धन के द्वारा सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्या हो सकता? - dhan ke dvaara sabase mahattvapoorn kaary kya ho sakata?

धन का उपार्जन केवल इसी दृष्टि से होना चाहिए कि उससे अपने तथा दूसरों के उचित अभावों की पूर्ति हो। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के विकास के लिए सांसारिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए धन का उपयोग होना चाहिए और इसीलिए उसे कमाना चाहिए।

धन कमाने का उचित तरीका वह है जिसमें मनुष्य का पूरा शारीरिक और मानसिक श्रम लगा हो, जिसमें किसी दूसरे के हक का अपहरण न किया गया हो; जिसमें कोई चोरी, छल, प्रपञ्च, अन्याय, दबाव आदि का प्रयोग न किया गया हो। जिससे समाज और राष्ट्र का कोई अहित न होता हो, ऐसी ही कमाई से उपार्जित पैसा फलता-फूलता है और उससे मनुष्य की सच्ची उन्नति होती है।

जिस प्रकार धन के उपार्जन में औचित्य का ध्यान रखने की आवश्यकता है, वैसे ही उसे खर्च करने में, उपयोग में भी सावधानी बरतनी चाहिए। अपने तथा अपने परिजनों के आवश्यक विकास के लिए धन का उपयोग करना ही कर्तव्य है। शान-शौकत दिखलाने अथवा दुर्व्यसनों की पूर्ति के लिए धन का अपव्यय करना मनुष्य की अवनति, अप्रतिष्ठा और दुर्दशा का कारण होता है।

अपनी उचित शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और सांसारिक आवश्यकताओं की उपेक्षा करके जो लोग अधिकाधिक धन इकट्ठा करने की तृष्णा में डूबे रहते हैं और सात पुस्त के लिए अमीरी छोड़ जाना चाहते हैं, वे बड़ी भूल करते हैं। मुफ्त की दौलत मिलने से आगामी सन्तान आलसी, व्यसनी, अपव्ययी तथा अन्य बुराइयों की शिकार बन सकती है। जिसने जिस पैसे को पसीना बहाकर नहीं कमाया है, वह उसका मूल्यांकन नहीं कर सकता। बच्चों के लिए सम्पत्ति जोड़ कर रख जाने के बजाय उनको सुशिक्षित, स्वस्थ और स्वावलम्बी बनाने में खर्च करना अधिक उत्तम है।

धन की तृष्णा से बचिए

धन कोई बुरी चीज नहीं है और खासकर वर्तमान समय में दुनियाँ का स्वरूप ही ऐसा हो गया है कि बिना धन के मनुष्य का जीवन-निर्वाह सम्भव नहीं, पर धन तभी तक शुभ और हितकारी है जब तक उसे ईमानदारी के साथ कमाया जाय और उसका सदुपयोग किया जाय। इसके विपरीत यदि हम धन कमाने और चारों तरफ से उसे बटोर कर अपनी तिजोरी में बन्द करने को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं, अथवा यह समझकर कि हम अपनी सम्पत्ति का चाहे जैसा उपयोग करें, उसे दुर्व्यसनों की पूर्ति में खर्च करते हैं, तो वह हमारे लिए अभिशाप स्वरूप बन जाता है। ऐसा मनुष्य अपना पतन तो करता ही है, साथ ही दूसरे लोगों को उनके उचित अधिकार से वंचित करके उनकी विपत्ति का कारण भी बनता है। आजकल तो हम यही देख रहे हैं कि जिसमें चतुरता एवं शक्ति की तनिक भी अधिकता है, वह कोशिश करता है कि मैं संसार की अधिक से अधिक सुख-सामग्री अपने कब्जे में कर लूँ। अपनी इस हविस को पूरा करने के लिए वह अपने पड़ोसियों के अधिकारों के ऊपर हमला करता है और उनके हाथ की रोटी, मुख के ग्रास छीनकर खुद मालदार बनता है।

एक आदमी के मालदार बनने का अर्थ है अनेकों का क्रन्दन, अनेकों का शोषण, अनेकों का अपहरण। एक ऊँचा मकान बनाया जाय तो उसके लिए, बहुत-सी मिट्टी जमा करनी पड़ेगी और जहाँ-जहाँ से वह मिट्टी उठाई जायगी, वहाँ-वहाँ गड्ढा पड़ना निश्चित है। इस संसार में जितने प्राणी हैं उसी हिसाब से वस्तुएँ भी परमात्मा उत्पन्न करता है। यदि एक आदमी अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ जमा करता है तो इसका अर्थ—दूसरों की जरूरी चीजों का अपहरण ही हुआ। गत द्वितीय महायुद्ध में सरकारों ने तथा पूँजीपतियों ने अन्न का अत्यधिक स्टाक जमा कर लिया, फलस्वरूप दूसरी जगह अन्न की कमी पड़ गई और बंगाल जैसे प्रदेशों में लाखों आदमी भूखे मर गए। गत शताब्दी में ब्रिटेन की धन सम्पन्नता, भारत जैसे पराधीन देशों के दोहन से हुई थी। जिन देशों का शोषण हुआ था वे बेचारे दीनदशा में गरीबी, बेकारी, भुखमरी और बीमारी से तबाह हो रहे थे।

वस्तुएँ संसार में उतनी ही हैं, जिससे सब लोग समान रूप से सुखपूर्वक रह सकें। एक व्यक्ति मालदार बनता है, तो यह हो नहीं सकता कि उसके कारण अनेकों को गरीब न बनना पड़े, यह महान सत्य हमारे पूजनीय पूर्वजों को भली-भाँति विदित था इसीलिए उन्होंने मानव धर्म में अपरिग्रह को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। वस्तुओं का कम से कम संग्रह करना यह भारतीय सभ्यता का आदर्श सिद्धान्त था। ऋषिगण कम से कम वस्तुएँ जमा करते थे। वे कोपीन लगाकर फूँस के झोंपड़ों में रहकर गुजारा करते थे। जनक जैसे राजा अपने हाथों खेती करके अपने पारिवारिक निर्वाह के लायक अन्न कमाते थे। प्रजा का सामूहिक पैसा—राज्य कोष केवल प्रजा के कामों में ही खर्च होता था। व्यापारी लोग अपने आप को जनता के धन का ट्रस्टी समझते थे और जब आवश्यकता पड़ती थी उस धन को बिना हिचकिचाहट के जनता को सौंप देते थे। भामाशाह ने राणाप्रताप को प्रचुर सम्पदा दी थी, जनता की थाती को, जनता की आवश्यकता के लिए बिना हिचकिचाहट सौंप देने के असंख्यों उदाहरण भारतीय इतिहास के पन्ने-पन्ने पर अंकित हैं।

आज का दृष्टिकोण दूसरा है। लोग मालदार बनने की धुन में अन्धे हो रहे हैं। नीति-अनीति का, उचित-अनुचित का, धर्म-अधर्म का प्रश्न उठा कर ताक पर रख दिया गया है और यह कोशिशें हो रही हैं कि किस प्रकार जल्द से जल्द धनपति बन जाएँ। धन ! अधिक धन !! जल्दी धन ! धन ! धन !! इस रट को लगाता हुआ, मनुष्य होश-हवास भूल गया है। पागल सियार की तरह धन की खोज में उन्मत्त-सा होकर चारों ओर दौड़ रहा है।

पाप एक छूत की बीमारी है। जो एक से दूसरे को लगती और फैलती है। एक को धनी बनने के लिए यह अन्धाधुन्धी मचाते हुए देखकर और अनेकों की भी वैसी ही इच्छा होती है। अनुचित रीति से धन जमा करने वाले लुटेरों की संख्या बढ़ती है—फिर लुटने वाले और लूटने वालों में संघर्ष होता है। उधर लूटने वालों में प्रतिद्वन्दिता का संघर्ष होता है। इस प्रकार तीन मोर्चों पर लड़ाई ठन जाती है। घर-घर में गाँव-गाँव में जाति में, वर्ग में तनातनी हो रही है। जैसे बने वैसे जल्दी से जल्दी धनी बनने, व्यक्तिगत सम्पन्नता को प्रधानता देने का एक ही निश्चित परिणाम है—कलह। जिसे हम अपने चारों ओर ताण्डव नृत्य करता हुआ देख रहे हैं।

इस गतिविधि को जब तक मनुष्य जाति न बदलेगी तब तक उसकी कठिनाइयों का अन्त न होगा। एक गुत्थी सुलझने न पावेगी तब तक नई गुत्थी पैदा हो जायगी। एक संघर्ष शान्त न होने पावेगा तब तक नया संघर्ष आरम्भ हो जावेगा। न लूटने वाला सुख की नींद सो सकेगा और न लुटने वाला चैन से बैठेगा। एक का धनी बनना अनेकों के मन में ईर्ष्या की, डाह की, जलन की आग लगाना है। यह सत्य सूर्य-सा प्रकाशवान है कि एक का धनी होना अनेकों को गरीब रखना है। इस बुराई को रोकने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपरिग्रह का स्वेच्छा स्वीकृत शासन स्थापित किया था। आज की दुनियाँ राज-सत्ता द्वारा समाजवादी प्रणाली की स्थापना करने जा रही है।

वस्तुतः जीवनयापन के लिए एक नियत मात्रा में धन की आवश्यकता है। यदि लूट-खसोट बन्द हो जाय तो बहुत थोड़े प्रयत्न से मनुष्य अपनी आवश्यक वस्तुएँ कमा सकता है। शेष समय में विविध प्रकार की उन्नतियों की साधना की जा सकती है। आत्मा मानव शरीर को धारण करने के लिए जिस लोभ से तैयार होती है, प्रयत्न करती है, उस रस को अनुभव करना उसी दशा में सम्भव है, जब धन संचय का बुखार उतर जाय और उस बुखार के साथ-साथ जो अन्य अनेकों उपद्रव उठते हैं उनका अन्त हो जाय।

परमात्मा समदर्शी है। वह सब को समान सुविधा देता है। हमें चाहिए कि भौतिक पदार्थों का उतना ही संचय करें जितना उचित रीति से कमाया जा सके और वास्तविक आवश्यकताओं के लिए काफी हो। इससे अधिक सामग्री के संचय की तृष्णा न करें क्योंकि यह तृष्णा ईश्वरीय इच्छा के विपरीत तथा कलह उत्पन्न करने वाली है।

धन विपत्ति का कारण भी हो सकता है?

इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान समय में संसार के अधिकांश लोगों ने धन के वास्तविक दर्जे को भूल कर उसे बहुत ऊँचे आसन पर बैठा दिया है। आजकल की अवस्था को देख कर तो हमको यही प्रतीत होता है कि मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु धन ही है, यह स्वीकार करना होगा। ईसा मसीह ने गलत नहीं लिखा है कि "धनी का स्वर्ग में प्रवेश पाना असम्भव है।" इसका अर्थ केवल यही है कि धन मनुष्य को इतना अन्धा कर देता है कि वह संसार के सभी कर्तव्यों से गिर जाता है। धन का इसी में महत्त्व है कि वह लोक-सेवा में व्यय हो। नहीं तो धन के समान अनर्थकारी और कुछ नहीं है। श्रीमद्भागवत में कहा है—

स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः।
भेदोः वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च ॥
एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्।
तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत् ॥
—११/२३/१८-१९

"(धन) से ही मनुष्यों में ये पन्द्रह अनर्थ उत्पन्न होते हैं—चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेद बुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जुआ और शराब। इसलिए कल्याणकामी पुरुष को 'अर्थ' नामधारी-अनर्थ को दूर से ही त्याग देना चाहिए।"

आज संसार में बहुत ही कम लोग सुखी कहे जा सकते हैं। भूतकाल में हमारा जीवन केवल रोटी कमाने में बीता। अब हमको समाज में अपना स्थान कमाने में बिताना चाहिए। केवल धन और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिए। लक्ष्य होना चाहिए कभी भी दुःखी न रहना। हरेक के जीवन में सबसे महान् प्रेरणा यह होनी चाहिए कि हमारा जीवन प्रकृति के अधिक से अधिक निकट हो और तर्क तथा बुद्धि से दूर न हो। हमको अपने जीवन में काम करने का आदर्श समझ लेना चाहिए। यह आदर्श पेट का धन्धा नहीं, सेवा होना चाहिए। सर्वकल्याण, समाज सेवा, सामाजिक जीवन तथा शिक्षा ही हमारा कार्यक्षेत्र हो, हमको ऐसे युग की कल्पना करनी चाहिए, जब हमारा जीवन ध्येय केवल जीविका-उपार्जन न रह जाय। जीवन केवल अर्थशास्त्र या प्रतिस्पर्द्धा की वस्तु न रह जाय। व्यापार के नियम बदल जाएँ। एक काम के अनेक करने वाले हों और अनेक व्यक्ति एक ही काम को अपना सकें। मालिक और नौकर में काम करने के घण्टों की झिकझिक दूर हो। मनुष्य केवल मनुष्य ही नहीं है, उसकी आत्मा भी है, उसका देवता भी है, उसका इहलोक और परलोक भी है।

यदि हम अपने तथा दूसरों के हृदय के भीतर बैठकर यह सब समझ जाँय, तो हमारा जीवन कितना सुखी हो जायगा, पर आज हम ऐसा नहीं करते हैं। यह क्यों ? इसका कारण धन की विपत्ति है। धन की दुनियाँ में निर्धन का व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है। जब तक अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर न मिले, आदमी सुखी नहीं हो सकता। यह सभ्यता व्यक्तित्व के विकास को रोकती है, बिना इसके विकसित हुए सुख नहीं मिल सकता। सुख वह इत्र है, जिसे दूसरों को लगाने से पहले अपने को लगाना आवश्यक होता है। यह इत्र तभी बनता है, जब हम अपने एक कार्य को दूसरे की सहायता के भाव से करें। हमें चाहे अपनी इच्छाओं का दमन ही क्यों न करना पड़े, पर हमें दूसरे के सुख का आदर करना पड़ेगा। सुख का सबसे बड़ा साधन निस्वार्थ सेवा ही है।

संसार में रुपये के सबसे बड़े उपासक यहूदी समझे जाते हैं, पर यहूदी समाज में भी अब धन के विरुद्ध जेहाद शुरू हो गया है। 'यरुशलम मित्र संघ की ओर से 'चूज' यानी पसन्द कर लो' शीर्षक एक पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसका लक्ष्य है—'तुम ईश्वर तथा शैतान दोनों की एक साथ उपासना नहीं कर सकते।' इसके लेखक श्री आर्थर ई. जोन्स का कहना है कि 'न जाने किस कुघड़ी में रुपया-पैसा संसार में आया, जिसने आज हमारे ऊपर ऐसा अधिकार कर लिया है कि हम उसके अंग बन गए हैं।' यदि मैं यह कहूँ कि संसार की समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा धन यानी रुपया है, तो पुराने लोग सकपका उठेंगे। किन्तु आज संसार में जो भी कुछ पीड़ा है, वह इसी नीच देवता के कारण है। खाद्य-सामग्री का संकट, रोग-व्याधि—सबका कारण यही है। चूँकि सुख की सभी वस्तुएँ इसी से प्राप्त की जा सकती है, इसीलिए संसर में इतना कष्ट है। जितना समय उपभोग की सामग्री के उत्पादन में लगता है, उससे कई गुना अधिक समय उन वस्तुओं के विक्रय के दाँव-पेंच में लगता है। व्यापार की दुनियाँ में ऐसे करोड़ों नर-नारी व्यस्त हैं, जो उत्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं करते।

विपत्ति यह है कि आदमी एक दूसरे को प्यार नहीं करते। यदि अपनाने की स्वार्थी भावना के स्थान पर प्रतिपादन की भावना हो जाय तो हर एक वस्तु का आर्थिक महत्त्व समाप्त हो जाय। आज लाखों आदमी हिसाब-किताब, बही-खाते के काम में परेशान हैं और लाखों आदमी फौज, पल्टन या पुलिस में केवल इसलिए नियुक्त हैं कि बही-खाते वालों की तथा उनके कोष की रक्षा करें। जेल तथा पुलिस की आवश्यकता रुपये की दुनियाँ में होती है। यदि यही लोग स्वयं उत्पादन के काम में लग जाएँ तथा अपनी उत्पत्ति का आर्थिक मूल्य न प्राप्त कर शारीरिक सुख ही प्राप्त कर सकें, तो संसार कितना सुखमय हो जायगा। आज संसार में अटूट सम्पत्ति, उच्च अट्टालिकाओं में, बैंक तथा कम्पनियों के भवनों में, सेना, पुलिस, जेल तथा रक्षकों के दल में लगी हुई है। यदि इतनी सम्पत्ति और उसका बढ़ता हुआ मायाजाल संसार का पेट भरने में खर्च होता तो आज की दुनियो कैसी होती ? अस्पतालों में लाखों नर-नारी रुपये की मार से या अभाव से बीमार पड़े हैं तथा लाखों नर-नारी धन के लिए जेल काट रहे हैं। प्रायः हर परिवार में इसका झगड़ा है। मालिक तथा नौकर में इसका झगड़ा है। यदि धन की मर्यादा न होती, तो यह संसार कितना मर्यादित हो जाता।'

यह सत्य है कि संसार से पैसा एकदम उठ जाय, ऐसी सम्भावना नहीं है, पर पैसे का विकास, उसकी महत्ता तथा उसका राज्य रोका अवश्य जा सकता है। इसके लिए हमको अपना मोह तोड़ना होगा, स्वार्थ के स्थान पर पदार्थ, समृद्धि के झूँठे सपने के स्थान पर त्याग तथा भाग्य के स्थान पर भगवान की शरण लेनी होगी। नहीं तो आज की हाय-हाय जो हमारे जीवन का सुख नष्ट कर चुकी है, अब हमारी आत्मा को भी नष्ट करने वाली है। हमें सब कुछ खोकर भी अपनी आत्मा को बचाना है।

धन के प्रति उचित दृष्टिकोण रखिए

बात यह है कि भ्रमवश हम रुपये-पैसे को धन समझ बैठे, स्थावर सम्पत्ति का नामकरण हमने धन के रूप में कर डाला और हमारे जीवन का केन्द्र-बिन्दु, आनन्द का स्रोत इस जड़ स्थावर जंगम के रूप में सामने आया। हमारा प्रवाह गलत मार्ग पर चल पड़ा।

क्या हमारे अमूल्य श्वाँस-प्रश्वाँस की कुछ क्रियाओं की तुलना या मूल्यांकन त्रैलोक्य की सम्पूर्ण सम्पत्ति से की जा सकती है? कारूँ का सारा खजाना जीवन रूपी धन की चरण रज से भी अल्प क्यों माना जाय ? सच्चा धन हमारा स्वास्थ्य है, विश्व की सम्पूर्ण उपलब्ध सामग्री का अस्तित्व जीवन धन की योग्य शक्ति पर ही अवलम्बित हैं। मानव अप्राप्य के लिए चिन्तित तथा प्राप्य के प्रति उदासीन है। हमारे पास जो है—उसके लिए सुख का श्वाँस नहीं लेता, सन्तोष नहीं करता, वरन् क्या नहीं है इसके लिए वह चिन्तित, दुःखी व परेशान है। मानव स्वभाव की अनेक दुर्बलताओं में प्राप्य के प्रति असन्तोषी रहना सहज ही स्वभावजन्य पद्धति मानी गई।

मानव आदिकाल से ही मस्तिष्क का दिवालिया रहा। देखिए न, एक दिन एक हष्ट-पुष्ट भिक्षुक, जिसका स्वस्थ शरीर सबल अभिव्यक्ति का प्रतीक था, एक गृहस्थ ज्ञानी के द्वार पर आकर अपनी दरिद्रता का, अपनी अपूर्णता का बड़े जोरदार शब्दों में वर्णन सुना रहा था, जिससे पता चलता था कि वह व्यक्ति महान् निर्धन है और इसके लिए वह विश्व निर्माता ईश्वर को अपराधी करार दे रहा था। अचानक ज्ञानी गृहस्थी ने कहा—भाई हमें अपने छोटे भाई हेतु आँख की पुतली की दरकार है, सौ रुपये लेकर आप हमें देवें। भिक्षुक ने तपाक से नकारात्मक उत्तर दिया कि वह दस हजार रुपये तक भी अपने इस बहुमूल्य शरीर के अवयवों को देने को तैयार नहीं। कुछ क्षण बाद पुनः ज्ञानी गृहस्थ ने कहा—मेरे पुत्र का मोटर दुर्घटना में बाँया पाँव टूट चुका है, अतः दस हजार रुपये आप नगद लेकर आज ही अस्पताल चलकर अपना पैर देवेंगे तो बड़ी कृपा होगी। इस प्रश्न पर वह भिक्षुक अत्यन्त ही क्रोधित मुद्रा में होकर बोला—दस हजार तो दरकिनार रहे, एक लाख क्या दस लाख तक में अपने बहुमूल्य अवयवों को नहीं देऊँगा और रुष्ट होकर जाने लगा। गम्भीरता के साथ ज्ञानी ने रोककर कहा—भाई तुम तो बड़े ही धनी हो जब तुम्हारे दो अवयवों का मूल्य ५० लाख रुपये के लगभग होता है तो भला सम्पूर्ण देह का मूल्य तो अरबों रुपये तक होगा। तुम तो अपनी दरिद्रता का ढिढोरा पीटते हो, अरे लाखों को ठोकर मार रहे हो, अतः जीवन धन अमूल्य है।

हम अपना दृष्टिकोण ठीक बनावें ॥ मिट्टी के ढेलों को, जड़ वस्तु को धन की उपमा देकर उसकी रक्षा के लिए सन्तरी तैनात किए, विशाल तिजोरियों के अन्दर सुरक्षित किया। चोरों से, डाकुओं से किसी भी मूल्य पर हमने उसे बचाया, परन्तु प्रतिदिन नष्ट होने वाला, हमारी प्रत्येक दैनिक, अशोच्य क्रियाओं द्वारा घुल-घुल कर मिटने वाला यह जीवन दीप बिना तेल के बुझ जायगा। 'निर्वाण दीपे किम् तैल्य दानम्' फिर क्या होने वाला है, जबकि दीपक बुझ जाय। हमें आलस्य, अकर्मण्यता आदि स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाली दैनिक क्रियाओं द्वारा इस जीवन धन की रक्षा करनी होगी। व्यसन, व्यभिचार, संयमहीनता के डाकू कहीं लूट न लें। सतर्कता के साथ जागरूक रहना होगा। रुग्ण शैया पर पड़े रोम के अन्तिम सम्राट को राजवैद्य द्वारा अन्तिम निराशाजनक सूचना पाने पर कि वह केवल कुछ क्षणों के ही मेहमान हैं, आस-पास के मन्त्रियों से सामाज्ञी ने कई बार मिन्नतें की कि वे साम्राज्य के कोष का आधा भाग वैद्य के चरणों में भेंट करने को तैयार है अगर उन्हें वे दो घण्टे जीवित और रखें। उत्तर था—"त्रैलोक्य की सम्पूर्ण लक्ष्मी भी समाट को निश्चित क्षण से एक श्वाँस भी अधिक देने में असमर्थ है।" क्या हमारी आँखों के ज्ञान की ज्योति बुझ चुकी है ? क्या उपरोक्त कथन से स्पष्ट नहीं होता कि जीवन धन अमूल्य है, बहुमूल्य है तथा अखिल ब्रह्माण्ड की किसी भी वस्तु की तुलना में यह महान है ?

धन का सच्चा स्वरूप

धन इसलिए जमा करना चाहिए कि उसका सदुपयोग किया जा सके और उसे सुख एवं सन्तोष देने वाले कामों में लगाया जा सके, किन्तु यदि जमा करने की लालसा बढ़कर तृष्णा का रूप धारण कर ले और आदमी बिना धर्म-अधर्म का ख्याल किए पैसा लेने या आवश्यकताओं की उपेक्षा करके उसे जमा करने की कंजूसी का आदी हो जाय तो वह धन धूल के बराबर है। हो सकता है कि कोई आदमी धनी बन जाय, पर उसमें मनुष्यता के आवश्यक गुणों का विकास न हो और उसका चरित्र अत्याचारी, बेईमान या लम्पटों जैसा बना रहे। यदि धन की वृद्धि के साथ-साथ सवृत्तियाँ भी न बढ़े तो समझना चाहिए कि यह धन जमा करना बेकार हुआ और उसने धन को साधन न समझकर साध्य मान लिया है। धन का गुण उदारता बढ़ाना है, हृदय को विशाल करना है, कंजूसी या बेईमानी के भाव जिसके साथ सम्बद्ध हों, वह कमाई केवल दुःखदायी ही सिद्ध होगी।

जिनका हृदय दुर्भावनाओं से कलुषित हो रहा है, वे यदि कंजूसी से धन जोड़ भी लें तो वह उनके लिए कुछ भी सुख नहीं पहुँचाता, वरन् उलटा कष्टकर ही सिद्ध होता है। ऐसे धनवानों को हम कंगाल ही पुकारेंगे, क्योंकि पैसे से जो शारीरिक और मानसिक सुविधा मिल सकती है, वह उन्हें प्राप्त नहीं होती, उलटी उसकी चौकीदारी की भारी जोखिम सिर पर लादे रहते हैं। जो आदमी अपने आराम में, स्त्री के स्वास्थ्य में, बच्चों की पढ़ाई में दमड़ी खर्चना नहीं चाहते, उन्हें कौन धनवान कह सकता है ? दूसरों के कष्टों को पत्थर की भाँति देखता रहता है किन्त शुभ कार्य में कुछ दान करने के नाम पर जिसके प्राण निकलते हैं, ऐसा अभागा मक्खीचूस कदापि धनी नहीं कहा जा सकता। ऐसे लोगों के पास बहुत ही सीमित मात्रा में पैसा जमा हो सकता है, क्योंकि वे उसके द्वारा केवल ब्याज कमाने की हिम्मत कर सकते हैं, उनमें घाटे की जोखिम भी रहती है। कंजूस डरता है कि कहीं मेरा पैसा डूब न जाय, इसलिए उसे छाती से छुड़ाकर किसी कारोबार में लगाने की हिम्मत नहीं होती। इन कारणों से कोई भी कंजूस स्वभाव का मनुष्य बहुत बड़ा धनी नहीं हो सकता।

तृष्णा का कहीं अन्त नहीं, हविस छाया के समान है, जिसे आज तक कोई भी पकड़ नहीं सका है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य केवल पैसा पैदा करना ही नहीं वरन् इससे भी कुछ बढ़कर है। पोम्पाई नगर के खण्डहरों को खोदते हुए एक ऐसा मानव अस्थि-पंजर मिला, जो हाथ में सोने का एक ठेला बड़ी मजबूती से पकड़े हुए था। मालूम होता है कि उसने मृत्यु के समय सोने की रक्षा की सबसे अधिक चिन्ता की होगी। एक जहाज जब डूब रहा था, तो सब लोग नावों में बैठकर भागने लगे, किन्तु एक व्यक्ति उस जहाज के खजाने में से धन समेटने में लगा। साथियों ने कहा—चलो भाग चलो, नहीं तो डूब जाओगे, पर वह मनुष्य अपनी धुन में ही लगा रहा और जहाज के साथ डूब गया। एक कन्जूस आदमी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उसे एक ऐसी थैली दी, जिसमें बार-बार निकालने पर भी एक रुपया बना रहता था। साथ ही शंकर जी ने यह भी कह दिया कि जब तक इस थैली को नष्ट न कर दो, तब तक खर्च करना आरम्भ न करना। वह गरीब आदमी एक-एक करके रुपया निकालने लगा। साथ ही उसकी तृष्णा बढ़ने लगी। बार-बार निकालता ही रहा, यहाँ तक कि निकालते-निकालते उसकी मृत्यु हो गई। एक बार लक्ष्मी जी ने एक भिखारी से कहा कि तुझे जितना सोना चाहिए ले ले, पर वह जमीन पर न गिरने पावे, नहीं तो मिट्टी हो जायेगा। भिखारी अपनी झोली में अन्धा-धुन्ध सोना भरता गया, यहाँ तक कि झोली फट कर सोना जमीन पर गिर पड़ा और धूल हो गया। मुहम्मद गौरी जब मरने लगा तो उसने अपना सारा खजाना आँखों के सामने फैलवाया, वह उसकी ओर आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा था और नेत्रों में से आँसुओं की धार बह रही थी। तृष्णा के सताये हुए कंजूस मनुष्य भिखमंगों से जरा भी कम नहीं हैं, भले ही उनकी तिजोरियों सोने से भरी हुई हों।

सच्ची दौलत का मार्ग आत्मा को दिव्य गुणों से सम्पन्न करना है। सच समझिए हृदय की सद्वृत्तियों को छोड़कर बाहर कहीं भी सुख-शान्ति नहीं है। भ्रमवश भले ही हम बाह्य परिस्थितियों में सुख ढूँढ़ते फिरें। यह ठीक है कि कुछ कमीने और निकम्मे आदमी भी अनायास धनवान हो जाते हैं, पर असल में वे धनपति नहीं हैं। यथार्थ में तो दरिद्रों से अधिक दरिद्रता भोग रहे हैं, उनका धन बेकार है, अस्थिर है और बहुत अंशों में तो वह उनके लिए दुःखदायी भी है। दुर्गुणी धनवान कुछ नहीं, केवल एक भिक्षुक है। मरते समय तक जो धनी बना रहे कहते हैं कि वह बड़ा भाग्यवान था, लेकिन हमारा मत है कि वह अभागा है, क्योंकि अगले जन्म में अपने पापों का फल तो वह स्वयं भोगेगा, किन्तु धन को न तो भोग सका और न साथ ले जा सका। जिसके हृदय में सत्प्रवृत्तियों का निवास है, वही सबसे बड़ा धनवान है, चाहे बाहर से वह गरीबी का जीवन ही क्यों न व्यतीत करता हो। सद्गुणी का सुखी होना निश्चित है। समृद्धि उसके स्वागत के लिए दरवाजा खोले खड़ी हुई है। यदि आप स्थाई रहने वाली सम्पदा चाहते हैं तो धर्मात्मा बनिए। लालच में आकर अधिक पैसे जोड़ने के लिए दुष्कर्म करना यह तो कंगाली का मार्ग है। खबरदार रहो, कि कहीं लालच के वशीभूत होकर सोना कमाने तो चलो, पर बदले में मिट्टी ही हाथ लगकर न रह जाये।

एडीसन ने एक स्थान पर लिखा है कि देवता लोग जब मनुष्य जाति पर कोई बड़ी कृपा करते हैं तो तूफान और दुर्घटनाएँ उत्पन्न करते हैं, जिससे कि लोगों का छिपा हुआ पौरुष प्रकट हो और उन्हें अपने विकास का अवसर प्राप्त हो। कोई पत्थर तब तक सुन्दर मूर्ति के रूप में परिणत नहीं हो सकता, जब तक कि उसे छैनी-हथौड़े की हजारों छोटी-बड़ी चोटें न लगें। एडमण्डवर्क कहते हैं कि—"कठिनाई व्यायामशाला के उस उस्ताद का नाम है जो अपने शिष्यों को पहलवान बनाने के लिए उनसे खुद लड़ता है और उन्हें पटक-पटक कर ऐसा मजबूत बना देता है कि वे दूसरे पहलवान को गिरा सकें।" जान बानथन ईश्वर से प्रार्थना किया करते थे कि—"हे प्रभु ! मुझे अधिक कष्ट दे, ताकि में अधिक सुख भोग सकूँ।"

जो वृक्ष, पत्थरों और कठोर भू-भागों में उत्पन्न होते हैं और जीवित रहने के लिए सर्दी, गर्मी, आँधी आदि से निरन्तर युद्ध करते हैं, देखा गया है कि वे वृक्ष अधिक सुदृढ़ और दीर्घजीवी होते हैं। जिन्हें कठिन अवसरों का सामना नहीं करना पड़ता, उनसे जीवन भर कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं हो सकता। एक तत्त्वज्ञानी कहा करता था कि महापुरुष दुःखों के पालने में झूलते हैं और विपत्तियों का तकिया लगाते हैं। आपत्तियों की अग्नि हमारी हड्डियों को फौलाद जैसी मजबूत बनाती है। एक बार एक युवक ने एक अध्यापक से पूछा—'क्या मैं एक दिन प्रसिद्ध चित्रकार बन सकता हूँ?' अध्यापक ने कहा—'नहीं।' इस पर उस युवक ने आश्चर्य से पूछा—'क्यों ?' अध्यापक ने उत्तर दिया—'इसलिए कि तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति से एक हजार रुपया मासिक की आमदनी घर बैठे हो जाती है।' पैसे के चकाचौंध में मनुष्य को अपना कर्तव्य-पथ दिखाई नहीं पड़ता और वह रास्ता भूलकर कहीं से कहीं चला जाता है। कीमती औजार लोहे को बार-बार गरम करके बनाए जाते हैं। हथियार तब तेज होते हैं, जब उन्हें पत्थर पर खूब घिसा जाता है। खराद पर चढ़े बिना हीरे में चमक नहीं आती। चुम्बक पत्थर को यदि रगड़ा न जाय तो उसके अन्दर छिपी हुई अग्नि यों ही सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहेगी। परमात्मा ने मनुष्य जाति को बहुत-सी अमूल्य वस्तुएँ दी है, इनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण गरीबी, कठिनाई, आपत्ति और असुविधा हैं, क्योंकि इन्हीं के द्वारा मनुष्य को अपने सर्वोत्तम गुणों का विकास करने योग्य अवसर मिलता है। कदाचित परमेश्वर हर एक व्यक्ति के सब काम आसान कर देता तो निश्चय ही आलसी होकर हम लोग कब के मिट गए होते।

यदि आपने बेईमानी करके लाखों रुपये की सम्पत्ति जमा कर ली तो क्या बड़ा काम कर लिया ? दीन-दुखियों का रक्त चूसकर यदि अपना पेट बढ़ा लिया तो यह क्या बड़ी सफलता हुई ? आपके अमीर बनने से यदि दूसरे अनेक व्यक्ति गरीब बन रहे हों, आपके व्यापार से दूसरों के जीवन पतित हो रहे हों, अनेकों की सुख-शान्ति नष्ट हो रही हो तो ऐसी अमीरी पर लानत है। स्मरण रखिए—एक दिन आपसे पूछा जायगा कि धन को कैसे पाया और कैसे खर्च किया ? स्मरण रखिये आपको एक दिन न्याय-तुला पर तोला जायगा और उस समय अपनी भूल पर पश्चात्ताप होगा, तब देखोगे कि आप उसके विपरीत निकले, जैसा कि होना चाहिए था।

आप आश्चर्य करेंगे कि क्या बिना पैसा के भी कोई धनवान हो सकता है ? लेकिन सत्य समझिये इस संसार में ऐसे अनेक मनुष्य हैं, जिनकी जेब में एक पैसा नहीं है या जिनकी जेब ही नहीं है, फिर भी वे धनवान हैं और इतने बड़े धनवान कि उनकी समता कोई दूसरा नहीं कर सकता। जिसका शरीर स्वस्थ है, हृदय उदार है और मन पवित्र है यथार्थ में वही धनवान है। स्वस्थ शरीर चाँदी से अधिक कीमती है, उदार हृदय सोने से भी अधिक मूल्यवान है और पवित्र मन की कीमत रत्नों से अधिक है। लार्ड कालिंगउड कहते थे—'दूसरों को धन के ऊपर मरने दो, मैं तो बिना पैसे का अमीर हूँ, क्योंकि मैं जो कमाता हूँ, नेकी से कमाता हूँ।' सिसरो ने कहा है—'मेरे पास थोड़े से ईमानदारी के साथ कमाए हुए पैसे हैं परन्तु वे मुझे करोड़पतियों से अधिक आनन्द देते हैं।'

दधीचि, वशिष्ठ, व्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास, रामदास, कबीर आदि बिना पैसे के अमीर थे। वे जानते थे कि मनुष्य का सब आवश्यक भोजन मुख द्वारा ही अन्दर नहीं जाता और न आनन्द देने वाली वस्तुएँ पैसे से खरीदी जा सकती हैं। ईश्वर ने जीवन रूपी पुस्तक के प्रत्येक पृष्ठ पर अमूल्य रहस्यों को अंकित कर रखा है, यदि हम चाहें तो उनको पहचान कर जीवन को प्रकाशपूर्ण बना सकते हैं। एक विशाल हृदय और उच्च आत्मा वाला मनुष्य झोपड़ी में भी रत्नों की जगमगाहट पैदा करेगा। जो सदाचारी है और परोपकार में प्रवृत्त है, वह इस लोक में धनी है और परलोक में भी। भले ही उसके पास द्रव्य का अभाव हो। यदि आप विनयशील, प्रेमी, निस्वार्थ और पवित्र हैं तो विश्वास कीजिए कि आप अनन्त धन के स्वामी हैं।

जिसके पास पैसा नहीं, वह गरीब कहा जायगा, परन्तु जिसके पास केवल पैसा है, वह उससे भी अधिक कंगाल है। क्या आप सद्बुद्धि और सद्गुणों को धन नहीं मानते ? अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़े थे और गरीब थे, पर जब जनक की सभा में जाकर अपने गुणों का परिचय दिया तो राजा उनका शिष्य हो गया। द्रोणाचार्य जब धृतराष्ट्र के राज-दरबार में पहुँचे तो उनके शरीर पर कपड़े भी न थे, पर उनके गुणों ने उन्हें राजकुमारों के गुरु का सम्मानपूर्ण पद दिलाया। महात्मा ड्योजनीज के पास जाकर दिग्विजयी सिकन्दर ने निवेदन किया—महात्मन् ! आपके लिए क्या वस्तु उपस्थित करूँ ? उन्होंने उत्तर दिया—'मेरी धूप मत रोक और एक तरफ खड़ा हो जा। वह चीज मुझसे मत छीन, जो तू मुझे नहीं दे सकता।' इस पर सिकन्दर ने कहा—'यदि मैं सिकन्दर न होता ड्योजनीज ही होना पसन्द करता।'

गुरु गोविन्द सिंह, वीर हकीकतराय, छत्रपति शिवाजी, राणा प्रताप आदि ने धन के लिए अपना जीवन उत्सर्ग नहीं किया था। माननीय गोखले से एक बार एक सम्पन्न व्यक्ति ने पूछा—'आप इतने राजनीतिज्ञ होते हुए भी गरीबी का जीवन क्यों व्यतीत करते हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया—'मेरे लिए यही बहुत है। पैसा जोड़ने के लिए जीवन जैसी महत्त्वपूर्ण वस्तु का अधिक भाग नष्ट करने में मुझे कुछ भी बुद्धिमत्ता प्रतीत नहीं होती।'

तत्त्वज्ञों का कहना है कि—ऐ ऐश्वर्य की इच्छा करने वालो ! अपने तुच्छ स्वार्थों को सड़े और फटे-पुराने कुर्ते की तरह उतार कर फेंक दो, प्रेम और पवित्रता के नवीन परिधान ग्रहण कर लो। रोना, झींकना, घबराना और निराश होना छोड़ो, विपुल सम्पदा आपके अन्दर भरी हुई है। धनवान बनना चाहते हो तो उसकी कुंजी बाहर नहीं, भीतर तलाश करो। धन और कुछ नहीं, सद्गुणों का छोटा-सा प्रदर्शन मात्र है। लालच, क्रोध, घृणा, द्वेष, छल और इन्द्रिय लिप्सा को छोड़ दो। प्रेम, पवित्रता, सज्जनता, नम्रता, दयालुता, धैर्य और प्रसन्नता से अपने मन को भर लो। बस फिर दरिद्रता तुम्हारे द्वार से पलायन कर जायगी। निर्बलता और दीनता के दर्शन भी न होंगे। भीतर से एक ऐसी अगम्य और सर्व विजयी शक्ति का आविर्भाव होगा, जिसका विशाल वैभव दूर-दूर तक प्रकाशित हो जायगा।

ईमानदारी की कमाई ही स्थिर रहती है

जो मनुष्य धन के विषय में अध्यात्मवेत्ताओं के दृष्टिकोण को समझ लेता है, वह उसे कभी सर्वोपरि स्थान नहीं दे सकता। इसका अर्थ यह नहीं कि वह संसार को त्याग दे अथवा निर्धनता और दरिद्रता का जीवनयापन करने लगे। हमारे कथन का आशय इतना ही है कि धन के लिए नीति और न्याय के नियमों की अवहेलना कदापि मत करो और जहाँ धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य का प्रश्न उठे वहाँ हमेशा धर्म और सत्य का पक्ष ग्रहण करो, चाहे उससे धन का लाभ होता हो और चाहे हानि। धन कमाया जाय और उसका उचित उपभोग भी किया जाय, पर पूरी ईमानदारी के साथ ॥

धन नदी के समान है। नदी सदा समुद्र की ओर अर्थात् नीचे की ओर बहती है। इसी तरह धन को भी जहाँ आवश्यकता हो वहीं जाना चाहिए। परन्तु जैसे नदी की गति बदल सकती है, वैसे ही धन की गति में भी परिवर्तन हो सकता है। कितनी ही नदियाँ इधर-उधर बहने लगती हैं और उनके आस-पास बहुत सा पानी जमा हो जाने से जहरीली हवा पैदा होती है। इन्हीं नदियों में बाँध, बाँधकर जिघर आवश्यकता हो उधर उनका पानी ले जाने से वही पानी जमीन को उपजाऊ और आस-पास की वायु को उत्तम बनाता है। इसी तरह धन का मनमाना व्यवहार होने से बुराई बढ़ती है, गरीबी बढ़ती है। सारांश यह है कि वह धन विष तुल्य हो जाता है, पर यदि उसी धन की गति निश्चित कर दी जाय, उसका नियमपूर्वक व्यवहार किया जाय, तो बाँधी हुई नदी की तरह वह सुखप्रद बन जाता है।

अर्थशास्त्री धन की गति के नियंत्रण के नियम को एकदम भूल जाते हैं। उनका शास्त्र केवल धन प्राप्त करने का शास्त्र है, परन्तु धन तो अनेक प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है। एक जमाना ऐसा था जब यूरोप में धनिकों को विष देकर लोग उनके धन से स्वयं धनी बन जाते थे। आजकल गरीब लोगों के लिए जो खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं, उनमें व्यापारी लोग मिलावट कर देते हैं। जैसे दूध में सुहागा, आटे में आलू, कहवे में 'चीकरी', मक्खन में चरबी इत्यादि। यह भी विष दे कर धनवान होने के समान ही है। क्या इसे हम धनवान होने की कला या विज्ञान कह सकते हैं?

परन्तु यह समझ लेना चाहिए कि अर्थशास्त्री निरी लूट से ही धनी होने की बात कहते हैं। उनकी ओर से कहना ठीक होगा कि उनका शास्त्र कानून-संगत और न्याययुक्त उपायों से धनवान होने का है, पर इस जमाने में यह भी होता है कि अनेक बातें जायज होते हुए भी न्याय बुद्धि से विपरीत होती हैं। इसलिए न्यायपूर्वक धन अर्जन करना ही सच्चा रास्ता कहा जा सकता है और यदि न्याय से ही पैसा कमाने की बात ठीक हो तो न्याय-अन्याय का विवेक उत्पन्न करना मनुष्य का पहला काम होना चाहिए। केवल लेन-देन के व्यावसायिक नियम से काम लेना या व्यापार करना काफी नहीं है। यह तो मछलियाँ, भेड़ये और चूहे भी करते हैं। बड़ी मछली छोटी मछली को भी खा जाती है, चूहा छोटे जीव-जन्तुओं को खा जाता है और भेड़िया आदमी को खा डालता है। उनका यही नियम है, उन्हें दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, परन्तु मनुष्य को ईश्वर ने समझ दी है, न्याय-बुद्धि दी है। उसके द्वारा दूसरों को भक्षण कर उन्हें ठगकर उन्हें भिखारी बनाकर उसे धनवान न बनना चाहिए।

धन साधन मात्र है और उससे सुख तथा दुःख दोनों ही हो सकते हैं। यदि वह अच्छे मनुष्य के हाथ में पड़ता है तो उसकी बदौलत खेती होती है और अन्न पैदा होता है, किसान निर्दोष मजदूरी करके सन्तोष पाते हैं और राष्ट्र सुखी होता है। खराब मनुष्य के हाथ में धन पड़ने से उससे (मान लीजिए कि) गोले-बारूद बनते हैं और लोगों को सर्वनाश होता है। गोला-बारूद बनाने वाला राष्ट्र और जिस पर इनका प्रयोग होता है वे दोनों ही हानि उठाते और दुःख पाते हैं।

इस तरह हम देखते हैं कि सच्चा आदमी ही धन है। जिस राष्ट्र में नीति है वह धन सम्पन्न है। यह जमाना भोग-विलास का नहीं है। हर एक आदमी को जितनी मेहनत-मजदूरी हो सके उतनी करनी चाहिए।

सोना-चाँदी एकत्र हो जाने से कुछ राज्य मिल नहीं जाता। यह स्मरण रखना चाहिए कि पश्चिम में सुधार हुए अभी सौ ही वर्ष हुए हैं। बल्कि सच पूछिये तो कहा जाना चाहिए कि इतने ही दिनों में पश्चिम की जनता वर्णशंकर-सी होती दिखाई देने लगी है।

व्यापारी का काम भी जनता के लिए जरूरी है, पर हमने मान लिया है कि उसका उद्देश्य केवल अपना घर भरना है। कानून भी इसी दृष्टि से बनाए जाते हैं कि व्यापारी झपाटे के साथ धन बटोर सके। चाल भी ऐसी ही पड़ गई है कि ग्राहक कम से कम दाम दे और व्यापारी जहाँ तक हो सके अधिक माँगे और ले। लोगों ने खुद ही व्यापार में ऐसी आदत डाली और अब उसे उसकी बेईमानी के कारण नीची निगाह से देखते हैं। इस प्रथा को बदलने की आवश्यकता है। यह कोई नियम नहीं हो गया है कि व्यापारी को अपना स्वार्थ ही साधना—धन ही बटोरना चाहिए। इस तरह के व्यापार को हम व्यापार न कहकर चोरी कहेंगे। जिस तरह सिपाही राज्य के सुख के लिए जान देता है उसी तरह व्यापारी को जनता के सुख के लिए धन गँवा देना चाहिए, प्राण भी दे देना चाहिए। सिपाही का काम जनता की रक्षा करना है, धर्मोपदेशक का, उसको शिक्षा देना है। चिकित्सक का उसे स्वस्थ रखना है और व्यापारी का उसके लिए आवश्यक माल जुटाना है। इन सबका कर्तव्य समय पर अपने प्राण भी दे देना है।

धन का अपव्यय बन्द कीजिए

ईमानदारी और सत्य व्यवहार के उपदेश सुनते हुए भी बहु-संख्यक व्यक्ति इनका पालन नहीं कर सकते, इसका मुख्य कारण है हमारी अपव्यय की आदत। जिन लोगों को दूसरों की देखा-देखी अपनी सामर्थ्य से अधिक शान-शौकत दिखलाने, तरह-तरह के बेकार खर्च करने की आदत पड़ जाती है, वे इच्छा करने पर भी ईमानदारी पर स्थिर नहीं रह सकते। ऐसे लोगों की आर्थिक अवस्था किन कारणों से नहीं सुधर पाती उसका एक चित्र यहाँ दिया जाता है।

आप १००) रुपये मासिक कमाते हैं, पास-पड़ोस वाले आपको आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न समझते हैं, आपके हाथ में रुपये आते-जाते हैं, किन्तु आपको यह देखकर अत्यन्त दुःख होता है कि आपका वेतन महीने की बीस तारीख को ही समाप्त हो जाता है। अन्तिम दस दिन खींचतान, कर्ज, तंगी और कठिनाई से कटते हैं। आप बाजार से उधार लाते हैं, जीवन रक्षा के पदार्थ भी आप नहीं खरीद पाते। आपके नौकर, बच्चे, पत्नी आपसे पैसे माँगते है, बाजार वाले तगादे भेजते हैं, आप किसी प्रकार अपना मुँह छिपाये टालमटोल करते रहते हैं और बड़ी उत्सुकता से महीने की पहली तारीख की प्रतीक्षा करते हैं। वर्ष के बारहों महीने यह क्रम चलता है। कुछ बचत नहीं होती, वृद्धावस्था में दूसरों के आश्रित रहते हैं, बच्चों के विवाह तक नहीं कर पाते, पुत्रों को उच्च शिक्षा या अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ पूर्ण नहीं कर पाते, लेकिन क्यों?

कभी आपने सोचा है कि आपका वेतन क्यों २० तारीख को समाप्त हो जाता है ? आप असन्तुष्ट झुँझलाये से क्यों रहते है ?

अच्छा अपने घर के समीप वाली जो पान-सिगरेट की दुकान है, उसका बिल लीजिए। महीने में कितने रुपये आप पान-सिगरेट में व्यय करते हैं ? प्रतिदिन कम से कम ५-६ सिगरेट और दो-चार पान आप प्रयोग में लेते हैं। बढ़िया सिगरेट या बीड़ी-माचिस आपकी जेब में पड़ी रहती है। यदि चार-पाँच आने रोज भी आपने इसमें व्यय किए तो महीने के आठ-दस रुपये सिगरेट में फेंक गए। सिगरेट वाले का यह तो न्यूनतम व्यय है। बहुत से १५ से २० रुपये प्रतिमास तक खर्च कर डालते हैं।

चाट-पकौड़ी, चाय वाला, काफी हाउस, रेस्तरां, चुसकी, शरबत, सोडा, आइसक्रीम, लाइट रिफ्रेशमेंट वालों से पूछिए कि वे आपकी कमाई का कितना हिस्सा ले लेते हैं? यदि अकेले गए तो -५० पैसे या -७५ पैसे का अन्यथा एक रुपया-सवा रुपया का बिल मित्रों के साथ जाने पर बन जाता है। एक प्याली चाय (या प्रत्यक्ष विष) खरीद कर आप अपने पसीने की कमाई व्यर्थ गवाते हैं। चुस्की, शरबत, सोड़ा क्षण भर की चटोरी आदतों की तृप्ति करती है। इच्छा फिर भी अतृप्त रहती है। मिठाई से न ताकत आती है, न कोई स्थाई लाभ होता है, उलटे पेट में भारी विकार उत्पन्न होते हैं।

सिनेमा हाउस का टिकिट बेचने वाला और गेट कीपर आपको पहिचानता है। आपको देखकर वह मुस्करा उठता है। हँसकर दो बातें करता है। फिल्म अभिनेत्रियों की तारीफ के पुल बाँध देता है। आप यह फिल्म देखते हैं, साथ ही दूसरी का नमूना देखकर दूसरी को देखने का बीज मन में ले आते हैं। एक के पश्चात दूसरी फिर तीसरी फिल्म को देखने की धुन सवार रहती है और रुपया व्यय कर, आप सिनेमा से लाते हैं वासनाओं का ताण्डव, कुत्सित कल्पना के वासनामय चित्र, गन्दे गीत, रोमाण्टिक भावनाएँ, शरारत से भरी आदतें। साथ ही अपनी नेत्र ज्योति भी बरबाद करते हैं। गुप्त रूप से वासना पूर्ति के नाना उपाय सोचते, दिमागी ऐय्याशी करते और रोग ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

बीमारियों में आप मास में ८-१०रुपये व्यय करते हैं। किसी को बुखार है, तो किसी को खाँसी, जुकाम, सरदर्द या टॉन्सिल। पत्नी प्रदर या मासिक धर्म के रोगों से दुःखी है। आप स्वयं कब्ज या अन्य किसी गुप्त रोग के शिकार हैं, तब तो कहने की बात ही क्या है ? कभी इन्जेक्शन, तो कभी किसी को ताकत की दवाई चलती ही रहती है। कुछ बीमारियाँ ऐसी भी हैं जिन्हें आपने स्वयं पाल-पोस कर बड़ा किया है। आप दाँत साफ नहीं करते, फिर आये दिन नये दाँत लगवाते या उन्हीं का इलाज कराया करते हैं। दंत डाक्टर आपकी लापरवाही और आलस्य पर पलते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि आपके शहर में दवाइयों की इतनी दुकानें क्यों बढ़ती चली जा रही हैं ? हम ही अपना पैसा रोगों के शिकार होकर इन्हें देते हैं और पालते हैं।

विवाह, झूठा दिखावा, धनी पड़ोसी की प्रतियोगिता, सैर-सपाटा, यात्राएँ, उत्सवों, दान इत्यादि में आप प्रायः इतना व्यय कर डालते हैं कि साड़ी या किसी अन्य कीमती सामान की जिद की, तो आप अपनी जेब देखने के स्थान पर केवल उसे प्रसन्न करने मात्र के लिए तुरन्त कुछ भी शौक की चीज खरीद लेते हैं।

आप दिन में एक रुपया कमाते हैं, पर भोजन, वस्त्र या मकान अच्छे से अच्छा रखना चाहते हैं। फैशन में भी अन्तर नहीं करते, आराम और विलासिता की वस्तुएँ—क्रीम, पाउडर, शेविंग, सिनेमा, रेशमी कपड़ा, सूट-बूट, सुगन्धित तेल, सिगरेट भी कम करना नहीं चाहते। फिर बताइये कर्जदार क्यों कर न बनें ?

आपका धोबी महीने में १० रुपये आपसे कमा लेता है। आप दो दिन तक एक धुली हुई कमीज नहीं पहनते। पैण्ट की क्रीज, रंग एक दिन में खराब कर डालते हैं, हर सप्ताह हेयर कटिंग के लिए जाते हैं, प्रतिदिन जूते पर पालिश करते हैं, बिजली के पंखे और रेडियो के बिना आपका काम नहीं चलता। पैसे पास नहीं, फिर भी आप अखबार खरीदते हैं, मित्रों को घर पर बुलाकर कुछ न कुछ चटाया करते हैं। रिक्शा, इक्के, ट्राम, साइकिल की सवारी में आपके काफी रुपये नष्ट होते हैं।

ज्यों-ज्यों आपकी आवश्यकता बढ़ेगी, त्यों-त्यों आपको खर्च की तंगी का अनुभव होगा। आजकल कृत्रिम आवश्यकताएँ वृद्धि पर हैं। ऐश, आराम, दिखावट, मिथ्या गर्व प्रदर्शन, विलासिता, शोक, मेले, तमाशे, फैशन, मादक द्रव्यों पर फिजूलखर्ची खूब की जा रही है। ये सब क्षणिक आनन्द की वस्तुएँ हैं। कृत्रिम आवश्यकताएँ हमें गुलाम बनाती हैं। इन्हीं के कारण हम मँहगाई और तंगी अनुभव करते हैं। चूँकि कृत्रिम आवश्यकताओं में हम अधिकांश आमदनी व्यय कर देते हैं, हमें जीवन रक्षक और आवश्यक पदार्थ खरीदते हुए मँहगाई प्रतीत होती है। साधारण, सरल और स्वस्थ जीवन के लिए निपुणतादायक पदार्थ अपेक्षाकृत अब भी सस्ते हैं। जीवन रक्षा के पदार्थ—अन्न, वस्त्र, मकान इत्यादि साधारण दर्जे के भी हो सकते हैं। मजे में आप निर्वाह कर सकते हैं। अतः जैसे-जैसे जीवन रक्षक पदार्थों का मूल्य बढ़ता जावे, वैसे-वैसे आपको विलासिता और ऐशोआराम की वस्तुएँ त्यागते रहना चाहिए। आप केवल आवश्यक पदार्थों पर दृष्टि रखिए, वे चाहे जिस मूल्य पर मिलें खरीदिए किन्तु विलासिता और फिजूलखर्ची से बचिए। बनावटी, अस्वाभाविक रूप से दूसरों को भ्रम में डालने के लिए या आकर्षण में फँसाने के लिए जो मायाचार चल रहा है, उसे त्याग दीजिए। भड़कीली पोशाक के दंभ से मुक्ति पाकर आप सज्जन कहलायेंगे।

आप पूँछेंगे कि आवश्यकताओं, आराम की वस्तुओं और विलासिता की चीजों में क्या अन्तर है ? मनुष्य के लिए सबसे मूल्यवान उसका शरीर है। शरीर में उसका सम्पूर्ण कुटुम्ब भी सम्मिलित है। वह अपना और अपने परिवार का शरीर (स्वास्थ्य और अधिकतम सुख) बनाए रखने की फिक्र में है। उपभोग के आवश्यक पदार्थ वे हैं, जो शरीर और स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं। ये ही मनुष्य के लिए महत्त्व के हैं।

जीवन रक्षक पदार्थों के अन्तर्गत तीन चीजें प्रमुख हैं। (१) भोजन (२) वस्त्र (३) मकान। भोजन मिले, शरीर ढकने के लिए वस्त्र हों और सर्दी-गर्मी-बरसात से रक्षा के निमित्त मकान हो। यह वस्तुएँ ठीक हैं, तो जीवन रक्षा और निर्वाह चलता रहता है। जीवन की रक्षा के लिए ये वस्तुएँ अनिवार्य हैं।

यदि इन्हीं पदार्थों की किस्म अच्छी है तो शरीर रक्षा के साथ-साथ निपुणता भी प्राप्त होगी। कार्य शक्ति, स्फूर्ति बल और उत्साह में वृद्धि होगी, शरीर निरोग रहेगा और मनुष्य दीर्घ जीवी रहेगा। ये निपुणतादायक पदार्थ क्या है ? अच्छा पौष्टिक भोजन, जिसमें अन्न, फल, दूध, तरकारियाँ, घृत इत्यादि प्रचुर मात्रा में हों, टिकाऊ वस्त्र, जो सर्दी से रक्षा कर सकें, हवादार स्वस्थ वातावरण में खड़ा हुआ मकान जो शरीर को धूप, हवा, जल इत्यादि प्रदान कर सके।

यदि आपकी आमदनी इतनी है कि निपुणतादायक चीज (अच्छा अन्न, घी, दूध, फल, हवादार मकान, स्वच्छ वस्त्र, कुछ मनोरंजन) खरीद सकते हैं, तो आराम की चीजों को अवश्य लीजिए। इनसे आपकी कार्य कुशलता तो बढ़ेगी, पर उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात में आप खर्च करते हैं।

विलासिता में धन व्यय करना नाशकारी है

इनसे खर्च की अपेक्षा निपुणता और कार्य कुशलता कम प्राप्त होती है। कभी-कभी कार्य कुशलता का ह्रास तक हो जाता है। मनुष्य आलसी और विलासी बन जाता है, काम नहीं करना चाहता। रुपया बहुत खर्च होता है, लाभ न्यून मिलता है।

इस श्रेणी में ये वस्तुएँ हैं—आलीशान कोठियाँ, रेशम या जरी के बढ़िया कीमती भड़कीले वस्त्र, मिष्ठान्न, मेवे, चाट-पकौड़ी, शराब, चाय तरह-तरह के अचार-मुरब्बे, माँस भक्षण, फैशनेबिल चीजें, मोटर, तम्बाकू, पान, गहने, जन्मोत्सव और विवाह में अनाप-शनाप व्यय, रोज दिन में दो बार बदले जाने वाले कपड़े, साड़ियाँ, अत्यधिक सजावट, नौकर-चाकर, मनोरंजन के कीमती सामान, घोड़ा गाड़ी, बढ़िया फाउन्टेन पेन, सोने की घड़ियाँ, होटल रेस्टराँ में खाना, सिनेमा, सिगरेट, पान, वेश्यागमन, नाच-रंग, व्यभिचार, श्रृंगारिक पुस्तकें, कीमती सिनेमा की पत्र-पत्रिकायें, तसवीरें, अपनी हैसियत से अधिक दान, हवाखोरी, सफर, यात्रायें, बढ़िया रेडियो, भड़कीली पोशाक, क्रीम, पाउडर, इत्र आदि।

उपरोक्त वस्तुएँ जीवन रक्षा या कार्य कुशलता के लिए आवश्यक नहीं हैं किन्तु रुपये की अधिकता से आदत पड़ जाने से आदमी अनाप-शनाप व्यय करता है और इनकी भी जरूरत अनुभव करने लगता है। इन्हीं वस्तुओं पर सब से अधिक टैक्स लगते हैं, कीमत बढ़ती है। ये कृत्रिम आवश्यकताओं से पनपते हैं। इनसे सावधान रहिए।

हम देखते हैं कि लोग विवाह, शादी, त्यौहार, उत्सव, प्रीतिभोज आदि के अवसर पर दूसरे लोगों के सामने अपनी हैसियत प्रकट करने के लिए अन्धाधुन्ध व्यय करते हैं। भूखों मरने वाले लोग भी कर्ज लेकर अपना प्रदर्शन इस धूमधाम से करते हैं मानो कोई बड़े भारी अमीर हों। इस धूमधाम में उन्हें अपनी नाक उठती हुई और न करने में कटती हुई दिखाई पड़ती है।

भारत में गरीबी है, पर गरीबी से कहीं अधिक मूढ़ता, अन्ध-विश्वास, रूढ़िवादिता, मिथ्या प्रदर्शन, घमण्ड, धर्म का तोड़-मरोड़ दिखावा और अशिक्षा है। हमारे देशवासियों की औसत आय तीन-चार आने प्रतिदिन से अधिक नहीं। इसी में हमें भोजन, वस्त्र, मकान तथा विवाह-शादियों के लिए बचत करनी होती है। पैसे की कमी के कारण हमारे देशवासी मुश्किल से दूध, घी, फल इत्यादि खा सकते हैं। अधिक संख्या में तो वे स्वच्छ मकानों में भी नहीं रह पाते, अच्छे वस्त्र प्राप्त नहीं कर पाते, बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दिला पाते, बीमारी में उच्च प्रकार की चिकित्सा नहीं करा सकते, यात्रा, अध्ययन, मनोरंजन के साधनों से वंचित रह जाते हैं। फिर भी शोक का विषय है कि वे विवाह के अवसर पर सब कुछ भूल जाते हैं, मृतक भोज कर्ज लेकर करते हैं, मुकदमेबाजी में हजारों रुपया फूँक देते हैं। इस उपक्रम के लिए उन्हें वर्षों पेट काटकर एक-एक कौड़ी जोड़नी पड़ती है, कर्ज लेना पड़ता है, या और कोई अनीति मूलक पेशा करना पड़ता है।

आर्थिक सफलता की कुञ्जी—आत्म-विश्वास

अगर आपने धन के वास्तविक रूप को समझ लिया है और आप उसका दुरुपयोग करने से बच कर रहते हैं, तो कोई कारण नहीं कि उचित प्रयत्न करने पर आप आर्थिक सफलता प्राप्त न करें।

आप आर्थिक रूप से सफल होना चाहते हैं तो समृद्धि के विचारों को बहुतायत से मनोमन्दिर में प्रविष्ट होने दीजिए। यह मत समझिए कि आपका सरोकार दरिद्रता, क्षुद्रता, नीचता से है। संसार में यदि कोई चीज सबसे निकृष्ट है तो वह विचार दारिद्र्य ही है। जिस मनुष्य के विचारों में दरिद्रता प्रविष्ट हो जाती है, वह रुपया-पैसा होते हुए भी सदैव भाग्य का रोना रोया करता है। दरिद्रता के अनिष्टकारी विचार हमें समृद्धशाली होने से रोकते हैं, दरिद्री ही बनाए रखते हैं।

आप दरिद्री, गरीब या अनाथ हीन अवस्था में रहने के हेतु पृथ्वी पर नहीं जन्मे हैं। आप केवल मुट्ठी भर अनाज या वस्त्र के लिए दास वृत्ति करते रहने को उत्पन्न नहीं हुए हैं।

गरीब क्यों सदैव दीनावस्था में रहता है। इसका प्रधान कारण यह है कि वह उच्च आकांक्षा, उत्तम कल्पनाओं, स्वास्थ्यदायक स्फूर्तिमय विचारों को नष्ट कर देता है, आलस्य और अविवेक में डूब जाता है, हृदय को संकुचित, क्षुद्र प्रेम विहीन और निराश बना लेता है। सीमाक्रान्त दरिद्रता आने पर जीवन ठहर भी जाता है, प्रगति अवरुद्ध हो जाती है, मनुष्य ऋण से दबकर निष्प्रभ हो जाता है, उसे अपने गौरव, स्वाभिमान को भी सुरक्षित रखना दुष्कर प्रतीत होता है। दरिद्री विचार वाले असमय में ही वृद्ध होते देखे गए हैं। जो बच्चे दरिद्री घरों में जन्म लेते हैं, उनके गुप्त मन में दरिद्रता की गुप्त मानसिक ग्रन्थियाँ इतनी जटिल हो जाती हैं, कि वे जीवन में कुछ भी उच्चता या श्रेष्ठता प्राप्त नहीं कर सकते। दरिद्रता कमल के समान तरोताजा चेहरों को मुर्झा देती है। सर्वोत्कृष्ट इच्छाओं का नाश हो जाता है। यह दुस्सह मानसिक दरिद्रता मनुष्य को पीस देने वाली है। सैकड़ों मनुष्य इसी क्षुद्रता के गर्त में डूबे हुए हैं।

आर्थिक सफलता के लिए भी एक मानसिक परिस्थिति, योग्यता एवं प्रयत्नशीलता की आवश्यकता है। लक्ष्मी का आवाहन करने के हेतु भी मानसिक दृष्टि से आपको कुछ पूजा का सामान एकत्रित करना होता है।

दीपावली के लक्ष्मी पूजन के अवसर पर आप घर झाड़ते, लीपते, पोतते, सजाते हैं। नई-नई तस्वीरें कलात्मक वस्तुओं से घर को चित्रित करते हैं, अपने शरीर पर सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और आभूषण धारण करते हैं। इसी भाँति मानसिक पूजा भी किया कीजिए। अर्थात् मन के कोने-कोने से दरिद्रता, गरीबी, परवशता, मुद्रता, संकुचितता, ऋण के जाले विवेक की झाडू से साफ कर दीजिए, मानसिक पटल को आशावादिता की सफेदी से पोत लीजिए। मानसिक घर में आनन्द, आशा, उत्साह, प्रसन्नता, हास्य-उत्फुल्लता, खुशमिजाजी के मनोरम चित्र लगा लीजिए। फिर श्रम और मितव्ययता के नियमों के अनुसार लक्ष्मीदेवी की साधना कीजिए। आर्थिक सफलता आपकी होगी। सब विद्याओं में शिरोमणि वह विद्या है जो हमें पवित्रता और निकृष्ट विचारों से मन को साफ करना सिखाती है।

परमपिता परमात्मा की कभी यह इच्छा नहीं कि हम आर्थिक दृष्टि से भी दूसरों के गुलाम बने रहें। हमें उन्होंने विवेक दिया है, जिसे धारण कर हम उचित-अनुचित खर्चों का अन्तर समझ सकते हैं, विषय वासना और नशीली वस्तुओं से मुक्त हो सकते हैं, अपने अनुचित खर्च, विलासिता और फैशन में कमी कर सकते हैं, घर में होने वाले नाना प्रकार के अपव्यय को रोक सकते हैं। अपनी आय वृद्धि करना हमारे हाथ की बात है। जितना हम परिश्रम करेंगे, योग्यताओं को बढ़ायेंगे, अपनी विद्या में सर्वोत्कृष्टता, मान्यता, निपुणता प्राप्त करेंगे, उसी अनुपात में हमारी आय भी बढ़ती चली जावेगी। सबको अपनी-अपनी योग्यता और निपुणता के अनुसार धन प्राप्त होता है। फिर क्यों न हम अपनी योग्यता बढ़ायें और अपने आपको हर प्रकार से योग्य प्रमाणित करें।

श्री ओरसिन मार्डन ने अपनी पुस्तक 'शान्ति, शक्ति और समृद्धि' में कई आवश्यक तत्त्वों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए लिखा है—

"विश्व के अनेक दरिद्री लोगों के कारण को खोजो तो पता लगेगा कि उनमें आत्म विश्वास नहीं था, उन्हें यह विश्वास नहीं है कि वे दरिद्रता से छुटकारा पा सकते हैं। हम गरीबों को बताना चाहते हैं कि वे ऐसी कठोर स्थिति में भी अपने आप को उन्नत बना सकते हैं। सैकड़ों नहीं प्रत्युत हजारों ऐसी स्थिति में उन्नत-धनवान बने हैं और इसलिए हम कहते हैं कि इन गरीबों के लिए भी आशा है। वे दुर्धर्ष परिस्थिति को बदल सकते हैं। संसार में आत्म-विश्वास ही ऐसी कुञ्जी है कि जो सफलता का द्वार खोल सकती है।"

संसार में जितनी प्रकार की श्रेष्ठ शक्तियाँ हैं वे भगवान की प्रदान की हुई हैं। धन की शक्ति भी उन्हीं के द्वारा उत्पन्न की गई है और उन्होंने 'लक्ष्मी' के रूप में उसे संसार के कल्याणार्थ प्रेरित किया है। मनुष्य का कर्तव्य है कि इसे भगवान की पवित्र धरोहर समझकर ही व्यवहार करे। इतना ही नहीं उसे इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यह शक्ति ऐसे लोगों के पास न जा सके जो इसका दुरुपयोग करके दूसरों का अनिष्ट करने वाले हों।

हम सदा से धन की प्रशंसा और बुराई दोनों तरह की बातें सुनते आये हैं। सन्तजनों ने 'कामिनी और कंचन' को आत्मिक पतन का कारण माना है। दूसरी ओर सांसारिक कवि 'सर्वे गुणः कंचनमाश्रयन्ति' का सिद्धान्त सुनाया करते हैं। ये दोनों ही बातें सत्य हैं। अगर हम धन में आसक्त होकर उसी को 'सार-वस्तु' समझ लें और उसकी प्राप्ति के लिए पाप-पुण्य का ध्यान भी छोड़ दें अथवा उसका दुरुपयोग करें, तो निश्चय ही वह नर्क का मार्ग है। पर यदि उसे केवल सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन मान कर उचित कामों में उसका उपयोग करें तो वही कल्याणकारी बन सकता है। इसलिए आत्म-कल्याण के इच्छुकों को सदैव धन की वास्तविकता को ध्यान में रखते हए उसका सदुपयोग ही करना चाहिए।

धन का मुख्य कार्य क्या है?

पैसा मूल्यवान वित्तीय संपत्ति या भौतिक संपत्ति की बहुतायत है जिसे एक ऐसे रूप में परिवर्तित किया जा सकता है जिसे लेनदेन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। धन की आधुनिक अवधारणा का अर्थशास्त्र के सभी क्षेत्रों में महत्व है, ख़ासकर कि आर्थिक वृद्धि और विकास अर्थशास्त्र में, फिर भी धन का अर्थ संदर्भ-निर्भर है।

धन का क्या महत्व है?

धन के अभाव में व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है और यदि जीवित भी रहता है तो उसे बहुत से कष्टों का सामना करना पड़ता है। धन हमें सभी आवश्यक चीजों को खरीदने के योग्य बनाता है और पूरे जीवन भर हमारी मदद करता है। यदि हम जीवन में धन के महत्व को समझ जाए तो हमें कभी भी धन को बिना किसी उद्देश्य के व्यय या दुर्पोयोग नहीं करेंगे।

धन के कितने उपयोग है?

दान, भोग और नाश -ये तीन गतियां धन की होती हैं। जो न देता है और न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है... दान, भोग और नाश -ये तीन गतियां धन की होती हैं। जो न देता है और न भोगता है, उसके धन की तीसरी गति होती है।

धन का सर्वोत्तम सदुपयोग क्या है?

इसलिए हमें चाहिए कि हम कुछ धन अवश्य उस वक्त के लिए बचाकर रखें और उसे व्यर्थ में नष्ट न करें। जो मनुष्य धन का सदुपयोग करते हैं वे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें धनाभाव का कष्ट नहीं भोगना पड़ता। धन को सही तरीके से कमाने और इसका सदुपयोग करने वाला मनुष्य ही देश की उन्नति में सहयोग दे सकता है।