मुगल सम्राट विद्रोह का समर्थन करने के लिए क्यों तैयार हुए? - mugal samraat vidroh ka samarthan karane ke lie kyon taiyaar hue?

नं. 3 में हमें 1857 के दो विद्रोही शाहमल और मौलवी अहमददुल्ला शाह की भूमिकाओं की चर्चा मिलती है।

निसंदेह साक्ष्यों से यह पर्याप्त जानकारी मिलती है कि विद्रोही योजना बनाकर समन्वित ढंग

से कार्यरत थे लेकिन इन साक्ष्यों पर पूरा भरोसा करना ठीक नहीं। साक्ष्य लिखने वाले पूर्वाग्रह

प्रश्न 11. 1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की किस हद

उत्तर-1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में पर्याप्त सीमा तक धार्मिक विश्वासों की

भूमिका रही थी। बैरकपुर की घटना जिसका संबंध गाय और सूअर की चर्बी लिपटे कारतूसों से

था ऐसी ही एक घटना थी। जब मेरठ छावनी में अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों को मजबूर किया तो मेरठ के सिपाहियों ने सभी फिरंगी अधिकारियों को मार दिया और हिंदू और मुसलमान सभी सैनिक अपने धर्म होने से भ्रष्ट को बचाने के तर्क से दिल्ली में आ गए थे। हिंदू और मुसलमानों को एकजूट होने और फिरगियों का सफाया करने के लिए अलग-अलग (हिन्दी, उर्दू, फारसी) भाषाओं में अपीलें जारी की गई।-

धार्मिक लोगों के द्वारा भी फैलाए कि वहाँ हाथी पर सवार एक फकीर को देखा गया था जिसे

सिपाही बार-बार मिलते जाते थे। लखनऊ में अवध पर कब्जे के बहुत बाद सारे धार्मिक नेता

और स्वयं भू-पैगम्बर प्रचारक ब्रिटिश राज को नेस्ताबूद करने का अलख जगा रहे थे। सिपाहियों

ने जगह-जगह छावनियों में कहलवाया कि यदि वे गाय और सूअर की चर्बी के कारतूसों को मुँह

से लगाएंँगे तो उनकी जाति और धर्म दोनों भ्रष्ट हो जाएँगे। अंग्रेजों ने सिपाहियों को बहुत समझाया लेकिन वे टस से मस नहीं हुए।

वाजार में मिलने वाले आटे में गाय और सूअर का चूरा मिलवा दिया है। लोगों में यह डर फैल

गया कि अंग्रेज हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाना चाहते थे। लोगों में यह बेचैनी तेजी से फैल गई।

कुछ योगियों ने धार्मिक स्थानों, दरगाहों और पंचायतों के मध्य से इस भविष्वाणी पर बल दिया

कि प्लासी के 100 साल पूरा होते ही अंग्रेजों का राज 23 जून, 1857 को खत्म हो जाएगा। कुछ लोग गाँव में शाम के समय चपाती बँटवाकर यह धार्मिक शक फैला रहे थे कि अंग्रेजों का शासन किसी उथल पुथल का संकेत है।

प्रश्न 12. विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए क्या तरीके अपनाए

मिक्चर बनाकर, प्लासी की लड़ाई के 100 साल पूरे होते ही भारत से अंग्रेजों की वापसी और

मिलकर विद्रोह में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने की भावना पैदा करके एकता पैदा की गई। अनेक स्थानों पर विद्रोहियों ने स्त्रियों और पुरुष दोनों का सहयोग लिया ताकि समाज में लिंग भेदभाव कम हो।

(ii) हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर मुगल सम्राट बहादुर शाह का अशीर्वाद प्राप्त किया ताकि

विद्रोह का वैधता हासिल (Legal sanction) प्राप्त हो सके और मुगल बादशाह के नाम से विद्रोह को चलाया जा सके।

(iii) विद्रोहियों ने मिलकर एक सामान्य शत्रु फिरंगियों का सामना किया। उन्होंने दोनों

समुदायों में लोकप्रिय तीन भाषाओं हिंदी, उर्दू और फारसी में अपीलें जारी की।

(iv) विद्रोहियों के नाम से जारी की गई घोषणा में मुहम्मद और महावीर, दोनों की दुहाई

देते हुए जनता से इस लड़ाई में शामिल होने का आह्वान किया गया। दिलचस्प बात यह है कि

आंदोलन में हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा करने की अंग्रेजों द्वारा की गई कोशिशों के

बावजूद ऐसा कोई फर्क नहीं दिखाई दिया। अंग्रेज शासन ने दिसंबर 1857 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश

स्थित बरेली के हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने के लिए 50,000 रुपये खर्च किए।’

उनकी यह कोशिश नाकामयाब रही।

(v) विद्रोहियों को आम लोगों के विद्रोह में शामिल करने लिए सहयोग देने को कहा।

अनेक नाइयों ने बाल काटने और धोबियों ने कपड़े धोने तक बंद कर दिए जिन्हें वे अंग्रेजों के

पिट्ठू मानते थे।

(vi) सभी लोगों ने सूदखोरों, सौदागरों और साहूकारों को इसलिए लूटा ताकि पिछड़े और

गरीब लोग उनसे अपना बदला ले सकें और विद्रोहियों की संख्या आम लोगों के विद्रोह में शामिल

होने से बढ़ सके।

(vii) 1857 में विद्रोहियों द्वारा जारी की गई घोषणाओं में जाति और धर्म का भेद दिए बिना

समाज के सभी तबकों का आह्वान किया जाता था। बहुत सारी घोषणाएँ मुस्लिम राजकुमारों या

नवाबों की तरफ से या उनके नाम पर जारी की गई थीं, परंतु उनमें भी हिन्दुओं की भावनाओं

का ख्याल रखा जाता था।

(viii) विद्रोहियों ने कई संचार माध्यमों का प्रयोग किया। सिपाही या उनके संदेशवाहक एक

स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे थे। विद्रोहियों ने कार्यवाही की समरूपता, एक जैसी योजना और

समन्वय स्थापित किया ताकि लोगों में एकता पैदा हो।

(ix) अनेक स्थानों पर सिपाही अपनी लाइनों में रात के समय पंचायतें जुटाते थे जहाँ सामूहिक

रूप से कई फैसले लिए जाते थे। वे अपनी-अपनी जाति और जीवन-शैली के बारे में निर्णय लेते

थे। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को अनेक मुस्लिम और हिन्दू सिपाहियों ने और कानपुर में घोषित

पेशवा नाना साहब को साहस और वीरता का प्रतीक बताया गया ताकि सभी लोग एक मंच पर

आकर ब्रिटिश राज्य के खिलाफ लड़ सकें। सभी लोगों ने लार्ड विलियम बैंटिंक द्वारा किए गए

सामाजिक सुधार कार्य, विदेशी शिक्षा का प्रचार, सती प्रथा का उन्मूलन, हिंदू विवाह की वैधता

को ही एकता स्थापन और अंग्रेजों के विरुद्ध लोगों में विचार उत्पन्न करने के लिए एक सूत्रबद्ध

किया। सिपाहियों और अंग्रेज विरोधी लोगों को अफवाहों से अधिकांश स्थानों पर लोगों को लगता था कि वे अब तक जिन चीजों की कद्र करते थे, जिनको पवित्र मानते थे -चाहे राजे-रजवाड़े हों, सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाज हों या भू-स्वामित्व, लगान अदायगी की प्रणाली हो-उन सबको खत्म करके एक ऐसी व्यवस्था लागू की जा रही थी जो ज्यादा हदयहीन, परायी और दमनकारी थी।

(x) 1857 के विद्रोह को एक ऐसे युद्ध के रूप में पेश किया जा रहा था जिसमें हिंदुओं

और मुसलमानों, दोनों का नफा-नुकसान बराबर था। इश्तहारों में अंग्रेजों से पहले के हिंदू-मुस्लिम अतीत की ओर संकेत किया जाता था और मुगल साम्राज्य के तहत विभिन्न समुदायों के सहअस्तित्व का गौरवगान किया जाता था।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1. 1857 के विद्रोह के आरंभ और प्रसार पर एक निबन्ध लिखिए।

उत्तर-विद्रोह का आरम्भ और प्रसार (Beginning and spread of the revolt) :

प्लासी के युद्ध (23 जून, 1757) को हुए लगभग 100 वर्ष बीत गये थे। कुछ विद्वानों के अनुसार

1857 का विद्रोह एक सोची-समझी योजना थी। 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर में मंगल पांडेय

नामक एक सैनिक ने गाय की चर्बी से बने कारतूसों की मुँह से काटने से स्पष्ट मना कर दिया।

फलस्वरूप उसे गिरफ्तार करके 8 अप्रैल, 1857 को फांँसी दे दी गई थी।

दिल्ली के विद्रोह का समाचार बड़वानल की भाँति आस-पास के प्रदेशों में फैला। दिल्ली

में इस विद्रोह का नाममात्र का नेतृत्व बहादुरशाह द्वितीय ने किया। वास्तविक नेतृत्व उसके सेनापति बख्त खाँ ने किया।

लखनऊ में 4 जून, 1857 को अवध की बेगम हजरत महल ने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस

काद्र को नवाब घोषित कर बगावत कर दी। कानपुर में विद्रोह 5 जून, 1857 को प्रारंभ हुआ,

जिसका नेतृत्व नाना साहब ने किया। झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना से भयंकर टक्कर ली।

रुहेलखंड में विद्रोह का नेतृत्व अहमदुल्ला ने किया। अहमदुल्ला एक देशभक्त और सैनिक

प्रतिभा का व्यक्ति था। उसने खुलकर विद्रोह का प्रचार किया लेकिन उसे पंवान के राजा

जगन्नाथसिंह के भाई ने 50 हजार के लालच में धोखे से मरवा दिया।

16 नवम्बर, 1857 को नारनौल के समीप एक लड़ाई हुई, जिसमें 70 ब्रिटिश सैनिक मारे

गए और 45 घायल हुए। उनका कमांडर कर्नल जीरार्ड व कैप्टन वैलेस मारे गए और क्रंजे, कनेडी और पियर्स घायल हुए। पानीपत में बूऊली कलंदर के इमाम के नेतृत्व में विद्रोह हुआ। बाद में इमाम को फाँसी दे दी गई। अंबाला ने साठवीं देशी पलटन ने भी विद्रोह किया। 1856-57 और 1857-58 की पंजाब की प्रशासकीय रिपोर्टों के अनुसार 386 व्यक्तियों को फाँसी हुई।

डॉ. वी. डी. दिवेकर ने 1993 में अपने प्रसिद्ध शोध ग्रंथ ‘साउथ इंडिया इन 1857 : वार

ऑफ इंडिपेंडेंस’ में इसका शोधपूर्ण विवेचन किया है। 1857 का विद्रोह न केवल उत्तर भारत

में अपितु दक्षिण भारत में भी दूर तक फैला।

महाराष्ट्र में लगभग 20 स्थानों पर भारतीय सैनिकों और स्थानीय व्यक्तियों ने इसकी क्रांति

को प्रज्वलित किया। 10 जून, 1857 को सतारा में और 13 जुलाई को पंढरपुर में विद्रोह किया

गया। सोनाजी पंत की मृत्यु हो जाने से रंगाराव पांगे ने स्थान-स्थान पर घूमकर विद्रोह भावना

जगाई। 1859 में उन्हें गिरफ्तार कर अंडमान निर्वासित कर दिया गया। 1858 में गोलकुंडा क्षेत्र

में विद्रोह हुआ। राजामुंदरी में 11 क्रांतिकारियों को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ षड्यंत्र में गिरफ्तार किया गया। यह विद्रोह मछलीपट्टनम और गुंटूर तक फैला। कर्नाटक में मैसूर, कारवाड़,

जमाखिंडी, बीजापुर, कोप्पल, सतारा और बेलगाँव प्रमुख क्षेत्र रहे।

तमिलनाडु में मद्रास (चेन्नई), चिंगलपुर, उत्तरी अरकाट, सेलम, कायंबटूर और तिरुनेलवेली

विद्रोह के प्रमुख केन्द्र रहे। भारत में सुदूर दक्कन का क्षेत्र, केरल भी इस विद्रोह की चिंगारियों

से दूर नहीं रहा। किपलोन, कोचीन, कालीकट इसके प्रमुख स्थान थे।

1857 को विद्रोह दक्षिण के विभिन्न स्थानों में व्याप्त था। इसमें नाना साहिब की विशेष

भूमिका रही। स्थानीय विद्रोही नेताओं में प्रसिद्ध-सतारा के रंगा बापूजी गुप्ते, हैदराबाद के सोनाजी पंडित, रंगाराव पांगे, मौर वी सैयद अलाउद्दीन, कर्नाटक के भीमराव मुंडी, मद्रास के गुलाम गौस और सुल्तान बख्श, कोयम्बटूर के मुलबागल स्वामी, केरल के विजय कुदरत कुंडी मामा और मुल्ला सली कोनजी सरकार थे। संक्षेप में यह विद्रोह राष्ट्रव्यापी था।

प्रश्न 2. क्या 1857 का विद्रोह सैनिक विद्रोह था ? पक्ष और विपक्ष में तर्क दीजिए।

उत्तर-सिपाही विद्रोह के समर्थक यूरोपियन इतिहासकारों के नाम हैं-मार्श मैन, सीले, जॉन

लारेंस आदि। उनके अनुसार सिपाही विद्रोह का एकमात्र कारण था-चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग। इस विद्रोह में जनसाधारण ने हिस्सा नहीं लिया। जो जमींदार, शासक आदि इस विद्रोह में शामिल थे, वे केवल अपने स्वार्थ के कारण अंग्रेजों से बदला लेना चाहते थे। इस मौके से लाभ उठाकर असंतुष्ट जमींदार, वे राजा जिनका राज्य हड़प लिया गया था या जिनकी पेंशन बंद कर दी गई थी, वे सभी विद्रोह में कूद पड़े। उपरोक्त कथन के पक्ष और विरोध संबंधी तथ्यों का विश्लेषण करना आवश्यक है

1. सिपाही विद्रोह के पक्ष में तर्क (Logic in the favour of Sepoy): (i) इस विद्रोह

का प्रारम्भ सैनिक छावनी से हुआ। इसका प्रभाव भी मुख्य रूप से सैनिकों पर पड़ा। जहाँ-जहाँ।

भारतीय सैनिक थे, विद्रोह की आग से वे भी भड़क उठे। केवल उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों तक

ही इस विद्रोह का प्रभाव रहा। उतर भारत के कुछ देशी राजा भड़क उठे जिनकी गद्दियाँ छिन

गई थीं या जिनकी पेंशने बंद हो गई थीं। अन्य राजा इससे दूर ही रहे। उत्तर भारत में पंजाब पर

इसका कोई प्रभाव न पड़ा। अतः इस विद्रोह में राष्ट्रीय संग्राम का रूप नहीं देखा जा सकता।

(ii) चर्बी वाले कारतूस ही इस विद्रोह का मुख्य कारण बने। हिन्दू सैनिक इसलिए भड़के,

क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि इन कारतूसों पर जो चिकना पदार्थ लगा है, वह गाय की चर्बी

है। मुसलमान सैनिक इसलिए भड़के क्योंकि उन्होंने भी सुन रखा था कि कारतूसों पर लगा चिकना पदार्थ सूअर की चर्बी थी। अत: गाय और सूअर की चर्बी से सने कारतूसों को प्रयोग में लाने से पहले दाँतों से छीलने का अर्थ था दोनों सम्प्रदायों का धर्मभ्रष्ट होना। अत: दोनों सम्प्रदायों में धार्मिक ठेस पहुंँचाने से भी सैनिक भड़के।

(iii) अंग्रेजों से किसान, मजदूर और जनसाधारण तंग थे, परन्तु उन्होंने इस विद्रोह में भाग

नहीं लिया। भारत को गाँवों का देश कहा जाता है, परन्तु आश्चर्य की बात है कि गाँव इस विद्रोह

की तपिश से अछूते रहे। यह विद्रोह कुछ प्रसिद्ध नगरों तक ही सीमित रहा।

(iv) इस विद्रोह को केवल मुट्ठी भर सैनिकों ने ही दबा दिया। सिक्खों और गोरखों ने अंग्रेजों

का इस काम में साथ दिया। अगर यह जनसाधारण का विद्रोह होता तो हर नगर और हर गाँव

इसकी चपेट में आ जाता। फिर अंग्रेजों के वश की बात न थी कि वे इसे दवा पाते। इसके विपरीत

अंग्रेजों को ही भारत से अपना बिस्तर समेटना पड़ता।

2. सिपाही विद्रोह के विरुद्ध तर्क (Logic against the Sepoy Mutiny) : (i) इस

विद्रोह में केवल सैनिक ही नहीं लड़े थे, बल्कि जनसाधारण भी लड़ा था। यह अलग बात है कि

योजनाबद्ध तरीके से वे किसी एक स्थान से नहीं लड़े थे।

(ii) झाँसी और दिल्ली के नागरिक सैनिकों के साथ मिलकर अपने-अपने नगर की रक्षा कर

रहे थे। उन्होंने अंग्रेजी सेना को पीछे धकेल दिया। जो भी संभव सहायता दे सकते थे, उन्होंने

सैनिकों को यथाशक्ति सहायता प्रदान की।

(iii) इस विद्रोह में ग्रामवासी भी पीछे नहीं रहे। दिल्ली और मेरठ के बीच गाँवों के लोग

सैनिकों के साथ आ मिले थे। इन किसानों का अंग्रेजों के प्रति भारी रोष था। अतः वे इस मौके

को नहीं गवाना चाहते थे। हाँ, लड़ाई के मुख्य केन्द्र नगर ही थे। इसलिए लोग गाँवों की भूमिका

का मूल्यांकन कम करते हैं।

(iv) कई स्थानों पर सैनिकों की टुकड़ी अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्त बनी रही। अतः विद्रोह

को पूरी तरह से सैनिक विद्रोह कहना ठीक नहीं।

(v) अंग्रेजी सेना ने जब विद्रोह कुचला तो उन्होंने केवल विद्रोही सैनिकों को ही दण्डित नहीं

किया, बल्कि स्त्री, पुरुष और बच्चों को भी वे रौंदते हुए आगे बढ़ रहे थे। इससे स्पष्ट होता है

कि जनसाधारण ने भी विद्रोह में भाग लिया था, अन्यथा ऐसे नाजुक समय में अंग्रेज जनसाधारण

को दंड देकर अपने विरुद्ध करने की भूल न करते।

प्रश्न 3. “1857 ई. के विद्रोह ने लोकप्रिय विद्रोह का स्वरूप ले लिया।” उक्त कथन

की समीक्षा कीजिए।

अथवा, 1857 के विप्लव में भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों और व्यक्तियों के

योगदान या भूमिका पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-उपरोक्त कथन पूर्णतः सत्य है कि 1857 ई. के विद्रोह ने लोकप्रिय विद्रोह का स्वरूप

ले लिया था, जो निम्नलिखित तत्वों से स्पष्ट हो जायेगा-

1. इस विद्रोह में बड़े पैमाने पर विभिन्न वर्गों के लोग शामिल हुए जिनमें किसान, मजदूर,

कारीगर, दुकानदार, जमींदार, सिपाही, शासक आदि प्रमुख थे।

2. किसानों और पुराने जमींदारों ने अपनी भावनाओं का खुलकर प्रदर्शन किया। किसानों,

सूदखोर महाजनों ने नये जमींदारों तथा सैनिकों पर आक्रमण किये। उनके घरों, कागज-पत्रों आदि को जला दिया। किसानों को इन दोनों ने भूमि से बेदखल किया था।

3. महाजनों के बहीखातों और सूद आदि से संबंधित कागजों को क्रुद्ध किसानों ने जला दिया था।

4. कई स्थानीय नेतृत्व कर रहे लोगों के पीछे असंख्य लोग सिपाहियों की तरह लड़ने-कटने

को तैयार खड़े थे।

5. जिन स्थानों पर विद्रोह नहीं भड़का था, वहाँ के लोगों की सहानुभूति भी विद्रोहियों के

साथ थी।

6. उन स्थानों पर सिपाहियों का सामजिक बहिष्कार किया गया, जहाँ पर सिपाही अंग्रेजी

सेना के प्रति वफादार थे।

7. अंग्रेजों ने अपना दमन चक्र केवल विद्रोही सैनिकों के विरुद्ध ही नहीं चलाया, बल्कि उन्होंने,

अवध, उत्तर-पूर्वी प्रान्तों, मध्य भारत और पश्चिमी बिहार के लोगों पर भी अत्याचार किए।

8. विद्रोह की शक्ति हिन्दू-मुस्लिम एकता में निहित थी।

9. विद्रोह की सशक्ता एवं लोकप्रियता इसी बात से झलकती है, जब पूरी ब्रिटिश सत्ता काँप

उठी और पूरे जोर-शोर से अपनी सारी शक्ति के साथ इसे दबाने में लग गई।

10. लोगों को खुलेआम फाँसी पर लटकाना या तोपों के मुँह के आगे बाँधकर उन्हें उड़ा

देना, इस बात का प्रतीक है कि अंग्रेज लोगों में आतंक फैलाना चाहते थे।

11. लोगों ने ब्रिटिश सेना के साथ सक्रिय शत्रुता का व्यवहार किया। उसको किसी प्रकार

की सहायता देने या सूचना देने से इंकार कर दिया तथा उन्हें गलत सपना देकर गुमराह किया।

12. विद्रोह दबाने के लिए अंग्रेजों ने पूरे के पूरे गाँव जला दिए तथा नगरों में रहने वाले लोगों का बड़े पैमाने पर संहार किया।

13. हिन्दू और मुसलमान विद्रोही और सिपाही एक-दूसरे का पूरा सम्मान करते थे। जैसे

विद्रोह जहाँ भी शुरू हुआ वहाँ हिन्दुओं की भावनाओं को आदर करते हुए मुसलमानों ने गोहत्या

बंद कर दी थी। हिन्दुओं ने भी बड़े सम्मान से बहादुरशाह द्वितीय को विद्रोह का नेता मान लिया था।

प्रश्न 4. 1857 ई. के विद्रोह की मुख्य कमजोरियाँ क्या थी ?

उत्तर-(i) यह विद्रोह पूरे देश को या भारतीय समाज के सभी अंगों तथा वर्गों को अपनी

लपेट में नहीं ले सका। यह दक्षिणी भारत तथा पूर्वी और पश्चिमी भारत के अधिक भागों में नहीं

फैल सका, क्योंकि इन क्षेत्रों में पहले ही कई विद्रोह हो चुके थे। भारतीय रजवाड़ों के अधिकांश

शासक और जमींदार पक्के स्वार्थी थे। इसके विपरीत ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर,

हैदराबाद के निजाम, जोधपुर के राजा तथा अन्य राजपूत शासक, भोपाल के नवाब, पटियाला,

नाभा और जींद के सिक्ख शासक तथा पंजाब के अन्य सिक्ख सरदार, कश्मीर के महाराजा, नेपाल के राणा आदि ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों की सक्रिय सहायता की।

(ii) आधुनिक शिक्षा प्राप्त भारतीयों ने भी विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। उनके मन में गलन

विश्वास भरा था कि अंग्रेज आधुनिकीकरण के कार्य को पूरा करने में उनकी सहायता करेंगे जबकि जमींदारों, पुराने शासकों और सरदारों तथा दूसरे सामन्ती तत्वों के नेतृत्व में लड़ने वाले विद्रोही देश को पीछे ले जायेंगे।

(iii) विद्रोही भाले, तलवार आदि प्राचीन हथियारों से ही लड़ रहे थे। उनका संगठन भी

दोषपूर्ण था। सिपाहियों में अनुशासन की कमी थी। देश के विभिन्न भागों में हो रहे विद्रोहियों

में कोई तालमेल नहीं था। किसी क्षेत्र विशेष से अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद उसके

स्थान पर कौन-सी सत्ता स्थापित की जायेगी उन्हें मालूम नहीं था।

(iv) भारतीय अभी तक आधुनिक राष्ट्रवाद से अपरिचित थे। देश प्रेम का अर्थ अपनी

छोटी-सी बस्ती, क्षेत्र या अधिक से अधिक अपनी राजसत्ता से प्रेम था।

(v) अंग्रेजों के पास हर प्रकार के स्रोत तथा आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस विशाल सेना

थी। अच्छे सेनापति भी थे जो हर परिस्थितियों में लड़ना जानते थे। उनके पास रेलवे तथा यातायात के अन्य साधन भी थे इसलिए विद्रोह कुचल दिया गया। ऐसे शक्तिशाली और दृढ़ निश्चयी शत्रु के आगे केवल साहस नहीं ठहर सकता था।

प्रश्न 5. 1857 की क्रान्ति की असफलता के कारणों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर-असफलता के निम्नलिखित कारण थे:

(i) संगठन की भावना (Lack of Organisation) : यह क्रांति सारे भारत की संगठित

क्रान्ति न थी। इसमें संदेह नहीं कि क्रान्ति की चिनगारियाँ दूर-दूर तक गई थीं। फिर भी संगठन

के अभाव के कारण देशव्यापी क्रान्ति नहीं हुई। भारतीयों में राष्ट्रीयता का भाव नहीं था।

उत्तर-पश्चिम में अफगान शान्त रहे। अफगानिस्तान के शासक दोस्त-मुहम्मद ने संकटपूर्ण स्थिति

होने पर भी उससे लाभ उठाने का प्रयास नहीं किया। सिक्खों और गोरखों ने अंग्रेजों की सहायता की। भारत के देशी राजा राजभक्त बने रहे और अंग्रेजों के साथ बने रहे। सिंधिया, होल्कर, निजाम और राजपूत राजाओं ने अंग्रेजों की सहायता की।

(ii) उद्देश्य का अभाव (Lack ofAim) : क्रान्तिकारियों का कोई निश्चित उद्देश्य नहीं था।

सभी शासकों और जमींदारों के निजी स्वार्थ थे, जिनके लिए वे लड़े थे। मुसलमान मुगल साम्राज्य

को पुनर्जीवन देना चाहते थे जबकि हिन्दू लोग हिन्दू राज्य की स्थापना के इच्छुक थे। बहादुरशाह द्वितीय दिल्ली पर अधिकार बनाये रखना चाहता था। झाँसी को रानी अपनी झाँसी को बचाना

चाहती थीं, जबकि नाना साहब अपनी पेंशन बचाने के लिए जूझ रहे थे। इस समय तक

जन-साधारण राष्ट्रीयता की भावना से दूर था।

(iii) योग्य नेतृत्व का अभाव (Lack of Capable Commandership) : विद्रोहियों के

पास योग्य सैनिक नेतृत्व का अभाव था जबकि अंग्रेजी सेनाओं का संचालन एक ही प्रधान

सेनापति के अधीन नील, हैवलाक, आट्रम, ह्यूरोज, निकल्सन और लारेन्स जैसे योग्य और

अनुभवी जनरलों ने किया। क्रान्तिकारियों का प्रधान सेनापति मिर्जा मुगल (बहादुर शाह द्वितीय

का पुत्र) था जिसमें किसी प्रकार की सैनिक प्रतिभा न थी। विद्रोहियों में केवल झाँसी की रानी

और तात्या टोपे योग्य सेनानी थे। अवध की बेगम हजरत महल और दिल्ली की सम्राज्ञी जीनत

महल भी नरेशों और जागीरदारों से तालमेल न स्थापित कर सकीं। अत: विद्रोही बिना किसी

निश्चित योजना के लड़ते रहे। उनकी शक्ति बिखरी हुई थी। इसको नष्ट करने में अंग्रेजों को अधिक समय नहीं लगा।

(iv) अंग्रेजों के उत्तर संसाधन (Good reasources of the Englihs) : अंग्रेजों के साधन,

विद्राहियों के साधनों से अधिक उत्तम थे। उनके पास अनुशासित सेना और नवीनतम हथियार थे।

उनके पास यातायात और संचार व्यवस्था थी, जबकि विद्रोहियों के पास ऐसा कुछ नहीं था। अंग्रेजों को नौसैनिक शक्ति और तोपखाना अधिक उपयोगी थे।

(v) अंग्रेजों को भारतीयों द्वारा सहायता (Help to the English by the Indians) :

क्रान्तिकारियों में मुख्यतः सामन्तवादी तत्व ही थे, कुछ राष्ट्रवादी तत्व साथ तो थे, परन्तु नहीं के

बराबर। क्रान्तिकारियों के नेता भी प्राय: सामन्त थे। पटियाला, जींद, ग्वालियर, हैदराबाद और नेपाल के देशी राजाओं ने अंग्रेजों की बड़ी सहायता की और बड़ा सहयोग दिया। देशी राजाओं के अतिरिक्त सिक्खों और गोरखों ने भी अंग्रेजों की बड़ी सहायता की थी।

(vi) अंग्रेजों की क्रूरता (Cruelty of the English) : अंग्रेजों ने भारतीयों को विद्रोह में

शामिल होने से रोकने के लिए अनेक यातनाएँ दी तथा बर्बरता का प्रयोग किया। हजारों निरपराध

लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। उनकी लाशों को पेड़ों पर टाँग दिया गया। घरों में और

खेतों-खलिहानों में आग लगा दी गई। पंजाब का पल्टन नं. 26 को भंग कर दिया गया। बाद में

दस-दस की पंक्ति बनाकर उन्हें गोली से उड़ा दिया गया। इस प्रकार की क्रूरता द्वारा अंग्रेजों ने

जनता में आंतक फैला दिया।

(vii) समय से पूर्व क्रान्ति फैलना (Mutiny started before the scheduled time):

विद्रोह की निर्धारित तिथि 31 मई, 1857 विद्रोह का नेतृत्व करने वालों ने अपने कार्यकर्ताओं को

वेश बदलकर स्थान-स्थान पर भेजा। विद्रोह के दो प्रतीक चिह्न भी तैयार किए गये। कमल विद्रोही सेना का चिह्न था और चपाती विद्रोही जनता का चिह्न था। इन चिह्नों को गाँव-गाँव और सैनिक छावनियों में घुमाया कुछ जोशीले और आक्रोश से भरे लोगों ने समय से पहले ही अंग्रेज

अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया। बैरकपुर में मंगल पांडे इसका प्रत्यक्ष उदाहरण था।

प्रश्न 6. 1857 के विद्रोह की प्रमुख उपलब्धियों का वर्णन कीजिए। (M. Imp.)

उत्तर-विद्रोह के उपलब्धियाँ (Achievements of the Revolt) : 1857 का प्रथम

स्वतन्त्रता संग्राम चाहे असफल रहा, परन्तु इसकी अनेक उपलब्धियाँ एवं परिणाम बहुत ही

महत्वपूर्ण थे। यह विद्रोह व्यर्थ नहीं गया। यह अपनी उपलब्धियों के कारण ही हमारे इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रेणियों में आ सका। इसकी उपलब्धियाँ निम्न थीं :

(i) हिन्दू-मुस्लिम एकता (Hindu-Muslim unity) : इस आन्दोलन एवं संघर्ष के दौरान

हिन्दू एवं मुस्लिम न केवल साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर अपने देश के

बारे में एक सामान्य मंच पर आए, बल्कि लड़े और एक साथ ही यातनायें भी सहीं। अंग्रेजों को

यह एकता तनिक भी नहीं भायी। इसलिए उन्होंने शीघ्र ही अपनी ‘फूट डालो एवं शासन करो’

की नीति को और तेज कर दिया।

(ii) राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि (The background of National Movement) :

राष्ट्रीय आन्दोलन एवं स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष की पृष्ठभूमि को इस विद्रोह ने तैयार

किया। इसी संग्राम ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता के जो बीज बोए उसी का फल 15 अगस्त, 1947

को प्राप्त हुआ।

(iii) देशभक्ति की भावना का प्रसार (Spread of Patriotic feelings) : इस संग्राम ने

भारतीय जनता के मस्तिष्क पर वीरता, त्याग एवं देशभक्तिपूर्ण संघर्ष की एक ऐसी छाप छोड़ी

कि वे अब प्रान्तीय एवं क्षेत्रीयता की संकीणं भावनाओं से ऊपर उठकर धीरे-धीरे राष्ट्र के बारे

में एक सच्चे नागरिक की तरह सोचने लगे। विद्रोह के नायक सारे देश के लिए प्रेरणा के स्रोत

एवं घर-घर में चर्चित होने वाले नायक बन गए। यह इस आन्दोलन की एक महान उपलब्धि थी।

(iv) देशी राज्यों को राहत (Relief to the Princely States) : देशी राजाओं को अंग्रेजी

सरकार ने यह आश्वासन दिया कि भविष्य में उनके राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग नहीं

बनाया जाएगा। उनका अस्तित्व स्वतन्त्र रूप से बना रहेगा। इसलिए अधिकांश देशी राजाओं ने

ब्रिटिश शासन का समर्थन करना शुरू कर दिया। भारतीय शासकों को दत्तक पुत्र लेने का अधिकार दे दिया गया। इससे अनेक शासकों ने राहत की सांँस ली।

(v) भारतीयों को सरकारी नौकरियों की घोषणा (Govt. Service to the Indians):

सैद्धान्तिक रूप में भारतीय सर्वोच्च पदों पर धीरे-धीरे प्रगति करके जा सकते थे। सरकारी घोषणा की गई थी कि भारतीयों के साथ जाति एवं रंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा;

लेकिन अंग्रजों ने अपना वायदा पूरा नहीं किया, जिससे राष्ट्रीय आन्दोलन बराबर बढ़ता गया।

(vi) धार्मिक हस्तक्षेप समाप्त कर दिया गया (The religious interference ended):

सैद्धान्तिक रूप से भारतीय प्रजा को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता का विश्वास दिलाया गया, लेकिन

व्यावहारिक रूप से हिन्दू और मुसलमानों में धार्मिक घृणा एवं साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया।

प्रश्न 7. अवध में विद्रोह इतना व्यापक क्यों था ? किसान, ताल्लुकदार और जमींदार

उसमें क्यों शामिल हुए?                                                 (NCERTT.B.Q.6)

उत्तर-अवध में विद्रोह की व्यापकता के कारण :

(i) लार्ड डलहौजी ने 1851 में यह निर्णय ले लिया था कि किसी न किसी बहाने से अवध

को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया जाएगा। पाँच साल बाद (1856) उसने इस रियासत को ब्रिटिश

साम्राज्य का अंग धोषित कर दिया। यद्यपि अवध अंग्रेजों का मित्र राज्य था लेकिन वहाँ की जमीन और कपास की खेती के लिए बहुत उचित थी। इस इलाके को उत्तरी भारत के बड़े बाजार के रूप में विकसित किया जा सकता था। अवध के नवाब वाजिद अली शाह को यह कहते हुए गद्दी से हटाकर कलकता (कोलकाता) भेज दिया गया कि वह शासन अच्छी तरह नहीं चला रहा था। इसके अतिरिक्त उन्होंने बिना सोचे-समझे यह भी घोषित कर दिया कि नवाब अपनी जनता में लोकप्रिय नहीं था। उनके यह दोनों आरोप सत्य से कोसों दूर थे। नवाब अपनी जनता में बहुत

प्रिय था। लोग उसे दिल से चाहते थे। कहते हैं कि जब अंग्रेजों ने जबरदस्ती अवध की झूठे बहाने से हथिया कर नवाब को लखनऊ से कलकता भेजा तो अवध के लोग आँखों में आँसू भरकर रोते हुए अपने नवाब को छोड़ने के लिए कानपुर तक उसके पीछे गए। मौका आने पर 1857

में अवध की जनता ने नवाब के परिवार के प्रति अपना भाव प्रकट किया।

(ii) अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने से अवध की जनता को गहरी भावनात्मक चोट

पहुँची थी। इस भावनात्मक उथल-पुथल को भौतिक क्षति के अहसास से और बल मिला। नवाब

को हटाए जाने से दरबार और उसकी संस्कृति भी खत्म हो गई। संगीतकारों, नर्तकों कवियों,

कारीगरों, बावर्चियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों और बहुत सारे लोगों की रोजी-रोटी जाती रही।

(iii) अवध जैसे जिन इलाकों में 1857 के दौरान प्रतिरोध बेहद सघन और लंबा चला था

वहाँ लड़ाई की बागडोर असल में ताल्लुकदारों और उनके किसानों के ही हाथों में थी। बहुत सारे

ताल्लुकदार अवध के नवाब के प्रति निष्ठा रखते थे। इसलिए वे अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए

लखनऊ जाकर बेगम हजरत महल (नवाब की पत्नी) के खेमे में शामिल हो गए। उनमें से कुछ

तो बेगम की पराजय के बाद भी उनके साथ डटे रहे।

(iv) किसानों का असंतोष अब फौजी बैरकों में भी पहुँचने लगा था क्योंकि बहुत सारे किसान

अवध के गाँवों से ही भर्ती किए गए थे। दशकों से सिपाही कम वेतन और वक्त पर छुट्टी न

मिलने के कारण असंतुष्ट थे। 1850 के दशक तक आते-आते उनके असंतोष के कई नए कारण

पैदा हो चुके थे।

(v) 1857 के जनविद्रोह से पहले के सालों में सिपाहियों के अपने गोरे अफसरों के साथ

रिश्ते काफी बदल चुके थे। 1820 के दशक के अंग्रेज अफसर सिपाहियों के साथ दोस्ताना

ताल्लुकात रखने पर अच्छा खासा जोर देते थे। वे उनकी मौजमस्ती में शामिल होते थे; उनके साथ मल्ल युद्ध करते थे, उनके साथ तलवारबाजी करते थे और उनके साथ शिकार पर जाते थे और यहाँ के रीजि-रिवाजों व संस्कृति से वाकिफ थे। उनमें अफसर की कड़क और अभिभावक का स्नेह, दोनों निहित थे।

(vi) 1840 के दशक में स्थिति बदलने लगी। अफसरों में श्रेष्ठता का भाव पैदा होने लगा

और वे सिपाहियों को कमतर नस्ल का मानने लगे। वे उनकी भावनाओं की जरा-सी भी फिक्र

नहीं करते थे। गाली-गलौज और शारीरिक हिंसा सामान्य बात बन गई। सिपाहियों व अफसरों

के बीच फासला बढ़ता गया। भरोसे की जगह संदेह ने ले ली। चिकनाई युक्त कारतूसों की घटना

इसका एक अच्छा उदाहरण थी।

प्रश्न 8. अवध में विद्रोह में किसान, ताल्लुकदार और जमींदार क्यों शामिल हुए ?

उत्तर-अवध में भिन्न प्रकार की पीड़ाओं जैसे राजसत्ता का नवाब से छीना जाना, उसके

राज्य भू-भाग का छीना जाना, नवाब और उसके परिवारजनों के लिए प्रतिष्ठा, प्रभाव और सम्मान के विरुद्ध था। ताल्लुकदारों से भू-भाग और भू-संपदाएँ छीन ली गईं तथा अनेक जमींदारों की जमीनें नीलाम कर दी गई। किसानों से भारी भू-राजस्व कठोरता से वसूल किया गया। बड़ी संख्या में अवध के नवाब के सैनिकों को नौकरी से अलग कर दिया गया। इन तमाम पीड़ा उत्पन्न करने वाली उथल-पुथलों और घटनाओं ने अनेक नवाबों, अवध के ताल्लुकदारों जमींदारों और सिपाहियों का परस्पर जोड़ दिया। वे फिरंगी राज के आगमन को विभिन्न अर्थों में एक प्यारी दुनिया की समाप्ति के रूप से देखने लसे थे। वे सभी चीजें उनकी आँखों के सामने देखते ही देखते बिखर रही थीं जो लोगों के लिए बहुत मूल्यवान थीं तथा जिन्हें वे प्यार करते थे।

1857 के विद्रोह के शुरू होने के बाद ताल्लुकदारों की जागीरें, उनके किले, पैतृक भू-संपदाएँ

और जिस सत्ता का स्वाद वे कई पीढ़ियों से चखते आ रहे थे वे सब अंग्रेजी राज ने उनसे छीन

लिया। जो पहले ताल्लुकदारों के पास हथियारबंद सिपाही होते थे वह अवध के अधिग्रहण के

तुरंत बाद ताल्लुकदारों से सेनाएँ छीन ली गईं और उनके दुर्ग ध्वस्त कर दिए गए।

1856 में अंग्रेजों ने अवध में एकमुश्त बंदोबस्त के नाम से भू-राजस्व व्यवस्था लागू कर

दी। यह बंदोबस्त इस मान्यता पर आधारित था कि ताल्लुकदार सरकार और रैयतों के बीच माध्यम थे जिनके पास जमीन का मालिकाना हक (Ownership) नहीं था। अंग्रेज कहते थे कि ताल्लुकदारों को हटाकर वे जमीन असली मालिकों के हाथ में सौंप देंगे जिससे किसानों के शोषण में कमी आएगी। जो सरकार को राजस्व वसूली के बाद मिलता है उसकी कुल रकम में बढ़ोतरी होगी। वस्तुतः ऐसा नहीं हुआ।

हाँ, कम्पनी के भू-राजस्व में वृद्धि जरूर हुई, उस बढ़ी हुई रकम का बोझ किसानों के कंधों

पर ही पड़ा। यह बोझ कई स्थानों पर पहले भू-राजस्व के तुलना में 30 प्रतिशत अधिक था।

पहले किसानों और ताल्लुकादारों में सामाजिक जान-पहचान और संबंध होते थे, बुरे समय

में वे किसानों की हर तरह मदद करते थे। अंग्रेजों के काल में वह भाईचारा और सामाजिक संपर्क

समाप्त हो गए। किसानों को अब उम्मीद नहीं रही कि शादी या सामाजिक रीति-रिवाज निभाने

के लिए अथवा तीज-त्यौहारों पर वह ताल्लुकदारों से बड़ी आसानी से कर्ज ले सकते थे। अंग्रेज

उन्हें बिल्कुल नहीं देंगे। किसानों के रोष ताल्लुकदारों के साथ-साथ सैनिकों की छावनियों में भी

पहुँच गया क्योंकि सेना में जो थे गाँव के कृषि परिवारों से ही भर्ती किए गए थे।

अवध के सिपाहियों को यूरोपीय सिपाहियों की तुलना में कम वेतन और समय पर उनकी

इच्छानुसार छुट्टी नहीं मिलती थीं। इससे सिपाही बड़े असंतुष्ट थे। 1857 के विद्रोह से पहले अवध के सिपाहियों के अफसरों के साथ काफी अच्छे संबंध न थे लेकिन अब वे अवध के मूल निवासी सिपाहियों से घृणा करने लगे, वे स्वयं को उनसे श्रेष्ठ मानने लगे, वे प्रायः उनसे अभद्र भाषा में बातें किया करते थे, दोनों के मध्य फासला बढ़ गया और भरोसे का स्थान संदेह ने ले लिया। चिकनाई वाले कारतूसों ने धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाई। यही कारण था कि किसान, उनके रिश्तेश्दार, वर्षों से हमदर्दी रखने वाले ताल्लुकदार और जमींदारों ने अवध क्षेत्र में भड़के 1857 के विद्रोह में हिस्सा लिया।

प्रश्न 9. विद्रोही क्या चाहते थे ? विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि से उनमें कितना

फर्क था ?                                                                 (NCERTT.B. Q.7)

उत्तर-1857 के विद्रोह में विभिन्न वर्गों एवं सामाजिक समूहों ने भाग लिया था। उनके निहित

स्वार्थ, उद्देश्य, प्रेरणातत्व अलग-अलग थे इसलिए वे अलग-अलग चाहत रखते थे। विभिन्न

सामाजिक समूहों की दृष्टि से उनमें पर्याप्त अंतर भी था। इन दोनों पहलुओं पर हम निम्न तरह

से विचार व्यक्त कर सकते हैं :

(i) सैनिक : (क) 1857 के विद्रोह को शुरू करने वाले विभिन्न सैनिक छावनियों के सिपाही

थे। सिपाही अपने धर्म और भावनाओं की रक्षा चाहते थे और इसलिए उन्होंने चर्बी वाले कारतूसों

का प्रयोग करने से मना कर दिया।

(ख) सिपाही चाहते थे उन्हें यूरोपीय सिपाहियों की तरह अच्छा भोजन, अच्छी वर्दी, पर्याप्त

वेतन, सुविधाएँ और यथासम्भव इच्छानुसार अवकाश मिले। उन्होंने हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म

को अंग्रेजों की भ्रष्ट करने की चाल को विफल करना चाहा। वे अंग्रेजों की सत्ता को विदेशी सत्ता समझते थे और उनमें मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर की पुन:सत्ता स्थापना की चाह थी।

(ग) शासक वर्गों में मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, कानपुर

के भूतपूर्व मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहब, राजा, बड़े जागीरदार, आरा (बिहार) के कुँवरसिंह, अनेक ताल्लुकदार, आदिवासियों के मुख्यिा, जाट नेता शाहमल आदि अपने-अपने राज्य और जागीरें आदि प्राप्त करना चाहते थे। वे यह भी चाहते थे कि कम्पनी उनकी सामाजिक-धार्मिक परम्पराओं, प्रतिष्ठा, अधिकार आदि का पूरा सम्मान करे।

(ii) किसान, जमींदार, ताल्लुकदार, जोतदार आदि समाज के सभी वर्गों के लोग

भू-राजस्व कम कराना चाहते थे। अपनी जमीन पर अधिकतम, स्वेच्छा से स्थानीय लोगों में ताल्लुक और जोतदार भू-व्यवस्था और लगान आदि की वसूली में उदारता चाहते थे।

किसान भूमि से बेदखली पसंद नहीं करते थे। वे चाहते थे कि सरकार, जमींदार या मध्यस्थ

और जोतदार भूमि सुधारों में रुचि लें, कृषि उत्पादों का उचित मूल्य मिले, बाजारों में विपणन

सुविधाएँ हों, ऋण की या तो उचित व्यवस्था हो या स्थानीय साहूकारों और ऋणदाताओं पर

सरकार नियंत्रण रखे, ब्याज की दर कम हो और प्राकृतिक विपत्तियों के दिनों में न केवल लगान

की रकम में कमी हो अपितु उन्हें सरकारी सहायता, खाने-पीने का सामान, महामारियों के समय

बैल आदि यदि मर जाएँ तो उन्हें खरीदने के लिए तकावी या दीर्घ अवधि के ऋण कम ब्याज

पर उदारतापूर्वक दिए जाएँ। जमींदार चाहते थे कि पुरानी जमीनें उनसे न छीनी जाएँ तथा उन्हें

न्यायालय या कचहरियों में व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट मिले, क्योंकि कहचरी के चक्कर लगाना

वे अपनी तौहीन (अपमान) समझते थे। ताल्लुकेदार अपनी भूसंपदा पर अपने अधिकार को चाहते थे और वे जोतदारों को जमींदारों की तरह बहुत ज्यादा पसंद नहीं करते थे। दूसरी ओर जोतदार रैयतों पर मनमाने ढंग से नियंत्रण चाहते थे और वे जमींदारी नीलामी के समय ऊँची बोली लगाना अपना अधिकार मानते थे।

(iii) सामान्य लोग, व्यापारी और साहूकार : सामान्य लोग अपने पैतृक व्यवसायों को करते

हुए अपनी धार्मिक, सामाजिक और शिक्षा संबंधी व्यवस्थाओं में अंग्रेजों के हस्तक्षेप को पसंद नहीं करते थे। व्यापारी और सौदागरों की तरह अपने हित के लिए समान चुंगी, भाड़े और स्वतंत्र रूप से व्यापार करने की सुरक्षा और परम्परागत लेन-देन के ढंग से किसी भी तरह के हस्तक्षेप नहीं करते थे। धनाढ्य व्यापारी, सूदखोर और साहूकार कानूनों और न्यायालय को अपने हितों के अनुकूल मुड़वाना चाहते थे या अपने पक्ष में ही देखना चाहते थे।

रूढ़िवादी : रूढ़िवादी हिंदू और मुसलमान पूर्णयता ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों पर

नियंत्रण चाहते थे। वे पाश्चात्य शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के विरुद्ध थे। वे सती प्रथा, बाल

विवाह, बहुपत्नी विवाह, विधवा विवाह पर लगे प्रतिबंध आदि में किसी भी प्रकार का सरकारी

हस्तक्षेप पसंद नहीं करते थे।

प्रश्न 10. 1857 के विद्रोह के बारे में चित्रों से क्या पता चलता है ? ब्रिटिश

इतिहासकार इन चित्रों का किस तरह से विश्लेषण करते हैं? (NCERT T.B.Q.8)

अथवा, ब्रिटिश चित्रकारों ने 1857 के विद्रोह को किस रूप में देखा? [B.Exam.2009A]

उत्तर-1857 के विद्रोह के बारे में चित्रों से प्राप्त जानकारी और ब्रिटिश इतिहासकारों

द्वारा इन चित्रों का विश्लेषण : 1857 के विद्रोह के विषय में तैयार किये चित्र महत्वपूर्ण रिकार्ड

दे रहे हैं। ये कई प्रकार की जानकारी देते हैं और ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसका विश्लेषण किया है।

(i) अंग्रेजों द्वारा निर्मित कुछ चित्रों में अंग्रेजों को बचाने और विद्रोहियों को कुचलने वाले

अंग्रेजी नायकों को गुणगान किया गया है। 1859 में टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा बनाया गया चित्र

‘रिलीफ ऑफ लखनऊ’ इसी श्रेणी का उदाहरण है। जब विद्रोही सेना में लखनऊ पर घेरा डाल

दिया तो लखउक के कमिश्नर हेनरी लारेंस में ईसाइयों को एकत्र किया और अति सुरक्षित

रेजीडेंसी में शरण ली। बाद में कॉलेज कैम्पबेल ने एक बड़ी सेना को लेकर रक्षक सेना को छुड़ाया।

(ii) एक अन्य पेंटिंग बार्कर है जिसमें कैम्पबल के आगमन क्षण को आनन्द मनाते हुए

दिखाया गया है। कैनवस के मध्य में कैम्पबल, ऑट्रम और हैवलॉक हैं। चित्र के अगले भाग में

पड़े शव और घायल इस घेराबंदी के दौरान हुए लड़ाई की गवाही देते हैं; जबकि मध्यम भाग

में घोड़ों की विजयी तस्वीरें हैं। इससे ज्ञात होता है कि अब ब्रिटिश सत्ता और नियंत्रण बहाल

हो चुके हैं। इस प्रकार के चित्रों से अंग्रेजी जनता में अपनी सरकार के प्रति भरोसा पैदा होता था।

(iii) ब्रिटिश अखबारों में भारत में हिंसा के चित्र और खबरें खूब छपती थीं। जिनको देखकर

और पढ़कर ब्रिटेन की जनता प्रतिशोध और सबक सिखाने की मांँग कर रही थी।

(iv) निसहाय औरतों और बच्चों के चित्र भी बनाये गये। जोजेफ लाएल पेंटल के ‘स्मृति

में’ (In memorium) नामक चित्र में अंग्रेज औरतें और बच्चे एक धेरे में एक-दूसरे से लिपटे

दिखाई देते हैं। वे लाचार और मासूम दिख रहे हैं।

(v) कुछ अन्य रेखाचित्रों और पेंटिगस में औरतें उग्न रूप में दिखाई गयी हैं। इनमें वे

विद्रोहियों के हमले से अपना बचाव करती हुई नजर आती हैं। उन्हें वीरता की मूर्ति के रूप में

दर्शाया गया है।

(vi) कुछ चित्रों में ईसाईयत की रक्षा के संघर्ष के भी चित्र बनाये गये हैं जिसमें बाइबिल

प्रदर्शित है।

(vii) विद्रोह के विषय में प्रकाशित चित्रों में बदले की भावना के उफान में विद्रोहियों की

निर्मम हत्या का भी किया गया प्रदर्शन है।

(viii) 1857 के विद्रोह को एक राष्ट्रवादी दृश्य के रूप में चित्रित किया गया। इस संग्राम

में कला और साहित्य को बनाये रखा गया। कलाओं में झाँसी की रानी को घोड़े पर सवार एक

हाथ में तलवार और दूसरे में घोड़े की रास थामे दिखाया गया है। वह साम्राज्यवादियों को सामना

करने के लिए रणभूमि की ओर से जा रही है।

★★★

मुगल सम्राट विद्रोहियों का समर्थन करने के लिए क्यों तैयार थे?

दिल्ली रेजीमेंट के सिपाहियों ने भी विद्रोह कर दिया तथा अपने अफसरों की हत्या कर दी। ये सभी सिपाही लालकिला पहुँच कर जबरन महल में घुस गये तथा बहादुरशाह जफर को उन्होंने अपना नेता घोषित कर दिया। ऐसी स्थिति में अनिच्छा के बावजूद मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को विद्रोहियों का समर्थन करने के लिए तैयार होना पड़ा।

बहादुर शाह जफर के समर्थन से क्या प्रभाव पड़ा?

बहादुर शाह ज़फ़र के समर्थन से जनता बहुत उत्साहित हुई उनका उत्साह और साहस बढ़ गया। इससे उन्हें आगे बढ़ने की हिम्मत, उम्मीद और आत्मविश्वास मिला। ब्रिटिश शासन के विस्तार से भयभीत बहुत सारे शासकों को लगने लगा कि अब फिर से मुगल बादशाह अपना शासन स्थापित कर लेंगे जिससे वे अपने इलाकों में बेफिक्र होकर शासन चला सकेंगे।

1857 के विद्रोह के दौरान मुगल सम्राट कौन था?

बहादुर शाह ज़फ़र (1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह, और उर्दू के जानेे-माने शायर थे। उन्होंने 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया।

सिपाही विद्रोह क्या है?

सिपाही विद्रोह 1857, जिसे 1857 के भारतीय विद्रोह के रूप में भी जाना जाता है, ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ ब्रिटिश उपनिवेशित भारत के मूल पैदल सैनिकों का विद्रोह था। इसे ब्रिटश शासकों के खिलाफ पहला आंदोलन माना जाता है जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गति दी।