भारत में कृषि वित्त के प्रमुख स्रोतों की व्याख्या कीजिए - bhaarat mein krshi vitt ke pramukh sroton kee vyaakhya keejie

**कृषि वित्त का महत्व तथा आवश्यकता

कृषि वित्त का महत्व तथा कृषि वित्त की आवश्यकता

भारत में कृषि वित्त के प्रमुख स्रोतों की व्याख्या कीजिए - bhaarat mein krshi vitt ke pramukh sroton kee vyaakhya keejie



विभिन्न कृषि संसाधनों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए किसानों को पूंजी की आवश्यकता होती है। भारतीय कृषि, सामान्य रूप से, कम और अनिश्चित रिटर्न की विशेषता है। 

कम रिटर्न → कम बचत → कम निवेश → कम रिटर्न के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए, किसानों को बाहरी वित्त का प्रावधान अपरिहार्य हो जाता है।

कृषि वित्त का महत्व  / Importance of Agricultural Finance in Hindi 

कृषि विकास के लिए ऋण आवश्यक है और अर्थव्यवस्था के विकास के लिए भी। निम्नलिखित कारणों से कृषि वित्त की आवश्यकता है:

i) भारत में व्यापक कृषि का दायरा सीमित है। इसलिए, कृषि उत्पादन में वृद्धि खेती की गहनता और विविधता से ही संभव है। गहन कृषि के लिए विशाल व्यक्ति चाहिए।

ii) परिचालन होल्डिंग और परिचालन क्षेत्र के वितरण में अत्यधिक असमानताएं मौजूद हैं। 2 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले कुल परिवारों का 74.5 प्रतिशत कुल संचालित क्षेत्र का केवल 26.2 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि कुल कृषि परिवारों का केवल 2.4 प्रतिशत, जो 10 हेक्टेयर से अधिक का मालिक है, प्रत्येक कुल 23 प्रतिशत का संचालन करते हैं। 1980-81 में संचालित क्षेत्र (भारत में, 88.883 मिलियन फार्म हाउस थे, जो 1980-81 में 163.797 मिलियन हेक्टेयर संचालित थे)। इन छोटे और सीमांत किसानों की क्रय शक्ति उनकी निर्वाह खेती तक सीमित है। इसलिए, उन्हें महंगे (आधुनिक) इनपुट का उपयोग करने के लिए बाहरी वित्तीय सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है।

iii) किसानों की आर्थिक स्थिति अक्सर बाढ़, सूखा, अकाल आदि के कारण होती है, इसलिए या तो फसलों की खेती जारी रहती है या खेतों पर सुधार करना वित्त की प्रकृति और उपलब्धता पर निर्भर करता है।

iv) हाल के वर्षों में, अधिक क्षेत्र को सिंचाई के तहत लाया जाता है जो बदले में उर्वरकों और पौधों के संरक्षण रसायनों जैसे इनपुट का उपयोग बढ़ाएगा। इसे पूरा करने के लिए, बाहरी वित्त की आवश्यकता है।

v) कृषि आधारित उद्योगों के विकास को बनाए रखने के लिए, ऐसे उद्योगों के लिए आवश्यक कच्चे माल की आपूर्ति में पर्याप्त वृद्धि होनी चाहिए। इसलिए, कृषि क्षेत्र के विकास के लिए, ऋण का निरंतर प्रवाह आवश्यक है और यह अर्थव्यवस्था के सभी विकास को बढ़ाएगा।

vi) कृषि में, निश्चित पूंजी को भूमि, कुएं, भवन आदि जैसे स्थायी निवेशों में बंद कर दिया जाता है, इसके अलावा, खेत से प्रतिफल प्राप्त करने में लंबा समय लगता है। इसलिए, किसानों को अपने कृषि कार्यों को जारी रखने के लिए वित्त की आवश्यकता है।

vii) उत्पादक समुदाय के कमजोर वर्गों को उत्पादक परिसंपत्तियों के अधिग्रहण के लिए वित्तीय सहायता देकर विकास कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

viii) लघु और सीमांत किसान गरीबी के दुष्चक्र में फंस गए हैं, यानी कम रिटर्न → कम बचत → कम निवेश → कम रिटर्न। इस चक्र को तोड़ने के लिए, कृषि क्षेत्र में ऋण को इंजेक्ट किया जाना चाहिए।

read also- भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्व 

  • Tweet
  • Share
  • Share
  • Share
  • Share

भारत में कृषि वित्त के प्रमुख स्रोतों की व्याख्या कीजिए - bhaarat mein krshi vitt ke pramukh sroton kee vyaakhya keejie
कृषि वित्त (Agricultural Finance) का अर्थ एंव स्रोत

भारत में कृषि वित्त के प्रमुख स्रोतों का मूल्यांकन कीजिए। क्या यह किसान की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं?

  • कृषि वित्त (Agricultural Finance) का अर्थ
  • भारत में कृषि वित्त के स्रोत
  • 1. निजी स्रोत
  • 2. संस्थागत स्रोत
  • पंचवर्षीय योजनाएँ एवं कृषि वित्त

कृषि वित्त (Agricultural Finance) का अर्थ

कृषि वित्त एक व्यापक शब्द है। जिसमें गांवों के ऋणदाता, बैंकिंग संस्थाएँ आदि संलग्न हैं, जो कृषकों को ऋण प्रदान करती हैं। वर्तमान समय में कृषि वित्त परिमार्जित हो चुका है, जो निम्नलिखित है-

“कृषि वित्त से तात्पर्य उस प्रकार के साख से है, जिसकी आवश्यकता खेती के कार्य में निहित होती है।”

भारत में कृषि वित्त के स्रोत

भारतीय कृषि में दो प्रकार के वित्तीय स्रोत उपलब्ध हैं-

1. निजी स्रोत

(अ) महाजन या साहूकार (Money Lenders) – प्राचीन काल में ग्रामीण वित्तीय स्रोतों में महाजन या साहूकार प्रसिद्ध जो किसानों की सभी आवश्यकताओं के लिए ऋण प्रदान करते थे। भारत में संस्थागत वित्तीय स्रोत विकसित होने पर भी महाजन या साहूकार ग्रामीण वित्त व्यवस्था में आज भी सर्वाधिक प्रचलित हैं। आर्थिक शब्दों में महाजन या साहूकार वे लोग हैं जो अपने ग्राहकों को समय पर ऋण प्रदान करते हैं। अखिल भारतीय साख सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार महाजन या साहूकार दो प्रकार के होते हैं-

(1) कृषक महाजन (2) पेशेवर महाजन । कृषक महाजन कृषि श्रमिकों की सहायता से खेती का कार्य करते हैं और रूपये का लेन-देन करे हैं जबकि पेशेवर महाजन केवल कृषकों को ऋण प्रदान करते हैं।

कार्य प्रणाली (Working System)- महाजनों या साहूकार द्वारा ऋण देने में अनेक महत्वपूर्ण कार्य बिन्दु हैं, यथा-

1. साहूकार/ महाजन आवश्यकता के समय कृषक को तुरन्त ऋण प्रदान करते हैं. 2. ऋण प्रदान करने की प्रक्रिया में जमानत और दोनों विधियों का प्रयोग होता है, 3. साहूकार या महाजनों के ऋण उत्पादक व अनुत्पादक कार्यों के लिए दिये जाते हैं, 4. समयावधि के अनुसार अल्पकालीन, मध्यकालीन तीनों प्रकार के ऋण प्राप्त किये जाते हैं, 5. साहूकार या महाजनों के ऋण प्राप्त करने में किसानों को सरलता रहती है। किसानों के लिए महाजन अथवा साहूकारों की लोकप्रियता अत्यधिक है, क्योंकि कृषकों की वित्तीय पीड़ा के समय उन्हें यथोचित ऋण प्राप्त हो जाता है। इनकी लोकप्रियता का एक महत्वपूर्ण कारण भी है कि उन्हें अल्पकालीन ऋण मौखिक प्रतिज्ञाओं के आधार पर बिना जमानत के मिल जाते हैं, जबकि दीर्घकालीन ऋणों के लिए, आभूषण, भूमि, मकान आदि की प्रतिभूतियां पर्याप्त हैं।

(ब) भूस्वामी, व्यापारी व दलाल या रिश्तेदार (Land Lord, Broker, Tradesman’s)- देशी बैंकर्स में जहाँ महाजन व साहूकार प्रचलित हैं, वहीं ग्रामीण वित्त के लिए भूस्वामी, व्यापारी, दलाल व रिश्तेदार भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं, जो कृषकों की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। कृषि वित्त के अन्तर्गत भूस्वामी, व्यापारी व कमीशन एजेंट (दलाल) अल्पकालीन व मध्यमकालीन ऋण प्रदान करते हैं।

2. संस्थागत स्रोत

स्वतन्त्रता के बाद संस्थागत स्रोतों की कार्यप्रणाली विस्तृत होती जा रही है, यह सन्तोषजनक स्थिति है। संस्थागत वित्त व्यवस्था के प्रमुख तीन भाग हैं-

(1) सहकारी समितियाँ, (2) सरकार, (3) व्यापारिक बैंक। लेकिन संस्थागत स्रोत में सहकारी समितियाँ, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया आदि का अध्ययन उचित होगा।

( 1 ) सहकारी समितियाँ (Co-operative Societies) – कृषि वित्त का प्रमुख स्रोत सहकारी समितियाँ है, जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद पोषित हुई हैं । स्वतन्त्रता के बाद ग्रामीण क्षेत्र में ‘सहकारिता आन्दोलन’ प्रारम्भ होने पर विश्वास व्यक्त किया गया कि अब कृषि वित्त का मूल स्रोत सहकारी समितियाँ, होगी, जो साहूकारों एवं महाजनों का स्थान ग्रहण कर लेंगी। लेकिन यह विश्वास निराधार हुआ है, क्योंकि 1951-52 में सहकारी ऋणा समितियों का योगदान 3 प्रतिशत था, जिनका योगदान वर्तमान समय में लगभग 35 प्रतिशत है लेकिन इसे सन्तोषजनक प्रगति नहीं कह सकते हैं। भारत में दो प्रकार की सहकारी समितियाँ ऋण प्रदान करती हैं-

  1. प्रारम्भिक कृषि ऋण समितियाँ – (अल्पकालीन व मध्यकालीन ऋण)
  2. भूमि विकास बैंक – (दीर्घकालीन ऋण)

सहकारी समितियों के तीन वर्ग निम्न हैं-

(i) प्राथमिक सहकारी समितियाँ (Primary Co-operative Societies) – कृषि वित्त की दिशा में प्राथमिक सहकारी समितियाँ अति उपयोगी हैं, जिनका निर्माण ग्राम के दस सदस्यों से किया जाता है।

(ii) केन्द्रीय या जिला सहकारी बैंक (Center of District Co-operative Bank) – केन्द्रीय या जिला सहकारी बैंक का प्रमुख कार्य प्राथमिक सहकारी समितियों को आर्थिक सहायता देना है। केन्द्रीय सहकारी बैंक के सदस्य प्राथमिक सहकारी समिति के सदस्य नियुक्त होते हैं, अथवा बगैर किसी प्रकार की सदस्यता रखने वाले लोग भी इसके सदस्य हो सकते हैं। भारत  में ऐसी बैंकों की संख्या 354 है, जिनमें 8,515 करोड़ रु. से अधिक ऋण प्रदान किये गये हैं।

(iii) राज्य सहकारी बैंक (State Co-operative Bank) – राज्य सहकारी बैंक कृषि वित्त की एक प्रमुख संस्था है जो केन्द्रीय या जिला सहकारी बैंको को आर्थिक सहायता देती है। इस बैंक का प्रधान कार्यालय राजधानी में स्थापित होता है। भारत में राज्य सहकारी बैंकों की संस्थाएँ कुल 29 हैं। इन बैंकों का एक फेडरेशन है, जिसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थापित है।

(2) भूमि विकास बैंक (Land Development Bank) – कृषि वित्त में भूमि विकास बैंक का महत्वपूर्ण योगदान है, जिसे भूमि बन्धक बैंक (Mortgage Bank) भी कहते हैं। सहकारी समितियों को दीर्घकालीन ऋण देने वाली यह एक मात्र संस्था है जो कृषकों को कृषि विकास हेतु प्रोत्साहित करती है। अतः भूमि विकास बैंक कृषि में स्थायी सुधार, ट्यूब-वैल्स ट्रैक्टर आदि कार्यों के लिए दीर्घकालीन ऋण देती है।

( 3 ) स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया (State Bank of India) – कृषि – वित्त का प्रमुख स्रोत स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया है जो अपनी शाखाओं को ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित कर रही है। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया द्वारा नियुक्त अखिल भारतीय ग्राम्य शाखा सर्वेक्षण ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें “ग्राम्य साख की एक एकीकृत योजना” पर बल दिया। परिणामस्वरूप इम्पीरियल बैंक के नाम से विख्यात स्टेट बैंक ने ग्रामीण वित्त व्यवस्था में विशेष योगदान दिया।

( 4 ) व्यापारिक बैंक (Commercial Banks) – व्यापारिक बैंक कृषि वित्त का एक उपयोगी साधन है, जबकि इनके राष्ट्रीयकरण से पूर्व व्यापारिक बैंकों का कृषि – वित्त में कोई योगदान नहीं रहा है, क्योंकि कृषि वित्त के रूप में व्यापारिक बैंकों की भूमिका केवल 1 प्रतिशत थी, जो नगण्य है। लेकिन 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद सन् 1979 से व्यापारिक बैंकों की रुचि कृषि वित्त के क्षेत्र में बढ़ रही है। इन कृषकों को अल्पकालीन व मध्यमकालीन ऋण देने में सरल नीति अपनाई है।

(5) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (Regional Rural Banks) – ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उद्योगों एवं अन्य कार्यों को कृषि – वित्त की उचित व्यवस्था हेतु बैंकिंग आयोग 1972 एवं शिवरामन कमेटी 1974 ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना का सुझाव दिया था, जिसके परिणामस्वरूप 2 अक्टूबर 1974 को संसद में एक अधिनियम पारित करके फरवरी 1976 में देश में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शाखाएँ ग्रामीण वित्त कि लिए स्थापित की गई। 2015-16 तक देश में ग्रामीण बैंकों की 17450 शाखाएँ स्थापित हैं।

( 6 ) अग्रणी बैंक योजना (Lead Bank Scheme) – अग्रणी बैंक योजना भारत सरकार की वह योजना है, जिसमें राष्ट्रीयकृत बैंकों को कृषि-वित्त एवं विकास हेतु 335 जिलों की बैंकों को 17 भागों में बांट दिया है। इस व्यवस्था को अग्रणी बैंक योजना (Lead Bank Scheme) कहते हैं। अग्रणी बैंक योजना का कार्य जिलों की बैंकों का शाखा विस्तार, ऋण वितरण व सामान्य विकास करना है। इसीलिए अग्रणी बैंक योजना का अर्थ उस बैंक से है, जिसे कुछ जिलों में बैंकिंग, विकास का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है।

( 7 ) रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया (Reserve Bank of India) – यद्यपि रिजर्व बैंक अधिनियम के अनुसार कृषक को कोई भी प्रत्यक्ष ऋण प्रदान नहीं करती है। लेकिन रिजर्व बैंक राज्य सहकारी बैंकों के माध्यम से कृषि वित्त में विशेष योगदान दे रही है। रिजर्व बैंक की शर्त के अनुसार राज्य सहकारी बैंकों को उनकी माँग का ढाई प्रतिशत व समग्र दायित्वों का 1 प्रतिशत नकद कोष के रूप में रिजर्व बैंक में जमा होता है, इसके बदले में रिजर्व बैंक ने अल्पकालीन व मध्यमकालीन ऋण देने का अधिकार प्रदान किया है। विशेष बात यह है कि रिजर्व बैंक (RBI) सरल शर्तों एवं रियायती ब्याज पर ग्रामीण वित्त की व्यवस्था कर देती है। इनकी ब्याज दर 1/2 प्रतिशत से ढाई प्रतिशत तक है, लेकिन कृषकों से ऋण का 7% से 12% तक ब्याज लिया जाता है।

( 8 ) सरकार (Government) – कृषि वित्त में सरकार भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहायता देती है। जब सरकार कृषकों को प्रत्यक्ष रूप से ऋण देती है, तो उसे ‘तकाबी ऋण’ कहते हैं। ऐसे ऋण सरकार कृषकों को भूमि सुधार, सिंचाई, बाढ़ या भू-क्षरण आदि के लिए देती है। सरकार के प्रत्यक्ष ऋण अधिकतम 25 वर्षों के लिए व 6 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक ब्याज पर दिए जाते हैं। लेकिन ‘तकाबी ऋण’ कुशल कर्मचारियों के अभाव व नेतागीरी के कारण वसूल नहीं हो पाते हैं। इसी कारण ग्राम ऋण सर्वेक्षण समिति ने रिपोर्ट में कहा है कि ‘तकाबी ऋणों का रिकार्ड अपर्याप्त व अक्षम है।”

पंचवर्षीय योजनाएँ एवं कृषि वित्त

स्वतन्त्रता के बाद 1951 ई. से कृषि क्षेत्र के विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाओं से ऋण देने की व्यवस्था हुई है। सरकार ने प्रथम योजना में 823 करोड़ रु. दूसरी योजना 1,100 करोड़ रु. तीसरी योजना में 1,718 करोड़ रूपये व चौथी योजना में 3,815 करोड़ रु. कृषि वित्त हेतु व्यय किए। लेकिन पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि वित्त के लिए 8,083 करोड़ रु. व्यय करने की योजना बनाई गई। छठीं पंचवर्षीय योजना (1980-85) में लगभग 3,24,699 करोड़ रु. ग्रामीण विकास के अन्तर्गत विद्युतीकरण, सिंचाई व कृषि विकास पर व्यय हुआ।

सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) कृषि विकास के लिए अत्यन्त प्रमुख योजना है, जिसमें 39,212 करोड़ रु, व्यय हुए। अल्पकालीन ऋणों के लिए 8,695 करोड़ रु. मध्यकालीन ऋणों के लिए 1,845 करोड़ रु. व दीर्घकालीन ऋणों के लिए 19,995 करोड़ रु. निश्चित किए गए। आठवीं पंचवर्षीय योजना कृषि वित्त की मेरुदण्ड है जिसमें लगभग 95,867 करोड़ रु. का परिव्यय निश्चित हुआ है। लेकिन सहकारी व्यापारिक व क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने कृषि साख हेतु नवीं पंचवर्षीय योजना में कुल 1,70,232 करोड़ रु. का प्रावधान रखा गया है, वितरित किये गये हैं और 1995-2000 में 44,675 करोड़ रु. ऋण वितरण का लक्ष्य है। दसवीं योजना काल में 210405 करोड़ रु. का कृषि वित्त प्रदान किया गया। 12वीं योजना में कृषि वित्त की व्यवस्था 290817 करोड़ रु. का प्राविधान किया गया है।

IMPORTANT LINK
  • चीनी उद्योग की समस्याएँ क्या हैं? समस्याओं के निदान हेतु सुझाव
  • सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की परिभाषा एंव देश में MSME के महत्व
  • भारत में कुटीर एवं लघु उद्योगों की समस्याएँ एंव इसकी समस्यामुक्त करने के उपाय
  • भारत में लोहा एवं इस्पात उद्योग | लोहा एवं इस्पात उद्योग का विकास | योजनाकाल में लोहा एवं इस्पात उद्योग की प्रगति | लोहा एवं इस्पात उद्योग की सम्भावनाएँ
  • लोहा एवं इस्पात उद्योग की समस्याएँ एवं समस्या से मुक्त करने हेतु सुझाव
  • चीनी उद्योग की वर्तमान स्थिति तथा भविष्य की सम्भावनाएँ
  • भारतीय जनांकिकी संरचना या जनसंख्या वृद्धि | भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण | भारत में जनसंख्या नियन्त्रण हेतु सुझाव
  • क्या भारत में जनाधिक्य है?
  • आर्थिक नियोजन की परिभाषा एंव विशेषताएँ
  • भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना एंव इसकी विशेषताएँ
  • “भारत एक धनी देश है किन्तु यहाँ के रहने वाले निर्धन है ।”

भारत में कृषि वित्त के प्रमुख स्रोत क्या है?

कृषि वित्त का प्रमुख स्रोत सहकारी समितियाँ हैं, जो स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद पोषित हुई हैं। स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण क्षेत्र में 'सहकारिता आन्दोलन' प्रारम्भ होने पर विश्वास व्यक्त किया गया कि अब कृषि वित्त का मूल स्रोत सहकारी समितियाँ, होंगी, जो साहूकारों एवं महाजनों का स्थान ग्रहण कर लेंगी।

कृषि वित्त से आप क्या समझते हैं इसके स्रोत बताइए?

कृषि वित्त ग्रामीण विकास एवं कृषि संबंधित गतिविधियों से जुड़े कार्यों के सम्पादन से सम्बंधित ऐसी वित्त व्यवस्था है जो उसके आपूर्ति, थोक, वितरण, प्रसंस्करण और विपणन के वित्तपोषण के लिए समर्पित एक विभाग के रूप में जाना जाता है.

भारत में कृषि वित्त कितने प्रकार के होते हैं?

कृषि साख या कृषि वित्त क्या है इसकी परिभाषा लिखिए?.
किसानों की इस आवश्यकता के प्रमुख स्रोत है -.
ऋण लेने की आवश्यकतानुसार कृषि साख या वित्त का वर्गीकरण -.
( अ ) उत्पादक ऋण ( Productive Credit ) -.
यह दो प्रकार का होता है -.
( i ) प्रत्यक्ष उत्पादक ( Direct Productive ) -.
( ii ) अप्रत्यक्ष उत्पादक ( Indirect Productive ) -.

भारत में कृषि वित्त क्या है?

कृषि वित्त ग्रामीण विकास एवं कृषि संबंधित गतिविधियों से जुड़े कार्यों के सम्पादन से सम्बंधित ऐसी वित्त व्यवस्था है जो उसके आपूर्ति, थोक, वितरण, प्रसंस्करण और विपणन के वित्तपोषण के लिए समर्पित एक विभाग के रूप में जाना जाता है.