ललद्यद का जन्म कहां हुआ था - laladyad ka janm kahaan hua tha

कश्मीर का नाम ज़हन में आते ही राजनीतिक उथल-पुथल और सैन्य संघर्ष ध्यान में आते हैं। कश्मीर का इतिहास इससे ख़ास अलग नहीं रहा। सदियों से कश्मीर सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संघर्षों में डूबता-उतराता रहा है। कश्मीरी इतिहास में ये संघर्ष मौर्यों, कुषाणों, बौद्धों, शैव राजाओं और सूफ़ी आगमन के बाद तक होते रहे। कश्मीर के हालात आज भी सामान्य नहीं हो पाए हैं। फिर भी, कश्मीर ने अपनी जिजीविषा न आज छोड़ी है न तब छोड़ी थी। इसकी गवाही, वहां की भाषाएं, लिपियां और उनका समृद्ध, विस्तृत साहित्य देता है। शुरुआती समय से लेकर तेरहवीं सदी तक के साहित्यिक विस्तार और ब्राह्मणवादी पाखंड निहित चिंतन पर पुरुषों का एकाधिकार था। चौदहवीं सदी में पहली बार साहित्यिक क्षेत्र मेंस्त्री-हस्तक्षेप ललद्यद यानी हिंदुओं की लालेश्वरी और मुसलमानों की ‘अल आरिफ़ा’ से किया जाता है।

ललद्यद के जन्म को लेकर इतिहासकारों में स्पष्ट राय नहीं है। जयलाल कौल के अनुसार माना जाता है कि इनका जन्म साल 1317 से 1320 के बीच हुआ था। इनके जन्मस्थान को लेकर भी दो मत हैं, पहला पाम्पोर के क़रीब सिम्पोर और दूसरा श्रीनगर से कुछ दूरी पर स्थित पान्द्रेठन। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन दिनों लड़कियों की शादी छोटी उम्र में ही कर दी जाती थी और ललद्यद के साथ भी यही हुआ। 12 वर्ष की छोटी उम्र में उन्हें एक अधेड़ व्यक्ति निक्क भट्ट से ब्याह दिया गया। कश्मीरी परम्परा के अनुसार शादी के बाद उनका नाम बदलकर पद्मावती कर दिया गया। बहुत छोटी उम्र में शादी होने के कारण ललद्यद का पारिवारिक जीवन सुखद नहीं रहा। पति और अन्य सदस्यों की तरफ़ से उनपर अत्याचार हुए। जयाकौल और प्रेमनाथ बजाज जैसे विद्वानों की यह मान्यता है कि पति ने इस अत्याचार की मुख्य वजह सेक्स-संबंधों में ललद्यद की अरुचि मानी जाती है। इसके पीछे वे उनका धार्मिक रुझान बताते हैं।

कश्मीरनामा के लेखक अशोक कुमार पांडेय के अनुसार इतनी कम उम्र में एक लड़की के साथ अधिक उम्र के पुरूष का शारीरिक संबंध बनाना बलात्कार ही कहा जाएगा। आज के आधुनिक दौर में भी ‘मैरिटल रेप’ के ख़िलाफ़ कोई सख़्त कानून नहीं है तो चौदहवीं शताब्दी में ललद्यद और बाकी महिलाएं जिन शोषणों से गुज़र रही थीं, उनकी क्या ही सीमा रही होगी। यही कारण था कि ललद्यद ने 23 वर्ष की उम्र में घर छोड़ने और संन्यासिनी हो जाने का निर्णय लिया। उनका यह निर्णय केवल ईश्वरीय अनुभूति या धार्मिक संबंध में नहीं देखा जाना चाहिए। असल में यह विवाह और पारिवारिक संस्थाओं के ख़िलाफ़ चौदहवीं सदी में एक महिला का सशक्त विद्रोह था।

ललद्यद संभवतः कश्मीरी इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कवियत्री हैं जिन्होंने उस दौर में पितृसत्तात्मक समाज में अपने लिए स्थान बनाया, रूढ़ियों को तोड़ा और धार्मिक मतभेदों को कम किया।

पति का घर छोड़ने के बाद ललद्यद ने वह नाम भी त्याग दिया, जो उन्हें पारंपरिक रूप से दिया गया था। संन्यासिनी होकर वे निर्वस्त्र सड़कों पर घूमने लगी। शायद यह बंधनों के ख़िलाफ़ उनका विरोध रहा होगा। उन्होंने सिद्धा श्री कंठ को अपना गुरु बनाकर शैव दर्शन की दीक्षा ली। दीक्षा के बाद उनका वैचारिक उत्थान हुआ और उन्हें एक चमत्कारी व्यक्तित्व के रूप में देखा जाने लगा, लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे।

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कश्मीर में शुरुआती समय से साहित्य पर पुरुष प्रभुत्व रहा है। समाज में जो स्थान पुरुष का था, भाषा में संस्कृत उसकी अधिकारी थी। पतंजलि से लेकर वल्लभ देव, मम्मट और कल्हण तक साहित्यिक क्षेत्र पुरुषों और कुलीन दर्जा प्राप्त संस्कृत से अटा पड़ा था। नौवीं शताब्दी तक कश्मीरी जनभाषा के रूप अस्तित्व में आ चुकी थी लेकिन तत्कालीन धर्म-केंद्रित ब्राह्मणवादी समाज में लोकभाषा में लिखा साहित्य साहित्य नहीं माना जाता था। ललद्यद ने कश्मीरी में अपने ‘वाख’ लिखकर इस ढांचे को तोड़ दिया। उनकी कविताएं वाख कही जाती थीं और जनभाषा में होने के कारण उन्हें इतनी प्रसिद्धि मिली कि उनके वाख कश्मीरी जनजीवन में, हिंदुओं और मुसलमानों दोनों ही गाए जाने लगे। वे शिव भक्तिन थीं लेकिन उनकी कविताएं धार्मिक सीमाओं के परे जाकर लोगों को प्रभावित करती थीं। उनको कविताओं में जन की बात होती थी, सामाजिक मसलों को स्थान मिला था। उन्होंने मूर्ति पूजा का खंडन किया था। उनके दर्शन में एक ईश्वर की अवधारणा देखने को मिलती है। वे कहती हैं, व्यक्ति को भौतिक आवरण में न उलझकर आंतरिक अनुभूतियों को महसूस करना चाहिए।

ललद्यद संभवतः कश्मीरी इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कवियत्री हैं जिन्होंने उस दौर में पितृसत्तात्मक समाज में अपने लिए स्थान बनाया, रूढ़ियों को तोड़ा और धार्मिक मतभेदों को कम किया। वे अनेक सूफ़ी संतों के लिए प्रेरणा रहीं। सूफ़ी संत नूर-उद्-दीन वाली उनसे बहुत प्रभावित थे। लेखक रंजीत होसकोटे के अनुसार लगभग 700 सालों तक ललद्यद की कविताएं और कथाएं कश्मीर में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच गाई जाती रही हैं। निश्चित ही वे कश्मीरी इतिहास की सबसे बेहतरीन धार्मिक- साहित्यिक नेतृत्व करने वाली महिला थीं। उन्होंने समाज में ब्राह्मणों का वर्चस्व ख़त्म कर मूर्ति पूजा जैसे आडम्बरों पर प्रहार किया। उनकी कविताओं में महिलाओं और सामाजिक विकृतियों का गहरा परिचय मिलता है।

साल 1392 में इस महान, बहादुर, सशक्त महिला की मृत्यु हो गई। उनकी स्मृतियां कश्मीरी ज़ुबान आज तक सहेजे हुए हैं। हालांकि बाद में धार्मिक कट्टरता बढ़ी और ललद्यद की बनाई गई हिन्दू-मुस्लिम सहजता ख़त्म होती गई, लेकिन अभी भी लोगों के ज़हन में चौदहवीं सदी की यह कवियत्री सामाजिक परिस्थितियों को उधेड़ती अपनी ‘वाख’ सहित साहित्यिक ग्रन्थों और कश्मीरी जनमानस के मस्तिष्क पटल पर बसी हुई है।

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तस्वीर साभार: vaneijck.org

ललद्यद का जन्म कहां हुआ था - laladyad ka janm kahaan hua tha

मेरा नाम गायत्री है. आजकल मैं हिन्दी-साहित्य पढ़ने की कोशिश में लगी हूँ. मेरा गाँव उत्तर-प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में पड़ता है. खाली समय में गाय चराना और चाय पीना मुझे पसंद है. यहाँ दर्ज लेख मेरे सामने घट रही घटनाओं के प्रतिबिम्ब हो सकते हैं.

ललद्यद का जन्म कब और कहां हुआ था?

कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय संत कवयित्री ललद्यद का जन्म सन् 1320 के लगभग कश्मीर स्थित पाम्पोर के सिमपुरा गाँव में हुआ था। उनके जीवन के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। ललाद को लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारिफा आदि नामों से भी जाना जाता है। उनका देहांत सन् 1391 के आसपास माना जाता है।

ललद्यद जी का जन्म कहाँ हुआ था?

लल्लेश्वरी या लल्ल-द्यद (1320-1392) के नाम से जाने जानेवाली चौदवहीं सदी की एक भक्त कवियित्री थी जो कश्मीर की शैव भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी थीं। लल्ला का जन्म श्रीनगर से दक्षिणपूर्व मे स्थित एक छोटे से गाँव में हुआ था

ललद्यद की रचना का नाम क्या है?

Answer: ललद्यद की काव्य—शैली को वाख कहा जाता है। जिस तरह हिंदी में कबीर के दोहे, मीरा के पद, तुलसी की चौपाई और रसखान के सवैये प्रसिद्ध हैं, उसी तरह ललद्यद के वाख प्रसिद्ध हैं। अपने वाखों के ज़रिए उन्होंने जाति और धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर भक्ति के ऐसे रास्ते पर चलने पर ज़ोर दिया जिसका जुड़ाव जीवन से हो।

ललद्यद का मृत्यु कब हुई?

वे धार्मिक आडंबर का विरोध करती थी और प्रेम को सबसे बड़ा जीवन मूल्य मानती थी। उनकी मृत्यु सन 1391 ईस्वी के आसपास मानी जाती है।