुई थी जिसके बाद उसी स्थान पर इस मंदिर का निर्माण किया गया है।श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर के प्रमुख देवता की प्रतिमा अपने निर्माण के लिए जानी जाती है जिसमें १२,००८ शालिग्राम हैं जिन्हें नेपाल की नदी गंधकी के किनारों से लाया गया था। श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर का गर्भगृह एक चट्टान पर स्थित है और मुख्य प्रतिमा जो लगभग १८ फीट लंबी है, को अलग-अलग दरवाजों से देखा जा सकता है।पहले दरवाजे से सिर और सीना देखा जा सकता है जबकि दूसरे दरवाजे से हाथ और तीसरे दरवाजे से पैर देखे जा सकते हैं।११ फ़रवरी २०१९ को अपनी धर्मपत्नी श्रीमती मीना ध्यानी,बहुरानी ऋतु ध्यानी,अनुज पुत्र डॉ अनुराग ध्यानी एवँ पौत्री नैवेद्या ध्यानी के सँग श्री पद्मनाभस्वामी के दर्शन करने का परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ।भगवान पद्मनाभस्वामी की अहैतुकी कृपा से ही पद्मनाभस्वामीकी एक मूर्ति भी मन्दिर प्राँगण से लाए जो तब यह धातु की प्रतिमा की हम निज़ पूजा स्थल पर नित्य पूजन करतें है।  ॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥ ॥श्री गुरुभ्यो नमः॥ विनयावनत;दिगम्बर ध्यानी

॥ श्री वैंकटेश्‍वर स्वामी मंदिर॥ 
भारत के सबसे चमत्‍कारिक और रहस्‍यमयी मंदिरों में से एक है भगवान तिरुपति बालाजी।भगवान तिरुपति के दरबार में गरीब और अमीर दोनों सच्‍चे श्रद्धाभाव के साथ अपना सिर झुकाते हैं।यह मन्दिर ‘आंध्र प्रदेश‘ के चित्तूर जिले में स्थित है।प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में दर्शनार्थी यहां आते हैं।समुद्र तल से ३२०० फीट ऊंचाई पर स्थित ‘तिरुमला की पहाड़ियों‘ पर बना श्री वैंकटेश्‍वर मंदिर यहां का सबसे बड़ा आकर्षण है।कई शताब्दी पूर्व बना यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला और शिल्प कला का अदभूत उदाहरण हैं।
प्रभु वेंकटेश्वर या बालाजी को भगवान विष्णु अवतार ही है।ऐसा माना जाता है कि प्रभु विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक सरोवर के किनारे निवास किया था।यह सरोवर तिरुमाला के पास स्थित है। तिरुमाला-तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ,शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं ‘सप्तगिर‍ि’ कहलाती हैं।श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है,जो वेंकटाद्री नाम से प्रसिद्ध है।भगवान बालाजी के हृदय पर मां लक्ष्मी विराजमान रहती हैं।माता की मौजूदगी का पता तब चलता है जब हर गुरुवार को बालाजी का पूरा श्रृंगार उतारकर उन्हें स्नान करावाकर चंदन का लेप लगाया जाता है। वहीं एक दूसरी अनुश्रुति के अनुसार,११वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुपति की इस सातवीं पहाड़ी पर चढ़ कर गये थे।प्रभु श्रीनिवास (वेंकटेश्वर का दूसरा नाम) उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया।ऐसा माना जाता है कि प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वे १२० वर्ष की आयु तक जीवित रहे और जगह-जगह घूमकर वेंकटेश्वर भगवान की ख्याति फैलाई।
वैकुंठ एकादशी के अवसर पर लोग यहाँ पर प्रभु के दर्शन के लिए आते हैं,जहाँ पर आने के पश्चात उनके सभी पाप धुल जाते हैं।मान्यता है कि यहाँ आने के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।१३ जनवरी २००९ को अपनी माताजी श्रीमती गोदाम्बरी देवी,पत्नी श्रीमती मीना और कनिष्ठ पुत्र अनुराग के साथ श्री वैंकटेश्‍वर स्वामी बालाजी के दर्शन करने का परम् सौभाग्य प्राप्त हुआ।प्रातःकाल में हम यहाँ सुप्रभातम् सुनकर आनँददित हुए। कौसल्या सुप्रजाराम,पूर्वासंध्या प्रवर्तते।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल,कर्तव्यं दैवमान्हविकं॥   
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द,उत्तिष्ठ गरुडध्वज।
उत्तिष्ठ कमलाकांत,त्रैलोक्यं मङ्गलं कुरु॥   
💓🙏💓
Excellent son of Kausalya,Shri Rama as the night is turning to dawn,arise to perform your responsibilities, starting with offering holy prayers to the Gods.
Oh,Govinda,wake up! Oh the one who bears a flag with a Garuda emblem! Wake up. Oh,Kamalakanta All the three worlds are under your rule,they have to prosper,Wake up,O Lord.
Awake Awake,O Govinda,Awake,the One with the flag with Garuda ensign, Awake the beloved of Lakshmi,Bless for the welfare of the three worlds.
💓🙏💓 ॥श्री कृष्ण:शरणं मम॥                                       ॥श्री गुरुभ्यो नमः॥                     विनयावनत;दिगम्बर ध्यानी

॥देशाटन॥ 

१-ताजमहल;दुनियाँ का सातवाँ आश्चर्य:-

ताजमहल भारत के उत्तरप्रदेश के आगरा शहर में स्थित एक विश्व धरोहर मक़बरा है।इसका निर्माण मुग़ल सम्राट शाहजहाँ ने अपनी पत्नी मुमताज़ महल की याद में करवाया था।ताजमहल मुग़ल वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है।इसकी वास्तु शैली फ़ारसी,तुर्क,भारतीय और इस्लामी वास्तुकला के घटकों का अनोखा सम्मिलन है।सन् १९८३ में,ताजमहल युनेस्को विश्व धरोहर स्थल बना।इसके साथ ही इसे विश्व धरोहर के सर्वत्र प्रशंसा पाने वाली,अत्युत्तम मानवी कृतियों में से एक बताया गया।ताजमहल को भारत की इस्लामी कला का रत्न भी घोषित किया गया है।साधारणतया देखे गये संगमर्मर की सिल्लियों की बडी-बडी पर्तो से ढंक कर बनाई गई इमारतों की तरह न बनाकर इसका श्वेत गुम्बद एवं टाइल आकार में संगमर्मर से ढका है।केन्द्र में बना मकबरा अपनी वास्तु श्रेष्ठता में सौन्दर्य के संयोजन का परिचय देते हैं।ताजमहल इमारत समूह की संरचना की खास बात है,कि यह पूर्णतया सममितीय है।इसका निर्माण सन् १६४८ के लगभग पूर्ण हुआ था।उस्ताद अहमद लाहौरी को प्रायः इसका प्रधान रूपांकनकर्ता माना जाता है।जैसे ही कोई ताजमहल के द्वार से प्रविष्ट होता है,सुलेख है:-
“ हे आत्मा ! तू ईश्वर के पास विश्राम कर।ईश्वर के पास शांति के साथ रहे तथा उसकी परम शांति तुझ पर बरसे।”
इस कॉम्प्लेक्स को घेरे है विशाल ३०० वर्ग मीटर का चारबाग,एक मुगल बाग।इस बाग में ऊँचा उठा पथ है। यह पथ इस चार बाग को सोलहनिम्न स्तर पर बनी क्यारियों में बांटता है।बाग के मध्य में एक उच्चतल पर बने तालाब में ताजमहल का प्रतिबिम्ब दृश्य होता है।यह मकबरे एवं मुख्यद्वार के मध्य में बना है।यह प्रतिबिम्ब इसकी सुंदरता को चार चाँद लगाता है।अन्य स्थानों पर बाग में पेडो़ की कतारें हैं एवं मुख्य द्वार से मकबरे पर्यंत फौव्वारे हैं।इस उच्च तल के तालाब को अल हौद अल कवथार कहते हैं,जो कि मुहम्मद द्वारा प्रत्याशित अपारता के तालाब को दर्शाता है।चारबाग के बगीचे फारसी बागों से प्रेरित हैं,तथा भारत में प्रथम दृष्ट्या मुगल बादशाह बाबर द्वारा बनवाए गए थे।यह स्वर्ग (जन्नत) की चार बहती नदियों एवं पैराडाइज़ या फिरदौस के बागों की ओर संकेत करते हैं।यह शब्द फारसी शब्द पारिदाइजा़ से बना शब्द है,जिसका अर्थ है एक भीत्त रक्षित बाग।फारसी रहस्यवाद में मुगल कालीन इस्लामी पाठ्य में फिरदौस को एक आदर्श पूर्णता का बाग बताया गया है।इसमें कि एक केन्द्रीय पर्वत या स्रोत या फव्वारे से चार नदियाँ चारों दिशाओं,उत्तर,दक्षिण,पूर्व एवं पश्चिम की ओर बहतीं हैं,जो बाग को चार भागों में बांटतीं हैं।ताजमहल प्रत्येक वर्ष २० से ४० लाख दर्शकों को आकर्षित करता है, जिसमें से दो लाख से अधिक विदेशी होते हैं।अधिकतर पर्यटक यहाँ अक्टूबर,नवंबर एवं फरवरी के महीनों में आते हैं।इस स्मारक के आसपास प्रदूषण फैलाते वाहन प्रतिबन्धित हैं।पर्यटक पार्किंग से या तो पैदल जा सकते हैं,या विद्युत चालित बस सेवा द्वारा भी जा सकते हैं।खवासपुरास को पुनर्स्थापित कर नवीन पर्यटक सूचना केन्द्र की तरह प्रयोग किया जाएगा।ताज महल के दक्षिण में स्थित एक छोटी बस्ती को ताजगंज कहते हैं।पहले इसे मुमताजगंज भी कहा जाता था।यह पहले कारवां सराय एवं दैनिक आवश्यकताओं हेतु बसाया गया था।प्रशंसित पर्यटन स्थलों की सूची में ताजमहल सदा ही सर्वोच्च स्थान लेता रहा है।यह सात आश्चर्यों की सूची में भी आता रहा है।अब यह आधुनिक विश्व के सात आश्चर्यों में प्रथम स्थान पाया है।यह स्थान विश्वव्यापी मतदान से हुआ था।जहाँ इसे दस करोड़ मत मिले थे।१७ जनवरी २००९ माताजी,धर्मपत्नी जी एवँ छोटे पुत्र अनुराग के साथ ताजमहल का दीदार किया।

२- पटनीटॉप जम्मू:- पटनी टॉप,जम्मू और कश्मीर के उधमपुर जिले में स्थित एक सुंदर हिल रिसॉर्ट है।इस स्थान को वास्तविक रूप से ‘पाटन दा तालाब’ नाम से जाना जाता था जिसका अर्थ है ‘राजकुमारी का तालाब’।एक कहावत के अनुसार राजकुमारी नहाने के लिए प्रतिदिन इस तालाब का उपयोग करती थीं।हालांकि कुछ सालों बाद इसका नाम ‘पाटन का तालाब’ से बदलकर पटनीटॉप हो गया।यह रिसॉर्ट समुद्र सतह से २०२४ मीटर की ऊँचाई पर एक पठार पर स्थित है।
देवदार के घने जंगल,घुमावदार पहाडियाँ,लुभावने दृश्य और शांत वातावरण पटनीटॉप को पिकनिक के लिए एक आदर्श स्थान बनाते हैं।इस क्षेत्र में तीन मीठे पानी के झरने हैं जो ठंडे पानी के मूल स्त्रोत हैं।
ठंड के मौसम के दौरान विभिन्न बाहरी गतिविधियों जैसे स्कीइंग और ट्रेकिंग में भाग लेने के लिए बड़ी संख्या में पर्यटक पटनीटॉप आते हैं।पटनीटॉप अन्य गतिविधियों जैसे गोल्फ,पैराग्लाइडिंग,एरो स्पोर्ट्स,घुड़सवारी और फोटोग्राफी के लिए भी उपयुक्त है।हमें अपनी धर्मपत्नी,ज्येष्ठ पुत्र,बहुरानी एवँ पौत्र विहान सँग इस मनोहारी धरती के दीदार हुए।यहाँ फीगोग्राफी भी की जिसमें से कुछ अभी भी घर में उपलब्ध हैं।

३- नन्दन कानन चिड़ियाघर(जूलॉजिकल पार्क):- मित्रों केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण, एक सांविधिक निकाय (Statutory Body) है जिसका मुख्य उद्देश्य भारत में जानवरों के रख-रखाव और स्वास्थ्य देखभाल के लिए न्यूनतम मानकों तथा मानदंडों को लागू करना है।चिड़ियाघरों को वन्य जीवन(संरक्षण)अधिनियम,१९७२ के प्रावधानों के अनुसार विनियमित तथा राष्ट्रीय चिड़ियाघर नीति,१९९२द्वारा निर्देशित किया जाता हैं।१९९१ में केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण स्थापित करने के लिये वन्य जीवन संरक्षण को संशोधित किया गया था।नंदनकानन,जिसका शाब्दिक अर्थ है:-गार्डन ऑफ हेवन (Garden of Heaven).
यह ओडिशा के भुवनेश्वर के समीप स्थित है।देश में अन्य चिड़ियाघरों के विपरीत,नंदनकानन को जंगल के अंदर स्थापित किया गया है।यह एक पूरी तरह से प्राकृतिक वातावरण में स्थापित जूलॉजिकल पार्क है।यह सफेद पीठ वाले गिद्ध (White-backed vulture) के संरक्षित प्रजनन के लिये चयनित छः प्रमुख चिड़ियाघरों में से एक है।मित्रों इस अद्भुत चिड़ियाघर को हमनें अपनी धर्मपत्नी श्रीमती मीना,बड़ी बहुरानी डॉ शालिनी,ज्येष्ठ पुत्र डॉ दीपक एवँ पौत्र विहान ध्यानी के सँग १३ अगस्त २०१७ को लम्बी अवधि तक ख़ूब देखा।शेर,भालू विभिन्न प्रजातियों के साँपोंएवँ घड़ियालों को देखकर आश्चर्यजनक अनुभव किया।इस पार्क की निम्नलिखितविशेषताएँ ह:-
१-यह सफेद बाघ और मेलेनिस्टिक टाइगर की ब्रीडिंग वाला दुनिया का पहला चिड़ियाघर है।
२-व्हाइट टाइगर बंगाल टाइगर का एक दुर्लभ रूप है जिसमें एक अद्वितीय(अवशिष्ट)जीन होता है जो इसे सफेद रंग प्रदान करता है।सफेद बाघ,बाघ की कोई उप-विशिष्ट प्रजाति नहीं होती है।दो बंगाल टाइगर,जिनमें एक अवशिष्ट जीन होता है (वैसा जीन,जो इनकी त्वचा के रंग को प्रभावित करता है),के अंतर्संबंध से सफेद बाघ का जन्म होता है।
३-मेलेनिस्टिक टाइगर काला धारीदार होता है,इसे यह रंग इसके आनुवंशिक कारणों से मिलता है।शरीर में मेलेनिन वर्णक के विकास के कारण इनके शरीर पर काली धारियाँ बन जाती है। मेलेनिस्टिक टाइगर दुर्लभ प्रजाति है।
४-यह दुनिया में भारतीय पांगोलिन का एकमात्र संरक्षित प्रजनन केंद्र है।
५- यह भारत का एकमात्र जूलॉजिकल पार्क है जो वाज़ा (World Association of Zoos and Aquarium – WAZA) का संस्थागत सदस्य बना है।
६- वर्ष १९८० में विश्व में पहली बार नंदानकानन जूलॉजिकल पार्क में घडियालों का संरक्षित प्रजनन कराया गया।
७- यह भारत का पहला चिड़ियाघर है,जहाँ लुप्तप्राय रटेल का संरक्षित प्रजनन हुआ। 💓🙏💓

॥चरित्र की रक्षा करनी चाहिए॥ वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥
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चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए।धन तो आता-जाता रहता है।धन के नष्ट होने पर भी चरित्र सुरक्षित रहता है,लेकिन चरित्र नष्ट होने पर सबकुछ नष्ट हो जाता है।
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दिगम्बर प्रसाद ध्यानी

॥हमे मिलने वाले सुख या दुःख का कारण भगवान नहीं,अपितु हम ही हैं॥
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हमारे कर्म ही हमें सुख दुःख देते हैं।
कर्म सकाम व निष्काम होते हैं।सकाम कर्म यानि ऐसे कर्म जिनके बदले में हम कुछ भौतिक सुख सुविधाएं चाहते हैं।ऐसे कर्मो का फल सुख दु:ख के रूप में मिलता है।निष्काम कर्म वह हैं जिनके बदले हम केवल भगवान को प्राप्त करना चाहते हैं।ऐसे कर्मो का फल भगवद प्राप्ति के रूप में मिलता है।अब एक बात यह आती है कि ज्यादा पूजा पाठ करने वाले ही दुखी क्यों रहते हैं ?
इसका सरल उत्तर यह है कि ज्यादा पूजा पाठ करने वाला भक्ति के स्वरूप को सही नहीं समझने के कारण पूजा पाठ तो करता है,लेकिन वह इसलिए कि वह जाने-अनजाने में सकाम पूजा ही करता है जिसका फल उसे सुख दुःख के रूप में ही मिलता है।बहुत पूजा पाठ,अनुष्ठान करने वाला बेशक ज्यादा पूजा पाठ या भक्ति करता हुआ नजर आता है लेकिन वह कर्मकांड को भी सही से नहीं करता है।ऐसे में गलती पर गलती करता जाता है।निर्मल मन न होनें के कारण उसका मन उस सर्वशक्तिमान पर केंद्रित नहीं रहता।बेशक वह कहता है कि वह कूआँ खोदने की बात करता है लेकिन असल मे वह खाई ही खोद रहा होता है।वह यह तो कहता है कि वह बहुत सारी दुनिया भर की पूजा पाठ या मेहनत कर रहा है।लेकिन असल मे तो वह अपनी मेहनत बेकार ही कर रहा होता है।बेशक ऐसा करने में उसका सारा परिश्रम निष्फल चला जाता है।तो एक बात तो यह हुई कि सकाम कर्मो का फल सुख या दु:ख के रूप में मिलता है।हो सकता है कि उसके पूर्वकर्मो की वजह से उसकी जिंदगी में दु:ख बहुत लिखे हों और पूजा पाठ से बेशक कम हुए हों।लेकिन फिर भी आप यही सोच रहे हों कि भगवान हमे इतनी पूजा पाठ के बाद भी दु:ख ही दे रहे हों? और दूसरी बात यह है कि आप गलत तरीके से या बिना विधि विधान के जाने ही पूजा पाठ कर रहे हों।आप बेशक अत्यधिक पूजा पाठ कर रहे हों लेकिन उनका प्रभाव उल्टा या निष्फल हो रहा हो।संध्यावंदन,योग,ध्यान,तंत्र,ज्ञान,कर्म के जैसे ही भक्ति भी मुक्ति का एक मार्ग है।इसमें श्रवण,भजन-कीर्तन,नाम जप-स्मरण,मंत्र जप,पाद सेवन,अर्चन,वंदन,दास्य,सख्य, पूजा-आरती,प्रार्थना,सत्संग आदि शामिल हैं।
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श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
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न विद्या येषां श्रीर्न शरणमपीषन्न च गुणाः
परित्यक्ता लोकैरपि वृजिनयुक्ताः श्रुतिजडाः।
शरण्यं यं तेऽपि प्रसृतगुणमाश्रित्य सुजना
विमुक्तास्तं वन्दे यदुपतिमहं कृष्णममलम्॥
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जिनके पास न विद्या है,न धन है,न कोई सहारा है; जिनमें न कोई गुण है,न वेद-शास्त्रों का ज्ञान है;जिनको संसार के लोगों ने पापी समझकर त्याग दिया है,ऐसे प्राणी भी जिन शरणागतपालक प्रभुकी शरण लेकर संत बन जाते और मुक्त हो जाते हैं,उन विश्वविख्यात गुणोंवाले अमलात्मा यदुनाथ श्रीकृष्णभगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ।
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॥सर्वे भवंतु सुखिनः॥
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॥ॐ श्री गुरुवे नमः॥
दिगम्बर ध्यानी

क्या देवता संभोग करते हैं?

मंदिर में पूजा करने वाले भी आते हैं और सेक्सुअल पोज़ीशन की कलाकृतियां देखने वाले भी. देवी-देवताओं की मूर्तियों के बीच ही यौन संबंध को खुलकर दर्शाने वाली ये मूर्तियां आज के भारत में देखकर हैरानी होती है. मगर प्राचीन भारत में सेक्स को लेकर ज़्यादा खुलापन था, ये बात ये मंदिर ज़ाहिर करते हैं.

कामदेव के धनुष का क्या नाम था?

कामदेव के 5 बाणों के नाम : 1. मारण, 2. स्तम्भन, 3. जृम्भन, 4.

कामदेव के कितने बाण है?

(कामदेव के पाँच बाण माने गए हैं; इसी से बाण से ५ की संख्या का बोध होता है) । ७.

Kamdev कौन है?

उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मनमथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधंव आदि प्रसिद्ध हैं। कामदेव, हिंदू देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न, कामदेव का अवतार है। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण भी माना जाता है।