संस्कृत में प्रत्याहार किसे कहते हैं - sanskrt mein pratyaahaar kise kahate hain

पतंजलि के अष्टांग योग के सन्दर्भ में प्रत्याहार का अलग अर्थ है। यहाँ प्रत्याहार को पाणिनीय व्याकरण के सन्दर्भ में दिया गया है।


प्रत्याहार का अर्थ होता है – 'संक्षिप्त कथन'। व्याकरण में प्रत्याहार विभिन्न वर्ण-समूह को अभीप्सित रूप से संक्षेप में ग्रहण करने की एक पद्धति है। जैसे, 'अण्' से अ इ उ और 'अच्' से समग्र स्वर वर्ण— अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ओ और औ, इत्यादि। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’(1-1-71) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

आदिरन्त्येन सहेता (1-1-71) : (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

उदाहरण: अच् = प्रथम प्रत्याहार सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,

अच् = अ इ उ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ।

इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि 5वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ‘ह’ को अन्तिम 14वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः,

हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह

उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण की इत् संज्ञा पाणिनि ने की है। इत् - इण् धातु से गमनार्थ में निष्पन्न पद है। इत् संज्ञक वर्णों का कार्य अनुबन्ध बनाकर अन्त में निकल जाना है। अतः, इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया में इनकी गणना नहीं की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नहीं होता है। किन वर्णों की इत् संज्ञा होती है, इसका निर्देश पाणिनि ने निम्नलिखित सूत्रों द्वारा किया है:

  • (१) उपदेशेऽजनुनासिक इत् (1.3.2): उपदेश में अनुनासिक अच् (स्वर वर्ण) इत् होते हैं। (उपदेश – सूत्रपाठ (माहेश्वर सूत्र सहित), धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ, प्रत्यय, आगम, आदेश इत्यादि धातुसूत्रगणोणादि वाक्यलिंगानुशासनम्। आदेशो आगमश्च उपदेशाः प्रकीर्तिता ॥) अनुनासिक – मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः। अर्थात् जिन वर्णों का उच्चारण मुख एवं नासिका दोनो की सहायता से किया जाए। अष्टाध्यायी में पाणिनि ने जिन वर्णों की अनुनासिकता का निर्देश किया है वही अनुनासिक माने जातें हैं।)
  • (२) हलन्त्यम् (1.3.3): उपदेश में (अन्त्यम्) अन्तिम (हल्) हल् = व्यंजन वर्ण इत् होते हैं। लेकिन विभक्ति में अन्तिम तकार (त्), सकार (स्) तथा मकार (म्) का लोप नहीं होता है – न विभक्तौ तुस्माः (1.3.4)

इत् संज्ञा का विधान करने वाले अन्य सूत्र हैं:

  • (३) आदिर्ञिटुडवः (1.3.5)
  • (४) षः प्रत्ययस्य (1.3.6)
  • (५) लशक्वतद्धिते (1.3.7)
  • (६) चुटू (1.3.8)

इत् संज्ञा होने से इन वर्णों का लोप – तस्य लोपः (1-2-9) सूत्र से होता है। लोप का अर्थ है – अदर्शन – अदर्शनं लोपः। फलतः, इत् संज्ञा वाले वर्ण विद्यमान रहते हुए भी दिखाई नहीं पड़ते। अतः, इनकी गणना भी नहीं की जाती है।

प्रत्याहार की महत्ता एवं उपयोग[संपादित करें]

पाणिनि को जब भी अक्षर-समूह विशेष की आवश्यकता होती है, वे सभी अक्षरों को पृथक् – पृथक् कहने की बजाए उपयुक्त प्रत्याहार का प्रयोग करते हैं जिसमे उन अक्षरों का समावेश होता है।
उदाहरण: पाणिनि एक विशिष्ट संज्ञा (Technical device) ‘गुण’ की परिभाषा देते हैं:

अदेङ् गुणः अर्थात् अदेङ् को गुण कहते हैं। यहाँ,
अदेङ् = अत् + एङ् (व्यंजन संधि)। इस उदाहरण में एं एक प्रत्याहार है।
माहेश्वर सूत्र – एओङ् के आद्यक्षर ‘ए’ एवं अन्तिम अक्षर ङ् के अनुबन्ध से यह प्रत्याहार बना है। (आदिरन्त्येन सहेता)
एङ् = ए ओ ङ्
एङ् के अन्तिम अक्षर ङ्की इत् संज्ञा होती है (हलन्त्यम्)। इत् संज्ञा होने से उसका लोप हो जाता है (तस्य लोपः)। फलतः,
एङ् = ए, ओ।
अतः, अ (अत्), ए तथा ओ को गुण कहते हैं। (अदेङ् गुणः)

उदाहरण: इको यणचि : यदि अच् परे हो तो इक् के स्थान पर यण् होता है।

अच् = अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ।इक् = इ, उ, ऋ, ऌ।यण् = य, व, र, ल।

यदि पाणिनि उपर्युक्त प्रत्याहारों का प्रयोग नहीं करते तो उन्हे कहना पड़ता:
यदि, इ, उ, ऋ, ऌ के बाद अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ रहें तो इ, उ, ऋ तथा ऌ के स्थान पर क्रमशः य, व, र, ल, होता है।
इस कथन को पाणिनि ने अत्यन्त संक्षिप्त रूप में मात्र ‘इको यणचि’ इन दो पदों से व्यक्त कर दिया है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • कटपयादि
  • मेरु प्रस्तार
  • पादुका सहस्रम
  • प्रत्याहार (योग)
  • माहेश्वर सूत्र

इंद्रियों को अंतर्मुखी करके उनके संबंधित विषयों से विमुख करना प्रत्याहार कहलाता है। 

प्रत्याहार किसे कहते हैं? 

प्रत्याहार का सामान्य कार्य होता है, इन्द्रियों का संयम, दूसरे अर्थ में प्रत्याहार का अर्थ है पीछे हटना, उल्टा होना, विषयों से विमुख होना। इसमें इन्द्रियाॅं अपने वहिर्मुख विषयों से अलग होकर अन्तर्मुख हो जाती है। इसलिये इसे प्रत्याहार कहते है। महर्षि पतंजलि प्रत्याहार को परिभाषित कर सकते है। 

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्न्यिांणा प्रत्याहार योग सूत्र II/54

अर्थात् अपने विषयों के साथ इन्द्रियों का संबन्ध न होने पर चित्त के स्वरूप में तदाकार होना प्रत्याहार है। पतंजलि कहते है। प्रत्याहार से इन्द्रियाॅं एकदम वशीभूत हो जानी है।

प्रत्याहार का अर्थ

प्रत्याहार दो शब्दों ‘प्रति’ और ‘आहार’ से मिलकर बना है। ‘प्रति’ का अर्थ है विपरीत अर्थात इन्द्रियों के जो अपने विषय हैं उनको उनके विषय या आहार के विपरीत कर देना प्रत्याहार है। इंद्रियां विषयी हैं, ये विषय को ग्रहण करती हैं। ये विषय हैं- पंच तन्मात्राएँ। चेतना ज्ञान प्राप्त करना चाहती हैं और चित्त उसका माध्यम बनता है। विषय अधिक होने पर चित्त उसमें भटक जाता है और यह ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त होता है। जब इंद्रियाँ विषयों को छोड़कर विपरीत दिशा में मुड़ती हैं तो प्रत्याहार होता है। अर्थात इंद्रियों की बहिर्मुखता का अंतर्मुख होना ही प्रत्याहार है। योग के उच्च अंगों के लिए अर्थात धारणा, ध्यान तथा समाधि के लिए प्रत्याहार का होना आवश्यक है।

प्रत्याहार की परिभाषा

1. महर्षि पतंजलि  - अपने विषयों के संबंध से रहित होने पर इंद्रियों का जो चित्त के स्वरूप में तदाकार सा हो जाता है, वह प्रत्याहार है।

महर्षि व्यास के अनुसार - इंद्रियाँ अपने विषय से असम्बद्ध हैं, जैसे मधुमक्खियाँ रानी मधुमक्खी का अनुकरण करती हैं। राजा मन के निरोध होने से इन्द्रियों का भी निरोध हो जाता है। योग की इस स्थिति को ही प्रत्याहार कहा जाता है। 

आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार - इंद्रियों की बाह्य वृत्ति को सब ओर से हटाकर एकत्रित करके मन में लय करने के अभ्यास को प्रत्याहार कहा गया है। इंद्रियों का विषयों से अलग होना ही प्रत्याहार है। जिस समय साधक अपनी साधनाकाल में इंद्रियों के विषयों का परित्याग कर देता है और चित्त को अपने इष्ट में एकाकार कर (लगा) देता है, तब उस समय जो चिंतन इन्द्रियों के विषयों की तरफ न जाकर चित्त में समाहित हो जाती है, वही प्रत्याहार सिद्धि की पहचान है। जिस तरह से मनुष्य की छाया चलने पर चलने लगती है, रूकने पर रूक जाती है, वैसे ही इंद्रियाँ चित्त के अधीन रहकर कार्य करती हैं। यही प्रत्याहार के अभिमुख होना है। 

शारदातिलक के अनुसार - इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु निरगलम्। बलदाहरणं तेभ्य प्रत्याहारोSभिधीयते।। 25/23 अर्थात ये इन्द्रियाँ विषयों में बेरोक-टोक दौड़ते रहने से चंचल रहती हैं। अत: उन विषयों से इंद्रियों को निरूद्ध कर मन को स्थिर करने का नाम प्रत्याहार है। रूद्रयामल में भगवद्पाद में चित्त लगाने को प्रत्याहार कहा गया है।

घेरण्ड संहिता के अनुसार - यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्यैव वशं नयेत्।। 4/2 अर्थात जहाँ-जहाँ यह चंचल मन विचरण करे इसे वहीं-वहीं से लौटाने का प्रयत्न करते हुए आत्मा के वश में करे (यही प्रत्याहार है)।

विष्णु पुराण के अनुसार - शब्दादिष्वनुषक्तानि निगृह्याक्षणि योगवित्। कुर्याच्चित्तानुकारिणी प्रत्याहार परायणा:।। अर्थात योगविदों को चाहिए कि वह शब्दादि विषयों में आसक्ति का निग्रह करे और अपने-अपने विषयों में आसक्ति का निग्रह करे और अपने-अपने विषयों से निरूद्ध इंद्रियों को चित्त का अनुसरण करने वाला बनावे। यही अभ्यास प्रत्याहार का रूप धारण कर लेता है। 

कठोपनिषद् (1/3/13) के अनुसार - बुद्धिमान मनुष्य को उचित है कि वाक् आदि इंद्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन को इष्ट में लगावे। 

मैत्रेयुपनिषद् (1/9) के अनुसार - चित्त ही संसार है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक उसे ही शुद्ध करो, क्योंकि जैसा चित्त है वैसी ही गति, यह सनातन सिद्धांत है।

      उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि इंद्रियों का अपने विषयों को छोड़कर चित्त के अनुकूल अनुरूप होकर कार्य करना प्रत्याहार है। उपर्युक्त परिभाषाओं में महर्षि पतंजलि द्वारा बतायी गयी परिभाषा के अनुसार प्रत्याहार स्वत: होने वाली प्रक्रिया है। इसमें प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है जबकि अन्य परिभाषाओं में प्रयासपूर्वक अर्थात क्रियात्मक प्रत्याहार पर जोर दिया गया है।

      प्रत्याहार का परिणाम एवं महत्व

      महर्षि पतंजलि के अनुसार - तत: परमावश्यतेइन्द्रियाणाम्।। पातंजल योग सूत्र 2/55 उस प्रत्याहार से इंद्रियों की परम वश्यता होती है अर्थात प्रत्याहार से इंद्रियाँ अपने वश में हो जाती हैं।

      व्यास भाष्य के अनुसार - इंद्रियों की परमवश्यता क्या है, इसे व्यास भाष्य में इस प्रकार कहा गया है-कोई कहते हैं शब्दादि विषयों में आसक्त न होना अर्थात अपने अधीन रखना इन्द्रियवश्यता या इन्द्रिजय है। दूसरे कहते हैं कि वेदशास्त्र से अविरूद्ध विषयों का सेवन, उनके विरूद्ध विषयों का त्याग इन्द्रियजय है। कुछ लोग कहते हैं कि विषयों में न फँसकर अपनी इच्छा से विषयों के साथ इन्द्रियों का सम्प्रयोग।कुछ लोग कहते हैं कि राग-द्वेष के अभावपूर्वक सुख-दु:ख से शून्य विषयों का ज्ञान होना इन्द्रियजय है।

      स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार - तब वह मनुष्य जितेन्द्रिय होकर जहाँ अपने मन को ठहराना या चलाना चाहे, उसी में ठहरा एवं चला सकता है। फिर उसको ज्ञान हो जाने से सदा सत्य से प्रीति हो जाती है और असत्य में कभी नहीं।

      आचार्य श्रीराम शर्मा के अनुसार - योगी साधक जब प्रत्याहार की सिद्धि प्राप्त कर लेता है तो समस्त इंद्रियाँ उसके वश में हो जाती हैं। वह जितेन्द्रिय हो जाता है। इंद्रियों की स्वतंत्रता का सदैव के लिए अभाव हो जाता है। इन सब विषयों में इन्द्रियजय के लक्ष्य में विषयों का संबंध बना ही रहता है जिससे गिरने की आशंका दूर नहीं हो सकती। इसलिए यह इंद्रियों की परमवश्यता नहीं है। चित्त की एकाग्रता के कारण इंद्रियों की विषयों में प्रवृत्ति न होना इन्द्रियजय है। उस एकाग्रता से चित्त के निरूद्ध होने पर इंद्रियों का सर्वथा निरोध हो जाता है और अन्य किसी इंद्रियजय के उपाय में प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए यही इंद्रियों की परमवश्यता है। प्रत्याहार का फल है इन्द्रियजय अर्थात मन सहित समस्त इंद्रियों पर विजय। इन्द्रियजय योग की एक महत्वपूर्ण घटना या प्रक्रिया है जो आगे धारणा, ध्यान, समाधि के लिए आधार भूमि का काम करती है।

      संस्कृत में प्रत्याहार क्या है?

      प्रत्याहार का अर्थ होता है – 'संक्षिप्त कथन'। व्याकरण में प्रत्याहार विभिन्न वर्ण-समूह को अभीप्सित रूप से संक्षेप में ग्रहण करने की एक पद्धति है। जैसे, 'अण्' से अ इ उ और 'अच्' से समग्र स्वर वर्ण— अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ओ और औ, इत्यादि।

      प्रत्याहार संस्कृत में कितने होते हैं?

      इन सूत्रों से कुल 41 प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र (१.११४) से “ञमन्ताड्डः” से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से “चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः” (८.४.४७) से बनता है। इस प्रकार कुल 43 प्रत्याहार हो जाते हैं

      प्रत्याहार कौन कौन से होते हैं?

      महर्षि पतंजलि प्रत्याहार को परिभाषित कर सकते है। अर्थात् अपने विषयों के साथ इन्द्रियों का संबन्ध न होने पर चित्त के स्वरूप में तदाकार होना प्रत्याहार है। पतंजलि कहते है।

      अच् प्रत्याहार में कितने वर्ण होते हैं?

      इन 14 सूत्रों के आधार पर 42 प्रत्याहारों की रचना होती है। इन 14 सूत्रों के अन्तिम वर्ण की अन्त्य संज्ञा होने से उनकी गणना नहीं की जाती है। पहले चार सूत्रों में स्वरों की गणना की गयी है। इसे अच् प्रत्याहार कहते है।