पुर्तगालियों ने पूर्वी अफ्रीकी तट में रुचि क्यों विकसित की? - purtagaaliyon ne poorvee aphreekee tat mein ruchi kyon vikasit kee?

स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर

पुर्तगालियों ने पूर्वी अफ्रीकी तट में रुचि क्यों विकसित की? - purtagaaliyon ne poorvee aphreekee tat mein ruchi kyon vikasit kee?

‘स्व’का सार ही हमारे वैचारिक चिंतन और हमारी कार्ययोजना का दिशाबोधक होना चाहिए। यही वह दीपस्तंभ हो सकता है, जो हमारे देश की सामूहिक संचेतना की दिशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं एवं अपेक्षाओं को आलोकित करे। भौतिक जगत् में हमारे द्वारा किए जानेवाले सभी प्रयास और परिणाम भी इसी सिद्धांत पर आधारित होने चाहिए। तभी और केवल तभी भारत को स्व-निर्भर कहा जा सकता है।

इस दृष्टि से भारत के स्वतंत्रता संग्राम का विश्लेषण करते हुए इस ‘स्व’ को ही उस राष्ट्रीय आंदोलन की उत्प्रेरक शक्ति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, जिसने उन विदेशी आक्रांताओं का सामना करने के लिए असाधारण नेतृत्व के साथ-ही-साथ जनसामान्य को भी प्रेरित किया, जो कि यहाँ की स्थानीय संस्कृति और आस्थाओं को कुचलने का प्रयास कर रहा था। विदेशी ताकतों के विरुद्ध कश्मीर से कन्याकुमारी तक महान् पुरुषों और वीरांगनाओं द्वारा किए जानेवाले संघर्षों के सूक्ष्म अध्ययन से यह ध्यान में आता है कि केवल कुछ संकीर्ण या तुच्छ कारणों से प्रेरित होकर नहीं अपितु स्थानीय जीवन-पद्धति तथा मूल्यों को बचाए रखने के लिए वे इस संघर्ष के लिए प्रस्तुत हुए।

भारत २०२२ में अपनी स्वतंत्रता की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ मना रहा है। इस दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण हो उठता है कि पूरे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को ‘स्व’ के दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया जाए, जिससे एक सही परिप्रेक्ष्य में इसका संज्ञान हम लोग ले सकें।

राजनीतिक तथा आर्थिक शोषण या धर्मांतरण तथा इन सबसे भी महत्त्वपूर्ण भारत का विभाजन—ये सब यद्यपि औपनिवेशिक शासकों द्वारा ‘स्व’ के विचार को कमजोर करने की दिशा में किए जानेवाले प्रयास थे, किंतु हमारा स्वतंत्रता संग्राम केवल औपनिवेशिक ताकतों के राजनीतिक एवं आर्थिक शोषण से मुक्ति के लिए नहीं था, अपितु हमारे विस्मृत ‘स्व’ के पुनः अनुसंधान का भी संघर्ष था। यह ७५वाँ स्वतंत्रता दिवस हम सभी के लिए स्वतंत्रता संग्राम के पूरे आख्यान के संदर्भ में अपने विस्मृत ‘सामूहिक सत्य’ को नए दृष्टिकोण से परखने, स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों को पहचानने, साथ-ही-साथ अपने अतीत और अपनी सामूहिक पहचान का विश्लेषण करने की दृष्टि में परिवर्तन लाने का एक श्रेष्ठ अवसर है।

अंग्रेजों ने भारत पर लगभग दो शताब्दियों तक शासन किया। इससे पूर्व हम अन्य यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों के साथ भी संघर्षरत रहे। १५ अगस्त, १९४७ को भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्ति प्राप्त हुई। अंग्रेजों द्वारा किए जानेवाले भारतीयों और भारतीय अर्थव्यवस्था के शोषण के फलस्वरूप भारत की जनता ने अंग्रेजों को भारत से बाहर करने के सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता का अनुभव किया। इसलिए वर्ष २०२२ में जब हम स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष पूर्ण कर रहे हैं, हमारे लिए यह समझना महत्त्वपूर्ण होगा कि अंग्रेजों के विरुद्ध हमने अपनी आवाज किस प्रकार उठाई तथा भारत को विदेशी दासता से मुक्त करवाने के क्रम में हमारे देश और देशवासियों को क्या कीमत चुकानी पड़ी।

यह सत्य है कि भारतीय जन ने विदेशी आधिपत्य को कभी भी बिना प्रतिरोध के स्वीकार नहीं किया। यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों के विरुद्ध भी पंद्रहवीं शताब्दी के बाद से ही भारत के विभिन्न भागों में कृषकों, श्रमिकों, वनवासियों तथा अन्य लोगों द्वारा औपनिवेशिक शासन के विस्तार के विरुद्ध अपनी शक्ति भर प्रतिरोध किया गया। निस्संदेह उनके विरोध प्रदर्शन स्थानीय कारकों व प्रभावों से उपजे थे, किंतु उन सबने निश्चित ही विदेशी शासन के विरुद्ध आवाज को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

स्वतंत्रता के लिए चले इस लंबे संघर्ष के दौरान यहाँ की जनता ने ‘स्व’ के विचार की लड़ाई को भी लड़ा। उनका मानना था कि केंद्रीकृत, शोषक और हिंसक शासन प्रणाली एवं उसके द्वारा अपनाए जानेवाले लोभ केंद्रित अर्थतंत्र से छुटकारा पाए बिना अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। श्रीअरविंद, महात्मा गांधी तथा अन्य महापुरुषों ने स्वधर्म, स्वराज एवं स्वदेशी के विचार के साथ इस सामाजिक-दार्शनिक विचार को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया। इस त्रयी में पहली अवधारणा थी—स्वधर्म, जिसके प्रकट रूप वसुधैव कुटुम्बकम् का विचार रखनेवाले भारतीय चिंतन में सभी का उत्थान, इसमें प्राणी जगत्, जंगल, नदियाँ तथा भूमि आदि सभी कुछ समाहित है। दूसरा है—स्वराज अर्थात् स्व-शासन। स्व-शासन छोटे स्तर पर, विकेंद्रीकृत, स्व-संगठित तथा स्व-निर्देशित सहभागितापूर्ण शासन की संरचना। इसका तात्पर्य आत्म-परिवर्तन, आत्म-अनुशासन तथा आत्म-संयम भी है। इस प्रकार स्वराज शासन की एक नैतिक, पारिस्थिकीय तथा आध्यात्मिक प्रणाली है। त्रिमूर्ति में तीसरा है—स्वदेशी अर्थात् स्थानीय अर्थतंत्र, जो कि स्थानीय उत्पादों और उपभोक्ताओं के लिए स्थानीय माँग और आपूर्ति की शृंखला को पुनर्स्थापित करने का एक प्रयास था। पहले स्वदेशी का विचार केवल अर्थतंत्र तक ही सीमित था किंतु बाद में यह अवधारणा सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों में भी प्रतिफलित होती देखी जा सकती है। यदि इस त्रिमूर्ति (स्वधर्म, स्वराज व स्वदेशी) का हम सूक्ष्मतापूर्ण अध्ययन करें, तो हम देखेंगे कि इन तीनों शब्दों के मूल में जो समान शब्द है, वह है—‘स्व’।

यदि हम उपरोक्त त्रयी (स्वधर्म, स्वराज एवं स्वदेशी) में उपस्थित ‘स्व’ की संकल्पना पर विचार करें, तो हम पाते हैं कि औपनिवेशिक संरचना विभिन्न तरीकों और तकनीकों के माध्यम से भारतीय ‘स्व’ के इस विचार के दमन का ही एक प्रयास था। राम और कृष्ण की इस भूमि पर विदेशी शासन स्थापित कर और विदेशी धर्म के प्रसार द्वारा यहाँ के लोगों की अस्मिता एवं उनके आत्माभिमान को कुचलने का प्रयास किया गया।

इस उपनिवेशवाद को पश्चिम के लोगों द्वारा पूर्व के लोगों के प्रति धार्मिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दृष्टिकोण से देखा जाना महत्त्वपूर्ण है। नस्लीय श्रेष्ठता और अश्वेतों पर श्वेतजनों की उत्कृष्टता की संकल्पना विभिन्न आख्यानों के माध्यम से दिखलाई देती है, जिसे इतिहास के नए अनुसंधानों के आलोक में पुनः नए सिरे से समझे जाने की आवश्यकता है। हम ७५वाँ स्वतंत्रता दिवस समारोह एक बड़े उद्देश्य को दृष्टि में रखकर मना रहे हैं। इसे हम एक राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान को रेखांकित करने के एक अवसर के रूप में देख रहे हैं, जिसे कि बीसवीं शती के उत्तरार्ध में इस्लामी-वामपंथी इतिहासकारों द्वारा गलत व विकृत रूप में प्रस्तुत किया गया।

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन विश्व के युगांतरकारी आंदोलनों में से एक है। यह सैकड़ों वर्षों की पराधीनता की समाप्ति और राष्ट्रीय आत्मा (स्व) के पुनर्जागरण का प्रतीक है। भारत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करनेवाले प्रारंभिक देशों में एक रहा है और इस दृष्टि से उपनिवेशवाद का दंश झेल रहे अन्य देशों के लिए प्रेरणा भी बना। यह आंदोलन सही अर्थों में राष्ट्रीय था, क्योंकि इसने भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि के योद्धाओं को अपनी ओर आकर्षित किया।

दीर्घकालिक और राष्ट्रव्यापी

कई विद्वान् और बुद्धिजीवी राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ १८८५ में कांग्रेस पार्टी की स्थापना के साथ स्वीकार करते हैं। किंतु यह सत्य से कोसों दूर एक मिथक मात्र है। कुछ लोग थोड़ा उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए प्लासी के युद्ध या १८५७ के समर से इसका प्रारंभ मानते हुए इस अवधि को १५०-२०० वर्ष तक पीछे ले जाते हैं। यह अपने संघर्ष को बहुत ही सीमित व संकुचित दृष्टि से देखने जैसा है। अंग्रेजों ने १८५७ के समर को केवल सिपाहियों का गदर मात्र कहकर खारिज कर दिया। वीर सावरकर ने ही इसे सबसे पहले ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम’ का अभिधान दिया। इस अभिधान को स्वीकार करने में हमें काफी समय लगा और २००७ में इसकी १५०वीं वर्षगाँठ के अवसर पर ही इसे आधिकरिक रूप से ‘भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम’ के रूप में घोषित किया गया। हालाँकि सावरकर ने इसे कभी भी ‘प्रथम संग्राम’ नहीं कहा, क्योंकि वे इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे कि भारतीय इस संग्राम से बहुत पहले से संघर्ष कर रहे थे। उदारहरण लेना चाहें तो हमारे यहाँ त्रावणकोर (वर्तमान केरल) के मार्तंड वर्मा जैसे नायक रहे हैं, जिन्होंने जापान द्वारा १९०५ में यूरोपीय शक्तियों को परास्त कर एशियाई महाशक्ति बनने से बहुत पूर्व १७४१ में ही डचों को उस समय परास्त किया, जिस दौर में वे अत्यंत शक्तिशाली थे।

इस स्वतंत्रता संग्राम की बानगी यह थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देश के कई भागों में सामूहिक प्रतिरोध उठ खड़ा हुआ था। यहाँ के लोगों के मानस में सदैव राष्ट्र की एक सुनिश्चित अवधारणा अनुस्यूत रही है। यह संस्कृत के व्यापक उपयोग, पवित्र स्थलों की तीर्थयात्रा तथा पवित्र भू-भागों के माध्यम से निरंतर व्यक्त होती है। १८५७ का संग्राम एक ऐसी अनोखी घटना है, जिसमें सभी भारतीयों ने अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए एक-दूसरे का समर्थन किया। हमारे यहाँ मंगल पांडे, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब, कुँवर सिंह तथा ऐसे अन्य अनेक राष्ट्रीय नेताओं के उदाहरण उपस्थित हैं, किंतु हमें केवल १८५७ के संग्राम के दौरान ही ऐसे महापुरुष नहीं दिखते, जो राष्ट्रीय संघर्ष हेतु अपने प्राणों की आहुति देने को तत्पर थे। दक्षिण भारत में हमें ऐसे दो उदाहरण प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ते हैं। इनमें प्रथम हैं कित्तूर (वर्तमान कर्नाटक) के संगोली रायण्णा (१७९६-१०३१), जिन्होंने मृत्युपर्यंत अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। दूसरे हैं थंपी चेंपकरमन वेलायुधन (१७६५-१८०९), त्रावणकोर (वर्तमान केरल) के प्रधानमंत्री, जिन्होंने १८०९ में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। मणिपुर से भी एक नाम हमारे सामने उपस्थित होता है—टिकेंद्रजीत सिंह (१८५६-१८९१), जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में मणिपुरी सेना का नेतृत्व किया। अंग्रेजों द्वारा उन्हें सार्वजनिक रूप से फाँसी पर लटका दिया गया था।

‘स्व’ का प्रकटीकरण एवं सामाजिक समावेशन

हमारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन अत्यंत महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि स्वतंत्रता की पुनर्प्राप्ति के सामूहिक प्रयास के दौरान यह विभिन्न कालखंडों में समाज की विविध शक्तियों को एकत्र करने में सफल रहा। एक मिथकीय अवधारणा रही है कि केवल उत्तर भारत के अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों ने ही स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया, जबकि अधिकांश लोग केवल उनका अनुसरण मात्र कर रहे थे। इस तथ्य में तनिक भी सत्यता नहीं है। इसके विपरीत वास्तविकता यह है कि देश के लगभग सभी भागों के एवं सभी वर्गों के लोगों ने इस आंदोलन में यथाशक्ति सहभाग किया। बल्कि कभी-कभी तो ऐसा भी हुआ कि जब लोगों को लगा कि उनके नेता ठीक प्रकार से नेतृत्व नहीं कर पा रहे हैं, तो उन्होंने स्वयं कमान सँभाल ली। उदाहरणस्वरूप, वर्ष १७६३ से १८०० के बीच उत्तरी बंगाल व बिहार के निकटवर्ती क्षेत्रों में हुए संन्यासी विद्रोह, १८०० में राजस्थान में अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए भील आंदोलन तथा १८५६ में हुई संथाल क्रांति का उल्लेख किया जा सकता है। कुछ समय के लिए तो संथालों ने अपने क्षेत्र में ब्रिटिश शासन को लगभग समाप्त सा ही कर दिया था, किंतु इसके लिए उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। इस प्रतिरोध को कुचलने के लिए ब्रिटिश सेना के विरुद्ध लड़ते हुए लगभग पंद्रह से बीस हजार संथालों ने बलिदान दिया। हमारे राष्ट्र के इतिहास में ऐसे सैकड़ों आंदोलन हैं, जो कि हमारे देशवासियों के भीतर पनप रही स्वतंत्रता की प्रबल इच्छा को अभिव्यक्त करते हैं।

दीर्घकालिक व समाज के हर वर्ग में व्याप्त स्वतंत्रता आंदोलन के पीछे वास्तविक प्रेरणा हमारी स्व की चेतना थी। प्रत्येक क्षेत्र के लोगों ने इस संघर्ष में न केवल राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए, बल्कि राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी अस्मिता की अभिव्यक्ति एवं राष्ट्रीय आत्मा को पुनः प्राप्त करने के लिए भाग लिया। इन आंदोलनों में भाग लेनेवाले राष्ट्रीय सेनानी इस राष्ट्रीय चेतना से जुड़कर राष्ट्र के भविष्य को आकार देने के लिए दृढ़ संकल्पित थे। उन्होंने कला, नाटक, गीत, साहित्य आदि विविध क्षेत्रों को पुनर्जीवित करते हुए जनता को जाग्रत् करने का प्रयास किया। पश्चिमी शिक्षा और जीवनशैली की व्याख्या स्वदेशी व स्थानीय सभ्यता के आलोक में की गई तथा अपने राष्ट्रीय इतिहास एवं संस्कृति में गर्व का भाव जाग्रत् करने के प्रयास किए गए। इस दिशा में पहला कदम था उन्हें हिंदू सभ्यता के दाय से परिचित कराना, राष्ट्रीय भाषा एवं विचारों को बढ़ावा देना तथा राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना। मानवीय गतिविधियों को समाज, अर्थतंत्र, धर्म, अथवा राजनीति के अलग-अलग खाँचों में बाँटकर देखने की बजाय वे सभी हमारी राष्ट्रीय आत्मा को पुनः प्राप्त करने के एक ही लक्ष्य की ओर निर्देशित थे। हमारी राष्ट्रीय संस्कृति के पुनरोद्धार के प्रयासों के फलस्वरूप बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलुगु, हिंदी में देशभक्ति युक्त क्षेत्रीय साहित्य तथा नवीन कला रूपों का विकास हुआ। शुरुआती राष्ट्रीय सेनानियों के प्रयासों के फलस्वरूप स्वदेशी आंदोलन में परिणत होने तक हमारा ‘स्व’ सुदृढ़ होता रहा। इस स्वदेशी आंदोलन के उठ खड़े होने का तात्कालिक कारण १९०५ में होनेवाला बंगाल का विभाजन था। इस आंदोलन के अंतर्गत विरोध प्रदर्शनों के दौरान हमारे ‘स्व’ का प्रत्यक्षीकरण विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार एवं स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहित करने के रूप में हुआ। अंग्रेजों ने इसे केवल अपने कपड़ा उद्योग को नुकसान पहुँचाने और भारतीय निर्माण उद्योग को प्रोत्साहित करने के प्रयास के रूप में देखा। हालाँकि यह उसका तात्कालिक लक्ष्य तो था, किंतु इसका निहित उद्देश्य इससे कहीं अधिक और व्यापक था। भारतीयों के लिए यह आनेवाली युवा पीढ़ी के दिल और दिमाग को प्रशिक्षित करने का भी प्रयास था। साथ ही यह भारतीय श्रम, भारतीय निर्माण और भारतीय वस्तुओं को प्रोत्साहित करके भारत को आत्मनिर्भर बनाने का भी प्रयास था। इसकी प्रेरणा देशवासियों के प्रति प्रेम था, न कि दूसरों के प्रति नफरत। किंतु इस आंदोलन की समाप्ति के बाद हमारे ‘स्व’ की भावना कमजोर होती चली गई, जिसकी परिणति हमारे देश के विभाजन के रूप में हुई।

आंदोलन तथा उसके विविध आयाम

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन बहुआयामी तथा ब्रिटिश राज के विरुद्ध एक राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध था। राजनीतिक नेताओं के प्रतिरोध के अलावा शिक्षा, कला, साहित्य, संगीत और नाटक की दुनिया से भी एक सशक्त प्रतिरोध का स्वर उठ खड़ा हुआ था। विदेशी ताकतों द्वारा इस ‘स्व’ के दमन के विरुद्ध संघर्ष करने में हर तरह के कला रूपों का उपयोग किया गया। स्थानीय प्रतिरोध अपने चरम पर पहुँच चुका था और समाज के सभी वर्गों के लोगों के संबद्ध प्रयासों से अब यह राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में परिवर्तित हो चला था। रवींद्रनाथ टैगोर, महर्षि अरविंद, वीर सावरकर, गोपालकृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल तथा बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय जैसे लेखकों व कवियों ने साहित्य, कविता और भाषणों का उपयोग, अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किए जा रहे अत्याचारों के विरुद्ध जागरूकता प्रसारित करने एवं स्वतंत्रता के विचार को जाग्रत् करने तथा लोगों को देश के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करने के लिए एक उपकरण के रूप में किया।

सामाजिक दृष्टि से नारी शक्ति के जागरण के प्रयास प्रारंभ हुए एवं राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित किया गया। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की औपन्यासिक कृति ‘देवी चौधरानी’, जिसमें एक महिला नेत्री संघर्ष का नेतृत्व करती है, ने महिलाओं को स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष के लिए प्रेरित किया। ‘आनंदमठ’ में भी एक सुदृढ़ व्यक्तित्व की धनी महिला नेत्री का चित्रण हुआ है। इन दोनों ही पुस्तकों में बेशक महिलाएँ संघर्ष के लिए हथियार उठाती दिखती हैं, किंतु संघर्ष वे प्रेम के लिए, मूल्यों के लिए ही कर रही हैं। कनकलता बरुआ, मातंगिनी हजारा, भोगेश्वरी फुकनानी, कित्तूर की रानी चेनम्मा तथा रानी गाइदिन्ल्यू उपनिवेश के विरुद्ध हमारे संघर्ष की नयिकाएँ रही हैं।

अंग्रेजों ने उच्च और मध्यम वर्गों के एक छोटे से वर्ग को शिक्षित करने की योजना बनाई। फलस्वरूप एक ऐसा वर्ग तैयार होता चला गया, जो ‘रक्त और रंग में तो भारतीय था किंतु रुचि, विचार, नैतिकता व बुद्धि में अंग्रेज ही था। फलस्वरूप परंपरागत शिक्षा व्यवस्था में गिरावट आती चली गई। किंतु भारत की शिक्षा का आदर्श प्राचीन तक्षशिला एवं नालंदा विश्वविद्यालयों तक जाता है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने तथ्यान्वेषण किया है कि नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ाए जानेवाले विषयों में धर्मशास्त्र, व्याकरण, तर्कशास्त्र, खगोल विज्ञान, तत्त्वमीमांसा, चिकित्सा, दर्शनशास्त्र और गणित सम्मिलित थे। भारत ने ‘गुरुकुल’ पद्धति भी विकसित की थी, जिसके बीज वैदिक युग में मिलते हैं।

औपनिवेशिक आक्रमण और उसके परिणाम

यूरोपीय उपनिवेशवाद का प्रारंभ १५वीं शताब्दी से होता है, जब पुर्तगालियों ने ‘सोने, ईश्वर और वैभव’ (gold, god and glory) की तलाश में ‘खोज के युग’ का आह्व‍ान किया। पुर्तगालियों ने अटलांटिक महासागर तथा और अफ्रीकी तटों की खोज की, चयनित क्षेत्रों को अपना उपनिवेश बनाया, अफ्रीका के दक्षिणी सिरे पर ‘केप ऑव गुड होप’ से होते हुए भारत तक के पश्चिमी मार्ग की तलाश की। हालाँकि जल्दी ही, यूरोप की एक अन्य नौसैनिक शक्ति, स्पेन से उनका संघर्ष प्रारंभ हो गया। क्रिस्टोफर कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज किए जाने के बाद से यह संघर्ष और बढ़ गया। युद्ध की स्थिति से बचने के लिए उन्होंने मध्यस्थता के लिए पोप से गुहार लगाई। इसके बाद जो वार्त्ताओं के दौर चले, उनके दौरान पोप ने कैथोलिक चर्च द्वारा प्रदत्त कुछ अधिकारों की घोषणा की (जिन्हें ‘पैपल बुल्स’ के नाम से जाना जाता है)। इन अधिकारों की घोषणा से स्पेन का दावा पुख्ता हुआ और पुर्तगाली अपने को ठगा-सा महसूस करने लगे। पुर्तगाल द्वारा युद्ध की धमकी दिए जाने के फलस्वरूप ७ जून, १४९४ को एक नई संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसे ‘टोरडेसिलस की संधि’ के नाम से जाना जाता है। इसने यूरोप से बाहर नई खोजी गई भूमि को अफ्रीका के पश्चिमी तट से दूर देशांतर रेखा के साथ-साथ केप वर्ड द्वीपों के पश्चिम में विभाजित कर दिया। इन क्षेत्रों में स्थित साम्राज्यों और यहाँ के लोगों से किसी प्रकार का परामर्श किए बिना ही, इन दो शक्तियों ने तय कर लिया कि पूर्व में स्थित भूमि पर पुर्तगाल का आधिपत्य रहेगा तथा पश्चिमी भूखंडों पर स्पेन का।

यूरोपीय शक्तियों का आगमन : १४९८-१७५७

ये औपनिवेशिक शक्तियाँ कई कारकों से प्रेरित थीं। यद्यपि नए भूखंडों व स्वर्ण का लालच उनमें से एक प्रमुख कारक था, किंतु ईसाई धर्म-प्रचार भी एक महत्त्वपूर्ण कारक था। आइबेरियन प्रायद्वीप, जिसमें स्पेन और पुर्तगाल सम्मिलित थे, पर आठवीं शताब्दी में मूरों ने विजय प्राप्त कर ली थी। सदियों तक चले युद्ध (जिसे कि रिकॉन्क्विस्टा कहा जाता है) के पश्चात् १४९२ में ईसाईयों ने अंतिम मुस्लिम साम्राज्य पर विजय प्राप्त की और इन भूखंडों पर पुनः आधिपत्य स्थापित कर लिया। इस सबने इस प्रायद्वीप में ईसाई धर्म का एक उग्रवादी स्वरूप उपस्थित किया, जो इस्लाम के विनाश और बुतपरस्त दुनिया के धर्मांतरण को अपना धार्मिक एवं देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य मानता था।

धार्मिक उद्देश्य सदैव यूरोपीय उपनिवेशवाद का महत्त्वपूर्ण अंग रहे हैं। इन धार्मिक सिद्धांतों का उपयोग उपनिवेशवादियों के कार्यों को सही ठहराने के लिए किया जाता था। यूरोपीय लोगों ने यह तर्क दिया कि वे सभ्यता के ज्ञान को पिछड़े हुए लोगों तक पहुँचाने के उद्देश्य से यह सब कर रहे हैं। सूडान यूनाइटेड मिशन के जान एच. बुअर के शब्दों में—‘‘उपनिवेशवाद दैवीय आदेश पर आधारित साम्राज्यवाद का एक ऐसा रूप है, जिसे आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक मुक्ति लाने के लिए निरूपित किया गया है—यीशू से प्रेरित पश्चिम की सभ्यता के आशीर्वाद को शैतान के दमन, अज्ञानता तथा रोग से पीड़ित लोगों के साथ साझा करके, राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक ताकतों के सम्मिलन से प्रभावित, जो कि शासक और शासित, दोनों के लाभ की तलाश में शासन के तहत सहयोग करती है।’’ (एडवर्ड एंड्रयूज, क्रिश्चियन मिशंस तथा कॉलोनियल एंपायर्स रीकॅन्सीडर्ड)

ईसाई मिशनरियों के प्रारंभिक इतिहासकारों ने परीक्षणों, सफलताओं, व कभी-कभी शहादतों का भी अत्युक्तिपूर्ण वर्णन किया है। उनका चित्रण असभ्य लोगों के बीच संत के रूप में किया गया है। तथापि, लगभग बीसवीं शताब्दी के मध्य से, नागरिक अधिकार आंदोलनों तथा उपनिवेशवाद विरोधी भावना के प्रसार के साथ इन इतिहासकारों की दृष्टि में कुछ बदलाव आया और ये ईसाई मिशनरियों को इस रूप में देखने लगे—

‘‘अहंकारी व लोलुप साम्राज्यवादी। ईसाइयत, बचाव व रक्षा करनेवाला कोई वरदान नहीं रह गई, अपितु एक कठोर और आक्रामक शक्ति बन चुकी थी, जिसे मिशनरियों ने जबरदस्ती उपेक्षित मूल निवासियों पर थोपा। वास्तव में, मिशनरियों को अब लगातार बढ़ते राष्ट्र-राज्य के एजेंट के रूप में देखा जाने लगा था, अथवा औपनिवेशिक आक्रमण के लिए वैचारिक आघात सेना में रूप में समझा जाने लगा था, जिनके उत्साह ने उनको अंधा कर दिया था।’’ भारत भी इन यूरोपीय उपनिवेशवादियों का शिकार हुआ।

पुर्तगाली

यूरोप में रोमन काल के समय से ही भारत अपनी संपदा के लिए प्रसिद्ध था। पंद्रहवीं शताब्दी में भारत और यूरोप के बीच भूमध्य सागर के मार्ग से वेनिस द्वारा व्यापार किया जाता था। इस व्यापार पर वेनिस की एकच्छत्रता को समाप्त करने के लिए पुर्तगालियों ने सक्रिय रूप से भारत तक पहुँचने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग की तलाश प्रारंभ की। २० मई, १४९८ को वास्को डि गामा ने इसे खोज निकाला। वह कोझिकोड (वर्तमान में केरल राज्य में) के पास कप्पड के समुद्री तट पर उतरा था।

प्रारंभ में तो एक अन्य विदेशी व्यापारी के रूप में देखते हुए पुर्तगालियों का स्वागत किया गया, जो कि अन्य व्यापारियों के साथ, व्यापार हेतु भारत आ रहे थे। हालाँकि पुर्तगाली उन सबसे अलग थे, क्योंकि पहले व्यापार निजी व्यापारियों द्वारा किया जाता था, जबकि पुर्तगाली न केवल आर्थिक बल्कि धार्मिक उद्देश्यों के साथ अपने देश की सरकार के प्रत्यक्ष समर्थन के साथ आए थे। जल्द ही हिंदू राजा, जमोरिन ने पुर्तगालियों के साम्राज्यवादी उद्देश्यों को समझ लिया और अपने नियंत्रण का विस्तार करने के पुर्तगाली प्रयासों को विफल करने की दिशा में कदम उठाने प्रारंभ कर दिए। वे भारत के ईसाइयों के साथ एक व्यापारिक गठबंधन चाहते थे और मुस्लिम साम्राज्यों, विशेषतः ऑटोमंस पर हमला करने में उनकी मदद की आकांक्षा रखते थे। मुसलमानों पर हमला करने में पुर्तगालियों को जब अपेक्षित भारतीय मदद नहीं प्राप्त हुई, तो उन्होंने समान स्तर पर व्यापार करने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने एशियाई जलमार्ग में नौसैनिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बल का प्रयोग किया और १५१५ तक भारतीय सागर में औपचारिक रूप से नौसैनिक प्रभुत्व स्थापित कर लिया तथा बहुत सी बंदरगाहों पर कब्जा कर लिया, जो कि रणनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थीं।

इस प्रभुत्व को स्थापित करने और बनाए रखने के लिए उन्होंने किलों का निर्माण भी किया। उदाहरण के लिए, १५०३ में उन्होंने कोचीन में अपना पहला किला स्थापित किया, क्योंकि यह काली मिर्च का स्रोत था। इसके पश्चात् उन्होंने भारत और अफ्रीका के तटों पर किलों की एक शृंखला ही खड़ी कर दी। १५१० में पुर्तगाल ने मुगलों की सहायता से बीजापुर सुलतानों तथा बाद में विजयनगर साम्राज्य को पराजित कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप गोवा पर उन्होंने नियंत्रण कर लिया, जो कि आगे चलकर एशिया में पुर्तगाली साम्राज्य का केंद्र बन गया।

१५२८ में बंगाल के सुलतान ने पुर्तगालियों को चटगाँव बंदरगाह पर कारखाने और सीमा-शुल्क कार्यालय स्थापित करने की अनुमति दे दी। प्रारंभिक कैथोलिक गिरजाघरों में से एक को यहाँ स्थापित किया गया था और १६६६ में यहाँ मुगलों द्वारा आधिपत्य स्थापित किए जाने तक यह क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में सबसे प्रमुख यूरेशियन बंदरगाह रहा।

पुर्तगाली रोमन चर्च द्वारा दिए गए विशेषाधिकारों, जिन्हें ‘पैड्रोएडो रियल’ कहा जाता है, के साथ भारत में आए थे। इन विशेषाधिकारों ने उन्हें आधीन साम्राज्यों में पादरी नियुक्त करने तथा पुर्तगाली सम्राट् को अपने से भिन्न मतवाले सभी राज्यों पर आक्रमण करने, उन पर विजय प्राप्त करने, उन्हें वश में कर अपने अधीन बनाने के लिए अधिकृत किया। पुर्तगाल से इसी उद्देश्य को साथ लेकर भिक्षु व मिशनरी भारत पहुँचे और गोवा से महाद्वीप के अन्य आंतरिक क्षेत्रों तक फैल गए। इन पादरियों ने कैथोलिक धर्म का प्रचार-प्रसार किया तथा पहले से मौजूद ईसाई समूहों, विशेष रूप से मालाबार तट पर सीरियाई ईसाइयों पर चर्च संबंधी नियंत्रण हासिल करने के प्रयास किए।

सीरियाई ईसाई भारत में अपने इतिहास की खोज पहली शताब्दी में करते हैं। तीसरी शताब्दी तक वे एक संगठित समूह के रूप में विकसित हो गए थे। समय के साथ-साथ वे भारतीय रीति-रिवाजों को स्वीकार करते चले गए। उनके पहनावे से लेकर उनके खान-पान तक और उनकी भाषा के संदर्भ में वे अपने हिंदू पड़ोसियों से थोड़े ही भिन्न रह गए थे। किंतु पुर्तगाली शासकों ने सीरियाई ईसाइयों को अपने नियंत्रण में लाने के लिए भरसक प्रयास किए। उन्होंने उनके नेताओं को नजरबंद कर दिया, सामान्य व्यवहार में लैटिन भाषा के प्रयोग पर बल दिया और अपने धर्म से भिन्न मत रखनेवालों की पहचान के लिए धर्माधिकरण और उन्हें दंडित करने का विधान अपनाया।

१५९० में मामला उस समय और भी गंभीर हो गया, जब सीरियाई ईसाइयों के हाई मेटरन मार अब्राहम ने वैपीकोट्टई स्थित जैसुइट नामक पादरियों के शिक्षा संस्थान में शिक्षा प्राप्त करनेवाले ५० विद्यार्थियों को विधिवत् पादरी बनाने से मना कर दिया। यद्यपि पोप ने उनके विरुद्ध धर्माधिकरण चलाने और उन्हें दंडित करने का विधान दिया, किंतु १५९७ में अब्राहम की मृत्यु तक किसी ने भी इस दिशा में कदम उठाने का साहस नहीं किया। उस समय, पुर्तगाल के भावी वायसराय, एलेक्सेस डी मेनेजेस (१५५९-१६१७), गोवा के आर्चबिशप थे। उन्हें दो वर्ष पूर्व ही, ३५ वर्ष की अवस्था में ईश्वरीय सेवा में प्रतिष्ठित किया गया था। वे गोवा में धर्माधिकरण और दंडविधान के निर्णयकर्ता थे। रोमन चर्च से अलग होने के सीरियाई ईसाइयों के प्रयास का सामना करते हुए मेनेजेस ने उनके विरुद्ध सैन्य अभियान प्रारंभ किया और लैटिन रीति-रिवाजों को फिर से लागू किया। मामले ने उस समय तूल पकड़ लिया, जब १५९९ में उसने डायंपर की धर्मसभा (उदयंपेरूर सुन्नाहदोस) को आयोजित किया, जिसमें पिछले १२०० वर्षों से सीरियाई ईसाइयों द्वारा पवित्र माने जानेवाले सिद्धांतों को दरकिनार करके कैथोलिक चर्च के सिद्धांतों को प्रमुख घोषित कर दिया गया।

आगे चलकर रोम द्वारा धर्माधिकरण और दंडित करने के विधान तथा डायंपर की धर्मसभा, दोनों की निंदा की गई। सेंट थॉमस के ईसाई काररवाई में भाग नहीं ले सकते थे, क्योंकि उनका माध्यम मलयालम या सीरियाई नहीं था। एजेंडा स्पष्टतः पूर्वनिर्धारित था और धर्मसभा के बाद कई फरमानों को जारी किया गया। इसका एक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि इस धर्मसभा ने भारतीय चर्च को विभाजित कर दिया। धर्मसभा में उठनेवाली समस्याओं के कारण धर्मसभा के बाद नियुक्त बिशप फ्रांसिस रोज ने १६०३ में एक और धर्मसभा का आह्व‍ान किया। यह खाई उस समय और गहरी हो गई, जब इस समुदाय के एक सर्वस्वीकृत भारतीय नेता ऑर्कडीकॉन जार्ज पर विधर्म का आरोप लगाते हुए उनके स्थान पर एक विदेशी को नियुक्त कर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप थॉमस ईसाइयों के बीच भी मतभेद उत्पन्न हो गया। इनमें से एक तिहाई ऑर्कडीकॉन जार्ज का समर्थन कर रहे थे, जबकि शेष रोम के समर्थक थे।

कैथोलिक एन्साइक्लोपीडिया (१९१३) के अनुसार—“एकमात्र मामला जिसमें प्राचीन पूर्वी संस्कार को जान-बूझकर रोमन संस्कार में ढाला गया, वह मालाबार ईसाइयों का था। जबकि, मालाबार संस्कार को समाप्त करने के लिए यूरोपीय शासक नहीं अपितु एलेक्सिअस डी मेनेजेस, गोवा के आर्कबिशप तथा डायंपोर की धर्मसभा में उसके पुर्तगाली सलाहकार जिम्मेदार थे।”

डच

१६वीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने भारत के साथ अधिकांशतः व्यापारिक संबंध ही बनाए रखे और एशिया में व्यापार पर आधिपत्य जमाने की कोशिश की। किंतु १५९० के पश्चात् से इस स्थिति में बदलाव आने लगा क्योंकि अन्य यूरोपीय देश, विशेष रूप से अंग्रेज और डच एशिया में प्रवेश करने लगे थे।

डचों का विस्तार उनके द्वारा प्रारंभ किए गए नवाचारों, विशेषतः १६०२ में संसार की प्रारंभिक संयुक्त स्टॉक कंपनियों में से एक यूनाइटेड डच ईस्ट इंडिया कंपनी (वी.ओ.सी.) को स्थापित किए जाने के कारण संभव हो पाया। उन्होंने उत्तरी अमेरिका, भारत और इंडोनेशिया में उपनिवेशों की स्थापना की।

१७वीं शताब्दी के मध्य तक वे पुर्तगालियों को पछाड़कर एशिया में मुख्य यूरोपीय व्यापारी बन गए। एक समय में तो उनके पास यूरोप में सर्वाधिक, यहाँ तक कि अन्य सब यूरोपीय देशों को मिलाकर, उससे भी अधिक व्यापारिक जहाज थे। सैन्य दृष्टि से भी वे एक शक्तिशाली राष्ट्र थे। १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उन्होंने इंग्लैंड के साथ तीन युद्ध लड़े। इनमें से पहला युद्ध तो अंग्रेजों ने जीता, जबकि दूसरा और तीसरा डचों द्वारा जीते गए।

डचों ने भारत में अपने व्यापार की रक्षा के लिए पुर्तगालियों का ही अनुसरण करते हुए दुर्गनुमा कारखाने और गढ़युक्त शहरों का निर्माण किया। 1605 में उन्होंने मछलीपट्टनम में कोरोमंडल तट पर एक कारखाने को स्थापित करने के लिए फरमान प्राप्त किया। १६०७ में उन्हें पुलिकाट में कारखाना खोलने के लिए एक दूसरा फरमान मिला, जो कि डच प्रशासन का केंद्र बन गया था। आगे चलकर कोरोमंडल को इंडोनेशिया में उनके हितों के अधीन कर दिया गया।

१६२९ में पिपली के फौजदार से अनुज्ञा-पत्र प्राप्त करने के बाद डचों ने बंगाल में स्वयं को स्थापित किया। बंगाल की सुगम्य अंतरराष्ट्रीय बंदरगाहें, निर्माण क्षेत्रों से निकटता तथा अंतर्देशीय जल मार्गों के कारण डचों ने इसके महत्त्व को समझा। सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, डचों की पहल के फलस्वरूप बंगाल एशिया के विभिन्न भागों में माल का एक महत्त्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता बन गया। १६८० के दशक से जैसे-जैसे एशिया के भीतर व्यापार में गिरावट आती चली गई, बंगाल हॉलैंड को निर्यात की जानेवाली वस्तुओं के प्रमुख केंद्र के रूप में उभरने लगा। १६३८ में डचों ने सीलोन (श्रीलंका) में कैंडी साम्राज्य के साथ एक गठबंधन किया। उनकी सहायता से डचों ने सीलोन को पुर्तगालियों से छीनकर अपने आधिपत्य में ले लिया, किंतु सिंहलियों के लिए यह मात्र एक विदेशी विजेता के स्थान पर दूसरे विदेशी विजेता का आ जाना भर था, क्योंकि अगले लगभग एक शताब्दी से अधिक समय तक यह डचों के कठोर नियंत्रण के अधीन रहा। सीलोन को पुर्तगाली आक्रमण से बचाने तथा काली मिर्च के व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से डचों ने १६६१ से मालाबार तट पर पुर्तगाली किलों को जीतना प्रारंभ कर दिया किया।

इससे अंततः १७३० के दशक में शक्तिशाली राजा मार्तंड वर्मा (१७०६-१७५८) के अधीन त्रावणकोर साम्राज्य के साथ इनका संघर्ष प्रारंभ हो गया। निकटवर्ती साम्राज्यों ने डचों की ओर रुख किया और उन्होंने सेना भेजी। अंग्रेजों को दो बार पराजित कर चुकी इस प्रमुख शक्ति को १७४१ में मार्तंड वर्मा द्वारा कोलाचल के युद्ध में परास्त कर दिया गया। इस युद्ध में और उसके पश्चात् होनेवाली त्रावणकोर की विजयों के फलस्परूप मालाबार तट पर डचों का वर्चस्व कम होता गया। इसके बाद से डचों की शक्ति तीव्र गति से कम होती चली गई और फिर कभी वे सर नहीं उठा पाए। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में उन्होंने भारत में स्थित अपना सारा भू-क्षेत्र अंग्रेजों को बेच दिया। १९०५ में जब तक कि जापानियों ने रूस को हरा नहीं दिया, तब तक कोई एशियाई शक्ति दूसरी यूरोपीय शक्ति को हरा नहीं पाई थी।

इस युद्ध में हुई त्रावणकोर की विजय अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई। सरदार के.एम. पणिक्कर के शब्दों में—‘‘कोलाचल की लड़ाई डचों के लिए एक आपदा के रूप में सिद्ध हुई। यह सत्य है कि संघर्ष किंतु इसने मालाबार को विजय करने के डचों के सपनों को धूल में मिला दिया। यह डचों के लिए पहला बड़ा झटका था और इससे उनको इतना नैतिक आघात लगा कि डच कभी इससे उबर नहीं सके।’’

फ्रांसीसी

फ्रांस १७वीं शताब्दी से पूर्वी भारत में व्यापार में प्रवेश करनेवाली अंतिम यूरोपीय समुद्री शक्ति था। भारत में पहला फ्रांसीसी कारखाना १६६८ में सूरत में स्थापित किया गया। एक अन्य कारखाना १६७४ में पांडिचेरी में स्थापित किया गया। यह भारत में फ्रांसीसियों का एक तरह से मुख्यालय हो गया था। इस पर १६९३ में डचों द्वारा कब्जा कर लिया गया था, किंतु १६९७ में फ्रांसीसियों ने इस पर पुनः आधिपत्य स्थापित कर लिया। १६८६ में फ्रांसीसी व्यापार का विस्तार बंगाल में हुआ, जब एक एजेंट को कारखाना स्थापित करने के लिए वहाँ भेजा गया। बालासोर, कासिम बाजार तथा पटना में व्यापारिक केंद्र स्थापित किए गए, किंतु फ्रांसीसी व्यापार की वास्तविक शुरुआत १६९० में चंदननगर के अधिग्रहण के साथ मानी जा सकती है।

१७४१ तक फ्रांसीसी अंधिकांशतः शासकीय राजनीति से दूर रहे, किंतु जोसेफ फ्रैंकॉएस डूप्ले के आगमन के साथ, उन्होंने भारतीय राज्यों के आंतरिक संघर्ष में हस्तक्षेप कर अपने लिए अवसर प्राप्त करने के प्रयास किए। इस सबने अंग्रेजों के साथ संघर्ष को जन्म दिया, जो कि फ्रांसीसियों के प्रतिद्वंद्वी थे। प्रत्यक्ष युद्ध में फ्रांसीसी पराजित हुए तो उन्होंने भारतीय राज्यों को अंग्रेजों से लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया। उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी लोगों ने बंगाल के सुल्तानों को अंग्रेजों पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित किया। इस सबके फलस्वरूप १७५७ में प्लासी का युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेजों को विजय प्राप्त हुई। कुपित होकर अंग्रेजों ने १७६१ में पांडिचेरी को तबाह कर दिया। यद्यपि १७६५ की संधि की शर्तों के अनुरूप इसे फ्रांस को लौटा दिया गया, किंतु फ्रांस का भाग्य का पुनरोदय न हो सका। १८१५ में नेपोलियन के युद्धों के समाप्त होने के पश्चात् पुडुचेरी, चंदननगर आदि कुछ क्षेत्रों को इसे लौटा दिया गया। फ्रांस ने भारत की स्वतंत्रता के बाद इन्हें भारत को लौटा दिया, यद्यपि पुडुचेरी को आधिकारिक रूप से १९६४ में मुक्ति प्राप्त हो सकी।

अंग्रेज

इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी (ई.आई.सी.) की स्थापना १६०० में हुई। पहले पहल इसने १६११ में मछलीपटनम् में एक कारखाना स्थापित किया। १६१२ में मुगल सम्राट् द्वारा इसे सूरत में एक कारखाना स्थापित करने की अनुमति प्रदान की गई। मुंबई पुर्तगाल के अधीन था, जिसे १६६२ में भेंटस्वरूप अंग्रेजी सम्राट् को प्रस्तुत कर दिया गया, क्योंकि उन्हें अंग्रेजों की सहायता की आवश्यकता थी। आगे चलकर इसे अंग्रेजी सम्राट् द्वारा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया।

इस अंग्रेजी कंपनी ने अपनी माँगें मँगवाने के लिए जब इसे महसूस हुआ कि दबाव से काम बनेगा, तो स्थानीय साम्राज्यों के साथ बल का प्रयोग किया किंतु मुगल साम्राज्य के मजबूत होने के कारण उनसे बातचीत का मार्ग अपनाया जाता था। इस तथ्य को बंगाल के संदर्भ में भली प्रकार से समझा जा सकता है। उन्होंने १६३३ में बंगाल में हरिहरपुरा में महानदी डेल्टा के तट पर एक कारखाना स्थापित करके अपने पाँव जमाए। इसी वर्ष उन्होंने हुगली में भी एक कारखाना स्थापित किया। आगामी वर्षों में कंपनी का प्रसार होता चला गया, विशेष रूप से १७१७ में मुगल साम्राज्य द्वारा फरमान जारी किए जाने के बाद से। इस फरमान ने ३,००० रुपए के मात्र प्रतीकात्मक वार्षिक भुगतान पर अंग्रेजों को मुगलों द्वारा शासित समग्र भू-क्षेत्र में व्यापार करने का अधिकार दे दिया। इसके अलावा इसके माध्यम से कोलकाता से सटे ३८ गाँव भी उन्हें प्रदान किए गए। साथ ही कोलकाता, सुतनुति तथा गोबिंदपुर को अंग्रेजों को किराए पर दे दिया गया।

अन्य अवैध ताकतें, यथा ऑस्ट्रिया, नॉर्वे, स्वीडन

इन चार प्रमुख यूरोपीय शक्तियों के अलावा कुछ अन्य यूरोपीय शक्तियों ने भी भारत में अपने पाँव पसारने के प्रयास किए, किंतु इसमें वे कभी सफल न हो सके। इनमें से एक १६१६ में स्थापित डैनिश ईस्ट इंडिया कंपनी थी, जिसने १६२० में सीलोन में अपना आधार जमाना प्रारंभ किया। इसने कुछ स्थानों पर बस्तियाँ स्थापित करने का प्रयास किया, किंतु सैन्य संघर्षों के कारण इसे थरंगमबाड़ी को छोड़कर सबकुछ गँवाना पड़ा। कंपनी को कई बार असफताओं का मुँह देखना पड़ा। हर बार इसे फिर से खड़ा करने के लिए विशेष प्रयास किए गए। किंतु ये प्रयास बहुत कारगर साबित नहीं हुए और १८४५ में इसने अपने आधिपत्य वाला क्षेत्र अंग्रेजों को बेच दिया।

ओस्टेंड कंपनी की स्थापना १७२२ में ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार से निजात पाने व विभिन्न यूरोपीय राष्ट्रों के व्यापारियों के लिए एक ‘रक्षक’ के रूप में की गई। यह डच, आयरिश, डैनिश तथा फ्लैमिश हितों की रक्षा करनेवाला एक समूह था, जो कि १७१३ से पूर्व की ओर समुद्री यात्राओं का आयोजन किया करता था। डच एवं इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनियों के दबाव में हैब्सबर्ग सम्राट् ने १७२७ में इस उद्यम को निलंबित एवं १७३१ में इसे समाप्त कर दिया।

स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी को भी १७३१ में एक रक्षक के रूप में स्थापित किया गया, किंतु डैनिश एशियाटिक कंपनी की भाँति इस स्वीडिश कंपनी का मुख्य ध्यान भारत में व्यापार की अपेक्षा चीन में व्यापार की ओर अधिक था। १७५४ में प्रशियन ‘बंगाल’ कंपनी को इंग्लैंड के कप्तानों और कोलकाता मे कंपनी के कर्मचारियों द्वारा यूरोप में अवैध रूप से धन भेजने के लिए विशेषाधिकृत किया गया।

भारतीय कपड़ा उद्योग और हस्तशिल्प पर प्रभाव

१७५० के आस-पास भारत सूती वस्त्रों का विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक था। कपास, लिनेन के भारतीय वस्त्रों तथा ऊनी सामानों का एशिया, अफ्रीका और साथ ही यूरोप में बहुत बड़ा बाजार था। मुक्त व्यापार नीति ने भारत और ब्रिटेन के बीच कपड़ा व्यापार की दिशा को उलट दिया। सस्ते दामों पर इंग्लैंड से मशीन द्वारा निर्मित कपड़े के भारी मात्रा में आयात ने भारतीय कपड़ा उद्योग के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ा दी। इसके अलावा, ब्रिटेन में भारतीय वस्त्रों पर भारी शुल्क लगाया गया। शीघ्र ही भारतीय वस्त्रों पर सुरक्षात्मक शुल्क लगाने की ब्रिटिश सरकार की नीति के कारण भारत कच्चे कपास का निर्यातक और कपड़ों का आयातक बन गया।

भारतीय बाजार में ब्रिटिश सामानों के शुल्क-मुक्त प्रवेश तथा निर्यातित भारतीय हस्तशिल्प उत्पादों पर भारी करों ने भारतीय हस्तशिल्प उद्योग को पूरी तरह से तबाह कर दिया था। हस्तशिल्प उत्पाद, घरेलू तथा विदेशी, दोनों ही बाजारों से लुप्त होने लगे थे। इसके अलावा, एक शिल्पकार के उत्पादों की तुलना में कारखानों में बने उसी प्रकार के उत्पाद सस्ते होने के साथ-साथ गुणवत्ता की दृष्टि से भी बेहतर होते थे, जिसके फलस्वरूप भारतीय शिल्प उद्योग धीरे-धीरे समाप्त होता चला गया।

भारतीय कृषि का व्यवसायीकरण

औपनिवेशिक प्रशासन ने नील, कपास, अफीम, चाय, कॉफी, जूट, गन्ना और तिलहन जैसी नकदी फसलों के उत्पादन को बढ़ाते हुए भारतीय कृषि के व्यवसायीकरण को प्रोत्साहित किया। विदेशी बाजार में इन वस्तुओं की भारी माँग के कारण इन फसलों के निर्यात से होनेवाला लाभ बहुत अधिक था। किंतु यह सारा लाभ ब्रिटिश व्यापारिक घरानों को चला जाता था। भारतीय कृषि का व्यवसायीकरण एक थोपी गई प्रक्रिया थी। औपनिवेशिक प्रशासन के लाभ के उद्देश्य ने कृषि के स्वदेशी तरीकों को बुरी तरह से प्रभावित किया, यथा फसल चक्र आदि, जिसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति और ब्रिटिश पदचिह्न

श्वेत श्रेष्ठता अथवा श्वेत नस्लवाद की संकल्पना को औपनिवेशिक शासकों द्वारा रेलवे के डिब्बों, पार्कों, होटलों, क्लबों आदि में तथा नागरिक व सैन्य, दोनों ही प्रकार की सेवाओं में भारतीय लोगों को उच्च श्रेणी की सेवाओं से दूर रखते हुए तथा उग्रता, मारपीट और हत्याओं तक के माध्यम से नस्लीय अहंकार के सार्वजनिक प्रदर्शन के माध्यम से बनाए रखा गया।

अंग्रेजों ने जाति और सांप्रदायिक चेतना को उकसाते हुए प्रतिक्रियावादी ताकतों की मदद की। ईस्ट इंडिया कंपनी शासनकाल में पश्चिमी सभ्यता के आगमन के फलस्वरूप ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ सक्रिय रूप में काफी व्यापक हो गईं। ये मिशनरियाँ ईसाइयत को श्रेष्ठ धर्म के रूप में मानती थीं और पश्चिमीकरण के माध्यम से वे भारत में इसका प्रसार करना चाहती थीं, जो उनके अनुसार धर्म और संस्कृति में मूल निवासियों के विश्वास को नष्ट कर देगा। इस दृष्टि से ईसाई मिशनरियों ने—

१.   उन कट्टरपंथियों का समर्थन किया, जिनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण, उनके मतानुसार, देशी संस्कृति और विश्वासों को कमजोर करनेवाला था।

२.   साम्राज्यवादियों का भी समर्थन किया, क्योंकि उनके प्रसार के लिए कानून और व्यवस्था एवं ब्रिटिश वर्चस्व का बना रहना आवश्यक था। साथ ही इस उम्मीद के साथ कि ईसाई धर्मांतरित लोग उनके सामान के बेहतर ग्राहक होंगे, व्यापारियों और पूँजीपतियों के भी समर्थन की अपेक्षा रखते रहे।

भारत में महिलाओं की स्थिति

वैदिक काल में महिलाओं को समाज में मान्यता प्रदान की जाती थी और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, किंतु समय के साथ-साथ उनकी स्थिति में गिरावट आती चली गई। भारतीय संस्कृति में स्पष्टतः देवी लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा के रूप में मातृशक्ति की उपासना की जाती है। तो भी, जैसा कि मीनाक्षी जैन लिखती हैं—“ईसाई मिशनरियों तथा ब्रिटिश सरकार ने सती प्रथा जैसे मुद्दों का उपयोग हिंदू समाज को प्रतिगामी और बर्बर समाज के रूप में द्योतित करने के लिए किया। यदा-कदा घटित होनेवाली किसी घटना को इतना बढ़ा-चढ़ाकर, दिखाकर और इसे हिंदू समाज की एक मुख्य प्रथा के रूप में प्रस्तुत करते हुए ब्रिटिश न केवल अपने राजनीतिक शासन को वैध सिद्ध करने में बल्कि ईसाई धर्मांतरण में भी सफल हुए। ईसाई धर्म को उन्होंने तुलनात्मक दृष्टि से अधिक न्यायसंगत व मुक्ति दिलानेवाले धर्म के रूप में प्रस्तुत किया।”

उदाहरण के लिए, १७९३ में ईस्ट इंडिया कंपनी चार्टर पर संसदीय बहस में सती का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है, जबकि इस प्रथा का वर्णन पहले किया जा चुका था। तथापि १८२९ तक आते-आते सती को हिंदू जीवन की एक बर्बर प्रथा के रूप में प्रस्तुत किया गया तथा इसे कंपनी ने प्रतिबंधित कर दिया। यह मिशनरी प्रचार की एक उपलब्धि थी।

वास्तव में सती एक ‘अपवाद’ थी, जिसे सदियों में कभी बहुत थोड़ी संख्या में विधवा स्त्रियों द्वारा संपन्न किया जाता था, और जिसे ब्रिटिश आख्यान में ‘उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में ईसाईकरण और अंग्रेजीकरण के लिए उत्सुक इंवेंजेलिकल एवं बैपटिस्ट मिशनरियों द्वारा अतिरंजित किया गया था। (पृ. १९)

शिक्षा

शिक्षा के क्षेत्र में भारत की प्राचीन ज्ञान-परंपरा को बदनाम और खारिज किया गया, जैसा कि जेम्स मिल द्वारा लिखित पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत का इतिहास’ में उदाहरण प्राप्त होता है—

विधिवत् एक योग्य व्यक्ति एक वर्ष में अपने छोटे से कक्ष के भीतर रहकर भारत के विषय में अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है, बनिस्बत इसके कि वह अपने आँख-कान खुले रखकर भारत में लंबा समय व्यतीत करे।

तथापि मिल ने इस प्रस्तावना के संदर्भ में यह तक कहा कि उनका यह कार्य एक ‘महत्त्वपूर्ण इतिहास’ है, जिसमें हिंदू रीति-रिवाजों तथा एक ‘पिछड़ी’ संस्कृति पर एक कठोर प्रहार है, जो कि उसकी दृष्टि में केवल अंधविश्वास, अज्ञानता और महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार के लिए ही उल्लेखनीय है।

इस पुस्तक का आरंभ प्रस्तावना के साथ होता है, जिसमें मिल दावा करते हैं कि वे कभी भारत नहीं आए हैं तथा यहाँ की किसी स्थानीय भाषा से उनका परिचय नहीं था। उसने दृढ़तापूर्वक कहा है कि यह उनकी निष्पक्षता को प्रमाणित करता है।

उभरता हुआ मध्यवर्गीय राष्ट्रवादी नेतृत्व ब्रिटिश शासन के शोषक, औपनिवेशिक चरित्र का विश्लेषण कर रहा था और प्रशासन में भारतीय लोगों की भागीदारी की माँग कर रहा था। ऐसे समय में जब राष्ट्रवादी आंदोलन का जन्म हुआ (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना १८८५ में हुई), तो अंग्रेजों ने इसको अपने प्रभुत्व के लिए एक चुनौती के रूप में देखा और ऐसे नेतृत्व के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाया। वास्तव में उसके बाद से वे उन सबका विरोध करने लगे, जो आधुनिक शिक्षा की पैरवी कर रहे थे। शिक्षकों का चयन उनके द्वारा पढ़ाए जानेवाले विषय के ज्ञान के आधार पर न होकर, इस आधार पर किया जाने लगा कि उन्हें ‘‘ईसा मसीह की बचानेवाली शक्तियों के विषय में पूरा ज्ञान था या नहीं।’’

ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में और उसके बाद ब्रिटिश शासन के समय में, शासकों के मन में चल रहे दो उद्देश्य प्रतीत होते हैं—पहला, इस भूमि की संपत्ति को लूटना और दूसरा, यहाँ के मूल निवासियों को तथाकथित रूप से सभ्य बनाना। हम देखते हैं कि अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने इतनी चालाकी से अपनी चालें चलीं कि आजादी के पचहत्तर वर्ष बाद भी हम गहन निद्रा में निमग्न हैं और पूरे देश में बड़ी चतुराई से व्याप्त एक सम्मोहन से अपने को बाहर निकालने में असमर्थ हैं। (चाहे अनिच्छा से ही)

१८२० तक अंग्रेजों ने हमारी शैक्षिक-प्रणाली का समर्थन करनेवाले वित्तीय संसाधनों को पहले ही नष्ट कर दिया था। इस कार्य को वे पिछले बीस वर्षों से कर रहे थे। किंतु फिर भी भारतीय अपनी शिक्षा प्रणाली की विशिष्टताओं को बनाए रखने में समर्थ रहे। इसलिए अंग्रेजों ने इस भारतीय शिक्षा प्रणाली की सूक्ष्मताओं का पता लगाने के लिए प्रयास करने की दिशा में कदम उठाने का निर्णय लिया। फलस्वरूप, १८२२ में एक सर्वेक्षण का आदेश दिया गया, जिसे अंग्रेज जिला कलेक्टरों द्वारा संचालित किया गया। इस सर्वेक्षण में यह पाया गया कि बंगाल प्रेसीडेंसी में गाँवों में एक लाख स्कूल थे, मद्रास में एक भी गाँव ऐसा नहीं था, जहाँ स्कूल न हो, मुंबई में, यदि गाँव की संख्या १०० के लगभग थी, तो वहाँ एक स्कूल अवश्य था। इन विद्यालयों में सभी जातियों के शिक्षक व विद्यार्थी थे। किसी भी जिले में शिक्षकों में ७ प्रतिशत से ४८ प्रतिशत तक ब्राह्मण थे और शेष शिक्षक अन्य जातियों से होते थे। इसके अलावा सभी बच्चों की शिक्षा उनकी मातृभाषा में होती थी।

वर्तमान प्राथमिक शिक्षा के समकक्ष शिक्षा चार से पाँच वर्ष तक चलती थी। हम सब जानते हैं कि राष्ट्र के विकास के लिए सबका प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करना अधिक महत्त्वपूर्ण है, बनिस्बत केवल कुछ लोगों द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त कर लिए जाने के। ब्रिटिश शासकों ने भारतीय शिक्षकों की निष्ठा व क्षमता की प्रशंसा की है। जब तक छात्र स्कूल से बाहर आते थे, तब तक वे प्रतिस्पर्धी क्षमता से युक्त हो चुके होते थे तथा अपनी संस्कृति के विषय में उनकी एक सुचिंतित दृष्टि विकसित हो चुकी होती थी। मद्रास के एक ईसाई मिशनरी श्री बेल भारतीय शिक्षा प्रणाली के इस मॉडल को इंग्लैंड ले गए और वहाँ इसको प्रस्तुत किया। तब तक वहाँ केवल कुलीनों के बच्चों को ही शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने वहाँ जन-सामान्य के लिए शिक्षा की शुरुआत की। इससे हम यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जनसामान्य को शिक्षित करने की व्यवस्था को अंग्रेजों ने भारत से ही सीखा था।

जैसा कि एल्गिन ने लिखा है—“हम केवल इस तथ्य को स्थापित करते हुए ही शासन कर सकते थे कि हम उच्चतर जाति है। यद्यपि सेवाओं में भारतीयों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, किंतु यदि हमें शासन करना है तो हमें निश्चित रूप से नियंत्रण अपने हाथ में ही रखना होगा।”

अंग्रेजों ने भारतीयों को शिक्षित करने में गहरी दिलचस्पी दिखाई, क्योंकि भारतीयों को शिक्षित करके उन्हें कम मजदूरी पर शिक्षित कामगार मिल सकते थे। इस रणनीति के साथ उन्होंने १८५७ में कोलकाता, मद्रास, तथा मुंबई में विश्वविद्यालय स्थापित किए। कुछ अंग्रेजी स्कूल और कॉलेज भी खोले जा रहे थे। अंग्रेजों की यह बेमन की शिक्षा नीति जनसाधारण को नहीं छू पा रही थी। इसने भारत को कथित रूप से एक अधिक आधुनिक, उदार तथा लोकतांत्रिक देश बनाने में मदद की।

बंग-भंग की सफलता के बाद वर्ष १९४७ में हम असफल क्यों हुए?

हालाँकि ब्रिटेन विश्व की महाशक्ति थी, फिर भी हम बंग-भंग को समाप्त कराने में कामयाब रहे। फिर हम वर्ष १९४७ में अपने देश की अखंडता की रक्षा करने में विफल क्यों रहे, जबकि द्वितीय विश्वयुद्ध ने ब्रिटेन की क्षमताओं को तबाह कर दिया था? यह तथ्य विशेष रूप से आश्चर्यजनक है कि ठीक इसी समय कांग्रेस (आई.एन.सी.) की शक्ति अपने चरम पर थी। बंग-भंग आंदोलन के दौरान कांग्रेस न तो व्यापक थी और न ही मजबूत स्थिति में, फिर भी अंग्रेज हार गए। फिर विभाजन क्यों हुआ? इसका कारण यह था कि हमारे देश के ‘स्व’ की धारणा उत्तरोत्तर कमजोर होती चली गई। इसके प्रमुख कारण थे—

सबसे पहले कांग्रेस के एक निश्चित वर्ग ने विभिन्न विरोधों को अलग और सीमित रखने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए, गोपाल कृष्ण गोखले ने कांग्रेस (आई.एन.सी.) को अपने अध्यक्षीय संबोधन में आंदोलन को बंगाल तक सीमित करने की माँग की।

दूसरा, बंगाल विरोध से भयभीत अंग्रेजों ने हमें जाति और पंथ के आधार पर बाँटने के प्रयास किए। मुस्लिम लीग का जन्म (१९०६), मोर्ले-मिंटो सुधार (१९०९), लखनऊ पैक्ट ऑफ कांग्रेस (१९१६), जहाँ पृथक् मतदान को स्वीकार किया गया, वे सभी इस नीति के उदाहरण हैं।

तीसरा, ब्रिटिश क्रूरता। जलियाँवाला बाग के अलावा भी ऐसी कई घटनाएँ हुईं, जिनमें हमारे अनगिनत भारतीयों ने स्व की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया। उदाहरण के लिए, वर्ष १९१३ में बाँसवाड़ा (गुजरात-राजस्थान सीमा) में, १००० से १५९९ भील ब्रिटिश गोलीबारी में मारे गए, जहाँ वे एक धार्मिक मेले के लिए एकत्र हुए थे। उन्होंने हाल ही में अंग्रेजों से बेहतर आर्थिक अवसरों की माँग की थी। इसी तरह वर्ष १९४२ में उड़ीसा के ‘एरम’ में एक नरसंहार हुआ था, जिसमें ब्रिटिश गोलीबारी से २९ लोग मारे गए थे।

चौथा, ब्रिटिश नीतियों ने नमक और अन्य आवश्यक वस्तुओं में एकाधिकार बनाकर भारत को कमजोर कर दिया। ब्रिटिश नीतियों के कारण वर्ष १७६९-७०, वर्ष १८९९-१९००, वर्ष १९४३-४४ इत्यादि में बड़े अकाल ने लाखों लोगों की जान ले ली।

पाँचवाँ, मुस्लिम कट्टरपंथ का उदय। खिलाफत आंदोलन और मुस्लिम लीग तो जाने-माने उदाहरण हैं, यह कांग्रेस में भी मौजूद था। उदाहरण के लिए, वर्ष १९२३ में जब कांग्रेस की एक बैठक में वंदे मातरम् गाया गया, तब कांग्रेस के भीतर कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा विरोध प्रदर्शन किया गया था।

छठा, साम्यवाद का विकास। वे भारत को बाँटना चाहते थे और मुस्लिम लीग की माँगों का समर्थन करते थे। नेहरू का वर्ष १९३६ का अध्यक्षीय संबोधन कांग्रेस में सत्ता के गलियारों में उनकी घुसपैठ की ओर इशारा करता है।

हमारे ‘स्व’ को हिंदू बुद्धिजीवियों ने भी मजबूत किया था, जिन्होंने चाणक्य (अर्थशास्त्र के लेखक) और सुश्रुत (आयुर्वेद का उपयोग करके २,५०० वर्ष पहले शल्य चिकित्सा की) की परंपराओं का पालन किया, जिन्होंने अर्थव्यवस्था, रसायन विज्ञान, राजनीति अथवा चिकित्सा विज्ञान जैसे क्षेत्र में काम किया था। पेशे से रसायनज्ञ (केमिस्ट) प्रफुल्ल चंद्र रे ने हिंदू रसायन विज्ञान के इतिहास पर दो अभूतपूर्व पुस्तकें लिखीं। जे.सी. बोस ने पादप विज्ञान में योगदान दिया। सत्येंद्र नाथ बोस ने क्वांटम यांत्रिकी (मैकेनिक्स) पर काम किया। हाल ही में जगदीश भगवती ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में योगदान दिया है।

विभाजन : त्रासद परिणति

स्वदेशी आंदोलन के बाद से ‘स्व’ के इस प्रकार कमजोर पड़ते चले जाने के पीछे मुस्लिम लीग (१९०६ में स्थापित), अंग्रेजों तथा कांग्रेस के एक वर्ग की संयुक्त व समान भूमिका रही। औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध भारतीयों के एकजुट प्रयासों से भयभीत होकर अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और शासन करो’ की कुटिल रणनीति अपनाई, जिसके अंतर्गत उन्होंने जाति, पंथ और धर्म के आधार पर हमारे देश को विभाजित करने के हर संभव प्रयास किए। इस रणनीति की एक प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति १९०९ से पृथक् निर्वाचक सूचियों के रूप में होती है। दूसरा, १९१९ का खिलाफत आंदोलन है, जिसे तुर्की में ऑटोमन राज्य के खलीफा को बहाल करने के लिए चलाया गया। १९३० के दशक में मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की राजनीति के उभार ने हमारे ‘स्व’ के भाव की तीव्रता को और कुंद कर दिया, जिसकी परिणति विभाजन की त्रासदी के रूप में हुई। इस विभाजन की विभीषिका ने हमसे वह क्षेत्र छीन लिया, जिसकी रक्षा हेतु हमने स्वदेशी आंदोलन के दौरान दीर्घकालिक व दुर्धर्ष संघर्ष किया था। इस विभाजन के कारण लगभग एक करोड़ से अधिक लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा और दस लाख से अधिक लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी।

विभाजन से पूर्व और उसके दौरान वामपंथियों की धारणाएँ सर्वाधिक घातक थीं। विशेष रूप से उन वामपंथियों की, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर व नेहरू के निकट थे। १९३० के दशक से ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मुस्लिम लीग की अवधारणाओं का समर्थन करने लगी थी। सोमनाथ लाहिड़ी ने तो भारत को ‘राष्ट्रीय इकाइयों’ में पुनर्गठित करने तक का विचार प्रस्तुत कर दिया था (सोमनाथ लाहिड़ी, संविधान सभा)। यदि यह विचार फलित हो गया होता, तो इस बहुराष्ट्रीय सिद्धांत के फलस्वरूप भारत कई टुकड़ों में विभाजित हो जाता।

‘‘भारतीय जनता के प्रत्येक वर्ग, जो अपने भू-भाग को मातृभूमि के रूप में देखता था, जिसकी समान ऐतिहासिक परंपरा, समान भाषा, संस्कृति तथा समान मानस है तथा समान आर्थिक जीवन है, को एक विशिष्ट राष्ट्रीयता के रूप में मान्यता प्रदान की जाए, जिसके पास एक स्वायत्त राज्य के रूप में अस्तित्व का अधिकार हो तथा यदि वह चाहे तो भारतीय संघ से अलग होने का उसके पास अधिकार रहे। (मानवेंद्र नाथ राय, चयनित लेख, १९३२-१९३६, खंड IV)

केवल इतना ही नहीं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं को मुस्लिम लीग में काम करने के लिए भी भेजा। इन दोनों की मिलीभगत चौंकानेवाली रही है।

‘‘सबसे विचित्र निर्णय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.आई.) द्वारा अपने मुस्लिम सदस्यों को मुस्लिम लीग में उच्च स्थानों पर प्रवेश कराना था। (पाकिस्तान : मिलिट्री पॉवर या लोक शक्ति, तारिक अली, लंदन, १९७०, पृष्ठ ३१) सी.पी.आई. ने सामंती जमींदारों के विरुद्ध बर्जुआ वर्ग को सशक्त बनाने के लिए मुस्लिम लीग में प्रवेश किया। यह सब स्टालिन के चरणबद्ध क्रांति के सिद्धांत के सर्वथा अनुरूप था। (वही, पृष्ठ ३२)

१९४० के दशक में राष्ट्रीय एकता को मुस्लिम लीग ने कम नुकसान नहीं पहुँचाया। वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से इस राष्ट्र के विभाजन का समर्थन कर रहे थे। वे ‘स्व’ का दमन करनेवाली एक आंतरिक कुचाल के रूप में उपस्थित हो रहे थे, जिसकी ज्वाला अभी प्रस्फुटित ही हुई थी।

चार शताब्दियों से अधिक के निरंतर संघर्ष के बाद जिस स्वतंत्रता का सूर्योदय हुआ था, उसे विभाजन का ग्रहण लग गया। जिन संगठनों, विचारधाराओं और प्रवृत्तियों के चलते देश का विभाजन हुआ, वे आज भी सक्रिय हैं। स्वतंत्रता पाने से बड़ी चुनौती उसे बचाए रखने की है, जिसके लिए प्रत्येक भारतवासी को प्रयत्न करने होंगे।

१४३ नॉर्थ एवेन्यू, नई दिल्ली