अभौतिक संस्कृति का विकास कैसे होता है? - abhautik sanskrti ka vikaas kaise hota hai?

संस्कृति जीवन की विधि है। जो भोजन आप खाते हैं, जो कपड़े आप पहनते हैं, जो भाषा आप बोलते हैं और जिस भगवान की आप पूजा करते हैं, ये सभी संस्कृति के पक्ष हैं। सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसमें हम सोचते हैं और कार्य करते हैं। इसमें वे चीजें भी सम्मिलित हैं जो हमने एक समाज के सदस्य के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त की हैं। एक सामाजिक वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियां संस्कृति कही जा सकती हैं।  कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के पक्ष हैं। तथापि संस्कृति में रीति रिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं।

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संस्कृति का अर्थ

संस्कृत भाषा में सम् उपसर्ग पूर्वक ‘कृ’ धातु में क्तिन प्रत्यय के योग से संस्कृति शब्द उत्पन्न होता है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से संस्कृति शब्द ‘परिष्कृत कार्य’ अथवा उत्तम स्थिति का बोध कराता है, किन्तु इस शब्द का भावार्थ अत्यन्त व्यापक है। अंग्रेजी में वस्तुतः संस्कृति के लिए (Culture) शब्द का प्रयोग किया जाता है। वस्तुतः संस्कृति शब्द मनुष्य की सहज प्रवृत्ति, नैसर्गिक शक्तियों और उनके परिष्कार का द्योतक है। किसी देश की संस्कृति अपने को विचार, धर्म, दर्शन काव्य संगीत, नृत्य कला आदि के रूप में अभिव्यक्त करती है। मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग करके इन क्षेत्रों में जो सृजन करता है। और अपने सामूहिक जीवन को हितकर तथा सुखी बनाने हेतु जिन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक प्रथाओं को विकसित करता है उन सब का समावेश ही हम ‘संस्कृति’ में पाते हैं। इससे स्पष्ट होता है संस्कृति की प्रक्रिया एक साथ ही आदर्श को वास्तविक तथा वास्तविक को आदर्श बनाने की प्रक्रिया है।

संस्कृति की परिभाषा

श्री गोपाल स्वरूप पाठक के अनुसार- ‘‘भौतिक साधन, विचारधाराएं, आदर्श तथा आस्थाएं, भावनाएं, शुद्ध मूल्य
एवं सामाजिक रीति-रिवाज, जो किसी भी समाज में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलते हैं, उन्हीं के सामूहिक रूप से संचयन को संस्कृति कहते हैं’’


एडवर्ड बनार्ट टायलर (1832-1917) के द्वारा सन् 1871 में प्रकाशित पुस्तक Primitive Culture में संस्कृति के संबंध में सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है। टायलर मुख्य रूप से संस्कृति की अपनी परिभाषा के लिए जाने जाते हैं, इनके अनुसार, “संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला आचार, कानून, प्रथा और अन्य सभी क्षमताओं तथा आदतो का समावेश होता है जिन्हें मनुष्य समाज के नाते प्राप्त कराता है।” 


रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार-‘‘संस्कृति एक ऐसा गुण है जो हमारे जीवन में छाया हुआ है। एक आत्मिक गुण है जो मनुष्य के स्वाभाव में उसी तरह व्याप्त है, जिस प्रकार फूलों में सुगन्ध और दूध में मक्खन। इसका निमार्ण एक अथवा दो दिन में नहीं होता, युग-युगान्तर में होता है।’’


टायलर ने संस्कृति का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया है। इनके अनुसार सामाजिक प्राणी होने के नाते व्यक्ति अपने पास जो कुछ भी रखता है तथा सीखता है वह सब संस्कृति है। इस परिभाषा में सिर्फ अभौतिक तत्वों को ही सम्मिलित किया गया है।

राबर्ट बीरस्टीड (The Social Order) द्वारा संस्कृति की दी गयी परिभाषा है कि “संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है, जिसमें वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं, जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं।” इस परिभाषा में संस्कृति दोनों पक्षों भौतिक एवं अभौतिक को सम्मिलित किया गया है। हर्शकोविट्स(Man and His Work) के शब्दों में “संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है”

बोगार्डस के अनुसार, “किसी समूह के कार्य करने और विचार करने के सभी तरीकों का नाम संस्कृति है।” इस पर आप ध्यान दें कि, बोगार्डस ने भी बीयरस्टीड की तरह ही अपनी भौतिक एवं अभौतिक दोनों पक्षों पर बल दिया है।

मैलिनोस्की-”संस्कृति मनुष्य की कृति है तथा एक साधन है, जिसके द्वारा वह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करता है।” आपका कहना है कि “संस्कृति जीवन व्यतीत करने की एक संपूर्ण विधि है जो व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।”

संस्कृति के प्रकार 

समाजशास्त्रीयों के अनुसार संस्कृति के प्रकार के आधार पर दो भागों में बांटा गया है:-


1. भौतिक संस्कृति:- इसमें भौतिक तथा पार्थिव वस्तुऐं आती है जो कि मनुष्य के व्यवहार अर्थात् दैनिक क्रिया कलापों में आती है। जैसे- रहने के लिये मकान, घरों का सामान, विभिन्न आवागमन के अर्थात् उपकरण औजार, हथियार, बर्तन तथा वे सभी भौतिक वस्तुएं जिनका उपयोग हम दैनिक दिनचर्या में करते है तथा उन्ही के आधार पर हम अपना जीवन आसानी से तथा सुगमता से चलाते है।


2. अभौतिक संस्कृति:- इसके अंतर्गत अदृश्य वस्तुएं शामिल होती है जैसे- समाज के विभिन्न रीति-रिवाज, रूढि़याॅ, विधियां कलाएं, ज्ञान और धर्म आदि आते है। जिनको केवल हम एक-दूसरे के द्वारा सीखते है, समझते है और जानने का प्रयास करते है तथा उसको समझने के बाद अपने जीवन में उतारते है तथा उसी प्रकार से व्यवहार करते है जैसे हमें करना चाहिये और अपने इसी व्यवहार को हम पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते रहते है।

संस्कृति के तत्व

संस्कृति का निर्माण किन तत्वों से हुआ है, इस विषय में विद्वानों के अलग-अलग मत तथा विचार हैं, जो दृष्टव्य है -

अलेक्जेण्डर एवं गोल्डन वाइजर के अनुसार - ‘‘संस्कृति के तत्व हैं - हमारी प्रवृत्तियाँ, विश्वास और विचार, हमारे निर्णय और मूल्य, हमारी संस्थायें-राजनैतिक और कानूनी, धार्मिक और आर्थिक, हमारी नैतिक संहितायें तथा शिष्टाचार के नियम, हमारी पुस्तकें और मशीनें, हमारे विज्ञान, दर्श और दार्शनिक- ये सब और दूसरी बहुत-सी चीजें तथा प्राणी स्वयं भी अपने और विविध सम्बन्धों में भी।’’


बोगार्डस के अनुसार - ‘‘संस्कृति एक समूह के समस्त रीति-रिवाजों, परम्पराओं और चालू व्यवहार प्रतिमानों से बनती है। संस्कृति एक समूह का मूलधन है। वह मूल्यों की एक ऐसी पूर्ववर्ती समष्टि है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति पैदा होता है। वह एक माध्यम है जिसमें व्यक्ति पैदा और विकसित होता है।’’


जे.एल. गिलिन तथा जे.पी. ने एक सामाजिक समूह के सीखे हुए व्यवहार को संस्कृति कहा है। इस प्रकार संस्कृति के अन्तर्गत वह सब कुछ सम्मिलित है जो कुछ मनुष्य समाज में सीखता है, जैसे-ज्ञान-धार्मिक, विश्वास, कला, कानून, नैतिकता, रीति-रिवाज, व्यवहार के तौर-तरीके, साहित्य, संगीत तथा भाषा आदि। सहज व्यवहार जैसे साँस लेना इत्यादि संस्कृति के अन्तर्गत नहीं आते है।


ए.डब्ल्यू. ग्रीन के अनुसार - ‘‘संस्कृति, ज्ञान, व्यवहार, विश्वास की इन आदर्श पद्धतियों को तथा ज्ञान और व्यवहार से उत्पन्न हुए साधनों की व्यवस्था को कहते हैं, जो सामाजिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती है।’

संस्कृति की विशेषताएँ 

संस्कृति के सम्बन्ध में विभिन्न समाजशास्त्रियों के विचारों को जानने के बाद उसकी कुछ विशेषताएँ स्पष्ट होती है, जो उसकी प्रकृति को जानने और समझने में भी सहायक होती है। यहाँ कुछ प्रमुख विशेषताओं का विवेचन किया जा रहा है-


1. संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है - संस्कृति एक सीखा हुआ व्यवहार है। इसे व्यक्ति अपने पूर्वजों के वंशानुक्रम के माध्यम से नहीं प्राप्त करता, बल्कि समाज में समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है। यह सीखना जीवन पर्यन्त अर्थात् जन्म से मृत्यु तक अनवरत चलता रहता है। आपको जानना आवश्यक है कि संस्कृति सीख हुआ व्यवहार है, किन्तु सभी सीखे हुए व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता है। 


पशुओं द्वारा सीखे गये व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पशु जो कुछ भी सीखते हैं उसे किसी अन्य पशु को नहीं सीखा सकते। 


संस्कृति के अंतर्गत वे आदतें और व्यवहार के तरीके आते है, जिन्हें सामान्य रूप से समाज के सभी सदस्यों द्वारा सीखा जाता है। इस सन्दर्भ में लुन्डबर्ग (Lundbarg) ने कहा है कि,”संस्कृति व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्तियों अथवा प्राणीशास्त्रीय विरासत से सम्बन्धित नहीं होती, वरन् यह सामाजिक सीख एवं अनुभवों पर आधरित रहती है।”


2. संस्कृति सामाजिक होती है - संस्कृति में सामाजिकता का गुण पाया जाता है। संस्कृति के अन्तर्गत पूरे समाज एवं सामाजिक सम्बन्धों का प्रतिनिधित्व होता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि किसी एक या दो-चार व्यक्तियों द्वारा सीखे गये व्यवहार को संस्कृति नहीं कहा जा सकता। कोई भी व्यवहार जब तक समाज के अधिकतर व्यक्तियों द्वारा नहीं सीखा जाता है तब तक वह संस्कृति नहीं कहलाया जा सकता। संस्कृति एक समाज की संपूर्ण जीवन विधि (Way of Life) का प्रतिनिधित्व करती है। 


यही कारण है कि समाज का प्रत्येक सदस्य संस्कृति को अपनाता है। संस्कृति सामाजिक इस अर्थ में भी है कि यह किसी व्यक्ति विशेष या दो या चार व्यक्तियों की सम्पत्ति नहीं है। यह समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए होता है। अत: इसका विस्तार व्यापक और सामाजिक होता है।


3. संस्कृति हस्तान्तरित होती है - संस्कृति के इसी गुण के कारण ही संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाती है तो उसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी के अनुभव एवं सूझ जुड़ते जाते हैं। इससे संस्कृति में थोड़ा-बहुत परिवर्तन एवं परिमार्जन होता रहता है। संस्कृति के इसी गुण के कारण मानव अपने पिछले ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर आगे नई-नई चीजों का अविष्कार करता है। आपको यह समझना होगा कि- पशुओं में भी कुछ-कुछ सीखने की क्षमता होती है। 


लेकिन वे अपने सीखे हुए को अपने बच्चों और दूसरे पशुओं को नहीं सिखा पाते। यही कारण है कि बहुत-कुछ सीखने की क्षमता रहने के बाद भी उनमें संस्कृति का विकास नहीं हुआ है। मानव भाषा एवं प्रतीकों के माध्यम से बहुत ही आसानी से अपनी संस्कृति का विकास एवं विस्तार करता है तथा एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में हस्तान्तरित भी करता है। इससे संस्कृति की निरन्तरता भी बनी रहती है।


4. संस्कृति मनुष्य द्वारा निर्मित है - संस्कृति का तात्पर्य उन सभी तत्वों से होता है, जिनका निर्माण स्वंय मनुष्य ने किया है। उदाहरण के तौर पर हमारा धर्म, विश्वास, ज्ञान, आचार, व्यवहार के तरीके एवं तरह-तरह के आवश्यकताओं के साधन अर्थात् कुर्सी, टेबल आदि का निर्माण मनुष्य द्वारा किया गया है। इस तरह यह सभी संस्कृति हर्शकाविट्स का कहना है कि “संस्कृति पर्यावरण का मानव-निर्मित भाग है।”


5. संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है - संस्कृति में मानव आवश्यकता-पूर्ति करने का गुण होता है। संस्कृति की छोटी-से-छोटी इकाई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य की आवश्यकता पूर्ति करती है या पूर्ति करने में मदद करती है। कभी-कभी संस्कृति की कोई इकाई बाहरी तौर पर निरर्थक या अप्रकार्य प्रतीत होती है, लेकिन सम्पूर्ण ढाँचे से उसका महत्वपूर्ण स्थान होता है। 


6. प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है - प्रत्येक समाज की एक विशिष्ट संस्कृति होती है। हम जानते हैं कि कोई भी समाज एक विशिष्ट भौगोलिक एवं प्राकृतिक वातावरण लिये होता है। इसी के अनुरूप सामाजिक वातावरण एवं संस्कृति का निर्माण होता है। उदाहरण के तौर पर पहाड़ों पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का भौगोलिक पर्यावरण, मैदानी लोगों के भौगोलिक पर्यावरण से अलग होता है। 


इसी प्रकार, इन दोनों स्थानों में रहने वाले लोगों की आवश्यकताएं अलग-अलग होती है। जैसे-खाना, रहने-सहने का तरीका, नृत्य, गायन, धर्म आदि। अत: दोनों की संस्कृति भौगोलिक पर्यावरण के सापेक्ष में आवश्यकता के अनुरूप विकसित होती है।


7. संस्कृति में अनुकूलन का गुण होता है - संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता होती है कि यह समय के साथ-साथ आवश्यकताओं के अनुरूप अनुकूलित हो जाती है। संस्कृति समाज के वातावरण एवं परिस्थिति के अनुसार होती है। जब वातावरण एवं परिस्थिति में परिवर्तन होता है तो संस्कृति भी उसके अनुसार अपने का ढालती है। यदि यह विशेषता एवं गुण न रहे तो संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं रह जायेगा। संस्कृति में समय एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होने से उसकी उपयोगिता समाप्त नहीं हो पाती।


8. संस्कृति अधि-सावयवी है -  मानव ने अपनी मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं के प्रयोग द्वारा संस्कृति का निर्माण किया, जो सावयव से ऊपर है। संस्कृति में रहकर व्यक्ति का विकास होता है और फिर मानव संस्कृति का निर्माण करता है जो मानव से ऊपर हो जाता है। मानव की समस्त क्षमताओं का आधार सावयवी होता है, किन्तु इस संस्कृति को अधि-सावयवी से ऊपर हो जाती है। इसी अर्थ में संस्कृति को अधि-सावयवी कहा गया है।


9. संस्कृति अधि-वैयक्तिक है - संस्कृति की रचना और निरन्तरता दोनों ही किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है। इसलिए यह अधि-वैयक्तिक(Super-individual) है। संस्कृति का निर्माण किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा नहीं किया गया है बल्कि संस्कृति का निर्माण सम्पूर्ण समूह द्वारा होता है। प्रत्येक सांस्कृतिक इकाई का अपना एक इतिहास होता है, जो किसी एक व्यक्ति से परे होता है। संस्कृति सामाजिक अविष्कार का फल है, किन्तु यह अविष्कार किसी एक व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं है।


10. संस्कृति में संतुलन तथा संगठन होता है - संस्कृति के अन्तर्गत अनेक तत्व एवं खण्ड होते हैं किन्तु ये आपस में पृथक नहीं होते, बल्कि इनमें अन्त: सम्बन्ध तथा अन्त: निर्भरता पायी जाती है। संस्कृति की प्रत्येक इकाई एक-दूसरे से अनग हटकर कार्य नहीं करती, बल्कि सब सम्मिलित रूप से कार्य करती है। इस प्रकार के संतुलन एवं संगठन से सांस्कृतिक ढ़ाँचे का निर्माण होता है।


11. संस्कृति समूह का आदर्श होती है - प्रत्येक समूह की संस्कृति उस समूह के लिए आदर्श होती है। इस तरह की धारण सभी समाज में पायी जाती है। सभी लोग अपनी ही संस्कृति को आदर्श समझते हैं तथा अन्य संस्कृति की तुलना में अपनी संस्कृति को उच्च मानते हैं। संस्कृति इसलिए भी आदर्श होती है कि इसका व्यवहार-प्रतिमान किसी व्यक्ति-विशेष का न होकर सारे समूह का व्यवहार होता है।

सभ्यता और संस्कृति में अन्तर

सभ्यता और संस्कृति शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में प्राय: लोग करते हैं, किन्तु सभ्यता और संस्कृति में अन्तर है। सभ्यता साधन है जबकि संस्कृति साध्य। सभ्यता और संस्कृति में कुछ सामान्य बातें भी पाई जाती हैं। सभ्यता और संस्कृति में सम्बन्ध पाया जाता है। मैकाइवर एवं पेज ने सभ्यता और संस्कृति में अन्तर किया है। इनके द्वारा दिये गये अन्तर इस प्रकार हैं-

1. सभ्यता की माप सम्भव है, लेकिन संस्कृति की नहीं- सभ्यता को मापा जा सकता है। चूँकि इसका सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की उपयोगिता से होता है। इसलिए उपयोगिता के आधार पर इसे अच्छा-बुरा, ऊँचा-नीचा, उपयोगी-अनुपयोगी बताया जा सकता है। संस्कृति के साथ ऐसी बात नहीं है। संस्कृति की माप सम्भव नहीं है। इसे तुलनात्मक रूप से अच्छा-बुरा, ऊँचा-नीचा, उपयोगी-अनुपयोगी नहीं बताया जा सकता है। हर समूह के लोग अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ बताते हैं। हर संस्कृति समाज के काल एवं परिस्थितियों की उपज होती है। इसलिए इसके मूल्यांकन का प्रश्न नहीं उठता। उदाहरण स्वरूप हम नई प्रविधियों को देखें। 


आज जो वर्तमान है और वह पुरानी चीजों से उत्तम है तथा आने वाले समय में उससे भी उन्नत प्रविधि हमारे सामने मौजूद होगी। इस प्रकार की तुलना हम संस्कृति के साथ नहीं कर सकते। दो स्थानों और दो युगों की संस्कृति को एक-दूसरे से श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता।

2. सभ्यता सदैव आगे बढ़ती है, लेकिन संस्कृति नहीं- सभ्यता में निरन्तर प्रगति होती रहती है। यह कभी भी पीछे की ओर नहीं जाती। मैकाइवर ने बताया कि सभ्यता सिर्फ आगे की ओर नहीं बढ़ती बल्कि इसकी प्रगति एक ही दिशा में होती है। आज हर समय नयी-नयी खोज एवं आविष्कार होते रहते हैं जिसके कारण हमें पुरानी चीजों की तुलना में उन्नत चीजें उपलब्ध होती रहती हैं। फलस्वरूप सभ्यता में प्रगति होती रहती है।


3. सभ्यता बिना प्रयास के आगे बढ़ती है, संस्कृति नहीं- सभ्यता के विकास एवं प्रगति के लिए विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती, यह बहुत ही सरलता एवं सजगता से आगे बढ़ती जाती है। जब किसी भी नई वस्तु का आविष्कार होता है तब उस वस्तु का प्रयोग सभी लोग करते हैं। यह जरूरी नहीं है कि हम उसके सम्बन्ध में पूरी जानकारी रखें या उसके आविष्कार में पूरा योगदान दें। अर्थात् इसके बिना भी इनका उपभोग किया जा सकता है। 


भौतिक वस्तुओं का उपयोग बिना मनोवृत्ति, रुचियों और विचारों में परिवर्तन के किया जाता है, किन्तु संस्कृति के साथ ऐसी बात नहीं है। संस्कृति के प्रसार के लिए मानसिकता में भी परिवर्तन की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करना चाहता है, तो उसके लिए उसे मानसिक रूप से तैयार होना पड़ता है, लेकिन किसी वस्तु के उपयोग के लिए विशेष सोचने की आवश्यकता नहीं होती।


4. सभ्यता बिना किसी परिवर्तन या हानि के ग्रहण की जा सकती है, किन्तु संस्कृति को नहीं- सभ्यता के तत्वों या वस्तुओं को ज्यों-का-त्यों अपनाया जा सकता है। उसमें किसी तरह की परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस एक वस्तु का जब आविष्कार होता है, तो उसे विभिन्न स्थानों के लोग ग्रहण करते हैं। भौतिक वस्तु में बिना किसी परिवर्तन लाये ही एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, तब ट्रैक्टर का आविष्कार हुआ तो हर गाँव में उसे ले जाया गया। इसके लिए उसमें किसी तरह के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं पड़ी। किन्तु संस्कृति के साथ ऐसी बात नहीं है। 


संस्कृति के तत्वों को जब एक स्थान से दूसरे स्थान में ग्रहण किया जाता है तो उसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन हो जाता है। उसके कुछ गुण गौण हो जाते हैं, तो कुछ गुण जुड़ जाते हैं। यही कारण है कि धर्म परिवर्तन करने के बाद भी लोग उपने पुराने विश्वासों, विचारों एवं मनोवृत्तियों में बिल्कुल परिवर्तन नहीं ला पाते। पहले वाले धर्म का कुछ-न-कुछ प्रभाव रह जाता है।

अभौतिक संस्कृति से आप क्या समझते हैं?

अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत उन सभी अभौतिक एवं अमूर्त वस्तुओं का समावेश होता है, जिनके कोई माप-तौल, आकार एवं रंग आदि नहीं होते। अभौतिक संस्कृति समाजीकरण एवं सीखने की प्रक्रिया द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है।

अभौतिक संस्कृति का उदाहरण क्या है?

सामान्यतः अभौतिक संस्कृति में हम सामाजिक विरासत में प्राप्त विचार, विश्वास, मानदण्ड, व्यवहार प्रथा, रीति-रिवाज-कानून, मनौवृत्तियाँ, साहित्य, ज्ञान, कला, भाषा, नैतिकता, आदि को सम्मिलित करते है।

संस्कृति का विकास कैसे होता है?

संस्कृति का भी इसी प्रकार धीरे-धीरे निर्माण होता है और उनके निर्माण में हजारों वर्ष लगते हैं। मनुष्य विभिन्न स्थानों पर रहते हुए विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म, दर्शन, लिपि, भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते हैं।

भौतिक संस्कृति की विशेषता क्या है?

भौतिक संस्कृति की विशेषताएं : भौतिक संस्कृति मूर्त होती है। भौतिक संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित होने के कारण एक साधन है। भौतिक संस्कृति आविष्कारों से सम्बन्धित है। भौतिक संस्कृति का प्रसार तीव्रता से होता है तथा इसे ग्रहण करने हेतु बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती।