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अध्याय : 1. संसाधन एवं विकाससंसाधनों का विकास संसाधन मनुष्य के जीवन यापन एवं जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए अति आवश्यक हैं परन्तु इनके अंधाधुंध उपयोग के कारण कर्इ समस्याएँ पैदा हुर्इ हैं। नवीनतम लेख और ब्लॉग
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Sample Papers For Class X & XII Solution : प्रकृति प्रदत्त वस्तुएँ हवा| पानी| वन| वन्य जीव| भूमि| मिट्टी| खनिज सम्पदा एवं शक्ति के साधन या स्वयं मनुष्य द्वारा निर्मित संसाधन के बिना मनुष्य की जरूरतें पूरी नहीं हो सकती हैं तथा सुख-सुविधा नहीं मिल सकती है। मनुष्य का आर्थिक विकास संसाधनों की उपलब्धि पर ही निर्भर करता है। संसाधनों का महत्त्व इस बात से है कि इनकी प्राप्ति के लिए मनुष्य कठिन-से-कठिन परिश्रम करता है| साहसिक यात्राएँ करता है| फिर अपनी बुद्धि| प्रतिभा| क्षमता| तकनीकी ज्ञान और कुशलताओं का प्रयोग करके उनके उपयोग की योजना बनाता है| उन्हें उपयोग में लाकर अपना आर्थिक विकास करता है। इसलिए मनुष्य के लिए संसाधन बहुत आवश्यक है। इसके बिना मनुष्य का जीवन एक क्षण भी नहीं चल सकता है। संसाधनों का विकासयह मानकर कि संसाधन प्राकृतिक की देन है, उनका अंधाधुंध उपयोग किया जाता रहा है, जिसके कारण समाज में निम्नलिखित समस्या उत्पन्न हो गई है: (i) कुछ व्यक्तियों के लालचवश संसाधनों का ह्रास (ii) संसाधनों के कुछ खास व्यक्तियों के ही हाथ में आ जाने के कारण समाज दो हिस्सों, अमीर तथा गरीब में बँट गया है। इस कारण समाज में कई समस्या उत्पन्न हो गई है। (iii) संसाधनों के असंगत तथा अंधाधुंध उपयोग से कई तरह के वैश्विक संकट पैदा हो गये हैं, जैसे कि ग्लोबल वार्मिंग (भूमंडलीय तापन), ओजोन परत का अवक्षय (डिपलेशन ऑफ ओजोन लेयर), भूमि निम्नीकरण आदि। अत: इन संकट तथा विपरीत परिस्थितियों से निपटने के लिए तथा भविष्य में इन संकटों को पैदा होने से रोकने के लिए संसाधनों का का न्यायसंगत बँटवारा तथा उपयोग आवश्यक हो गया है। इसलिए मानव जीवन की गुणवत्ता तथा विश्व शांति बनाये रखने के लिए संसाधनों के न्यायसंगत बँटवारा तथा उपयोग के लिए संसाधन का सही विकास तथा सही योजना अतिआवश्यक है। संसाधनों उपयोग का विकास तथा सही योजना ही सतत पोषणीय विकास संभव है। सतत पोषणीय विकासपर्यावरण को नुकसान पहुँचाये बिना तथा भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकता की अवहेलना किये बिना ही होने वाला विकास सतत पोषणीय विकास कहलाता है। इसका अर्थ है, कि विकास के लिए उपयोग किये जाने वाला संसाधन से पर्यावरण को नुकसान न हो। साथ ही विकास के लिए संसाधन का न्यायसंगत उपयोग हो ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए संसाधन बचे रहें। इस तरह से होने वाला विकास सतत पोषणीय विकास कहलाता है। सतत पोषणीय विकास का शाब्दिक अर्थ है, सतत अर्थात हमेशा एवं निरंतर, पोषणीय अर्थात पोषण देने वाला। अर्थात सतत पोषणीय विकास का अर्थ हुआ "निरंतर पोषण के लिए विकास" या "वैसा विकास जिससे निरंतर पोषण होता रहे"। रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन, 1992विश्व स्तर पर उभरते हुए पर्यावरण संरक्षण और समाजिक एवं आर्थिक विकास की समस्याओं का हल ढ़ूंढ़ने के लिए ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरो में 1992 में एक पहला सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसे रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन, 1992 के नाम से जाना जाता है। इस सम्मेलन में पूरे विश्व के 100 से भी अधिक राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में एकत्रित नेताओं ने भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन और जैविक विविधता पर एक घोषणा पत्र हस्ताक्षरित किया। इस सम्मेलन में भूमंडलीय वन सिद्धांतों पर सहमति जताई और 21वीं शताब्दी में सतत पोषणीय विकास के लिए एजेंडा 21 को स्वीकृति प्रदान की गयी। एजेंडा 21एजेंडा 21 एक घोषणा पत्र तथा कार्यसूची है जिसे रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन, 1992 में स्वीकृत किया गया था। इसका उद्देश्य समान हितों, पारस्परिक आवश्यकताओं एवं सम्मिलित जिम्मेदारियों के अनुसार विश्व सहयोग के द्वारा पर्यावरणीय क्षति, गरीबी और रोगों से निबटना है। इसका मुख्य उद्देश्य यह भी है कि प्रत्येक स्थानीय निकाय अपना स्थानीय एजेंडा 21 तैयार करें। संसाधनों का नियोजन/योजना (रिसोर्स प्लानिंग)संसाधनों के न्यायसंगत उपयोग के लिए एक सर्वमान्य नीति तथा मजबूत योजना आवश्यक है। भारत जैसे देश में संसाधन की उपलब्धता में बहुत अधिक विविधता है। यहाँ के विभिन्न प्रदेशों में विशेष तरह के संसाधन की प्रचुरता है। एक प्रदेश में जहाँ एक ओर किसी खास प्रकार के संसाधन की अधिकता है, तो दूसरी ओर दूसरे तरह के संसाधन की भारी कमी है। किसी प्रदेश में संसाधन तो हैं लेकिन आधारभूत संरचना के आभाव में उसका उपयोग नहीं हो पा रहा है। जैसे (i) राजस्थान तथा गुजरात में पवन उर्जा तथा सौर उर्जा काफी प्रचूर मात्रा में वर्तमान हैं लेकिन जल का आभाव है। (ii) अरूणाचल प्रदेश में जल संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है लेकिन मूल विकास की कमी है। (iii) उसी तरह झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में खनिज तथा कोयला का प्रचुर भंडार है, लेकिन दूसरे राज्यों इन संसाधनों की कमी है। अत: संसाधनओं के सही उपयोग के लिए योजना की आवश्यकता होती है। भारत में संसाधन योजना / नियोजनसंसाधन लिए योजना एक जटिल प्रक्रिया है। इसके मुख्य चरण निम्नलिखित हैं: (a) देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों की पहचान कर उसकी सूची बनाना। इसके अंतर्गत क्षेत्रीय सर्वेक्षण, मानचित्र बनाना, संसाधनों का गुणात्मक एवं मात्रक अनुमान लगाना तथा मापन का कार्य है। (b) संसाधन विकास योजनाएँ लागू करने के लिए उपयुक्त तकनीकि, कौशल और संस्थागत नियोजन ढ़ाँचा तैयार करना तथा (c) संसाधन विकास योजनाओं और राष्ट्रीय विकास योजना में समंवय स्थापित करना है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से भारत में प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही संसाधन के विकास के लिये प्रयास किया जाने लगा। संसाधनों का संरक्षणबिना संसाधन के विकास संभव नहीं है। लेकिन संसाधन का विवेकहीन उपभोग तथा अति उपयोग कई तरह के सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरणीय समस्या उत्पन्न कर देते हैं। अत: संसाधन का संरक्षण अति आवश्यक हो जाता है। संसाधन के संरक्षण के लिए विभिन्न जननायक, चिंतक, तथा वैज्ञानिक आदि का प्रयास विभिन्न स्तरों पर होता रहा है। जैसे महात्मा गाँधी के शब्दों में "हमारे पास हर व्यक्ति की आवश्यकता पूर्ति के लिए बहुत कुछ है, लेकिन किसी के लालच की संतुष्टि के लिए नहीं। अर्थात हमारे पेट भरने के लिए बहुत है लेकिन पेटी भरने के लिए नहीं।" महात्मा गाँधी के अनुसार विश्व स्तर पर संसाधन ह्रास के लिए लालची और स्वार्थी व्यक्ति के साथ ही आधुनिक तकनीकि की शोषणात्मक प्रवृत्ति जिम्मेदार है। महात्मा गाँधी मशीनों द्वारा किए जाने वाले अत्यधिक उत्पादन की जगह पर अधिक बड़े जनसमुदाय द्वारा उत्पादन के पक्ष में थे। यही कारण है कि महात्मा गाँधी कुटीर उद्योग की वकालत करते थे। जिससे बड़े जनसमुदाय द्वारा उत्पादन हो सके। भू संसाधनभूमि हमारे लिए एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन हैं। प्राकृतिक वनस्पति, वन्य जीवन, मानव जीवन, आर्थिक क्रियाएँ, परिवहन तथा संचार व्यवस्थाएँ भूमि पर ही आधारित हैं। अत: उपलब्ध भूमि का विभिन्न उद्देश्यों के लिए उपयोग सावधानी पूर्वक और योजनाबद्ध तरीके से होना चाहिए। भारत में भूमि निम्नांकित रूप में हैं: (a) मैदानी भागभारत में लगभग 43 प्रतिशत भू–क्षेत्र मैदान मैदानी भाग के रूप में हैं। इन मैदानी भाग में सुविधाजनक रूप से कृषि और उद्योग का विकास किया जा सकता है। (b) पर्वतीय क्षेत्रभारत के भू–क्षेत्र का 30 प्रतिशत भाग पर्वतीय क्षेत्र हैं। पर्वतीय क्षेत्र नदियों के प्रवाह को सुनिश्चित करते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों पर वन सम्पदा भी हैं। पर्वत तथा पर्वतीय क्षेत्र पर्यटन विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करते हैं। (c) पठारी क्षेत्रभारत के भू–क्षेत्र का लगभग 27 प्रतिशत हिस्सा पठारी क्षेत्र के रूप में हैं। पठारी क्षेत्र में खनिज, जीवाश्म ईंधन और वनों का अपाय संचय है। भूमि–संसाधन का वर्गीकरण तथा उपयोगभू–संसाधनों को उपयोग के आधार पर निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है: (a) वन(b) कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमिकृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है: (i) बंजर भूमि तथा कृषि के लिए अयोग्य भूमि(ii) गैर–कृषि प्रयोजनों में लगाई गई भूमिवैसी भूमि जिनका उपयोग गैर–कृषि कार्यों में हुआ है तथा उनपर कृषि नहीं हो सकती है, को गैर–कृषि प्रयोजन में लगाई गई भूमि कहा जाता है। जैसे: सड़कें, रेल, इमारतें, सड़क, उद्योग आदि में लगाई गई भूमि। (c) परती के अतिरिक्त अन्य कृषि अयोग्य भूमिपरती के के अतिरिक्त अन्य कृषि अयोग्य भूमि को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है: (i) स्थायी चरागाहें तथा अन्य गोचर भूमिवैसी भूमि जो पशुओं के चरागाहों के रूप में छोड़ी गयी हो तथा उनपर कृषि नहीं होती हैं, को स्थायी चरागाहें तथा अन्य गोचर भूमि कहते हैं। (ii) विविध बृक्षों, बृक्ष फसलों, तथा उपवनों के अधीन भूमिवैसी भूमि, जिनपर खेती हो सकती थी लेकिन उनपर विविध प्रकार के बृक्ष लगे हों तथा वे शुद्ध बोए गये क्षेत्रों में शामिल नहीं हैं, को विविध बृक्षों, बृक्ष फसलों, तथा उपवनों के अधीन भूमि कहा जाता है। (iii) कृषि योग्य बंजर भूमि जहाँ पाँच से अधिक वर्षों से खेती न की गई हो।वैसी भूमि जो कृषि योग्य हैं, परंतु पाँच से अधिक वर्षों से खेती नहीं की गयी हो, को कृषि योग्य बंजर भूमि कहा जाता है। (d) परती भूमिपरती भूमि को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है: (i) वर्तमान परतीवैसी भूमि जिनपर खेती हो सकती है लेकिन एक कृषि वर्ष या उससे कम समय से खेती नहीं की गई हो, वर्तमान परती कहलाती है। (ii) वर्तमान परती भूमि के अतिरिक्त अन्य परती भूमि या पुरातन परतीवैसी कृषि योग्य भूमि जिनपर 1 से 5 वर्षों से अधिक समय से खेती नहीं की गई है, को वर्तमान परती भूमि के अतिरिक्त अन्य परती भूमि या पुरातन परती कहा जाता है। (e) शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्रवैसी भूमि जिनपर वर्ष में एक बार से अधिक बार खाद्यान्न या अन्य प्रकार की फसलें उगाई गयी हों, को शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्र या सकल कृषित क्षेत्र कहा जाता है। संसाधनों का विकास क्यों आवश्यक?बिना संसाधन के विकास संभव नहीं है। लेकिन संसाधन का विवेकहीन उपभोग तथा अति उपयोग कई तरह के सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरणीय समस्या उत्पन्न कर देते हैं। अत: संसाधन का संरक्षण अति आवश्यक हो जाता है। संसाधन के संरक्षण के लिए विभिन्न जननायक, चिंतक, तथा वैज्ञानिक आदि का प्रयास विभिन्न स्तरों पर होता रहा है।
संसाधनों के विकास से आप क्या समझते हैं?अधिक संसाधनों के निर्माण में समर्थ होने के लिए लोगों के कौशल में सुधार करना मानव संसाधन विकास कहलाता है। संसाधनों का सतर्कतापूर्वक उपयोग करना और उन्हें नवीकरण के लिए समय देना,संसाधन संरक्षण कहलाता है। संसाधनों का उपयोग करने की आवश्यकता और भविष्य के लिए उनके संरक्षण में संतुलन बनाये रखना सततपोषणीय विकास कहलाता है।
संसाधन का हमारे जीवन में क्या महत्व है?Solution : कोई वस्तु या तत्व तभी संसाधन कहलाता है जब उससे मनुष्य की किसी आवश्यकता की पूर्ति होती है, जैसे जल एक संसाधन है क्योंकि इससे मनुष्यों व अन्य जीवों की प्यास बुझती हैं, खेतो मे फसलों की सिंचाई होती है और यह स्वच्छता प्रदान करने, भोजन बानने और भी आदि मानव की बहुत सी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
संसाधनों का उचित उपयोग क्यों आवश्यक है?यदि कुछ ही व्यक्तियों तथा देशों द्वारा संसाधनों का वर्तमान दोहन जारी रहता है, तो हमारी पृथ्वी का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। इसलिए, हर तरह के जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए संसाधनों के उपयोग की योजना बनाना अति आवश्यक है। सतत् अस्तित्व सही अर्थ में सतत् पोषणीय विकास का ही एक हिस्सा है।
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