गांधीजी के अनुसार सत्य का अर्थ क्या है? - gaandheejee ke anusaar saty ka arth kya hai?

Hello दोस्तों ज्ञानउदय में आपका एक बार फिर स्वागत है और आज हम बात करते हैं, राजनीति विज्ञान में महात्मा गांधी जी के साध्य और साधन संबंधी विचारों (Objective & Sources) के बारे में । साथ ही साथ इस Post में हम जानेंगे इसका अर्थ, आधार और इसके साधनों के बारे में । तो चलिए शुरू करते हैं, आसान भाषा में ।

साध्य और साधन का अर्थ


गांधीजी मानना था कि अच्छे साध्य (उद्देश्य) की प्राप्ति के लिए अच्छे साधन (विचार) का होना आवश्यक है । गांधीजी स्वभाव से ही एक धार्मिक व्यक्ति थे । गांधीजी राजनीति में बल के प्रयोग के खिलाफ थे । उनका मानना था कि हिंसा या शक्ति पर आधारित राजनीति व्यक्तिगत हितों की पोषक तो हो सकती है, लेकिन सामाजिक कल्याण का साधन कभी नहीं बन सकती । उनकी विचारधारा अन्य विचारकों जैसे मैक्यावली, कार्ल मार्क्स, लेनिन, मुसोलिनी तथा हिटलर से पूर्णता अलग थी । उन्होंने भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए साध्य की प्राप्ति अहिंसा रूपी शांति में साधन द्वारा ही की । उनका विचार था कि अच्छे साध्य की प्राप्ति अच्छे साधन के बिना नहीं हो सकती । इसके लिए साधन की पवित्रता पर ध्यान रखना चाहिए । गलत साधन कभी भी अच्छे साध्य का आधार नहीं बन सकते ।

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साधक व साधन संबंधित प्रचलित मान्यताएं


आइए कुछ प्रचलित साध्य और साधन संबंधी मान्यताओं के बारे में जान लेते हैं । अच्छा साधन ही अच्छा साध्य प्राप्त कर सकती है । इस सिद्धांत के बारे में दो धारणा प्रचलित हैं ।

पहली धारणा यथार्थवादी है तथादूसरी आदर्शवादी है ।


यथार्थवादी धारणा का प्रतिपादन भौतिकवादियों, साम्यवादियों, फासीवादियों एवं व्यवहारिकतावादियों में किया है । इसमें मैक्यावली, मार्क्स, लेनिन, मुसोलिनी तथा हिटलर जैसे विचारक शामिल हैं । इन विचारको के अनुसार साध्य यानी लक्ष्य ही सबसे ऊपर है । वह सत्य की प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार के साधन को अपनाने के पक्ष में हैं । मैक्यावली का यहां तक कहना है कि


“उद्देश्य ही साधनों की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है ।”


इसीलिए इन विचारकों ने हिंसात्मक साधनों पर ज्यादा जोर दिया था । गांधीजी हिंसा के घोर विरोधी थे । इसलिए उन्होंने भारतीय वेद, शास्त्रों में वर्णित रीति के अनुसार साधनों का अनुसरण करने पर जोर दिया । उनका साध्य और साधन की पवित्रता में ही गहरा विश्वास था । गांधी जी का कहना था कि बुरे साधन के कारण अच्छा साधन भी नष्ट हो जाता है ।
गांधी जी ने साधन और साध्य की तुलना बीज और फल से करते हुए कहा है कि जिस प्रकार बीज होंगे उसी प्रकार फल भी आएगा । इस प्रकार यदि साधन अच्छा नहीं होगा तो, साध्य की कल्पना अच्छी नहीं की जा सकती । इसलिए गांधी जी ने साध्य की अपेक्षा साधनों पर अधिक जोर दिया है और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इसका व्यावहारिक प्रयोग भी करके दिखाया है ।

साध्य और साधन संबंधी विचार


गांधी जी के द्वारा साध्य और साधन संबंधी विचारों का अध्ययन कुछ निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है ।


1 साधन की पवित्रता पर बल


गांधीजी का मानना था कि अच्छे साधन की प्राप्ति के लिए साधनों का पवित्र होना बहुत आवश्यक है । उन्होंने इस बात का खंडन किया है कि अच्छे साध्य की प्राप्ति हिंसा द्वारा भी की जा सकती है । साध्य की पवित्रता ही साध्यों की वैधता सिद्ध करती है । गांधी जी का विश्वास था कि हम बुरे साधनों द्वारा तो बुरे साध्यों यानी लक्ष्यों को ही प्राप्त कर सकते हैं । बुरे साधन द्वारा प्राप्त साध्य की वैधता कुछ समय बाद खुद ही समाप्त हो जाती है । असहयोग आंदोलन के दौरान भड़की हिंसा से गांधीजी ने दुखी होकर यह आंदोलन वापस ले लिया था ।

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गांधीजी बुरे साधन द्वारा स्वतंत्रता जैसे अच्छे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं करना चाहते थे । वह किसी भी अवस्था में साधनों को अपवित्र नहीं बनाना चाहते थे । उन्होंने साधनों की पवित्रता पर जोर देते हुए कहा है कि


“मैं जानता हूं कि यदि हम साधनों का ध्यान रखें, तो साध्य की प्राप्ति विश्वसनीय हो जाती है । मैं यह भी महसूस करता हूं कि साध्य प्राप्ति में हमारी प्रगति हमारे साधनों की पवित्रता के पूर्ण अनुपात में होगी ।”


इस प्रकार गांधीजी किसी भी कीमत पर साधनों की पवित्रता बनाए रखने के पक्ष में थे । वह गंदे तथा अनैतिक साधनों द्वारा स्वतंत्रता जैसे अच्छे व पवित्र लक्ष्य की प्राप्ति करना नहीं चाहते थे ।


2 साध्यों की पवित्रता पर बल


गांधीजी ने साधनों की पवित्रता के साथ साथ साध्यों की पवित्रता पर भी जोर दिया है । उनका मानना है कि साधनों के पवित्र और न्याय पूर्ण होने से ही काम नहीं चल सकता । इसके लिए तो स्वयं साध्य भी पवित्र होना चाहिए । उनका मानना था कि व्यक्ति का साधनों पर तो नियंत्रण होता है, परंतु साध्य पर नहीं होता । इसलिए व्यक्ति को साधनों की पवित्रता बनाने का प्रयास करना चाहिए ताकि साध्य को वैद्य बनाया जा सके । इसी से साधनों की शुद्धता का भी पता चल जाता है । अनैतिक साधन नैतिक साध्य को भी अपवित्र सिद्ध कर देते हैं । इसलिए व्यक्ति को पवित्र साध्य के लिए ही पवित्र साधनों को चुनने का प्रयास करना चाहिए ।


3 साध्य और साधन परिवर्तनशील है


गांधी जी का यह मत है कि कोई भी साध्य या साधन स्थाई नहीं होते । इनकी प्रकृति हमेशा परिवर्तनशील रही है । साध्य साधन का रूप ले सकता है और साधन साध्य का । इसलिए कोई भी साध्य अंतिम नहीं होता । इनकी प्रवृत्ति परिवर्तनशील होने के कारण समाज में विकास होता है ।

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स्वतंत्रता से पूर्व जो साध्य था वह आज साधन है । आज साध्य सर्व पक्षीय विकास है । कल यही साध्य साधन का रूप धारण कर सकता है । स्वतंत्रता से पहले राष्ट्रीय आंदोलन में लोगों को शामिल करना एक साध्य था, जो आज साधन बन चुका है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि साध्य और साधन परिवर्तनशील है और इसी से समाज की धारा को आगे बढ़ाया जाता है ।


4 साध्य और साधन की एकता पर बल


गांधीजी के अनुसार साधन साध्य का ही अभिन्न अंग है । इसे साध्य से अलग नहीं किया जा सकता है । इन दोनों में आंगिक एकता पाई जाती है । यह भिन्न इकाइयां ना होकर एक ही समग्र के दो भाग हैं । यह दोनों पर्यायवाची हैं । यह एक दूसरे का स्थान लेने की योग्यता रखते हैं । साध्य प्रयुक्त साधनों का ही प्रतिफल है । व्यक्ति साध्य व साधनों में उचित सामंजस्य रख सकता है । अच्छे साध्य की प्राप्ति बुरे साधन से नहीं की जा सकती । अच्छा साधन ही अच्छे साध्य की कसौटी है । गांधीजी का मानना है कि


“मेरे लिए साधनों का जानना ही पर्याप्त है । मेरे जीवन दर्शन में शांति और साधन पर्यायवाची हैं । लोग कहते हैं कि साधन तो साधन है । मैं कहता हूँ कि साधन ही सब कुछ है । जैसा साधन वैसा साध्य । दोनों के बीच एक दूसरे को अलग करने वाली कोई दीवार नहीं है । वास्तव में ईश्वर ने हमें साधनों पर नियंत्रण दिया है, साध्यों पर नहीं ।”


गांधीजी ने उन व्यक्तियों के तर्क का खंडन किया है, जो यह कहते हैं कि साधन और साध्य में कोई संबंध नहीं है ।
गांधी जी का कहना है कि इसी मूल के कारण धार्मिक व्यक्तियों से भी अपराध होते हैं । यह तर्क ऐसा है कि यदि मैं समुद्र को पार करना चाहता हूं तो मैं जहाज द्वारा ही कर सकता हूं । यदि मैं इसके लिए गाड़ी का प्रयोग करूंगा तो गाड़ी और मैं दोनों धरातल पर पहुंच जाएंगे । बबूल का पेड़ होने से उस पर आम के फल कभी नहीं लग सकते । आम का फल प्राप्त करने के लिए आम का पेड़ ही लगाना पड़ता है । जैसे बीज होता है, वैसे ही उसके फल की प्राप्ति होती है । इस तरह गांधी जी ने साध्य और साधन की आंगीक एकता पर भी बल दिया है ।


5 नैतिक नियमों में विश्वास


गांधीजी नैतिकता के महान समर्थक थे । उनका आत्मबल पर गहरा प्रभाव था । उनका कहना था कि सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यों के पीछे मनुष्य का शुद्ध और पवित्र भाव होना चाहिए । आत्मा के विपरीत किया गया कार्य राजनीतिक क्षेत्रों में भी ठीक नहीं हो सकता । देश भक्ति के नाम पर नैतिक नियमों को त्याग कर देश हित की रक्षा करना औचित्यपूर्ण कभी नहीं हो सकता ।
प्रत्येक राजनीतिक कार्य के पीछे नैतिक भावना का होना अति आवश्यक है । जो कार्य रूप से उचित हैं । राजनीतिक रूप से भी वही उचित हो सकता है। गाँधी जी कहा है कि


“यदि हम साधनों की परवाह करते हैं, तो हम शीघ्र ही साध की ओर पहुंच जाएंगे । जहां साधन पवित्र होते हैं, वह ईश्वर भी अपनी शुभकामनाओं सहित मौजूद होता है ।”


इस तरह से गांधीजी ने साधनों का प्रयोग करते समय उसे नैतिकता की कसौटी पर परखने का भी सुझाव दिया है ।


साध्य को प्राप्त करने के साधन


आइए हम जानते हैं साध्य को प्राप्त करने वाले साधनों के बारे में । गांधी जी ने साध्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित साधन बताएं हैं । जो कि गांधीजी के विश्वास के साथ जुड़े हुए हैं । सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह आदि ।


1 सत्य – गांधीजी के अनुसार सत्य, शांति प्राप्ति का प्रमुख साधन है । उनके अनुसार धर्म और ईश्वर सत्य है । सत्य की खोज आत्मा के द्वारा ही संभव हो सकती है और उद्देश्य यानी साध्य की प्राप्ति हो सकती है । सत्य एक वृक्ष की तरह है, जिसको जितना पोषित किया जाता है, उतना ही अधिक फल देता है ।


2 अहिंसा – गांधीजी का मत था कि एक अच्छे साध्य को प्राप्त करने के लिए अहिंसा रूपी साधन का प्रयोग जरूर किया जाए । उन्होंने अपने पूरे जीवन अहिंसा पर अधिक बल दिया । उन्होंने अहिंसा को एक ऐसी शक्ति माना जिसके द्वारा सत्य की खोज की जा सकती है । सत्य और अहिंसा एक दूसरे के पूरक हैं । अहिंसा को अपनाना हिंसा से अधिक कठिन कार्य है, क्योंकि उन इसको अपनाने वाले व्यक्ति के लिए आत्मसिद्धि, त्याग, आत्मबल, बलिदान, सत्य, धैर्य आदि गुणों की आवश्यकता होती है ।

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3 सत्याग्रह – गांधी जी ने सत्याग्रह को भी साध्य की प्राप्ति का एक प्रभावशाली साधन माना है । गांधीजी के अनुसार सत्याग्रह से हिंसा मुक्त समाज की रचना की जा सकती है । सत्य और अहिंसा पर आधारित अपनी आत्मिक शक्ति के प्रयोग से लिया एवं सत्य के लिए लड़ना सत्याग्रह है । अर्थात अन्याय, अत्याचार व शोषण के खिलाफ उत्तम शक्ति का प्रयोग करना एक सत्याग्रह है । सत्याग्रह के लिए सहनशीलता, सचित्र, सच्चरित्र, अनुशासन, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, त्याग आदि जैसे गुणों का होना आवश्यक है । इसके बिना कोई भी व्यक्ति सच्चा व सफल सत्याग्रही नहीं हो सकता ।
इस तरह से उपरोक्त विवरण के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधीजी का साध्य और साधन का सिद्धांत एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है । गांधीजी ने साध्य और साधन दोनों को पवित्रता या नैतिकता पर आधारित करके एक महान कार्य किया है । उनका राजनीति का अध्यात्मीकरण करने का विचार भी इसी से प्रेरित है । उन्होंने अपने इस सिद्धांत को न केवल सिद्धांत तक ही सीमित रखा है, बल्कि इसे एक व्यवहारिक रूप प्रदान किया है ।
गांधी जी का यह मानना है कि


“यदि साधन अपवित्र है, तो पवित्र से पवित्र साध्य को भी सिद्ध नहीं किया जा सकता ।”


गांधीजी का विश्व को यह एक महान संदेश है, यदि गांधी जी इस बात को स्वीकार करते तो यह निश्चित है कि विश्व की अधिकांश समस्याओं का समाधान स्वयं ही हो जाता । आज के आज के युग में विश्व में जो अराजकता, भय का वातावरण बना हुआ है । उसका कारण विभिन्न देशों द्वारा साध्य व साधनों का गलत चुनाव का परिणाम है । गांधीजी का यह सिद्धांत साधना साध्य की पवित्रता अपनाने पर जोर देगा । किसी समस्या का समाधान करता हुआ प्रतीत होता है । निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि साध्य और साधन का सिद्धांत गांधीजी की एक महत्वपूर्ण व शाश्वत देन है ।


तो दोस्तों यह था गांधी जी के साध्य और साधन संबंधी विचारों के बारे में । अगर आपको यह Post अच्छी लगी हो तो अपने दोस्तों के साथ में जरूर Share करें । तब तक के लिए धन्यवाद !!

गांधीजी के अनुसार सत्य का क्या अर्थ है?

गांधी जी सत्य को निरपेक्ष सत्य के रूप में ग्रहण करते हैं। सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची मानते हैं, इसी सत्य के प्रति निष्ठा है। हमारे अस्तित्व का एकमात्र औचित्य हमारी समस्त गतिविधि सत्य पर केन्द्रित होनी चाहिए। सत्य ही हमारे जीवन का प्राण तत्व होना चाहिए।

गांधी जी के अनुसार सत्य और अहिंसा क्या है?

गाँधी की मानना है कि बिना अहिंसा के सत्य की खोज असंभव है, अहिंसा वस ज्योति है, जिसके द्वारा मुझे सत्य का साक्षात्कार होता है। अहिंसा यदि साधन है तो सत्य साध्य है। वे दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते है। अहिंसा के लिये आवश्यक है कि प्रत्येक दशा मे सत्य का पालन किया जाये।

सत्य और अहिंसा क्या है?

"अहिंसा के बिना सत्य की खोज असंभव है।" जिस व्यक्ति में अहिंसा और सत्य के गुणों का समावेश हो जाता है। वह निरंतर सफलता प्राप्त करता चला जाता है। सत्य और अहिंसा का पालन करने में ही ईश्वरत्व की महिमा को समझना संभव है। इन गुणों के पालन से व्यक्ति में समरूपता, सहयोगी, मैत्री, करुणा, विनम्रता आदि के सद्गुण होते हैं।

सत्याग्रह का मतलब क्या होता है?

"सत्याग्रह' का मूल अर्थ है सत्य के प्रति आग्रह (सत्य अ आग्रह) सत्य को पकड़े रहना और इसके साथ अहिंषा को मानना । अन्याय का सर्वथा विरोध(अन्याय के प्रति विरोध इसका मुख्या वजह था ) करते हुए अन्यायी के प्रति वैरभाव न रखना, सत्याग्रह का मूल लक्षण है।