मूल्य शिक्षा क्या है मूल्य शिक्षा की आवश्यकता क्यों है? - mooly shiksha kya hai mooly shiksha kee aavashyakata kyon hai?

मूल्य शिक्षा क्या है मूल्य शिक्षा की आवश्यकता क्यों है? - mooly shiksha kya hai mooly shiksha kee aavashyakata kyon hai?

मूल्य शिक्षा पर निबंध और हम अथवा मूल्यों से वंचित शिक्षा, जैसी अभी उपयोगी है, व्यक्ति को अधिक चतुर शैतान बनाने जैसी लगती है(आईएएस मुख्य परीक्षा, 2015)

मध्यकाल में मकतब और मदरसे शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। शिक्षा सब को उपलब्ध थी परंतु शिक्षा में धर्म का दखल अधिक था। पाठ्यक्रमों में धार्मिक पुस्तकों को शामिल किया गया था। लोगों को नैतिक और चरित्रवान बनाने पर प्रमुख जोर था।

मनुष्य एक सामाजिक और सांस्कृतिक प्राणी है। मनुष्यों की प्रत्येक पीढ़ी अपने ज्ञान-विज्ञान-शिक्षाओं, मूल्यों और मान्यताओं को अगली पीढ़ी को सौंपती है। बहुत से मूल्य और शिक्षाएं बच्चों को परिवार से मिलती थीं और बहुत सी शिक्षाएं विद्यालय में, परंतु वर्तमान परिदृश्य यह है कि जहां संयुक्त परिवार टूटकर एकाकी परिवारों में और एकाकी परिवार, नैनो फैमिली के रूप में विभाजित हो रहे हैं। वहां पर परिवार में बड़े-बुजुर्ग नहीं होते जो बच्चों को किस्सों, कहानियों के द्वारा शिक्षा दे सकें। दादी-नानी की कहानियों का स्थान टी.वी, कार्टून, इंटरनेट और सिनेमा ने ले लिया है, जहां से मूल्यों की शिक्षा की उम्मीद करना बेमानी बात है। इनका उद्देश्य मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता परोसना मात्र रह गया है। वहीं विद्यालयों में ऐसी शिक्षा जो बालक के चरित्र का निर्माण कर, उसमें सामाजिक सरोकार विकसित करे, उसका स्थान व्यावसायिक शिक्षा ने ले लिया है। जिससे हम एक आत्मकेंद्रित, सामाजिक सरोकारों और मूल्यों से कटे हुए एक इंसान का निर्माण कर रहे हैं। जिससे समाज टूटन का शिकार हो रहा है। हमारी शिक्षा व्यवस्था शुरू से ऐसी न थी, प्राचीन समय में हमारे यहां गुरुकुलों में शिक्षा दी जाती थी। जिसमें शिष्य, गुरु के सान्निध्य में रहकर उनसे शिक्षा ग्रहण करता था। छात्र चाहे जैसी भी सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि से आता हो सबके साथ समान रूप से व्यवहार किया जाता था। सभी को गुरु की सेवा करनी पड़ती थी। भिक्षा मांगना, जंगल से लकड़ियां लाना, इस तरह के सभी छोटे-बड़े काम, चाहे राजा का लड़का हो या गरीब ब्राह्मण का लड़का सभी को करने होते थे। परंतु इस शिक्षा व्यवस्थाकी सबसे दोषपूर्ण बात यह थी कि यह सबको समान रूप से उपलब्ध नहीं थी। समाज वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था। सबको अपने वर्ण के अनुरूप कार्य करना पड़ता था। ऐसे में जो वर्णाश्रम व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर थे। उनके लिए शिक्षा उपलब्ध नहीं थी
और वह जीवन भर उस छोटे काम को करने के लिए अभिशप्त थे, जिसको करने की आज्ञा उन्हें वर्णाश्रम पर आधारित सामाजिक व्यवस्था देती थी। एकलव्य की कथा तो बहुत प्रसिद्ध है जिसमें उसके निम्न कुल से संबंध रखने के कारण गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीनकाल में हमारी शिक्षा व्यवस्था मूल्यपरक शिक्षा देने में समर्थ थी परंतु यह सबको समान रूप से उपलब्ध नहीं थी।

मध्यकाल में मकतब और मदरसे शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। शिक्षा सब को उपलब्ध थी परंतु शिक्षा में धर्म का दखल अधिक था। पाठ्यक्रमों में धार्मिक पुस्तकों को शामिल किया गया था। लोगों को नैतिक और चरित्रवान बनाने पर प्रमख जोर था। औरंगजेब के समय में महतसिब नाम का पद सृजित किया गया। जिसका प्रमुख काम था लोगों के आचरण पर ध्यान रखना और उन्हें नैतिक बनाये रखना। इस प्रकार सजा के भय से यदि लोग नैतिक हो भी जाएं तो इससे मनुष्य का आत्मविकास नहीं हो पाता है।

आधुनिक युग में अंग्रेजों के आगमन के पश्चात शिक्षा में आध्यात्मिक दृष्टिकोण का स्थान भौतिकतावादी दृष्टिकोण ने ले लिया भारत के लोगों को शिक्षित करने का उद्देश्य उनके लिए इतना ही था कि वह भारतीय जनमानस में एक ऐसा वर्ग तैयार कर सके, जो अंग्रेजी राज और ब्रिटेन के कार्यों को न्यायोचित माने और प्रशासन चलाने में अंग्रेजों का मददगार बन सके। इसलिए अंग्रेजों ने जो शिक्षा पद्धति भारत में विकसित की उसका उद्देश्य था कि ऐसे व्यक्तियों का हम निर्माण करें जिन्हें मल्य, सामाजिक सरोकार से मतलब न हो, वह आत्मकेंद्रित और कैरियरिस्ट मानसिकता वाला हो जो उनके प्रशासन
के काम-काज में मददगार बन सके। जिस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हमने अंग्रेजों की संस्थाओं को थोड़े फेरबदल के साथ अपना लिया, उसी तरह शिक्षा में भी हमने कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं किये, थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ हमने उनकी शिक्षा व्यवस्था को अपना लिया। जिससे स्वार्थी और घोर कैरियरिस्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों का विकास होता रहा। उदारीकरण के बाद खस्ताहाल सरकारी शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने के स्थान पर शिक्षा की समस्याओं का हल निजीकरण में तलाशा जाने लगा। वर्तमान स्थिति यह है कि हमारे देश में देश और दुनिया के नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों के कैम्पस खुल रहे हैं। इन विदेशी विश्वविद्यालयों और निजी विश्वविद्यालयों में व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर ऊंची-ऊंची फीस देकर पढ़ने वाले युवा, पढ़ाई करके निकलने के पश्चात सभी प्रकार के मूल्यों से कटे हुए आत्मकेंद्रित और अवसरवादी मात्र हैं। यह अपने देश और समाज की तरक्की के लिए कुछ करने में तो सक्षम नहीं हैं, पर यह केवल इस मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था को गति प्रदान करने में समर्थ हैं|

आज के इस उपभोक्तावादी दौर में समाज में बिखराव तथा सामाजिक मूल्यों का पतन हो रहा है। इसके कारण भी हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में निहित हैं। उपभोक्तावादी दर्शन व्यक्ति द्वारा अधिकतम उपभोग को उचित ठहराता है। जो जितने संसाधन प्रयोग करता है वह उतना ही अधिक नैतिक और प्रभावशाली माना जाता है।

आज के इस उपभोक्तावादी दौर में समाज में बिखराव तथा सामाजिक मूल्यों का पतन हो रहा है। इसके कारण भी हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में निहित हैं। उपभोक्तावादी दर्शन व्यक्ति द्वारा अधिकतम उपभोग को उचित ठहराता है। जो जितने संसाधन प्रयोग करता है वह उतना ही अधिक नैतिक और प्रभावशाली माना जाता है। अधिकतम संसाधनों के उपभोग के लिए अधिकतम धन की आवश्यकता होती है। अधिकतम धन कमाने के लिए व्यक्ति आज अपना अधिकतम समय केवल अपने लिए व्यय कर देता है। उपभोक्तावाद की सामाजिक व्यवस्था व्यक्तिवाद है। आपस में लोगों के मेल-मिलाप से सामाजिकता का निर्माण होता है, लेकिन लोगों के पास समय की कमी के कारण लोग एक-दूसरे से मिल नहीं पाते हैं। जिससे सामाजिक सरोकार नष्ट होते जा रहे हैं। वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति उपभोक्ता बनने को विवश है, पर इस समस्या का समाधान शिक्षा द्वारा ही किया जा सकता है। क्योंकि शिक्षा ही हमें यह एहसास दिलाती है कि हम क्या हैं? और हमें क्या करना चाहिए? शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शिक्षा स्वयं को और समाज को समझने का एक माध्यम है। जब व्यक्ति यह समझ जाता है कि समाज क्या है और वह खुद क्या है। तभी वह समाज को जोड़ने वाली मूल्यों को समझ पाता है। जब कोई व्यक्ति खुद को समझने लगता है तब उसके ‘मत’ का निर्माण होता है। ‘मत’ या राय बन जाने के पश्चात ही व्यक्ति मतदान कर सकता है। जिससे एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था विकसित की जाती है, वही मूल्यों (समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा, प्रेम, सहयोग)की समझ हम में मत भिन्नताओं के बावजूद शांतिपूर्ण तरीके से साथ साथ रहने की सीख दी जा सकती है। और यह काम शिक्षा द्वारा ही संभव है। पर वर्तमान समय में शिक्षा अपनी इस प्रभावकारी और परिवर्तनकारी भूमिका को छोड़कर, बहुत ही साधारण भूमिका निभा रही है। ज्ञान के निर्माण में सूचना का स्तर सबसे नीचे होता है, पर हमारी स्कूलिंग पद्धति की विडम्बना है कि सारा जोर सूचना पर है। यही कारण है कि बच्चों के बस्तों का बोझ दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। परंतु सूचना के निर्वचन और विश्लेषण द्वारा ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पा रही है। यही कारण है कि सूचना के विस्फोट के इस युग में समझदारी का नितांत अभाव है।

शिक्षा के विषय में गांधीजी का विचार है, “शिक्षा से तात्पर्य मैं बच्चे या मनुष्य में आत्मा, शरीर और बुद्धि के सर्वांगीण और सबसे अच्छे विकास से समझता हूं।” आत्मा, शरीर और बुद्धि के सर्वांगीण विकास के स्थान पर मौजूदा शिक्षा व्यवस्था इस कदर एकांगी है किइसमें खेल-कूद और शारीरिक शिक्षा को भी स्थान प्राप्त नहीं है। सहयोग और सहभागिता द्वारा बच्चों में सामाजिक सरोकार विकसित करने के स्थान पर प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने वाला ग्रेडिंग सिस्टम अपनाया जा रहा है। जिससे कुछ छात्र तो श्रेष्ठता की ग्रंथि से युक्त हो रहे हैं वहीं अधिकतम छात्रों में हीनता ग्रंथि बढ़ रही है। वहीं शिक्षा में व्यवहारिक शिक्षा (Practical Knowledge) को उचित स्थान न देने केवल पुस्तकीय ज्ञान पर ज्यादा जोर दिए जाने के कारण छात्र जीवन में मुश्किल परिस्थितियों का या व्यवहारिक समस्याओं का सामना करने योग्य नहीं होते। जिससे उन्हें जीवन में बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि समाज के सामने जो संकट है और शिक्षा के समक्ष जो चुनौतियां हैं उन्हें हल करने के लिए तथा छात्रों को मूल्यपरक शिक्षा देने के लिए एक तार्किक, वैज्ञानिक, जनतांत्रिक और इहलौकिक (सेक्युलर) दृष्टिकोणवाली शिक्षा पद्धति विकसित करना अनिवार्य है। जिससे हम आलोचनात्मक विवेक से संपन्न, सृजनशील और सामाजिक सरोकारवान व्यक्तियों का विकास कर सकें। आइये हम यहां प्रयोग किए गये प्रत्येक मूल्य को ठीक से समझें। शिक्षा में तार्किक-वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आशय यह नहीं है कि केवल गणित और विज्ञान की ही शिक्षा दी जाए बल्कि दुनिया
और समाज तथा प्रत्येक व्यक्ति-वस्तु को देखने का हमारा नजरिया तार्किक हो। आधुनिक समाज की बुनियाद ही इस तार्किक और विवेकशील (Rational) मनुष्य के ऊपर हैं। समाज को आधुनिक बनाने के लिए तार्किक दृष्टिकोण आवश्यक है। किसी भी समाज से अंधविश्वास, छुआ-छूत, रूढ़ियों और कुप्रथाओं को दूर करने के लिए तार्किक दृष्टिकोण अनिवार्य है।

शिक्षा में जनतांत्रिक दृष्टिकोण से आशय है-सबको शिक्षा का समान अवसर प्रदान किया जाय। ज्ञानार्जन और पढ़ने-लिखने का अवसर हर किसी को दिया जाय। यही सच्चा जनतंत्र है। जनतंत्र में शिक्षा प्राप्त करना हर किसी का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। जनतंत्र में शिक्षा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य में समानता और सभ्यताकी भावना उत्पन्न की जाती है। प्रजातांत्रिक शिक्षा सत्य तथा असत्य के अंतर को स्पष्ट करके किसी नतीजे तक पहुंचने वाली, सामाजिक परिवर्तनों के अनुसार व्यक्ति में परिवर्तन करने वाली होती है। यह शिक्षा मनुष्य में स्वतंत्र विचारधारा, समाज के कल्याण करने की भावना, दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की भावना, समस्याओं पर विचार करके तुरंत ही निर्णय लेने की क्षमता, सहिष्णुता, सच्चरित्रता तथा अन्य मानवीय गुणों का विकास और प्रजातांत्रिक आदर्शों में विश्वास करने वाली होती है।

अमेरिकी शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी का शिक्षा के बारे में कहना है, “प्रजातंत्र शासन की एक पद्धति ही नहीं है बल्कि यह सामाजिक जीवन और विचारों तथा अनुभवों के दिन-प्रतिदिन की एक शैली

अब हम सेक्युलरिज्म के मूल्य पर बात करते हैं, शिक्षा में सेक्युलरिज्म का आशय यह है कि हमारा दृष्टिकोण इहलौकिक होना चाहिए, पारलौकिक आध्यात्मिक नहीं। साथ ही शिक्षा का दृष्टिकोण धार्मिक कट्टरता से दूर रखते हुए मानवतावादी होना चाहिए।

इस प्रकार की शिक्षा और मूल्यों में दीक्षित युवा सृजनशील होंगे। जो किसी का अनुकरण करने के स्थान पर नया रचने, नया गढने और नए चिंतन को विकसित करने में समर्थ होंगे। साथ ही साथ वे सामाजिक सरोकारों से युक्त और विवेकशील होंगे।

मूल्य शिक्षा क्यों आवश्यक है?

मनुष्य का मन अत्यन्त संवेदनशील होता है और वह वातावरण से अत्यन्त सक्रिय रूप से प्रभावित होता है इसलिए यदि हम वास्तव में विद्यालयों के वातावरण को सकारात्मक बनाकर योग्य और चरित्रवान नागरिकों का निर्माण करना चाहते हैं तो इसका एकमात्र साधन है पाठ्यक्रम में मूल्य शिक्षा को लागू करना ।

मूल्य की आवश्यकता क्या है?

मूल्यों की आवश्यकता बालकों में मूल्यों के विकास हेतु नैतिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानव प्रेम जैसे ज्ञान को आधानित किया जाना आवश्यक है। आधुनिक मानव स्वार्थ प्रधान होता जा रहा है। अतएव वह अपने बालकों में अच्छे संस्कार नहीं दे पा रहे हैं।

मूल शिक्षा से क्या समझते हैं?

व्यापक अर्थ में शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि एवं व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है।

मूल्य का अर्थ एवं आवश्यकता क्या है मूल्यों के आधार पर विभिन्नताएं स्पष्ट कीजिए?

मूल्य शब्द से तात्पर्य किसी भौतिक वस्तु अथवा मानसिक अवस्था के उस गुण से है, जिसके द्वारा मनुष्य के किसी उद्देश्य अथवा लक्ष्य की पूर्ति होती है। मूल्यों का व्यक्ति के आचरण, व्यक्तित्व तथा कार्यों पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है।