See other formatsमालाणी गौरव ग्रन्थ माला - पुष्प २ प्रधान-सम्पादक -- ठा नाहरसिंह राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपांदे ओर मल्लीनाथ लेखक डॉ डी बी क्षीरसागर राणी भटियाणी ट्रस्ट, जसोल (बाडमेर) *». एकमार विततक राजस्थानी ग्रन्थागार प्रकाशक व पुस्तक विक्रेता सोजतो गेट जोधपुर कोन कार्यालय 623933 निवास 32567 » अकाशक राणी भटियाणी ट्रस्ट जसोल (जिला बाडमेर) » ७ राणी भटियाणी टस्ठ जसोल (बाड़मेर) » प्रथम सस्करण जुलाई, 7997 » मूल्य एक सौ पिच्यानवे रुपये मात्र «».. लेजा रईपबेटिंग सूर्या कम्पयूर्स, जोयपुर «. मुद्रक आदित्य आप्सेट प्रेर 2536 कूधा चालान दरियागज नई दिल्ली-#00०२ समर्पण इस शती के परिवार के महान् सपूत रावल जोरावरसिंहजी रावल अमरसिहजी. कर्नल ठा अर्जुनसिंहनी. भेजर ठा सरदारसिंहजी को श्रद्धापूर्वक समर्पित >कृतज्ञ सभी जोरावरसिंघोत प्रकाशवीय भूमिका यणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाया रूपादे की अमृतवाणों परिशिष्ट १ रूपादे की रचनाएं परिशिष्ट २ रूपादे मललीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं परिशिष्ट ३ गुजरात में रूपादे और मल्लीनाथ बच्चा ॥श्श्र्श ५ ५४ १०६ १०७ १३६ १३७ २३४ २३५ २३ 2८ डेह 9४ ४ 35 प्रकाशकीय प-<+--+-++->>स्सस्सिय्िि््च्भ् स्सच्स्स्स्ल्स्स््स्स्ल्ल न्सस्स्स्स्न जे माजनाण राजस्थान के पश्चिमी घृभाग में राशकूटों को महा के सूर्योदय का कब वन प्रदेश इतहाप़वाएँ को दृष्टि में समुचित स्थात नहीं या से त सयैद मत व्य दृः हर बनने के लिये इस वश के पूर्व पुरुषों ने मएप को मंगल मातवे हुए बिल झलवाव झुः का स्वागत क्या उसवी बार गायाए चाएणें का वहियों में हे छिपी रही सपाठ इसालिय राब चृष्डा को सत्ता प्राप्ति से पूर्व का इविहम घूमिल छत गया। ते भालानी के इतिहास और मम्कूति वो जानने और जनक उमे जतवा-्बनादन के सामने रखने वा संकल्प मैंने कब क्या यह अब ठोढ म याद नहीं है। या भटियाएई मों की कृपा और न्या्त के सदस्यों के सहयाग से बहियों में छिरी वीर गायाओं वो दूढने उन्हें सर्कातत कल नथा अनदोगला रहें मुट्वि करने का दायित्व मेने मर अनन्य मित्र राजस्थानी केमूर्षन्ध विद्वान और राजस्थानी माहित्य संगम बाझानर के अध्यय श्रों 52 4 शेखावत वा मौंपा। श्र' शछावत के महयाग मे हमाश यद प्रयाम मालाती व प्रय्माला के रुप में प्रशशित हुआ। रुप प्रशशन के साथ ही मात्रानी का उमबष राजनीतिक इतिहम तैयाए कशन की मरे इच्छा और भी अधि बलाती दादी गया। राजनैतिक इनिहम के लेखन न का कार्य मर आप पर डॉ हुकमरमिंद सारी ने स्वीझार किया और इस प्रकाए के इनिशम वी एक रुपरखा श्री ठैयाए हुई। परनु मुझे एसा लगता रहा कि उममें जत्र भो कुछ जोइने का आउश्याता है खाम कर मातरनी के अस्त उपलब्ध अभिलेखें; क| उपयोग मालानो को समय समय पर बदलदी रहा भौगोलिक सौर साम्कृतिक सीमाओं को तय क्ये ना नहीं क्या जा मझ्ता। मुझे इस बाई की प्रसनता है कि अलीगट विश्वविद्यालय के इतिहास ज़िपाग के प्राध्यापक डॉ भेंवर मादानी इस काय में विगत वर्ष से लगे हुए हैं ययाशीघ्र वे अवश्य दी इस पृ कर लैंग) मास्कृतिक इतिहास को जाने बिना फ्रिमी मी प्रटेश का गजवैठिक इतिहास मम्रग्न दूहि से स्पष्ट नहीं हो पावा। मालान| के यज्ञम्वा शासड् मल्सनाव ऋामऊ के रुप मे कम आर एक पीर या औलिया क॑ रुप में अधिक मात बात हैं। तने, अधिदान्ण घी [०] राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ रानी रूपादे ने जनता के उपेक्षित वर्ग को अपने गले से लगाते हुए कैसे भक्तिमार्ग की ओर उन्मुख किया यह जान बिना और भरतवशीय शासकों की तरह समस्त अर्जित राज्य शव चूड़ा को देकर क्षत्रिय का आदर्श कैसे उपस्थित किया इसे समझे बिना यहाँ के इतिहास के अध्ययन का दरअसल प्रारभ ही नहीं होता। मारवाड की जनता राणी रूपादे को ताश दे सज्या दे और द्रौपदी के समान त्यागो और भक्त मानती हैं। रूपादे ने केवल अपने पति मल्लीनाथ को ही अपने पथ में दीक्षित नहीं किया अपितु उनके साथ जन कल्याण के लिये समर्पित हुईं। सच मानिये तो उसने राठौड कुल का आधात्मिक ठद्धार किया। इसलिये मालानी के ्षेत्र में यह गीव जन जन द्वार गाया जाता हैं-- अली न कोई चीतोड सीयोदिया आयणे जिका कोर्स प्रो न कौ जागी। आ हुईं माल रे घर आपया रूपादे ग्रणिया परे यषी # उसने स्वय को और मल्लौनाथ को कलियुग में अचल स्थान पर प्रतिष्ठित किया-- जण कदू बिचालै माल रूपा अचल जोन मह देव होवे प्रस्त जाय। रूपादे ने समाज के नियम से ही निः्नस्तर के व्यक्तियों को साथ लेकर ज्ञान का जम्मा जगाया भक्ति का आजीवन जागरण किया। उसके पद और वाणियों मेघवालों और अन्य लोगों के द्वारा आज भो गायी जा रही हैं। रूपादे के कुछ पद और बेल प्रकाशित हैं कुछ मौखिक परम्परा में ही सुरक्षित हैं इनके सचालन का इससे पूर्व कभी प्रमास नहीं किया गया। रूपादे के समस्त साहित्य का अध्ययन उसके जीवन और भक्ति के इस रूप का निरूपण अब तक नहीं हुआ था। रूपादे और मल्लीनाथ की भक्ति का प्रभाव आज भी सुदूर कच्छ भुज में दिखायी देता हैं। रूपादे के अध्ययन में इस प्रभाव को और वहाँ की जन आस्था को बिना चर्चा किये छोड देना उचित नहीं था। अत इस पुस्तक के लेखक को कच्छ यात्रा करना भी अनिवार्य था। मेरे आग्रह पर डॉ श्ीरसागरजो ने रूपादे मलल्लीनाथ विषयक इतिहास-उनकी भक्ति और दर्शन-का प्रारम्भ किया अध्ययन अब पूरा हो रहा है। दरअसल दादू और कबीर से भी पूर्व नाथ सप्रदाय की लीक से हटकर रूपादे ने निर्गुण भक्ति बी जो अविश्ल रद प्रवाहित वी है उसमें पाठक को आकठ अवगाहन करना ही इन पृष्ठों का अभीष्ट । प्रकाशकीय [खा] पुस्तक में सगृहीत राजस्थानी पदों की शुद्धता को बर करार रखने में डॉ शक्तिदानजी ऋविया ने हमें सहयोग दिया। सर्व कार्य में श्री ग्रमनिवासजी शर्मा एवं श्रो बैरोेसालसिंहजी खडप ने काफी कष्ट उठाया है। ट्स्ट के सदस्यों के सहयोग के बिना एक कदम भी चल पाना असभव होता। इन सभी के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। रावल किशनसिंहजी लेज हणूतसिंहजी मेजर ठा जसवन्तर्सिहजी ठा डूगरसिंहजोी ठा फतेहसिंहजी ठा आनन्दर्सिहजी डा गणपतसिंहजी ठा होरसिंहजी ठा चैनसिंहजी एवं मेरे भवीजे प्रवीण व नरेन्द्र व सभी परिवार के सदस्यों के सहयोग एव प्रोत्साहन एवं सदभावना हेतु आभारी हूँ। इसी तरह डॉ नवलकृष्णजी तथा श्री सुखसिंहजी भाटी का भी उनसे प्राप्त सहयोग के लिये मैं आपारी हूँ “मालानी गौरव अन्य माला” के द्वितीय पुप्म के रूप में रूपादे और मल्लीनाथ की जीवन कथा और भक्ति की गाथा आपके हाथों सौंपते हुए मुझे होने वाली प्रसनता को अभिव्यक्त करने की मेरी शब्द सामर्थ्य नहीं है। यह रूपादे गाथा आपके स्वरों में गुजायमान होकर दिगन्त को पवित्र कर सकेगी यह मेरा विश्वास है। -ठा. नाहरसिंह भूमिका गीर्वाण भारती का कवित्व यह कहते थकता भी कैसे न हि मानुषार श्रेष्ठतार किंचित् । मनुष्य होते से बढकर कोई भी श्रेष्ठ नहीं है। आत्मकल्याण के साथ विश्वकल्याण का चिन्तन इसी मनुष्यत्व की देन है। यह कल्याण कैसे प्राप्त करें यह चिन्तन हर सस्कृति में हर भू भाग में प्रस्तावित होता रहा। मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिये और समाज सुसकृत कैसे रह सकता है इस पर भारतीय मनोषियों ने गहरा चिन्तन किया और ममुष्य जीवन के धर्म अर्थ काम और मोश्ष इन चार लक्ष्यों की भ्राप्ति के लिये कर्मानुसार समाज को विभाजित किया। मनुध्य की शारीरिक और भौद्धिक क्षमता के क्रमिक विकास और हास के आयार पर जीवन को चार भागों में ढालकर जीवन का प्रत्येक क्षण श्रमयुक्त बनाने का सकल््प किया ये ही वे चार आश्रम हुए। श्रत्येक क्षण अपने साथ समाज और राष्ट्र के अभ्युदय और निश्रेयस के लिये समर्पित हुआ। हर पल व्यक्ति को यह आभास कराता रहा कि उसका अन्तिम लक्ष्य अभ्युदय नहीं नि श्रेयस है। वह मानव है किन्तु देवयु देवत्व की कामना और उसका प्राप्ति के लिये हां उसे यह जन्म मिला है। दंवयु बनने की धारणा ने ही भौतिकता को नकार दिया और समाज में दिव्यत्व की स्थापना की। परन्तु समाज को दिव्यत्व में परिवर्तित करने को मनीषियों की यह कथा अनेक व्यधाओं से घिर गयी। अपना क्षमा और इच्छा के अनुसार कार्य की स्वीकार कर सम्बाथित वर्ण को स्वीकार करन की स्वतत्रता पर थौरे धीरे अकुश लगने लगे और कर्म जन्म के आधार पर तय होने लगा। साथ हो धर्म के वितान में मनुष्य के देवयु स्वरूप का आभाप्त क्षीण हुआ और एक जिज्ञासाओं मे सगाबोर हुए समाज मे विकृतिया हावी शेने लगी। समाज के नेता और उनकी व्यवस्थाओं के प्रति विशेध का स्थर गूजने लगा। ब्राह्मण चर्म वैदिक चज्ञ भाग और उसके सैदधान्तिक और जायोगिक स्वरूप पर प्रश्व चिह्ठ लगने लगे। मम्पूर्ण ममाज को माथ ले चल मबने योग्य सामाजिक व्यवस्था अव्यवस्थित हुई उसके आपार खोखले हो गय उम्रका टूट जाना हीं उचित था। वर्णाथरम अवस्था के यों दूट जाते से बिखर समाज में फिर अशालि के घुधल भूमिका (२ के में हिसा घर करने लगी आत्मविश्वास डिगने लगा सारा ससार दुःख मूलक दिखाई देने लगा। वेद धर्म व्यवस्था को इस स्थिति में बुद्ध और महावीर ने ललकाण और नये सिद्धान्ों पर नये आदर्शों पर समाज को प्रतिष्ठापित करने का फिर से श्री गणेश हुआ। पस्तु इन मर्तों के विरक्ति मूलक स्वरूप का प्रवृति मूलक ससार में बैसा स्वागत ने हो सका जैसा इनके आचायों को अभीष्ट था। दर असल ये लोग पारलौकिक कल्याण को लेकर चले ऐहिक ससार को कैसे सुखमय बनाया जा सकता है इस महत्वपूर्ण पहलु पर इन्होंने चिन्तन नहीं किया। निष्कामत्व ही अलौककता देवत्व की ओर प्रवृत हो सकता है सकामत्व नहीं और ऐहिक उपभोग का पर्याप्त अनुभव है! उसके उपशमन में व्यक्ति की प्रवृत कर सकने मे सक्षम हो सकता है इस तथ्य को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। अकाल सन्यास इच्छाओं के दमन की घोषणा सिद्ध हुई। आचार के धयतल पर उसके थीयेपन का अनुभव समाज को होने लगा और समाज का एक बडा वर्ग फिर से पुनर्मूष को भव वी तरह उसी मार्ग में प्रवृत होने का प्रयास करने लगा जिसे उसने सदियों पूर्व छोड दिया था। किन्तु उस विस्मृत मार्ग के अनुय्राय्ियों के वर्ग में अपने लिये उन्हें कोई स्थान बना पाना अब दुष्कर था। उपर मैंने जिस्न ऐहिक लिप्सा का सकेत किया है उसने समाज को ब्राह्मणादि चार वर्गों तक सोमित नहीं रहने दिया। रजोगुण प्रधान मनुष्य कौ वासना कैसे किसी वर्ग तक कसी को सीमित रहने देती? भगवदगीता में जिस वर्णसकर का सदर्भ है न जाने कब का सूत्रपात होकर वह विष वृक्ष की तरह सर्वत्र व्याप्त हो गया। जाने कितनी जातिया और उपजातिया हो गयी शास्त्रों मे बर्णित आठ प्रकार के विवाह उनके वर्गीकरण का एक हास्यास्पद प्रयास सिद्ध हुआ। समाज का अधिकाश वर्ग इसौ विकास परम्परा के परिणाम के रूप मे सामने आया। न वह ब्राह्मण था न क्षत्रिय न वैश्य और न शूद्र हो पर था वह इन्हीं का समवाय रूप वह कहीं से ग्राह्मणत्व लिये हुआ था तो कही से शूद्रत्व। यह न किसी वर्ण के अन्तर्गत आ सकता था न ही किसी आश्रम व्यवस्था में स्वय को नियमित कर पाता। अत चार वर्णों से अलग थलग पड़े इस वर्ग को अतिवर्णाश्रमो” सबोधित किया गया। अपने साथ रह रहे इन अतिवर्णाश्रमियों और उनके कार्यकलापों को देखकर बाह्मतः श्रुतिप्रणीत मार्ग का अनुसएण करने चाले भी अपने अन्तर में कही उप्तके प्रति अश्रद्धा ओर अनिष्ठा का भाव महसूस करने लंगे। श्रुति परम्परा उपनिषद् तक विकसित होकर अपने चर्म पर आकर रुकी । इतिहास और पुराणों की रचना हुई स्मार्त अनुष्ठान श्रौत कमों का स्थान लेंगे । श्रौत स्मार्त से भिन्न एक आराधना पद्धति की खोज जारी थी तब तत्र उपासना का प्रारभ हुआ। शक्ति के उपासक शाक्त शिव के शैव और विष्णु के उपासक वेष्णव उपासना में समर्पित हुए इन्होने नये तात्रिक मार्ग का अनुसरण करना शुरू किया। त्रैवर्णिक स्वय इस उपासना से अलग रहने का भरसक प्रयल करते रहे उतने ही अठिवर्णाश्रमी इस आर अधिक आकृष्ट हुए। त्रेवर्णिकों को यह मार्ग अनुकूल नहीं लगा उसमें उनकी शा] राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ सदियों की प्रतिष्ठा गिएती थी इसलिये इस तत् मार्म को वाम मार्ग बताया गया। सर्वस्ताधाएण के लिये उसका निषेष जितना प्रथल हुआ उतना ही साधारण से साथारण जन भी उस उपासना में स्वयं को ढालने लगा। अतिवर्णाश्रमी का वह आलम्बन सिद्ध होने लगा। तंत्र वी उपासना से मिलने वाली अतिमानवीय चमत्कारिक सिद्धियों से अपने जीवन को सुख से परिपूर्ण करने की होड सी लग गयी। विशेषकर बगाल नेपाल में इसका प्रचार भी बहुत हुआ। परन्तु तत्र की दुप्कर सापना और थोडी सी चूक होने पर होने वाली अत्यधिक हानि से लोग भयभीत हुए। दूसरे त्नों ने यज्रगाग और बलि के रूप को भी एक निश्चित सीमा तक स्वीकार किया यात्रो वे वेदधर्म से मूल रूप से कहीं न कहीं जुड़े रहे और सभवतः इसी कारण जन सामान्य से यह उपासना अलग थलग पड़ गयी। समाज की स्थिति ऐसी हो गई कि कोई श्रुति परम्पण को मानता कोई शाक्त तत्र को तो कोई शैव वत्र को । कुछ लोग ऐसे भी थे जो मूक दर्शक रह गये। व्यामोह की यह स्थिति तब तक बनी रही जब तक मत्स्पेद्धनाथ के शिष्य गुरु गोरखनाथ प्रकट नहीं हुए। इस समय तक भारत मे पर्याप्त रूप में विदेशियों का आगमन हो चुका था और समाज मे व्याप्त व्यामोह को उन्होंने और उलझा दिया था। श्रुति अथवा श्रौत धर्म था तो बद्धमूल पर उसके अनुयायी और उसे न मानते वाले भी दुविषा में पडे थे। स्मार्त परम्पत ने भी जिन्हें स्वीकार नहीं किया ऐसे अन्यान्य तात्रिक ठपासनाओं में भटके लोगों को और खास कर उन लोगों को जो विदेशियों के धर्म को स्वीकार कर धर्मान्तरिव होते जा रहे थे गोरखनाथ ने अपने झढे के नौचे इकट्ठा करना आर किया। नाथ मत में न किसो जाति का बघन था न किसी धर्म का चाहे पुरुष हो या र्टी। इसलिये जिन्हें किसी वर्ण ने स्वीकार न किया जो अपनी कोई जाति नहीं बता सकते थे अपना इहलोक सुधारने के लिये जिनके पास कोई प्रशस्त मार्ग सुलभ नहीं था वे सब नाथानुयायी होते गये। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे के सिद्धान्त पर आधारित नाथ जीवन प्रणाली में योग हठयोग को बडा महत्व दिया गया और सुप्त कुण्डलिनी को जागृत कर सहस्रार का भेदन कर अपने मस्तक में प्रचण्ड प्रकाशमय ब्रह्म के दर्शन करना योगी का लक्ष्य होता है। नाथ सप्रदाय मे स्वीकार तो सब लोगों क किया परन्तु स्वयं को उसके लिये योग्य सिद्ध करना हर एक के बस कौ बाव नहीं थी। योग के लिये ब्रह्मचर्थ और खौविषयक अनासकिति पहली शर्व थी और कामिनी के क्रोड में पलने वाले विषय वासनाभिभूव सामान्य व्यक्ति के लिये वह अम्म्भव था। समस्त उत्तर भारत में मानो नाथ संप्रदाय को एक लहर चली। वर्तमान राजस्थान का भूभाग उससे बच नहीं पाया। मेवाड के बाप्पा राइल और उनके गुरु हारीत ऋषि के द्वारा प्रचारित लकुलोश सप्रदाय व आबू के परमारों की शैव उपासना ने भाटी शासकों के गुरु के रूप में राजस्थान में आये नाथों को लोकप्रियता का सिरे दरवाजा ही खोल भूमिका [रा] दिया। नाथ सप्रदाय सबके लिये खुला था हिन्दू हो या मुसलमान इससे धर्मान्तरण पर कुछ ग्रेक लगी और न हिन्दू न मुसलमान वाली जीवन पद्धति को प्रश्नय मिला। राजस्थान के प्रसिद्ध पाबूजी रामदेव आदि पाँच पीगें की लोकप्रियता को भी इसी के मूल में देखना चाहिये। योग की महिमा जानते हुए भी उसकी कठिनता का अनुभव करने पर उसके अनुयायियों जिममें अतिवर्णश्रमी और विधर्मियों कौ बहुलवा थी ने अपनी उपासना के लिये नये नये ररींके खोजने शुरू किये। इससे नाथ सम्रदाय में अनेक विकृतिया आ गईं और धीरे धीरे नाथ पीठ भोग पीठों में परिवर्तित होते गये। विशेषकर मारवाड में जोगी जगम गुसाई सेवडा कालबेलिये आदि जातियों में नाथ के विकृत स्वरूप को हम आज भी देख सकते हैं। इन लोगों ने नाथों के बाह्य स्वरूप को बनाये रखा। परन्तु नाथ समप्रदाय के यों दूटते रहने से नाथों कौ उपासना पद्धति वैदिक कर्मकाण्ड और तात्रिक उपासना के सस्कारों ने समाज में अनेक प्रकार को साधना पद्धतियों को जन्म दिया क्यों की सनातन काल से चली आ रही मनुष्य की देवयु बनकर दिव्यत्व प्राप्त करने की कामना अभी मरी नहीं थी। इन साधनाओं को हम लोकसाधना कह सकते हैं। मारवाड में प्रच्छन्न रूप से चला कूण्डापथ भी इन्हीं लोकसाथनाओं का एक प्रकार कहा जा सकता है जिससे रूपादे और मल्लीनाथ किमी न किसी प्रकार से जुडे रहे हैं। राष्ट्र रक्षा और जनकल्याण का कार्य करते हुए शरीर के क्षीण होने पर वानप्रस्थी होकर वृक्ष की शाखाओं का आश्रय लेने वाले भरतवशी क्षत्रियों की तरह मारवाड के गाठौड वश के यशस्वी शासक के रूप में प्रसिद्ध मल््लीनाथ “मालो रावल पीर” नाम से जमश्रद्धा के प्रिय पात्र बने। राजस्थान का दक्षिण पश्चिमी भू भाग उन्हीं के नाम पर मालाणी कहलाया। सुल्तान की सेना के तेर्ह मोंचों के साथ लडने वाले दिल्लीश्वर को अपनी चतुराई और बाहुबल से प्रसल कर गुजरात विजय कर इतिहास में अमर हुए दुर्षर्ष योद्धा मल्लोनाथ ने अपना राज्य अपने भतीजे चूँडा को देकर किस प्रकार राठौड शासन को मारवाड में स्थिर किया यह बात इतिहासविदों के लिये नयी नहीं है पर स्वार्जित प्रदेश को यों छोड देना आसान नहीं था। वि १३८५ १४५६ उनके जीवन सपर्ष और विस्ल जोवन को अवधि माना जाता है। प्रसिद्ध पौर बावा रामदेव के ये न केवल समकालीन थे बल्कि उनके कृपा प्रसाद से अनुग्हीत भी हुए थे और अपनी उपासना और ठपस्था से अनेक चमत्कारिक सिद्धिया उन्हें प्राप्त हो गयो थी। उनका क्षात्र तेज विरक्ति से कैसे अभिषूत हुआ और उनका जीवन सर्वभूतहिते रत” कैसे हुआ यह चर्चा उनकी पल्ली रूपादे के त्याग भक्ति ऑअलौविक विवेचन से प्रारभ करना अधिक उपयुक्त होगा। मल्लीनाथ और रूपादे के आविभषलव को भ इतिहास से इतर अनेक लोक्मान्यताए, प्रचलित रहो हैं। सभव है कि उनम अश्लाकिल्व को देखकर इन्हें गढा गया हो और वे इतिहास को दृष्टि से कहीं न ठहस्त॥हय। पर उनके कार्यों को लोकोत्तरता को देखकर [७] गजस्थान सन्त शिगेमणि णाणी रूपादे और मल्लीनाथ सदियों की प्रत्तिष् गिरती थी इसलिये इस तत्र मार्ग को याम मार्ग बताया गया। सर्वसायारण के लिये उसका निषेष जितना प्रबल हुआ उतना ही साथारण से साधारण जन भी उस उपासना में स्वयं को ढालने लगा। अतिवर्णाश्रमी का वह आलम्बन सिद्ध होने लगा। तत्र की उपासना से मिलने वाली अतिमानवोय चमत्कारिक सिद्धियों से अपने जीवन को सुख से परिपूर्ण करने वी होड़ सी लग गयो। विशेषकर बगाल नेपाल में इसका प्रचार भी बहुत हुआ। परन्तु तत्र की दुष्कर साथना और थोड़ी सी चूक हेंने पर होने वाली अत्यधिक हानि से लोग भयभीव हुए। दूसरे त्त्रों ने यज्ञगाग और बलि के रूप को भी एक निश्चित सीमा तक स्वीकार किया यानी वे वेदधर्म से मूल रूप से कहीं न कहीं जुडे रहे और सभवत' इसी कारण जन सामान्य से यह उपासना अलग चलग पड गयी। समाज की स्थिति ऐसी हो गई कि कोई श्रुति परम्पता को भावता बोई शाक्त तत्र को तो कोई शैब तत्र को। कुछ लोग ऐसे भी थे जो मूक दर्शक रह गये। व्यामोह की यह स्थिति तब तक बनी रही जब तक मल्स्येद्धनाथ के शिष्य गुरु गोरखनाथ प्रकट नहीं हुए। इस समय तक भारत में पर्याप्त रूप में विदेशियों का आगमन हो चुका था और समाज मे व्याप्त व्यामोह को उन्होंने और उलझा दिया था। श्रुति अथवा श्रौत धर्म था तो बद्धमूल पर उसके अनुयायी और उसे न मानने वाले भी दुविषा में पडे थे। स्मार्त परम्परा ने भी जिन्हें स्वीकार मरीं किया ऐसे अन्यान्य ताब्रिक उपासनाओं में भटके लोगों को और खास कर उन लोगों को जो विदेशियों के धर्म को स्वीकार कर धर्मान्तरित होते जा रहे थे गोरखनाथ ने अपने झड़े के नौचे इकट्ठा करना आरभ किया। नाथ मत में न किसी जाति का बथन था न किसी धर्म का चाहे पुरुष हो या र्री। इसलिये जिन्हें क्सी वर्ण ने स्वीकार न किया जो अपनी कोई जाति नहीं बता सकते थे अपना इहलोक सुधारने के लिये जिनके पास कोई भ्रशस्त मार्ग सुलभ नहीं था वे सब नाथानुयायी होते गये। यथा पिण्डे तथा ब्ह्माण्डे के सिद्धान्त पर आधारित नाथ जीवन प्रणाली में योग हठयोग को बड़ा महत्व दिया गया और सुप्त कुण्डलिनी को जागृत कर सहस्रार का भेदन कर अपने मस्तक में प्रचण्ड प्रकाशमय ब्रह्म के दर्शन करता योगी का लक्ष्य होता है। नाथ सप्रदाय मे स्वीकार तो सब लोगों क किया परन्तु स्वयं को उसके लिये योग्य सिद्ध करना हर एक के बस की बात नहीं थी। योग के लिये इह्मचर्य और स्रैविषयक अनासक्ति पहली शर्त थी और कामिनी के क्रोड में पलने वाले विषय वासनाभिभूव सामान्य व्यक्ति के लिये वह असम्भव था। समस्त उत्तर भारत में मानो नाथ सप्रदाय की एक लहर चली। वतैमान राजस्थान का भूमाग उससे बच नहीं पाया। मेवाड के बाप्पा रावल और उनके गुरु हारीत ऋषि के द्वारा भ्रवारित लकुलीश सप्रदाव व आबू के परमारों वी शैव उपासना ने भाटी शासकों के गुरु के रूप में राजस्थान में आये नाथों की लोकप्रियता का सिरे दरवाजा हो खोल भूमिका [श।] दिया। नाथ सप्रदाय सबके लिये खुला था हिन्दू हो या मुसलमान इससे धर्मान्तरण पर कुछ रोक लगी और म हिन्दू न मुसलमान वाली जीवन पद्धति को प्रश्नय मिला। राजस्थान के प्रसिद्ध पाबूजी रामदेव आदि पाँच पोरें की लोकप्रियता को भी इसी के मूल में देखना चाहिये। योग की महिमा जानते हुए भी उसकी कठिनता का अनुभव करने पर उसके अनुयायियों जिनमें अतिवर्णाश्रमी और विधर्मियों की बहुलदा थी ने अपनी उपासना के लिये नये नये तगैके खोजने शुरू किये। इससे नाथ सप्रदाय में अनेक विकृतिया आ गईं और धीरे धीरे नाथ पीठ भोग पौठों में परिवर्तित होते गये। विशेषकर मारवाड में जोगी जगम गुसाई सेवडा कालबेलिये आदि जातियों में नाथ के विकृत स्वरूप को हम आज भी देख सकते हैं। इन लोगों ने नाथों के बाह्य स्वरूप को बनाये रखा। परन्तु नाथ सप्रदाय के यों टूटते रहने से नाथों की उपासना पद्धति वैदिक कर्मकाण्ड और तात्रिक उपासना के सस्कारों ने समाज में अनेक प्रकार की साधना पद्धतियों को जन्म दिया क्यों की सनातन काल से चलो आ रही मनुष्य की देवयु बनकर दिव्यत्व प्राप्त करने की कामना अभी मी नहीं थी। इन साधनाओं को €म लोकसाथना कह सकते हैं। मारवाड में प्रच्छन्न रूप से चला कूण्डापथ भी इन्हीं लोकसाधनाओं का एक प्रकार कहा जा सकता है जिससे रूपादे और मल्लीनाथ किमी न किसी प्रकार से जुड़े रहे हैं। राष्ट्र रक्षा और जनकल्याण का कार्य करते हुए शरीर के श्लीण होने पर वानप्रस्थी होकर वृक्ष की शाखाओं का आश्रय लेने वाले भरतवशी श्षत्रियों की तरह मारवाड के राठौड वश के यशस्वी शासक के रूप में प्रसिद्ध मल्लीनाथ “मालो रावल पीर” नाम से जनभ्रद्धा के प्रिय पात्र बने। राजस्थान का दक्षिण पश्चिमी भू भाग उन्हीं के नाम पर मालाणी कहलाया। सुल्तान की सेना के तेरह मोंचों के साथ लड़ने वाले दिल्लीश्वर को अपनी चतुराई और बाहुबल से प्रसन कर गुजरात विजय कर इतिहास में अमर हुए दुर्षर्ष योद्धा मल्लीनाथ ने अपना राज्य अपने भतीजे चूँडा को देकर किस प्रकार राठौड शासन को भारवाड में स्थिर किया यह बात इतिहासविदों के लिये नयी नहीं है पर स्वाजित प्रदेश को यों छोड देना आसान नहीं था। वि १३८५ १४५६ उनके जीवन सघर्ष और विरल जीवन की अवधि माना जाता है। प्रसिद्ध पोर बाबा रामदेव के ये न केवल समकालीन थे बल्कि उनके कृपा असाद से अनुग्रहीत भो हुए थे और अपनी उपासना और उपस्था से अनेक चमत्कारिक सिद्धिया उन्हें प्राप्त हो गयी थी। उनका श्वात्र तेज विरक्ति से केसे अभिभूत हुआ और उनका जीवन *सर्वभूतहिते रत” कैसे हुआ यह चर्चा उनकी पलो रूपादे के त्याग भक्ति औ*।अलौकिक विवेचन से आरभ करना अधिक उपयुक्त होगा। मल्लीनाथ और रूपादे के आविभगकलाको भ॑ इतिहास से इतर अनेक लोकमान्यवाए प्रचलित रहो हैं। सभव है कि उनम अज्ावल्व को देखकर इन्हें गढा गया हो और वे इतिहास की दृष्टि से कहीं न ठल्काई|ँ१ पर उनके कार्यों की लोकोत्तरता को देखकर शश्ण] राजस्थान सन्त शिग्ेमणि शणी रूपादे और मल्लीनाथ ऐसा न होना ही क्दाबित् अधिक आश्चर्यकारी होता! स्वय मल्तीनाथ का जन्म एक थोगी की वृषा से हुआ। शिकार पर गये राव सलखा (कान्हडदे के भाई) को योगी मैं एक पल दिया और उसके सेवन से ठसकी पलियों ने घार पुत्रों को जन्म दिया। उनमें मललीनाथ सबसे बडे बेटे हुए। इसी प्रकार एक अन्य जनश्रुति के अनुसार सलखा महेवा से कुछ सामान अपने गाव ल॑ जा रटे थे कि बाच रास्ते में चार नाहर बैठ थे। सलखा अम्मजस में पड गया। नाहर सामने आना शुभ शकुन था। ज्योतिषियों को सलाह पर वे वस्तुएँ सलखा की पलियों को खिलाई गई। सलखा के चार बेटे हुए सभी पराक्रमों और घूमि के स्वामी बने। जोधपुर के बिलाडा जैताएण टिस्से में मालजी की जन्मपत्री नामक एक झन्दोबदूध रचना आज भी गाई जाती है। उसे स्व शिवर्सिह चोयल ने प्रकाशित क्या था। उसके अनुसार कोई बुधजी नामक भक्त अपने गुरु के साथ तपस्या करने पाटण गये। गुरु ने समाधि लगायी। नुधजी भिथ्षा मॉगने शहर में घूमने लगे। क्सो ने भिक्षा नहीं दी। पर एक कुम्हारिन को उन पर दया आयी। बुधजी ने अपनी चीए लोहार के यहा गिरवी रखकर कुल्हाड़ी ली और जगल में लक्डी काटने गये। १२ वर्ष तक लकड़ी काटते रहे और समय बिताते रहे । समाधि से उठने पर अपने शिष्य के क्झ्ििर पर बाल न देखकर गुर ने पूछा यह कैसे हुआ? तब शिष्य की व्यथा से पीड़ित गुरु ने शाप दिया पाटन पत्थर हो। शिष्य की इच्छापर केवल कुम्हार का परिवार बच गया। कुम्हार और कुम्हारिन को महेवा का स्वामी मल््लीनाथ और रूपादे राणी उसका बेटा जगमाल गधी को पालतु गाय और बछडी को घोड़ी बनने का वरदान दिया गमा। घारू माल रूपादे की वेल के प्रारभ में किसी अग्रसेन राजा और उसके नौकर सालरिया को गुरु और बुधजी के स्थान पर पात्र बनाया गया है। वे भी विरक््त होकर पाटन गये वर्हों कुम्हार के स्थान पर माली के परिवार को बचाया जिसकी स्वामिनी कोई रूपा थो। इसी प्रकार रूपादे की वेल के प्रारध में लालर की भी एक कथा आती है। काठियावाड के किसी जागीरदार की बेदी थी लालर। पिता चारण और पायें का काठियावाडी घोडे दान देना चहते थे परन्तु वलावम्था के कारण वे लाचार हो गये थे । मरत॑ समय लालर ने अपने पिता का उनको यह इच्छा पूरो करने का वचन दिया था। उसने जब काठियावाड पर आक्रमण क्या तब मल्लोनाथ भी लूट पाट के लिये उसी क्षेत्र में पहुंचे हुए थे। पुरुष वेष धघारी लालसिंह को जब नशतें समय मल्लीनाथ ने देखा वो वे आसक्त हो गये और विवाह का प्रस्ताव रखा। तब लालर ने कहा मेरा यह जन्म तो पूरा हा गया। अब मैं वालाबदश के घर जन्म लूगी बहा मेश् रूपा नाम होगा। आप चार प्रहर शिकार खोजने आना और विवाह कर लेना। रूपादे की वेल में वालाबदय को बेटी रूपा स मल्लीनाथ क॑ विवाह का बहुत रोचक वर्णन किया गया है। वालाबदरा प्रसिद्ध नाथ योगी उगमस्ती भाटी के शिष्य थे उगमसी का आशीर्वाद रूपादे को भी मिला। भूमिका [०] मल्लीनाथ के नाथ पथमें दीक्षित होने की घटना का एक राजस्थानी बात में विवरण मिलता है--मल्लीनाथ पथ में आयौ तै रौबात।” इसे बोकानेर के डा मनोहर शर्मा ने प्रकाशित किया है। रूपादे अपने खेत की रखवाली कर रही थी तब प्यासे ठगमसी घूमते घूमते वहा आये और पानी मागा। रूपादे ने कलश आगे किया उगमसी साथ पानीपी गये। रूपा को चिन्ता हुै। और लोगों को क्या पिलाउ? तब उगमसी ने घडे पर हाथ रखकर कहा साहब पूरे और घडा भर गया। उगमसी ने रूपा के हाथ में ताबे कौ वेल पहनायी और कहा कि द्वितीया के दिन सात घरों से अनाज मागो और काम्बडियों में बाट दो। उगमसी को अनन्य भक्त इसी रूपा के साथ मल्लोनाथ ने विवाह किया। मल्लीनाथ की पहली पली चद्रावछ थी। रूपादे से जब उनका विवाह हुआ वे निवृति मार्ग को ओर उन्मुख नहीं हुए थे। राजकीय ऐश्वर्य और विलास उपभोग की सामग्री उनके चरणों में थी। रूपादे की बालकाल्य से निरन्तर बहती भक्ति मदाकिनी का प्रवाह अब अवरुद्ध होने लगा। भालानी की राजघानी महेवा में आये उगमसी भाटी द्वारा आयोजित जागरण में आने का एक दिन रूपादे को निमत्रण मिला। जावे कैसे ? महलों के दरवाजे बन्द थे। रूपादे की तीब्र इच्छा और गुरु कृपा से ताले अपने आप खुल जाते हैं और रूपादे पहुँच ही जाती है। इधर मल्लीनाथ के गुस्से का पार नहीं। खबर मिलने पर वे तलवार ले कर चले। एक घाव में सोलह टुकडे करने वे चले थे। रूपादे के साथ थे रामा पीर। रूपादे की थाली में मास का प्रसाद था। तलवार की नोक से जब थाली का आवरण हटाया तो थाली में तरह तरह के फूल और फल देखकर मल्लीनाथ के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा) वह क्षण था जब मल्लोनाथ का घमण्ड और क्रोघ ठडा पड गया वे रूपादे के पथ में शरण दूढने लगे। उन्होंने भी गुरु उगमसी की कृपा की कस मागी। अतुलित बलशाली मल्लीनाथ उगमसी के सत्व और तेज के सामने झुक गये। द्वितीया की रात्रि को किये गये इस जागरण और मल्लीनाथ को उगमसझिह द्वारा दी गयी दीक्षा के कुछ पहलुओं पर यहा विचार करना आवश्यक है। इस प्रकार के जागरण आय शुक्ल पक्ष की द्वितीया कौ रात को ही आयोजित होते हैं। चैत्र अथवा भाद्व पद कौ द्वितीया को अधिक पुण्यकारक माना जाता है। श्रौत और स्मार्त यज्ञों के लिये भी शुक्लपश्च ही अधिक उपयुक्त माना गया है। जागरण के स्थान पाट पूजा जाता है और गणांडल मे घोर कलश वो स्थापना वी जानी है इसके पीछे छिपी पवित्रता और शष्टीय एकता बा भावना का हर भारतीय क॑ लिये कितना महत्व है यह अवश्य ही उनागर होता है। अलख निशकार ईश्वर के प्रतीक के रूप में हर सहभागी के भाम को ज्योति का लगाया जाना सहसा नाथों की यौगिक उपासना में अपने मस्तक में ब्रह्माण्ड पुरुष (अकाशमय) का दर्शन करने की लालमा का प्रतिनिधित्व करता सा प्रतीत होता है। जागरण को गोपनायदा और मध्यरात्रि से भार तक क॑ कायकलाप और प्रसाद के रूप में मास राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ का सेवन सभ्य समाज द्वारा तिरस्कृत वाममार्गोय तत्र साधनाका हो प्रभाव माना जा सकता है। मगल कार्य में देवताओं को निमत्रण देना श्रौत और स्मार्त परम्पया है। रूपादे की बेल और मल्लीनाथ कां बाव दोनों हो मल्लीनाथ को उगमसी के द्वारा दी गयी दीक्षा का स्पष्ट सकेत करते हैं। पीत पट का पर्दा लटकाकर मल्लीताथ को गुरु के सामने बैठाया गया उनकी आँखे बाय दी गयी कानों में कुण्डल पहनाये गये सेली सीगी घारण करायी गयी राणा रतनसी ने सिरपर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। उगमसी ने गुरुमत् देकर मल्लीताथ को अपना शिष्य बनाया। कानों में कुण्डल और सेली सींगी धारण कराने से निस्सशयत यह कहा जा सकता है कि मूलतः नाथ पथ में दी जाने वाली दीक्षा से इस की बहुत समानता है। गुरु के प्रति अगाघ निष्ठा और शिष्य के समर्पण भाव को भी नाथों की गुरुभक्ति के अथवा भक्ति मूल में देखना यहा अधिक समीचीन होगा। इस भ्रकार वैदिक और स्मार्त कर्मकाण्ड तात्रिक उपासना योग और नाथ सम्रदाय के सिद्धान्तों को किसो न किसी रूप में अपनाकर लोक-उपासनां के जो आयाम खुले उनमें कृष्डापथ के अलावा आई पथ गूदड पथ दसा पथ अलखिया पथ आदि सापनाओं का विकास हुआ। आगधना के लिये जाविगत अधिकारों की समाप्ति वी घोषणा सिद्ध होने लगी। वेद के निकार ईश्वर की कल्पना योग और नाथ मत में जीवित रही और उसने निराकार की उपासना का साकार रूप लिया। निगकार को अगम अगोचर अलख आदि रूपों में अभिव्यक्त किया गया। इसे निर्गुण भक्ति के मूल रूप में स्वीकार करने में को” सकोच की स्थिति नहीं होनी चाहिये। नारद पचरात्र आदि ग्रथों म॑ भक्ति के स्वरूप का जो विवेचन किया गया है बह इस भक्ति से भिल है। नाथ पथ में दीक्षित हुए व्यक्ति को जिन सोपानों को पार करना पडता था उसमें एक सीमा तक गुरु उसका सहायक और मार्ग दर्शक हुआ करता था। यौगिक क्रियाओं में इद्रियों के दमन के लिये आवश्यक ब्रह्मचर्य पर गुरु का निमंत्रण रहता। दुसरे शब्दों में विना गुरु के शिप्य की बोई गति नहीं हो सकठी थी। इससे गुरुपक्ति अगाध और गैष्ठिक होती गयी। ब्रह्मचारे को कुष्डलिनी जागृत करने पर चक्रों की भेदन कर जिस प्रकाश पुरुष के दर्शन करने होते थे उसका आभास वह अपने गुरु में देखने लगा। मों गोविन्द से गुरुवर हुए गुरु के श्रति धीरे धीरे शिष्य के मन में श्रद्धा और भक्ति का सचार हुआ। यह भक्तिभाव अलख की आग्षना करे लगा। याग साधना की विषम सीढ़ियों को चढने के बजाय यह मार्ग जन सामान्य को सुगम था। इससे अनीश्वरवादी चिन्तन में रुकावट सी आयी नास्तिकता वो धक्का लगा। व्यक्ति फिर से स्वयं को ईश्वर के निराकार स्वरूप का अश समझकर पुत्र अशी या पूर्ण ब्रह्म या विद्यट पुरुष में समहित होने क लिये आतुर हा उठा उसका देवयु स्वरूप फिर से आभासित होने लगा। नाथ सप्रदाय से क्सिो न क्सिो रूप में सम्बद्ध आचार्य या गुरुओं को ईश्वर स्वरूप माना जाने लगा) राजस्थान के ग्रमदेव हरबू, पाबू, मेहा मागलिया और गागा भूमिका ई»॥ को पौर की मान्यता मिली। दनका विशाल भक्त सप्रदाय आज भी भक्ति को उस अविक्ल धाए की हरगों से आप्लावित है। इस भक्ति घाय को पृथ्वीनाथ ने १७ वा शत में नहीं बल्कि रूपादे ने १५ थीं शी में प्रस़वित किया। योग से भक्तियोग के विकास में रूपादे को भूमिका पर अब तक विचार नहीं हो पाया है ठसका प्रास्भ हमें कला है। ऊपरी विवेचन से स्पष्ट है रि ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य को छोड़कर जिन जिन जातियों का प्रादुर्भाव हुआ थे इन साधनाओं की ओर आकृष्ट हुईं। आपिजात्य वर्ग में चल रही गुहा उपासना में प्रवेश के लिये इन व्यक्तियों में एक अलग सगठन की भावना का विकास हुआ। यह वर्ग समाज के निचले से निचले तबके को भी अपने साथ ले चला। इन में अशिक्षित अधिक थे शिक्षित कम। इनकी साधना की भ्रक्रिया अत्यन्त गोपनीय रही पर गुई के जीवन और उसवी भक्ति की अभिव्यक्तियों को मौखिक रूप से वाणी के माध्यम से जीविव रखा गया। प्रमुखतः मेघवालों तथा अन्य सभी अस्पृश्य कही गयी जातियों ने रूपादे की वाणियों पदों और अन्य रचनाओं को मौखिक रूप में सुरक्षित रखा। अन्यथा लोक साहित्य वी यह थाही कब को लुप्त हो गयी होती। रूपादे और मल्लीनाथ का पूर्व जन्म बृतान्त, उनका विवाह जागरण और अन्त में मल्लीयाथ जी का इस पथ में दीक्षित होने का विवरण रूपादे की बेल में हां उपलब्ध होता है। अनेक स्थानों पर गायी जाने वाली बेल में समय समय पर बढोठरी होतो रही। यों बेल के चार रूप मिले हैं। बेल के अतिरिक्त रूपादे की वाणिया जो प्रकाशित हैं और चे पद जो अब तक मौखिक रूप में सुरक्षित हैं उनका सकलन परिशिश में दिया है। इसी प्रकार अन्य कवि अथवा कवमित्रियों की रचनाओं को जो किसी न किसी रूप में रूपादे की उपलब्धियों अथवा भक्ति के स्वरूप को प्रकट केरतों है परिशिष्ट में जोडी गयी है। इस समस्त साहित्य पर आधारित रूपादे को भक्ति की विवंचना से पूर्व यह स्पष्ट का आवश्यक है कि यह लोक-साहित्य है। अतः रूपादे की रचनाओं में उसके समय की भाषा को दूढ़ना व्यर्थ है। कई लोगों न॑ स्वय रचना कर छाप रूपादे को रुखी है। तीसरे अनेक स्थानों पर कई व्यक्तियों द्वाा सदियों से गायी जाने के कारण तत्तत् स्थानीय शब्दों क्रियाओं के रूप भी प्रयुक्त हुए हैं। तात्पर्यवः इनके साधु सम्पादन की कोई गुजाईश नहीं रह जाती है। बह लोक का प्रसाद है वह जैसे मिला है उसी रूप में उसे स्वीकार करना श्रेयस्कर है। वैसे भी भक्ति कौ अगाघ भ्रलवित धाण में भाव का महत्व अधिक है शब्दों का कम। उगमसी भाटों के शिष्य और रूपादे के बालसखा धारू मेघवाल ने रूपाद के मन मैं भक्ति के बोौजका अकुरण किया। रूपादे के विवाह क बाद भी धारू उसके साथ मेहवा गये थे रूपा को भक्ति के इस पथ में दीक्षित करने का दायित्व गुरु ने उन्हे सौंपा था और उसी वचन के निर्वाह के लिये वे साथ गये थे। मल्लीनाथ को धार ने व्यापक दृष्टिकोण का उपदेश दिया है “केवल अपना कल्याण मव्र सोचो नहाना कि] शाजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ है तो समुद्र में नहाओ पर नारी से हेव मत रखो वास्ता रखना है वो पर्वत से रखो छोटी पहाडियो से नहीं। साधु का जीवन बडा कठिन होवा है तुम्हें खाड से मिश्री बनना है अलख को जगाना है। रूपादे जम्मा अथवा जागरण से लौटते नियकार जगदीश को पुकारती है क्योंकि राम भजन से ही वेदना का अन्च होना है-- प्रजा एम बेदन नहीं व्यापै। राम ही सत् है इसलिये ठगमसी कहते हैं सत् की खेतों करो सवडे ये बाड सजोरी खेती खरसण साच कमावों काई थूला बप्रयवों म्हाय प्राइडा! खंती करनां है ता हांरों की खेती करों सच्चे साहेब का ध्यान करो तभी तुम अमीरस का पात कर सकोगे। तुम्हारी पार्चो इंद्रियों को वश में रखो ठन पाच सुवंटियों को मोती का चुग्या डालो-- सुखमण सरवरियां पाच सुवटिया मोतीडा रो चूण चुगावो। मल्लीनीथ और रूपादे ने यही क्या सत्कर्म में प्रवृत करना तभी जन्म का फेर समाप्त होगा फिर से भोग भ्रमण नहीं करना पडेगा। यह मुक्ति योगी वी नहीं अपितु एक भक्त की है। इसी मुक्ति के लिये रूपाद अलख का अपना सैंया मानवी है कभी अल्ला कहती है और परम तत्व के साथ अपने भौतिक सम्बन्ध का अनुभव करती है। वह राम कहे या जगदीश है तो वह एक ही। न वह निर्गुण है न सगुण। वह उभयरूप है भो और नहीं भी है। वास्तव में कोई शब्दावली उसका पूरा बखान तो कर भी नहीं सकती उसका क्चित आभास कंग्रती है। इसलिये रूपदे को भक्ति वी किसी विशेष धागा से जोडने का अर्थ होगा कि हम उसकी मूल भावना को ही नहीं समझ रहे हैं। बह जागरण में सबको ले जाना चाहती हे क्यों कि आलम प्यार पावणा आनेवाला है। उसका गुरु हा आलम है रूपा उसे समर्पित है) सत् गुरु जब परावणा' है तो विषय में आसक्त जीव को पार लगाग्रा ही उसका काम है। यह गुरु उगमस्ती नहीं जूतों कला रा साई है। उसे सब जगह यह साईं दिखाई देता है-- देव में देव मफ्ाजी अल्ला जुबाला में सई खडक सम्ब भ्राई आप बिश्जे रात्र जह्म देखू साई। जायो म्हाय जूगी कला ये ग्राई।/ भूमिका 8 उसे पाने के लिये भक्तिभाव चाहिये ए जी सुरति बिन कैसा चला? सुरति हाने पर भक्त की नाव सत् गुर ही पार लगाते हैं! पर वह मिलने तक होने वाली विरह व्यथा की पीड़ा बडी भारी है। इसीलिये रूपाद॑ कहती है-- जी रे वीय ज्यरि मत्र में विरह नहीं हो जी ज्याये यूड सरो जीणों। गेरुएं कपडे भस्म और तिलक क्या काम के? जो अग्नि में जला नहीं वह मतिहीन व्यक्ति है। विरह से पीडित होकर गुरु के पास जाओ और तपस्या के सप्राम में अपना सिर दे दा जब तक कोई तडपेगा नहीं उसे कोई मोक्ष नहीं मिलंगा। तडपता व्यक्ति हो निजपद पहचान सकता है वह मदहोश होकर रग का प्याला पीता है-- मंतवाला डूगे मद भ्रीया हो जी रंग पर प्याला प्रीणा। इस मदहोशी में रूपादे आलम को पूछतां ऐै अजी आप तो दो चार दिन की कह गये थे अब चौथा युग है आप के इन्तजार में मैं खडी खडी थक गयी हूं मैं आपको पत्र लिखू वो उसे खाली पढ़ लेने से क्या? लिखू म्हाया सायबा कागदिया दोय नै चार भ्रणिया हुवौँ तो रे काई गुणियों हुवों वो गजा बाच जो॥ वह अपने प्रियतम को पाने के लिये कभी जोगण को वेष करती है तो कभो मालण का। उस के स्वागत के लिये फूल गूथती है सरोवर के दोनों ओर खडी खडी दिज्ाओं को ताकती रहती है। कभी वह प्रियदम की हाड मास का शरीर घारी मानकर कहती है ओरे हीगें के व्यापारी । घर तो आवो खोर बनाऊंगो पतली गटिया बनाऊगीं मीठे चावल बनाऊगी लेकिन अब विलम्ब मत करे। सैंया या आलम की प्रतीक्षा कई जन्मों की कई युभ्ों वी है। वह क्यों नहीं रे ? बह कहती है साय ब्रह्माण्ड खोजकर देख लो उसके सिवा दूसरा कोई नजर नहीं आयेगा-- सोई बियजे सब रे बीच में हो जी देखो अधर ठहरायो / हा रे वीय सगवब्धे ब्रह्माण्ड फ़िर देख लो दूजो कोई वीजर नहीं आणो। वह है तो सब जगह पर मिलता कसी किसी को ही है। उसे देखने के लिये अन्तृंहि चाहिये वह इसी काया में है। यह काया एक नगरी है उसका वह राजा है-- स्रोने हदा महल रूपेै हदा छाजा होजी ्ण] राजस्थान सन्त शिग्रेमणि राणी ख्पादे और मल्लीनाथ यज करे काया नयती को यजा। जब यह काया ढह जाती है तो आत्मस्वरूप को न पहचाने वाला यह राजा विलखवा फिरता है। यह दोष और किसी का नहीं स्वय का ही है। शरीरस्थ ब्रह्म का अश अपनी खुशी से दीन हीन हो जावा है औरूस्वय प्रमर बना अटक जाता है-- हाय रे वींश अपपी खुशी से दीन भयो हो जी नाना रचाया मन मायलों ग्रान्यों नहीं हो जी फ़िरफ़िर थोवा खाया इससे मुक्त होने के लिये पर ब्रह्म या अलख के साथ एकत्व भाव स्थापित होना चाहिये द्विधा भाव किसी काम का नहीं-- एक होय जद चालसी दोय रया अतुज्ञवै। एकत्व भावना के लिये चाहिये गीता की स्थिवप्रज्ञता। उसके लिये सुख दुखातीत होना पड़ता है-- दुख ने दुख समझे नहीं सुखयू हरख न होय रूपए कहे ससय नहीं जीवत मुकति जोग। यह असिधाश ब्रत है इसे सुगर ही पालन कर सकता है नुगग नहीं। रूपादे सारे ससार वो सुगण बनाना चाहती है। सुगण बनने को शर्त है सयम और इसीलिये मैल्कि शुद्धता की वह पक्षपाती है. भर” नारी के साथ सग ने करने की वह मल्लीनाथ को चेतावनी देती है। यदि त्रिविध वापों का हरण करना है तो जम्में में गुरु की शरण में जाओ। वह नर नारी में कोई फर्क नहीं करतीपरन्तु सात्विक दाम्पत्य प्रेम का ऐसा महत्व है कि-- दीन बयु परसेस सो था बिन राजी ने होय ड्ण सू म्हेँ आरजी करू याय्र् हटू न कोय। वह कबीर की तरह केवल निंदक को पास में ही नहीं रखना चाहती वह उसे सुधारा चाहती है-- बिंदक नै ई लेखा सुधार अपया बगासा हे। अपयो बेदी न दीसे कोय सबय सहणा है कुछ सुषणा ने कहणा रे। सन्त तुकायम की तरह वह सरे ससार का कल्याण करता चाहती है-- ग भूमिका हि हाथ में आयो हे आयो जीव अब खाली न॑ जाय॑ आये ने वियवा हे जगयू पार लगावा है। वह ससार को अपने से अलग मानती ही नहीं है-- सावों प्रेम म्हाये स्थाम सूं जगयू किसदो हेव। जय स्टायू अलयो नहीं मैं हूँ जय रे साय ॥ दर असल रूपादे नार्ों के प्रभाव से पूर्णठ मुक्द नहीं हो पाई थी। इसलिये कभी वह ब्रह्माण्ड पुरुष के गले में सोने के तार में लटकी सेली के रूप में स्वय को देखती है तो कभी निराकार परबह्म से अपना अद्वैठ भाव स्थापन करती है। निराकार की ठपासना में गुरु उसका मार्गदर्शक सी नहीं है वह उसमें परब्रह्य का दर्शन करती है। रूपादे का नाथों से एक महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि उसका निशकार के प्रति समर्पण भाव है, वह स्वय को उसके अश के रूप में अनुभव करती है। वह योग को नहीं प्रेम को भक्ति का आपार मानती है। यह वह प्रेम हो था जिसने रूपादे को समाज के उन लाखों उपेध्िद और दलित त्ोगों से जोड़ दिया। रूपादे ने उन्हें गले लगाया। उसे अपनी मुक्ति की चिन्ता नहीं थो जनता जनादन का ठद्धार ही उसके जीवन का लक्ष्य बना। तत्कालीन दलित समाज में उसने चेतना और आत्मविश्वास को जगाया मनुष्यों को समानता के सिद्धान्तों को उसने व्यावहारिक रूप दिया और वेदान्त के अद्वैठ भाव को जन जन में व्याप्त कर समाज को आस्तिक बताये रखने का अभूतपूर्व कार्य किया। भक्ति तरगिणों वो ठसने कमीर साहब से १०० वर्ष पूर्व निर्शरित किया। उसके भक्ति स्वरूप को लेकर मीरा से तुलना करने के प्रयल किये गये हैं तथापि मेरी समझ में रूपादे ने विकट परिस्थितियों में नास्तिक और दिशाहीन होते समाज को दिगृ भ्रमित नहीं होने दिया उसमें आस्तिकवा को फिर से जागृत किया और भ्रेम भक्ति का सूउपात किया। मीरा की परिस्थितिया भिन्न थीं कार्यक्षेद भिल था। दलितों के उद्धार में लगी झूपादे को चह भ्रप्तिद्धि मिलती भी कैसे जो मोश या दादू को मिली? अतः घुलना के स्थान पर हम यदि यह कहें की मीणा और दादू की भक्ति स्नोतस्विनी के आ्ररभिक निर्झरण का कार्य रूपादे ने किया है तो कोई व्याजस्तुवि नहीं होगो। समाज के दलिव वर्ग को भक्त को ओर उन्मुख करने वाली रूपादे के कार्य को महत्ता का मूल्याकन समाज का आभिवात्य वर्ग कर नहीं सका--कारण कुछ भी रहे होंगे। इसीलिये वह मी को तरह मब््रदेश को भक्तिधार का विश्व में प्रतिनिधित्व ने कर सकौ। पर कच्छ भुज तथा गुजरात के क्षेत्र वह तोरल जेसल के साथ अब भी [हु राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ पूजी जाती है। गुजरात में प्रसारित उसके भक्तिस्वरूप की समीक्षा इसी पुस्तक में अस्तुत करने का प्रयास किया गया है। विश्व रूप कमठाणे को उसके कारगर से मानव मात्र को परबह्म से भक्त को ईश्वर से मिलाने की इच्छा रखने वाली रूपाद के जीवन और भक्ति स्वरूप के जख्यान के पुरोबाक् सदूश किया गया यह वाणी विलास हमें अपने स्वत्व की पहचान करने में समाज में आस्तिकता को प्रदिष्ठापना में और अन्तत हमारे अगणित ज्ञात अज्ञाव पापों के विनाश में यत्किचित भो सहायक सिद्ध होगा हो मेरा यह प्रयास सार्थक माना जा सकेगा। मेरे इस प्रयल को स्वीकार कर उसे पूर्णत्व प्रदान काने में राणी भटियाणी ट्रस्ट जस्नोल के न्यासी ठा नाहरसिंह ने जो अपूर्व सहयोग दिया और लम्ब लम्बायमान कार्य रोते हुए जिस धोरत्व का परिचय दिया उस उपकार के संवास्वरूप यह पुस्तक आपके हाथों सौंपते हुए मुझे होने वाला समाधान शब्दातीत है। मरे अप्रज तुल्य नाथ साहित्य के तलस्पर्शी विद्वान डा भगवदीलालजी शर्मा की निसलर प्रेरणा और उपयोगी सुझावों के लिये उनका आभार मानने की अपेक्षा इसी प्रकार उनके अनुप्रह की कामना करता हूँ। इस काय में मुझे श्री दीनदयाल ओझा (जैसलमेर) श्री कान्तिलाल जोशी (भुज) सुग्री रेखा सानर्थी (उदयपुर) श्री चौथमल माखन (उदयपुर) श्री श्रीवल्लभ घोष (जोघपुर) श्री सुरजारम पवार (जोघपुर) श्री वीरसिंह हीरसिह चौहान (जामनगर) श्री मुरभा जीवनसिंह राठौड (जामनगर) ने रूपादे की व रचनाएं सौंपी हैं जो अब तक केवल मौखिक परम्पता म॑ हा सुरक्षित था । इनके अलावा डा मनोहर शर्मा स्व श्री अगरचदनाहट स्वश्री गोकुलदासस्व श्री रामगोपाल मोहतास्व बदरीप्रसाद साकरिया डा महेन्द्र भानावत स्व श्री शिवर्सिंह चोयल भगत श्री रामजी हीरसागर श्री सौभाग्यर्सिह शेखावत तथा डा सोनाराम विश्नोई द्वार रूपादे स॑ सम्बन्धित प्रकाशित रचनाओं का मैंने इस पुस्तक के लेखन में उपयोग किया है अत मैं उनका ऋणी हूँ। आधिभौतिक समृद्धि को इद्धधनुपी छगाओं के रगायन में स्वत्व को भूलती जा रही मानवता को उसके देवकाम स्वरूप का क्थित् भी आभास इस पुस्तक से मिल सकें तो मैं इस प्रयल को सार्थक समझुगा। - डॉ डी थी क्षोस्यागर राणी रूपादे और मललीनाथ जीवनगाथा ग़रजस्थान का नाम लेते ही आपको स्मरण होगा राणो पद्चिनी के साथ जौहर की धधक्वी ज्वालाओं का आलिंगन करने वालो सैंकडों वोर राजपूत नारियां का स्वार्भिगन और स्वर्म की रक्षा के लिए मर मिटने वाले महग्रण प्रताप के अतुल पराक्रम का और हसते हसते विष का प्याला होठों से लगाकर अपने साथ राजस्थान को अमर कर देने वाली मीणा का। पराक्रर त्याग और तपस्या की ज़िवेणा बनी राजस्थान का घरता जय इतिहास जिन अनुपम गाधाओं से अमर होता गया उसका उदाहरण अन्यत्र दृढन से भही मिलेगा। युद्ध के सहार से विरवतत होकर बुद की शरण में जाने वाले मौर्यवशी सत्राट अशोक से भी पूर्व ग़जकुल में उत्पल हुए गौतम युद्ध या महाबीर ने सता और भाग को तृणवत् मानते हुए किस प्रकार जनकल्याण के लिए अपने जीवन को दाव यर लगा दिया यह बात आपसे छिपी नहीं है। गौतम बुद्ध आर महादोर से पूर्व क३ हजारा वर्षो का इतिहास देखिये तो यह स्वीकारना पडेगा कि भारत के क्षत्रियों भरतवशियों का अप जीवन का उद्देश्य भी कुछ इसी प्रकार का था। महाकवि कालिदास के शब्दों म॑-- भवनेए् रसाधिकयु पूर्व क्षितिश्षार्थमुशन्ति ये निवासम् / मियतैकपतिव्रतानि पर्वाव् वत्मूलानि यूहीभरवन्ति तशम् ॥ अभिज्ञानशाकुन्तल ध्त्रिय पृथ्वी की रक्षा के लिए ही ग़जप्रसादों में रहत हुए भाग बर्ते हैं परन्तु सन्यस्त होकर वे तरु मूलों को ही अपना निवास मानते हैं। राज्य या सत्ता को न्यास मानकर उनकी रक्षा करते हुए पनकल्याण करना और समय आने पर जनक्ल्याण के साथ आत्मक्ल्याण करने के लिए स्थितप्रज्ञ होकर साथना करना यही हमारे राष्ट्र के क्षत्रियों का आदर्श रहा है। इन आद्शों का पालन करते हुए भक्ति गगा में आक्ठ स्वान कर भगवल्लीन शकर जन सामान्य का मार्गदर्शन करने वाले हरिश्चद्ध तारामती जैठल आस द्रौपदी बलोचद आर सजादे की कथाएं अभी तक भक्तजनों द्वारा गायी जा रही हैं। उन्हो की कथा गाथा ३ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ हो जाती है जो अपने लिये नहीं दूसरों के लिये सामान्य जनों के कल्याण के लिये ही जीते हैं और परहित साधन में हो शरीर छोड मुक्त हो जाते हैं मुक्त होकर भी अनन्त काल तक जन मानस का मार्गदर्शन करते हैं। राजसत्ता में चूर हुए अपने स्वामी मल्लीनाथ को अपनी अदूट भगवद्भ्रक्ति और निष्ठा के बल पर भोग से त्याग में प्रवृतत कराने वाली मालाणी की शणी रूपादे को कथा और समस्त मनुष्य मात्र को समभाव से देखने की उस दम्पवी की दृष्टि उन्हें अनायास ही ऊपर कहे क्षत्रियों के आदर्शों का पालन करने वालो परम्परा से जोड देती है। जैसे--पुरुष प्रकृति के बिना या श्रकृति पुरुष के बिना अधूरी रह जावो है ठीक बैसे ही रूपादे की कथा भी मल्लीनाथ की चर्चा किए बिना दर असल प्रारम्भ ही नहीं होती है। सही रूप में कहा जाय तो वागर्थ की तरह उनको कथा भी परस्पर सम्पृक््त ही है। १ मललीनाथ के पूर्वजों का वृत्तान्त- मल्लीनाथ का सबंध मारवाड के राष्ट्रकूट या राठौड वश से है। राठौड जेसा ।क प्राय सभी इतिहासकारों द्वारा स्वीकार किया जाता है कलौज के जयचन्द के राठौड वश के उत्तराधिकारी हैं। जयचद का नाम प्रसिद्ध सयोगिता हरण से जुडा हुआ है। लगभग १२५० वि में सुल्तान के साथ युद्ध में जयचद की पराजय हुई। उसी युद्ध में जयचद बीरगति को प्राप्त हुए और इसी आधार पर राठौडों का मारवाड में आने का समय १२५० वि के बाद ही माना जाना चाहिए।' जयचन्द के हरिश्चद्ध और वरदायी सेन नामक पुत्र होने की जानकारी मिलती है। हरिश्चद्ध या वरदायी सेन का पुत्र सेतय्म था। इसी सेतराम का पुत्र था राव सौहा या जिसे मारवाड के राठौडों का आदिपुरुष माता जाता है। मारवाड पाली के पास वोतू गाव में मिले १३३० वि के शिलालेख से भी प्रदोव होता है कि सीहा सेतरम का पुत्र था।रे कन्नौज के आस पास महुई में जब मुसलमानों का अधिक उपद्रव होने लगा तब सेवराम मारवाड वी ओर चले और पाली के पललीवाल व्यापारियों के सरक्षक के रूप में अपनी सेवाए देने लगे। इससे पूर्व उन्होंने भीनमाल के ब्राह्मणों की रक्षा के लिए सपर्ष किया। पाली के पास वीठू के पास मुसलमानी सेना के साथ लडवे हुए राव सीहा की युद्ध में मृत्यु हो गयी।र२ राव सौदा के दो पलिया थीं। पहली पली की सन्तान का अधिकार गोयन्दाणे किले प्र रहा और उतकी झोलकी पत्नी से उत्पन्तर हुए तौतों पके ने परि ्थरि मारवाड में अपनी सत्ता को जमाना शुरू किया। उनकी सोलकी यानी का ख्यातें में “गजलदे नाम मिलता है। उनके तीन पुत्र ये--आसथान सोनग और अजई सीहा के देहावसान के समय उनका पाली पर अधिकार था परन्तु आसथान पाली शणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा डे के निकट गूद्दोज नामक स्थान पर ही रहे। डाभी राजपूर्तो को अपनी ओर मिलाकर गुहिलों से खेड छोन लेने का श्रेय आसथान को ही है। खिलजी सुलतान फिरोजशाह द्वितीय की सेना से मुकाबला करते हुए पाली के निकट वि १३४८ में आसथान की मृत्यु हुई थी।+ आसथान के उत्तराधिकारी के झूप में में उनके ज्येष्ठ पुत्र धूहड ने राज्य का अधिकार ग्रहण किया। अपने पराक्रम से पैतृक राज्य में इन्होंने १४० गाव जोड दिए। परिहाएं को हराकर मडोर पर उन्होंने कब्जा भी किया था परन्तु वह कायम नहीं रह सका और थोभ और तरसींगडी के बीच परिहारों का सामना करते हुए वे धसशायी हो गये थे। यह युद्ध समवत १३६६-७० वि के बीच कभी हुआ था।5 धूटड की असामयिक मृत्यु के पश्चात् उनके बडे लडके ग्रयपाल न॑ रूत्ता सालो और बाडमेर कौ ओर पवाररों को परस्त कर महेवा का प्रदेश उन्होंने अपने राज्य में मिलाया। असिद्ध सत पाबूजो राठौड के हत्यारे भाटी फुरडा जो खींची जीदराव के व्यक्ति थे को मास्कर उसके ८४ गावों पर भी रायपाल ने अधिकार कर लिया। रायपाल के गज्यारोहण को भावति उनके स्वर्णवास का समय भी निश्चित नहीं है--इतिहासकार १३०९ १३ वि के मध्य के किसी समय का अनुमान करते है।? लगभग वि. १३१३ में जब रायपाल के पुत्र कनपाल शासक हो गये थे उस समय महेवा का प्रदेश उनकी सीमा में था और इधर जैसलमेर के राज्य से भी इनको सीमाए जुड गई थीं। कनपाल के पुत्र भीम ने भाटी शासकों से युद्ध कर काक नदों को खेड और जैसलमेर की सीमा माना जाना तय किया था। परन्तु भाटी शसक जय तब उपद्रव करते रहे और उनके साथ हो रहे युद्ध में कमपाल मारे गये। इनकी मृत्यु तिथि भी सदिग्प है--वि १३२३ के लगभग।८ कनपाल के साथ ही उनके ज्येष्ठ पुत्र भीम मारे गये थे इसलिए कनपाल का उत्तराधिकार उनके द्वितीय पुत्र गृव जालणसी ने सम्हाला। वे भाटी और सोलकौ दार्नो से टक््वर लेते रहे और स्व प विश्वेश्वस्नाथ रेउ के अनुसार दोनों की सयुक्त सेना का सामना करते हुए १३८५ वि में इन्होंने मृत्यु का आलिंगन कर लिया। जालणसी के बड़े पुत्र राव छाडा ने अपने पिता का उत्तराधिकार सम्हाल लिया।* छाड़ा के समय तक भाटी प्राय रठौडों को परेशान करते रहे । छाडा मे घाटी--शासकों से माग की कि वे कला खाली कर दें और खिराज देना स्वीकार कोँ। परन्तु आटियों पर कोई असर न होता देख छाडा ने जैसलमेर पर आक्रमण कर दिया। भाटी डटे रहे परन्तु विजयश्री हाथ में न आते देख उन्होंने अपनी लडकी का विवाह छाडा से करना स्वीकार किया। पूगल का इतिहास के लेखक ओ्रो हरिसिंह भाटी ने लडकी का नाम कमलादेवा होना लिखा है। इस विवाह के पश्चात् छाडा पाली सोजत भीनमाल और जालोर को लूटते हुए विजय यात्रा से लौट रहे थे तब सोनगग और देवडा चौटान' न डे ग्रजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूणदे और मल्लीनाथ जालोर के निकट रामा नामक गाव में उन पर अचानक घावा बोल दिया। इसी हमले में १४०१ वि में छाडा की क्षत्रियोचित मृत्यु हो गई।१९ राव तीडा जो छाडा के ज्येष्ठ पुत्र थे अपने पिता की मृत्यु का बदला लेना चाहते थे इसलिए सोनगरा चौहानों पर आक्रमण कर उन्होंने भीनमाल जीत लिया। सौवाना के शासक चौहान साठल और सोम तीडा के भानजे लगते थे। मुसलमानों के द्वारा घिर जाने पर तीडा उनकी मदद के लिये पहुचे--उसी युद्ध में तीडा को वोरगति मिली ।१५ राव तीडा के तीन लडके थे--कान्हड त्रिभुवणसी और सलखोती। हमारे कथानायक मल्लीनाथ इन्ही मलखोजी के ज्येष्ठ पुत्र थे। हीडा की मृत्यु के पश्चात् मुसलमानों ने महेवा पर अधिकार कर लिया इधर कान्हडदे की स्थिति भी कमजोर होती गयी। परन्तु कुछ समय पश्चात् कान्टडदे ने फिर से घन जन का सग्रह कर खेड पर अधिकार कर लिया और शान्ति से शासन करने लगे।१९ अपने छोटे भाई सलखा को इन्होंने एक गाव जागीर में दिया था। उसे सलखा वासणी नाम थे आज भी जाना जाता है। सलखा के दो विवाह होने के उल्लेख मिलते हैं। मल्लौनाथ और जैतमाल पहली पली की तथा वीरम और शोभिव दूसरो पली की सन्तान थे ।१३ २ मल्लीमाथ का समय- मल्लीनाथ का नाम माला मालजी मालोजी और मालदे आदि विभिन प्रकारों से हस्तलिखित भ्रथों अथवा मुद्रित पुस्तकों में पाया जाता है। वे माला से मल्लीनाथ कब बने यही दिलचस्प कथा इन पन्नों का विषय है। गुजराती साहित्य में मल्लीनाथ के स्थान पर उन्हें मालदे क नाम से जाना गया है--दूसरी ओर जोहिया राजपूर्वों के नगारची ढाढी बादर जो मल्लीनाथ और वीरम के द्वार लडे गये कई थुद्धों का वर्णन करते हैं वे भी मल्लीनाथ का उल्लेख मालदे के रूप में करते हैं-जैसे गव मालदे गे समो। गुजराती साहित्य में मालदे को मेवाड का शासक माना गया है। मालदे” नाम की लेकर प्राय एक भ्रम पैदा होगा है--चूडा के वशज राव मालदेव का जो शेरशाह सूरी के समसामयिक थे। अत हमें मल्लांनाथ की धर्चा के प्रारम्भ में ही यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिये कि मालोजी या मल्लीनाथ महेवा खेड के शासक रहे थे--उन्हें मेवाड या जोधपुर के राव मालदे झलने की भूल हम नहीं करेंगे। पूर्व में की गई चर्चा से जैसा कि स्पष्ट है मल्लीनाथ एक इतिहास पुरुष हैं उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों या उनकी रानी रूपादे के भक्तिदर्शन की चर्चा से पहले एक इतिहास पुरुष के रूप मे उनका चित्रण इसलिए भो आवश्यक है कि रानी रूपादे के दर्शन वी भी क्सि काल विशेष कीं आधारशिलता पर हीं सर्मीर्चीन बात कीं जा सकें! मारवाड के इतिहासकार आय मल्लीनाथ का जन्म १४१५ वि तथा मृत्यु १४५६ वि में स्वीकार करत हैं ।१* मल्लानाथ रूपादे सबधी ्रचलित काणियों एवं लोक्वार्नाओं के सकलनकर्ता जोधपुर के तिकटस्थ बिलाडा क निवासी स्व श्री शिवर्सिह चोयल मल्लानाथ गणी रूपादे और मललीनाथ जीवनगाथा ५ का जन्म १३८५ वि मानते हैं !१५ उनके समय के सबध में एक और साक्ष्य उपस्थित किया जा सकता है--जैसलमेर के शासक रावल घडसी का। ऊपर राव छाडा के सिलसिले में आई यह बात आपको याद होगी कि भाटियों ने अपनी लडकी कमला देवी का विवाह छाडा के साथ कर दिया था। परन्तु राठौडों कौ लड़कों विमला दंवी का घड़सी भार के साथ विवाह होने की बात को भी कई प्रथकारों और ख़्यातकारों मे स्वीकार किया है।!६ रावल घडसी का समय लगभग १३७२ १४१८ वि (अथवा १३७३ ई) माना गया है। “पूगल का इतिहास के लेखक का कहना है कि १३६१ ६२ वि (१३०५ ई) में सलखा ने अपनी बहन विमलादे का विवाह घडसी भाटी से कराया। सलखा की बहन वो मल्लीनाथ को भुवा हो जाती है। मल्लीनाथ की लडकी और जगमाल की बहन का जैसलमेर के शासक रावल केलण से विवाह होना भी थे लिखते हैं--इस विवाह का समय वि १४३२ के लगभग ठहरता है।*४ सभवत इसी विवाह को ओर नैणसी ने भी इशाप किया है परन्तु वे केलण के स्थान पर घडसी भाटी ही लिख रहे हैं। “मालानी चा इतिहास (अंप्रकाशित) के लेखक ने विमला या विमलादे को मल्लीमाथ की छोरी बहन माना है। सभवत उन्होंने रठौडों की वशावली को आधार माना हो। जैसलमेर का तवारीख और थ्रां ररिसिंह भाटी दोनों हो घडसीं भाटी पर वन विहार के समय अचानक हुए आक्रमण और उनकी मृत्यु की चर्चा करते हैं। हत्या हो जाने पर घडसी के शरीर को उनका घोडा क्ले के अन्दर तक ले आया। तब उनकी रानी विमला दे ने किले के दरवाजे बद करवाये। छ मास की अवधि तक वह सती नहीं हुई --+ राजकाज सम्हालती रहो। फिर उसने केहर को गोद लेने के बाद घिता प्रज्वलित करा अऑग्निप्रवेश किया। यह घटना १४१८ वि की बतायो जाती है १८ विमला दे के विषय में यह भी श्रुति परम्प है कि उसका प्रथम विवाह देवड़ों (चौहानों वी शाख) के यहा पर हुआ। परन्तु मल््लीनाथ के सहयागी के रूप में युद्ध करते हुए घडसी भाटी घायल हों गय थे उनकी सेवा टहल विमलाद के कधों पर आयी ! यह सपर्क सबधों में बदल गया। विमला द॑ ने विवाहित पतिवता स्त्री के ब्रत को निभाया। उसके यश को मुहता नैणसी ने भी गाया है-- बड रावक सरगापुर वसियों विमला दे सहितों बैकुण्ठ ६ एक ओर घडसी की मल्लीनाथ के समसामयिक हाने का बात का कवि ढाढी बादर “वीरवाण” में स्वीकार करते हैं तो दूसरा आर ग्ठौड़ों की घशावलियों के आधार पर मारवाड के इतिहासकार मल्लीनाथ का जन्म (१४१५ वि) लगभग उस समय स्वीकार करते है जो घडसी भाटी का अन्तिम चरण हो स्वांवार किया जा सकता है। हाल ही में गव गणपतर्सिह चोनलवाना जालौर को मिले मल्लोीनाथ के वि १४३७ के त्ाम्रपत्र से उनके शासन काल वी अवधारणा स्थापित की जा सकदी है।र पसन्तु उनका जन्म छच राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ १४१५ वि जिन आधारों पर तय किया गया है उनके प्रमाण ही संदिग्ध दिखाई देते हैं। प विश्वेश्वजनाथ रेठ ने राव सौहय का जन्म ११५१ वि स्वीकार करते हुए हर उत्तराधिकारी का जन्म श्रति व्यक्ति १८ वर्ष बाद निर्धारित किया है। इस आधार पर सलखा का जन्म १३९७ वि माना गया है और मल्लीनाथ का जन्म १४१५ वि ठहरता है।*९ काव्यों और ख्यावों में मिलने वाले विमलादे के १३६२ वि में घडसी के साथ विवाह की समस्या विमला दे को सलखा की बहन मानने पर भी सुलझती नहीं है बल्कि और उलझ जाती है जबकि मल्लीनाथ की पुत्री का केलण के साथ विवाह का समय फिर भी उचित जान पडता है! इसी सबध में ख्यातों में मिलने वाले एक और सदर्भ पर भी विचार करना आवश्यक है। मुहता नैणसी ने** “रावल मालोजी री बाव में मल्लीनाथ के अन्तकाल में रोगग्रस्त होने की चर्चा की है। उस समय प्रदेश में लूट खसोट करने वाले हेमा को दण्ड देने के लिए आयोजित दरबार में मल्लीनाथ के बेटे पोते बैठे थे उमराव हाजिर थे। हेमा को दण्डित करने का बीडा कुभा जगमालोत ने ठउठाया। उसके कुछ समय पश्चात् मल्लीनाथ का स्वर्गवास हुआ और जगमाल ने राजकाज सम्हाल लिया। कुछ हो समय बाद उमरकोट के राणा सोढा माडण की पुत्री की सगाई कुभा के साथ हो गई। यदि इस बात पर विचार करें तो मृत्यु के समय मल्लीनाथ की आयु लगभग ५० ५५ या इससे भी अधिक होना माना जा सकता है। ऐसी परिस्थितियों में उनका जन्म वि १३८० १४०० के मध्य कहीं पर निश्चित किया जा सकता है।रेरे इसी आलोक में मारवाड के प्रसिद्ध सत बाबा रामदेव के सबंध में हम विचार कर लें तो उचित रहेगा। तवरों के इतिहास से सबधित “तवररों की ख्यात में रामदेव और मल्लीनाथ के भाईचारे या सदर्भ मिलता है।** रामदेव की भतीजी का जगमाल के साथ विवाह कराने पर रामदेव जी अप्रसल हो गये और उन्होंने अपने गाव में प्रवेश करना स्वीकार नहीं किया। रामदेव के पिठा अजमल व माता मैणादे थीं। एक मौखिक परम्पया के अनुसार अजमल रहवास के लिए स्थान मांगने के लिए मल्लीनाथ के पास गये थे और उन्हें पोकरण इनायत की थी। शामदेव व उनके साहित्य के अधिकारी विद्वान डा सोनाग़म विश्नोई ने काफी ऊहापोह के बाद रामदेव का समय १४०९ ४२ वि ही स्वीकार किया है। स्वय बाबा शमदेव वी वाणी इसी का प्रतिपादन वरतो है-- सम घतुरदस साल नव में श्रीमुख आप जयायो। प्रणे रामदेव बैठ सुद पाचैँ अजमल बरमें आयो #५ इस आधार पर हमें यही स्वीकार करना होगा कि अजमल मल्लीनाथ के पिता या अपिता के पास पहुये होंगे--क्योंकि स्वय मल्लोनाथ और बाबा रामदव समसामयिक राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा रहे हैं। दस असल प रेठ और उनका अनुसरण करने वाले विद्वानों ने राव सीहा का जन्म वि १२५१ मानने से ही राठौडों के प्रारम्भिक इतिहास की विधिया अन्य स्थानों की घरनाओं अथवा इतिहास से मेल नहीं खाती हैं। मेरे विचार से इन विधियों पर पुनर्विचार के को आवश्यकता है जिसे इतिहासज्ञों के विवेक पर छेडना ही अधिक उचित रहेगा। बहरहाल श्री शिवर्सिह चोयल ने जो १३८५ वि मल्लीनाथ के जन्म का समय माना उसमें आशिक सशोधन करते हुए इस समय को १३८० १४०० वि के मध्य कहीं मानना श्रेयस्कर रहेगा। वि १४३७ का गूगा गाव दान में देने का चाम्रपत्र तथा मल्लीनाथ के भतीजे (वीरम के पुत्र) रब चूडा द्वार किए मडोवर विजय के पश्चात् चूडा के साथ मल्लीनाथ की उपस्थिति के सदर्भ उनके पसवर्ती समय को १४५३ वि के बाद तक ले जाते हैं। इन आपारों पर अथवा अनुमानों पर मल्लीनाथ का समय १३८० १४५६ वि स्वीकार करना अधिक तर्कसंगत एवं समीचीन अतीत होगा। ३. मल्लोनाथ को राजनैतिक उपलब्धिया-- मल्लीनाथ के पूर्वजों का विचार करते समय यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ गई है कि मल्लीनाथ का भारताड के राठौडों के शासन में सीधा अधिकार था दखल नहीं हो सकता था क्योंकि वह शासक कान्हडंदे के भाई सलखा का ज्येष्ठ पुत्र ही वो थे--अर्थात् कान्हडदे के “सलखा वासणी” गाव के जागीरदार के उत्तराधिकारी । फिर भी अपने चातुर्य और साहस तथा बुद्धिमानी के आधार पर जागीरदार का पुत्र माला किस प्रकार खेड महेवा का शासक हुआ और फ़िर किस भ्रकार बडी आसानी से राज का त्याग 2 भोगी से वह योगी बना यह कथा आपको वास्तव में ही मनोरजक और सुरुचिपूर्ण लगेगी। मारवाड के असिद्ध इतिहासकार मुहता नेणसी ने माला या मल्लीनाथ की किस प्रकार कान्हडदे से घनिष्ठता हो गई इस सबध में अनुश्रुत के आधार पर एक बात लिखी है। शव सलखा को मृत्यु होने पर मालोबो अपने भाइयों को साथ लेकर कान्हड़दे के पास पहुंचे और तनके साथ रहकर राजकाज में सहायता करने लगे।रे5 एक दिन रावजी कान्हडदे शिकार खेलने के लिए गए थे उनके सहयोगी राजपूत सएदाएं! के साथ भालोजी भी उनके साथ थे) वे शिवार खेले किन्तु सन्दोष नहीं हुआ) जब वे लौटने लगे तो मालोजी ने कान्हडदे का पल्ला पकंड लिया और अपने ताऊ से कहने लगे--मुझे राज को धरती में अपना हिस्सा चाहिए, वह देंगे तब पल्ला छोडूगा।” कान्हड ने समझाने का बहुत कोशिश की किन्तु मालोजी नहीं माने। ताऊभवीजे का विवाद था सरदार क्या बोलते। वे एक ओर जाकर खडे हो गये हस्तक्षेप करने को किसी की हिम्मत नहीं पडी। वे कहने लगे--भाई यह चाचा भतीजे के बीच वी बात है हम क्या जानें? तव हारकर कान्हड ने कहा--अच्छी बात है धरती का (राज्य के १० राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ वेर हुया शाजिया ग्रालै सब्मखाणी /* यह घटना वि १४३५ की नतायी जाती है।रे पराक्रम और सूझ बूझ से मल्लीनाथ ने अपने राज्य का काफ़ी विस्तार किया। परन्तु अपने भाई जैतमाल को सिवाणा वीरमजी को खेड और शोभिवजी को ओसिया जागीर में देकर सन्हुष्ट रखा। मल्लीनाथ द्वारा किए गए युद्धों की अथवा उनकी राजनैतिक उपलब्धियों की चर्चा में वीरवाण और उसके मुसलमान कवि ढाढी बादर (बहादुर) ने मल्लीनाथ के युद्धों का जो जिक्र किया है वह भी कम मनोरजक नहीं है।रै' अहमदाबाद के मुम्तलमान सुलठान महमूद बेगडा के स्राथ मल्लीग्राथ और उनके पुत्र जगमाल द्वारा किए गए युद्ध और सुल्तान की या किसी उसके सेनानायक की गौंदोली नामकी कन्या के जगमाल द्वाय किए गए अपहरण की कथा को ढाढी बादर ने वीरवाण में काव्यवद्ध किया है। पसनतु ऐतिहासिक प्रमाणों पर यदि इसको समीक्षा करने लगें तो इसमें सन्देह दिखाई देगा। गुजरात के महमूद बेगडा का जन्म १४ड५ ई (१३८८ वि) व राज्यागेहण २७ मई १४५८ ई का है।रै२ मारवाड के इतिहास के उपलब्ध स्रोतों के अनुसार मल्लीनाथ का समय अधिकतम १४५६ वि (१३९९ ई) तक माना जाता है। इसलिए ढाढी बादर ने “राव मालदे रो समो” लिखकर महमूद बेगडा के युद्ध में मल्लीनाथ का उपस्थित होना दिखाया है वह वर्कसगत नहीं है। दूसरे १४०० ई के आस पास जब जगमाल महेवा का शासक हुआ तो वह कम से कम ३० ३५ वर्ष का रहा होगा। महमूद बेगडा की प्रथम सन््तान यदि लडको हो तब भो १४६३ ई से पूर्व उसका जन्म भी होना सभव नहीं है उसके अपहरण की बात वो बहुत दूर है। अत इस सिलसिले में मुझे इतना ही कहना है कि यदि वास्तव में मल््लीनाथ की उपस्थिति में जगमाल द्वारा युद्ध कर किसी गींदोली का अपहरण किया गया है तो उसका गुजरात के किसी अन्य व्यक्ति से ही सबध स्थापित किया जा सकता है मत्मूद बेगडा से कतई नहीं। ठीक इसी प्रकार युद्ध में जैसलमेर के शासक य़वल घडसी का होना भी सभव अतीत नहीं होता है। मल्लीनाथ की राजनैतिक चर्चा उनसे सबधित व्यक्तियों में राव चूडा की बात किए बिना अधूरी रहेगी। मल्लीनाथ के भाई वीरम का यह पुत्र था। जोहिया (जो मुसलमान हो भये थे) राजपूर्तों के साथ हुए युद्ध में वोरम वि १४४० (ई १३८३) मारा गया था। नैणसी ने इस वृत्तान्त में लिखा है कि वीरम की पली सती हो गई और मरते समय अपने पुत्र चूडा वों आल्हा चारण के हाथों में सौंप गई। उस चारण ने चूडा का पालन पोषण कर समय आने पर उसे लेकर मल्लीनाथ के पास पहुचा दिया। मल्लोनाथ ने सत्ज स्नेह से स्वीकार कर उसे गुजरात की सीमा पर बाठा मामक स्थान पर लगाया। बाद में उसे मडोर के पास सालोडी नामक स्थान वी चौकी पर रखा। इसी चूडा ने ईंदो के साथ मिलकर मडोर में घास की गाड़ियों राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा श्१ में अपने सैनिकों के साथ अवेश किया और मुसलमान अधिकारियों और उनको सेना से युद्ध कर मडोर पर कब्जा किया। यह खबर मल्लीनाथ तक पहुच गयी। व मडोर पहुचे और चूडा को आशीर्वाद देवे हुए पट्टाभिषेक कर उसे मडोर का शासक घोषित कियार और स्वय के परिवार के लिए महेवा का प्रदेश मात्र रखा। तबसे यह उक्ति लोकम्रसिद्ध है कि भल्लीनाथ के वशज “मढ” में और वीरम के वशज “गढ में रहेंगे। “माला ये मढे ने कीम या गढे।” सोलहवीं शी के पूर्वार्ध भें लिखे सूर्ससहवशप्रशस्ति में मल्लीनाथ के पराक्रम का बर्णन करते हुए लिखा कि वह असीम साहस वाला व्यक्ति था-रातर में दिल्लीश्वर को हत्या कर उसने त्वरित गति से आकर गुजरात को जोत लिया था-- +निहखुमहिवत्रित विमिस्लगभामैकत समागगदिवोन्यती निखिलयूर्ज्जयधीश्क । असावम्मसाहसो निधि /िपत्य दिल्लीरा अग्रावध्षमये जवादुप्रगवोजबद सुज्जरम्॥१४ एक शासक के रूप में मल्लीनाथ को उपलब्धिया निश्चय हो प्रशसनीय हैं। उन्होंने महेवा खेड पर अपना आपिपत्य कायम रखा अपने भाइयों को भिल भिन्न स्थानों पर भेजकर राठौडों की सत्ता का विस्तार किया और चूडा को सरक्षण देकर मडोर को राठौड सत्ता का आपार बनाया। वे साहित्य और कलाओं के आश्रयदाता रहे! मेहा रोहडिया और मोकल बारहठ को उन्होंने साबग और वागूडो गाव दान में दिये थे। वि १४३७ में गूगा गाव उनके द्वारा दान में दिए जाने का हाल हो में एक सदर्भ सामने आया है। “मालाणी का इतिहास” (अप्रकाशित) के लेखक ने उनके द्वाशा चारणों को १२ गाव दान में दिये जाने का भी उल्लेख किया है।र* मल्लीनाथ के पराक्रम का वर्णन कले में कवियों की वाग्धारा प्रवाहित हो उठी। उनके पराक्रम और त्याग की दोनों ही परम्पयाए उनके उत्तराधिकारियों ने सुरक्षित रखी हैं। मल्लीनाथ के उत्तराधिकारी के रूप में उनके कितने पुत्र हुए थे यह सख्या बताना कठिन है। उनके दो विवाह हुए थे-पहला राणी चद्धावछ से और दूसरा णणी खूपादे से। जसोल के निकट बालोतरा नामक स्थान पर उपलब्ध हुई “गुरासा री बही” में उदैसी जगपाल कृपा जगमाल अडमाल हेम बणवोर नाथा रामा मादा और मेहा ये इनके ११ पुत्र बताये हैं ६ भ्राडियावास के: चारण बुधा आशिया यो चही में ८ जाम दिये गये “जगमाल कृपा जगपाल अडमाल भेहा सूरसी कीरमसी और करना।र “मालाणी के गौरव गोत के सपादक श्री सौभाग्यसिह शेखावठ ने १२ पुत्रों की सूची दी हैरेट “जगमाल जगपाल कूपकरण माहिराज चूण्डराव अडकमल्ल उदेसी हरिश्रद्या थमसी नाथसी व नादकरण। पस्नतु ख्यातों में उपलब्ध होने वाले पश्चालतों सदर्भों के आधार पर प रेड ने उनके केवल ५ पुत्र होगा ही स्वीकार किया है-जगमाल वृन ः श्र राजस्थान सन्त शिरामाणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ और अडकपालरेर गुजरात और दिल्ली के यवन शासकों से टक्कर लेते हुए परिहार चौहान और भाटियों से कभी युद्ध कर तो कभी परस्पर सामजस्य से महेवा खेड प्रदेश में राठौडों वी सत्ता को दृढ्मूल करने का श्रेय जह्य मल्लीनाथ को दिया जाना चाहिये वही पर उनकी इस बात के लिए भो प्रशसा करनी चाहिये कि उन्होंने भाई भाई में कोई विवाद या झगड़ा पनपने का मौका ही नहीं देकर उनका स्तेह भी आप्त किया और उनका उपयोग राठौडों कौ शक्ति के विकास में लगाया। परन्तु मल्लीनाथ के जीवन का उद्देश्य यही पर सीमित नहीं होता है। राजसत्मा का भोग करते हुए और आर्ठा प्रहर राजनीति के चक्रों में फस्ता हुआ मनुष्य अपनी आत्मशक्ति को जागृत कर धीरे धीरे कैसे विरक्त बनता है ससार में रहत॑ हुए वह अससारी रहता है और यांग और साधना क॑ बल पर कैसे स्थितप्रज्ञ अवस्था से परमहस की अवस्था वक पहुच जाता है--यह मल्लीनाथ के जीवन का दूसरा पहलू है। राज्य पर शासन करते करते कैसे वह लाखों मनुष्यों के मन पर आसीन होकर देवता बन जाता है यही कहानी तो मालोजो सलखाठत के मल्लीनाथ बनने की है इस कहानी को सूत्रधारिणी है उनकी राणी रूपादे--जिसके पद और वाणिया आज लाखों श्रद्धालुओं द्वारा प्रतिदिन गायी जाती हैं। दरअसल मल्लीनाथ के इस रूप का आभास जो बाद में सत् में बदल गया उनके जन्म के पूर्व से ही होने लगा था। उस पूर्व आभास की कथाए अनुश्रुति के रूप में मारवाड में सुनी जा सकती हैं कदाचित् पढने को भी मिल जाय। उनको दोहरने से पुत्ररावृत्ति का दोष नहीं लगेगा क्योंकि जितनी भी बार वे दोहगयी जाय अधिस से अधिक पुण्य देने वाली ही सिद्ध होंगी। ४ लोकोत्तरता का पूर्वाभास-- मल्लानाथ और रूपाद स॑ सबद्ध वार्ताओं अथवा परम्पराओं के अलावा मल्लोनाथ के जन्म के सबंध में अनेक प्रकार की कथाए या बातें सुनने में आती हैं। एक कथा हो छन्दोबद रूप में मास्वाड के आ्रमीण श्रद्धालुओं द्वार आज भी गायी जाती है। इस प्रकार की कथाओं का निरूपण मैं इस उद्देश्य से नहीं करना चाहता हू कि प्रारम्भ से हां मल्लीनाथ पर मत्खा थोपी जाय बल्कि उनका कथोपकथन इसलिए भी आवश्यक है कि वे जनसामान्य की उनके प्रति सदियों तक चली आ रही निष्ठा और भक्ति वी परिचायक हें। राव मलखा आप जानतव ही हैं कान्टडद के छाट भाई थे--उन्हें एक गाव जागौर मेंमिला था उसका नाम हा गया धा--सलखा वासणी । अपन गाव की जागौर सम्हालते सम्हालते बहुत समय मौत गया विन्तु सलखा का सन्तान का सुख नहीं मिल पाया। सब बुछ हात हुए भी पुत्र न हान से वे दुखी रहने लगे।ई एक टिन जब वह शिकार पर गये थे दोपहर को धूप तेज हां गयां। जगल में शणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवन्गाथा १३ चलते उनके साथी पीछे रहे गये। अकेले ही ४५ कोस चल देने पर सलखा को प्यास सताने लगो। पानी की बशरा में घुमते घूमते पेडों का एक समूह उन्हें दिखाई दिया। कुछ समीप जाकर देखा तो उस स्थान पर घुआ निकल रहा था। तपता धूणा के पास शक जोगा अपनी तपस्या में लोन था। सलखा जाकर कुछ समय जोगी के पास खडा रहा फिर उसने जोगी के चरण स्पर्श किए। जोणगा ने पूछा-कहा रहते हो? तब सलखा ने कहा--मैं तो शिकार खलने के लिए आया हू। मेरे सगी साथी पीछे रह गये हैं और मे अकेला हो शिकार के पांछ दौडता हुआ आगे निकल गया। प्यास से मरा जा रहा हू, इसलिए कृपा कर आप मुझे पानी पिलाइये।” जोगी ने पास में रखे कमडल की ओर इशाग करते हुए कहा--यह रहा कमडल इसमें पानी है। तुम पी लो ओर घोडे को प्यास लगी हो तो उसे भी पिलाबो। और क्या ही आश्चर्य स्वय ने पीकर घोडे को पानी पिलाया फिर भी कमडल का पानी ज्यों का त्यों। हब सलखा को लगा कि वास्तव में यह कोई महान् सिद्धपुरुष दिखाई देता है। सन्तानहीन होने की बात से पीडित सलखा ने जोगी से विनति कौ-महागज। मेरे पास धन वैभव सम्पत्ति सब कुछ है किन्तु पुत्र न होने का दुख मुझे हमेशा काटता रहता है। जोगी ने अपनी झोलो में हाथ डालकर विभूति का एक गोला और चार सुपारिया निकाल सलखा को देकर कहा-यह भस्मी का गोला राणी को दे दें तेरा बडा पुत्र होगा उसका नाम मल्लीनाथ रखना। तुम्हारे चार पुत्र होंगे किन्तु उत्ततधिकार तुम अपने बडे बेटे को ही देना। सलखा ने घर आकर जैसा जोगी मे कहा था वैसा ही किंया। फिर उसके घर एक पुत्र ने जन्म लिया। समयत अन्य पुत्रों ने जन्म लेकर उसके घर को स्वर्ग बनाया। कुछ सालीं बाद सलखा ने बडे बेटे को टीका दिया। इस अवसर पर खास आमत्रण देकर जोगी को बुलाया। जोगी के वस्त्र पहनाकर बड़े बेटे का नाम रावल मल्लीनाथ रखा गया। इस घटना का एक दोहे म॑ भी यों स्मरण किया जाता है-- सावम ने सोमवार सलखे वाली सिकती सेक्ना। सलखा ने तू शधूनराथ दीघों मोती डीक्गे ॥ हे कभी शभूनाथ की जगह रतननाथ का नाम भी लिया जाता है। इसी प्रकार की एक अन्य अनुश्रुति भी बहुत मनोरजक है--किन्तु वह मल्लीनाथ की राज्य प्राप्ति से अधिक जुडी हुईं है। बात यह हुई कि सलखा को राणी क॑ पैर भारी हो गये थे तब किराने को जरुरी वस्तुए लाने सलखा महेवा नगर आये थे। बणिये से जब सौदा ले लिया दो उसे एक राठी जाति के व्यक्ति के सिर पर रख और स्वय घोडे पर सवार होकर सलखा अपने गाव जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि चार श्ड राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ नाहर बैठे बैठे अपना भक्ष्य खा रटे हैं। सलखा घोडे से उतर जमीव पर बैठ गये। राठी ने कहा-इस शकुन के बारे में) मैं पूछ आता हू । सलखा की स्वीकृति लेकर राठी दौडा दौडा कान्हडदे के पास गया और कहने लगा--सलखा जो किराना लेकर अपने गाव जा रहे थे मेरे सिर पर सामान का बोझ लदा हुआ था। तब एक शुभ शकुन हुआ। किराने की लायी हुई वस्तुए जिसको राणी खाएगी उसका बेटा भूमि का स्वामी होगा। आप सामान और सलखाजी को घेर लो यही कहने मैं आया हू। किन्तु ईश्वर वी इच्छा बलववों होती है। न वो कान्हडदे का कोई आदमी पहुचा और न ही वह राठी। बड़ी देर तक सलखा जी प्रतीक्षा करते रहे। राठी को न आते देख सामान को घोडे पर आगे रख उन्होंने आगे की यात्रा शुरू कौ। बाद में कान्हडदे के आदमी आये लेकिन खाली हाथ लौट गये। राठी सलखावासणी पहुच गया। यव के मिवास पर जाकर बधाई दी-ुम्हारे चार बेटे होंगे अच्छी ठकुयाई रहेगी परती पर नाम होगा। सभी लडके पराक्रमी: और कर्मप्रधान होंगे।*१ सलखा ने और ज्योतिषियों को भी पूछा और प्रसन्त होकर राठी के पगड़ी बधवाई। फिर मालोजी का जन्म हुआ। फ़िर जैतमाल वीरम और शोभित। चार्े बेटे धरे धीरे बडे होने लगे। मल्लीनाथ ने कान्हडदे की सेवा कर क्सि प्रकार ग़जसत्ता प्राप्त की यह आप पढ़ चुके हैं। मालोजी के जन्म के सबध में एक और अनुश्रुति भी जुडी हुई है परन्तु वह रूपादे के साथ भी जुडी है इसलिए उसकी चर्चा रूपादे के साथ करना ही ठीक रहेगा। ऊपर जिन दो अनुश्रुतियों का उल्लेख किया है--उनमें से एक का सबध सीधा नाथों अथवा सिद्धों से है--यानी यहा तक कि रावल मल्लोनाथ यह उपाधि युक्त नाम भी योगियों का ही दिया हुआ है। मल्लीनाथ की राजनीतिक उपलब्धियों की घर्चा के दौरान हम यह भी देख चुके हैं कि दिल्ली के बादशाह ने उन्हें गवल का तिलक किया था। नाथ सम्प्रदाय और उसके अनेकविंध विस्तार की चर्चा करने वाले विद्वानों ने भी ग़वल शब्द की बहुविध व्याख्या करने का प्रयास किया है। यहा तक कि नाथों में रावल पीर“ नाम की सिद्धों वी एक शाखा का ही विकास होने के सबंध में अनेक प्रमाण उपस्थित किए जा सकते हैं।*र अत रूपादे मल्लीनाथ की कोई बात प्रस्तुत करने से पूर्व तत्कालीन धार्मिक परिवेश का चित्रण भी या आवश्यक हो जाता है। उसको इसलिए भी आवश्यकता है कि यह विवरण रूपादे--मल्लीनाथ को समझने में उतना ही सहायक है जितना को उनसे सबधित 'क्ति साहित्य। ५. तत्कालीन धार्मिक परिवेश- राठौडों का मारवाड में आने का समय लगभग वि की १३वीं शतती का पूर्वार्थ है। यह बात भी सही है क््नौजिये राठौडों से पूर्व मारवाड में राषट्रकूट वश के कुछ शासकों के यंत्र तत्र स्थान बने हुए थे उनके अलावा सालकी चौहान परिह्र और इनस राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा श्५ भी पूर्व मेदाड में सिसोदिया वश अपनी सत्ता को स्थिर किए हुए था और इस भी आश्चर्यकारक समानता ही कहा जाएगा कि इन सभो वशों का कसी न किसी रूप में पाशुपत सम्प्रदाय अथवा लकुलीश सम्प्रदाय से सम्बद्ध होना ऐविद्वसिक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध हो चुका है और इस सिलसिले में उनकी उपाधि रावल का विचार करना आवश्यक है क्योंकि यही उपाधि मल्लीनाथ से भो जुडी हुई है जो पर्याय से उनके नाथों से जुड़े होने का सकेत माता जा सकता है। जाथ सम्मदोध के १२ पथ या मत माने जाते हैं। कहा जादा है कि इनमें से ६ पर्थों का उपदेश स्वय भगवान् शिव ने दिया शेष ६ का सगठन गोरक्षनाथ ने किया।*रि जैसा कि प्रसिद्ध है गोरक्ष मत्स्पेन्र के शिष्य थे। गोरक्ष के सप्रय के सब में मिलने वाले ए»' प्रमार्ों को विस्तृत चर्चा करते हुए प द्विवेदी ने उनका समय ई ११वीं शी का प्राएप्भ माना हैं और निश्चय ही इससे पूर्व हुए आचार्यों बो हमें ९ १५ वी शी के बोच कहीं मानना पडेगा। गोरक्षनाथ की शिष्य परम्परा में १ हेठनाथ २ कारवाई ३ घूढाई ४ चारनाथ ५ बैरागनाथ ६ भावनाथ और ७ घजनाथ हुए थे।४५ इनमे * से बैग़गनाथ का पथ अथवा उसकी शिष्य परम्पण म्गरवाड में विकसित हुई। बैराणगनाथ की शिष्य परम्परा में भतृहरि या राजा भस्थरी के नाम से आप सभी परिचित हैं। मरथरी के तीन शिष्य हुए--मईनाथ पूतननाथ और भ्रेमनाथ ।** भर्तृहरि का सभय जैस्ता प द्विवेदी जी ने सुझाया है १२धथी शती स्वीकार किया जा सकता है हो मल्लीनाथ के जन्म को लेकर प्रचलित श्रुति परम्पराओं में जिस रतननाथ का तूठौ रतननाथ संदर्भ आता है ठस्ते भी स्वीकार कप्ने के लिये पर्याप्त काए्ण उपस्थित हो जाते हैं। नाथों में दो प्रकार के साथक होते हैं-कौल और योगी। जो बाह्य साधना करते हैं ने कौल हैं और जो अन्च साधना करते हैं वे योगी हैं। कुल का अर्थ है शक्ति अकुल का अर्थ है शिव। कुल से अकुल बनने वाला या तदर्थ प्रयल करने वाला व्यक्ति बौल है। कौल और योगी दोनों का लक्ष्य एक ही होता है अन्तर इतना ही है कि योगी भ्रारम्भ से हो अन्तसाधना में प्रवृत्त होता है जबकि कौल बाह्य उपासना के आधार पर शने शनै अन्त उपासना की ओर भ्रवृत्त हेदा है। कोई कोई यह भी मानते हैं कि मल्लोनाथ कौल थे मेरी इस विषय में अब तक कोई निश्चित धारणा मही है परन्तु अनुमान है कि वे योगो थे (० नार्थो में रावल सम्प्रदाय ना्र से योगियों की एक बडी भारी शाखा रही है। कुछ लोगों क| यह मानना है कि रावल राजकुल का अपध्रष्ट रूप है और क्या हो सयोग का बात है कि शजस्थान गुजरात के मल्लीनाथ के पूर्व के तीनों राजबश १ मेवाड के सिसोदिया २ आबू के पस्मार ३ जालोर के चौहानों ने गबबुल (एउल रादव्यो विरुद वो घारण क्या है। आबू के देलवाडा मदिर पर उत्कोर्ण शिलालेख श्री चद्रावदीपति रजकुल श्रौसोमदेवेन तथा साचौर का शिलालेख महाराज कुल श्री सामन्त सिंह देव १६ राजस्थान सन्त शियेमणि रणों रूपादे और मल्लीनाथ कल्याण विजय राज्ये को परमारों और चौहानों के विरुद के प्रमाण रूप में देखा जा सकता है 4 यहा पर एक राजवश की चर्चा भी आवश्यक है--चह है भारी वश श्रा्टियों के इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले श्री हरिसिंह भाटी ने लिखा है कि देरावर में देवगज का राज्याभिषेक करने वाले भौ कोई जोगी रतननाथ थे। ई ८५२ में देगवर में किले का निर्माण कर देवराज ने सिंहासनारोहण किया थां। उसे रावछ सिद्ध की उपाधि रतननाथ ने दी थी। भाटी शासक गजनी लाहौर भटनेर मरेठ देखवर वरणोत लुद्रवा होते हुए जैसलमेर पहुचे थे। गावव्ठ की उपाधि केवल जैसलमेर के शासक ही लगाते थे पूणछ के नहीं। सभवत नाथों की कृपा से राज्य श्राप्ति होने से ही भाटियों में नाथों को प्रथम सम्मान दिये जाने को परम्पणा है। मेवाड में सिस्तोदिया वश के मूलपुरुष “बाप्पा रावक के साथ जुडा रावक शब्द बहुत प्रसिद्ध ही है। कई विद्वान् बाप्पा को गोरक्षनाथ का समसामयिक भी मानते हैं परएनु प भौरीशकर होशचद ओझा ने बाप्पा का समय ई को ८वीं शी का पूर्वार्द माना है। एकलिंगमाहात्य में एकॉलिंग जो से बाप्पा को वर मिलने की बात का भी जिक्र हुआ है और यह भी बात प्रसिद्ध है कि बाप्पा के गुरु के सबंध में जितनी भी श्रुत 2९8 लिखित परम्पएए हैं उनमें गुरु का नाम हारीत ऋषि या हारीत राशि बताया गया है। उदयपुर के निकट एकलिंग का मदिर है यही एकलिंग जी मेवाड के राजवश के कुलदैवत भी हैं। इस मदिर में २७१ ई का जो लेख पाया जाता है वह उसको पूर्वकालीन स्थिति को ही प्रमाणित करता है ।*९ प्रसिद्ध विद्वान फ्लीट मे १९०७ ई में लिखे एक प्रबथ में यह भो सप्रमाण सिद्ध किया है कि एकरलिंग मंदिर मूलत लकुलीश सप्रदाय का मदिर है। इस सिलसिले में बाप्पा को पाशुपव सम्प्रदाय से जोड़ने वाला प्रमाण उसका स्वय का प्िक््या है जो अजमेर से प्राप्त हुआ था।५९ सिक्के से सामने की तरफ १ वर्तुलाकार माला के नीचे “श्री बाप्पा लिखा हुआ है। २ वर्तुलाकार माला के बाई ओर व्रिशूल और ३ त्रिशूल की दाहिनी ओर दो पत्थरों पर शिवलिंग अकित है ४ शिवलिंग के दाहिनी ओर नदी। इन दोनों के नीचे बाप्पा का अर्धवेश अग है और ५ पीछे कामधेनु है। प ओझा ने इसे लकुलीश सम्प्रदाय के कनफड़े साधु हारोीत ऋषि की कामधेनु होने का अनुमान्र प्रकट किया है। इस सिक्के का घित्रण स्वय इस बात का प्रमाण है कि बाषा लकुलीश सम्प्रदाय के अनुयायी रहे हैं। पाशुपत अथवा लकुलीश सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव अवान्तर उपनिषदों के बाल की देन माना जाता है। प द्विवेदी के अनुसार लकुल मत अवैदिक था एवं समाज के निचले स्तर में ही उसे मान्यता रही थी। राव शब्द वस्तुत इसी लकुल का ही रूपान्तर है। राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा श्छ बाप्पा ने इस मत का स्वय को अनन्य भ्रक्त सिद्ध कसा चाहा था और इस बात के भी निश्चित प्रमाण हैं कि गावल या लाकुल पाशुपत गोरक्षनाथ के सम्प्रदाय में मिल गये थे। गोरक्ष के अनुयायी धर्मनाथ के सबध में प्रसिद्ध एक अनुश्रुवि भी रावछ शब्द पर प्रकाश डालती है।+१ धर्मगाथ पेशावर से घिनोधर आये थे और चारण देवों नामक विधवा के हाथ में से पुनर्वार पैदा हुए थे और इस पुनरुद्भूत सिद्ध का नाम रादल पीर पडा था। रावल पीर और लाकुल गुर का शब्द साप्य देखते ही बन पडता है। लकुलीश सम्पदाय जैसा क़रि पहले कहा गया है समाज के निचले स्तर के व्यक्तियों को साथ लेकर चला था। इसलिए वैंदिकों और भागव्तों ने इसका विरोध किया। फन्तु जैसे राजकुल इससे जुडते गए इसका व्यापक प्रचार हाने लगा यहा तक कि इसमें मुसलमानों का भ्रवेश हा गया अथवा योगियों को इस शाखा में कुछ मुसलमान व्यक्ति आते गये। श्श्वी के पूर्वार्द में जब गोरक्षनाथ ने सम्प्रदा्यों का सगठन करना आरम्भ किया होगा तो लाकुलों का भी सभवत इसलिए समावेश कर लिया होगा कि इनके शास्नज्ञ सम्प्रदाय को प्रतिष्ठा पा गये होंगे। ग़जस्थान के कई मदिरों में लकुलीश की उपलब्ध मूर्तियों को भी इसके व्यापक प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है।१र ये स़बल नागनाथी शदल भी कहे जाते हैं। डॉ बर्गाज मे एलोण की गुफाओं में उपलब्ध शिव के मोणी को पूर्ति का एक चित्राकन प्रकाशित किया था। उसमें बायें हाथ में लाठी (लकुदी लगुड्डी) लिए हुए शिव पद्मासत में विशजित हैं और पद्म नाणों की पृष्ठ पर आधारित है। इस भ्रश्तग भें उल्लेखनीय है कि मारवाड जोधपुर के निकट भडोर में भागादडी आदि स्थान उपलब्ध हैं। ग्रठौड़ों की कुल देवो भी नाग्रणेची है। प भोविन्दलाल श्रीमाली ने तक्षक (टाक) क्षत्रियों के इस भू भाग पर शासन रहने की बात को प्री स्थोकार किया है।*रे अत इस विषय में यह भी अनुमान किया जा सकता है कि उक्त नागनाथी रावल शाखा के योगियों का इस भू भाग पर भी कोई प्रभ्राव रहा हो। लकुलीश सम्प्रदाय कौ ऊपर की गई चर्चा से कुछ बातें उभरकर सामने आती है) पहली बात यह है कि मल्लोनाथ से पूर्व राजस्थान में नाथ मत का पर्याप्त प्रभाव था और पाशुपत अथवा लेकुलोश मत वा नाथों के अन्तर्गत समावेश कर लिया गया था। दूसरी बात यह है कि गजस्थान के शासकीं का नाथ सिद्धों और योगियों से पर्याप्त सपर्क था और बाप्पा या दंवराज भागे जैसे उदाहरणों में रावल कौ उपाधि इन शासकों को उनके गुरुओं द्वारा दी गई थी। स़वक्क राजकुल या लावुल का पर्याय अथवा रूपान्तरित शब्द स्वीकार क्या जा सकता है। इस आधार पर यह सटड ही अनुमान किया जा सकता है कि मल््लीनाथ वा रावल उपाधि जैसी एक श्रुति परम्परा भी है शासकीय ने होकर रतननाथ शभूनाथ या कसी अन्य योगी गुरु द्वारा दी हुई होनी चाहिए! इस सबंध श्८ राजस्थान सन्त्र शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ में पूज्य डा मनोहर शर्मा मेरे अनुमान से सहमत नहीं है किन्तु तत्कालीम परिस्थितियों को देखते हुए यह सभावना व्यक्त करने में वो कोई आपत्ति नहीं है। योगियों की तरह कुछ चमत्कार शक्ति मल्लीनाथ में भी रही है। इस सबंध में एक परम्पणा का जिक्र यहा पर उपयुक्त हांगा। देश में चारों ओर अकाल था जनवा बेहद परेशान थी। लोगों ने बादशाह से कहा कि मल्लीनाथ सिद्ध हैं उन्हें मुलाओ। वह अपने तपोबल से वर्षा कर सकते हैं। तब बादशाह ने ससम्मान उन्हें बुलाकर प्रार्था की-- गुज्जर है घुलगन के चाकर हुयग ज्योदश ही रन होरे। दिल्ली के शाह क्यो ठुम प्रीर हे तेती कृपा वरखा' बनकारे। दैज के चद ज्यू द्वैज के धौस पबै जन पृजत होदु सुखकरे बक वे साधुत के गुतसायर यवल माल सदा रखवारै॥ हब मल्लीनाथ कहने लगे-- मालो किय्ों हर सी देह हर बरसावै वो बरसे मेह ॥४ कहते हैं गावल जी ने समाधि लगाई और दूसरे ही दिन से चारों ओर वर्षा होने लगी। उपर्युक्त चर्चा से सामने आने वाली तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण मात यह है कि लकुलीश सम्पदाय की अवधारणा सभी मनुष्यों में शिवत्व देखती है। वह सभी को समान मानते है जाति पाति का कुछ भी भेद नहीं स्वीकार जाता है और इसकी इस विशेषता के कारण ही भागवतों या वैदिकों के विरोध के बावजूद वह दिनों दिन सशक्त होती गयी और सम्भवव शासन में सभी लोगों का प्रवेश स्वोकारते हुए शासकों ने आदर देकर उसके अनुयायी बनना शुरू क्या। यदि नैष्णव परम्परा में आस्था रखने वाले शासक “परम भागवत शैव परम्परा में विश्वास रखने वाले “परम माहेश्वर” अथवा बुद्ध में निष्ठा रखने वाले सौगत की उपाधि धारण कर सकते थे तो जन सामान्य का हित चाहने वाले राजस्थान के शासवों ने राजकुल या ग़वल को उपाधि धारण कर लकुलीश मत का श्रचार किया हो तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है? और खासकर मल्लोगाथ के सदर्भ में इस उपाधि का अन्यतम महत्व है। बाबा रामदेव को तरह समाज के अस्पृश्य माने जाने वाले निचले स्तर के मनुष्यों को मुक्ति का मार्ग दिखाने वालो राणों रूपादे के सिद्धान्तों व उगमसी भाटी के उपदेशों को प्रत्यक्ष व्यवहार में लाकर श्रजा को समान दृष्टि से देखकर कल्याण करने में लगे मल्लीनाथ के साथ लगी रावल की उपाधि की सार्थक्ता उनके केवल लावुल सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने में उतनी नहीं जितनों कि उनके द्वाग्र व्यवहार में झम्पटाय के मिद्धा्ों का अगीकार क्ये जाने में है। यह सार्थकता दिलाने में उनकी राणो रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा श्र राणी रूपादे ने महती भूमिका निभाई। उस महान साध्वी के भक्ति योग बा निरूपण करे से पूर्व रूपादे-मल्लीनाथ के पूर्व जस्में| से सबधित जो लाक कथाएं या परम्पणए असिद्ध हैं उनका निरूपण प्रस्तुत करने का उपक्रम करना अब समीचीन होगा। ६ रूपादे की जीवन-कथा- समाज में निम्न स्तर के माने जाने वाले ₹र व्यक्ति के पारलौकिक उत्थान के लिये जीवन भर सघर्ष करतो रही रूपादे बाबा श्देव के सम्मदाय से भी जुड गयी थीं। रामदेव के भक्त रूपादे के भी भक्त हुए और शमदेव के पदों और प्रमार्णों के साथ रूपादे की वाणिया और भजन गाये जाते रहे नई रचनाएं होती रहीं और अनायास हो रूपादे वी अलौक्किता जन कवियों को रचनाओं का विषय हो गयी। रामदेवजी के जम्मा जागरण में रूपादे कौ बेल न जाने कितमे वर्षों से गायी जाती रही है। रूपादे के साथ ही मल्लीनाथ का समर्पण उन्हें अमर बना गया। इस अकार की गेय रचनाओं में मारवाड के बिलाडा जैवारण भू भाग पर मालजीको जन्मपत्री नाम से गायी जाने वाली एक लघु रचना में मल्लौनाथ रूपादे के पूर्व जन्म का बड़े ही रोचक ढंग से विवरण मिलता है। यह अनुश्रत्ि से प्राप्त रयना है इसलिए उसको ऐतिहासिक सत्यता की चर्चा भी व्यर्थ है। बुधजी नाम के एक भक्त थे। उनके गुरु ने क्हा-चलो पाटण शहर चलते हैं। चह्य एक युग (तप) तक पघूणी स्मायेंगे। चुधजी अपने गुरु के साथ पाटण पहुच गये। गुरुजी ने अपना आसन लगाया और समाधिस्थ होकर तपस्या करता प्रारम्भ कर दिया-यह बारह वर्ष तक चलने वालो साधना थी।+५ गुरु समाधिस्थ हो गये। उनकी आज्ञा के अनुसार चींपी लेकर शहर में भिक्षा मागने के लिए बुध जी चल दिये। हर दरवाजे को खटखटाते गये अन्तर में हार गये लेकिन किसी भी व्यक्ति ने उनकी झोली में भिक्षा नहीं डाली । वे सोचने लगे-कैसे हैं ये पारण के लोग! जण सी भी दया नहीं चोई भी भिक्षा देना वाला नहीं-- प्रापी है प्रारण ये लोग चिए्टी नहीं पाले कोरे चूण री/६ चे निराश होकर लौटने लगे तब कुम्हारिन को उन पर दया आई। फिर उसका यह क्रम लगातार चलता रहा। जाते हुए रास्ते में उसने लोहार को कहा--क्वाडिया बनाओगे ? लाहर ने जबाव दिया--श्मशान में रहकर साधना करने वाले जोगियों से कैसी भीति? बुधजी ने गुरु का दिया हुआ चिघ्रट लौहरए के पास्ठ णिए्दी ऐैहन) रख कर उप्तस॑ कुल्हाड़ी ली और लक्डी काटन के लिए जगल में चले गये। वन में सूखो लकडो कहीं पर नहीं मिलो। कदम्ब के वृक्ष पर उसने कुल्हाडी मारी और लक्डी काटता रहा। आधी रात बीत गयी तब किसी की आवाज सुनायी दो--चुध जी। कया सो रहे हो ? शभूनाथ तुम पर प्रसन्न हुए हैं। जाओ घूणी की सेवा करो । तब स बुधजी रेज जगल में आकर लकडी काटते स्हे आर गोली लक्डियों को श्८ ग़जस्थान सन्त शिग्षेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ में पूज्य डा मनोहर शर्मा मेरे अनुमान से सहमत नहीं है किन्तु तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए यह सभावना व्यक्त करने में तो बोई आपत्ति नहीं है। योगियों की तरह कुछ चमत्कार शक्ति मल्लीनाथ में भी रही है। इस सबंध में एक परम्परा का जिक्र यहा पर उपयुक्त होगा। देश में चारों ओर अवाल था जनता बेहद परेशान थी। लोगों ने बादशाह से कहा कि मल्लीनाथ सिद्ध हैं उन्हें बुलाओ। वह अपने तपोबल से वर्षा कर सकते हैं। तब बादशाह ने ससम्मान उन्हें बुलाकर प्रार्था वी-- गुज्जा है धुलतान के चावर हुग तयोदश ही रन हारे। दिल्ली के शाट बद्यो हुम प्रीर हो वेती कृपा रखा घनकारे। हज के चद ज्यू द्वैज के थौस सबै जन पूजत होतु सुखारे बक वै साथुत के गुनसायर रावल माल सदा रखवारै॥ तब मल्लोनाथ कहने लगे-- मालो किसो हर ये देह हर बरसावै वो बरसे मेह॥४ कहते हैं रावल जी ने समाधि लगाई और दूसरे ही दिन से चारों ओर वर्षा होने लगी । उपर्युक्त चर्चा से सामने आने वाली दौसगी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लकुलीश सम्भदाय वी अवधारणा सभी मनुष्यों में शिवत्व देखती है। बह सभी को समान मानते है जाति पाति का कुछ भी भेद नही स्वीकार जाता है और इसकी इस विशेषता के कारण ही भागवर्तो या वैदिकों के विरोध के बावजूद वह दिनों दिन सशक्त होती गयी और सम्भवत शासन में सभी लोगों का प्रवेश स्वीकारते हुए शासकों ने आदर देकर उसके अनुयायी बनना शुरू किया। यदि वैष्णव परम्परा में आस्था रखने वाले शासक परम भागवत शेव परम्परा में विश्वास रखने वाले परम माहेश्वर” अथवा बुद्ध में निष्ठा रखने वाले सौगत की उपाधि धारण कर सकते थे दो जन सामान्य का हित चाहने वाले गजस्थान के शासकों ने राजकुल या रावल की उपाधि धारण कर लकुलीश मत का प्रचार किया हो वो इसमें आश्चर्य की बात हो क्या है? और खासकर मल्लीनाथ के सदर्भ में इस्त उपाधि वा अन्यतम महत्व है। बाबा रामदेव की तरह समाज के अस्पृश्य माने जाने वाले निचले स्तर के मनुष्यों को मुक्ति का मार्ग दिखाने वाली राणी रूपादे के सिद्धान्तों व उगमसी भाटी के उपदेशों को प्रत्यक्ष व्यवहार में लाकर प्रजा को समान दृष्टि से देखकर कल्याण करने में लगे मल्लीनाथ के साथ लगी रावल को उपाधि की सार्थकता उनके कैवल लाकुल सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने में उतनी नहीं जिवनी कि उनके द्वारा व्यवहार में इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का अगांकार क्ये जाने में है। यह सार्थकता दिलाने में उनकी राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाया श्र शाणी झूपादे ने महतो भूमिया निभाई) ठस्त महान साध्दी के भक्त योग का निरूपण करते स॑ पूर्व रूपादे-मल्लौनाय के पूर्व जन्मों से सबंधित जो लोक कथाएं या परम्पस० अप्निद्ध हैं उत्या निरूपण प्रस्तुत करने का उपक्रम कश्ना अब समोचौन होगा। ६ रूपादे की जीवन-कथा- समाज में निम्न स्तर के माने जाने वाले हर व्यक्ति के पारलौकिक उत्थान के लिये जोवन भर संघर्ष कश्ती रहो रूपादे बाबा रामदेव के सम्प्रदाय से भी जुड गयी थीं। रामदेव के भक्त रूपादे के भी भक्त हुए और गमदेव के पर्दो और त्रमाणों के साथ रूपादे की वाणिया और भजन गाये जाते रहे नई रचनाएं होती रह और अनायास ही रूपादे की अलौक्किता जन कवियों की रचनाओं का विषय हो गयी। रामदेवजी के जम्मा जागरण में रूपादे की वेल न जाने कितने वर्षों से गायो जाती रही है। रूपादे के साथ ही मल्लीनाथ का समर्पण उन्हें अमर बना गया। इस प्रकार की गेय रचनाओं में मारवाड के बिलाडा जैतारण भू भाग पर मालजीकी जन्मपत्री“ नाम से गायी जाने वाली एक लघु रचना में मल्लीनाथ रूपादे के पूर्व जन्म का बडे ही रोचक ढग से विवरण मिलता है। यह अनुश्रुति से प्राप्त रचना है इसलिए उसको ऐतिहासिक सत्यता को चर्चा भी व्यर्थ है। चुधजी नाम के एक भक्त थे। उनके गुरु ने कहा--चलो पाटण शहर चलते हैं। बहा एक युग (तप) तक धृणी रमायेंगे। बुधजी अपने गुरु के साथ पाटण पहुच गये। गुरुजी ने अपना आप्षन लगाया और समाधिस्थ होकर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया--यह बारह वर्ष तक चलने वाली साधना थी।५५ गुरु समाधिस्थ हो गये। उनकी आज्ञा के अनुसार चींपी लेकर शहर में भिथ्वा मागने के लिए बुध जी चल दिये। हर दरवाजे को खरखटाते गये अन्त में हार गये लेक्नि किसी भो व्यक्ति ने उनके झोली में भिक्षा नहीं डाली। वे सोचने लगे--कैसे हैं ये पाटण के लोग! जरा सी भी दया नहीं कोई भी भिक्षा देना वाला नहीं-- पापी है पाटण या लोग चिए्टी नती बालै कीरे चूण री/५ वे निश्राश होकर लौटने लगे तब कुम्हारिन को उन पर दया आई। फिर उसका यह क्रम लगातार चलता रहा । जाते हुए रास्त में उसने लोहार को कहा--क्वाडिया बनाओगे ? लोहार ने जबाव दिया--श्मशान में रहकर साधना करने वाले जोगियों से कैसी प्रीति? बुषजी ने गुरु का दिया हुआ चिमटा लाहार के पास गिरवी हैहन) रख कर उससे कुल्हाडी ली और लकडी काटन क॑ लिए जगल में चले गये। वन में सूखी लकड़ी कहीं पर नहीं मिलो। कदम्द के वृक्ष पर उसने कुल्हाड़ी मारी और लक्डो काटता रहा। आधी रात बीत गयी तब किसी की आवाज सुनायी दौ-बुध जा! क्या सो रहे रो? शभूनाथ तुम पर प्रसन्न हुए हैं। जाओ धृणी को सेवा करो । तब स बुधजी रोज जगल में आकर लकडी काटते रहे आर गीला लक्डियों की २० राजस्थान सन्त शिग्रेमणि ग्रणो रूपादे और मल्लीनाथ जटाओं को रस्सी मनाकर बाजार में बेचते रहे। इस तरह अपनी और गुरु के भोजन की व्यवस्था काते करते १२ वर्ष बोह्त गये। लक्डियों का बोझ दो दावे बुशजी के सिर के बाल सफा हो गये।५० गुरुजी समाधि से जब जागृतावम्था में आये तय अपने शिष्प की यह हालत देखकर पूछने लगे--क्या तुम काशी और केदारनाथ गये थे या तुमने अडसठ तीर्थों की यात्रा की या तुम्हें नागों कौ जमात मिली ? तुम्हरे सिर का मुकुट (बाल) किसने गिध दिया-- बुग जी काई नये काग्ी कैदर काई अड्सठ8 तीरध न्टाविया। काई मिली नाया सी जमाज ग्राध्षा रो मुकुट कुण प्रडिया ॥१६ बुधजों क्या जवाब देते ? अपना सादय हाल सुनाया। बारह साल तक लक्डी वाटते रहे और जीवन चलाते रहे। गुरुजी बहुत क्रोधित टुए--क्या पाटण शहर के लोग हैं एक जोगी को भी मभिश्ा नहीं डाल सके ? अपनी झोली में हाथ डालकर उन्होंने अपना पैर पटका और पाटण वो दाटण कर दिया- उठियो पाटय ये अख्डाट प्राण दारण कर दोनो /४६ बुम्हर को मुंपजी कह गये--कल सुबह से पहले शहर से बाहर निकल जाना। दूसरे दिन प्रात जब गुरु और मुथजी पाटण से बाहर मिकले तब सारा शहर पत्थर का हो गया एक भी जीवित नहीं बचा। बुथजी ने कुम्दार और उसके परिवार के सहयाग की ओर अपने गुरुजी का ध्यान आकर्षिट किया तब गुरुजो ने कुम्हार के परिवार को जावित कर वरदान दिया कि कुम्हार महेवा का स्वामी मल्लीनाथ और कुम्हारिम ग़नी रूपादे के रूप में जन्म लेंगे। उनका बेटा जगमाल होगा गधी पाडल गाय होगी ओर उसकी बछडी घोडी का रूप लेगी। गुरु स्वयं उग्मसी भाटी होंगे और बुधजी धारु मंघवाल का शरीर धारण करेंगे-- कुम्हारिया ढवीजे मेहवा री माल बर नै सलखा हैँ गोभी डीकरी ऐे। कुम्टा द्वीने रफदे नार पर नै बलय जी म्रोध्ी डीकरी। बाला हीजे कवर जयमाल बिएडी हीजे प्डल याय गुक ह्लीजे फासी आप बुध ह्ीजे श्रार मेघवाल #+% रूपादे के लौकिक जीवन के सभी पात्रों के पूर्व जम और उतर सबके एक साथ राणी रूपादे और मल्लीनाथ जोवनगाथा २१ फिर से अवतरण की यह कथा आपको अवश्य ही अचम्भे में डाल देगी--भौखिक परम्पणा पुनर्जन्म में विश्वास करती है और इसी विश्वास ते इस अकार की कथाओं को जन्म दिया है। इस कथा का एक रूपान्तरण भी है। उसे अजमेर के निकट डूमाडा के स्वामी गोकुलदास ने धारू माल रूपादे को बडी वेल के प्रारम्भ में दिया है। कथा इस प्रकार है-- सारस्षोप नगर के राजा अप्रसेन को एक दिन अचानक विरवित हो गयी और कफनी चारण कर वे ल्हसाड पाटन नगर के पाप्त जाकर अपना आसन लगाकर बैठ गये। उनका सेवक सालरिया साथ भें था। शुरु को ठप्स््या में बैठे देखकर सालरिया भिषा मागने चला। भिक्षा न मिलने पर निराश होकर लौटते सालरिया को “रूपा” नाम की एक मालन ने दो रोटिया दी। दूसरे दिन से सालरिया ने क्रम बना लिया जगल में जाकर लकडो काटना उसे सुनार के यहा बेच देना और सवा सेर अनाज श्राप्त कर रूपा को दे देना। इस प्रकार वह बदले में रूपा से रेटिया लेगा रहा। १२ वर्ष बोत गये। गुरुजी के सामने गेटियों का ढेर लग गया। जेब सालरिया से सारे समाचार मिल गये तब गुरु मे एक साथ ही पाटण को अभिशाप और माली को वरदान दिया-- ल्हसाड पाटण दल द्ण मल्ला माली का मरा बच्चण। ये ही माली और मालन गुरु से वर पाकर मल्लीनाथ और रूपादे के रूप में जन्म लेते हैं। दोनों कथाओं में कल्पना एक ही है केवल पात्रों के नाम को मिलता है। पहली कथा का दृष्टिकोण अधिक व्यापक है वह घारू मेघवाल और भाटी उगमसी को भी अपने साथ समेटती है। दूसरी में ऐसा लगता है कि धारू मेधवाल को पूर्वजन्म में भी मेघवाल सालरिया बनाने का प्रयल किया गया है। जी भी हो कथा की विभिन्न रूपता को श्रद्धा और निष्ठा की व्यापकता के प्रमाण के रूप में माना जा सकता है। रूपादे और मल्लीनाथ के पूर्व जन्म के विषय में रूपादे को बेल के प्रास्म्ण में एक कथा और गायी जाती है चह अलप्ी लालर कथा के नाम से प्रसिद्ध है। काठियावाड के समीप किसी क्षेत्र में अलसी (अरिसिंह)- अरिसी अरसी अडसी अलसी नाम का एक राजपूत जागौरदार था। कहते है उसके ७ बेटे थे और एक बेटी थो लालर। सबसे छोटी और सुन्दर। समय बौवते अलसी का अन्तकाल समीप आने लगा। उसके मन में एक इच्छा थी--चारण और भाठों कौ काठियावाडी घोड़े दान करने की। उप्तके लडकों ने काठियावाडी वोरें से लडने का प्रयास भी किया (होगा) लेकिन थे सफल नहीं हे पाये। तब अलसी ने बेटी के सामने अपनी इच्छा अ्रकट की। लालर हिम्मतवालो थी उसने अपने पिता को ढाढस बधाया--आप आश्यम से स्वर्ग को ओर भस्थान करिये काठियावाड से घोड़े लाकर और आपकी इच्छा पूरी करके हो आपका कार्ज उत्तरक्रिया) कााऊगो। मरणासन पिता को दिया हुआ चचन देखिये-- श्२ राजस्थान सन्त शिग्रेमणि राणी रूपादे और मल्लोनाथ लाला कैके बाभाजी सुटग सियावों सत्र में धीरज यारों। काग्यावाड ये मोड लायू कारज सारसू यारे॥ यह कहकर युद्ध के लिए उपयुक्त वेशभूषा धारण कर और हाथ में चमकता हुआ भाला लंकर लालर घोडे पर सवार हुई। ऐसा लगने लगा कि श्षणभर में वह लालर से लालजी बन गयो। इधर मारवाड से मल्लीनाथ भी अपनी राजपूती शूरता दिखाने के लिये काठियावाड में धाडा (लूट) डालने के लिये जा रहे थे। रास्ते में उनका लालर से मिलना हुआ। लालर ने अपना परिचय दिया-- मैं तो अलसी का पुत्र हू, लालजी मेरा नाम है। अपने पिता के काम से घोडे लाने के लिये जा रहा हू। सामने बड़ में मेण भाला रोपा हुआ है। अगर मेरे साथ चलेंगे तो आपको अपने घांड पीछे रखने होंगे आगे मैं रहूगा।" मालोजी ने बात स्वीकार कर ली। किसी पडाव पर लालजी नहाने बैठ गये थे कोई वख्र आदि का परदा नहीं किया था। मालोजी समझ गये यह लालजी नहीं अलसी की बेटी है। उसके रूप सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मालोजों ने विवाह का भ्रस्ताव रखा। लालर ने कहा-मुझे विवाह नहों करना है काठियावाड के द्वार तोडकर अपने पिता को दिया हुआ बचन था बह मैंने पूय कर लिया। अब मेय्य भी समय हो रहा है। बाला बदय के घर मेरा पुनर्जन्म होगा मेरा नाम रूपा रखा जाएगा। दूधवां गाव में चार प्रहर शिकार खेलने आना वहीं पर आप मुझसे विवाह कर लेना। मालोजी विवश थे फौज लेकर अपनी राजधानी लौट आये। घारू माल रूपादे की बेल में भी कथा तो यही है लेकिन उसमें मिलने वाला लालर के दिव्यत्व और अलौकिक शक्ति का बखान अतिशयात्मक भली हो किन्तु वह अधिक गेचक मन पडा है। देखिये-- लालर बचपन में हो घोड़े को सवारी करने लगो थी। अपनी सहेलियाँ के साथ जगल में खल रहो लालर का मालाजों देखकर उस पर मोहित हो जाते हें। लेकिन उसका दिव्य स्वरूप देखकर कहने लगे--तुम तो सब जानती हों। हम काठियावाड जा रहे हैं घोडे लूटने के लिए। तब लालर को फौज भी मालोजी के साथ चल पडी। यह तय हुआ कि जितने घोडे लूट लेंगे आधे आधे बाट लेंगे। युद्ध शुरू हुआ। काठियावाडी फौज के सामने मालोजी की सेना के पैर उखडने लगे। तब लालर ने दाना मार-- ऐसा नय से जारी श्रली नहीं देवे रण प्रीठ। आसन आगे जल जावे ज्यों कुल्हड का कीट # यह सुनकर मालोजी में दुगुग्म जाश आया और लालर के साथ रक्षेत्र में कूद राणी रूपादे और मल्लोनाथ जीवनगाथा २३ परे | काठियावाड के सैनिक भाग गये और लालर ने घोड़ों को घेर लिया। घोड़ों का बटवाण होने लगा। आधे आधे बाट लेने के बाद भी एक घोडा रह गया। अब उसका बटवाग कैसे करें। तब कहते हैं घोड़े के दो हिस्से कर अपने वाले भाग की लालर ने जीवित कर दिया। मालोजी में वह शक्ति कहा से आती ? उस समय लालर ने अपना पयकर स्वरूप दिखाया मालोजी भयभीत होन लगे। तब लालर ने अपना सौम्य सुन्दर स्वरूप दिखाया और कहा--दूधवा में बलभद्र के घर जन्म लूगी तब रमते खेलते आप बहा पर आना वहीं पर आपसे मेरा जिवाह होगा। लालर ने अपने पिता के वचन कौ लाज रखी। इसलिए कहा जाता है--जैं लालर नहीं जममती अकसी जावत अगूत।” जिस लालर ने काठियावाडो घोड़ों का चारण भारों को दान देकर अपने पिता का उद्धार किया बलपद्र के घर जन्म लेकर उसका मालोजी से कैसे विवाह सम्पन्न होता है यह जानने के लिये निश्चय ही आप उत्सुक होंगे। इसलिए अब इसी कथा को आगे बढ़ाते हैं। ७ रूपादे का जन्म और मल्लीनाथ से विवाह- बलभद्न या बाला बदण खेती करने वाला और सामान्य माली हालत में गुजारा बरने वाला इसान था। कहते हैं वर भी उगमसी भाटी का शिष्य थां। लालर को इन्ही की ब्रेटी बनकर पुनर्जन्म में रूपादे के नाम से विख्यात होना था। बाला बदरा जी को पली अनुकूल समय आने पर गर्भवती हो गयी। पहले मास में सरोवर स्नान की उन्हें इच्छा हुई। तीसरा महीना लगा तब खोपश--खारीक उन्हें अच्छा लगने लगा कभी पान खाने को तो कभी घेवर के लड्डू खाने की इच्छा बलवती होती गयी। यों; करते करते ९ मास को अवधि पूरी हुई तब बलभद्र के घर एक नन्हीं सी सुन्दर बच्चो ने ताबे के पाये से जन्म लिया। कहते हैं लड़कों बहुत जल्दी बडी हो जाती है। विशोरी रूपादे जिसका मूलनाम यशोदा रखा गया था धीरे धोरे अपने पिता के काप में भी हाथ बटाने लगी। शिव का मदिर बनाकर पूजा करना उसका खेल बन गया था उप्र के साथ साथ उसमें भक्ति भावना भी बढती गयी। मालोजी ने एक दिन अचानक अपने चाकरों से कहा--जीन लगाकर घोडा तैयार करो। आज चाए भ्रहर तक शिकार खेलने जायेंगे। यहा से चलेंगे जो दूधवा गाव में जाकर ही जल पौयेंगे। मालोजी जब अपने साथियों के साथ दूधवा पहुचे तब रूपा मूग की खेती सम्हाल रही थी। उनवी दृष्टि रूपादे पर पड़ी पूर्वजन्भ के संस्कार प्रबल थे। बदग जी या बलभद्र जी को बुलाने के लिए मालोजी ने अपने आदमी भ्रेजे। आदमियों ने जावर कहा चदण जी सो रहे हो तो चाहर आइये। आपकी बेटी रूपादे से मालोजी की सगाई की बात पक्की की है। बाहर आकर बदरे जी बिनती करने लगे--आप तो राजवी सरदार हो मैं छोर सा ठाकुर पूरी बारात की जलसेवा करने को भी हमारे सामर्थ्य नहीं है कैसे ब्याह कराऊगा ? र्ड राजस्थान सन्त शिगेमणि राणी रूपादे और मल्लोनाथ मालोजी के आदमियों ने जवाब दिया-न्तोरण दूधवा में बाधा जाएगा घुडले को रस्म महेवा में पूरी कर लेंगे। उसने फ़िर से यावना की--अभी गुरुदेव (उगमसी) भी तीर्थयातरा पर गये हैं चौमास्ता है बाद में करा देंग। किन्तु राजहठ के सामने उस गरांब ठाकुर की एक भी न चली। मारवाड के धनी मल्लीनाथ रूपादे के साथ परिणय सूत्र में बध गये । विवाह हुआ तब रूपादे अपने पिता से कहने लगी--दाता पाडल गाय गंगाजल नाग काम्बडिया धारू मेघवाल और तन्दूण (एकतारा) ये सब वस्तुए आप कन्यादान के साथ मुझे दान में दे दो। अपनी आस्था और भक्ति के साधन लंकर रूपादे मल्लीनाथ के साथ रवाना हुई। मल्लोनाथ जी आये तो थे शिकार पर पर जाते में नवविवाहित पली रूपादे को लेकर लौटे। विधि का लेख भों यहो था। हरजी भाटी द्वार-चनाई गई रूपादे की वेल कई भ्रकारों से अवान्तर कथाओं की जोडते हुए गायी जाती है । गोकुलदास जी द्वारा दिये गये पाठ में मालोजी के महेवा आगमन और विवाह को और अधिक रोचक ढग से प्रस्तुत किया गया है। देखिये कथा कैसी रोचक बन पड़ी है-- बाला बदय जी के घर पर शुभ घडी में लक्ष्मी प्रकट हुई। उसका जन्म का नाम था-जलालर। लेकिन घर के लोग उसे रूपा नाम से बुलाने लगे। रूपा बचपन में ही सुखदेव पवार के घर जागरण में जाने लगी उगमसी भाटी का आशीर्वाद उसे मिला। धारू मेघवाल उसका साथी बन गया। थारू के साथ उसका भ्क्तिभाव बढ़ने लगा। समय बौतते क्या देर लगठी है? रूपा अपने पिता के काम में भी हाथ बटाने लगी। एक दिन गाव के चारयें ओर घाड़ों का टापों का आवाज सुनाई देने लगी। मारवाड के स्वामी अपने दल बल सहित आये थे। धारू ने उन्हें देखा और कहने लगा मालोजी क्यों जगल में घूम रह हो। आप प्यासे हैं आपके घोडों का भूख लगा है। तब रूपा ने थारू से कहा-कोई भी हो है तो अपना मेहमान। पता नहीं कौन किस रूप में आता है इनका स्वागत करा अपना धर्म है। रूपादे ने अपनी सेवा भावना से साय फौज को पानी पिलाया भोजन कराया और वह भी होक की मनुहार करते हुए। मालोजी ने देखा--यह लडकी शक्ति वा अवठार ही दिखाई देवी है। अपने पूर्व सुकृत कह रहे हैं कि इससे विवाह कर लें। मालोजी ने बदण जी से आर्थना कौ-- फका को प्रछी जप आवै वीर नजीक। प्याय्रा प्रतनी गौ बले जहिं यरका के पलक # किन्तु बदराजी अपनी सीमाओं को भलीभाति जानता था। कहने लगा--मुझसे यह भार सहन नहीं होगा-- मैपमाल इन्दर चढ़े यत बीजब पनपरोर। राणी रूपादे और मल्लीनाथ जोवनगाथा र्५् इह नाडा में उठते नहीं सरकर देखो और#॥ किन्तु मालोजी कह्य मानने वाले थे। जवाब दिया- यूर्व अक टलमी नहीं कहवा बिस्वा बीस॥ और पूर्व अक नहीं टल पाया। जोशी वेदियों को बुलाया दोए्ण बापा गया विवाह को रस्में पूरी हुई। रूपा मन में सोचने लगी कि जिस भक्तिभाव से मन जुड गया अब उसका विरह कैसे सहन होगा। तब वह घारू से याचना करती है-- रूपा कहे सुण धारू वीर बिछडे पडे पैली वीर कब मिलणा होसी # दोनू निच में राम है सायबों प्रार उतारे ॥ गुरुपुख्त कचन निभावप्ती मालिक बाने तोरे॥ साथा के सायबों सा रमे दिल कप्टया के बारै॥ भारू जी भी असमजस में पड़ गये अब क्या करें। किन्तु गुरु के बचन को किसी भी तरह निभाना था। वे भी सपरिवार रूपा के साथ चले। रूपादे को मालोजी ने “पाटोतण (पाट रानी) बनाया। धारू भी महेवा में रहते हुए सत्सग करने लगे। रूपादे की बाल्यावस्था में उसका भक्ति की ओर जो शुुकाव हुआ उसमें पूर्वजन्म के सस्कार तो प्रभावी रहे ही होंगे किन्तु राजस्थानी में रूपादे को बात नाम से प्रसिद्ध एक बाद में भक्त के तात्यालिक कारण भी चर्चा मिलती है। इस बात को मल्लीनाथ पथ में आयो ते री वात” भो कहते हैं। बीकानेर के अनूप सस्कृत पुस्तकालय में हस्तलेख में सुरक्षित इस भात को डॉ मनोहर शर्मा ने प्रकाशित भी कग़मा है। रुपादे वाल्हे तुडिये की बेटी थी। वाल्हे का खेत जगल में था। रूपादे खेत को रखवाली कर रही थी। जेसलमेर के स्वामी का बेटा (सत ठगमसी) उस जगल से गुजर रहा था। पद यात्रा और गर्मी के व्मरण प्यास उसे सताने लगी। उसके साथ काम्बड था कामड जाति के कुछ लोग भी चल रहे थे। रूपादे जय पर बैठी थी वहा आकर उपपसी ने पूछा--चाई पानी मिलेगा? रूपादे ने कहा--हा। तब उगमसी ने अपने साथियों को आवाज देकर कहा-- साधा आवो!* इसने व्यक्तियों को देखकर रूपादे ने मुह बिगाड़ लिया। जो पानी था ठगमसी थी गये। अब उसे सोच होने लगा-भा बाप को क्या पिलाऊगी? तब उगमसो ने घड़े पर हाथ रखकर कहा “साहब पूणे। थडा पानी से भर गया। इस चमत्कार को देखकर रूपादे आरचर्यचकित हो गयी। तब उगमसो पूछने लगे--शादी हुई या कुवारी हो? रूपादे ने कहा-चाबाजी अभी विवाह नहीं हुआ। उगमस्ी ने रूपादे के हाथ में ताबे की वेल (क्डा) पहनायी और कहा--हर मास २६ राजस्थान रून्त शिरोमणि राणां रूपाद और मल्लीनाथ की द्वितीया के दिन सात घरों से अनाज मागकर उसे काम्बडिया (कामडों) में बाट देना। फिर ठगमसी आगे तीर्थ यात्रा पर चल दिये। जैसा उन्होंने कह्य था रूपादे उसका बयबर पालन करती रही। एक बार मालाजा ने रुपाद का दखा और उस पर आसकत हो तुडिये से कहा--रूपादे की मुझसे शादी क्या दो। तुडिये मे बहुत ननुनच किया। किन्तु उसकी एक नहीं चली। मालाजी ने दबाव देकर रूपादे से विवाह कर लिया और उसे साथ लेकर महेवा के लिय रवाना हुए। रूपादे के पूर्वजन्म और पुनर्जन््म से लेकर मालोजी के साथ विवाह होने वी कथाओं अनुश्रुतियों और बात पर आधारित इस चर्चा से कुछ तथ्य उभर कर सामने आते हैं। जन्म पुनर्जन्म में पद़ि पल्ली के साथ रहने का विश्वास इस कथा का जाधार है। रूपादे न॑ अपने जीवन काल में जो सामान्य पद्धति से चलने का जांवनक्रम बगाया था उसे छोड़ जो अलग असामान्य मार्ग स्वीकार किया वह उसवी लोकोत्तरता या असामान्यन्व का परिचायक है और इसी आधार पर पूर्व जन्म में भी उसके साथ चमत्कारी शक्तियों को जोडते हुए उसमें दिव्यत्व देखने की जयमानस की दृष्टि के भी हमें इन कथाओं में दर्शन होते हैं। बचपन से ही उसका ईश भक्ति की ओर झुकाव रहा होगा किन्तु उसे और पुष्ट करने के लिये उगमसी भाटी की रूपादे पर हुई कृपा भी बातों के माध्यम से उसके साथ जुड गयी। अस्तु॥ अपने स्वामी के साथ रूपादे के महेवा जने पर आगे की जो घटनाएं हैं उनवी अनुभूत्ति भी आपके लिए रोचक ही सिद्ध होगी। इसलिए अब उनकी चर्चा करना उपयुक्त रहेगा। ८. पहेवा मे जागरण का प्रसग- रूपादे की बात के सकलनकर्ता ने रूपादे ने विवाह के पश्चात् भी अपनी साधना जागे रखी थी इस आशय का उल्लेख किया है। ठगमसी कौ आशज्ञानुसार अब भी द्वितीया के दिन सात घर्रो से भिक्षा लेकर उसे वाम्बडियों में बाटने का उसका सिलसिला जारी था। उस समय के परिमिक्ष्य में यदि विचार करें तो राणी का इस तरह से बाहर निकलना लौकिक मर्यादाओं के सर्वथा विपरीत था। फिर भी रूपादे जाती रही। यदा-कदा धार के घर भजन सकीर्तन वरने भी उसके जाने का उल्लेख कथाओं में मिलता है। मल्लीनाथ ने अपनी पहली गणी चद्धावछ को उपेक्षा कर रूपादे वो पाटेतण (पहनी) बनाया था। स्री स्वभाव को आप जातते ही हैं। रूपादे के इस प्रकार के स्वच्छन्द विचरण पर चद्रावऋ्व को आपत्ति होना स्वाभाविक था। फिर सौंतियां डाह से वह पीडिव भी हो गया। यदा कदा वह मल्लीनाथ जी से शिकवा शिकायत भी करती तो उसका असर नहीं होठ क्योंकि वे तो रूपादे के सौन्दर्य पर मुग्ध थे। रोज की शिकायतों से परेशान होकर एक बार उन्होंने कह दिया--“जब स्वय आखों से देखूगा तब ही यह बात मानी जा सकती है।” रूपादे का सत्सग चलता रहा दिन पर दिन बीतते गये। शंणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा र्७ थार मेघवाल रूपादे के साथ ही आकर महेवा में रहने लगे थे। एक दिन गुरु उगमसी आयी उनके घर आये घारू के तो मार्मे सारे पाप ही घुल गये। उगमसी ने कहा--भाई अबकी शनिवार के दिन द्वितीया विधि आ रही है। इस दिन कलश की स्थापना कर जागरण किया जाए, अलख को जगाया जाये। गुरु की आशा शिगोधार्य थी। सभी सन्तों और भर्क्ो को “वायक” (निमत्रण) देने का सिलसिला शुरू हुआ। वायक मिलने पर उगमसी के सत्सग का लाभ लेने के लिए कई सन्तों का आना शुरू हुआ। राणा मोकल रामदेवजी पाबूजी हस्बूज़ो पीर पैगम्बर ऐल सब आने लगे। चौक पुराया (सुशोभित मण्डित) गया मोतियों का मडप सजाया गया। सभी लोग आये रूपादे नहीं आयी। तब उगमसी ने धारू से कहा-जाओ रूपादे को वायक दे आओ। तब घारू रूपादे को जागरण का निमत्रण देने के लिये चल दिये। धारू को अपने दरवाजे पर देखकर रूपादे को क्या प्रसनता हुई है-- आज ये भाण भलो ऊगो थारू म्हाने दरसण देणा॥ रूपादे पूछही है--किस दिन जागरण है? कब आजा है? फिर उसे अपनी स्थिति की मर्यादा याद आती है तब नियश होकर कहने लगो-बडा ही सकट है। कैसा योग बनेगा आने का। मेरा भ्रणाम गुरुजी से कहना और मेरी ओर से अरज करना--हरि मिलायेगा हभी अपके दर्शन होंगे-- हर प्रणाम गुर ने म्हय कैणा हरि मिन्ठे तो मिव्यणा ॥ कह तो दिया--अब मिलना मिलाना हरि के हाथ है। फिर भा उसका मन नहीं माना। जेसे जैसे जागरण कौ वेला समीप आदी गयी रूपादे का भक्तिभाव अधीर हो उठा। शुगाए कर पूजा को थाली को मोतियों से सजाया। गढ के दरवाजे बद थे--दरवाजे अपने आप खुलते गये--बद होते गये। “ठम ठम पैर श्खती रूपादे महलों से बाहर आ गयी। रूपादे को किसी को परवाह नहीं थी उसे तो गुरु से मिलना था। वह सीधी जागरण स्थल पर पहुच गयी। जूतिया बाहर उतार कर गुरु उगमसी के चरण स्पर्श किये। घारू के घर भजनकोर्तन शुरू हुआ उसकी आवाज ठेठ महलों दक पहुच गयी और राणी चद्राव& जो की नोंद टूट गयी। कीर्तन कौ आवाज कान में पड़ते ही सणी चद्गावक्क ने अपनी दासी गोमती (या गोमली) को महल का चप्पा चप्पा छान मारने का आदेश दिया। चुगलखोर औरत को और क्या चाहिये? उसने जल्दी जल्दी दूढकर देखा रूपादे अपने महल में शणी से कहने लगी-- 0020 चिंगविया सो पद्य विया बाई रग में रंग भराणा। नमक मिर्च लगाते हुये गोमदी ने कहा--रोज स्रेज का सकट है रोज है। आज तो आप जाकर मालोजी वी जगाओ और सारी हकीकत बह दो ्प २८ राजस्थल सन्त शियेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ बदती बाद (6) यगीरे आगे नित दुछ देती ग्हानै। माल जयाब नै यत हलाय दे कूरे गए जद वानै॥# चद्रावढ जी को चैन कहा से आवे? तुरत मालोजी के महल में पहुंची और उनको जगाकर कहने लगी-क्या खाक राज कमा रहे हो आपके घर की पत्चिनी घर में नहीं है- पतली नहीं रै थारी पर की पद्रथी काई काई राज कम्राणा ॥ मालोजी को फिर भी विश्वास नहीं हुआ। बोले--क्यों झूठ बोलवी हो और छल कपरट करती हो। राणी तो मेरे साथ रगमहल में सो रही थी। जायेगी तो कैसे जाएगी। यहीं कही पर सो रही होगी। महलों में अच्छी तरह से देख लो॥ दीपक लगाकर सारा महल छान मारा। रूपादे कहीं पर नहीं थी! उसकी सेज पर बासग (वासक) न बैठा हुआ। चद्रावव्ठ ने कहा--लो देख लिया। आपकी प्यायै तो मेघ धारू के घर गयी है। सुनते ही मालोजी बहुत क्रोधित हुए। भला राजा की पत्नी रात आधी गये मेघवालों के धर जावें यह कौन पुरुष सहन कश सकता है? गुस्से में कहने लगे--ऐसा फाग खिलाऊगा कि एक घाव में सोलह हुकडे कर दूगा-- एक याव में सोलह ठुकडा उम्रडा फ्राय खिलाणा ॥ तब मालोजी ने एक पागी (पैरों के निशात देखकर आदमी की खोज करने वाला व्यक्ति) को रूपादे का ढूढने के लिए भेजा और कहा कि रूपा की एक मोजडी (जूती) उठाकर ले आवो। मालोजी के हुक्म वी तुस्नत तवामील की गयी। परागी गया और लाल हीरें से जडी एक मोजडी उठाकर ले आया। जागएण में बैठे लोग वल्लीन हो गये । पाट पर कलश और चारों ओर हर एकके माम की एक-एक जोत जल रही थी। वातावरण शान्त था। भोर का समय हुआ तब रूपादे मे गुरु से घर जाने की इजाजत मागा-सफल हुई वो दुबारा आपके क्षण स्पर्श करुगी। बाहर आयी तो मोजडी नहीं। तब गुरुजी ने अपने प्रभाव से स्वर्ग से पन्ने हरे जडी हुई जूती मगायी। अब रूपादे वापस अपने महलों की ओर खाना हुई। बिजलिया चमकन लगीं-बादल गडगडाने लगे। इद्ध देवता प्रसन हो गए। चारों ओर बरसात शुरू हुई ' झर झर नोर बहने लगा। सामने देखा वो मालोजी सस्ता रोके हाथ मैं तलवार लिये हुये खडे हैं। अब रूपादे प्रयभीव हुई। क्या जबाव दूगी? मालीजी का क्रोध अपने आपे में नही रहा। कहा--तुमने क्षत्रियों की मर्यादा तोडकर अर्क्म करके मुझे बहुत लज्जित किया है-- खबरे तणी खोय दी धणी अकरम काम कमाणा। महल छोड नै गया ग्रेघा घर डगी लाज लजाया# मैंत्रे अपनी आखों से तुम्हें काम्बडियों के साथ खाते पोते देखा है। तब रूपादे राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाश्य २९ बडी विनप्रता से कहने लगी--मैं तो फल फूल लाने गयी थी। राव जी को आश्चर्य हुआ कि कही आर पास में बगीचा तो है हो नहीं-एक मडोर में है वह बहुत दूर है। मालोजी को विश्वास नहीं हुआ तो थाली का आच्छादन तलवार को नोंक से हटाया। थाली में देखा तो मार्गों कोई बगोचा ही लगा है--महेवा में न उगने वाले फल फूल भी उसी में दिखाई दिये। इस चमत्कार से प्रभावित हुए मालोजी का गुस्सा एकदम ठडा हो गया और स्वय शणी के पथ में जाने की इच्छा प्रकट करने लगे-- जग पथ में ले आओ पदमणगी / थे रहिया घणा दिन छात्र ॥ रूपा ने कहा--भ्वामी ! यह कोई साधारण पथ नहीं है। आपके जैसे ग़जवी सरदारों का इसमें निभ पाना मुश्किल है": खरतर धारा खाडा री चलणा। यायू सेल नहीं जावे सहणा ॥ लेकिन मालोजी भी अपनी घुन के पक्के थे पीछे हटने वाले नहीं थे। आखिर में रूपादे मालोजी को लेकर अपने गुरु जी के पास गयी और विनती की-- राबब माल अलब पद लाया। ज्यानै जमे किस कलह 20 लेणा/<; गुरुजी ऐसे वैसे को दीक्षा थोडे ही देते। के सामने परीक्षा की घड़ी आ खडी हुई। उगमसी भे बडी कठोर शर्ते रखी-नुम्हें पाडल गाय और गगा जल घोडे को मारना होगा। अपनी रानी चद्रावछ की हत्या करो । अपने कवर जगमाल की हत्या करो। मालोजी न राणी व कवर की हत्या की ओर भगवा वेष घारण कर पर्दे के पीछे बैठकर परमेश्वर का नाम जपना शुरू किया। मालोजी के त्याग से गुरु उगमसी प्रसल हो गये। उन्होंने पाडल गाय रानी और कवर गणाजल घोड़ा सभो को जीवित क्या। यह देख मालोजी प्रसन हुए। सणा रतनसी ने मालाजी के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया कानों में कुडल डलवाये--उस घड़ी से मालोजी रावल माल कहलाने लगे। बिलाडा के श्री शिवर्सिह चोयल के द्वारा सगृहीत रूपादे कौ बेल में मल्लीनाथ के समर्पण तक की कथा का यह सार है। डॉ सोनाशम विश्नोई में रुपादे को बेल का जो पाठ सगृहीत किया है उसमें इस कथानक में थोडा सा अन्तर है । उसमें जागरण में आये सन््तों में माययणा से रिणसो और खींवसी और कच्छ भुज से जैसल तोलाद॑ के नाप भी जुड गये हैं। रूपादे जब जागरण के लिये रवाना होती है तो रात में महल के दत्वाजे रद होते हैं। वह पहेरेदारों को कहतो है--खोलो। चाबिया मालोजी के पास थीं) कहा से ३० राजस्थान सन्त शिरोमणि गणा रूपादे और मल्लीनाथ खोलते ? तब राणी ने अपनी अगुली वी घाबी बगायी और वाले खुल गये। जागरण पूरा होने पर जब रूपादे रवाना हुई तो उसके साथ उग्मसी ने रमदेवजी को भेजा। मालीजी के सामोे पडने पर रूपादे सत्तियों का स्मरण करने लगी-- त्रेदा युग में हरिश्वद्ध हार गये थे किन्तु तायमती नहीं हारी । हरिणाकुश को मारने के लिये हे हरि तुमने प्रहाद का रूप लिया। द्वापर युग में दुशासन के हाथों लज्जित होती द्रौपदी की तुमने लाज रखी। बलि को पाताल में गाडकर जनता को रक्षा की। अब मेरी रक्षा को-- आ वन्िया खाया ग्रोय स्पाम। मी के आवे मीं बाई रूपा रै भाव॥# अबला वी पुकार पर भगवान हमेशा सहायग करते हैं। रूपादे का भी “थाली में बाग” लगाकर उन्होंने उद्धार किया। मालोजों को शरण में लेकर उगमसी ने उन्हें दांक्षा दी मालोजी उनके अनन्य भक्त हो गये। इस जागरण में रूपादे की थाली में बाय लगाकर तथा मृत राणी चद्धावक्त जगमाल पाडल गाय गगा जल घोडे को पुत्र्जीवित कर मालोजी को जो परचा दिया (साक्षात् अती्ति कराई) उसको इतिहास सम्मत यद्यपि बोई तिथि नहीं है फिर भी डॉ बदरीप्रसाद साकरिया ने निजी सग्रह में उपलब्ध रुपाद की बेल (पद ६८) में इसकी चर्चा प्रसगोपात्त की है। तदनुसार यह तिथि चैत्र शुक्ला द्विवीया १४३९ वि मानी गयी है। समत चबदे सौ सरोकार गुणवाब्यैशौं बरस वियार/ अजब बोज सतीचर वार चैत श्यों प्रो फरचार ॥६८॥ रूपादे को बात के अन्त में मालोजी को ठगमसी द्वारा दीद्धा देकर यय में लिये जाने के सबंध में एक महत्वपूर्ण उल्लेख हुआ है। समर्पण के बाद जब रूपादे मालोजी को गुरुजी के पास ले जाती है तब उग्रमसी ने रावल मालोजी के हाथ में ताबे को चेल (कडा) डालकर मोगेडिया दिया और उपदेश दिया कि द्वितीया के दिम सात घरों से भिक्षा मागकर काम्बडियों में बाट देता। दूसरे दिन प्रात मालोजी उगमसी जो को अपने महलों में ल॑ गये और उनकी बडी आवशन्गत वी। उगमसी लगभग एक मास तक मालोजी के पास रहे। मालोजी में उनसे पूरी विद्या लेने पर ही उन्हें विदा किया। उपर्युक्त कथा रूपादे की बेल” नाम से उपलब्ध होने वाली तीन विभिन्न पाठान्तर बाली गचनाओ पर आधारित है। ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि ये तीनों ही प्राठानए १६ १७ १८वी शी तक गाये जाते रहे होंगे। इनमें सशोधन भी होते रहे! टाए अन्तर और अनेक सशोधरनों के पश्चात् वर्तमान में मेघघाल समाज में जो बेल गायी #ना है वह केवल रूपादे की नेल न होकर “धारू माल रूपादे रो बड़ी बेल के 7 से असिद्ध है। इसमें अन्यात्य अस्षेपाश हैं क्या यह जी अ्रतीह होता है कि मेघवालों ने *'दे की साये चर्चा में धारू मेघवाल की महत्ता को बढाने के लिए संभवत इसमें राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा ३१ कई बातें ऐसी जोड दी हैं जिनकी काल्पनिक होने की सभावना की जा सकती है। गोकुलदास्त द्वात सकलिः यह पाठान्तर अधिस्रख्य मेघवाल--गायकों द्वाण गाया जा रहा है इसलिए कथा में आये उन अशों की चर्चा भी आपको रुचिकर लगेगी। उगमसी वी आज्ञानुसार धारू जब रूपादे को जागरण में आने का निमत्रण देने पहुचता है तो उसके सामने समस्या गढ के साव दरवाजों को पार करने की थी। शत में चाना होगा तो शय्यां खाली दिखेगी। इस समस्या को सुलझाने का जिम्मा धारू मेघवाल ने लिया। उसने जाकर वासक नाग को जगाकर कहा कि रूपादे ने तुम्हें बुलाया है। ठीक समय पर नाग महल में पहचा और रूपादे के रवाना होने से पहले उसकी शब्या पर लट गया। चद्रावढू ने जब शिकायत की और रूपादे को महलों भें खोजा गया तब उसकी शय्या पर नाग को सोते हुए देखकर मालोजी आग बदला हो गये। रूपादे को दूढने 'करमतिया नाई जब पहुचा और उसने मोजडी चुराई तो अन्दर पाट पर लगायी गयी ज्योति मद पडने लग गयी। इससे साधुओं ने अनुमान लगाया कि कोई नुगरा (गुरु कृपा से रहित) व्यक्ति यहा पर आ गया है। मालोजी के समर्पण के बाद जब उगमसी को उन्होंने गढ में आने का न्यौता दिया ठो उनके साथ शमदेव ठोला जेसल ऐलु देलु भैरू हनुमत बालीनाथ रणसी-सब पहुच गये। रावरछूजी के दीक्षित हाने पर घारू मेघवाल ने उन्हें उपदेश दिया और राणी रूपादे ने भी मल्लोनाथजी को उपदेश देकर कृतार्थ किया। ऊपर “रूपादे की बेल के जिन चार सस्करणों के आधार पर जागरण कौ चर्चा को है उनमें जागरण के स्वरूप और उसकी दीक्षा विधि के बारे में भी कुछ जानकारी उपलब्ध हुई है। चैसे तो इस पथ के लोग अपनी रहस्यमयता के लिये प्रसिद्ध हैं फिर भी जो कुछ जानकारी “बेल से आप्त हो सकती है वह भी ज्ञातवर्धक है। ९ जागरण का स्वरूप और दीक्षाविधि- मेघवाल समाज के तथा अन्य पिछडी जाति के व्यक्तियों द्वारा अब भी इस प्रकार के जागरणों का आयोजन किया जाता है और उसे अत्यन्त गोपनीय रखा जाता है--यहा तक कि मडली में सम्मिलित होने वाले व्यक्ति के घरवालों को भी पता नहीं चलता कि उनका कोई सदस्य इस पथ का अनुयायी है। मारवाड में इसे कृण्डापथ कहा जाता है। इस पथ के जम्मे या जागरण की कुछ विशेषताएं इस प्रकार देखी जा सकती है। १ जागरण शुक्ल पक्ष को द्वितीया को ख़त को होता है। चैत्र और भाद्पद के शुक्ल पक्ष की द्विताया को सर्वार्थसद्धिकारक माना जाता है। २ भजन सकीर्तन और असादी आधी रात से भोर होने तक के क्मय में सम्पन्न होतो है। ३२ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ ३. पत्येक व्यक्ति को गोपनीयता रखनी पडती है। ४. जागरण के आयोजन का वायक (निमंत्रण) सभी देवताओं और सन्तों को दिया जाता है। ७ चौक को सजाकर उसमें पाट की स्थापना होती है। मडित पाट पर कलश में गगाजल भरकर स्थापित किया जाता है। ७. पाट पर अलख के प्रतीक के रूप में ज्योति लगायी जाती है कभी प्रत्येक व्यक्ति की एक एक ज्योति ग्रज्वलित किये जाने की बात भी सुनी जाती है। ८ ओंकार का श्वासोच्छवास के साथ ही अजपा जाप किया जाता है। ९ प्रसाद में मास का विवरण किया जाता है। जैसा-वेल में ही उल्लेख है-- ताहरा थान आगे चढावों हतो आत्रवव्ठि काछूजो छुकियो। सू थाब्दी माहे घात रूपादे नू दीनहो. थाब्व्यों माहे घातियो हुतो सु मालैजी दीठौ हुतो। (रूपादे री बात)। १० सभी भकतजन अलख निशकार ईश्वर का भजन सकीर्तन करते हैं। इस पथ में दीक्षा लेने का भी अलग ही विधान है। रावछ मालोजो के महलों में उगमसी के आने पर उन्हें दोक्षित करने को कथा आपने पढ़ी है। दीक्षा लेने वाला ज्यक्ति पाट के सम्मुख बैठता है सामने ज्योति जलती रहती है। पौत वर्ण का पर्दा लगाकर साधक को औरों की नजर से बजाया जाता है। फ़िर साधक की आखखें बाघ दी जती हैं। उसके कानों में लोहे के कुण्डल पहनाये जाते हैं सेली सीगी उसे पहनायी जाती है और फिर गुरु उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद स्वरूप गुरुमतर देते हैं। साधक के हाथ में ताबे की वेल (कडा) पहना कर उसे आदेश दिया जाठा है कि हर द्वितीया को सात घरों से आखा (साबुव चावल) की भिक्षा मागकर उसे काम्बडियों में बाट दें। दूसरे शब्दों में उसे धीरे धीरे काम्बडिया या काम्बड बनाया जाता है। मालीजी को दी हुई दीक्षा से इतनी ही बातों का खुलासा हो जाता है। जैसा पहले मैंने कहा है कि यह पथ रहस्यात्मक रहा है इसलिए दीक्षा लेने के पश्चात् उस व्यक्ति पर क्या बीतती है या उसके आचरण के क्या नियम हें इसकी जानकारी स्वयं उस पथ में जाने से ही मालुम हो सकतो है। सभवत इसीलिये यह कथा मालोजी के पथ में दीक्षिव होने तक ही सीमित हे। कथा में ज्यगरण के पश्चात् मालोजी को परचा दिये जाने की घटना का जो उल्लेख है उसका समय १४३९ वि का दिया गया है। मालोजी ने भगवा वेष भी घारण कर लिया कुण्डल पहन लिये सेली सिंगो धारण कर ली। क्न्तु इसका आशय यह कदाधि नहीं है कि वे पूर्णत विरक््त हो गये और राजकाज छोड दिया। ऐतिहासिक प्रमाण यह बठलाते हैं कि राव चूडा ने मडोर पर वि १४५२ ५३ में कब्जा किया। उस समय शणणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा झ्३ वह मडोर के पास सालोडी की चौकी पर तैनात अधिकारी था। मडोर विजय के बाद मालांजी चूडा के पास आये हैं और उसके साथ नागौर तक गये हैं। ये प्रमाण इस बात के सकेत हैं कि राजनीति में भी उनकी क्रियाशीलता बराबर बनी रही हालाकि रूपादे और उनके पथ का प्रभाव उन पर बना रहा। मालोजी के समर्पण से रूपादे पर एक राणी होने के नाते जा बधन थे वे शिधिल पड गये। दूसरे शब्दों में उसको साधना का मार्ग प्रशस्त हुआ। चूकि यह पथ समाज के उपेक्षित वर्ग को साथ लेकर चलता था इसलिए इसके अनुयागिर्या की सख्या बढती रहो। फिर शासक और उसकी राणी इस पथ के अग्रणी मानें जान लगे। रूपादे की साधना के साथ मालोजी भी जुडे हुए थे। मालाणी प्रदेश गुजगत की सीमा पर है इसलिए सहज हो रूपादे के भजन और वाणिया गुजरात तक फैलती रही । माख़ाड के लोगों की तरह गुजरात में भी रूपादे मल्लीनाथ के पद और वाणिया गाई जाने लगी ओर धीरे धीरे जैसल दोलाद और रावक्क मल्लानाथ रूपादे के सन्त समागम जनता में चर्चा के विषय अने। रूपादे की स्वयं को और मल्लीनाथ से विवाह और पथ में आन की चर्चा गुजरात में यहा तक लौकप्रिय हो गई कि उन्होंने अपनी ओर से रूपादे को सौगष्ट की लड़की मान लिया। इसे रूणदे मल््लीनाथ की व्यापक प्रभावशीलता ही कहा जाएगा। पूर्व चर्चित कथाओं की तरह यह कथा भी रूपादे की दृढ़ता का क्सि प्रकार बखान करती है उसकी चर्चा निश्चय ही पूर्व वार्ताओं के सातत्य में सोने में सुहाग सिद्ध होगी। १० रूपादे-मल्लीनाथ का गुजराती आख्यान-- गुजरात में लोकप्रिय रूपादे मल्लीनाथ कथा का स्वरूप पूर्व कथाओं से किंचित् अलग है। यहा रूपादे अलख की आगधना करने वाली निर्गुण सन्त साधिका नहीं है बेसत् भगवान् कृष्ण को भक्त हैं। मल्लीनाथ उसकी साधना में बाधाकारक नहीं है। सन्त समागम और धारू भेघ प्रसगों कौ चर्चा है उगमसिह भाटी देवायव का इस आख्यान में कही स्थान नहीं किन्तु जैसल तोलादे की चर्चा हुए बिना कथा समाप्त नही होती है। भरम्भ होता है--मारवाड में पडे अकाल की पीडा से ।६१ मारवाड में अकाल पड गया था। गरीब जनता दिन भर मेहनत मजदूरी कर किसी बरह से दो समय की शेटी जुटाने में लगी हुई थी। पहले हो बरसात नहीं थी और जहा थोडी बहुत हुई थी वहा की फसल को एक जगली सुअर नुकसान पहुचाता था। धौरे धीरे फसल खत्म होने लगी और कोई भी उस सुअर को न वो मर सका और ने हो पकड सका। इस हालत में परेशान गाव के लोग मारवाड के धणी के पास पहुचे-- महाराज की जय हो कौ आवाज राजधानी में यूजने लगी। महाराजा ने अपनी प्रजा के प्रतिनिधियों की बडो आवभगत की और पूछा-आप सब लोगों को इकट्ठ हाकर यहा पर आना पडा ऐसो क्या वजह हो गयी। ग्रामोर्णा ने अपना दुखडा शेया। महाराजा क पास में ३४ राजस्थान सन्त शिरंमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ बैठे मालदेव (मल्लीनाथ) से रहा नहीं गया और उन्होंने गुजास्श की-रे एक क्या कई सुअर एक स्गथ आये तो भी खत्म कर दूगा। आप लोग निर्श्चित रहो। कल स्ेरे तक उम्त सुअर को मारकर दरबार में अपना मुह दिखाऊगा।” ग्रामीण जन प्रसन होकर रवाना हो गये। मल्लीनाथजी हाथ में भाला ले घोड़े पर सवार हुए। उनके साथ और भी दो चार सैनिक हो गये। अब सुअर को पकडने या मारने के लिये वे और उनके साथी घोड़ा दौडाने लगे। लेक्नि सुअर हाथ आता नहीं दिखाई दिया। शाम पड गयी। तब मालोजी ते अपने साथियों से कहा--तुम घेर लो भाले से एक ही घाव में इसे खतम कर दूगा। लेकिन बात कुछ नहीं बनी। रात आधी निकल गयी-आगे सुभर पीछे मालोजी दौडते रहे। मारवाड पीछे छूट गया अब सौराष्ट्र की धरती पर दोनों आ गये। लेकिन अब सुअर थक गया। वह खडी फसल में एक खेत में घुस गया। मालदे ने आव देखा न त्ाव और अपना घोडा भी उसी खेत में घुसा दिया। अब सुअर भाग नहीं सकता भा। थोडी ही देर में नजर पडने पर मालदे ने उसे भाले से बीध दिया। खेत में एक चारपाई (माचा) पडी हुई थी। उसके एक पैर से घोड़े को बाप कर खुद सुस्ताने लगे। इतने में एक युवती की आवाज आई--ए जवान ! क्या यह तेरे माप का भगीचा है? नीचे उतर और अपने खच्चर को लेकर नौ दो ग्यारह हो जा। इस धमकी का कोई असर होना दूर लडकी की सुन्दरता पर मुग्ध होकर मालोजी उसे देखने लगे। उसने फ़िर एक बार धमकाया-ओरे नीचे उतर क्या देख रहा है? तो मालदे कूद कर खडे हो गये! लडकी ने पूछा-मेरे खेत में फसल को जो नुकसान हुआ उसे कौन भोेगा? तू या तेरा बाप? धीरे थीरे लडकी का गुस्सा ठडा हुआ। मालदे ने पूछा--तुम्हाग अव्ा पता क्या ? किसकी बेटी हो ? लडकी खिलखिलाकर हस पडी और बोली-मेरा नाम रूपा। वढवाण के राजपूत की बेटी हू, बामण बनिया नहीं/ मालद॑ ने भी अपना परिचय दिया लेकिन लडकां को सहसा विश्वास नहीं हुआ। फसल के नुकसान के 'बदले में मालदे ने अपने गले का “नौलखा” हाए निकालकर उसे दिया और राम राम रूपादे कहकर मारवाड के लिए रवाना हुये। मालदे का शरीर आगे दौडता जा रहा था मन रूपाद में उलझ गया। सुअर मारकर लौटने पर मालदे की बडी प्रशस्ता होने लगी। सब ओर से बधाई आते लर्गी। लेकिन उन्हें कोई चौंज अच्छी नहीं लग रहा थीं। न भूख थीं न प्यास। किसी से बाव करने को भी जो नहीं चाहता था। कसी की समझ में नहीं आया कि इसे क्या हुआ। बेचारी रानी मा से उनको यह हालत देखी नहीं जा रही थी। इधर मालद॑ के दिलो दिमाग पर रूपादे छायी हुई थी। उसके अलावा उन्हें कोई बात सूझती राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा ३५ ही नहीं थी। आखिर भा से रहा नटीं गया। उन्होंने बेट से पूछ हो लिया--सोरठ से लौटने पए तुमने अपनी क्या हालत बना रखो है? न खाना न पीना। बोलते नहीं हो बात का जवाब भी नहीं देते हो? तब हिम्मत जुगकर बोले--एक सोरठियाणी को मैने दखा है। केसर मोरी वी लडकी है और राजपृत है। मा को इतना इशारा काफी था। उसने कहा--सुम निर्श्वित होकर राज काज सम्हालो। सारा इन्तजाम हो जाएगा। अपनी चिन्ता का भार मा पर छोड मालोजी कुछ आश्वस्त हुए। दूसे ही दिन राजमाता ने अपने प्रषानजो को आदेश दिया--राज के कुछ 'ोगों को साथ लेकर सौराष्ट्र जओ। वढवाण नगर में केसर मोराजी रहते हैं। उनकी रूपादे नाम की लड़को है। उसे मालदे के नाम से चून्दडी ओढा कर वापस आना। प्रधानजी आदेश मिलते ही दूसरे दिन सौराष्ट् के लिए चल पडे। रूपादे ने मालदे के जाने बाद ही एक दिन यों ही उसके खेत में आने कौ बात छेडी। पिता अनुभवी थे। उसकी किसी बात का जवाब नहीं दिया। रूपादे बात करती रही। इतने में सन्त माघु उनके घर आये। “जय गुरुदेव कहकर साधुओं का उसने स्वागत किया। गत को भजन कौतन में रूपादे जागती रही और भक्ति भाव में डूब गयी । श्रातकाल साधुओं को कुछ दूरी तक पहुचाने रूपादे गई जितने में प्रधानजी केसर मोरी के घर पर आ गये। प्रधानजी और उनक रसाले का जोर शोर से स्वागत कर दूध पिलाया और फिर मोरी पूछने लगे--सहाशय। कैसे पथारना हुआ २ प्रधान जी--हरमें जाना तो द्वारका था। किन्तु हमने सोचा डाकोर के दर्शन करते बरलें। सो इधर आना हो गया। जोधपुर के मालदे का प्रधान हू। साथ में और लोग भो शहर के बार रुके हुए हैं। केसरी मोरी--महाराज। मैं साधारण राजपूत हू। जागीरदार भी नहीं हू। 20 इससे क्या? तुम्हारे लडकी फे भाग्य में तो राजमहल के सुख भोगना लिखा ॥ बेचारा केसर मोरी कुछ नहीं समझा। तब भ्रधानजो ने और खुलासा क्या-- राज के लोग हमारे साथ है और मासवाड के स्वामी मालदेजी के नाम को चूदडी आपवी बेटी को ओढाने के लिए हम आये हैं। केसर मोरो सोच में पड गया--क््या बोलता। अब शधान ने देखा--बात बन गयी। कहने लगे-देखो भाई मारवाड के धणी का और भो लडकिया मिल जायेंगी लेक्नि तुम्हारी बेटी फिर कभी रानी नहीं बन पाएगी। बंटी के जीवन मरण का प्रश्न था। केसर मोरो ने क्हा-रूपादे से पूछ कर जवाब दूगा। भ्रधान जी भी कम नहीं थे। बोले-रूपा हा कट देगो तो--ही हमें भोजन के लिए बुलाना। नहीं तो हम चले। ३६ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ इधर केसर मांस ने रूपा को सामे बात बतायी। वह भी दुविधा में पड गयी क्योंकि उसका नियम था कि अदिधि को भोजन कराने के बाद ही वह भोजन कर सकती धी और उधर अविधि चूदडी ओढाने पर आमादा थे। रूपा अपने भक्तिभाव में मस्त यी। उसने मा से कहा--शा सेत मन ससार में नहा लगवान- गोविंदो ग्राण हमारे रें। मेने जय लाग्यो खायें रे॥ मा ने अतिथि भोजव के व्रत वी उसे याद दिलायी-बेटी तुम हा नहीं करोगी तो मेहमान भूखे लौटेंगे। तुम्हाय व टूटेगा। तब रूपादे ने कहा--चलो प्रधान जी से बात करते हैं। रूपा--प्रधानजी । मारवाड के धणी की चूदडी ओढने को मैं तैयार हू। लेकिन एक शर्व है। प्रधान-कौन सी? रूपा--मैं द्वारकाधीश का पूजा पाठ करती हू। साधु सन्तों क॑ साथ भजन कोतेन करती हू। इस पर कोई पाबदी नहीं होगी और यह वचन आपकी देना होगा। पधानजी ने कहा राजमाता भी बहुत श्रद्धालु और भक्त हैं। हमें यह शर्त मजूर है। तब रूपादे ने मालदेजी के नाम की चूदडी ओढी। मेहमान भोजन कर सस्लुष्ट हुए। रूपादे का ब्रत भी बना रहा-मालदेजी की इच्छा पूरी हुई। प्रभानजी ने केसर मोरी से विदा ले मारवाड की ओर प्रस्थान किया मालेदेजी की पहली राणी चद्रावछ को घिन्ता होना स्वाभाविक था। ठसे इस बात का आश्चर्य था कि लाये तो भी किसे ? सौरा्ध के किसान की बेटी ? और कोई नहीं मिली ? कुछ दिन बीते और प्रघानजी लाव लश्कर के साथ शुभ समाचार लैकर राजधानी लौटे। मालोजी की सेवा में उपस्थित होकर कहने लगे--आपके लिए रूपादे को हो लाया हू। किश्यु मैने आपकी ओर से एक वन दिया है। वह आपको विभाना पड़गा। मालोजी के पूछने पर फिर बोले--रूपा काव्लिया ठाकुर (भगवान कृष्ण) की भक्त हैं। भजन कोर्दन करेगी। आपको कोई आपत्ति नहीं होगी। मालदेजों ने हसकर कहा--ओे उसे आने तो दो। प्रेमदाणी के आगे सन्दवाणी कहा वक टिकेगी? फिर भी मैं आपके घबन का ध्यान रखूगा और उसे निभाउगा। शरण मुहूर्त में मालेदेजी के पीठो चढने का मगल उत्तव आपम्भ हुआ। परे धीरे चद्रातछ का भी कोप शान्त हुआ। वह भी उत्सव में सम्मिलित होवी गयो। मालदेजी अपन महलों में पीठो चढी हालत में रहे और वधु रूपादे को लाने के लिये मालदेजी का खाड़ा (तलवार) लेकर पूरे लवाजम॑ के साथ प्रधानजी सौराष्ट्र जाने के लिए रवाना राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा ३५ हुए। वढवाण पहुचे। केसर मोरी की स्थिति तो सामान्य ही थी। फिर भी उसने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोडी । खाडे के साथ रूपा ने तीन पर्तिमाए की। बडी धूम धाम से विवाह सम्पल हुआ। परिजनों के वियोग कौ अपार वेदना और प्रिय मिलन की असीम खुशो साथ लिए रूपा ससुराल जाने के लिये रवाना हुई-- मारवाड देश ओबवपुर यम मालदे रूपादे ना हुआ मुकाम। परम बम मुघय वायता बेलड हास्या जाय। रूपादे जेडा वेलडे मालदे ने मठवा जाय ॥ आखिरकार राजधानी में नयी राणी भे प्रवेश किया जिस क्षण की मालदेजी ने इतने लम्बे समय तक प्रतीक्षा की वह समय आ पहुचा। मालदेजी अपनी पहली राणी को मनाने उसके महल पहुचे और चद्रावठ को समझाया। उसने टका सा जवाब दिया--एक बार लग्नमदप में मैंने आपको टेखा है अब नही भी देखूगी तो कोई अन्तर नहीं आयेगा। मालदेजी उन्हें नहीं मना पाये। लग्न को घडी समीप थी अत वहा से चलना ही उन्होंने ठीक समझा। लग्न मंडल में पहुच कर मालदेजी थेदी के समीप बैठे। सोरठ के सजीले व्रो में सज्जिन रूपादे लजाती शर्माती उनके पास आकर बैठ गयी। विवाह की रस्में पूरी हुईं। वर वधू को राजमहल ले जाया गया। एकान्त पाकर मालदेजी रूपा के सौन्दर्य की प्रशसा करने लगे तो रूपा समझ गई कि ये महाशय मेरे रूप के ही साधक हैं! ख्री को भोग की वस्तु समझते हैं। उसका मन निणश सा हो गया। फिर उन्होंने चद्रावठठ की बात छेडी। उसका भी समाधान रूपाने दृढ़ लिया कि वह ठसे अपनी बडी बहन मानेगी। लेकिन उसका मम बार बार कहता रहा--मेरे पति मेरे रूप के गुलाम हैं गुण के नहीं। अस्तु। दिन बीतते क्या देर लगती है ? महल में कृष्ण भगवान् की मूर्ति थी। रूपा उसकी बड़े हो भक्तिभाव से पूजा करती घन्टों बैठकर भगवान् के भजन गाती रहतो। लेकिन मालदेजी को उसने इसकी भनक भी नहीं पड़ने दो। बह जानती थी जो लोग दिखावा करते है व्यर्थ को चर्चा करते हैं और स्वय भगवान् के परमभक्त होने का ढिंटोग पौटते हैं वे वास्तव में ढोंगी हैं। भक्ति तो अन्तर्यामीं होनी चाहिये क्योंकि प्रभु भी सबके अन्तर्यामी हैं। उधर मालदेजों दिव भर राजकाज में लगे रहते और रात पडे महलों में आते। उनके सपनेमें भी नहीं था कि रूपा भगवद् पूजा और भजन कीर्तन में लगी रहतीं है। कैंसा विचित्र सयोग था-पली ईश्वर भक्ति में हल्लीन और पहि भौतिक सुखों से सरोबार होना चाहता था। इसी तरह रूपा मालदेजी का दाम्पत्य जीवन चलता रहा । समय गुजरता गया। ३८ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ उन दिनों मारवाड की धस्ती पर धारू मेघ नाम के सन्त का बहुत बोलबाला था। व जहा भी जाते सौ सतों को निमन््रण देकर जागरण और प्रसादी के लिए बुलाते। ये धारू मेघ एक दिन जोधपुर आये और समीप में ही एक स्थान पर मुकाम किया। निमत्रित भक्तों में से एक ने कहा--यहा एक ऐसे भी सन्त हैं जिनको कोई नहीं जानता है। वह भक्त कौन है यह देखने के लिए गुरुजी ने समाधि लगाई। समाधि से उठने पर उन्होंने आज्ञा दी-यहा के महलों में जावो और रूपादे को निमत्रण दे आवो। रूपादे ने भी थारू मेघ वी बात सुनी थी और इस चिन्ता में पड गयी कि अपने को वायक मिलेगा या नहीं। इतने में शिष्य महल में पहुच गये। रूपादे से मिलकर उसके हाथ में अक्षद्राएं देकर उन्होंने बडे आदर से रूपादे को जागरण में निमत्नित किया। यह जागरण एक शात का न होकर तीन रात तक चलने वाला था। वायक तो एक व्यक्ति के लिये ही था दो के लिये होता तो मालदेजी को भी साथ ले जाती। इस सोच में रूपादे पड गयी। रात हो गई धीरे धौरे मालदेजी ऊघने लगे। रूपादे को जाना दो था ही उसने स्वान कर शूगार किया और हीरे पन्ने जडी जूती पहनकर और मालदेजी के चरणस्पर्श कर वह महल से बाहर निकल गई। सामने महल में राणी चद्रावछ अभी जग रही थी। उसने देखा रूपादे कहीं जा रही है। तुरन्त अपनी दासो को कहा-जाओ रूपादे के पीछे। कहा जाती है ध्यान रखो। दासी भी रूपादे के पीछे पीछे चल दी। धारू मेघ के मुकाम पर वह पहुच गयी। तबू लगा था और अन्दर बेठे धारू जी भक्तों को उपदेश दे रहे थे--प्रारम्म का भाग पृर्ट हुआ। क्सिी ने पूछा--रूपादे नहीं आई। गुरुजी टसे। कहा--भगवान् को ३ अ बलवान है। इतने में रूपादे ने तबू में प्रवेश क्या। गुरुजी के चरण स्पर्श किये। गुरुजी ने क्हा--बहुत देर कर दी भाई। लो यह एकवार लो। रूपादे मे धारू मेष को प्रणाम कर पाम्म में बैठे एक भक्त से मजीग लिया और गाने लगी। ओ जी। आज पारटे ,प्रधारे यणप्रति। प्ाटे पथारों माय मगदिर प्रधाएे # रूपा दे गातो रही। लोग भक्तिरस में आकण्ठ डूब गये। फिर प्रसाद का समय हुआ। थाली सामने रखकर धारूजी ने जायरण में आये सभी भक्तों को अपने हाथ से प्रसाद दिया लेकित रूपादे वो नहीं दिया। रूपा को कहा-ल) अपने हाथ से प्रसाद ले लो। उसे बडा आश्चर्य हुआ। पृछा--आप अपने हाथ से श्रसाद नहीं देंगे? धारू कहने लग-युरा मत मानना। तुम सती हा! भ्रक्त हों। लेक्नि नुगरी हो। तुम्होरे सिर पर गुह का हाथ नहीं। रूपाद व्याकुल हाकर बाल उठा-- गुरुद4। आज वक ता मुझ काई गुरु नहीं शणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा ३९ मिला। आपके दर्शन आज ही हुए। मुझे अपनी शिष्या बनाइये। मेर सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दीजिए और कण्ठी बधवा दीजिये। घारू सशकित थे। पूछा--महाराजा मालदेजी इसे स्वीकार करेंगे। रूपादे क्या कहती । जैसी आपकी इच्छा। गुरजी समझ गये। उसके सिर पर हाथ रखकर कठो बाध दी। रूपा दे अब घारू मेघ की शिष्या हो गई। ठसे प्रसाद दिया गया। तब तक रात तीन प्रह्द बीत गयी। गुरु से आज्ञा लेकर रूपादे रवाना हुई और महल में आकर चुपचाप सो गई। चद्रावठ को दासी भी पहुच गयी। उसने साश वृत्तान्त राणी से कहा-राणी ने सोचा सारा किस्सा मालदेजी को बताऊभी तब तो रूपा के रूप का नशा उतर जाएगा। दिन ढल गया औद दूसरी रात आयी। रूपा फिर से तैयार होवर जागरण में चली गयी और अपनी जूत्रिया तबू के बाहर उतार दी। सठवाणी चल रही थी। उसमें सम्मिलित हो गई। चद्रावछ ने देखा रूपादे चली गई और वह तुरन्त मालदेजी के पास पहुच गई। कहने लगी--आपकी नयी राणी का यह चाल चलन देख नहीं रहे हैं? रोज गत कहा चली जाती है? मालदेजी इन सब बातों से बेखबर थे। चद्रावछ ने जोर देकर कहा--शहर के बाहर साधुओं की जमात ठहरी है। वही गयी है आपकी ग़णी। मालदेजी को विश्वास नहीं हुआ। लेकिन यह कहकर हाथ में तलवार लिये निकल पड़े कि अगर यह सच पहीं हुआ तो तुम्हाण शीश काट दूगा। मालदेजी के रवाना होने की बात भक्तजन जान गये | रूपादे सकट में पड गई। रूपादे तुरन्त तबु के पीछे के मार्ग से रवाना हाकर भहल में पहुच गयी। मालदेजी रूपादे को तो देख नहीं पाये लेकिन उसकी जूतिया उन्होंने देख लो। किन्तु उन्हें उठाया नहीं और वापस राजमहल की ओर चल पडे। अब रूपा को अपनी जूतियों की याद आई। मालदेजी ने देखा ता क्या कहेंगे। बह रात में ही कृष्ण भगवान क मन्टिर पहुची और पाट पर ज्योति लगा गुरु से प्रार्थना करने लगी-- गुस्देव यूजू पावडियों उघाडी छे मुज आखडीयो। मारी दई दे पाछी मोजडी ओ गुरुदेव पूजू परावडियों # इधर तबू में पाट पर रूपादे के नाम से जनाई गयी ज्योति की लौ कम्पायमान हाने लगी। गुरुजी ने देखा सती सकट में पड गई है। उन्होंने उसा क्षण समाधि लगाकर देखा--रूपादे अपनी जूतियों क लिय चिन्ता वर प्रार्थना कर रही है। समाभि से उठकर धारू जी ने अजलि भर पानी तबू के बाहर रखी मोजडियों पर डाला और वे उडकर जहा रूपा बैठी थी उसके एक आर आकर पड गई। हे मालदेजी को रूपादे दिखाई नहीं दी तो ये चद्रावछ के पास आये--कहने लगे डी ड० राजस्थान सन्त शिगेमणि राणी रूपादे और मल्लीमाथ तुम्हरी बात सच लगवी है। लेक्नि वहा पर तो रूपा नहीं है। यही महलों में दूढों। आधा रात रूपा की खोज शुरु हुईं। मत्लों के पोछे गी ओर कृष्ण भगवान् के मंदिर में वह बैठी थी। मांजडिया उसके पास पडी थी। मालदेजी को लगा स्वण देख रहे हैं कुछ नह॑ बोल॑ और आकर अपने पलग पर सो गये। फिर दिन ढल गया। तौसरी रात आई। मालदेजी ने अपने अनुचर का तबू के बाहर मोजडी चुराने के लिए निमुक्त किया। रूपादे समय पर तैयार होकर रवाना हुई। तबू में उसके प्रवेश करते ही अनुचर ने धीरे से मोजडी उठाई और महल में आकर मालदेजी को दी। मालदेजी ने फ़िर नौकर को भेजा और कहा--तुम ध्यान रखो! हम अभी आते हैं। थोड़ी देर बाद माल्देजी भी रवाना हुए और क्या ही आश्चर्य भगवान् कृष्ण के मन्दिर में रूपा को उन्होंने बैठे हुए देख लिया। मालदेजी अब शकाओं के जाल में फस गये। राणी जागरण में पहुची जब ही रो नौकर उसवी मोजडी उठाकर लाया और राणी तो यहा मदिर में बेठी है। फ़िर भी वे तबू तक गये। नौकर ) कहा--राणी जी अन्दर बिद्जे हैं। नौकर रवाना हुआं। अब मालदजा स्वय का रोक नहाँ पाये। जागरण में अन्दर जहा भक्त मडली बैठी थो वहा चले गये! वहा रूपादे कही दिखाई नहीं दी। बाहर आये हो मोजडिया भी नहीं थी। मालदेजी का क्रोध अब काबू में नहीं था। तलवार निकालकर रूपा को मारने के लिए चल दिये। महल में आय वां देखा कि मोजडिया बाहर पडी हैं और रूपाद॑ पलग पर सो रही है। मह देखकर मालदेजी डर गये। तब रूपा की आवाज आई--महाग़ज । डरिये नहीं) उसके चहेरे पर एक दिव्य तेज था। यह वो मेरे गुस्जी का पर्चा है अब आप समझ्न जाओ और अपना कल्याण करना चाहो वो कर लो। पहले मैं नुगगी थी। आप अन्न नुगरे” हो। चलिए गुरुजी के पास चलते हैं। उधर पाट पर लगी रूपादे की ज्योति की लौ बडी हो गई। गुरु ने कहा--भक्तजनों आज हमारे बीच एक भक्त और आ रहा है। मालदेजी गुरु के चरणों में पड गये। उन्हें भी कण्ठो बाथकर धारू ने अपना शिष्य बनाया। रूपा की प्रक्ति साधना का मार्ग प्रशस्त हो गया मालंदजी भी उसके साथ हो गये थे। रूपा की भक्ति तरगिणी गंगा निर्बाध प्रवाहित होती रही। कुछ समय यों हीं बात गया। गाव के पास फिर काई साधुओं की जमावे आने की खबर रूपा को लगी! अब उसने अपने सकपति को धंजकर साधुओं बो निमंत्रण दिया। लक्नि इस तिमत्रण से साधु नायज हो गए। घर के मालिक का निमत्रण मिलना चाटिय था। मालदजा घर में थे नही इसलिए रूपा का भी विवश हाकर संतार्पति को * जमा पढ़ा। राणी रूपादे और मल्लीनाथ जीवनगाथा ४१ साधु खाना है ही रहे थे कि मालदेजी पहुच गये। क्षमायाचना की और साधुओं को मनाया। स्वय राजा घर का मालिक निमत्रेण देने आया अब उन्हें कोई शिकायत नहीं थी। साधुओं के द्वारा निमत्रण को स्वीकार करने की बात रूपादे तक पहुच गयी। उसकी भ्रसनता का कोई पार नहीं था। रात्रि का जागरण रखा था और खास विशेषता यह थी कि आज का पाट मालदेजो रूपादे के नाम से ही स्थापित किया जाना था। साधुओं ने कहा--राजन्! अपने गुरु का स्मरण कर ज्योति जलाओ॥। मालवदेज़ी ने भी कहा--आज तो अलख के नाम से ही ज्योति लगानी चाहिये। ज्योति लगाई गई। प्राट पूरा हुआ। सारो रात भजन कोर्दन चलता रहा। प्रात काल हो गया। रूपा को कही दिखायी नहीं दिये। उनकी खोजबीन शुरु हुई। पर वे महलों में नहीं ॥ दोपहर हो गई। दूर से घोडे पर सवार होकर आते हुए मालदेजी दिखायी दिये। आते हो उन्होंने रुप से पूछा--अरे। गाव के पास तो साधुओं की जमात आयी है और तुम यहा बैठी बैठो क्या कर रही हो? अब रूपा के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था। विस्मित होकर पूछने लगी--तो क्या आपने साधुओं को निमत्रण नहीं दिया? रात में पाट की पूजा कर आपने दोनों के नाम को ज्योति नहीं जगाई? बह स्तमित हो गयी। उसे मिला हुआ (कूकू) का पगला (पाद) प्रसाद और ज्योति का प्रकट होना_? वह सब समझ गयी। गद॒शद होकर बोली--महाराज | साक्षात् कृष्ण भगवान् अपने महल में आपके रूप में आये। हम धन्य धन्य हो गये। अहयोभाग हमारे भगवान् स्वयं आकर हमारी लाज रख गये। गुजरात में मालदेजी-रूपादे की लोकभ्रियता की यह कहानो उन्हें जेसेल व्ोलादे से भो जोड़तो है। उसको चर्चा बाद में करेंगे। मालदेजों रूपादे कौ अलौकिकदा को कथाओं में पूर्व में किया गया विमर्श यदि आप स्मरण करें दो सहज ही इस कथा की समीक्षा का विचार आपके मन में आयेगा। मूल कथा में भालदेजी को मालदेव नाम से ही सबाधित किया गया है और उन्हें मारवाड का स्वामी स्वोफारते हुए जोधपुर को उनका मूल स्थान माना गया है। मल्लीनाथ की इतिहास पुरुष के रूप में की गई चर्चा में हम यह देख चुके हैं कि मालदेजी महेवा हक ले सीमित रहे। मडोर पर उनके भतीजे चूडा ने अधिकार किया और १४५९ ई में जोधपुर बी स्थापना जन राव जोधा ने वी दी से जोधपुर राठौडों की राजधानी हुई। मालोजा मालदे के नामसाम्य के कारण इस कथा में जोधपुर के राव मालदेव से जुड़ने का आभास हाता है। मेरा यह अनुमान है दि इस क्या को वल्पना राठौडों की सत्ता जोधपुर में स्थिए रोने के बाद हुई हे--तर लाग भहंवा को घूल गये। दूसर यह क्या रूपाद-माताजो के पृर्जन्स की और कोई संक्रेत नहा करती ह२ राजस्थान सन्त शिरोमणि शणी रूपादे और मल्लीनाथ है और न ही जन्म से ही उनमें दिव्यल का आधान करती है। बल्कि रूपादे की भक्ति किस तरह चरम अवस्था तक पहुचती है और मालोजी उसमें कैसे सद्ययक हाते हैं यही इस कथा का प्रतिषाद्य है। तीसरे कथा के प्रणेता उयमसी भाटी के नाम स॑ परिचित नहीं रहे इसलिए रूपा और मालोजो का गुरुतपद धारू मेघ को दिया गया है। चौथे और भबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल अलख आराधना तक रूपा की भक्ति सीमित नही है! वह “काव्िया ठाकुर” को अनन्य भक्त है। रूपा कौ सगृणोपासना का कारण गुजरात की अधिकाश जमता का वैष्णव होना माना जा सकहा है था यह भी हो कि भक्त और सामान्य लोग रूपादे को भोग की तरह कृष्ण प्रक्त के रूप में हो त्मझने लग गये हा। जा भी हो इस कथा का मुख्य प्रविपाद्य रूपा की भक्ति है चाहे वह निर्गुण हो था सगुण। इसी कथा में कच्छ क॑ सन्त जैसल तोलादे और रूपा मालोजी के परिचय और बाद में हुई प्रगाढता पर भी यिचए गया है। जैसल तोरल श्रसग में अन्य कथाएं भी उपलब्ध होती हैं। अत अब उनके विषय में विचार करना उचित होगा। १९ जैसल तोरल प्रसग-- गुजरात के कच्छ भू भाग पर जैसल नाम वा एक डाकू रहता था। उसने काठीरज के भर डाका डाला तोरल नाम की घोडी को भगाने के लिये। लेक्नि वह पकड़ा गया। शजा धार्मिक और दयालु था। उसने पूछा किसलिये डाका डाला? वोरल के लिये । राजा की पल्ली का नाम थी तोरल था। राजा ने तोरल उसे दे दी। उसने कहा महायणा मैं तो घोडा चाहता था। राजा ने कहा-वह भी ल जाओ। तोरल भक्न थी और उसने अपने प्रभाव से जैसल को भी भक्त मार्ग में दीक्षित किया। कच्छ कलाथर” में यह कथा विस्तार से दी गयी है। इस सिलसिले में एक ठक्ति भी असिद्ध है-- जैसल जयगे चोरटों पलगा कौपो परार/ जैसल तोलादे की कथा के अलावा “होलादे की वेल नाम से प्रसिद्ध एक रचना मैं तोरल और उसके श्रभाव से सन्त बने जैसल की मुक्ति का वर्णन है। वेल में बाबा गशमदेव के भक्त के रूप में इन्हें चित्रित क्या है। रामदेव के समकालीन होने पर इन्हें मल्लीनाथ रूपादे के समकालीन माना जा सका है । पस्तु वेल में कही पर भी मल्लोनाश रूपाद प्रसंग की चर्चा नहीं है इसे आश्चर्य ही मात्रा जाए्या। फिर भो गुजरात और मारवाड में प्रसिद्ध तोलादे की क्या रूपादे मल््लीनाथ के सम्पर्क को स्वीकार करती है। इस प्रवर की दो कथाएं हैं--एक तो अभी जिसकी चर्चा की गयी है उसमें मल्लीनाथ को मारवाड का मालदे माना है। दूसरी कचा में मंवासागर (महेवा) को मेवाड में मानकर मल्लीनाथ बो मेवाड का निवासी माना गया है। पूर्व क्या की तरह अस्तुव कथा भी रोचक है इसलिए उस संक्षिप्त रूप में अनूदित कर उद्धत बर रहा हरि मंत्राड के मंवासागर स्थान के जागोरदार थे--मालदे और उनकी राणी थी रूपादे । ५ >... +०+नलम नल अमल गणी रूपादे ओर मल्लोनाथ जीवनगाथा डरे गुजग़व के जैसल दोलादे को उन्होंने बडी प्रशस्ता सुनी थी और उनसे मिलने के लिये जाने की लम्बे समय से इच्छा थी । इसलिए तय कर एक दिन मालदे और रूपादे जेसल तोलादे से मिलने के लिय चल दिये। इसे आश्चर्य था सयोग ही कहा जाएगा कि कच्छ से जैसल तोलादे भी मालदे रूपादे से मिलने के लिए रवाना हुए। दोनों ही बोच रास्ते में आकर एक दूसरे से मिले। दोनों नाम से ही एक दूसरे को जानते थे कभी दखा नहीं था इसलिए पहचानते भो कैसे? मालदे ने पूछा--आप कहा रहते हैं? इपर क्सि ओर निकले हैं? जब जैसल ने अपना अता पता बता दिया और कहा-मेवासा (महेवा) जाना चाहते हैं। मालोजी ने भो अपनी यात्रा के बारे में बताया कि हम मेवासा (महेवा) के रहने वाले है और कच्छ जा रहे हैं। और वार्तलाप में जब पता लगा कि जैसल वालादे से मिलने जा रहे थे वे ही मालदे रूपादे हैं तो चारों की प्रसनता का कोई पार नहीं रहा। अब दोनों एक दूसरे को आग्रह करने लगे--चलिये | अज'र चलते हैं। “नहीं नही” आपको (मेवासागर महेवा) हो चलना होगा। यों बाते करते करते शाम ढलने लगी। उन्होंने सोचा कि अब यही िश्राम किया जाय। रात्रि में भोजन कर मालदे को तोरलदे से उपदेश सुनने की इच्छा हुई। तोरल परम साध्वो और भक्त थी। तोरल का उपदेश सुनकर मालदे और रूपादे ने अपनी जिज्ञसाएं पूछी। लेक्नि मालदे को तृप्ति नहीं हुईं। इस त्तरह बहुत समय बीत गाया। ज्ञान चर्चा में कब रत बोत गयी ध्यान हो नहीं रहा। जैसल मालदे मुख प्रक्षालनादि क्रियाओं में लग गये। दोरल रूपादे पास के ही एक कुए पर पानी लाने के लिये चली गयी। लेकिन कुए का पानी निकला खारा। पीने लायक नहीं था। तोलादे कहने लगी--मैं वो यह मानती हू कि आपको जैसो सती अगर चाहे तो कुछ भी कर दिखा सकतो है। आप पूरे समदर को मीठा बना सकती हैं तो एक कुए के पानी को मीठा क्यों नही बना सकती ? रूपादे ने सोचा--कहीं मेरी परीक्षा तो नहीं ले रही ? रूपादे ध्यान लगाकर बैठ गयी और ईश्वर की आशधना करने लगी और क्या ही चमत्वार कुए का पानी मौठा हो गया। तब रूपादे ने कहा-लीजिए अब तो हो गया पानी मीठा? साव सोनानी गुरुनी बारगी तेमा रूपादे यणी माग्या साग्या सेह वरसीया तोरल काठी यणी। खारी जमीन को तोलादे ने वर्षा कर मीठा बनाया। रूपादे और तोरल पानी की झारी भर कर लाये। जैसल जी पीपली पीपल को टहनी से दातून कर रहे थ और मालदे जाछ की टहनो से। दोनों ने सोचा--यह अपना मिलन स्थान है। धरतो मोठी है पानी मीठा है। वहा पर पीपलोी और जाछ की टहनी उन्हेंने रोपी। कहते हैं य दोनों वृक्ष और मीठे पानी का कुआ अभी भी वही पर हैं। डड राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ जैसल ठोलाद॑ फिर मालदे रूपादे के आग्रर का टाल नहीं सके और उनके साथ महेवा चले गये। वहा कुछ दिन रहकर बाबा रामदेव से मिलने रुणेचा आये और फिर अजार की वापसी यात्रा पर निक््ले। कुछ काल व्यतीत हुआ। जैसल वौरल पाच ताथों की यात्रा क्ले निकले। इंतनी लम्बी यात्रा तय कर जब वे अजार लौटे जैसलजी का स्वास्थ्य गिरने लगा। यात्रा से कमजोर भी आ गयी थी और ऐसी स्थिति में महेवा से मालदेजी का वायक (निमत्रण) मिला। कैसी दुविधाजाक स्थिति हो गई। जैसल नहीं चाहते थे कि इस निमत्रण का निगदर हो इसलिए उन्हेंने तोस्लदे को अकेले ही जाने के लिए कहा। पति की अस्वस्थता में ढलती ढम्न में उसे अकेला छोडने की मजबूरी होने पर पतिब्रता सती साध्वियों के मन पर क्या गुजरतों होगी उस व्यथा की कथा कहने की सामथ्यं शब्दों में नहों है। खिल मन से तोरल ने विदा ली और मुकाम दर मुकाम करती एक दिन शाम ढलने पर वह महंवा पहुचां। गढ के दरवाज बन्द हो गये थे। प्रहरी दरवाजा खोलने के लिये पैयार नहीं हुए) वोरल दे अलख की आराधना के लिये गढ के बाहर ही बैठ गई। कुछ समय बाद दर्वार्जों के ताले अपने आप ही खुल गये। तोलादे जल्दी जल्दी मालदे के दरबार में पहुच गयी । अकेली वोलादे को देखकर मालदे को शका हुई--अरे! आप अकेली केसे ? जैसल जो क्या नहीं आये? वोलादे ने उनकी बीमारी की बात को जाहिर नहीं होने दिया। कहा--घर में कुछ काम था सो नहीं आये। किन्तु मालदे का विश्वास नहाँ हुआ। पूछने लगे कि--कहीं जैसन जी स्वर्गगमन तो नहीं कर चुके। उनके नाम की यह ज्योति जैसे जैसे क्षीण पड़ती जा रही है यह कुशका मुझे डराने लगी हे। तोलाटे स्वयं भी शकित थो ही। मालदे की इस भविष्यवाणी से उनका सदेह विश्वास में बदल गया। उसने तुरन्त ही वापसी की यात्रा शुरू की। अजार की सीमा में आते री उसे जैसल जौ को समाधि लेने की ख़बर लग गई। उन्हें समाधि लिय॑ तीन दिन हो गये थे। तोरल के शोक सन्ताप को कैसे बताया जाय। उनका संबंध आत्मा क्य था शरौर के बिछोह से आत्मा का वियोग कितना क्ष्टकर और असहनीय हुआ होगा। व्यूर मालटे के मत में भी जेसल के बारे में तरह तरह को शका कुशकाए घर करने लगी। तोरल के महेवा से निकलने पर दूसर ही दिन वे भी कच्छ आने के लिये रवाना हुए। अजार पहुचे तब शोक सवप्त तोलादे समाधि लेने के लिए जल्दबाजी कर गटी थी! उनवी उद्विन स्थिति देख बुछ हो क्षणों में स्वय को स्थिर कर मालदे तोरल को उपईश देने लगे! जो वस्तु तुम्हरे प्र्त थी वह तो कही गई नहीं और जो वस्तु तुम्हारी नहीं थी उमके लिए शोक कैसा? काल की महिमा ऐसी ही है वह हमारे समझ के बाहर का चाज हं। चित्र विचित्र घटनाओं का घटित करने वाले वालयक्र का कौन जान सकता यो स्पादे और मल्लीनाथ जोवनगाया ड५ है? इस ससार समुद्र में अनेक आपत्तियों को सहन करना पडदा है। सयोग वियोग में अगु परमाणु और तसोणु जैसे तत्व काम करते हैं। उन्हीं के कारण रमें सृष्टि का मूर्तरूप दिखाई देश है उनके अलग-अलग रो जाने पर वह मूर्त रूप नष्ट हो जाता है। इसीलिए इस स्थूत शरैर को भी शून्यावार रूप में देखना चाहिए। पचमहापूर्तों से बने शरोर का उन महाभू्तों से वियोग होने पर नाश होना तो अवश्यभावी है। इस स्थूल शरीर का मोह मिथ्या है और इसलिए उसका शोक करा भी व्यर्थ है। आत्मा अमर है वह स्घृूल शरोर में प्रवेश करती है वह सर्वत्र गतिशील है। शरीर में आत्मा का अवतएण हो जाय तो वह अवतार है और शरीर से आत्मा का विसर्जन | हे जाय चह मृत्यु है। आत्मा अमर है गतिमान् है। वह न रू है न पुरुष न रूपवान् और न कुरूप। न किसी वी मित्र है न शत्रु जिसके शरोर में आ जाय उस की कहलाती है। अब तुम बताओ किसके लिए शोक कर रही हो? शरोर का शोक व्यर्थ है और आत्मा अमर होने से उसका शोक करना पी व्यर्थ है। मालदे की यह अमृतवाणी तोलादे का शोक कम करने में सफल हुई। फिर भी उसने कहा-जैसल की आत्मा से भेरी आत्मा को पृथक् न रख सकूगी। शान्त चित्त होकर वोलादे ने भी जैसल जी को समाधि के पास ही समाधि ली। पचमहाभू्तों में विलीन हुई तोलादे को आत्मा ने जैसल की आत्मा का सानिष्य प्राप्त किया। मालदे रूपादे महेवा लौट गये। इस कथा से पूर्व मैंने ऊपर गुजरात में लोकप्रिय रूपादे कथा की चर्चा की है। उसमें भी रूपादे-मालदे का जैसल तोलादे से मिलने के लिए जाने की व बीच रास्तें में ही मिलने की कथा गुम्फित की हुई हे पए्तु इस कथा से वह आख्यान किंचित् भिन्न है। इसीलिए उस सदर्भ भिनता को भी यहा पर स्पष्ट करना आवश्यक है। रूपादे मालदे ने एक नियम बनाया था। सन्त और अतिथि को भोजन कराये बिना स्वय भोजन नहीं करना। बरसात के दिन थे। ४-५ दिन कोई अतिथि नहीं आया--मालदे जो भूखे रहे। गुरुकृपा हुई-और स्वय धारूजी आ गये। श्रावणी सप्तमी को हुए जागरण पर दोलादे-जैस्ल को वायक गया था। वे भी आये थे। इसी प्रकार यह कथा यह भी बताती है कि वोलादे जैसल ने जो जागरण आयोजित किया था उसमें भी मालदे रूपादे गये थे। इस प्रकार की कथाओं/क्विदन्तियों में ऐसा भी सुनने में आता है कि मालदे जब जैसल की समाधि पर दर्शन करने गये तो अन्दर से जैसल की आवाज सुनाई दी थी। लोकोत्तर व्यक्तियों की बातें उनकी कथाएं या उनके सबध में फैलने वाली किंवदन्तिया भी असामान्य ही हुआ करदी है ठपकी पुष्टि के लिए सामान्य प्रमाणों को दूढना व्यर्थ है। वे असामान्य इस अर्थ में भी हैं कि उन्हें समझने के लिए उनकी स्थिति तक पहुचना पडता है--लौकिक से अलौकिक बनना पडता है। इसलिए इस अलौकिकता को लौकिकता के द्वायरे में चर्चा कर सीमित करने का कोई भी भ्रयास टालना ही उचित होगा। ड्ड राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ जैसल तोलाद॑ फिर मालदे रूपादे के आग्रह को टाल नहीं सके और उनके साथ महंवा चले गये। वहा कुछ लिन रहकर बाबा रामदेव से मिलने रुणेचा आये और फ़िर अजार वी वापस! यात्रा पर निक््ले। कुछ काल व्यतीत हुआ। जैसल तोरल पाच तौर्थों की यात्रा करने निक्ले। इतनी लम्बी याशा तय कर जब वे अजार लौटे जैसलजी का स्वास्थ्य गिरने लगा। यात्रा से कमजोरी भी आ गयी थी और ऐसी स्थिति में महेवां से मालदेजी का वायक (निमत्रण) मिला। कैसी दुविधाजनक स्थिति हो गई। जैसल नहीं चाहते थे कि इस निमत्रण का निगदर हो इसलिए उन्हेंने तोरलदे को अकेले ही जाने के लिए कहा। पति की अस्वस्थठा में ढलती उम्र में उसे अकेला छाडने की मजबूरी होने पर पतिव्रता सती साध्वियों के मन पर कया गुजरती होगी उस व्यया की कथा कहने की सामर्थ्य शब्दों में नहीं है। खिल मन से तोरल ने विदा ली और मुकाम दर मुकाम करती एक दिन शाम ढलने पर वह महेवा पहुची। गढ के दरवाजे बन्द हो गये थे। प्रहगी दरवाजा खोलने के लिये तैयार नहीं हुए। वोरल दे अलख की आगभना के लिये गढ़ के बाहर ही बैठ गई। कुछ समय बाद दरवाजों के ताल॑ अपो आप ही खुल गये। तोलादे जल्दी जल्दी मालदे के दस्बार में पहुच गयी। अकेली तोलादे को देखकर मालदे को शका हुई--ओ। आप अकेली कैसे ? जैसल जी क्यों नहीं आये? तोलादे मे उनकी बीमारी की बाव को जाहिर नहीं होने दियां। कहा-घर में कुछ काम था सो नहीं आये। किन्तु मालदे को विश्वास नहीं हुआ। पूछने लगे कि--कहीं जैसन जी स्वर्गगमन तो नहीं कर चुके। उनके नाम को यह ज्योति जैसे जैस क्षीण पड़ती जा रही है यह कुशका मुझे डरने लगी है। होलादे स्वयं भी शक्ति थो ही। मालद का इस भविष्यवाणी सं उनका संदेह विश्वास में बदल गया। उसने तुरन्त हो वापसी की यात्रा शुरू की। अजार की सीमा में आते हीं उस्ते जैसल जी की समाधि लेने को खबर लग गईं। उन्हें समाधि लिये तीन दिन हो गये थे। गोएल के शोक सन्ताप को कैसे बढ्या जाय। उनका सबंध आत्मा का था शरीर के बिछोह से आत्मा का वियोग कितना कष्टकर और असहनीय हुआ होगा। इधर मालद॑ के मन में भा जैसल के बार में दरह तरह का शक कुशकाएं घर करने लगीं। तोरल के मह॑वा से निकलने पर दूसर ही दिन के भी कच्छ आने के लिये खाना हुए। अजार पहुचे दब शोक सतप्त तोलादे समाधि लेने के लिए जल्दबाजी कर रही थी। उनकी उद्विग्न स्थिति देख कुछ हो क्षणणों म॑ स्वय को स्थिर कर मालदे तोरल को व्यदश देने लगे। “जा वस्तु तुम्हार पास थी वह ता कहीं गई नहीं और जा वस्तु तुम्हारी नहीं थी उमके लिए शोक कैसा? काल को महिमा एसी हो है वह हमारे समझ के बाहर का चाज ह। चित्र विचित्र घटनाओं का घटित करने वाले कालचक्र को कौन जान सकता ५2 ७208 ७७५ बे पर राणी रूपादे और मल्लीनाथ जोवनगाथा घछ धारू के बडे भाई को पली मातादेवु और नामदेव छीपा ये सातों ही अपने योगबल से अन्तर्धान हां गये थे। जबकि मालाणी का इतिहास (अप्रकाशित) के लेखक ने उदयभाण बौ ख्यात के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि राणो रूपादें भललीनाथ के साथ सती हे गई थी। मल्लीनाथ रूपादे के स्वर्गगमन के सिलसिले में एक और मान्यता प्रचलित है जी उन्हें तिलवाडा से जोडती है। राजस्थानी शब्दकोश के सपादक डॉ. बद्रीमसाद साकरिया ने माला-जाऋ वृक्ष की चर्चा के दौरान एक किंवदन्ती की ओर इशाग किया है। मल्लीनाथ जगल में एक जार वृक्ष के नोचे बैठकर अपनी साधना करते रहे। इसोलिए इस चृक्ष का नाम मालाजाछ पडा। धौरे धीरे उस स्थान पर जब लोगों ने आकर बसना शुरू किया तब मल्लीनाथजी की साधना में खलल पडने लगी। तब वह स्थान छोडकर वे लूनी नदी के किनारे आकर रहे थे। यहों पर उन्होंने देहत्याग किया। इस स्थान पर उनका देवल भी बना हुआ है। लूणी नदी के किनोरे जहा उन्होंने सपाधि ली चह स्थान विलवाडा कहलाता है। तिलेवाडा में मललीनाथ का विशाल मदिर बना हुआ है। विलवाडा म॑ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण एकादशी से चेत्र शुक्ला एकादशी तक मेला लगता है। पहले यहा मल्लीनाथ के श्रद्धालु जन दूर दूर से आते रहे। तब यह भक्त ममागम था। दूर से आने वाले लोग ऊट बैल था अन्य किसी ने किसी साधन से आते रहे और पघोरे भीरे पशुओं का क्रय विक्रय॑ भी किया जाने लगा-अब यह तिलवाडा का पशु मेला नाम से जाना जाता है। पहले इसे बाबा मल्लोनाथ का मेला या तिलवाडा का मेला नाम से ही सबोधित किया जाता रहा मल्लीनाथजी डोडियाली में यवनों के साथ मुठभेड में मारे गये और रूपादे सती हो गयी या उन्होंने धारू के देहावसान के बाठ समाधि ली अथवा अपने योगबल से अन्तर्धान हुए ये सब अब कल्पना या अनुमान के विषय हो गये हैं। परन्तु उनके भक्त अब तक यह मानत्रे आ रहे हैं कि उन्होंने घोड़े पर बैठकर संदेह स्वर्गंगमन क्या और उनके पौछे-पीछे रूपादे जी भी स्वर्ग में पहुच गयी। भक्तों के इस विश्वाप्त का बन हस्जी भारी ने अपनी एक रचना में किया है जिसे मालेजी री मैहमा नाम से जाना व गाया जाता है। हरजी भागे रामदेव के भक्त और रूपादे मल्लीनाथ के परवर्ती कवि (१४६१ १५७५ वि) मने जाते है। रचना में कीव और भक्तों की निष्ठा और भार्किति भावना को अभिव्यक्ति देखिये। मालीजी झूपादे से कहते हैं---हम बारहवें महिने में “साहिब से संदेह मिलेंगे--मालोजी ध्यान कर रहे हैं--इस ज्योवि की जैसी कोई परमज्योति नहीं-- कहैँ मालोओं छुणो रूप्दे गुथ गावत आई दिल दाय सँदेई साहिबजी स॒ मिलया मिलसा मास दवादस माय॥ ४६ राजस्थान सन्त शिरेमणि राणी रूपादे और मल्लानाथ १२ मल्लीनाथ रूपादे का महाप्रयाण- प्रारम्भ में मल्लीगाथ एवं उनकी राजनैतिक चर्चा के दौरान यह नात सामने आई थी कि उनके जन्म समय के विषय में कोई निश्चित बात नहीं कही जा सकती थो। ठीक वहीं बात उनके देहावसान के विषय में भी है। सर्वक्ञामान्यत उनका परलोक गमन १४५६ वि में माना जाता है परन्तु उसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिल पाया है सारी चर्चा केवल अनुमानों के आधार पर ही टिकी हुई है। इसलिए इन अनुमानों के साथ उनसे सबधित साहित्यिक अवधारणाओं अथवा लोक विश्वास और घारणाओं पर यहा विचार किया जाना चाहिये। मल्लीनाय के वर्तमान वशजों में से ठा नाहरसिंह जी से मल्लीनाथ के स्वर्गगमन पर चर्चा करने लगा तो कहने लगे डोडियाब्यी में मलल्लीनाथ का अवसान हुआ था। इस सम्बन्ध में श्रचलित लोक परम्पराएं बताती है कि डोडियालो मल्लीनाथ की बहन का ससुराल था। मल्लौनाथ जी दिल्ली से लौट रहे थे। रास्ते में जालोर के पास डोडियाली में अपनी बहन से मिलने चले गये। बहन ने सामेला (विधिवत् पोहा और ससुगल् पश्ष के व्यक्तियों का मिलने का उत्सव) में उन्हें निमत्रित किया। वे डोडियाली में समय गवाना नहीं चाहते थे किन्तु बहन के स्नेहवश उन्हें रुकना पडा। उत्सव समाप्त होने पर वे कहने लगे कि अब हमें यहीं से स्थान करना होगा हमोरे पास अधिक समय नहीं है। उपस्थित लोग भौंचक्के रह गये। बहन ने अन्तिम विदाई से पूर्व अपने भाई से पूछा--आप तो अस्थान कर रहे हैं हमारे लिये क्या आदेश है? लोक परुम्पता के अनुसार उन्होंने यह कहा बताया कि डोडियाली के लोग मेरे प्रस्थान के दिन से कभी भी अपने पानी के मठके (मिट्टी के बर्तन) ढकेंगे नहीं। यहि कोई ढकेगा वो उनमें कीडे पड जायेंगे। फिर मल्लीनाथ जी वहीं से घोडे पर बैठकर पहाड़ों में सुरग के रास्ते अदृश्य हो गये। डोडियाली में आज उस स्थान पर मल्लीनाथ जी का मन्दिर बना हुआ है और समीप में अलाव” नामक स्थान पर पहाड़ों के गुफा मुख पर भी मल्लीनाथजी का मन्दिर है। इधर प्रसिद्ध इतिहासकार मानते हैं कि १४५६ वि में मल्लीनाथ जी डोडियाली नामक स्थान पर मुसलमानों के साथ हुई मुठभेड में मारे गये। नैणसी की ख्यात में यह सदर्भ आता है कि मल्लीनाथ का वृद्धावस्था के कारण शरीर अस्वस्थ हो गया था और इसी अस्वस्थता के कारण काल ने उहें म्स लिया। इधर मालदे रूपादे नाम से गुजणत में लोकप्रिय हुई कथा के अनुसार घारू मेघवाल ने समाधि लेने के सवा महीना पश्चात् मालजी रूपादे ने भी समाधि ली थी। मालजी रूपादे के देरावसान के विषय में सरगावली नामक रचना में एक और हो बात मिलती है। उसके अनुसार मल्लीनाथ रूपादे धारू मेघवाल एलू, देलु कुम्हार राणी रूपादे और मल्लोनाथ जीवनगाथा च्डर् याद शेगी। बुद्धिजीवी व्यक्ति वर्क और प्रमाण के बिना सटसा क्सी बात को स्वीकार था अस्वीकार नहीं कर सकवा परन्तु भक्तों की बाठ और है। अलख उनका आराध्य है और वहा तक पहुचने का मार्ग बताने वाला उनका गुझ है। दूसरे भक्त के पाप्त स्वय का कुछ भी सुरक्षित नही रहता है। वह सब कुछ समर्पण करवा है और तल्लीन तदाकार हो जाता है। तौसरे सदेह स्वर्गागेट्ण भले ही न हुआ हो मल्लीनाय रूपादे के भतों की दृष्टि में उनकी लोकोत्तता की अलौकिकठा की असामान्यत्व की और अन्ततोगत्वा दिव्यत्व की जो निष्ठा है भक्ति है समर्पण है उसकी पराकाष्ठा मल्लीनाथ रूपादे के संदेह स्वर्गरेहण में देखी जानी चाहिये और जब मल्लीनाथ को स्वर्ग के प्रहरी पूछते हैं--बाबा किसका ध्यान करते हो? जवाब मिलता है--अलख” का। इसलिए चौथे इस कथा का उद्देश्य निर्गुण निराकार अनन्त परब्रह्म की उपासना में जन सामान्य को प्रवृत् करना भी है क्योंकि मूलत रूपादे मल्लीनाथ मगुष्य ही थे उन्होंने जिस मार्ग का अवलम्बन कर यह दिव्यत्व प्राप्त किया वहीं मार्ग श्रेयस्कर है। इसलिये अपने उद्देश्य के साथ हो साथ यह कथा यह संदेश भी देती है-- परस्पर भावयन्त श्रेय परमवाप्यथ। यों युद्ध को जीवन और मृत्यु को मोश्ष मानने वाले दुर्दान्त रणबाकुरे राठौड राव मल्लीनाथ को भक्ति और योग द्वार निर्गुण ईश्वर की उपासना में प्रवृत्त करने वाली रूपादे ने अपने गुरु उगमसी भाटी के उपदेशों व मार्ग का निष्ठापूर्वक अनुसरण कर न केवल स्वय ने पतिसहित परमपद प्राप्त किया अपितु हजाएँ लाखों अस्पृश्यों और समाज में उपेक्षित जनसामान्य को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया । बाबा रामदेव इसो कार्य में प्रवृतत हुए थे। कबीर मीणा से पूर्व १४वीं शती ई में ग्जस्थान में जो भक्ति की निर्गुण धारा प्रवाहित हुई और बाद में सारे भारतवर्ष में जो फैलो उसका स्रोत कम से कम वेदोपनिषद् के समय पश्चात् लुप्त हुई निर्गुण उपासना की धाराओं के पुन सजीवीकरण का श्रेय राजस्थान में रूपादे मल्लीनाथ और रामदेव को दिया जाना चाहिये। रूपादे ने मल्लीनाथ को अपने पथ में लाने के लिये जो धैर्य दिखाया और जिन आपत्तियों का सामना करते हुए स्वय के साथ मल्लीनाथ का उद्धार किया उसके लिये किसी कवि ने उसकी मुक्त 'कण्ठ से प्रशसा की है-- ऐसी न कोई चीत्लौंड सीसोदिया आगणै जिका कोरम पर न कौ जाणी। आ हुई गल रै शहेवै अरयया रूपादे राणिया सिरे यंग #र और वह भी कैसी? अपने पति के साथ परमज्योतिर्मय हो गयी-- इण कब्दू बिचात्वै माल रुप अचछ जोत सह देव होवे परस जाय ॥९ जैसी रूपादे वैसे ही मल्लीनाथजी । बिना किसी जाति पाति के भेद के वे हिन्दु मुसलमान दोनों के लिए पीर हो गये--सबका दुख हरण करने वाले वे बाबा हो गये-- बाबौ दीहडा डोहेन्ग टब्ठिसे सेवा कया पाय लागी ६६ बट गाजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ शुभ मुहूर्त देखकर मालोजी अपने घोड़े पर सवार हो गये और “नीसाण” घुमाया और शहर के बाहर आकर डेरा किया--ठस समय वे ऐसे लोग रहे थे जैसे साश्षात् इन्ध हो। इस वरह निशान सहित अपने स्वामी द्वारा शहर के बाहर डेरा किये जाने पर हाकिम को चिन्ता हुई-- चढ असवार साथ सोहि ऊ्ौ हकिम निक्य कर कर जोड। कहे गाल थै किसे गढ़ जावो हुकम करी बाक़ा यगैड ॥ जवाब में मालोजी कहते है--हमने धर्म की सेवा कौ हमारे कयेढ़ों जन्म के पापवंधन कट गये हैं। इसलिए हम जहा से आये थे वहीं जा रहे हैं-- आया जठै उठे मेँ जावा लायो गाव परमते ओड। हेत कर सेवा कौरवों सामग्री कट यया पाप जलम श क्रियेड ॥ यह कहकर मालोजी ने अपना घोडा स्वर्ग की ओर दौडाना शुरू किया और इद्ध के स्थान तक पहुच गये--कोयल मोर बोलने लगे। नर साधु झूले झूलने लगे। यों मालोजी के स्वर्ग पहुचने पर रूपादे भी जल्दी से जल्दी पहुचना चाहती थीं। उसने धारू से कहा--बैल लाओ और बैलगाडी वैयार करो-- रूपा कहे सुणों धारवा बैलिया लाको बैल सू जोड। आगे रब मालोजी सीधा अपणे सरग श्रवत में कौषी झौड॥ तब धारू को आश्चर्य हुआ। कहने लगे-जाना ती मुझे पहले है। यों बैलों को जोडकर हे कामिनी कहा जा रही हो? रूपादे को अब और किसी से कोई नेह महीं कोई मतलब नहीं। उसे अपने “धणी” (स्वामी) के चरणों में जाना है। देखिये रूपादे स्वर्ग की ओर रवाना हो रहो है-- धरम परम पड़या बैल रा बाजे ग्राज ताल कर रिमजोन्ड! खतरी बेल ग्ेब यू हाली जणी सरया चढी लूगवी लोल॥ मालोजी रूपादे दोनों स्वर्ग के द्वार पर खडे हैं प्रहरी उन दोनों को नमस्कार करते हैं और आश्चर्यचकित हो पूछते हैं--आज तक तो यहा कोई नहीं पहुचा है आप किस का ध्यान करते हो? किसकी कृपा से सशरीर यहा पर पहुचे हो? मालोजी उत्तर देते हैं--हमने हमेशा अलख निरजन की साथना को है-सभो में वह ही समाया हुआ है-- अलख तिप्जेन सिकीया साथों साय श्रज्यों गजा रिगछोड/ साहिब एक भेष सयव्य में ओ सेहत ग्रा में एक हीज गोड ॥#१* हमारा भौतिक सीमाओं की सकडी गलियों में रमा हुआ मन इस स्वर्गसिहण को स्वीकार ने करेगा तो न सही। राजा जनक की भौो संदेह स्वर्ग जाने की कथा आपको राणी रूपादे और पल्लीनाथ जीवनगाथा डए् याद होगी। बुद्धिजोवी व्यक्ति तर्क और प्रमाण के बिना सहसा किसी बात को स्वीकार या अस्थीकार नहीं कर सकता पस्नु भक्तों की बात और है। अलख उनका आराष्य है और वहा तक पहुचने का मार्ग बताने वाला उनका गुरु है। दूसरे भक्त के पास स्वय का कुछ भी सुरक्षित नहीं रहता है। वह सब कुछ समर्पण करता है और तल्लीन तदाकार हो जाता है। तोसरे सदेह स्वर्गगेहण भले हो न हुआ हो मल्लीनाथ रूपादे के भक्तों की दृष्टि में उककी लोकोतर्ठा की अलौकिकता की असामान्यत्व की और अन्ततोगत्वा दिव्यत्व की जो निष्ठा है भक्ति है समर्पण है उसकी पणकाष्ठा मल्लीनाथ रूपादे के सदेह स्वरगरिष्टण में देखी जानी चाहिये ओर जब मल्लीनाथ को स्वर्ग के प्रहरी पूछते हैं--बावा किसका ध्यान करते हो? जवाब मिलता है--अलख” का। इसलिए चोये इस कथा का उद्देश्य निर्गुण निशाकार अनन्त परब्रह्म की उपासना में जन सामान्य को प्रवृत्त करना भी है क्योंकि मूलत रूपादे मल्लीनाथ मगुष्य ही थे उन्होंने जिस मार्ग का अवलम्बन कर यह दिव्यल् प्राप्त किया वहीं मार्ग श्रेयस्कर है। इसलिये अपने उद्देश्य के साथ ही साथ यह कथा यह संदेश भी देती है-- परस्पर भावयन्त श्रेय परमवाप्स्यथथ। यों युद्ध को जीवन और मृत्यु को मोक्ष मानने वाले दुर्दान्त रणबाकुरे राठौड रावछ मल्लीनाथ को भक्ति और योग द्वारा निर्गुण ईश्वर की उपासना में प्रवृत्त करे वाली रूपादे ने अपने गुरु उगमसी भाटों के ठपदेशों व मार्ग का निष्ठापूर्वक् अनुसरण कर न केवल स्वय ने पतिसटित परमपद प्राप्त किया अपितु हजार लाखों अस्पृश्यों और समाज में उपेक्षित जनसामान्य को भक्त मार्ग में भ्रवृत्त किया। बाबा रामदेव इसी कार्य में प्रवृतत हुए थे। कबीर मीरा से पूर्व १४वीं शी ई में राजस्थान में जो भक्ति की निर्गुण धारा प्रवाहित हुई और बाद में सारे भारतवर्ष में जो फैली उसका स्रोत कम से कम वेदोपनिषद् के समय पश्चात् लुप्त हुई निर्गुण उपासना की धाराओं के पुन सजोवीकरण का श्रेय राजस्थान में रूपादे मल््लीनाथ और रामदेव को दिया जाना चाहिये। रूपादे ने मल््लीनाथ को अपने पथ में लाने के लिये जो पैर्य दिखाया और जिन आपत्तियों का सामना करते हुए स्वयं के साथ मल्लीनाथ कया उद्धार किया उसके लिये किसी कवि ने उसको मुक्द कण्ठ से प्रशसा को है-- ऐसी न कोई चीतौड सीसोदिया आयण जिका कोट्स ये न कौ जाणी। आ हुई माल रै महेवे अरधया रूपादे य्रणिया सिरे राणी # और चह भी कैसी? अपने पति के साथ परमज्योतिर्मय हो गयौ-- इण कब्दू बिचाव्ठे माल रुपा अचछ जोत सह देव होवे परस जाय ॥ जैसी रूपादे चैसे ही मल्लीनाथजी । बिना किसी जाति पाति के भेद के वे हिन्दु मुसलमान दोनों के लिए पीर हो गये--सबका दुख हरण करने वाले वे बाबा हो गये-- बाबौ दीहडा डोहेब्य टब्विसै सेवा कयय प्राय लागी।र६ प्० राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल््लीनाथ और इसी निष्ठा और भावना के कारण मल्लीनाथ लोक के देवता हो गये--लौकदेवता बन गे ॥ भवग्रह और नवनाथ नौ खण्डों में उनकी पूजा करते हैं। नवनिधिया उनकी दास हैं-- नव अह्य सेवा तूज नव कुब्णी सेवै नाग नवा नाश विरै गाय नवे खड़ा गाम। नवे ही पकने खडा नवै नेह आगे जीत सता नवे निद्ध देवे महंवा से साम#र० सिद्धों और नाथों के नाथ के सिद्ध मल््लीनाथ और उनकी मुक्तिदायिनी रूपा सामान्य से असामान्य हो गये साथक से सिद्ध हुए और मनुष्य कैसे देवत्व प्राप्त कर सकता है इसका उदाहरण छोड गये। साथ ही इस वध्य को फिर से उजागर करते गये कि मानवता से और कोई भी वस्तु इस ससार में श्रेष्ठतर नहीं हैं-- नर हि मातुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित् / यह सब सिद्ध करते-करते और साधना के औषट मार्ग पर चलते चलते उन्होंने जो उपदेश दिये उनका दर्शन उनके पदों और वाणियों में देखा सकवा है। दूसरे उनकी जीवन गाया को गाने का प्रयास जिन साधकों और कवियों ने किया है उसका दिडमात दर्शन भी अवश्य ही हमें पुण्य लाभ करायेगा क्योंकि वह भी उनके पुण्य का ही एक अग है उनकी जीवनगाथा वा ही एक गौत है। १३. रूपांदि-मल्लीनाथ विषयक अन्यकर्तूक काव्यसर्जना-- मल्लीनाथ और रझूपादे के पुनर्ज्म और पूर्वजन्म की कथा को विषय बनाकर जो गेय काव्य बनता गया वह रूपादे की वेल नाम से प्रसिद्ध है और चूकि यह भक्तजनों द्वारा शताब्दियों तक निरन्तर गाया जाता रहा उसमें अनेक प्रकार से फेर बदल होते गये और जहा जहां वह गाया जाठा रहा वेहा को बोली या भाषा का उस पर प्रभाव भी पडता गया। इसीलिये बेल के उपलब्ध पाठों में छन्दों की सख्या की न्यूबाधिकता के साथ भाषायी मिलता भी नजर आयेगो। बेल के चार पाठ उपलब्ध हुए हैं-- १ प्रथम पाठ डॉ बद्रीप्रसाद साकरिया के सप्रह में मिले हस्तलिखित प्रथ में उपलब्ध है। इसमें छतद सख्या ६९ है। इसे श्री अगरचद माहय ने मरुभारतों पत्रिका में प्रकाशित कयया है। केवल जागरण वी कथा का त्रतिपादन करने वाली इस रचना में मल्लीनाथ को “परचो” अवोतति) मिलने का समय १४३९ वि बताया गया है। २ दूसरा पाठ--जोधपुर के निकट बिलाडा कस्बे के निवासी श्री शिवर्सिट चोयल द्वार सकलिव मौखिक परम्पय के आधार पर बनाया गया है। इसमें छल्दों की सख्या ५८ है। साकरिया द्वारा सकक्लित पाठ को तरह इसमें भी केवल जागरण के प्रसग का वर्णन है। इसे भो श्री ताह्टा जी ने मरुभारती में अकाशित क्या शणी रूपादे और मललीनाथ जीवनगाथा प्श् है। इसका रचयिता हस्तन्द भाटी है। ३ तीसरे पाठ का आधार भी मौखिक परम्पण है। इसका सकलन एवं प्रकाशन डॉ सोनाराम विश्नोई ने किया है। छन्द सख्या ९८ है। इसमें अलसी लालर रूपादे का मालोजी से विवाह और महेवा आगमन जागरण तथा मल्लीनाथ के समर्पण तक की कथा दी हुई है। इसके रघयिता हरजो भाटी हैं जिनका अनुमानित समय १४६१ १५७५ वि माना जाता है। ४. चौथा पाठ स्वामी गोकुलदास जी डुमाडा निवासी द्वारा सकलित है जिसे धारू माल रूपादे को बडी देल कहा जाता है। इसमें बुधजी और पाटण प्रण्ग अलसी लालर विवाह जागरण मल्लौनाथ जी का समर्पण रूपादे और घारू मेघवाल का मल्लीनाथ जी को उपदेश लिखमसी माली और ऋष खींवण के उपदेश सक्लिव हैं। इसमें भी हस्तन्द भाटे को ही रचयिता बताया गया है। इसमें छन्द सख्या १६० हैं। बेल के इन विभिन पाठान्तरों के अलावा इस कथा को गद्य में भी निबद्ध किया है--इसे रुपादे री बात” अथवा “मल्लीनाथ पथ में आयो ते री बात” भी कहा जाता है। मालोजी (मल्लीनाथ) की जन्मपत्री पाटण सदर्घ” का बखान करती है जो भल्लीनाथ रूपादे धारू मेघवाल ठगमसी भाटी पाडल गाय और गगाजल घोडे के पूर्वजन्म से सबधित है। इसी प्रकार शिवर्सिह चोयल द्वार मौखिक परम्षण के आधार पर आ्राप्त की गयी एक रचना है--मालेजी री महैमा। मल्लीनाथ और रूपादे के सदेह स्वर्गगमन के प्रसग को इसमें बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जागरण प्रसग॒ के सदर्भ में गुजराथी में धारू मेघ भी वाणी” नामक एक रचना भी मिली है। इसके अलावा तोलादे कतीबशाह देवायत पडित के कुछ पद तथा अन्य अनेक अज्ञावकर्दृक पद और गीत मिले हें। तोलादे जैसल प्रसग की चर्चा जिन गुजराथी कथाओं पर आधारित है वे हैं--१ मालदे रूपादे और २ जैसल अने तोलांदे। इसके अलावा कुछ गुजरायों पद भी हैं जो मल्लीनाथ रूपादे की अजार यात्रा से सब्यित हैं। इन सभी रचनाओं को तृतीय खण्ड के भाग (व) में दिया है भाग (अ) रुपादे की स्वय की रचनाओं अथवा वाणियों के लिये सुरक्षित रखना मैंने उचित समझा है। इसमें यदि भाषा विषयक दूष्टि से सोचे तो निश्चय ही यह भाषा आपको १४ १५वीं की नहीं लगेगी। उसके कुछ कारण हैं-- एक तो सदियों से गाये जा रहे पर्दों में बदलाव आया है और दूसरे इन्हें गानें वाले अशिक्षित समाज के उपेक्षित तबके के लोग अधिक हैं-उनका ध्यान भाषा सौष्ठव और सौन्दर्य की अपेक्षा भक्ति और समर्पण की ओर अधिक रहा है। तीसरे यह भी सभावना रहो है कि कई लोगों ने स्वय ही रचनाएं कर “कहें रूपादे” या “भणे रूपादे” जोड दिया है। ऐसे पदों को भो मैंने रूपादे कर्दक हो माना है। कुछ पद गुजराथो में हैं कुछ मारवाडी में तो कुछ मेवाड़ में भी हैं। दरअसल घर राजस्थान सन्त शिणेमणि राणी रूपादे और मल्लीगब भक्त के लिये भाषा का उतना महत्व नहीं है जितना वी भाव का। ये पद भक्त के हृदय के उद्ार हैं उसके सत्वशुद्ध मन का दर्पण है लौकिक धरातल पर रहते अलौकिक बनने को मृत्यु से मोक्ष तक पहुचने कौ या कहिये मनुष्य से देवत्व श्राप्त करने की मनुष्य मन की उत्कट अभिलाषा की वे अभिव्यक्ति हैं। वे मानव मात्र को पाप से पुण्य की ओर मृत से अमृत की ओर और अशाश्वव से शाश्वत की ओर ले जाने वाले हैं। सत्वशील मन से ही हमें उनके अध्ययन में अवृत्त होना चाहिये और इसीलिये उनके अध्ययन का मैंने शीर्षक दिया है--रूपादे की अमृतवाणी जिसका अवगाहन निश्चय ही हमारे आपके मन में अमृतत्व की अभिलाषा को स्फुरित करेगा। सन्दर्भ १ मासवाड़ का इतिहास, पृष्ठ १२५० २४ बाबा रामदेव पृष्ठ ५३० २ वहीं पृष्ठ ३४ २५. वहीं पृष्ठ ३४३५ ३ वहीं पृष्ठ रेड २६ मुहता नैणसी ख्यात- भाग २ पृष्ठ २८० २८१ ४ वहीँ, पृष्ठ ४१ २७ यहीं पृष्ठ २८५ ५. वहीँ, पृष्ठ ड४ २८ मास्वाड़ का इतिहास; पृष्ठ ५३ ६ वहीं पृष्ठ ४७ २६ वहीँ पृष्ठ ५३-५५ ७ वहीं, पृष्ठ ४८ ३. मालाणी के गौरव गीत दे. मल्लीनाथ < वहीं पृष्ठ ४९ ३१ वीणश्मायण स. लक्ष्मीकृपारी बूंडावत ९. वहीं पृष्ठ ५ ३२ दे. भुजय्त का इतिहास १ वहीं पृष्ठ ५२ ३३ नैणसी री ख्यात घाग २ पृष्ठ ३ ८ ११ यहीं पृष्ठ ५२ ३४ सूर्रतिह बशप्रशस्ति दे. भूमिका १२ यहीं, पृष्ठ ५२ ३५ माताणी का इतिहास अप्रकाशितु पृष्ठ २७ १३ वहीं, पृष्ठ ५३ ३६ गुण सा कौ बही बालोतरा डॉ हुकमप्लिंह भाटी १४ वहीं पृष्ठ ५४-५५ ड्वात सगृह्वीत १५ शोध परिक घाग २ अक २ ३७ भाडियावास के बुधा आसिया की बही सौजन्य १६ जैसलमेर की तवारीस्तू पृष्ठ ४ डॉ. हुकमसिंह भाटी १७ हरिश्विह भाटी पूगल का इतिहास पृष्ठ १८५ १९०... २८ मालाणी के गौरव गोद पृष्ठ ३६९ १८ वहाँ, पृष्ठ ५ ३९ माखाड़ का इतिहास पृष्ठ ५४ ६९ मुहता वैणसी री रुवाद झाग-र पृष्ठ द६ ६७... ९ नैजसी सी ख्याद, भाग ३ पृष्ठ २६२७ २० राव गणपटिंह चितलवाना से मैया पार ब्यवहार. ९ नैलसी री ख्यात घाग २ पृष्ठ २८० २१ सारवाड़ का इतिहास पृष्ठ ३३ डर नाथ सम्पदाय, पृष्ठ १७५९ २२ पुहता नैजसी री ख्याव भाक२ पृष्ठ २८४ ड३ कहों पृष्ठ १२ २३ वच्ढों पृष्ठ २८५ २९ डे बहा, पृष्ठ १६८ ४५. वही पृष्ठ १८१ राणी रूपादे और मललीनाथ जीवनगाथा डर ड७ ड८ट डर पु० 24 परे ५३ पड ५५ ५६ बहीं पृष्ठ १६८ १७० शोध पत्रिका, भाग २ पृष्ठ ८५ नाथ सम्पदाय पृष्ठ १५६ वहीं पृष्ठ १५९ बहीं पृष्ठ १५७ वहीं, पृष्ठ १५९ वही पृष्ठ १५५ १६० खानजादा प्रशस्ति, नागौर सेमिनार १७७१ मालाणी का इतिहास दे. मल्लीनाथ मालैजी सी जन्मपद्री दे. परिशिष्ट बरदा वर्ष २ अक २ १९७७ पृष्ठ ४३ प्छ पट पर च््ण दर धरे ६३ छ््ड ३ वहीं पृष्ठ ४४ ड५ मालैजी री जन्मपत्री ८ वहीं १२ बहीं १३ १६ दे मालदे रूपादे जैसल अनै सती तोरल पृष्ठ ५७-७८ शोध पत्रिका, घाय २ अक २ मालाणी के गौरव भीत, पृष्ठ १७ ६५. वहीं पृष्ठ १९ ६६ ६७ वहीं पृष्ठ १७ वहीं पृष्ठ १२ +$१+$ रूपादे की अमृतवाणी १ पूर्वपीठिका-- भारतीय अध्यात्म चिन्तन की सनातन प्रवृत्ति के प्रथम दर्शन हमें वेद में ही उपलब्ध होते हैं. साथ ही सृष्टिविषयक रहस्यों को जानने की मानव मनकी दुर्दम्य अभिलापा और स्वय का मूल खोजने की उम्तकी जिज्ञासा इन दो तत्वों के कारण ही तो भारतीय दर्शनों का ऊहापोह हमें आत्मचिन्तन की ओर प्रवृतत करता दिखाई देता है। ऋग्वेद की नासदीय सूकता जैसी रचनाएं निश्चय ही सृष्टि अ्क्रिया के निरूपण का प्रयास करती हैं जबकि अस्यवामौयरे सूक्त में कई ऐसे अश हैं जिनमें अद्वेत वेदान्त या साख्य दर्शन के मूल रूप को खोजा जा सकता है। वेद को सहिताओं से हम जब॑ उपनिषदों क जगत् में प्रवेश करते हैं तब ससार को असाशता और सत् या परब्रह्म की चिस्तनता अर्थात् सदसद् को विचित्र उभयात्मक स्थिति हमें घेर लेती है। उपनिषद्, सन््यास था चानप्रस्थ को अवश्य हो चर्चा करते हैं परन्तु अकाल सन््यास की कदापि नहीं। चेदकालीन समाज और उसको आस्था के आयामों को चचचों से पूर्व हमें यह बात टीक तरह से समझ लेनी चाहिये कि वेद के सूर्क्यों अथवा रचनाओं को केवल स्तोत्र मानते की भूल हमें नहों करनी चाहिए। यह मात नहीं है कि वर्षा गर्मो आदि से आजन्दित या पीडित होकर तत्तद् देवताओं की स्तुति कर लेने मात्र से ही व्यक्ति को सन्तोष हो जाता था क्योंकि यह भी बाव नहीं है कि उन्हें होने वाली अनुभूतियों को केवल भौतिक स्तर तक ही सीमित किया जा सकें क्योंकि आगे उपनिषदों में चलकर इन्द्र की परमतत्व मानने या “वह एक था फिर दो हुए उसने अनेकविष होने की इच्छा की इस प्रकार जो रहस्य भरे मनुष्य के अन्तर्मन के उद्भार हैं वे स्वयं अपने आप में इस बाठ के स्पष्ट प्रमाण हैं कि वैदिक व्यक्तियों का व्यक्तित्व आधिभौतिक सीमाओं से घिय हुआ नहीं था। परवर्ती भक्तों सन््तों की तरह उनके भी जोवन का एक उद्देश्य था जिसे कभी मोक्ष कभो मुक्ति कभी जीवन्सुक्ति तो कभो निर्वाण से अनेक प्रकार से अभिद्वित किया गया है। रूपादे वी अमृतवाणी प्५ चैदिक समाज कौ अपनी मान्यताए रहो हैं। उनमें प्रमुख है आश्रम और चर्ण पर आधारित समाज कौ रचना। मनुष्य के जीवन के चार दद्देश्यों. धर्म अर्थ काम और मोक्ष से चार आश्रमों को जोड दिया गया। बहुत सम्भव है वर्णों का आधार मूलत जन्म न रहा हो और गुणों की ही प्रषानता रही हो जैसा कि भगवद्गोता में भी कहा गया है। यथा चार्तुर्वण्य॑ मया सृध्दवा गुणकर्मविभागश । परन्तु समाज में रतने वाले लोगों को अपनी ही अक्षमताओं या कमियों के कारण वर्णव्यवस्था अपने मूल रूप में स्थिर नहीं हो सकी और उसने कई जातियों उपजातियों को जन्म दिया। स्मृतियों में मिलने वाले आठ प्रकार के विवाहों को इन जातियों के मूल के रूप में देखा जा सकता है। वेद ब्राह्मण प्रन्थों के पश्चात् स्मृत्ियों ने भो धर्म-कर्म के अधिकारों को उच्च चर्ण तक ही सीमित रखा । परन्तु जाति उपजातियों के साथ वर्ण व्यवस्था भी अपने स्थायित्व के लिये सघर्ष करतो रही और स्वभावत जब वर्णाश्रम के द्वार अन्य जातियों के लिये बन्द होने लगे तब समाज की विभिन जातियों के वर्गों भें विद्रोह और असुरक्षा की भावना घर करने लगी तब मोक्ष पद की प्राप्ति के लिये स्वय का योग्य होना सिद्ध करने को होड सी लग गयी। महर्षि वाल्मीकि में इस प्रकार की भावना का उदाहरण हम देख सकते हैं। बेदों के बहुदेववाद की साकार उपासना जहा पुराणों का विषय बन गयी उपनिषदों को श्रमण सस्कृति का भी धीरे धीरे विकास हुआ। ब्राह्मण-कर्म या मोटे रूप में ब्राह्मण धर्म का विरोध हुआ तब बौद्ध और जैन मर्तो का विकास कैसे व्यापक हुआ यह बात हमारी समझ में आने लगी। इसी ब्राह्मण धर्म के विशेष को सगठित रूप मिला ८ ९ वीं शती में नाथों के माध्यम से। मल्लीनाथ के सिलसिले में पाशुपत या लकुलीश सम्प्रदाय को चर्चा हम पूर्व में कर आये हैं तथा यह भी देखा है कि राजस्थान के शासकों एवं सामान्य वर्ग पर इस मत का बहुत अधिक वर्चस्व रहा है। पडित रजारी प्रसाद द्विवेदी ने बहुत ही विशद विवेचन कर यह बात भी भलीभाति सिद्ध की है कि गोरक्षनाथ ने ही इस प्रकार के मर्तों के अनुयायियों में सामजस्य स्थापित कर उन्हें नाथ होने की मान्यता प्रदान की थी। वेद विगेधी और ब्राह्मण धर्म विशेधी जो स्वय को बौद्ध या जैनों में धर्मान्तरित नहीं कर याये उन्होंने इस मत का आश्रय लेना शुरू किया। इन लोगों को जुगी या जोगी कहा जाता था।रे वेद विशेष और स्मृति व्यवस्था के विरोध से जिन बौद्ध जैन परमपराओं का विकास हुआ उनमें अकाल सन्यास के कारण सादा देश भिक्षु॒भिक्ुणियों से भर गया आश्रम वर्ण के ठट्गाताओं ने अपनी सीमाए अधिक सकुचित की समाज व्यामोह में पड़ा रहा। लगभग १० ११ वी शती तक यही व्यवस्था बनी रही। सर्वया असमजसता ष्द्ध राजस्थान सन्त शिरोमणि णणी रूपादे और मल्लीनाथ का बोलबाला रहा और इसी पार्श्रभूमि पर जब मुसलमानों के आक्रमण शुरू हुए वो निचले स्तर के कई व्यक्तियों का मुसलमान बनने का सिलसिला शुरू हुआ। ये सब भारतीय मूल के मुसलमान कहे जाने लगे।* और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो नाथ सम्प्रदाय या गोशक्ष मत के दस्वाजे हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिये ही खुले थे रावल पौरों को नाथ सम्प्रदाय की शाखा का रहस्य इसी तथ्य में देखना चाहिये। वास्तव में अकाल सन्यास के मूल को भी वेद विशेष में ही देखना चाहिये। तत्कालीन समाज के मापदण्ड शास्त्रीय ग्रथों और विधानों की चिन्ता न करते हुए मोक्ष साथना को अपना जीवन उद्देश्य मानने वाला एक़ वर्ग समाज में था जो मोक्ष को योगमूलक मानता था। इन लोगों को स्मृत्यादि ग्रन्थों में अतिवर्णाश्रमी या पचामाश्रमी माना गया है परन्तु योगियों ने इस शब्द की व्याख्या सापतात्मक और दार्शनिक आपार पर की है। इन्होंने पक्षपात (देहभिमान) से विनिर्मुक्त होने पर ही ब्रह्म की प्राप्ति को स्वीकार किया है। आगे चलकर हम चर्चा कर देखेंगे कि अत्याश्रमी और मार्थो में कितनी समानता है। नाधों में सभी के लिये अवेश खुला था इसलिए यह जीवनपद्धति “न हिन्दू न मुसलमान” वाली कहलायी।* ऊपर जिस जोगी या जुगी का जिक्र किया है उनमें से अधिकाश नवधर्मान्तरित मुसलमान थे। इस सिलसिले में नाथों में मुस्लिमों की पर्याप्त सख्या के विषय में एक अनुमान किया गया है उसकी चर्चा भी यहा उपयुक्त होगी। अन्य धर्मावलम्बियों की तरह गोरक्षयाथ को भी भुसलमान आक्रमणकारियों ससे काफ़ी सपघर्ष करना पड़ा इसलिए उत्तर भारत में उन्होंने मुसलमानों से सन्धि कर ली। इसके तौन कारण थे नाथपथियों के मुख्य केद्व मुसलमानों के अधीन थे। दूसरे हिंगलाज देवी के ग्रति श्रद्धाभाव रखने के कारण मुसलमान जनता से उनका सम्पर्क अधिक बढा। तीसरे मुसलमानों स॑ संघर्ष के अवसर कम हुए। यही कारण है कि नाथों में गवल पीरें की शाखा का विकास हुआ। इन योगियों को कभी कभी जफ़र योगी भी कहा जाता है। नाथ सम्पदाय में दीक्षित होती गयी जातियों के विवः्ण में प द्विवेदी ने जोगी के अलावा लगभग २५ ३० जातियों की ओर सकेत किया है।६ इस सिलसिले में निवेदन है कि मक्का मदीना से चले नाथयोगियों का भारत में प्रवेश जिस रास्ते हुआ वह है काबुल कन््पार लाहौर भटनेर मग्रेठ देशवर लोदवा जैसलमेर) राजस्थान में यदुवशी भाटी भी इसी सस्ते आये। पान्तु प द्विवेदी जी ने राजस्थान में नाथों के व्यापक प्रचार की ओर या इस सम्प्रदाय में दोक्षिव हुई राजस्थान की जनता की ओर विशेष रूप से कोई सकेव नहीं किया है अत नार्थो की शाख्रोय चर्चा और उनकी साधना पर विचार कल से पूर्व राजस्थान में नाथों का जो प्रभाव पडा और उससे जो सम्मदाय ठद्यूत हुए, उन पर विचार करना भो यहा पर आवश्यक है। रावल मल्लानाथ के नाथानुयायो हान वी चर्चा के दौरान हम पहले यह देख रूपादे की अमृतवाणी प्छ चुके हैं कि तत्कालीन राजस्थान के शासकों पर पाशुपत या लकुलोश सम्प्रदाय का पर्याप्त प्रभाव था यहा तक कि उनकी उपाधिया भी राजकुल या शवल कुछ इसी प्रकार की रही हैं। मल्लीनाथ कैसे नाथ थे या हुए यह विषय नाथ सम्प्रदाय की विशेषताओं के साथ करना उचित होगा फिलहाल नाथ और उनसे हुई विभिन्न जातियों और उनकी साधना के विषय में की जा रहो चर्चा आपको अवश्य ही रुचिकर प्रतीत होगी। २ मारवाड का नाथ-समाज-- राजस्थान में विशेषकर मारवाड में एक शब्द बहुत प्रसिद्ध हे. खटदरसण हिन्दू, जैन और मुसलमानों के जितने भी साधु और फकीर हैं उनका समावेश इसो में किया जाता है-- जोगी जयम सेवडा सनन््यासी दरवेश। छट्ट दरशन ब्रह्म का जिसमें मौन न मेखआ उत्तर प्रदेश के “जुगी” को तरह, जोगियों का आ्राचीन समय से मारवाड में निवास रहा है। योग साधना से योगी काया पलटना या आकाश में उडना इस तरह की करामार्ते किया करते थे इब्नबतूता ने इस प्रकार की करामातों को देखा भी था। इनकी देखादेखी अपनी सामर्थ्य से योगसाधना कर छोटे छोटे इल्म हासिल कर उदर निर्वाह करने वाले लोगों से सम्मवत जोगी जाति बनी। ये लोग गोरक्ष सम्भदाय से अपना सम्बन्ध बताते हैं और अपनी परम्पण को जालन्यरनाथ से शुरू हुई मानते हैं। इनमें गृहस्थ जोगी अधिक हैं। निहग या नहग कम हैं। निहग जगलों में रहते प्राणायाम चढाते योग साधते और चेले मुडते थे। जोगी महादेव को पूजा करते हैं भस्मी का तिलक लगाते हैं भीख मागते हैं और दारू मास का सेवन भी कर लेते हैं। इनके मदिरों को मठ या आसन कहा जाता है। मारवाड में ६ प्रकार के जोगी रहते आये हैं- नाथ या कनफडे जोगो मसानिया जोगी कालबेलिया औषघड अधोरी शावल (१) चाब- जी की ही का 2ए 2० राजस्थान में सिसोदिया वश के सस्थापक बाप्पा रावल के गुरु थे हारीत ऋषि या राशी-नाथ गुरुओं के लिये ९ १०वीं से १३ १४वीं तक यही शब्द काम में लिया जाता रहा। मास्वाड के मालाणी क्षेत्र में कपालेश्वर मदिर में स १३०० के शिलालेख जज ८ राजस्थान सन्त शिरेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ में पुजारियों के लिये इसी राशि का प्रयोग हुआ है। श५वीं १६वीं शी से इन्हें आयस या जोगेश्वर सरूप कहा जाने लगा। मारवाड के नाथ अधिकतर जालन्यलाथ को ही मानते हैं। इसलिए उसके अनुयायियों को सिद्धेश्वर भी कहा जाता है। इनका प्राचीन आसन जालोर दुर्ग पर है। जालन्धरनाथ जी की मान्यता और उनके द्वारा किये गये चमत्कारों को खनोडा के चारण सबव्ण कवि ने गाया है। हमारे मल््लीनाथ भी उसी की कृपा के कायल रहे हैं किंचित् विषयान्तर का भय है किन्तु वह रचना जालन्यजाथ जी के मारवाड में व्यापक भ्रभाव का बखान करती है इसलिए उसे यहां ठदूधृत कर रहा हू, छो डॉ शक्तिदान कविया के सौजन्य से प्राप्त हुई है-- लीसागी) ओऊकार अग्रदि इद निणुण सरगुण नर। पथा बारे ऊपरा प्राव प्रथ अप्रम्पर। सिद्या चौयसी सिरे श्रीगराथ सिष्ेतर दोय डाहलिया वारिया चदेरी सैहर। मैत्रद कीत्रो मुस्तफ्ों मोढ़्ी गढ़ अम्पर योड उद्धारे रामिंष काव्गे पिया ऊड़ा। गोपीचद उद्धारियाबयाल तथी पर आदि पुरी डग्डावदी रग्गचन्ठ भ्राखर। कोइक दिन तफएस्या करों झरणा जब नीज्र सज्जनियाँ बल बसयो जैनै दीगो वर भागा प्रतेसाहा प्रिडे हेकल्लै समहर/ विरभै विडियानाथ नू, कीधो कालीबर/ दलियै चारण नू दिया बेटों अबबर नाम कहायों प्रीर विज सकवी देवासुर। जाय अगड़े ओय तर यढ पाल कणोपरिर भूमाडिल देखाब्ियो यव रैय कया घरा। जोपत वाब्गी जगारिका जेण कौप जवाहा गोयादे नै ख्वन्गी दौयी कर मेहर/ मलीग्राथ मिर कर मया द्रढ़ कियोौ सहोदर ढोली कठयाणी वणी आया पूरे उर/ सोनी प्रमक्ी रे परे बटाणा लयर श्रीगे काने भेटिया इह सच्चा अवखर। जमे एव जाये जती प्रिरटिल्ले पिखर साहस थीट उद्धारियों श्यटे पालणपुर/ बूग' जम्ियलसाह नै है जोगी जाहर रूपादे की अमृतवाणी प्र दरसन जोयाने दियौ साचे मन सँंमर। कर जोडे सबको कहै वे नाथ जालधर दूहौँ) कान दलों भीमों सकवि सबलों कियौँ सनाथ। जावब्ठधर अपजारणा निमों चारणा नाथ॥ (सौजन्य-डों शक्तिदान कविया) जालन्धरनाथ के ये अनुयायी अपने आचरण में कुछ मौलिकवाए लिये हुए हैं। ये कानों में मुद्रा या मुदेर पहनते हैं कपड़े भगवे हो पहनते हैं किन्तु लगोट सफेद वस्त्र का होता है। काली ऊन की गुथी कणगती की तरह अपने गले में सेली पहनते हैं या उसे अपनी पगड़ी पर बाध देते हैं और गले में हरिण के सौण की बनी सीटी सींगी लटकाये रखते हैं भस्मी लगाते हैं और कोई-कोई रुद्राक्ष भी पहनते हैं। मुदरे पहनने के लिये कान में छेद करना जरूरी है इसलिए कमफय नाम से भी ये प्रसिद्ध हैं। जो कान चौरता है वह चौरा गुरू और जिसके उपदेश से शिष्य बनता है उसे सबद गुरु कहा जाता है। चेला बनाने की इनकी विधि भी विशिष्ट है। चेले की आख बाघकर उसके कान में गुरुमत्र सुनाया जाता है और फिर आख खोलकर उसे ज्योति के दर्शन कराये जाते जब चह “सुगण” कहलाता है अन्यथा नुगण। हिंगलाज माता की ज्योति प्रज्वलित होती है। री के दीक्षित होने की बात सामान्यत स्वीकार नहीं है किन्तु यदि बह हिंगलाज माता के सामने विरक्त होने वी प्रतिज्ञा करती है तो उसे स्वीकार किया जाता है। वह मर्दाना वेष पहनती है और अन्य चीजों से उसका कोई लेना देना नहीं रहता है। नाथों में मुर्दों को उत्त की ओर मुह करके गाड़ दिया जाता है।॥ नाथों के इस ऊहापोह में दीक्षा विधि पर यदि थोडा सा भी विचार किया जाए तो भल्लीनाथ कौ दीक्षा के जिस प्रसग की चर्चा हम कर आये हैं उससे इस विधि की कितनी समादृता है यह सहज हो दृष्टिगोचर होगा। साथ में यह भी यहा पर कहना आवश्यक है कि नाथों से सबधित कई शब्द यथा नुगग सुगरा सेली सोंगी रूपादे वी वाणियों में कई बार प्रयुक्त हुए हैं। उनकी चर्चा बाद में करेंगे। (२) मसानिया जोगी- मसानिया (शमशानिया) जोगियों के सिलसिले में एक दन्तकथा मारवाड में प्रचलित है। आज जोधपुर का किला जहा पर है वह भोमसेन पहाड कहलाता था। चिडियानाथ जी अपनी धूणी यहीं रमते थे। ग़ठौड शासक जोधा ने जब किले का निर्माण किया तब चिडियानाथ को समीप हो परालासणी नामक स्थान पर जाने के लिये प्रार्थना की। एक बार जोधा जब पानी का कुआ बनवाने में व्यस्त था तो उसमें से साप निकला। ६० राजस्थान सन्त शिरोमणि राणो रूपादे और मत्लोनाथ उसको पकडने/मारने के लिये चिडियानाथ के शिष्य दीनानाथ को बुलाया गया। दौनानाथ ने साप को वो पकड लिया किन्तु सर्पदश से उनकी मौत हो गई। शजा ने उसके रिश्वेदारों को सात्वना के लिये कहा “मागो । तब उन्होंने कहा-जिन्दों के मालिक तुम मुर्दों के मालिक हम। तभी से मृतक के कफ़न के आधे हिस्से के वे मालिक हो गये। इसलिये जोधपुर में अब भी आधा कफ़न हरिजन का और आधा मस्सानिया जोगी का हांता है। श्मशान मैं रहने से ये लोग मसात्रिया कहलाये। इनका व्यवसाय खेती मजदूरी साप को पकडने का और जहर उतारने का भी है। साप के काटने से अगर इनमें से किसी को मौत हो जाय वो उस साप को ये लोग “नुगय कहते हैं। ये महादेव माताजी कौ पूजा करते हैं कपाल पर भश्मी का आडा तिलक लगाते हैं। मदिग और मास पर कोई बघत नहीं रखते हैं। जब इनमें से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है वो मुर्दे को कपडे की झोली में बैठाकर ले जाते हैं। मृतक के लगोट पर तहबद बाथते हैं तथा गले में कफनी नाद सेली और रुद्राथ डालते हैं! लगोट के सिवा सब कपडे भगवे होते हैं। मुर्दे के गाने के बाद गायत्री मन्त्र का जाप करते हैं जिसके अन्त में गुरु भोरक्षगाथ का अवश्य ही स्मरण किया करते हैं।* अपने पथ की बातों भजनों या याथियों को मौखिक हो याद रखते हैं। कभी इकतारे पर इन्हें गाते हुए भी देखा सुता जा सकता है। जोगियों का ही फिरका होने से इनमें पथ के बारे में लगभग वे ही बातें मान्य हैं जो नाथ आ्राय स्वीकार किया करते हैं। जोधपुर के निकट “अस्ता” नामक जगह इनका तीर्यस्थान है। (३). छालबेलिया- जालन्धरनाथ जी के १२वें शिष्प थे कतीपाव। कनोपाव के बारे में यह बात प्रसिद्ध रही है कि वे सर्पदश का इलाज कर जनता कौ सेवा करते थे। मारवाड के कालबैलियों का भी साप को पकडने व सर्पदश होने पर उसका इलाज कराने का व्यवसाय रहा है। इसलिये ये लोग कनीपाव की गद्दी को अपना गुरुपीठ मानते हैं। जोधपुर के निकट ढीकाई” नामक स्थान पर कालबेलियों वा गुरुद्वारा है। कालबेलिया अर्थात् जाति-बहिष्कृत नाथों वी जावि से अलग वी गयी यह जाति है। ये अपने नाम के अन्त में “पाव” लगाते हैं कान में मुदगे न पहन कर मुरकिया डाल लंत॑ हैं और मुरकियों में मुदरे लटकावे हैं। कालबेलियों के मुदरे अधिकाशव कास्य पीवल और चादी के होते हैं जिन्हें तुगल” वहां जाता है। इनके ठपनाम अधिकतर श़जपूर्तों की जातियों पर ही मिलते हैं. जैसे राग्ैड़ प्रवार सोलकी भाटी आदि। कुछ कालबेलिये गावों में रहवे हें वो कुछ घुमक्कड भो हैं। ये पगड़ी प्राय भगवे रंग की पहनव हैं और औरतें अपना दुपट्टा या ओदनी भी भगवे रंग को ही पहिनतों हैं। कालन॑लिये महादेव और पार्वतों की पूजा करते हैं आक धतूर और घूप चढ़े रूपादे की अपृतवाणी ६१ है। इसमें भी जोणियों कौ तरह हिंगलाज माता की मान्यता है। हिंगलाज माता के यहा से *दूमरे” नाम के पत्थर जैसे दिखाई देने वाले दाने लाकर पानी में उबालते हैं और रैशम या डोरे में बाथकर उन्हें गले में पहिनते हैं। जब किसी कालबेलिये की मृत्यु हो जाती है तो उसे सीढी या अर्थी पर उत्तर की ओर पैर और दक्षिण वी ओर सिर कर लम्बा लियकर ले जाते हैं। साढे तीन हाथ कपड़े में लपेटकर शव को औंधा लिटाकर जमीन में गाडते हैं। हिंगलाज देवी के जिसने दर्शन किए हैं उसके शव यो बैठे हुए स्थिति में दफन किया जाता है।* (३-५) औषड़ अधोरी और रावल-- ये लोग भारवाड के मूल निवासी नहीं हैं। प्राय पजाब से आये हुए हैं। औषड कान में चीग नहीं देते हैं। ये अपनी परपरा को राजा भरथरो से जोडते हैं। पजाब में भरथरी की धूणी पर कभी कोई आदमी गया और हाथ पर धूप सुलगा कर बारह वर्ष तक धूणी की परिक्रमा करता रहा। तब भरथरी ने प्रसन्न होकर उसे अपना चेला बनाया किन्तु शर्त रखो कान में चौरा नहीं दोगे। इस प्रकार की किंवदन्ती मारवाड में प्रचलिद है। औधड सम्प्रदाय इस प्रकार भरथरी की परम्पण में विकसित हुआ एक सम्प्रदाय माना जाता है। औघड सम्प्रदाय के बिगडे हुए लोग अघोरी कहलाते हैं। भिक्षावृत्ति ही इनकी आजीविका है। रावलों की सख्या मेवाड भें अधिक है। ये कानों में मुदरे पहनते हैं। थे भो भिक्षावृत्ति पर आश्रित होते हैं जब भिक्षा मिल जातो है तो सिंगी बजाते हैं।१० (६) जगम- जोगियों के यावक जगम कहलाते हैं। अपने सिर दोनों भुजाए और कनपटियों पर पीतल के साप बाये ऊगप फिछा मागते हैं) भाथे पर मुकुअ पहनते हैं तथा मुकुट में महादेव की मूर्ति अकित होती है। ये भगवे वस्र पहनते हैं और महादेव की पूजा के हैं। “पार्वती का ब्यावला” गाने के लिये इन्हें कभी कभी शादी ब्याह के मौके पर नुलाया भी जाता है। रावल अपना सम्बन्ध पसिद्ध नागनाथी सम्प्रदाय से जोडते हैं।११ नाथ परम्परा से सीथे जुडे इन सम्भदायों के व्यक्तियों के अलावा मारवाड में शामी सामियों अथवा दशनामियों का सम्प्रदाय भी ऐसा है जिस पर नाथों के आचार विचार का पर्याप्त प्रभाव है। सामियों को अतीत या गोसाई भी कहा जाता है। इनमें गिरि पुरी भारती बन अर पन्त सगर तीर्थ आश्रम और सरस्वतियों का समावेश किया जावा है। इनमें से आधे नाम तो ऐसे प्रदीत होते हैं जो सन््यासियों के नाम की तरह हैं या उनके नाम के साथ जुड़ते हैं। ये सभी लोग महादेव के पूजक हैं। मृत्यूपरान्त प्राय इनको बैठे हुए हो गाड दिया जाता है और उनके अवशेष लाकर उनके आवास में रखकर एक चौंतर बना उस पर मृत व्यक्ति सथा महादेव को मूर्ति या प्रतिमा लगाई जाती है। इनमें अधिकवर लोग गृहस्थ धर्म का पालन करते हैं। ६२ गजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ जो व्यक्ति इनका शिष्य बनना चाहता है उसके सिर को मूडा जाता है और भीख मागने के लिये एक खप्पर उसके हाथ में दिया जाढ्य है। महिलाए जो हिंगलाज मात्रा के दर्शन कर आदी हैं वे मदाना वेश पहनती हैं और घर ससार से अलिप्त होकर रहती हैं। ऐसी महिलाओं को अवघृतनी कहा जाता है। इसी प्रकार जो पुरुष निहग रहते हैं उन्हें भी अवधूत कहा जाता हे। अवधूत पस्मी लगाते हैं तथा बैठने जादि के लिये व्याप्र चर्म या मृगचर्म को साथ में रखते हैं कमडल हाथ में लेकर भिक्षा वृत्ति से अपनी आजीविका चलाते हैं।१२ ३. नाथ परम्पपा ओर रूयादे मल्लीनाथ-- नाथ परम्परा से जुडे हुए मारवाड के समाज के एक पक्ष विशेष की ऊपर की गई चर्चा से कई अह मुद्दे उपस्थित हो जाते हैं. खासकर मल्लीनाथ रूपादे के पथ के सिलसिले में । उन पर विचार किये बिना एक पग भी आगे बढना हमारे लिये कदाचित् ही सम्भव है। उपर्युक्त चर्चा से जो बातें उभर कर सामने आती हैं उनका सकेत यहा पर करना उचित होगा ७ १ नाथ परम्परा का विकास राजस्थान में ८९ वी शती से माना जा सकता है। २ नाथ परम्पण के अनुसार मुदरे सेली सिंगी व रुद्राक्ष पहनना इस समाज में आवश्यक मात्रा गया है। डे रु की घेला बनाने वी विधि का मल्लीनाथ की दीक्षा विधि से पर्याप्त साम्य । ४. इन सभी अनुयायियों में हिंगलाज माता की मान्यता प्रमुख है। ५. अन्तिम सस्कार में शव को दफ़्नाने का ही रिवाज है। ६ इनमें से कोई जालन्थरनाथ की परम्पण के तो कोई कनीपाव जी के सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हैं। ७. महादेव के साथ ये लोग शक्ति की उपासना भी करते हैं। ८ कान न फाडने वाले अघोरी सम्प्रदाय का भी यहा (मारवाड में)अस्तित्व रहा है। ९६ बुछ अनुयायी यथा जगम साकार महादेव के उपासक हैं। १०. देशनामी सम्पदाय में मनुष्य जीवित अवस्था में महादेव का उपासक होता है परन्तु मृत्यु के पश्चात् उसे महादेव के समकक्ष मान लिया जाता है। नाथों के बाहयावरण दीक्षा और सुगरा बनाने कौ विधि के सिलसिले में मल्लीनाथ को दी गई दीक्षा की विधि पर यहा हमें विचार क लिये प्रवृत्त हो जाना चाहिये। यहा मल्लोनाथ से सम्बद्ध एक गद्य वार्ता का उदाहरण देना उचित होगा रावल जी रे हाथे ठगवसो ताबारा बेल घाती अर मोगेडियो दियो क्ह्यौ बोज जवी५ की आअपवाओ है दिन सात घर सू आखा मांग काबडिया नू बाटि। 'र यहा काबड कामड का अर्थ सन््यास जीवन का प्रतिनिधि मान लेना चाहिये। स्वामी गोकुलदास द्वात सकलित “बेल के पद सख्या १५१ ५२ में जो दीक्षा वर्णन है वह भी देखिये-- आख बापू तो अलखजी से आण सतगुरु आगे लाया ताण रावल माल ने। पाट प्रीव्वर पडदा वणाय जोत कलस के सन्युख बैठाय आख बाध कर घारू जी ल्याय सेली सिंगो देवायत पहराय नुगरा का सुगया। गुरु उगवसी दीन्हा माथे हाथ दे गुरु मत्र करिया सुनाथ चेला नाथ्या है। नाथों में चेला बनाने से पहले उसकी आखें बन्द करना पड़दे में बैठाना ज्योति दर्शन कराना सेली सिंगी पहनना और फिर गुरु मत्र देना पसिद्ध है) रूपादे से सम्बन्धित “बेल के एक और सस्करण में जिसे श्री चोयल ने सकलित किया है साफ तौर पर कानों में कुडल पहनाने का निर्देश किया है। मललीनाथ को कान में कुडल पहनाकर उनके सिर पर राव रतनसी ने हाथ रखा है तब कहीं जाकर उन्हें रावल नाम से सबोधित किया गया है ।-- यव खनसी हाथ दियणा काना में कुडल घलाणा सब पलट ने गवल कैवाणा जणै वादा री लार बिकाणा#ह बेल के एक और सस्करण में देखिये नाथ की क्या महिमा गाई गई है-- नाथ निरजण अगम अप्रारा सिमतोँ सता सिरजणहारा अपणा धणी सही कर जाणौँ जलम मरण भव डर क्यू आपो #१ इन भ्रमाणों को यदि स्वीकार करने की स्थिति में हम अपने को पाते हैं वो हमें निश्मपच ही यह स्वीकारना होगा कि रूपादे मल््लीनाथ जिस पथ के अनुयायी हो गये वह पथ नाथ अथवा उसी का कोई तत्कालीन प्रचलित रूप रहा होगा। ऊपर चर्चित नाथों के फिस्कों में से वे किस से सम्बन्ध रखते होंगे इसलिए प्रमाण के रूप में एक जनश्रुति को उदाहत किया जा सकता है। नारथों को चर्चा के अन्त में जिन सामियों/दशनामियों अथवा गोसाईयों को ओर आपका ध्यान हमने आकर्षित किया है उन गोसाईयों में यदि कोई व्यक्ति बीज” (द्वितीया) का व्रत रखता है दो बत के उद्यापन के दिन शत्रि में उसके यहा “रूपादे को बेल अवश्य ही गायी जाती है। पस्तु यहा घर यह बात स्मरणीय है कि रूपादे का प्रभाव गोसाईयों से प्ली मेघवालों में अधिक हे कामड भी उससे जुड़े हुए हैं। वैसे तो कामड ग़मदेव के भक्त हैं क्स्ति छ्र राहस्थान सन्त शिग्ेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ जो व्यक्ति इनका शिष्य बनना चाहता है उसके सिर को मूडा जाता है और भोख मागने के लिये एक खण्पर उसके हाथ में दिया लाता है। महिलाएं जो हिंगलाज माता के दर्शन मर आती हैं वे मदाना वेश पहनती हैं और घर ससार से अलिप्त होकर रहती हैं। एसो महिलाओं को अवधूतनी कहा जाद्य है। इसी श्रकार जो पुरुष निहग रहते हैं उन्हें भी अवधूत कहा जाता है। अवधूत भस्मी लगाते हैं तथा बैठने आदि के लिये व्याप्न चर्म या मृगचर्म को साथ में रखते हैं कमडल हाथ में लेकर भिक्षा वृत्ति से अपनी आजीविका चलते हैं।१२ ३. नाथ परम्परा ऑर रूपादे मत्लीमाथ-- नाथ परम्पण से जुडे हुए मात्वाड के समाज के एक पक्ष विशेष की ऊपर की गई चर्चा से कई अह मुद्दे उपस्थित हो जाते है. खासकर मल्लीनाथ रूपादे के पथ के सिलसिले में । उन पर विचार किये बिना एक पय भी आगे बढता हमारे लिये कदाचित् ही सम्भव है। उपयुक्त चर्चा से जो बातें उभर कर सामने आतो हैं उनका सकेत यहा पर करना उचित होगा + १ नाय परम्पणा का विकास राजस्थान में ८९ वीं शी से माना जा सकता है। २ नाथ परम्पण के अनुसार मुदरे सेली प्िंगी व रद्राक्ष पहनना इस समाज में आवश्यक माना गया है) ३ नाथों की चेला बनाने की विधि का मल्लीनाथ वी दीक्षा विधि से पर्याप्त साम्य है। ४. इन सभी अनुयागियों में हिंगलाज माता को मान्यता प्रमुख है। ५. अख्तिम ससस््कार में शव को दफनाने का ही रिवाज है। ६. इनमें से कोई जालन्थरताथ की परम्पणा के तो काई कनोपाव जी क॑ सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हैं। ७... महदेव के साथ ये लोग शक्ति की उपासना भो करते हैं। कान न फाडने वाले अघोरी सम्भदाय का भी यहा (मारवाड में)अस्तित्व रहा है। ९ कुछ अनुयायी यथा जंगम साकार महादव के उपासक हैं। १०. दशनामी सम्मदाय में मनुष्य जीवित अवस्था में महादेव का उपासक होता ऐै परन्तु मृल्यु के प्रश्वात् उसे महादेव के समकक्ष शात्र लिया मांग है। नाथों के बाहयाचरण दीक्षा और सुणगा बनाते कौ विधि के सिलसिले में मल्लीनाथ को दी गई दीक्षा की विधि पर यहा हमें विचार के लिये प्रवृत्त हो जाना चाहिये। यहां मल्लीशाथ से सम्बद्ध एक गद्य वार्ता का उदाहरण देना उचिव होगा ग्वल जी रे हाये ठगवसी ठाबाय बेल घादी अर मोगेडियों दियो कहौँ बोज *पादे को अमृतदाणी 222 रै दिन सात घए सू आखा माग कांबडिया नू बाटि।/** यहा काबड कामड का अर्थ सन्यास जीवन का प्रतिनिधि मान लेना चाहिये। स्वामी गोकुलदास द्वाा सकलित बेल के पद सख्या १५१५२ में जो दीक्षा वर्णन है वह भी देखिये-- आख बाधू तो अलखजी री आण सतयुरु आगे लाया ताण रावल माल ने। पाट पीवाबर पडदा वणाय जोत कलस के सत्मुख बैठाय आख बाघ कर घारू जी ल्याय सेली सिंगी देवायत पहराय तुगटा का सुगया। गुरु उगवसी दीन्हां माथे हाथ दे गुरु मत्र करिया सुनाथ चेला नाथ्या है। नाणें में चेला बनाने से पहले उसकी आखें बन्द करना पढ़दे में बैठाना ज्योति दर्शन ऋणना सेली सिंगी पहनना और फिर गुरु मत्र देना प्रसिद्ध है। रूपादे से सम्बन्धित बेल के एक और सस्करण में जिसे श्री चोयल ने सकलित किया है साफ दौर पर कानों में कुडल पहनाने का निर्देश किया है। मल्लीनाथ को कान में कुडल पहनाकर उनके सिर पर राव रतनसी ने हाथ रखा है तब कहीं जाकर उन्हें शरावल नाण से संबोधित किया गया है -- राव रतनसी हाथ दिराणा काना में कुडल घलाणा राव पलट नै रवल कैवाणा जणै वाग्ा री लार बिकाणा # बेल के एक और सस्करण में देखिये “नाथ” की क्या महिमा गाई गई है-- नाय विरजण अगम अपाय सिमरो सता सिरजणहारा अपया पणी सही कर जागो जलम मरण श्रव डर क्यू आग ॥५ इन प्रमाणों को यदि स्वीकार करने को स्थिति में हम अपने को पाते हैं तो हमें निश्मपच ही यह स्वीकारना होगा कि रूपादे मल्लीनाथ जिस पथ के अनुयायी हो गये वह पथ नाथ अथवा उसी का कोई तत्कालीन प्रचलित रूप रहा होगा। ऊपर चर्चित नाथों के फ़िरकों में से वे किस से सम्बन्ध रखते होंगे इसलिए प्रमाण के रूप में एक जनश्रुवि को उदाहत किया जा सकता है ) नार्थों को चर्चा के अन्त में जिन सामियों/दशनामियों अथवा गोसाईयों कौ ओर आपका ध्यान हमने आकर्षित किया है उन गासाईयों भें यदि कोई व्यक्ति बीज (द्वितोया) का व्रत रखता है तो बठ के उद्यापन के दिन रात्रि में उप्के यहा रूपदे की बेल अवश्य ही गायी जाती है। पज्नु यहा पर यह बात स्मरणीय है कि खूपादे का प्रभाव गोसाईयों से क्षी मंधवालों में अधिक है कामड भी उसमे जुडे हुए है। वैसे तो कामड रामदेव के भक्त हैं किन्तु छच्ड राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ जिस ब्राह्मण धर्म के विरोध की चर्चा इस खण्ड के प्रारभ में मैंने की है ठसी का परिणाम समझना चाहिये कि रूपादे के साथ रामदेव की तरह समाज के वे सभी लोग जुडते गये जो वर्ण और आश्रमौ के विशेधी थे। यही कारण है कि रूपादे का सम्प्रदाय नाथों के अन्तर्गत ही मानने के लिये हम लगभघग विवश हो जाते हैं। नाथों के इस बहुविघ फैलाव में और उसके अनुयायियों के द्वार किए जाने वाले जागरण में “जोत” की चर्चा आ चुकी है। यह ज्योति उसी शक्ति के प्रतीक के रूप में लगायी जाती है जिसे “हिंगलाज माता के नाम स चारणों की आशध्य देवी भी माना गया है। वैसे राजस्थान में प्रचलित मान्यता के आधार पर हिंगलाज माता चारण जावि की आयध्यदेवी है वे इसे आद्या शक्ति के रूप में मानते और पूजते हैं। हिंगलाज माता का भूल स्थान बलुचिस्तान में है देश के सभी ५१ शक्तिपीठों में यह आद्यस्थान माना जाता है। हिंगलाज की उत्पत्ति की कथा भी मनोरजक है। गवरैय्या शाखा के चारण हरिदास के घर कन्या के रूप में शक्ति ने अववार लिया था। हरिदाप्त जी थट्टा के निवासी थे सम्मवत इसी कारण चाएणों में जितने भी शक्ति के अववार हुए हैं वे हिंगलाज के ही अश माने जावे हैं। हिंगलाज के लोद्रवा और जैसलमेर के मदिर प्रसिद्ध हैं। जैसलमेर की मूर्ति के पाद भाग के नीचे “साता दोष री राम श्रो हॉंगलाज” शब्द अकित हुए दिखायी देते हैं। हिंगलाज के उपासकों में चागला मुसलमान भी सम्मिलित हैं।१६ चारणों का हिंगलाज के साथ कैसे सम्बन्ध स्थापित हुआ होगा इस विषय में अभी तक ऊहापोह नहीं हुआ है फिर कुछ तथ्यों पर विचार किया जा सकता है। गोरखनाथी सम्प्रदाय के चर्पटमाथ के विषय में प्रसिद्ध है कि चारण उन्हें अपनी जाति का व्यक्ति मानते हैं। फिर से नाथों के उदय होने की चर्चा का एक बार स्मरण करें तो सहज हो समझ सकते हैं कि चार वर्ण और चार आश्रमों में चारणों वा कहीं पर भी समावेश नहीं हो सकता था। अब यह अनुमान करना युक्तिसगत ही होगा कि समाज के अन्य वर्गों की तरह चारण वर्ग भी धीरे धीरे नाथ उपासना की ओर बढा होगा और इसोलिये यधपि चारण वैष्णव भी हैं फिर भी उनमें अभी शाकक््त मत को स्वीकार करने वाला भी एक बहुत बडा वर्ग है। अत हिंगलाज की उपासना ठस कौल या पाशुपव सम्मदाय की देन ही मानना होगा जिसमें ९ १२वीं शती तक के राजस्थान के आय सभो शासक और उनके साथ शजाए भी दीक्षित होती गईं।१० राजस्थान की नाथ परपणओं विशेष कर जोगी ओघड और कालबेलियों में जो अपने कान नहीं फाडते हैं हिंगलाज का इष्ट मात्रा जाता है। इसके मूल में एक कथा की ओर सकेत किया जाना चाहिये। हिंगलाज में जब एक बाए दो सिद्ध अपने शिष्य का कान चौरने लगे थे किस्तु क्या ही चमत्कार कि वह छेद बार बार बन्द हो जाता था। तब से ओपड परम्पगवादी रूपादे को अमृतवाणो घ्ष कान नहीं चिएते हैं।*८ यहा को नाथ पस्परा में कान न चीरने वालों को सख्या जो अधिक है वे सभी ट्िगिलाज के उपासक हैं। मल्लीनाथ रूपादे को नाथों की परम्पणा से जोडने वाले सदर्भों में वासग नाग वा महत्व है। रूपादे को बेल के सभी सस्करणों में किसी न किसी रूप में जागरण मे रूपादे के जाने पर वासग नाग रूपादे को शय्या पर आकर सो जावा है। गोकुलदास वाली बेल में दो स्वय धारू मेघवाल बासग नाग को निमल्रेण देने गये थे। नागतत्व महादेव से अनिवार्यत सम्बन्धित है. रूपादे के रक्षक भी किसी न किसी रूप में आदि शिव ही हुए। इसी वासग नाग वी पूजा प्राय प्रत्येक अवसर पर मेघवाल रुमाज में भी वो जाती रै। इस सम्बन्ध में अध्ययन करने से पता चलता है कि भेपवा्लों को भी कमोवेश नाथों से ही जुडी हुई परम्पण है। जोगियों और आधरडों में मृत्यूपपन्त की जाने वाली शखोद्धार की क्रिया मेघवालों के यहा पर भी होती है। उसका संक्षिप्त विवरण यहा देना समीचीन होगा।१९ भेघवालें में मृत्यु के तीन दिन पश्चात् रात्रि में “पाट पूरने का दस्तूए किया जाता है। चावलें के पार पर सफेद और लालरंग के कपडे ओढा कर मेघवालों के पुरोहित “कोटवाल” पाट पर ऊपर वी ओर बैकुठ तथा नीचे हनुमान गजानन घासग नाग रामदेव जी को पादुकाएं उनका घोड़ा डाली बाई और हरजी भाटी बनाते हैं। दीपक को साकिया कहते हैं। कलश के बीच ज्योति को जाती है जो सारी शत जलती रहती है। कच्चे सूत का एक कैंकडा लकडी पर बनाया जाता है पाच व्यक्ति उसे स्पर्श कर लें तब ज्योति भ्रज्वलित की जाती है। पाट के चारों ओर उनके महाराज और दीन व्यक्ति नैठे रहते हैं। धाट पूरने व ज्योति जलाये जाने के नाद मकान के दरवाजे किवाड बद किये जाते हैं और फिर रात भर भजन कीर्तन चलता रहता है। 'शखोदधार या शख दोलने की क्रिया लगभग भोर के समय होती है। एक बेंत के करीब बरू की अर्थी बनाई जाती है, ठसे हिंगलाट कहते हैं जिसे कच्चे सूत से बाघ दिया जाता है चारों किनारें पर भी कच्चा सूत बाधा जाता है और फिर उन्हें एक बडे धागे में बाधते हैं। यह धागा मकान के ऊचे डाडों में बाघ दिया जाता है। इतना हीने पर मिट्टी के कुण्डे को पाट पर रखते हैं और उसमें हिंगलाट को लटका देते हैं। हिंगलाट पर उडद के आटे का पुतला बनाकर सुलाया जाता है जिसे झूला दिया जाता रहवा है। यदि स्त्री को मृत्यु हुई है तो लाल अन्यथा सफेद कपड़े से पुतले को ढका जाता है। ऊपर के धागे में पीपल के नौ पत्ते बाघते हैं जिसे “पेंडी" कहते हैं। कुप्डे के पास्न पानो का लोग और शख रहता है। पुरोहित और सगे सम्बन्धी शख से हिंगलाट पर पानी ढोलते रहते हैं। धागे में बधे पीपल के पत्ते जिन्हें भगवान तक पहुचने की सोढिया माना जाता है सबेरे खोल कर कुडे में रखकर मकान के बाहर गाड दिये जाते हैं। चूरमे का प्रसाद ६६ ग़जस्थान सन्त शिग्रेमणि राणी रूपाद आर मल्लीनाथ किया जाठा है तथा चार व्यक्ति एक हो थाली में भोजन करते हैं कोटवाल भीतर से पूछता है और वे चारों उसके सवालों का जवाब देते हैं जैसे-- तुम कहा गये? बाहर गये। कितने गये ? पाच गये। इस अवसर पर जो मृत्यु गीत गाये जाते हैं उनमें तोलादे और रूपादेर की रचनाएं प्रमुख हैं। वास्तव में शखोद्धार की क्रिया का सम्बन्ध सीधा नाथों से है। कैवल्यावस्था में चिर समाधि लेने वाले योगियों की कपाल मोक्ष की क्रिया के प्रतीक रूप में सम्भवत इस पद्धति का विकास हुआ हो। राजस्थान के नाथ समाज में शख ढाल या शखोद्धार सर्वत्र प्रचलित है। मंसानिया जोगियों में बारहवें दिन यह क्रिया होती है। नाथथों में किसी की मृत्यु होने पर जब शखोद्धार की क्रिया होती है उस्ती समय किसी को चेला बनाया जाता है। मेघवालों के शखोद्धार के सम्बन्ध में रामदेव जी की पादुकाओं के पूजन को लेकर भी कुछ मुद्दों को यहा उठाना श्रेयस्कर रहेगा। नाथसिद्धों को भी पादुकाओं की ही पूजा की जाती है। जोधपुर के पूर्व शासक महाराजा मानसिंह ने अपने गुरु आयस देवनाथ की पादुकाओं को अपने महल में स्थापित कर पूजा अर्चना का जो क्रम चालू किया था वह अब तक चल रहां है। दूसरे रामदेव जी अपने परचों या चमत्कारों के कारण ही अधिक अ्सिद्ध है। उनके महाराणा कुम्मा महाराजा विजयसिंह हरजी भाठी और रूपादे मल्लीनाथ को दिखाये चमत्कार प्रसिद्ध हैं। बाबा रामदेव और मल्लीनाथ के परस्पर सपर्क और निष्ठा की चर्चा हमने पहले की है। रूपादे की थाली में बाग लगाने वा चमत्कार उन्हीं की कृपा का परिणाम है। बाबा रामदेव पर लिखने वाले प्रसिद्ध विद्वान इस दिशा में नाथ परम्पसा के सदर्भ में यदि विचार करते वो कुछ और तथ्य सामने आ सकते थे। अस्तु। अब तक राजस्थान के नाथ और उनसे जुडे समाज के विभिन्न बर्गों का जो विवरण प्रस्तुत किया गया है निश्चय ही उस आधार पर कुछ अनुमान रूपादे मल्लीनाथ के सदर्भ में ही अस्तुत किए जा सकते हैं। ब्राह्मण धर्म और स्मृति व्यवस्था का समाज के बहुसख्यक वर्ग के द्वारा सतत विरोध होते रहने के कारण वह श्लीण हो गई और तद् विरोधी व्यक्ति संगठित होते गये जो गोरक्षनाय के झण्डे के नीचे आते गये। दूसरे शब्दों में नाथों का प्रभाव बढता गया शासक और शासित उससे जुड़ते गये। इसी आलोक में पिछले पृष्ठों में की गई चर्चा रूपादे मल्लीनाथ को क्सि प्रकार नाथानवयी सिद्ध करती है उसके कुछ आपार स्पष्ट दिखायी देते हैं। ना्थों में अनिवार्यत कात्र चीर कर मुद्रा धारण करने ठथा सेली सिंगो धारण करने का पालन मल्लीनाथ ने भी किया है। यही नहीं मल्लीनाथ को उगमसिंह भाटी के पथ छूपादे की अमृतवाणी 8७ में सीक्षित कले की जो विधि है वह भी पूर्ण नाथों के द्वार मान्य ओर उनके यहा की परपरा से सुरक्षित पद्धति है। नाथें के बहुविध आयामों यथा जोगी क्ालबलिया औषड सामी इत्यादि के आचरण और व्यवहार भी नाथानुकृल ही हैं। इनमें जिस हिंगलाज माता वी उपासना होती है वह भी शक्ति का आद्य अववरित स्वरूप है और जिन जिन नाथ मतों के विभिन्न घटवों में इसे स्वीकार किया जाता है उनमें रूपादे का भी महत्वपूर्ण स्थान है। जैसे पहले सकेव किया है कि दशनामी सम्प्रदाण की गांसाई जानि में द्वितीया के ब्रत के उद्यापन पर रूपादे की बेल भष्यी जाती है। इसी प्रकार भेघवालों के “शख ढाल सस्काए में भी रूपादे की रचनाएं गायी जाती हैं। सीसेरे रूपादे के गुरु उगमसी भाटी भी योगियों के चमत्कार से अछूने नही रहे हैं। बाल्यावस्था में रूपादे को जब वे आशोर्वाद देते हैं तो उसके पानी के घडे में पानी यथावत् बना रहता है [२५ इसी प्रकार मालोजी की फौज जब “दूधवा” आती है तो रूपादे भी अपनी चमत्कार शक्ति से सारी फौज के खाने पीने को व्यवस्था कर देती है। पहली बार तोलादे के साथ जब रूपादे मल्लीनाथ का मिलना होता है दोलारे खारे पानी के कुए को मीठा बनप्ठी ऐ नो रूपादे अपनो शक्ति से वर्षा कर वहा वो जमान को ही मौठा बनाती है। चौथे रूपाद मललीनाथ तोलादे ये दोनों ही व्यक्तित्व बाबा रामदेव में जुड़े हुए हैं। भ्रसिद्ध है बाबा रामदेव भी यौगिक चमत्कारी शक्तियों दे लिय ही अधिक जाने माने गये हैं और नाथों को तरह उनको भी पादुकाओं का पूजन किया जाता है मूर्ति का नहीं) रूपादे मल्लीनाथ रामदेव और तोलादे इन चाण को जोधपुर के महाराजा विजर्यासह के आश्नित मुशी माषवरशम ने शक्ति भक्ति भकाश के प्रारध में री स्मएण किया है।रेरे अर्थात् निश्चम ही इन चारों को दृष्टि एक हो रही है किन्तु इन्हें केवल शाक्त मानना बडी भूल होगी क्योंकि शक्ति शिव से जुडी हुई है और यही कारण है कि सुदीर्घ शाक्त परम्पण भी पाशुपर्तोीं लकुलोशों के साथ नाथो से जुड गयी और इस परम्परा में सम्भवत मूलत शाक््त्र होने के कारण योग की अपेक्षा कालान्तर में भक्ति का उदय हुआ। बाबा रामदेव और मल्लीनाथ दोनों के लिये यह बात प्रसिद्ध है कि वे पार हो गये। हिन्दू तथा मुसलमान दोनों हो उनके भक्त हो गये। इस सिलसिले में मुझे इतना हो कहना है कि इसका आधारभूत कारण नाथों को जीवन पद्धति न हिन्दू न मुसलमान ही है। नाथों के जफर यागी या रावल पीर्ें कौ शाखा की काफी चर्चा चंडिद द्विवेदों और डानागेद्धनाथ उपाध्याय ने को है। आलाच्य काल में केवल नाथ ही ऐसी साधना पद्धति थी जिसमें समाज के किसी भी वर्ग का कोई भी व्यक्ति जा हट राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ सकता था। नाथ सिद्धातों में नकारे गये री के पथ्र प्रवेश को लोगों ने नहीं माना यह बात राजस्थान के नाथ समाज के अध्ययन से प्रकट होती है। यहा स्त्री भी हिंगलाज या जोगमाया के दर्शन कर विरक्त होती थी और पुरुष वेष धारण कर “नाथपद” के लिए अपने जीवन को समर्पित कर सकती थी। बहुत सम्भव है इस दिशा में प्रथम “पदन्यास॒रूपादे का रहा हो। मेरी राय में रूपादे का प्म में प्रवेश और मल्लीनाथ का पीर रूप में पूजा जाना दोनों ही बातें उनके नाथानुकायों होने का अनुमान करने में सहायक सिद्ध होंगी। मल्लीनाय के नाथ परम्पता से सबद्ध होने के विषय में उनके जन्म के पूर्व सलखा जी वो योगी का आशीर्वाद और मल्लीनाथ को भगवे कपडे पहनाने की मुहता नैणसी की मात आपको याद होगी। मल्लीनाथ के वशजों में अभी तक इस मूल परम्परा वा अनिवार्यत पालन किया जाता है। गवल की मृत्यु पर उनके ढोली को बारह दिन तक भगवे वस्त्र पहनने पडते हैं. रावल वश के प्रतिनिधि ठाकुर भाहरसिंह जी ने इस प्रकार की एक बाव अपने साक्षात्कार में कहो है। नाथों में भगवे वल्न पहनना कितना प्रचलित रहा है यह कहने की भी आवश्यकता नहीं है। यदि मल्लीग्ाथ ग्राथातुग” नहीं होते तो इस प्रकार की परम्पपा का पालन ही क्यों किया जाता? “*रूपादे” का जो भेषवालों कालबेलियों और कामडों में जो पूज्य भाव है उसके कारण की भी कुछ इसी प्रकार से मौमासा की जा सकती है। नाथों में नागनाथी सम्प्रदाय का प्रभाव जिन जिन जातियों पर पडा वे भी नाथों से जुड़ गईं और उनमें नाग पूजा का महत्व बढा। मेघवालों की नाग पूजा पर यदि इस दृष्टि से विचार करें तो सहज ही उनके शाक्त शिव होने का आधार प्राप्त हो जाता है। पीतल के सापों को शुजा और मस्तक पर बाथने वाले कालनेलिये भी नाथातुयायी हो तो हें। इस सबंध में कर्नल वाल्टेमर का एक उद्धरण यहा अस्तुत किया जाना चाहिये-- बुफ्ल तन ण॒ शाला रत प6 फ्डण०७ 'ैंगॉफिग ग0ठाव ज्रत्का बाआ! 5 ग्रशशट0, 7३5 4 (5054 €ट्त 5्राएप्शी 078 85 ९5स१ञ८5 आछ ब0फ़टत 4० क्राक्ाऋ 700 # 279 रण पट्श 5 ०३७९ प्रॉट0आए8 जात 8 90097, ॥6 ७5 [एधटए 0070 ए मिट टाक्ग्ञॉर 989 ॥0 0769 (0 दादा ॥ अपने शिष्यों को ख्री से दूर रखने वाले गरौबनाथ की यदि मल्लीनाथ के गुरु के रूप में असिद्धि हो सकती है तो फ़िर मल्लीनाथ के नाथ होने में सशय ही क्या रह जाता है। जोघपुर के महामदिर के भित्ति चित्रों में नाथानुयायी मल््लीनाथ का चित्र भी उनकी परम्पण का प्रमाण है। नाथों के नियमों की कठोरता और घोर तपस्था और योग के रास्ते पर चलना कितना कठिन रहा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है। सम्भवव इसी कारण मूल नियमों से विध्युत होते गये लोगों की अलग अलग जीवन पद्धतिया होती गईं। खास रूपादे की अमृतवाणी द्द्रु कर मारवाड में अधिकाश नाथानुयायी गृहस्थ धर्म का पालन करते रहे। उनमें निशाकार शब्द रूप शिवल प्राप्त करने को सामर्थ्य नहीं थी दूसरी ओर वर्ण व्यवस्था उन्हें स्वीकार नहों सकती थी। इसलिये नाथों। को उत्रछाया में उनकी अपनी अलग सस्कृति का निर्माण होता गया। परन्तु विघटन के इस दौर का भारष होते होते नाथों के ज्ञानाश्रयत्ल और कठिन योग मार्ग से जुड़े रहते हुए उनमें निर्मुध भक्ति को मन्दाकिनी का उदय उगमसी रूपादे और भल्लोनाथ के प्रयासों से किस प्रकार हुआ इसको चर्चा से पूर्व नाथा * कौ जीवन पद्धति और उसके सामान्य जन सवेध न होने से हुए परिणामों पर विचार करना होगा क्योंकि उसी ने रूपादे मल्लीनाथ कौ निराकार भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है। ४ नाथ पद्धति- नाथ साहित्य में नाथ शब्द को लेकर काफी ऊहापोह किया गया है। “ना का अर्थ है. अनादि तत्व और “थ का अर्थ है भुवनत्रय का स्थापित होना। इसलिए नाथ शब्द का अर्थ भी स्पष्ट है वह अनादि तत्व जो त्रिघुवनों कौ स्थापना का मूल कारण है। कोई नाथ को मोक्ष ज्ञान में दक्ष ब्रह्म मानकर “थ” का अर्थ अज्ञान नाशक बताते हैं। गोरक्षनाथ ने सृष्टि स्थिति और लय को प्रक्रिया के उद्बोधन में कहा है कि शक्ति सर्जन करती है शिव उसक पालक हैं काल उसका सहास्क है और नाथ मोक्ष देने वाला है।रेए नाथ के तीन रूप माने जाते हैं निशकार ज्योतिरूप आदिगुरु के रूप में साकार रूप और प्राप्य देवता के रूप में अद्वैत परिवर्ती नाथ। निराकार ध्येय नाथ और साकार उपास्य नाथ हैं। सक्षेप में यह कहा जा सकता है कि नाथ परमतत्व या परात्पर है। योग साथना कए नाथ तत्व प्राप्त करने के लिये प्रथलशोल व्यक्ति भी नाथ ही कहलाता है और इसीलिये नाथ शब्द का प्रवर्तन सम्प्रदाय के रूप में भी हुआ। गोरक्षनाथ के अनुयायी होने से इन्हें गोरक्षनाथों भी कहते हैं। कान चोरा हुआ होने से “कनफडा का प्रयोग भी बहुतायत से देखा गया है। इसके अलावा एक शब्द और है. दर्शनी । दर्शन का अर्थ है. कुण्डल और जो दर्शन धारण करता है वह दर्शनी है।रे५ जैसे पहले विचार किया गया है ब्राह्मण धर्म और वेद विरोधी व्यक्तियों ने इस पथ में धीरे धीरे प्रवेश लेकर स्वय को सगठित किया उनका आश्रम और वर्ण व्यवस्था के ग्रति कोई रुझान नहीं था और न ही उन्हें आश्रम वर्ण में स्वीकागा गया इसलिए उन्हें अतिवर्णाश्रमी या अत्याश्रमी की सन्ञा शास्त्रीय यन्धों में दी हुई है। इसी को नाथों की परिभाषा में पक्षपातराहित्य या निरभिमानित्व कहते हैं ।२६ उनकी धारणा है कि समाज के सभी लोग समान हैं और उन्हें किसी भो आधार पर पक्षपात जाति वर्ण आश्रम का नहीं रखना चाहिये। इसी कारण नाथों में मुसलमानों का प्रवेश होता गया सही अर्थों में उन्होंने राष्ट्रीय समाज कौ कल्पना को साकार करने का प्रथल _ ७० राजस्थान सन्त शिरेमणि राणों रूपादे और मल्लीनाथ किया। नाथ साधना प्रधानत ज्ञानाश्रयां शाखा है और यांग साधना के द्वार परतल नाथ या अनुभव करमा उसवा साशात्कार करना यही उनका मोक्ष है। यागमाग में प्रवृत करने से पूर्व अथवा होने से पूर्व साथक का कौल साथना करनी पड़तो है बुल स अबुल शक्ति से शिवल प्राप्त कनगा। एक सफल कौल ही योगी बनता है। चूकि योग साधना के द्वारा हो “परात्पर' का साथात्वार करना है अत शरीरसिद्धि अथवा कामासिद्धि का नाथों में बडा ही महत्व है और कायासिद्धि के लिए आवश्यक है पडगयोग कौं साधना आसन प्राणायाम प्रत्याहार घारणा ध्यान और समाधि। पस्न्ु यह कायसिद्धि नाथों का गौण लश्ष्य है।रे० कायप्निद्धि के मूल में नाथों की पिष्ड और ब्रह्माड के एकत्व की मान्यता है।रेट यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्ड अर्थात् जैसा पिण्ड शेर में है वैश्ञा ही सब कुछ-दल लोक गगनशियर ब्रह्माण्ड में भो है। इस योग सापना को हठयोग कहते हैं। पायु और उपस्थ के बीच कुण्डलिती को जागृत कर पटचक्रभेदन कर साथक प्रथम सहस्नार चक्र तक पहुचता है। द्वितीय सहसार चक्र तक गोरक्षनाथ जैसा कोई विरला ही पहुच पाता है। इस समाधि राजयोग उन्मनी अमरत्व या शूत्य कहा जाता है।रे* यह साधना इतनी कठिन है इसीलिये सम्भवत इस मार्ग में गुरु की सहायता के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है और जो आश्रम या वर्ण में विर्वास करता है ऐसे व्यक्ति को गुरु भी नहीं बनाया जा सकता इसके लिये गुरु का अत्याश्रमां" होना आवश्यक है। गुरु ही अवधूत है और इसका परमपुरुषार्थ हो मुक्ति है। अवधूत वह है जो परात्पर सगुण निर्णुण से विलश्षण वत्व का साक्षात्कार कर लेता है।** इसे हो समतत्व या द्वेताद्वैत (विलक्षणतत्व माना जाता है। भाथ इसीलिये जोर देकर द्वैताद्रैत विलक्षण समतत्त्वाद का अमर्थन कग्ते हैं। यही कारण है कि जो इस चेत्व को नहीं जानते उन्हें भारवाही गधा कहा गया है। ऐसा गुरु मिलने पर ही व्यक्ति सुगुरा हो जाता है गुरु न मिले तो अन्त तक वह निगुरा ही बना रहता है। आश्रम वर्ण व्यवस्था क॑ विद्येथी होने से स्मार्द पद्धत या तदनुसार आचार विचार के लिये नाथ परम्पाा में कोई स्थान नहीं है. इसलिए वह स्पार्त विशेधी है। ड्रैत और अद्दैत मतों का ये मर्वथा दोषमुक्त नहीं मानते हैं कर्म त्याग और गार्हस्थ्य त्याग आवश्यक समझते हैं शिव और शक्ति में कोई भेद नहीं मानते और इनकी दृढ़ धारणा है मुक्ति मिल सकती है तो नाथ ही उसे दे सकते हैं गुरु या अवधूत उसका सहायक या मार्गदर्शक मात्र हो सकता है। प द्विवेदी के शब्दों मैं-- नाथ हा एकमात्र शुद्ध आत्मा है बाको सब बद्धजाव हैं शिव भी विष्णु भी ब्रह्मा भी । न वो ये लोग द्वैतवादियों के क्रियाब्रह्म में विश्वास करते हैं और न अद्वैतवादियों के निष्क्रिय प्रह्म में। ट्वैतवादियों के स्थान हैं कैलास वैकुण्ठ आदि। अट्वैवादियों वा रूपादे की अमृतवाणो ७१ माया सबल ब्रह्मस्थान है योगियों का विर्गुण स्थान है परन्तु बध मुक्तिरहित परमसिद्धान्तवादी अवधूव लोग सगण और निर्गुण से परे उभयातीत स्थान को ही मानते हैं क्योंकि नाथ निर्ुण और सगुण दोनों से अतीत परशात्पर है।६ सासारिक मायाजाल में फसे शिष्य को इस मार्ग में दीक्षित कर पणात्पर प्राप्ति के लिये प्रेरित करने वाला गुरु अवधू या अवधूत कहलाता है। सर्वसामान्यत ससार के सर्ष से अतीत मानापमान रहित योगी को अवधू या अवधूत कहते हैं। तन््र भनन््था में चार प्रकर के अवधूतों की चर्चा की गयी है ब्रह्मावधूत शैवाधूत्त भक्तावघूत और हृसावधूत। हसावधूतों में जो पूर्ण होते हैं वे पर्महस कहलाते हैं और जो अपूर्ण होते हैं उन्हें परिब्राजक कहा जाता है।रेर योगी के लिये चिहमुद्रा नाद विभूति और आदेश परमावश्यक माने गये हैं। मुद्रा मुद् का अर्थ आनन्द और राति ददाति जो देता है परमानन्द दायक है इसलिये उसे जौवात्मा परमात्मा की एकता का परिचायक स्वीकार किया गया है। नाद शृगी (पिंगी) है। आत्मा जीवात्मा और परमात्मा को सभूति (सम्मिलन) को आदेश कहा जाता है। इस प्रकार यद्यपि योगी के लिये इनका घारण आध्यात्मिक प्रतिरूप के रूप में आवश्यक है तथापि अवधूत इससे मुक्त है क्योंकि वह कभी त्यागी बन सकता है तो कभी भोगी क्रभी आचार का पालन कर भी लेगा तो कभी सर्वसग परित्याग की अवस्था में रहेगा। उसके इस रूप का वर्णन वैरग्यशत्क में बहुत सुन्दर ढग से किया गया है-- क्वचिद् ध्रूमौं शय्या क्वचिदपि च पर्यकशयन । क्वचिद् कथाधारी क््वचिदपि च माल्याकरधर ॥ क्कचिच्छाकाह्मरी क््वचिदषि च दिव्यौदनरुचि / मुन्रि शान्तारम्भो गणयति न दुख न व सुखम्#रे अवधूद या गुरु अपने शिष्य को इसी वर्तमान शरीर में परत्पर नाथ के दर्शन में सहायता करता है इसलिये पूर्व में सकेतित की गयी कायसिद्धि का महत्व है। इस सिलसिले में नाथों का एक सिद्धान्न है जिसे पिण्डब्रह्माण्डवाद कहा जाता है। परन्तु इसमें हमें स्मएण रखना चाहिये कि पिण्ड बह्याण्ड की समठा की अनुभूि में केवल काया ही साधन नहीं मानसिक साधन भी उससे जुड़े हुए हैं। अदृष्ट परमतत्व का दर्शन और उस्ती में चित का आधारण नाथयोग का लक्ष्य है। योग से ही शरीर को शुद्ध रखना शरीर की रक्षा कल्य और उसी से पस्म पद का गगनशिखर में साक्षात्कार कश्ना थोगी का लक्ष्य होता है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड की समता का अनुभव योगी ही कर मक््ता है सामान्य जन एक ही तत्व की समान रूप में अभिव्यक्ति का नहीं जान पाता। इस साधना वा भ्रारण पिण्ड से हो होता है जिसे हठयोग कहा गया है।रेई समस्त विश्व में व्याप्त महकुण्डलिनी नामक शक्ति का प्रत्येक व्यक्ति में जो सुप्त स्वरूप है उसे कुण्डलिनी कह गया है। अत्येक जोव प्राण और कुण्डलिनी के साथ मातृ गर्भ छर राजस्थान सन्त शियेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ में प्रवेश करठा है तथा जाप्रव स्व और सुषुप्ति तीनों हो अवस्था में यह शक्ति सुप्तावस्था में ही रहती है। मेरुदण्ड का अध भाग जो पायु और उपस्थ के बीच में लगता है वहा त्रिकोण में अवस्थित स्वयभू लिंग है जिसे साढे तीन वृत्तों में लपेट कर कुण्डलिनी अवस्थित रहती है। उसके ऊपर चाए दलों का कमल है जिसे मूलाघार चक्र कहा जाता है। नाभि के ऊपर छह दलों का स्वाधिष्ठान चक्र होता है उसके ऊपर मणिपूर चक्र तथा हृदय के ऊपर अनाहत चक्र होता है। हदय के ऊपर कण्ठ के पास विशुद्ध चक्र के सोलह दल होते हैं भ्रुमध्य स्थित आज्ञा चक्र में केवल दो ही दल होते हैं। इन ६ चक्रों का भदन करने के पश्चात् मस्तक मे अवस्थित शूत्य चक्र में जीवात्मा को पहुचाना ही योगी का परमलक्ष्य होवा है। इस चक्र को सहस्नार दल चक्र कहते हैं। शूत्य चक्र ही गगन मडल है। शरीर में मेरुदण्ड के बायें और दाहिने ओर इडा और पिंयला नाडियों के ढीच में सुपुम्ना नाम की नाडी है। इस सुषुम्ता से होकर ही कुण्डलिनी ऊर्ध्व की ओर स्फुरित होती है। कुण्डलिनी साधारण मनुष्यों में अघोमुखी रहती है इसलिए वह काम क्रोषादि के व्यामोह में पडा रहता है। उसका उद्दुद्ध होकर ऊर्ष्व स्फुरण में जो स्फोट होता है उसे नाद कहते हैं। माद से प्रकाश और ग्रकाश का ही अधभिव्यक्त रूप महाबिन्दु है जो इच्छा ज्ञान और क्रिया रूप में प्रकाशित होता है। कुण्डलिनी उद्बोधन के लिये आवश्यक यौगिक क्रियाओं में सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात् साथक शरीर में तरह तरह की प्वनि सुनता है। पस्तु जैसे जैसे उसका मन स्थिर होता है और विशुद्ध होता जाता है उसे ये आवाजें सुनाई नहीं देती वह सुनवा है उपाधि रहित स्फोट या शब्दतत्व। इस अवस्था में ब्रह्म ही ब्रह्म का श्रकाशक होता है। यह शब्द मूलाघार से उठकर शून्य चक्र में लीन होता है. यही सहज समाधि है। इस प्रक्रिया में हठयोग से मनुष्य शरीर के शुद्धीकरण का कार्य सम्पन होता है साथ में आवश्यक होती है मानसिक एकाग्रता और विशुद्धता और इसौलिये नाथथों में नैतिक आचरण पर विशेष बल दिया गया है।रै" व्यक्ति को इस मार्म में अनुयायी बने के लिये कडी से कडी परीक्षाओं का सामना करना पडता है। नाथ गुरु में ३६ व शिष्य में बतीस गुण बताये गये हैं। इन बत्तीस गुणों में से ४ ४ गुणों कौ आठ प्रकार से परीक्षाएं ली जाती हैं। उनका विवरण इस प्रकार है- ३१ ज्ञान पर्क्षा निषलम्ब निर्मम निवाप्ती तिशब्द विवेक परीक्षा निर्मोह निर्बन्ध निशक निर्विषय परीक्षावमेक सर्वांगी सावधान सत्, सारप्राही निग्नलम्द परोशा निष्मपव निस्तरग निईन्द्र सन्तोष परीक्षा अयाधिक अवाछुक अमान अस्थिर सी मई बल रूपादे की अमृतवाणी छ३ ६. शौल परीक्षा शुचि सयमी शात ओ्रोता ७ सहज परीक्षा सहज शीतल सुखद स्वभाव ८. शृन्य पौधा लय लक्ष्य ध्यान समाधि यदि गुणों की परीक्षाएं और उनके स्वरूप पर विचार करें वो स्वय पर नियत्रण कर ससार से मुह मोडकर ही कोई व्यक्ति इस मार्म पर चल सकता है। शिष्य को स्वय पर ही अवलम्बित रहना चाहिये और उसके लिये यह भी आवश्यक है कि ममता और मोह को पास भी न फटकने दें वह निष्पप्रव रहे निईन्द्र रहे किसी से कुछ भी पाने की आशा न रखें और इन सब में पहले चाहिये शुचिता मानसिक और शारीरिक भी | कुण्डलिनी की चर्चा में यह बात कह आये हैं कि सामान्य व्यक्तियों की कुण्डलिनी अधोमुख रहती है और इसी कारण से वह काम-क्रोधादि के पाश में जकडा हुआ होता है। उसे ठद्दुद्ध कर ऊर्ध्वमुख की ओर स्फुरित करना योगी का पहला लक्ष्य होता हैं और इसीलिये व्यक्ति के लिये निईनद्र निर्विषष और निरासक्त रहना पहली शर्व है! यह काम “गिगुरा नहीं कर सकता वहीं कर सकता है जो “सगुग़ होता है अर्थात् जिसे योग्य गुरु का निर्देशन मिलवा है। इसलिए मार्ग में दीक्षा या गुरु की कृपा प्रथम सीपान है उसके बिना आगे किंचित् भी गति नहीं हो सकती है। सदगुरु अवधूत का ज्ञान पूर्ण और सत्यरूप होता है। शिष्य का बलशाली और तोब्र गतिमान मन गुरु के बाण से ही आहत होकर स्थिर होता है गुरु ही उसका ज्ञानस्रोत है ज्ञानदाता है उसके बिना शिष्य को विशुद्ध ज्ञान की श्राप्ति होना असम्भव है। शिष्य के लक्ष्य और गुरु की भूमिका के विषय में डा उपाध्याय ने लिखा है - योग साथना में निष्णात होने पर जब सर्वतोभावेन सम्यक् योग सिद्ध हो जाता है गुरु अपनी कृपा से निर्वाण समाधि वी रक्षा करता है। यह समाधि स्वानुभूतिगम्य सत्य है। गुरु इस सत्य का पूर्ण साक्षात्कार करता है और दूसरों की इस प्रकार की अनुभूति की भी उसी को प्रतीति होती है। त्रिगुणात्मिका माया को जो विभिन्न भ्रकार के रूपों को धारण कर जीवों के चित्त को विमूढ कर देती है केवल गुरु ही दिखाने में उसके रहस्य को समझाने में सत्य और भाया का विवेक कराने में समर्थ हो सकता है। स्वानुभूतिगम्य सत्य के वाचक शब्द का केवल गुरु ही प्रत्यक्ष करा सकते हैं। यह गुरुतत्व ही नाथ तत्व है जो मायाविमूढ सुपुप्त् जगत के लिये नित्य जाम्रत रहता है क्योंकि बिना उनकी कृपा के बिना ब्रह्म साक्षात्कार या परमपद की प्राप्ति असम्भव है। २० गोरक्षनाथ ने मनुष्य मन की चार अवस्थाए बतायी हैं. गुरु उदासीनता आशा और कामिनी। उनका कहना है कि जो व्यक्ति अपना उद्धार करना चाहता है वह ससार से उदासीन होकर गुरु की शरण में आ जाए अन्यथा आशा और कामिनी के आश्रित होकर अपना विनाश कर लें। यही कारण है कि नाथानुयायी प्राय कामिनी का विरोध करते दिखाई देते हैं। व नारी की नरक नागिन साप आदि कहकर उसकी भिन्दा करते ७४ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ है और उसका सर्वथा निषेध करते हैं। गोरक्षगाथ ने भी नारी के कामिनोरूप का सर्वथा त्याग करने की बात बार बार कही है। कथचित् भी चित्त का रुझान कामिनी की ओर नहीं होना चाहिये. स्त्री सगी व्यक्ति की स्थिति पौर्णिमा के चंद्र की तरह श्षीयमाण रहती है इस अवस्था में कदापि योग सिद्धि सम्भव नहीं है। नारी योग के अनुकूल न होने से ही उसे गुणहीन माना गया है। मारी को नागिन कहा गया है। वह बाधिन है जो दिन में सोती है और रात में पुरुष का भक्षण करती है।नारी अनेक रूप धारण कर ससार मात्र को अपने वश में कर लेती है। मैथुन से शरीर को जोर्ण कर नदी किनारे खड़े पेड की तरह बना देती है जो स्वय कसी भी क्षण गिर सकता है।र८ गोरक्ष वी तरह अन्य नाथों ने भी नारी के कामिनी रूप वी तीव्र भर्त्सना की है। वह जीवन और बिन्दु का शोषण करने वाली और जीवन मार्ग में अचानक आक्रमण कर व्यक्ति के स्व घन को बरबस लूट लेने वाली है। नारी को अग्निकुष्ड और पुरुष को घृत कुण्ड कहा गया है। परन्तु गोरक्ष में सम्पूर्ण नारी जाति के लिये उपेक्षा या तिरस्कार का भाव नहीं है। वे उसके कल्याणमय मातृस्वरूप या शक्तिरूपत्व के प्रशसक हैं। उनके हृदय में जननी"के प्रति अपार श्रदा और भक्ति है। वे मनुष्य धिक््कार के योग्य हैं जिन्होंने मातृ रूपा शक्ति को मात्र भोग का विषय बनाया है. जिसने जन्म दिया है वह आदरणीया है। गोरक्ष द्वारा कामिनी रूप में ख्री की निन्दा और मातृरूप में पूजा के विषय में एक कहानी प्रसिद्ध है। नव ना्थों की परीक्षा लेते समय पार्वती ने गोरख को अपना कामिनी रूप ही दिखाया था परन्तु उन्होंने उसे माता के रूप में स्वीकार कर अपनी दृढ़ता का भ्रदर्श किया था इस दृष्टि से योगियों के द्वाण प्रयुक्त किया जाने वाला माई शब्द ध्यान देते योग्य है।रैप इस प्रकार जब साथक स््री के कामिनी रूप से सर्वथा विमुख होकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्वय में उन गुणों का विकास करने के लिए गुरु कृपा प्राप्त कर सुगरा हो जाता है तब उसकी साधना का क्रम प्रारभ होता है। ससार से निर्मोती निष्मपथ और निश्शक होने से ससार के आडम्बर या बाह्माचार उसके लिये कुछ भी महत्व नहीं रखते । इसीलिये नाथयोगियों ने बाह्याचार का भी डटकर विशेष कया है। ५. नाथ और सन्त मान्यताए-- निश्चय हा नार्थों के प्रस्ण में भक्ति की चर्चा आपको सर्वथा अप्रासगिक और अनुपयांगी लगेगी फिर भी विशेषकर रूपादे की रचनाओं के अध्ययन के लिये वह मर्वथा अनुपयुक्त और उपक्षणोय प्रतीत नहीं टोगी। पिछल पृष्ठों में नाथों का सामान्य परिचय और उतकी साधना के बार में जिन तथ्यों की चर्चा वी गयी है उससे यह स्पष्ट है कि एक नाथयोगा या साथक अपने शरीर में अवस्थित शक्ति को जायृत कर गगनशिखर रूपादे की अमृतवाणी ७५ या शून्यचक्र तक पहुचकर परब्रह्म नादरूप शिव का सत्य का साक्षात्कार कर्ता है। शरीर शुद्धि और मानसिक शुद्धि के अनेक त्रकार के कठोर नियमों का पालन करते हुए व विभिन्न परीक्षाओं में उत्तीण होकर उस गुरुकृपा प्राप्त करनी हाती है और गुरू कृपा पिलना/होना कोई सामान्य बात दा नहीं है। अर्थात् वह साधक आधिभौतिक साधनों के सहारे से योगयुक्त ज्ञान के बल पर आध्यात्मिक उनति के मार्ग पर अप्रसर होता है। यद्यपि इस सारी प्रक्रिया का आधार शरैर और तनिहित चक्रों नाडियों का ज्ञान और सतत साधना है फिर भी मन कौ शुचिता उससे जुडी हुई है। इन्द्रियों का या मनोवृत्तियों का बाहरी विषयों या पदार्थों से परावर्तन होना आवश्यक है क्योंकि साथक जब तक बाद्यनिवृत्त होकर एकाग्र में मन का आधान नहीं करता है तब तक उसको साधना का आरभ हो नहीं होता और साधना का प्रारभ कराने के लिये गुरु हो समर्थ है वह हो उसे सत्य की प्रतीति कराता है। इसलिये जैसा नाथ साहित्य के विवेचकों ने विवेचन किया है कि यदि नाथ साथक में भक्ति तत्व पर विचार करें दो यह बात निश्चित रूप से प्रमाणित होती है कि साधक की भक्ति या निष्ठा केवल गुरु तक ही सीमित होती है। नाथ कृपा से गुरु को प्राप्ति होती है और गुरु कृपा से नाथ पद की श्राप्ति होती है इसलिये गुरु और नाथ साधक के लिये अन्योन्य सबद्ध हैं। यह बात सत्य है कि एक भक्त की या सन्त की स्थिति नाथ साधक से सर्वथा भिन होती है क्योंकि भक्ति का सीधा सम्बन्ध हदय से है न कि ज्ञान से। भक्त ससार से विरक्त होकर भगवान् को समर्थित हो जाता है फिर उसका स्वय का कुछ भी शेष नही रहता है. उसका धन होता है भगवन्नाम सकीर्तन या नाम स्मरण अथवा श्वास नि श्वास के साथ चलने वाला हरिनाम का जाप। इस सस्मरण या सस्मृति को ही कभी कभी नाथ साहित्य में सुरति” कहा गया है। सुरति से जुडा हुआ शब्द है निरति ) नाथ विवेचना के मूर्धन्य विद्वान प हजारी अस्राद द्विवेदी ने सुरति निरति की एक अलग ही प्रकार से व्याख्या की है। मनुष्य की बाह्य प्रवृत्तियों से निवृत्ति निरति है और उसवी अल्तर्मुखी चृत्ति सुरति है। अस्तु सुरति को प्राय स्मृति से उत्पन माना गया है। किन्तु नाथ साहित्य में उसे श्रुति और स्मृति दोनों हो रूपों में प्रयुक्त किया गया है. श्रुति में वेद नही केवल प्रातिम ज्ञान मात्र का महण किया जाता है। स्मृति से उत्पन सुरतति का सीधा अर्थ स्मरण ही है।डा उपाध्याय ने लिखा है कि -गारखमच्छिद्ध बोध में सुरति निरति को ही साधनात्मक जीवन का सब कुछ माना गया है। वस्तुत सुरति को भावात्मक और निरति को अभावात्मक कहा जा सकता है। आचार्य श्वितिमाहन सेन का कहना है कि निरति सुरति में लौन हो अर्थात् बाह्य प्रवृत्तिया अन्द्रवृत्तियों में लीन हों तो वही जीव और ब्रह्म का अभेद है। डा बडध्वाल ने सुरति को -(१) स्पृति (२) सुरत और (३)सु रत तीन अर्थों में प्रयुक्त माना है। इसी सुरति या स्मरण की चरमसीमा अजपाजाप है। निरति को वे निरतिशय रवि मानत हैं। अर्थात् एक मत के अनुसार निरति वैराग्य है और पूर्ण विकसित ब्रह्मानन्द ७८ राजस्थान सन्त शिरोमणि यणी रूपादे और मल्लीनाव के गुणों की परीक्षा कर उसे प्रेरित कर सत्य का साक्षात्कार कयने वाले गुरुओं के अभाव को महसूस किया जाने लगा सच्चे गुरु की खोज या आप्ति के लिये जब नाथकृपा आवश्यक हुई तो इसका सीधा अर्थ होता है. सच्चे योगी गुरु का मिलता भी दुष्माष्य होने लगा। यों नाथों के अनुयायी बहुत होते गये बहुत दीक्षित होते रहे पर मैंने जिसके लिये नैष्ठिक शब्द का प्रयोग किया है ऐसे अनुयायी कितने हो पाये और उममें से कितने गुरु होकर पथ प्रदर्शन करने को योग्यता रखते रहे होंगे यह अवश्य ही विचार करने की बात है। हम पिछले पन्नों में यह देख चुके हैं कि नाथ राजस्थान के शासकों के शुरु थे और निश्चय ही राजा की प्रजा भी उस परम्परा की अनुयायी बनती रही। बिना जाति पाति विधार के प्रवेश होते रहने से कभी ऐसा भी देखा गया है कि अभी १५० २०० वर्ष पूर्व मारवाड के शासक ने जब आयस देवनाय को गुरु बवाकर उन्हें महामदिर में स्थापित किया तब लोगों में नाथ बनने की एक होड सी लगी। दीक्षा समारोह के लिये दल बादल” डेरा खडा किया गया। नाथ वल्व प्राप्त हो न हो राज्याश्रय प्राप्त करने का एक रास्ता खुल गया। मनुष्य की प्रवृत्तियों के सनावन होने के बारे में मुझे कुछ कहने कौ जरूरत नहीं। आलोच्य काल में भो अवश्य ही इस प्रकार की भ्रवृत्तियों ने सामान्य जन को नाथ पथ में दीक्षित होने के लिये अवश्य ही प्रेरित किया होगा। नाथों के स्मार्त और वेद विशेधी होने व अत्याश्रमी और अतिवर्णों होने से मान्यता प्राप्त चार वर्णों के अलावा आय सभी के लिये उसमें प्रवेश खुला था और समाजशासख्र के अध्ययन से सामने आने बाली कत भी स्पष्ट है कि सभी मनुष्यों का बौद्धिक स्तर समान नहीं हो सकता रुचिया अलग होंगी विचार करने का स्वर अलग अलग होगा और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे जिस काल में रहते आये हैं तत्कालीन समाज को उनसे रही समयानुकूल अपेक्षाए भी भिन्न होंगी। इस पृष्ठभूमि पर खडे होकर यदि हम मारवाड के नाथ समाज का अध्ययन करें तो आपको सहज ही प्रतीत होगा कि नाथ परम्पस में दीक्षित होते गये अधिकाश लोग योगसाधना की योग्यता नहीं रखते थे। उनमें वह निष्ठा ब्रह्मचर्य को पालना ससार से विरग और भी जो सब मातें आवश्यक थी उनके पास न थी और थीं भी तो किसी बिएले के पास। इसलिये मारवाड के नाथ और उसकी परम्परा में विकसित फ़िरकों में अधिकतर अनुयायी गृहस्थ घर्म का निर्वाह करते थे। शादी ब्याह के लिये अपने गुरुद्वरे की सीमा छोडकर अन्यत्र ब्याह कर सकते थे भीख मागते थे कोई मजदूरी कर लेता कोई खेतो करता तो कोई और काम कर लेढा। इनका बाह्मचरण नाथ पथी रहा. मुद्रा पहनते सिंगी सेली धारण करते सिंगी को पवित्रतम वस्तु मानते भस्मों का लेप करते और मुर्दे को कभी बैठाकर तो कभी लिटा कर गाड देते। इनमें से कुछ साकार नाथ के ठपासक हो गये कोई साप बाधकर तो कोई मुकुट छपादे की अमृतवाणी छ९ में महादेव की मूर्ति पहन कर। महादेव के साथ आद्याशक्ति के रूप में पार्वती की उपासना का प्रारम्भ हुआ और चारणों को आद्या शक्ति हिंगलाज माता इन लोगों के लिये परम आशध्य हो गयीं। सम्भवत इसीलिये धरे धीरे नारों निषेघ का स्वर क्षीण पडता गया। हिंगलाब माता के दर्शन कर आयी री स्वय को विरक्त महसूस करने लगी और पुरुष वेष घारण कर इस मार्ग में प्रवृत्त हुईं। मूलत नाथ परम्परा जोव हत्या मास सेवन मदिरा का कठोर प्रतिषेध करती रही किन्तु यह प्रतिषेध का स्वर भी अनान्दोलित हो गया नार्थो के अनुयायियों के सभी संगठनों में आय) मद्य मास का सेवन साधारण बात हो गयी। रूपादे के जागरण के प्रसंग को यदि एक बार फ़िर स्मरण कर लें तो आपको याद आयेगा कि रूपादे को थाली में प्रसाद स्वरूप मास से टुकडे ही तो रखे हुए थे जो उगमसी भाटी या शमदेव को कृपा से फल फूल बन गये। जब नाथों के अनुयायी घरबारी हो गये अर्थात् गोरखनाथ के शब्दों में “कामिनी के क्रोड में पलते रहे” आजीविका के लिये किसी न किसी वृत्ति का आश्रय लेकर दिन गुजारते रहे । दूसरे शब्दों में आशायुक्त जीवन के अभ्यस्त हो गये तब उनमें कुण्डलिनी को उन्मुख कर स्फुरित करने की शक्ति कहा से आती इसलिये वे धरे धीरे ज्ञानाश्नयो योगमार्ग से दूर होते गये। फिए अन्य समाज के लोग जो नाथ तो नहीं थे किन्तु थे अन्त्यज इनके साथ जुड़ते गये और उन्होंने भो कुछ नाथ सस्कार्से को स्वीकार किया यथा मेघवाल हरिजन आदि। सर्व समन्वयक इस नाथ प्रष्ट समाज में गुरु के प्रति निष्ठा वाला तत्व अद्यापि किसी न किसी रूप में बता हुआ था तब जनता नाथ या परमतत्व के दर्शन ही अपने गुरु में कने लगी क्योंकि कम से कम आपपत्तियों में फसने पर मनुष्य को श्रद्धा रखने के लिये कोई न कोई तो आधार चाहिये। इस गुरु-पद को भक्ति परब्रह्म या भगवान् के समर्पण में परिवर्तित होना हो योगी का सन्त बनना उसके पूंरे या अधकचरें अनुयागियों का भक्त बनना है। जैसे पहले प्रिथीनाथ या पृथ्वीनाथ की चर्चा में स्पष्ट हुआ है कि नाथ योगियों ने भो अनुभव किया कि योग सामान्य के योग्य नहीं है भक्ति ही उनके अनुकूल है। पिरथीनाथ १७वीं श्ती में हुए थे। दिशाहीन हुए समाज को पुनस्स्थापना के लिये उसके सस्कारों के लिये उनमें भक्ति भाव और समर्पण की भावना के अववरण के लिये उनके बाह्याचार और ढोंग का विगेष कर उन्हें सन््मार्ग की ओर प्रवृत्त करने के लिये अपने जीवन को समर्पित करनेवाले महात्माओं में पृथ्वीनाथ और उनसे भी पूर्व कबौर से पहले यदि किसी का नाम लिया जा सकता है तो वह केवल रूपादे का है। नाथ मिश्रित समाज जो वर्णाश्रमियों कौ दृष्टि से तब भी हेय था किस प्रकार झूपादे के उपदेशों से प्रभावित होकर भक्ति भावना से ओठ प्रोत हृदय का समर्पण कर मारवाड राजस्थान ५ निर्गुणी उपासना का सूत्रपाव कर सका यह जानने के लिये ही आगामी पृष्ठ लिखने । <० शजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्तीनाय परन्तु रूपादे पर विचार करने से पूर्व उनके गुरु भाई घारू मेघवाल और गुरु उगमसी भाटी के मनोगवों से परिचित होना निश्चय ही उपादेय होगा। ७ योग से भक्ति योग-- रूपादे की भक्ति-कथा से जुडे हुए व्यक्तियों में मल्लीनाथ जी के अलावा दो व्यक्तित्व विशेष महत्वपूर्ण है. उसके बालसखा और मार्ग दर्शक घारू मेघवाल और गुरु ठगमसी भाटी। उगमसी भाटी की सिद्धियों के बारे में सत्र तत्र सदर्भ मिलवे हैं परन्तु उनकी उपलब्ध रचनाओं और बेल में उनका जो स्वरूप ठभर कर आया है उससे यह सिद्ध करने में सहायता मिलती है कि यद्यपि उनका बाह्माचार नाथ-जैसा ही था पस्नतु उनकी आत्मा उनका मन एक समर्पित भक्त का था। यही बात उनके शिष्य धारू के बोरे में भी कहो जा सकती है। रूपादे का मल्लोनाथ से विवाह होने पर यह बात सामने आयी है कि धारू मंघवाल को बारात रवाना होते समय रूपा धारू से पूछवी है- वचन भाव पूरे करयो फ़िर प्रक्ति पद श्ारे दोनू बिच ये सत्र है सयनरो प्र उतरे। सुगय नर सरगा जावशी ठुयदा तरफ सिषारे गृर मुख वक्त तिभ्ावस्ी मालिक काने ढारे#ं सद्यपि इसमें सुगण नुगय का प्रयोग सुगुय नुगुग को तरह किया गया है फिर भी राम साहेब मालिक आदि पद निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं। गुरु की आज्ञा थो रूपा को भक्ति में दीक्षित करगा और उस वचन को निभाने के लिय धारू सपरिवार रूपा के साथ घल पडते हैं यहा घारू का भक्ति से अदूट सबंध है। दीक्षा के बाद धारू जब भल्लीनाथ को उपदेश देते हैं तो उसका आशय व्यापक दृष्टि रखने का है. केवल स्वय के शरीर में परबह्म का साक्षात्कार करने का नहीं है। समष्टि को साथ लंकर मोश्ष मार्ग पर अग्रसर होता है। धारू कहते हैं कि जागरण में आवी वहीँ गुरुदर्शन होंगे-- जमला सी रेण जयाय म्हाय वीय रे जगले गुरु महाये आवेलो/ *मुम्हें नहाना है तो समुद्र से सम्बन्ध रखो छोटे छोटे गट्ढों में क्या नहाते हो पर्वत से वास्ता रखो छोटी छोयो पहाड़ियों से क्या लेना देना? परनारी से हेत मत रखों। गुड से ही खाड होती है। खाड से शक्कर और शक्कर से ही मित्री । मालोजी ! साथु का जोवन बडा कठिन होता है. व्यक्ति को खाड़ से मिश्रो बनना होता है. स्वयं के शरीर के साथ साथ मन की पूरी शुद्धि चात्यि।“*५ फिर भौ अभी तक ये लोग नाथ अभाव से मुक्त नहीं हो पाये थे इसलिये ठप्त परमतत्व को अलख हों कहते रूपादे की अमृतवाणी 53: अलख पुरूष को यर लो ध्यातंल इसलिए धारू उसका बार बार नाम स्मरण करते हें-- अहकार जय रह्ाँ अलाप जय आरग्रियौँ जपवा जाप।री नाम झ्मएण का उत्तम साधन जप या भजन है और हमारे घारू जी भजन में लगे हुए हैं. निरन्तर रात और दिन- घारू भजन करे हर बारपट और अपने जागरण में केवल सन्तों को ही नहीं वे सभी देवताओं को निमत्रण देते हैं पाट पूरते हैं और विधिवत् उनकी पाट पर स्थापना करते हें।र रूपादे जब जागरण के लिये चल देती है तो महलों के बद दरवाजों को हरिने ही ते खोला था-- रूपा जपै हरि रा नाम खिंडकी खोली हरि आपौ आप (५९ इसी को बेल के एक दूसरे सस्करण में देखिये क्या हरि कौ अधीनता स्वीकार की गई है-- हरी खोलीया जदी खुलाणा।(! जागरण तक पहुच कर दोनों हाथ जोड सन्तों और गुरु उगमसी के वह “पग परस्तती है। जागरण सम्पन्न होने पर लौटते हुए जब मल्लीनाथ जी सामने पड़ जाते हैं तो पशोपेश में पडी अबला रूपादे द्रौपदी वारामतो या हिरण्यकुश का स्मरण करती है और बार बार जगदीश कृष्ण को बुलाती है-- अरब देऊ ऊगै दिन ईस जपिया झट आवो जगदीस ५३ क्योंकि इस लोक में भवसागर पार कर अगर कोई मोक्ष की गति प्राप्त कराने वाला है तो वह जगदीश के अलावा और कोई नहीं-- जिणये यति कोई जयदीस सवारे धन प्राचों जी जगदीस जवारे॥५३ जगदीस और राम में कोई अन्तर नहीं तुम्हारी वेदना का विनाश अगर कोई कर सकता है तो वह केवल राम ही है. इसलिये राम का स्मरण करो-- भरजौँ यम वेदन नहीं व्यापैँ।" धएू मेघदाल कौ तरह बेल के रचयिता ने ठगमसी भारी को भी विशुद्ध योगी या नाथ के रूप में चित्रित नहीं किया है। हालाकि वे मल्लोनाथ को सींगी सेली आदि बाह्मचिह्न धारण कराते हैं फिर भी उनकी साधना में ज्रेमाभक्ति का तत्व है-- राव खनसी उयमतसी भ्राटी पीधों श्रेम रस भाणा। उगमसी झाटी का प्रेम भक्ति या अक्ति का ही सही टिट्शन उनकी उचता हे थ्र राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लौनाथ भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। कृषिप्रधान भूमि के किसानों और सामान्य लोगों का भक्ति की महिमा और उस मार्ग पर चलने के लिये वे उद्गोधन करते हैं जिस मार्ग का अनुसरण (उनके शिष्य) रूपादे और मल्लांनाथ ने किया है। उगमसी पूछते हैं. ओरे भाई। इस बार कौन सी खेवी कर रहे हो अरे सत वी खेती करो वो उसकी फसल भी सत स्वरूप ही होगी- सतडे री बाड़ सजोते खेती खत्यण सब कम्रावों / का थूला नएयवों म्हाय भाईडा १ इस स्थूल ससार से विमुख हो जाओ और वह पाने के लिये श्रयल कगे जो सत् है स्थायी है घिरन््तन है सत्य है। इसलिये वे वनमाली या कृषक को कहते हैं “अगम बाग का सिंचन करो। तुम कौन कौन सी वस्तुए पैदा करोगे। तुम हीरें की खेती करो सच्चे “साहेब” का ध्यान करो तो तुम्हारी काया अमर हो जावेगी “अमीरस अमृत का पान तुम तो करोगे ही और जो चाहे ठसे भी पिला देना अपने साथ औंगें का भी उद्धार करो-- अयम बाग पिंचाबों कमाली काई काई क्सव तिषावों। सहारा भाईडा।/ गाचा सहाय वीध जी थे हीय री निणन करो साचे सायबजी मे थे ध्यावों काया थारी अमर हुए भाईड। विरगयी (निर्गुद) ? ग्रेल अग्रौर्स प्रिया सो शव ज्यानै शवों म्हादा श्राईडा॥ तुम्हारी पा्चों इद्वियों को विष्य वासना से दूर रखो उन प्राव “सुबटियों को मोतियों का चुगा डालो अर्थात् तुम बाह्य और अन्तर्मन में शुद्धता निर्मलता रखा तो तुम्हारी इच्धिया स्वय ही शुद्ध रहेंगी-- सुखमण साकरिया प्राव सुवटिया मोतीडा थे चूय चुगावों। मालोजी और रूपादे ने भी यही किया और वे अमर हो गये उसी रास्ते तुम चली-- जिय करणी ग्रालों रूपादे सौज्ञा स्रे पथ थे टलावी ख्ाग्र भाईडा होध ये निषज हलावो। माय ध्राईडा।१० यदि कोई इस पत्य में प्रतोक्वाद या रहस्यवाद के सूर देखना है तो उसके लिये रूपादे की अमृतवाणी ८३ वह स्वतन््र है परन्तु जिन लोगों के लिये यह बात कही गई है उनके लिये सीधा अर्थ सत् कर्म में प्रवृत्ति सत्कर्म जन्म पुनर्जन्म के चक्र को समाप्त करता है और बास्बार योनि प्रमण न कर भनुष्य को मुक्ति मिलती है। यह मुक्ति योगी की नहीं अपितु भक्त की है। ऊपर की पक्तियों में आया “तिर्गटी या निरगटी” शब्द निस्सशयत निर्गुणत्व का वाचक है। अब यह आशका हो सकती है कि एक तरफ तो रूपादे नार्थों से सम्बदध है दूसये ओर वह हरि और जगदीश का बार बार स्मरण करती है तो कभी आलम (निर्गुण पद) को अपना “सैंया मानती है तो कभी अल्ला साई और परब्रह्म को एकता का बखान करती दिखायी देती है। और इस दृष्टि से विचार करें तो मोगा के पदों में मिलने वाली निर्गुणोपासना अथवा कबीर के गोविन्द की पुकार किए हुए पदों को देखकर यह अर्थ निकालना कि कोई सगुण है या निर्गुण का समर्थक है उचित नहीं है। वास्तव में भक्ति तरगिणी के दो प्रवाह हैं जो साथ साथ बह रहे हैं उन्हें लाठी मारकर अलग अलग नहीं किया जा सकता है आचार्य द्विवेदी ने ठीक ही कहा है - कि हम जिस अलक्ष्य अगम परब्रह्म या आदिपुरुष और उसके कार्य का वर्णन करना चाहते हैं वह अरूप है असीमित है अगुणी है। जो व्यक्ति वर्णन करने वाले हैं वे ससीम है। गुणाच्छन हैं उनकी रूप दर्शन की भी एक सीमा है। इसलिए रूप से अरूप का या सीमित से असीमित का वर्णन करने की जब भी कभी बात उठेगी तो उसमें पूर्णता कदापि नहीं आ सकती है. कभी उसका सगुण रूप दिखायी देगा कभी ऐसा लगेगा कि वह गुणों से परे निर्गुण है तो कभी स्वानुभूति के आधार पर यों भी प्रतीत होगा कि वह सगुण निर्गुण से अतीत कोई विलक्षण तत्व है।+८ रूपादे के विचारों/उपदेशों अथवा उसके दर्शन की मोमासा से पूर्व हमें इस बात को दौक तरह से हृदयगम कर लेना चाहिये कि सगुण निर्गुण या तदतीत की जो शब्दावली है वह वास्तव में परम तत्व का निरूपण नहीं करती प्रत्युत् हम जिस रूप में उस तत्व का अनुभव करते हैं उस अनुभव का किंचित् स्वरूप इन शब्दों से प्रकट होता है। स्पष्ट है हम मूर्दिपूजा में इसलिये विश्वास करते हैं कि उस तत्व के निराकार होने की कल्पना भी कदाचित हमारे लिये असह्य हो जाए, जब हम उसे निराकार रूप में पूजने को सामर्थ्य रखें तो सहज ही सगुण भाव हमारे लिये गौण होगा। सही रूप में तो वेदोपनिषदादि और तदनुसारी दर्शन अन्थों में जो उसका मेति नेति इस प्रकार से निषेघात्मक वर्णन मिलता है वही इस बात का प्रमाण है कि हम उसके स्वरूप की याथातथ्य वर्णना नही कर सकते हैं क्योंकि वह केवल अनुभवैकगम्य है और भगवत्कृपा से होने वाले इस अनुभव का कथन जो परातुभव है. हमारे पास वाणी का चौथा भाग जो वबैखरी है उससे सम्भव भी नहीं है। जैसा कि हम अब तक जान गये हैं कि रूपादे ने जिस काल और समाज में जड़ राजस्थान सन्त शिरोमणि गणी रूपादे और मल्लीनाथ जन्म लिया तब कौ धार्मिक स्थिति में समाज को व्यक्ति से अलग प्रकार की अपैथाएं थीं। मुसलमान आक्रमणों के परिणाम स्वरूप जिन लोगों को वेद स्मृतिया स्वीकार करने में टिचिक हो रही थी वे लोग या तो मुसलमान होते गये या फिर नाथानुयायी बनते रहे। ठगमसी भाटी रामदेव मल्लीनाथ इन सबसे सिद्धि या चमत्कार शक्ति जुडी हुई थी रूपादे का यह समाज था। इसलिए उसके उपदेशों में कहीं नाथ साथना के तत्व प्रतीत होंगे तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। दूसरे रूपादे र्री होने के नाते हिन्दू सस्कारें से सर्वधा मुक्त नहीं है. जगदीश शाम सावरियां सभी की कृपा उसे चाहिये। उसे उनका सगुण रूप मान्य है यह विचारना है। किन्तु वह योगियों की तरह मोक्ष पर केवल अपना अधिवार नहीं मानती सब स्तर के लोगों को वह साथ ले चलना चाहती है गुरु ही उसके लिये अलख बन जाता है समाज में नीतिमता की मान्य अवधारणाओं को बह पुन स्थापित रूप में देखना चाहती है। इसलिए रूपादे वी वाणी का अध्ययन बहुत कुछ अर्थों में किसी सम्प्रदाय विशेष की सन्त वाणो का न हॉकर व्यापक रूप में भारतीय आध्यात्मिक घिन्तन के भक्ति उन्मुखीक्रण के आधार के रूप में ही किया जाना चाहिये। ८. रूपदे का भक्ति-दर्शन-- रूपादे स्वभावत नाध परम्परा से जुडी होने से गुरु के प्रति अपार निष्ठा उसकी वाणी में अन्तर्भूत महत्वपूर्ण तथ्य है। जैसा नाथ कहते हैं - नाथ कृपा से ही गुरु मिलवा है साधक गुरु में परम तत्व देखने लग जाते हैं और परम तत्व परात्पर का जा मार्गदर्शक है वह उनके लिये स्वयं परात्पर बन जाता है. वही परमतत्व आलम है वहीं सैंया है वही ठसका पावणा या मेहमान है. उसका स्वागत करने के लिये माणिक और मोती ही चाहिये-- हालो ये नगर सी सका गुरु वदावों हाला युद्ध ने क्यावा माणक मोतिया। ओेयग ये विद्या ब्ण काप्या भागी मैया आलम जी आया है प्याय पामणा ॥१९ रूपादे का गुरु केवल ह्ाानाश्रित योगी बुद्धिवादी व्यक्ति नहीं वह उसका सैंया है उसके प्रेम में रूपा समर्पित है यह जरूर है वह गुरु आलम है या फिर आलम ही गुझ है। वह सत्् गुरु है। रूपादे ने जैसा आगे देखेंगे सत् वी महिमा बहुत गायी है। गुरु का पथासना था पर्याय से सत् की किंचित् भी अनुभूति होने पर उसका क्या परिणाम होता है देखिये -सत्पुरु के मेहमान के रूप में आने पर जल हीरे जैसा हो जाता है. अर्थात् यह भवाब्यि या भवसागर उसकी अनुभूति से हीरे जैसा प्रकाशमय हो जाता है! ससारान्यि में तैरने वाली मछली जिसे रूपादे ने जीव कहा है अपने मुह में बालू रेत लिये हुए होती है। रूपादे की अमृतवाणी ८्प गुरु का आगमन ही उसके लिये वर्षा है. जल प्रवाह तत्व है और जीव मृत्तिका जड अथवा अपेक्षाकृत स्थायी है. जीव का भौतिक ससार का आकर्षण धीरे घीरे कम होता है क्योंकि सत्गुरु की आगमन रूपी वर्षा उसके अड्जानान््धकार को नष्ट करती है-- सलुरु आया पावणा झरमर बरसे मेह हीय जल लाया हे जी। है ऊडा जलरी माछली रे गुख में बालू रेत अथय जल भरिया है जी सत्युरु आया प्रावणा॥** अनेक विषयों में उलझे जीव को घाट के पार लगाना तो केवल गुरु का हो काम है क्योंकि गुरु के पास ज्ञान कौ ऐसी गोली है जिसके सामने (कायर) अज्ञानी भाग खड़े होते हैं और जो शूर बने फिरते हैं और अपने हठ पर अडे रहते है उनकी मुक्ति कहा सम्भव है-- गोली तगाई गुरु ग्यान री रे कायर भागा जाय। सूर्य कर हठ मा आवे सवगुरु आया पावगा॥5१ यह शुरु या सैंया कोई तात्कालिक थोडे ही है। वह है “जूनी कला या साई”। उसे देवालय में जाकर आप देवता कहो या मक्का जाकर उसे अल्लाह के रूप में देखो वह है तो एक ही तत्व! रूपादे उसी को सम्बोधित कर बास्बार विनती करती है मेरे जूनी कला के साई अब आप जागिये-- देवरा में देव मका जी अल्ला जुवाला में साई खड़क सम्ब भाई आप बियजे राम जह्य देखू साई। जाएे सहाय जूनी कला रा साई॥९२ परन्तु गुरु या साई को आप्त करने के लिये चाहिये भक्ति और दृदय का समर्पण जिसमें भक्ति नहीं समर्पण नहीं वह कैसा चेला-- ए जी सुरति विना कैसा चेला हो रावल माला॥एरे अर्थात् भक्त में सुरति भ्रकृष्ट अनुरक्ति परम समर्पण चाहिये।सब कुछ भूल कर सोरे रिश्ते नातों को तोडकर वह अपनी जीवन की नैया सतगुरु के हवाले कर दें इस विश्वास के साथ कि केवल सतगुरु ही उसे घाट के पार लगा सकते हैं-- सपुरु मारी नाव हा रे चिनगुरु स्हारी नाव। भरोसे आपरे हालो हो सबगुरु म्हारी नाव # ८६ राजस्थान सन्त शिगेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ पर सतगुरु मिलना भी तो कठिन है. समर्पण करें या सुरति भाव रखें गुरु मिलें तब तो ना! रूपादे कहवी है गुरू पावणा है प्याग् पावणा है सैंया है तो फिर प्रेम की सार्थकता हो विरह में है. जब तक विरह व्यथा नहीं होगी सैंया से विछोह का दुख नहीं होगा जब तक जीव विरहाम्नि में व्याकुल न होगा सत्युरु मिलेंगे तो भी कैसे ? जिसके मन में विरह व्यथा नहीं वह धूल के समान है गेरुए वल्ल पहन कर अगर तह अग्नि में जला नहीं तो उसके जैसा मूर्ख कौन-- जी रे वीय ज्यारि मन में विरह नहीं हो जी ज्यायें धूढ सो जीयो। जी रे बीयर ऊपर शेख सुहामणों हो जी गेल सु रय लीगों। आप अगन में जलिया नहीं हो जी। होय रगो मकति हीयो ॥* मन में विरह व्यथा लेकर जो साधु होकर गुरु के पास जाए तपस्या के सप्राम में बिना भय अपना प्लिर देकर जो मरने से कभी नहीं डरा वही व्यक्ति या साथक अपने मोक्ष का मार्ग तय कर सकता है। सँँया या आलम के प्रति आप में भक्ति है प्रेम है समर्पण है किन्तु उससे मिलने के लिये अगर आप तडप नहीं जाते उसके विरह की व्यथा आपकी नहीं सतादी उसके विरह की अग्नि यदि आपको नहीं जलाती दब आप मोश्ष मार्ग के कदापि अधिकारी नहीं हो सकते- जी रे विरह सहित साथु होगा हो जौ बिका सिर थर दीनों। मरे यू डरिया नहीं हो जी मय में मारय कौगों ॥६६ फिर वह अपने गुर उगमसी भाटी की कृप्रा का विचार कर क्षण भर भाव विभोर हो उठती है. जिसे ठगमसी जैसे गुरु मिले वे प्रेम रस में मदहोश हो कर शूमते हैं रग के प्याले पीते हैं तभी तो विज प्रद” की पहचान होती हे. उसके लिये सबसे जरूर कोई वस्तु है. तो वह है सूक्ष्म दृष्टि -- मकवाला झूमे मद भरिया हो जी रय भर प्याला प्रीणा। जीरे वीरे गृठ उगममी मिलीया हो जी जिका मत्र किया झ्ीया॥ पर ये तो गुरु सही गुरु के मिलने को बात है न जाने वह मिलने तक कितनी घडिया कितने दिन/वर्षों या युग बीव जाए यह प्रतीक्षा की अवधि जिवनी अधिक उठनी ही विरह व्यथा वीब्रतर उतनी हां वेदगा अधिक। इसलिये उस आलम की प्रतीक्षा अपना अत्यक्ष प्रिय मानकर रुपादे करना चाहती है। कहती है अजी आप कह तो गये थे दो चार दिन की वे आपके दिन कब समाप्त होंगे? यहा तो युग पर युग बौते जा रहे हैं में तुम्हररे इस्तजार में खडी खडो परेशान हो रही हू-- कैय ने थै गया था दितडया दोय ने चार। छुग ने चोदो रे कोई ग्रव ने दूजों रै॥५८ अपनी व्यथा को प्रियतम के पास पहुचाने की लालसा क्योंकि कहने या बाटने रूपादे कौ अमृतवाणी ७ से हो वट पीड़ा कम होगी रूपादे के मन में एक बार विचार आता है. चलो प्रिय को सादी बातें चिट्ठी में भेज देती हू। लेकिन पत्र पढकर रख दें तो वह किस काम का उसे गुणना भी तो चाहिये अधोत् उसकी लिखी बातें पर कोई भौर तो फर्मावें। वह समझती है कि पत्र तो भेज ही दें-- लिखू म्हाय सायवा कागदिया दोय ने चार भ्णिया हुवौ वो रे कोई गुणिया हुवो वो स्वामी गजा वाब ले ॥” ५६ देखिये गुरु रूप भगवान। आलम को क्या उलाटना दिया है कारण यहा है कि वह स्वय को उससे भिन्न मानती हो नहीं है। चाहे वह किसी भी रूप में प्रकट होना चाहे! आलम बैणगी वेष में आता है दो वह भी वैरागण बन जाएगी यदि वह जोगी के रूप में दिखाई देता है दो वह जोगण का वेष बना लेगी॥ आलम जिस रूप में उसे देखना चाहे जिस रूप में उससे मिलना चाहे वह रूप वह बना सेगो और हर रूप में उसे पहचान ही लेगी-- करू म्हारा सायबा जोगणिया रा रूडा वेस। जोयण होय ने नै वैयगण होय ने रे जुग (जग) साये दूढ लू ऑ* उसके स्वागत में हार गूथने हों तो वह “मालण” बनने को तैयार है - मेरे साहेव मैं मालण का भी वेश कर लूगी पर आप आइये वो सही-- करू म्हाग सायबा मालणियारा रूडा वेस। मालण होय ने नै फूल मालण होय ने रे गूथू हर है सेवय ०१ पता नहीं आलम कब आयेंगे रूपादे सरोवर के तीर पर खडी है। लगता है कभी वे पश्चिम से आयेंगे तो पश्चिम किनारे आदी है दो घडी में उत्तर की ओर मुह कर लेती है। न जाने वे कहा गये हैं और किधर से आयेंगे ?-- ऊग्री म्हाय सायबा रे गम सं्रेकर तौर नैण सोदे रे कोई बेण स्ोदे हर थारी बाट जोकों जियो आलम राजा रै कोई उत्तर धर में कोई पिछम धर्म में कालतिंगे ने मार लेनो।४२ कभी तो रूपादे इतनी व्याकुल हो परब्रह्म या सैंया से अपने इतने तादात्म्य का अनुभव कर उसे अपने जैसा ही हाड मास का शरीर धारी मानती है। भगवान उसके लिये हीगें का और लाखों का व्यापारी है उसे हीरों से नहीं उसके व्यापारी से हो काम है वह खड़ी खडी उसकी प्रतीक्षा करती है उसकी ग़ह पर आखे लगाये चैठी रहती ८८ राजस्थान सन्त शियेमणि ग़णी रूपादे और मल्तीनाथ अब यर आवी म्हाय हींग ये म्यौपाय अब मर आवो- अब यर आवे म्हाय लाखा थे न्यापारी ओ अऊनोडी जोवू याती बादडी ॥९३ फिर उस व्यापारी को तरह तरह के प्रलोभन देती है. गाय दुह कर उसके दूध से तुम्हारे पैर धोऊगी क्योंकि तुम थके हुए होंगे भैंस दुह कर गुड मिलाकर तुम्हे लिये खीर बनाऊगी-- श्रैस दुवाडू ओ थाये घूरढी ओ न्यौपारो माय गुडली रदाडूली खीर रे॥४४ मसूरी खाड डाल कर चावल बनाऊगी लपसी बनाऊगी जिसमें नारियल फोडकर खोपरा डालूगी पतली रोटिया बनाऊगी लेकिन तुम आवो तो सही- चावल रदाडू थारि ऊजला माय मसूरीया खाड रे। लप्पी रदाडू थारे सोलमी माय लिलरिया नरेल रे॥९५ और वो और आप का आसन भी ऊचा लगाऊगी लेकिन मेरी प्रतीक्षा की सीमा की भी कोई हद है तुम्हारे स्वागत के लिये मैंने इतनी साथी तैयारी की ठस्तका क्या होगा इसलिए अब विलम्ब न करो अब विरह मुझसे सहा नहीं जायेगा-- अब पर आवो म्हय हीय॑ ये ब्यौपारी । यह हीं का व्यापारी और कोई नहीं रूपादे का सैंया है इस विश्व का पालनहार है जौवों का मुक्तिदाता है जिसके आने से मछली रूप जीव के मुह से बालू रेत निकल जाती है उसका अड्जान नष्ट हो जाता है वह भवसागर के पार लग जाता है। वह उसको अपने से अभिन्न मानते हुए साक्षात् पुरुष रूप में उसकी सेवा करता चाहती है। ऐसी सेवा कि प्रसन होकर वह वापस न जावे। किन्तु फिर भी उसकी इतनी व्याकुलता के बावजूद सैंया होगें का व्यापारी नहीं आता है। तब फिर से धैर्य रख कर कहवी है कोई बात नहीं नहीं आये तो मैं भी नहीं हारूगी। लम्दी विरह वेदना और घिए प्रतीक्षा के अध्यास ने ठसे ऐसा बना दिया है कि प्रतीक्षा करते करते वह थकती कभी नहीं! आगन्तुक के शकुन देखने का उसे अध्यास हो गया है। उसे हर युग में हर काल में इसी तरह सताया है यही हर भव का मेला है यही हर युग का मेला है. क्योंकि उस प्रिय से मिलना इतना सहज नहीं-- भव भव मेव्ये रे कोई जुय जुय में मेब्यो रे मेल्ठे गरबे देवरे रे॥ रूपादे भले ही नाथ परम्परा से किसी न किसी रूप में जुडी हो ऊपर दर्शाया गया गुरु का स्वरूप केवल ठगमसी भाटी या अन्य किसी शरीरघारी गुरु तक सीमित नहीं रखा जा सकता क्योंकि गुरु और आलम में वह कतई भेद मानना स्वीकार नही रूपादे की अमृतवाणी रु करती है। नायों की गुरु भक्ति वो वट आलम भक्ति तक पहुचा पायी साथ हो उसने पखत्व और गुरु के भेद को भौ पूर्ण रूप से जाना भी है-उसको कृपा से हो उसे “निज पद की पहचान हुई है गुरु से परम गुरु वही आलम है वह साई है अल्ला है भगवान है। ठसकी यह परमेश्वरवाद कौ अवठारणा यद्यपि नई नहीं है फ़िर भी भक्ति के सदर्भ में उसका अनन्य महत्व है। रूपादे की अभिव्यक्ति के आलम या सैंया या परम गुरु यदि सही रूप में देखें तो वह परब्रह्म की अवस्था के दयोतक हैं। रूपादे का इस विषय में अपना अनुभव है। साण दृश्यमान और अदृश्यमान यह चराचर जगत् किसने बनाया इसे कोई तो बनाने वाला हो और जो भी होगा वढ़ बडा अद्भुत कारीगर होगा। उसका “कमठाणा” (निर्माण) देखकर हो आप अनुमान लगा लें कि वह कितना बडा कारीगर ह्ोगा-- हवा रे वीय जिय कारीयर जयव गडयो हो जी जिए से अजब कम्रगाणों।४६ वही सबके बीच विद्यमान है कण-कण में रज रज में व्याप्त है और तुम सारे ब्रह्माण्ड में घूम कर खोज कर लो उसके सिवा दूसग कोई नजर नहीं आएगा।-- सोई बिद्यजे सब रे नीच में हो जी देखो अधर ठहराणों। हा रे वीग सयव्धे ब्रह्माण्ड फ़िर देख लो हो जी दूजो कोई मीजर नहीं आणो ॥९० वह सबके साथ है सबके बीच में सर्वत्र समाया है लेकिन मिलता किसी को नहीं है केवल उसो को मिलता है कि जो स्वय उसमें मिल जाये। देखिये कितनी बडी बाद कितने आसान शब्दों में कही है. वहीं उसका अनुभव करने के लिये दृष्टि चाहिये। वह स्थूल इन्द्रियों का विषय नहीं अन्तः्दृष्टि चाहिए जिसके लिए भगवान् के प्रति समर्पण और भक्ति का मार्ग है इस भार्ग पर चलना काययों का काम नहीं है| परब्रह्म का अनुभव किसे होगा जिसे वेदान्द में “सोउह” बग़या है लगभग इस स्थिति तक पहुचने वाले को हो वह मिल सकता है। सर्वश्नग परित्याग कगो न करो मन को शुद्ध रखो तब वह आपको मिलेगा। रूपादे कहती है-- हा रे वाये भेव्णे रेवे पण नहीं मिल्ठे हो जी एडो चेदुर सयाणों। जिय पग्ये जिय पाकियों जी जो कोई मिल्ठे सो उपमें मिले हो जी आप कहीं आणो ना जाणो ॥७८ उस परमतत्व को कहीं भी आने जाने की जरूरत नहीं और वह जाए तो कहा जब वह सब में समाया है। जो सद्् के मार्ग पर चलेगा जो उसमें मिलकर तदभिलत्व ९० राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीगय का अनुभव करेगा उसे ही वह मिलेगा। फिर प्रश्त आता है उस परब्रह्म का क्या सम्बन्ध है इस शरीर से ? तब रूपादे कह उठती है. यह काया एक नगगी है। इसमें सोने के महल हैं उन पर चादी के छज्जे लगे हुए हैं और इसके अन्दर जो जो तत्व या परबह्य का प्रतिबिम्म रूप आत्मा है वह अपनी अमृतवा को जानता है-- मायलो जाणे या अमर रहते काया हो जी और इसीलिये सोने के महल और चादी के छज्जे वाली काया नगरी पर वह निर्वाध राज करता है-- सोने हदा महल रूपै हदा छज्जा हो जी राज करै काग्रा जयरी को यणा॥९ जब यह महल ढह जाता है तो नगरी के राजा ने यदि परब्रह्म को पहचान नहीं लिया है तो वह राजा वह जौव फ़िर बिलखता फिरता है फिर उसकी मुक्ति नहीं होती है-- ढह गया महल बिखर यया छाजा हो जी बिलख रहो काया नयी को यजा॥ इस राजा को क्यों बिलखना पडवा है क्योंकि आत्मस्वरूप स्वय के सच्चे अविनाशी रूप को नहीं जानता है और न जानने की चेश्टा ही करवा है। और यही तो सबसे बडी आवश्यकता है। जीव माया मोह में फसा हुआ अपने रूप को नहीं पहचानवा है। यह मेरा तुम्हाण कायादि आसक्ति यह सादा माया जाल व्यर्थ है। इसकी व्यर्थता को समझना चाहिये और यह मुम्हातर अपना फैलाया हुआ जाल है किसी को इसके लिये दोष देना व्यर्थ है-- हारी वीधध जाल सभी यह आपसे हो जी दोस कक्त को दीजे। आप सम्रज्ञ लेवे आपने हो जी मन सायलो प्रतीजे ॥#4 चूकि जीवाश की समझ सीमित है सकड़ी है इसलिए वह अपनी खुशी से अपनी इच्छा से ही दीन हुआ है दरिद्र हुआ जो अपने स्वत्व रूप को पहचान नहीं पाता है अनेक प्रपच रचता रहता है और बारबार गोते खाता रहता है बाहर निकल ही नहीं पाता: हा रे वीय अपणी खुशी से दीन भयों हो जी गागा परपव रचाया। सर मायलो खल्यों बही हो ज्यी (फिर फिर योता खाया। उपनिषर्दों में बार बार एक वचन आता है. स एक आसीतू। सैच्छत्॥ एकोउह बहुस्याम्। देखिये कितने सरल शब्दों में अभिमानी जीव को जो बार-बार गोता खा रहा है रूपदे उसके मूलस्वरूप का स्मरण कदाती है. अरे वह मात्र अपनी इच्छा से अनन्त हुआ सीरे काम ने बरते हुए भी उसने कर लिये साथ ब्रह्माण्ड उसने रचा आखिर ये रूपादे की अमृतवाणी रु साथ खेल है तो ठसी का रचा हुआ और तुम उसके अश हो अशी तो वह है-- हम रे वीर अपनी इच्छा से अनन्त भयो हो जी नागा क्रम कर लीना। खेल रच्यो इच्छा श्रैयने हो जो अखिल ब्रह्माण्ड रच दीना॥** तुम हो तो उसी के अश पर शिकार हो रहे अपने हो बाण के। हरिण भी आप और पाएपी भी आप - इसलिए एक होकर अद्वैत रोकर चलो द्विधाभाव किसों काम का नहीं-- एक होय जद चालसी हो जी दोय रया अलुझावे।! हा रे वीर आप हिरण आप पारधी हो जी आप ही जाल विछाया॥“* इस द्विधा भाव से मुक्त होना मुक्ति के इच्छुक व्यक्ति के लिये पहला काम है इसके लिये पहले वह अपने मन को अपने वश में रखें। वह सुख दुख दोनों से विगत हो जाय उसे सुर में हर्ष नहीं हो और न ही विपत्ति या दुख में दुख को अनुभूति हो दोनों में समभाव रखने का उसे अध्यास करना चाहिये। पसनु प्राय लोग जब सुख में होते हैं तो ब्रह्मशनी होकर फिरते रहते हैं और दुख में रोना शुरू कर देते हैंवह ब्ह्मज्ञानी नहीं. बह गीता का स्थितप्रज्ञ नहीं हो सकता रूपादे का कहना है. तुम वास्तव में बहनों सच्चे स्थिवप्र्ठ बनो-- सुख में ब्रह्मजनों रहे दुख में देवे रेय। भाई रूपा यों कहे भलो कदेई न होय॥ दुख ने दुख समझे नहीं सुख सू हरख न टोय। रूपा कहे ससय नहीं जीवत मुक्ति जोय ॥ परन्तु जीवन्त मुक्ति का मार्ग बडा हो कठिन कटोला और अप्रशस्त है इस के लिए मान वेभव सत्ता धन ईर्ष्य सब कुछ छोडना पडता है। तभी तो रूपादे मे इस मार्म पर चलने के इच्छुक अपने पति मल्लीनाथ से कहा यह पथ यह मार्ग ख़ड़ग की थार यह असि धारा व्रत है इसका आपसे निभना मुश्किल है-- कहे रूपा मुणों माल जी कोई बृत्ण ने भेद नहीं देणा। खरतर धारा खाड़ा री चलणा थासू सैल नहीं जावे सहणा #2५ परन्तु यदि मनुष्य किसी अप्राप्प के लिये मन में ठान ले तो पृथ्वी पर स्वर्ग बना देगा। विश्वामित्र के द्वारा नये स्वर्म के निर्माण की कथा आपने सुनी ही होगी। जो बुद्धि से परप्तव्य नहीं है जहा शक्ति काम नहीं देती जहा ज्ञान भी निरर्थक होता वहा काम आता है विशुद्ध मठ का विशुद्ध काया का समर्पण) रूपदे ने विशुद्ध मम की शक्ति को नारी का ही एक उदाहरण देकर समझाया अपने मत को रूप सौन्दर्य को और आकृष्ट मत होने दो तुम सच्चे साहब को याद करो। क्योंकि रूप तो काच है- र२ राजस्थान सन्त शिगेमणि ग्णी रूपादे और मल्लीनाव रूपा कहे रे शाईयों और रूप रलै ज्यों काच/। रूप लाग में मत उलो दूढों साहब बाच॥६ जिस नाये का मन शुद्ध है किसी के देखने का उस पर कोई असर ही नहीं होगा तो उम्रके लिये पर्दे की क्या जरूरत? कभी सिंहनी ने भी पर्दा किया है सिंहसुता को कोई डर नहीं उसे कौन बाघ सकता है? जिसके मन में कोई विकृति आती ही नहीं उस पर आवरण किस लिये? पएडदे में वे रेव्सी जिटि जयरे डर पिंहमुग़ चवडी फ़िरे कान ने खावे कोय॥९ कहती है इस मन को वश में रखने से ही वह शुद्ध रहेगा आप अपनी चाल हस की रखिये, आचरण में कौवे की प्रष्टता न आने दें उससे आपको दृष्टि आपका मन शीतल होगा तभी आप साथु कहलायेंगे सच्चा साधु ही लाखों लोगों के जीवन को सुधार सकता है-- पीगा चाले हम्म ज्यू, कहे कोकिल ज्यू बैन।/ काय प्रष्ट प्रण जरा करे: ग्रोवल ज्याय नैन#< यह दृष्टि निश्चित ही दिखाई देने वाले नयनों को नहीं मनुष्य के अन्तर्मन की है जा स्थूल रूपों से परावर्विव होकर सूक्ष्म के दर्शन करती है। शुद्ध मन का निवास शुद्ध शरीर है। इसमें सोने के महल हैं उस पर चादी के छज्मे लगे हुए लेकिन वह कब तक जब तक उसमें आत्मा का निवास है. यह सरोकर है कुवा है जो घस जाएगा हो इस पर पानो भरने वाली पाच पतिहारिया बिलखवी रहेंगी इसलिए इस शरीर के लिये माया मत जोडो उसे विशुद्ध रखो उसे भक्ति सोपान के मार्ग का क्रमण करने दौन-+ एक तो कुदो ये हो प्राच॒ प्रणियातीं रे गण वो भरे वे वो प्राच्े न्यारी न्याय्री रे ढस्त यय्रो कुके टूट गई तेज रे बिलखती फ़रे के क्रो जो न्याते न्यारी रे। थांडा रे जीगा रै खातिर काई माया जोडी रे॥८६ यों ही नाथ परम्परा में शरीर का महत्व अत्यधिक है क्योंकि उम्हें इसी शरीर में सहस्तार चक्र का भेदन करना होता है पर रूपादे श्र को नश्वर मानती है बुच्छ मानती है। फिर भी शरोर होगा जब तक ही भक्ति हो सकेगो इसलिए विशुद्ध काया का उसे आग्रह है नाथों को क्रायासिद्धि का नहीं कायाशुद्धि का है और काया की शुद्धतं का सबसे बड़ा साधन है ब्रह्मचर्य इन्द्रिय निम्रह और मन का वशीकरण। इसलिए सबसे पहले भक्तिमार्ग की ओर झुकने वाले अपने पत्ति को वह उपदेश देती है. हर नारी को भोग्या वी दृष्टि से मत देखो फाई नारी को अपनी माठा मानों। ठसे अपनी बहन समझो रूपादे की अमृतवाणों बे अनादि युग को यहो वाणी है यह तत्व चिस्तन है नित्य है-- ए् जी रावत माला प्रयई बेटी को जननी कर जाणना दाकु बेनी रे कही ने बुलाश हे- ऐ जी ए तो बोल्या छे अंगम जुगनी बागी रे। ए रावक्ठ माला..१९ सपाज को पथ भ्रष्ट कले चाली नैतिक दुराचार में फसाने वाली नारियों पर भी रूपादे ने व्यग्य किया है और अपने पति को खास कर चेतावनी देती है ऐसों को दूर से ही नमस्कार कसा अच्छा होता है पास में जाना खतरे से खालो नहीं है-- दूं जी सबक माला भखर नारी रे वाकु संग नह करना। ए जी ताकु हाथ जोडी ने दूर रहेना हो रावत माला॥१९ इसलिए रूपादे उन्हें काया सुधारने का उपदेश देती है. साधु हो जाओ और अपनी काया को सुधारे स्थूल प्रवृत्तियों को छोड़ो सूक्ष्म दृष्टि रखो-- गवढ माल हुय जावो स्राथ सुधारों थारी काया। हुय जागो साथ वीणोडे मारग चालो हो जी ॥१२ यह काया दो कूड़ काठ की बनी है आती जाती रहेगी अपने मन को डिगने मत पटक आप फिसल गये और काया का स्वाद चख लिया तो जनम भर पछताना काया में कूड काठ में करोत्ती हो जी वा तो आवव जाव रेवै। मालजी रूप देख ने मन ने मत डियावो वाये फल चाख्यां पछतावों #* 'तालर” खेत में बीज बोकर तुम्हें क्या मिलेगा कोई फसल थोड ही हाथ आयेगी काया तो है कूपली मत्र है कस्तूरी-- काया कूपली ने मन कस्वूरों जी। बुम्होरे शरीर में यह शक्ति है कि विष को अमृत बना दें। यदि शरीर को शुद्ध रखोगे तो मन रूपी कस्तूरों अपनी सुगन््ध दरों दिशाओं में बिखेर देगी-- नौम जखा से वीमोलो वे री मौठीं हो जी विष अमृत कर डारे /१४ इस रास्ते चलोग तो ही इस अथाह ससार सागर को पार कर सकोगे अशुद्ध शरीर और विकृत होने वाले मन से यह सम्भव नहीं-- ओ सस्ार अथ्ग जल भरश्यों हो जी वेसे वेरूप्शो प्र न पायो।॥१५ इस मर्म को समझ कर हृदय में विशुद्ध प्रेम रखते हुए जो अपने मन को वश में कर ले ब्रह्मचर्य बनाये रखें और अपनी दृष्टि को बाह्य निरपेक्ष - अन्तर्मुखी बनावे र्४ड सजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लौनाथ वह हो भक्ति मार्ग पर चले ठसी को गुरु पार लगा सकते हैं। किसी कार्य के लिये जैसे कर्मव्य का विचार किया जाता है चैसे ही अकर्तच्य का भी विधि का भी और निषेध का भी। नाथों की चर्चा में प्राय अनुयागियों के लिये जिन दो शब्दों का प्रयोग होता है वे हैं. निगुर और सगुर्र शब्दश इनका अर्थ है गुरु कृपा रहित और गुरु कृपा सहित रूपादे के अनुसार गुरु ही ब्रह्म है उसका अमरशपुर में वास है अत गुरुकृपा वा अर्थ यहा भगवत्कृपा है। रूपादे ने इन्हीं से मिलवे-जुलते दो शब्दों का प्रयोग किया है नुगय और सुगत वैसे वो लोक भाषा और लोक व्यवहार की दृष्टि से नुगरा का अर्थ है दुष्ट अकृतज्ञ अशालीन और सुगद का अर्थ ठीक इसके विपरीत। इन पर विचार करें वो एक दृष्टि से रूपान्तरित अर्थ भी ठीक है क्योंकि जिसे गुरु कौ कृपा श्राष्त होगी उसका आचरण और व्यवहार “सुगण” जैसे ही रहेगा जिसे गुरुकृपा नहीं होगी वह नुगय निगुरा होने से नुगरा। रूपादे ने इन दोनों के बारे में बहुत कुछ कहां है और अपने अनुयाग्रियों को उसका कठोर उपदेश दिया है. नुगरों का सग मत करो सुगयों का संग कगे। वह अपना अनुभव बवा रही है मैंने जिसे तोता समझकर पिंजो में बैठाया वह कौदा निकला जिसे मैंने साधु समझ वह ढोंगी निकल गया-- स॒की छुको जाप मैं तो पिंजरे बैगयों करमा रे अक्प यू ओ हाडो निकल आगो रे/ साए साथ जाप मैं आयगे जिगायो रे करमा रे अताप सू ए ढोंणी निकल आयो रे॥९६ आर तो और जिसे मैंने होश मानकर अपनी अयूठी में जडाया वह भी काच निकल गया। इसलिये ससार के लोग जो सत्य असत्य उचित अनुचित साथु असाधु में अन्तर नहीं कर पाते उन्हें वह “भोली आत्मा” मानकर ताकीद देवी है नुगरों का संग मठ कंगरे-- मत कर भ्रोव्गे आत्मा तू ठुगरा ये संग रे हुयश रे क्रय सू ओ पड़े भजन में शय रे॥१० अगर अमरापुर जाना है मोश्ष पाना है तो सुगरों से स्नेह करो वे ही तुम्हारी मदद कर सकते हैं। सुगरों के साथ रहोगे दो भव को वश में कर लोगे तुम्हारी बोली कोयल सी होगी चाल हस वाली होगी आचरण में शुद्धता रहेगी और तुम साधु कहलाने योग्य बनोगे तब तुम्हें दौन होन नहीं बनना पडेगा तुम दाता बने रहोगे। इसलिए सुगय और नुयग़ का अन्तर और उनकी सगवि से होने वाले लाभ हानियों को गिनाते हुए बह सुगरा बनाने के लिए प्रयल करना चाहती है क्योंकि सुगय ही भक्त के मार्ग पर चल सकता है इसलिए नुगरों के सग को स्पष्ट शब्दों में मना करती है-- वगय से किया सनेह स्हाग्र बौद रे ठुयय मायत म्हानें मत कियी।/ सुय्ा मे करणा सनेह ग्हग बीयर रे सुगय म्राणस म्हने नि मिलो ॥१८ रूपादे की अमृतवाणी र्प “बगुला तो मिट्टी खाता है उससे कौन स्नेह करेगा हस मोती चुगता है तो हस से हो स्नेट करिये। छोटे छोटे नदी नाले बरसात में सूख जाते हैं इसलिये उसी समुद्र से स्तेह कगे जो हमेशा टिलोरे लेता है। कौए को कौन चाहता है कोयल सभी को अच्छी लगदी है। इसलिए हे लोगों तुम साथुओं से स्नेट करों क्योंकि वही सबद” के पारखी होते हैं-- सापा से करणा सनेह स्टाय वीर रे साथ सबद का पारखी # यहा *सबद का पारी से कदाचित यह प्रतोति हो सकती है कि नादब्रह्म को जानने वाले योगो को ओर इशारा किया गया सम्भव भी है परन्तु मैंने सबद उपदेश उचित अनुचित का उपदेश स्वीकार किया है. वैसे भी कई स्थानों पर रूपादे पर नाथों का प्रभाव उपलक्षित होना कोई असामान्य बाव तो नहीं है। अस्तु। सुगरा सगति का अर्थ है. सत्सगति और सबद के पारखी साधुओं की संगति कहलायेगी सन्त सगति या सन्त समागम। सन्त समागम में भजन है नामस्मरण है समर्पण है भक्त है सब कुछ है। इसलिये रूपादे बार॒बार कहती है मेरे भाइयों जागएण में पधारों गुर वहीं प्रकट होंगे। तुम्दरे भवसागर के सारे दुख दूर होंगे सारे दाझियका नाश होगा तुम्हें चायों ओर से केवल सुपर हो सुख मिलेगा तुम्दरे त्रिविध दुख आधि भौतिक आपिदेविक और आध्यात्मिक दौनों तापों का नाश होगा- भव दुख पाये रे थाय भ्रय दुख गगे रे चालो म्हाग्र भाईडा रे आपा सब रे जुमले माय मिलने गास्या है उठे मिलने गरास्या रे। तीयू दुख मेटा रे चालो आपा गुयय रे दरनार मन ने समज्ञास्या हे मायले ने समरज्ास्या हे ॥१९ सत समागम में ही तो मन पवित्र होगा और दृष्टि स्थूल से सूक्ष्माभिमुखी होगी संत सगति ही केवल सत्य का ज्ञान कया सकती है-- जी रे वीय सगव करी साथे सत री हो जी म्हाने साच नताया।/?* कहते हैं हम पतले कुछ भो तो नहीं जानते हैं व्यर्थ की बकवास करते रहते हैं पाष्डित्य वी प्रौदि का प्रदर्शन करते रहे लेकिन जब समझ गये ठो हमारी बोलती बन्द हो गयी हम गुरु के सामने झुक गये निरभिमान हो गये-- समझसा नहीं बड बड बकया हो जी सबद कया मत आया। समझ गया जद चुप हुया चरणा में सौस नवाया॥१११ सत संगति है ही ऐसी जो व्यक्ति को आत्मबोध कर देती है वह वो समुद्र है अधाह समुद्र जिसमें स्वातो के बूदों से मोती बनते हैं दो वे महगे क्यों नहीं बिकेंगे-- जी रे वीया सग हो मोती नीपजे समदा सौप रव्यया। ९६ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ जो व्यक्ति ससार से निरभिलाष हो गया ममता छोड दी मन स्थितत्नज्ञ हो गया आशा समाप्त हो गयी सत सगति से ऐसे व्यक्ति के अन्तरमन में उजाला हो जाता है उसे चारों ओर सूर्य ही सूर्य दिखायी पडते हैं. यहों नाथों की घट में उजाला करने की बात है। रूपादे भी घट में उजाला चाहती है किन्तु भक्ति और समर्पण के बल पर । वह कहती है कि यह सत समागम रूपी समुद्र समता का समुद्र है. यहा कोई भेदभाव नहीं कोई जाति नहीं वर्ण नहीं उच्च नहीं और नीच नहीं। इसमें हर “सुगरे” व्यक्ति के लिये प्रवेश सुलभ है। इस समता के समुद्र में तुम स्नान करो सबदरूपी मसाला लगा दो आपके जन्म जन्मान्तर के पाप कर्म घुल जायेंगे आपको ब्रह्म के अलावा बोई नजर नहीं आयेगा अपने अन्तस्मन को प्रकाशमान बनावो तब कहीं जाकर जनम मरण के चक्र से तुम्हें मुक्ति मिलेगी-- जी रे वी समता समद में म्नडों शोवियों हो जी संग्त मसाला लगाया। मन घुप करम सब यल यया हो जी दूजा तिजर नहीं आया॥ कैवे रूपा माय जायिया हो जी आवण जावण मिटाया ॥ ११र भक्ति मार्ग का जो अनुयायी हो गया उसमें और अन्य भक्तों में क्या भेद रहता है? रूपादे कहती है री पुरूष में भी कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों के अन्दर चैतन्य तत्व तो एक ही है-- नर जाती माय एक हैं कोई दूजा मत जाणो # और इसीलिये बह मल्लीनाथ जी में वासना नहीं आत्मा के दाम्पत्य भाव का दर्शन करना चाहती है मरे लिये ससार में बाकी सब लोग या तो पिता हैं या पुत्र मेरे स्वामी तो आप हैं. एक आप की कृपा और दूमरे जिसने पैदा क्या है उसकी कृपा चाहिये इसलिये मैं आप दोनों को हाथ जोडकर विनती करती हू. मुझे इस अव सागर से पार उतार दो-- कहे रूपा हो म्ालजी मत में कारों थीर आप यणी पिर रूपदे और सब बाप ने बीर एक बुम ही करार हो एक है सरजनहार दोया ने कर छोडबू, कर दीनों भव प्रर॥ १ ३ “मुझे आपको कृपा पहले चाहिये क्योंकि दोनबन्पु भी उसके बिना प्रस्नन नहीं होगा मैं आपसे कहीं दूर नहीं जा रही हू, जा भी नहीं सकती क्योंकि मेरा आपका आत्मिक सम्बन्ध है. वह कभी जहीं टूटेया आप विश्वास्त रखिये-- दीन बधु परमेस सो था बिन राजी न होया रूपादे की अमृतवाणी र्छ इण सू मैं अजजी करू थायू हटू न कोय ॥ किन्तु रूपादे का उद्देश्य केवल मल्लीनाथ जी को भक्तिमार्ग पर प्रवृत्त करना तो है नहीं उसे देश बल्कि सारे विश्व के दीन दुखियां को जिन्हें कोई स्वीकारता नहीं है उन को भक्ति बो ओर प्रवृत्त करमा हो उसका लक्ष्य है। उसका सारा समर्पण व्यष्टि के लिये नही समष्टि के लिये है। किन्तु उसमें शर्त यह है कि जो व्यक्ति स्वेच्छा से इस मार्ग पर चलना चाहे उसे वह अपने साथ लेकर चलेगी। इसलिये उसका कहना है- जो समझना चाहता है मेरे भाइयों उसे समझाना मरा फर्ज है कर्वन्य है जो मुझसे समझना चाहेगा ठसे मैं जरूर समझाऊगी। भटके को शरण में आय को मार्ग दिखाना अपना काम है वह मैं न करू तो कौन करेगा-- सुणो म्हारा भाईडा रे अपणो जय माही ओ हीज काम समझ ने समज्ञसा हे निज देश दिखासा रे लासा गुर री सेन में हे ॥१९४ ऐसे सब लोगों को गुरु चरणों में लाकर बैठाना और उन्हें गुरुकृपा स इस मार्ग में प्रवृत्त करना उसका धर्म है कर्म है उसके उपदेशों का मर्म है। फिर कहती है- निन््दकों से क्या डस्ना? जैसा कबीर ने कहा है-- निन्दक नियरे राखिये आगन कुटी छवाय। “जो हमारी निन््दा करने वाले हैं हम उन्हें भी समझा देंगे। अपन भ्रम के बल पर हम उनको अपना बना लेंगे यें निन््दकों व्ये अपना बनाते बनाते हमारा कोई शत्रु ही नहीं स्टेगा तब हमें सभी लोग अपने हितचिन्तक ही नजर आयेंगे--१%५ निंदक ने ई लेसा सुधा अपणो बणासा हे अप्णो बेरी न दीसे कोय सब ये सहणा है कुछ सुणवा ने कह्णा रे। * 5 कोई कुछ भी कह दें तो उसे सुन लो वापिस जवाब मत दो या फिर सब सहन करते जावो ने सुनो न कहो निंदक अपने आप थक कर तुम्हारी शरण में आयेगा। ससार में सब तरह के लोग हैं - पापी हैं वो पुण्यवान भी सज्जन हैं दो दुष्ट भी वीर हैं हो कायर भी। हमें पापी को चुण्यवान बनाना है उसे पुण्यवान् बनाकर अपने साथ रखना है किसी हालत में उसे जाने नहीं देना है-- प्रप्या ने सहारा भाईडा रे युनवान कर लेवों संग माय। जावण ना देवा हे साथी सेन लखावा हे #१९७ र्८ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाव क्यों कि हमे सत् के मार्ग पर चलने वालों की गुरु की सेना तैयार करनी है जग में पाप पुण्य होते रहते हैं जीवको अपना निज रूप बताकर उसे पार लगाना हैं उसे जन्म मरण के चक्र से मुक्ति दिलानी है उसे जब तक निजरूप निज पद की पहचान नहीं होगी तब तक वह भ्रटकता रहेगा- जय में पुत्र अर प्राप जीव तियसा हे विज रूपए बवासा हे। अगर हम थोडा सा भी किसी को प्रेरित कर पाये और उसका झुकाव हमारे भक्ति मार्ग की ओर हुआ उसके जीव को आत्मा वो यों मुक्ति से बचित नहीं रखेंगे-- हाय में आयो हे आयो जीव अब खाली न जाय। आये ने वियवा है जय यू प्रार लगावा है। महाराष्ट्र के अ्रसिद्ध सन्त तुकाराम जो बहुत बाद में (१७वीं शी में) हुये, मार्नो रूपादे की ही विश्व-बन्युत्त की भावना को अभिव्यक्त करते हुए से लगते हैं-- जयाच्या कल्याणा सवाच्या विधि देह कष्टविती उपकारे॥ रूपादे जिस मार्म पर चली वह भक्ति का मार्ग है उसे वह सत् का मार्ग कहती है और बार बार यही कहती है सत् का मार्ग मत छोड। रूपादे के द्वारा दी गयी चेतावनियों की चर्चा पहले भी हुयी है. जो भी इस मार्ग पर चले वह सच्चे मन से चलें असत्य अधर्म और बुराई तो ठसके पास फटकनी ही नहीं चाहिये। वह कहती है. ओ तुम जब पैदा हुए थे तब भगवी का कौल लेकर आये थे वह दिन तुम आज भूल गये-- गरमवात्त में कौल कर आय्ो थने औधे मुख भगवती कमाई। वा दिरर की छुष्ि भूल यग्रो रे नक्शा लाज नहीं आई रे॥१९८ और अब पर्षों में बैठकर सेरे आम झूठ बाल रहे हो और बता रहे हो जैसे तुम कुछ जानते ही नहीं। सात धरम करम छोड दिया दुनिया भर को बुराई अपने प्ले बाध ली-- प्र्ों मैं बैठ भाई झूठ मत बोल रे मत कर निंदय प्रराई। करम ध्वस्त हूने एक किया नाहीं ओर मर माथे प्रत्ला ने बुाई रे॥११६ इस कीचड में तुम नहीं फसते सत्रह ढोंग नहीं रचाते और सत् के मार्ग पर चलते तब कब के बैकुण्ठ पहुच गये होते खाली गेरूए कपडे पहतने से क्या हुआ भक्ति की भावना पो तुम्हारे मन में जागृत हुई नहीं तुम्हे क्या पढा मुझे ऐसी बातों से कितनी पौड़ा होठी रहती है जो सत् अस॒त् का भेद नहीं जानते आपस में “स्वार्थ” की छुटियां चलाते हैं यह मेरी व्यथा मैं किसे सुनाअ-- हां रे बीप फिय ने केक रे भेद नहीं जाणे रे जी। रूपादे की अपृूतवाणी र्९् ए वो स्वास्थ री छुसी चलावे किण ने केक रे ॥१९९ रूपादे की बेलमें मुख्य जो जागरण का प्रमग है वह आप पढ़ चुके हैं। वह बास्बार भक्तों से जमले में चलने वा भजन गाने का भक्ति समर्पण का आप्रह करतो है। लेकित यह देखती है कि इसमें समर्पण भावना से कम लोग आते हैं दिखावदो या दोंगी ही अधिक हैं। जागरण में पाट पर लम्नी लम्दी ज्योति लगाते हैं बाहर सब तरफ उजाला करते हैं किन्तु अपने मन का अथेशा नहीं हटा पाते या हटाना ही नहीं चाहते- ए तो लम्बी जोत लगावे रे बाहर परकास उज़ालों नाहीं माही रे जी ॥१ तदरे और मर्जोरे लेकर जोर जोर से भजन गाते रहत हैं गला फडन्कर चिल्स्पते रहते हैं नारियल और चूरमे की भ्रसादी करते हैं। इनका भग्माया मन स्थिर नहीं होता ओ ये सब करने से क्य| होगा अन्दर चाने भ्रण को रखओ मन वो इन से आलोकित करें तब तो सत सगति का लाभ बसना वृधा ही अपनी सत काली कर रहे हो-- ओ वो टोडा होड सू गावे हो बाजे तदूर मजीय गहरा रे। या ये मायलो भ्रम नहीं जावे हो ए तो विरथा रात गमावे हो ॥ फिर वह भक्तों को रामदेव का उदातरण देकर कटती है कि भाई। जैसा विलक्षण कार्य उन्होंने वर दिखाया उसका अनुसरण करो पैसे बन सकते हो तभी पार लग सकते हैं और कसी को पार लगाने की बात दो बहुत दूर है। ऐसे ढोंगी कपटो छल प्रपच रचने वाले जो लोग भक्तों को भीड में इकट्ठे होते हे हे का सघ बनाते हैं उससे रुपादे को कभी-कभी बटी उदासीनता का अनुभव रात है-- फूलों जैसो श्रेम हमेशा कोनी रहेला रे झूठोडे री बात बयऊ बोणे कहेला रै।शष्र नीम के पेड को गुड से सीच दो तो वह मीठा तो नहीं बनेगा? कोयल को दूध से नहलाने पर भो वह काली वौ काली ही रहेगी कच्चे धागे को थोडा खींच लो टूट जायेगा। बरसाती नदिया कब सूख जाय क्या भगेसा। तब उसे ऐसा अहसास होने 'लणहा है इनको ननाने में जरूर भगवान वो भूल हो गई है. क्योंकि साधु को कर्कशा खो या सरप्तों की सुदरता को देखकर यही लगता है कि भगवान भी कभी कभी भूल कर लिया करते हैं-- साथ रे घर सखणी हुल रे घर नार रेत रोईडे मे रूप दोन्हों भूल गयो किरवार रे॥ ११३ रूपादे वी वाणियों अथवा पदों में अभिव्यक्त भक्ति भावना को लेकर कभी किसी १०० साजस्थान सतत शिरोमणि यणी रूपादे और मल्लीवाथ को उसके सगुण उपासक होने की शका होना भी स्वाभाविक है जैसे गुरु के मार्गदर्शन में सम्पन होने वाले जागरणों / जमलों में जो गणेश आदि देवताओं को निम॒त्रण देने की परम्पय का रूपादे ने भी निर्वाह क्या उसे लोकाबारमूलक ही मानना चाहिये। परन्तु अन्यत ठपात सावरिया या गिरधर की पुकार अथवा हरि की विरह व्यथा से परीडित स्वरूप की भी इस दृष्टि से समीक्ष की जली चाहिये कि कहीं वास्तव में समुण रूप भो उसे रिज्ञावा तो नहीँ है? ठगमसी भाटी के सानिध्य में आयोजित रात्रि जागरण से वापस लौटते हुए जब सामने मल्लीनाथ जी को वह देखती है तो असमजस में पड जाती है। तब वह गिरघर को पुकारती है-- एक परी थृ खहारैँ साम्रे द्वाक वित्पर हाय रे अबला है आदेध॑ बेयों आब ग्रिस्पर' म्हाया रे॥ और इस रखना में द्रौपटी की लाज तुमने कैसे रखी पाण्डची को जलने से कैसे शचाया इसका गिरधर को स्मरण कराते हुए विनती करती है इस भार मुझे भी सहायता करो मेरी धाली में बाग लगा दो तब भगवान् भक्त की पुकार से द्रवित हो उठते हैं और रूपादे की थालों में बाय लया ही देते हैं-- आया रे आया रूपादे थी बेल _ पिएफर रहाए रे सोने री थाली में बाय लणाविया ॥ (४ पन््नु सोने की थाली का बाग वो अशारवव है अनित्य है रूपादे उससे सन्हुष्ट नहीं होती वह अपने भावों की धाली में बाग लगाने के लिये सावरिया को पुकारती है मारी भाव री थाली में बाय लगाय दो भगवान् ॥ ११५ इससे लगभग स्पष्ट हो जाता है यह शखचक्र पद्मयारी विष्णु या सुदर्शन चक्रधारी गिरपर की बात नहीं कहीं जा रही हैं क्योंकि रूपादे जिस हरि के वियोग में बावरी चैग्ंगण बन जाती वह सावरिया ब्रह्माप्ड का पुरुष है उसका सैंया है परब्रह्म है अनन्त और सर्वत्र व्याप्त है. इसलिये उसकी प्रतीक्षा करते करते रूपादे “बावरी हो गयी है-- जोऊ जोऊ रै स्रावरिया क्षारी बाट वैद्गष हरि ये बावती रे दाव सी ११६ परन्तु वह जानती है यों भले कितने ही बैरागी बनो “बावरे” बन जाओ विरहव्यथा सहे बिना तो हरि की प्राप्ति होने वाली नहीं है। वह अपने साथियों को कहवी है मैं तुम्द्ा भी हरि से मिलन कयय दूगी लेकिन मेरी तरह तुम भी किरह व्यथा सहन करों रूपादे की अमृतवाणी १०१ विरह के गोत गावो क्योंकि विरह में गोत गाने से उस व्यथा से तुर्म्ह मर्मान्तक वेदना होने पर वेदना से तुम्हात हृदय शुद्ध होने पर तुम्हें भी हरि मिलेंगे-- गावों माय थराईडा रे आपों विरह या यौव हरि म्रिल जावे है जिणसू हरि मिल जावे है। रूपादे हरि के प्रेम की श्याम के प्रेम को दीवानी हो गयी है। उसका जग से क्या लेना देना वह श्याममय है और श्याम उसे मिल गये हैं और जगत्, कोई उससे अलग थोड़े ही है मैं श्याममय हो गयी तो सारे ससार में व्याप्त हो गई-- साो प्रेम मारो स्याम सू जयसू किसडो हेव जग महायू अलगों नहीं में हू जग रे माय। और जिसका श्याम से प्रेम हो जाय जिसे श्याम मिल जाय उसे पर्दे की क्या जरूरत जो श्याममय हो गयी उसे कहा तक बाघ दोगे। ससार मुझसे अलग नहीं मैं ससार से अलग नहीं मुझे किसी का भय नहीं पर्दे में वे रहें जिन्हें डर है- पडदे में वे रेवसी जिहिं जग री डर होय। हरि गिरधर सावरिय्रा या श्याम जिससे मिलने के लिये वर्षों युगों तक भ्रतीक्षा करनी पडती है जिसके विरह में आप तड़प तडप जाते हैं इस तडप या व्यथा के गीत बनते हैं और जिसको भ्रतोक्षा करते करते आप बैरागी हो जाते हैं बावरे हो जाते हैं जो सर्वत्र व्याप्त है और जिससे मिलने पर आप भी ससार की सारी वस्तुओं/व्यक्तियों में व्याप्त हो जाते हैं वह गिरधर या हरि आज तक क्या किमी पार्थिव रूप तक सीमित रह सका है जिससे मिलकर कोई व्यक्ति उसवी तए्ह घट घर में व्याप्त हो जाय। इसलिये रूपादे के हरि या सावरिया में आप भले ही सगुण रूप के दर्शन कर लें कम से कम उसे तो यह रूप अभिप्रेत नहीं है। यदि सही दृष्टि से इनको देखें तो आपको सहज ही स्पष्ट होगा कि रूपादे के सावरिया या हरि कबीर के गोविन्द या हरि से कतई भिन्न नहीं है। वह सगुण से निर्गुण से भी अतीत है निरजन है यही वेदान्त का परब्ह्म है साख्यानुयायियों का पुरुष है योगियों का ब्रह्माण्ड के गगन शिखर पर स्थित ब्रह्माण्डपुरुष है यही वह तत्व है जिसके वर्णन में बहुत शासत्र बनाये गये अनेक दर्शनों का विकास हुआ फिर भी उप्तका वर्णन नेति नेति. इस तरह का नहीं वैसा नहीं इसी प्रकार से करना पडता है। यहो वह तत्व है जो सबमें व्याप्त है परन्तु मिलता उसी को है जो स्वय उसमें मिल जाता है। दर असल रूपादे के पदों अथवा रचनाओं की विगत पृष्ठों में को गयी चर्चा से ऐसा प्रतीत होने लगता है कि रूपादे पर नाथ गुरुओं अथवा उनको परम्परा के जो सस्कर थे उनसे वह सर्वथा मुक्त नहीं हो पायी है और इसका एक कारण यह भी सम्भव है कि मारवाड में तत्कालोन धार्मिक परिवेश में जैसा हमने दखा है सर्वत्र नाथों का हो बोलवाला रहा है. इसलिये ता कभी वह यहा तक अनुभव करों है कि ब्रह्माण्ड श्ढ्रे शाजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाप पुरुष के गले में सोने के ढार में लटकी हुई बह सेली है!१८ तो दूसरी ओर निय्कार निर्गुण परब्रह्म को उपास्य मानकर स्वय का उससे अद्वैव भाव स्थापन करना चाहतो है। कभी वह जीव परमात्मा की एकता का अनुभव कर स्वय को सारे ससार में व्याप्त रूप में देखती है तो कभी स्वय उसकी प्रतीश्षा में खड़ी खडी न जाने किवने युग बिता देती है। वह परत्रह्मय उसका सैंया है उसका आलम है उसका प्रियतम है अब उसका नामकरण वह कुछ भी कर दे श्याम गिरधर हरि या सावरिया। एकेश्वर्वाद वो वह पुणजोर शब्दों में स्वीकारती है और कहती है कि सारे ब्रह्माण्ड में तुम घूम आओ उसके अलावा तुम्हें कोई नजर नहीं आयेगा आत्म परमात्म की चिस्वन एकता और गुरु की महिमा का वह खुलकर बखान करती है किन्तु उसका गुरु पद केवल मार्ग दर्शक तक सीमित नहीं है। वह उसी में उस ब्रह्माण्ड पुरुष का दर्शन करती है, नाथों वी तरह हो वह मनुष्य की स्थूल पवृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाना चाहती है। परन्तु एक नाथ कौ दृष्टि में और रूपादे की दृष्टि में मूलत एक महत्वपूर्ण अतर है रूपादे का समर्पण भाव केवल गुरु तक ही सीमित नहीं है असल में उसका समर्पण इस ससार रूपी “कमठाणा” के आश्चर्यकारक कारीगर सृष्टिकारक शक्ति के प्रति है। उसको दृष्टि में गुरु योग के बल पर पिष्ड में सहसार चक्र का भेदव कर गगनशिखरस्थ पुरुष की अनुभूति तक पहुंचाने वाला नहीं बल्कि ससार के लाखों लोगों का कल्याण करने वाला होता है यह काम एक नाथ योगी कभी भी नहीं कर सकता है। उसका समर्पण भाव और निराकार सर्वत्र व्याप्त अनन्त ईश्वर के प्रति भक्ति भावना ठसे नाथों. सिद्धों और योगियों से एक दम दूर लाकर खडा कर देती है। जब हो तो वह प्रेम को भक्ति का आधार मानती है। उसका प्रेम अमर है क्योंकि बह श्याम था सावरिया से है वही उसका सैंया है और वह उसकी पुजारिन न जाने उसके स्वागत में कया क्या ऐैयार्पा कर कभी उत्तर में खड़ी होती है तो कभो पश्चिम में खड़ी होकर उसकी बाटडी जोह्वी है। भक्ति में ढोंग किस काम का? भगवे कपडे पहनकर रात राव जागरण में लम्बी ज्योति लगाने वाले हम्बूरे और मजोरे पर जोर जोर से भजन गाने वाले और चूरमे की प्र्भादी पाकर भगवान् को असन्त हुआ मानने वाले ढोंगी साधुओं वी उसने खूब भर्व्सना की है. कहती है उनका मन शुद्ध नहीं है. मन को शुद्ध करने के लिये सयम चाहिये और बाद््रवृत्तियों को अन्तर्मुछी ननाये बिना मन का विकृति रहित होना सर्वथा सम्भव नहीं है। मन के साथ काया को शुद्धता भो चाहिये और काया के शोभन के लिये उसे पवित्र रखने के लिये हमारे में नैतिक जागरुकता और ठसके प्रति निष्ठा के बोरे में कुछ अधिक कहने की जरूरत भी नहीं! यों तो नैतिक बोध लगभग सभी सन्तों का प्रतिषादय है योगियों के लिये तो मह परम आवश्यक है अन्यथा उनका पिण्डपात होता है परन्तु उस नैतिक बोध का प्ररभ रूपादे को अपृतवाणी श्ण्३े रूपादे चाहती है हर आदमी अपने घर से करे। इसलिये खास कर अपने स्वामी को हो उसने इस विषय में विशेष उपदेश किया है. पराई नारी को अपनी बहन समझो बेटी समझे उसे बेन कह कर बुलावो। जो लोग स्वार्थ मे अन्धे होकर आपस में छुरिया चलाते हैं उससे रूपादे को होने वालो वेदना अपार है अनन्त है। चेद और स्मृति विरेधो बहुसख्यक जनता के नाथों वी ओर झुकाव की चर्चा हम पहले कर आये हैं साथ में यह भो कटु सत्य निवेदन करना चाहते हैं कि नाथ का योग सर्वसापान्य के लिये सुलप नहीं था इस बात का अनुभव निश्चय हो रूपादे ते ही कबीर से पहले किया था। इसलिये उसने इन लोगों मे भक्ति कौ ओर रुझान पैदा कले का प्रयास किया और उन्हें सत् के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया और वह घी प्रेम से स्नेह से। उन्हें बार-बार वह याद दिलाना चाहती है कि तुम “भगती” का कौल कर आये थे लेकिन उसे अब भूल गये हो। तुम्हारे भवितत और समर्पण तुम्हे भगवान तक पहुचा देंगे उसी से तुम्हारे कर्मों का नाश होगा बास्बार जन्म लेने का चक्कर मिर जाएगा इस दुस्तर भवसागर को उसी की कृपा से पार कर सकोगे। उसके मन में किसी भी व्यक्त के लिये कोई पछुपाद नहीं सभी उसके अपने उसका सभी में समभाव है ; जो व्यक्ति जागरण में चलना चाहता ऐ उसे ले जाना पथप्रदर्शन करना उसका काम है। वह कहती है यह तो मेरा काम है और लोगों से भो यह अपेशा करती है कि किसी भी प्रकार का सकोच या सशय हैन में मत रखो। अपीर गरैब उच्च-नीौच शासक-शासित सभी बराबर हैं। रूपादे का आग्रह है कि समता के समद में मन को थो लो तुम्हें सब अपने लगने लगेंगे। समता समुद्र में मन घोने से बह शुरूचुद्ध सशय रहित होगा और उसका कारण भी है कि सभी जीव उसी एक ही परमात्मा के अश हैं जिसने इस सृष्टि की रचना की है किन्तु मनुष्य के मन वा आवरण उसे इस बात का ज्ञान नहीं होने देवा कि उसमें और अन्य व्यक्तियों में कोई श्रेद है। मन का आवरण हंटेगा दी बृत्तिया अन्तर्मुखी होने लगेंगी मन का शुद्धोकरण होना शुरू होगा। जिसका मन शुद्ध हुआ जिसको अन्तर्दृष्टि शुद्ध हुई उसके लिये पर्दे को क्या जरूरत हे। शुद्ध दृष्टि और शुद्ध मन वालो औरत सिंह सुता हो जाती है ससार उसका चुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा। परन्तु नाते के सम्बन्ध में ठसने एक बात बहुत स्पष्ट रूप से कहीं है [कि उसका समर्पण पहले उसके पति के चरणों में होना चाहिये। उसकी मान्यता कि “सरजनहाए” भी पति समपेण के बिता प्रसन्न नहीं होगा और यह समर्पण निश्चय ही मानप्तिक है क्योंकि रूपादे पति पलों में आत्त्मा के दाम्पत्य भाव का अनुभव करती है और इसीलिये वह यटा तक कह गयी कि खो पुरूष में पति पलो में कोई भेद नहीं ) उनको आत्मा का दाम्पत्य भाव अमर रहता है आवश्यकदा शेती है अपनी अन््तर्दृष्ट से उसे पौजने को उसका अनुभव करे की। श्ग्ड राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ सुख और दुख में मन को स्थिर रखकर वह स्वय अपने लिये मोक्ष नहीं चाहती केवल स्वय की जीवन्सुक्ति कौ वह अभिलापिणी नहीं है वह सारे ससार को मुक्ति दिलाना चाहती है यहा रहने वाले या तो उसके भाई हैं या बच्चे हैं या पिता समान हैं। वह अपने निंदकों को सुधारया चाहती है इसलिए सब कुछ सहन करती रही है उसे तमाम पापियों को पुण्यवात् बनाना है हर जीव को पाप पुण्य के बीच उसके स्वरूप की निज पद की पहचान करानी है। सारे ससार का कल्याण करने के लिये वह समर्पित है कृत सकलप है कटिवद्ध है। नाथों की दुष्कर योग साथना में प्रवृत्त होने वाले और “अकाल सन्यास्तियों की सख्या में वृद्धि करने वाले बहुसख्य लोग जब स्वय को उस साथना के लिये असमर्थ पाने लगे ऐसे समय में रूपादे ने उनका भक्ति की ओर रुझान करने का प्रयास प्रारभ किया उन्हें नुगयय से सुगरा बनाना शुरू क्या। उन्हें जन्म मरण का भय दिखाकर सत् के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित किया। उन्हें बार बार स्मरण कराया वे एक ही परमात्मा के अश हैं इसलिये सभी समान हैं चाहे वह किसी जाति का हो किसी पेशे का हो चाहे वह स्री हो या पुरुष हो भगवान् के दरबार में सब समात हैं। समाज के अधिकाधिक लोगों को उसने इस मार्ग पर चलने के लिये श्रेरित किया उनमें भक्ति और भ्रेम की ज्योति जलाकर। समर्पण और भक्ति के बल पर उसने कहा कोई भी व्यक्ति “जीवन्मुक्ति पा सकता है उसके लिये और किसी ज्ञान की नहीं. स्वय को जानने की जरूरत है. अपने स्वरूप को पहचानो। उसने पर्याय से सारे ससार का हित करना चाहा है उन्हें अलख के पद तक पहुचाना चाहा है जो भी उसे मिल गया वह उसका अनुयायी होता गया जो जो वर्ण विशेधी थे जो आश्रम विशेधी थे उसके समर्थक हो गये। शाख्र और सनातन हिन्दू धर्म ने जितर उपेक्षित तिरस्कृत दलित और शोषित समाज का स्वीकार नहीं किया उस वर्ग को रूपादे ने अपने गले लगाया वह उनमें घुल मिल क्या गयी वह उनकी हो गयी। उसने स्वय के मोक्ष या मुक्ति की उतनी परवाह नहीं की जितनी हजायें लाखों लागों के उद्धार की। योगी केवल अपना उद्धार करता है सन्त लाखों लोगों का जीवन सुधार कर समाज को शुद्ध विवेकशाली नीतिमान्, सुजन और सहदय बनाता है। इसीलिय “रूपादे रूपादे से सन्त रूपादे” हो गयी। आज जिन क्षणों में रूपाद पर विचार करने का हमें सुअवसर मिला है उस समय को देखते हुये रुपादे के आदर्शों का अनुकरण हमारे लिये और अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। समाज के शोषित और दलित और पिछड़े वर्ग के उद्धार के लिये मात्र आरक्षण कर सल्तुष्ट होने को शासक-वर्ग की श्रवृत्ति के लिये रूपादे चुनौती है। वह मारवाड की स्वामिती थी मल्लीनाथ स्वामी थे। लेकिन सता और भोग को छोडकर उन्होंने दलित उद्धार का जो आदर्श प्रस्तुत किया क्या वह हमारे लिये अनुकरणीय नहीं है ? इसीलिये रूपादे के गुरु उगमसी भाटी कह गये हैं-- रूपादे की अमृतवाणी १०५ जिण करणी मालों रूप़ादे सीज्चा। ओ पथ थे हलावो म्हाया भाइडा॥ (१६ सन्दर्भ १ कावेद १ /१२९ ३० द्विवेदी ग्रधावली पृ २२९ २ वही १/१६४ ३१ वही पृ २३० ३ द्िवेदी अन्यावली घाग डपू २०९ ३२ वही पृ. २१७ डे वही पू २७ ३३ वही पृ २२१ ५. नाथ और सन्त साहित्य पृ ५१ ६. ट्विवेदी ग्रधावली पृ २०६ ७ ऐपोर्ट पर्दुमशुमारी शज मारवाड़ पृ २४१ ४६ <. वही पृ २४६ ४ट ९ वही पू. २४८ ५१ १० वही पृ २५२ ११ वही पृ. २५३ १२ कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स आफ राजस्थानु पृ ५८ १३ परि २/१७ ९४ परि २/१३/५७ १५. परि. २/१२/६७ १६. मरुभारती जुलाई १९८० पृ ५४-५६ १७ चारण साहित्य का इतिहास पृ २६ १८ वही पृ ५६ १९. मछ््मासती जन ६४ मेघवालों के मृत्युगीत ३२ परि, १/३६ २१ वही २/१७ २२ माधव ग्न्धावली पू १५१७ २३ १३ कास्ट्स एण्ड ट्राटब्स आफ राजस्थान पृ. ५६ २४ नाथ और सन्त साहित्य, पृ २ २५ वही पृ ४५ २६ ट्विदी अथावली पृ २२३ २७ नाथ और सन्त साहित्य पू २७५ २८. द्विवेदी ग्रधावली पृ रड६ २९ नाथ और सन्त साहित्य पृ ३९ ९९ इड नाथ और सन्त साहित्य पृ ३१५ ३५. द्विवेदी ग्रधावली पृ २३९ ३६. नाथ और सन्त साहित्य, पृ २६९ ३७ वही पृ ३ ६ ३८ वहा पृ ३४१ ३९ वही पृ ३४३ डंडे डे बही पृ १९९ २०० ड१ वही पृ २०१ ४२ वही पृ २०६ २०७ नाथसिद्धों की बानिया दे. प्रृथ्वीनाथ परि २/१८/१८ वही १/२४ चही २/१८/२५ वही २/१२/टेर ड८ वही २/१८/२ ४९ वह, २/१८/२३ ५० बही २/१२/११ ५१ वही २/१३/४३ ५२ बही २/१२/५२ ५३ वही २/१४/९७ पड वही २/१२/२ ५५. वही २/१३/५८ ५६. वही २/११ (उग्मसी कृत) ५७ चही २/२ ७८ टविवेयी ग्रधावली पृ ३५६ ३५८ ई कई ४5 ह्४/७० १०६ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ ५९ परि १/२/१ ९० वहीं १/९/५ ६० वही, १/१/१ ९१ वही १९/९/४ ६१ वही १/१/४ हर वही, १/१९/१ ६२ वही १/३/१ ९३ बी १/१९/३ ६३ परि. १/९/२ ₹४ यही १/१७/५ ६४ बही, १/४/१ ९५. वही १/१९/२ ६५, खही ९/१६/१२ २९६. वही १/६7२३ ६६. वही १/१६/३ ४ ९७ वहों, १/६/१ ६७ वही, १/१६/५ २९८ वहीं १/२४/१ ६८ वही, १/२१/१ दर कही १/१८ ६९. वही, १/२१/४ ३ ० वही १/१५/१ ७. वही, १/२१/३ १०१ वहीं १/९५/१ ७१ वही १/२१/५ (६०२ वही १/१५ ७र वही, १/२५/१-५ १०३ वही १/१२ ७३ वही १/७/१ १०४ वही, ९/२७ ७४ वही, १/७/२ १०५ वही १/१० ७५. यही, १/७/३ ४ १ ६. वही १/२८ ७६. वहीं, १/१३/३ १ ७ वही १/१७ ७७ वही, १/१३/४ १ ८ कही, १/२० ७८ वही १/१३/४-५ १ ९. वही, १/२७ ७९ वही, १३०४३ ६६४० घी, १४२ <. वही, ९११४१ १११ फरि २/२ <१ यही, १/१४/३ ११२ वहीं १/२९ ८२ वहीं, १/१४/३ ११३ वहों १/२९ £३ यही, १/१४/४-५ ह१४ वहीं, १/२३ ८४ बही ६/१०४/३३ ११५ वही १/२६ ५५. वही, २/१३/४८ ११६, वही, १/२६ ६. वहीं, १/११/१ ११७ द्विवेदी बदावली पृ. २६६ ७ परि १/११/२ ११८ फरि ₹/२९ <. वही, १/१ /४ दर वही २१९ ₹. वही, १/५/४ ३९२ रूपादे का पाव्वियां तिलवाडा 292 ४७४४ बू४ # डे. 8४४ | ६3६ 20%) 2658 ॥2थ0 (& 2008 ०88६ 2६६ २७४७ ४४:३०७ (6 "0 42% ऊँ हि ्क! रन दे 752 है शक न हु 26 परिशिष्ट - २ ( रूपादे की रचनाएं ) (श) सिमरू देवी सगत सारदा गुणपत लागू पाव गजानद देवा हे जी ॥ सतगुरु आया पावणा जरमर बरसे मेव हीण जल लागा हे जी..॥ है ऊडा जल़ री माछली रे मुख में बालु रेत अथग जल भरिया हे जी-_॥ सतगुरु आया पावणा_ बैठो कालु कौर जल में जाकी जाल हिमाजल हाल्या हो जी.) सत्तगुरु आया पावणा_ आमी सामी मदर मालिया बिच में तरबोणी बालो घाट मालिक थरि सरणे हो-जी॥ संतगुरु आया पावणा। गोली लगाई गुरु ग्यान री रे कायर भाग जाय सूरा नर हठमा आवे हो... जी सतगुरु आया पावणा..। 'णणी रूपा री विणती गावों नी माजल रेण। जमा में हालो हो- जी॥ सौजनय रेखा सोनार्थी, भारतोय लोक कला मडल उदयपुर (२) हालो ये नगर री सथा गुरु बदावों हाला गुरा ने बदावा माणक मोतिया प्रेम रा निम्माण वण वाप्या भारों सेवा आलम जो आया है प्यारा पामणा॥हालो... १०८ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणों रूपादे और मल्लीनाथ पहला जुगा में प्रज्ञाद आया शणी ये रतनादे काकड बादिया॥हालो_ दूजा जुगा में राजा हरिचद आया राणी वारदे काकड बाधिया ॥हालो_ तौजा जुगा में गुणा जंठल आया राणी द्रोपदी काकड बाधिया ॥हाला_ चौथा जुगा में राजा बल्लोचद आया राणी ये सज्या दे काकड बाधिया॥हालो_ घारी जुगागा मंगल राणी रूपा गाया पोंचा हता नावा मारबार॥ सॉजनय रेखा सोनार्थी, भारतीय लोक कला मडल ठदयपुर (्े देवरा में देव मकाजो अल्ला जुवाला में साई खड़क सम्ब भाई आप विराजे राम जहा देखू साई जागो म्हागा जूनी कला रा साई भांड पडो भंगता रे हेले भीड़ पडीया सादा रे॥ हेले आबो सघट मेहवे साई, म्हारा जूगी कला रा साई। भड ठठ मालजी कोपीया कठे गिया ओ रूपा राई॥ बागा में गई रामा फूलडा लो भाई फुलडा वो चुन चुन लाई॥ जागो म्टारा जूनी कला शा साईह पेलोडो बाग द्वुदाजी रे मेडते दूजो मडोवर माई है। तौजोडो बाग वासगजी री बाडीया चौथो मेवा में नहीं जागो मारा जूनी कला रा साई॥ झुठाली राणी झूठ मठ बोल हावछ बोले थे काई। शक धारू वटे जमो जगायो देखीया जमा रे माई। जागो स्हॉय जुनी कला रा साईआ भाला री अणी से सालू खीचोयो फुल बिखर गया ताई। माक फीड नाव घाल दे ढाल बदूक चरणा में मेलीया पावा ता आ लगाया ताई जागा म्हारा जूनौ क्लाश साईं ॥ नाक फोड राणी नथ जो घाल दे खो (सो) चीया कये जग रे भाई। म्हारा जूनी कला ये साई॥ आगे सत अनेक उबारीया एक माल रो कोई दोई रिशिष्ट.. १ (रूपादे की रचनाएं) है कर जोडो णशणी रूपादे बोले सत अमरापुर ताई। जागो म्हारा जूनी कला रा साई॥ (४) सतगुरू मारी नाव हा रे धिन गुरु म्हारी नाव भरोसे आपे हालो हो.ढ सतगुरु म्हारी नाव॥ पहला जुगा में पैलाद आया लऐ रहना दे नए राम रे लोरे रतना दे नारा राणी रतनादे नेम झेलिया शम रे पाच करोड़ वारों लार भरोसे आपरे-॥ दूजा जुगा में हरीचद आया लोरे तारा दे नार राम रे लारे तारदे नार। सणी ताशदे नेम झेलिया सात करोड वारी लार ग़म रे सात करोड वारी लार। भरोसे आपरे_ -॥ तीजा जुगा में जेठलु आया लोरे दरोेपदा नार रामरे लारे दरोपदा मार। राणी दरोपदा नेम झेलिया नौ करोड वार लार राम रे नौ करोड बारी लार। भरोसे आपरे . -॥ चौथा जुगा में बलीचद आया लारे सजादे नार रामरे लोरे सजादे नार॥ राणी सजादे नेम झेलिया बारा कगेड वारी लार। राम रे बास करोड वारो लार॥ भरोसे आपरे. _ । पाचा हांता नवाबखा बोलियो रूपादे नारा राम रे लोरे रूपादे नार। राणी रूपादे नेम झेलिया देंदीस करोड वारी लार ग़म रे तेंतीस करोड वारी लार॥ अगेसे आपरे ... . ॥ सौजन्य रेखा सोनार्थों, भा लोक्मडल उदयपुर ४ १ (रूपादे की रचनाए) १११ बोली ए रूपों रे बाई उगमजी री चेली ए। गुर रे पस्ताप सूआ अमरपुर में खेली ए॥ सौजनय प श्रीवत्लप घोष, सुगघ गली ब्रह्मपुरी जोधपुर (७) अब घर आवो म्हाग्र हौरा ये बोपारी ओ अब घर आवो। अब घर आदो म्हागर लाखा रा बोपारी ओ उन्बोडी जोक थारी बाटडी॥ गाय दुवादू थरि चालरी ओ बोपारो दुघए घोव्पडुल्ी, पद रे 0 अब घर _॥ भैंस दुवादू धरे भूरही ओ बोपारी माय गुडली रदाडुली खीर रे॥ अब घर... चावल रदाड़ू थरि ऊजला ओ बोपारी माय मसुरीया खाड रे ॥ अब घर_। लापसी रदाडु थरि सोलमी ओ बोपारी माय लिलगैया नोरेल रे॥ अब घर. पोलो पोवाडू थरि पातली बोपारी ओ हररोया मूंगा री दाल रे॥ अब घर... ऊचा रलाऊ थार चैठणा बोपारी ओ तैवन तीस बतोस। अब घर_ _ । तुलसा रे कीया रे णणो रूपा देव बोल रे भाटी ने उगमजी री चेली रे॥ अब घर आवो म्हागा होगा रा बोपारी_! सौजन्य॑ रेखा सोनार्थी, भालोीकमडल उदयपुर शजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ (८) सेवी ले सुडालो रमा गुणपति देव। सेवी ले सुडालो हो जी रे॥आ माता रे क्हीये जेना पारवती पिता सकर देव। सेवी ले... शत ने सिंदूर तमने सेवा चढे कठे फूल के री माला॥ सेवी ले- केडे रे कटारी बाकडी हाथमा तिसूल फरसी वालो ॥ सेवी ले- कान मा कुडल एने जग़मगे माथे मुगट मोत्रीवाली ॥ सेवी ले._ कहे रे रूपादे सुनो भव गया तमे प्रथम पाटे पधारे ॥ सेवी ले- सौजन्य वीरसिंह हरिसिंह घौहान गिरिशञ" ४५ दिग्विजय प्लॉट जामनगर (९) ओ जी रवल माला ! आदल खोजो तो माइलाने जाणजों हो रे हो जी। ओ जी रावल् माला । ग्यान रे होणा वाकु गुरु नव करना ओ जी सुरती वीना कैसा चेला हो! रावत माला॥ ओ जी शवल़ माला ! कोई दोन दाठ्य ने कोई दीन भोग हो रे औओ जी कोई दोन बालुडा ने वेसे हो! रावल माला॥ ओ जी ग़वल माला ! पारकी वस्तु मागी नह लेना रे। ओ जी अर्थ सरे तो पाछी देना हो रावल़ माला॥ ओ जो शावल़ माला ! अखर नारो रे वाकी संग नव करना। ओ जी ठाकु हाथ जोडी ने दूर रहेना। हो गवल माला। ओ जी शावत्न माला । पराई बेटी को जननी करी जाणना। ताकू बेनी रे कहीने बुलावना हो। रावल माला॥ जी णावल माला । गुरुने प्रतापे सतो रूपादे बोलीया। जी ओ वे बोल्या छे अगम जुगनो वाणी रे॥ हो रावत माला_। साजन्य.. मुरथा जीवनसिंह राठौड़ जामनगर ञे ञे परिशिष्ट १ (रूपादे की रचनाएं) श्श्३ वाणी रूपादे जी की (१०) बात करे परब्रह्म री पैंड देय एक नाय! रूपा कहे रे भाइयों किण विध स्थाम पिलाय॥ सुख में ब्रह्मग्यानी रहे दुख में देवे रोय। बाई रूपा यों कहे भलो कदेई न होय॥ दुख ने दुख समझे नहीं सुख सू हरख न होया रूपा कहे ससय नहीं जीवत मुक्ति जोय॥ सतसगो सीधा बजे और मन जो उलटो होय। औरों रे एक जूत है वरि पडसी दोय॥ धोमा चाले हस ज्यू, कहे कोकिल ज्यू बैण। काग श्रसटपण ना करें सीतल ज्याण नैण॥ आप तो सुधरया क्या भला लाखों दिया सुधार। कहे रूपा उण सतरो में सेवक बारबार॥ मानपदेसग्रह भाग ३, पृ. १०५ (११) रूपा कहे रे भाइयों ओ रूप रुले ज्यों काचा। रूप लोभ में मत रुलो दूढो साहब साच॥ पड़दे में वे रेवसी जिहि जग गे डर होय। सिंह सुता चवडे फिरे काल न खावे कोय॥ सिंहणी बधी जो ना बचे बाधे किता दिन रहेत। साथो प्रेम म्होरे स्याम सू, जग सू किसडो हेत॥ जम म्हासू अल़गो नही में हू जग रे पाय। फिर पडदो किण बात रे ओ अचरज मन आय! मन में तो पडदों नहीं अग पर पड़दो होया रूपा कहे रे भाइयों ओ गुण ता करे न कोय॥ मानपदसग्रह, भाग ३ पृ १०६ श्श्ड शाजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ (१२) कहे रूपा हो मालजी मन में धारों धीर। आप धणी सिर ऊपरे और सब बाप ने बीई॥ एक तुम हो करतार हो एक है सरजनहार! दोया ने कर जोडवू कर दौजो भव पार॥ दीन बधु परमेस सो था बिन राजी न होय। इण सू मैं अरजी करू धासू हटू न कोय॥ रूपा सत सू बीणवे सत राखो जय माय। सव सू आगे ई ऊबरिया फ़िर ऊबरे पल माय॥ मानपदसग्रह भाग ३ पृ १०६ (१२३) हा रे वीणा भर नारी माय एक है हो जी कोई दूजा मत जाणों ॥ नर नारी. ॥टेर॥ हा रे बीरा सव रे मारग कोई हालिया हो जी जिके जाणे पियाणों। कायर काम नहीं जाणसी हो जी भूला हो भरमाणों॥ हा रे बीस जिण कारीगर जगत घडयो हो जो जिण रो अजब कमठाणौ। सीई बिशजे सबरे बीच में होजी देखो अधर ठहयणों॥ हा रे वी सगलो ब्रह्मड फिर देख लो हो जी दूजो कोई निजर नी आणो! जिण पायो जिण पावियों हो जी सूतो नीद जगाणों॥ हा रै वीर भ्रेलो रेवे पण नहीं मिले हो जी जो कोई भिले सो उठण में भिल्े हो जो आप कहीं आणों ना जाणों॥ हा रे वीरा गु# उगमसीजी भेंटिया हो जी उलझयों ही सुलझाणो। बाई रूपादे रो बीनती हो जी ओ ही साचों परियाणों ॥ मानपत्सप्रह, भाग ३ पृ १०६ (१४) हा रे वीग जाल सभी यह आपसे हो जी दोस कवन को दीजे। आप समझ लेवे आपने हो जी मन मायतों पठोजे॥ हा रे बोग अपणों खुसोसे दोन भयो हो जौ नाना प्रपय रचाया। परिशिष्ट १ (रूपाद की रचनाएं) ११५ मन मायलो मान्यो नहीं होजो फिर फिर गोता खाया। हा रे वोग समय सेरी है साकडी होजी जिण में दोय नहीं मावे। एक होय जद चालसी होजो दोय रया अलुझावे॥ हा ऐे घोत अपनी इच्छा से अनत भयो होजी नाना कर्म कर लौना। खेल रखच्या इच्छा मायने होजो अखिल ब्रह्मड रच दौना॥ झ रे वोश आप हिरण आप पारधी होजी आप ही जाल बिछाया। है तो आप दूजा करे होजो खेल विकट यह थधाया।॥ हा रे बोर गुरु रे ठगमसी जी भेंटिया होजो जाल निजर जद आया। बाई रूपा ओलख्यो आपने होजो जाल सभी निमठाया॥ * मानपदसप्रह, भाग ३ पृ. १०७ (१५) जी रे वीणा सगत करी साचे सत री हो जी म्हाने साच बताया। सगत करी साचे सत रो हो जी ॥टेर॥ जो रे वीर समइया नहीं बड बड बकया हो जी सबद क्या मन आया। समझ गया जद चुप होया हो जी चरणा में सीस नवाया॥ जी रे वीसा सग ही मोती निपजे हो जी समदा सीप रलाया। स्वाति बूद रो सग कियो हो जी मूंगे मोल बिकाया॥ जी रे बोर मन मुडदा ममता मरी हो जी आसा रो सीर सुकाया। घर में; ठडाल हुए रण हो जी चहु दिस सूर ठगाया॥ जी रे वोणश समता समद में मनडो घोवियो हो जी सबद मसाला लगाया। मन घुप क्रम सब गल गया हो जी ध्ध्् डूजा निजर नहीं आया॥ रद राजस्थान सन्त शिश्षेमणि शणी रूपादे और मल््लीनाथ जी रे वौय गुरु रे उपमसीजी भेटिया हा जी मायले रे माय जगाया॥ केले रूपा माय जागिया हाजी आवण जावण मिटाया ॥ मानपदसप्रह, भाव ३ पृ १९०७ ९०८ (१६) जी रे वीय ज्यरि मन में विरह नहीं हो जी ज्यारें धूढ सो जीणो। ज्यरि मन में विरह नहीं होजी ॥टेर॥ जो रे बीरा ऊपर भेख सुहामणो होजी ग्ेरू सू रगम लीनो) आप अगन में जलियो नहीं हो जी होय रयो मति होणो॥ जी रे वीग विरह सहित साधु होया हो जी जिका सिर धर दीनो। मरणे सू डरिया नहीं हो जो मग में मार्ग कीनो॥ जो रे वीश विरह होय भारत लडगा होजी पाछा पग नहीं दीना मतवाला झूमे मद भरिया हो जी गर्ग भर प्याला पीणा। जो रे वीय गुरु ठगमसी साधु मिलया हो जी जिका मन कौंया सीण'। बाई रूपारी घीनती हो जी परगट निज पद चीणाश मानपदसग्रह, भाग ३ पृ १०८ (१७ सुणो म्हाए भाइडा रे अपणों जग माही ओ हीज काम) समझ ने समझासा हे निज देस दिखासा हे। लामा गुय से सैन माही हे हा ॥हर॥ परिशिष्ट १ (रूपादे की रचनाए) ] चालो म्हार भाइड़ा रे आपा सतेरे जुमले माय। जागने जगासा हे आसी ज्याने मार्ग ले जासा हे ॥ सुणो मगर भाइडा रे निंदक ने ई लेसा सुधार। अपणो बणासा हे अपणो माय रल़ासा हे॥ जग में म्हाण भाइडा रे अपणे बैरो न दोसे कोय। सब रा सहणा हे कुछ सुणना ने कहणा हे॥ पाप्या ने म्हाश भाइडा रे पुनवान कर लेवो सग माय। जावण ना देवा हे साची सैन लखावा हे॥ किसो म्हाग भाइडा रे जग में पुन और पाप। जीव तिरासा हे निज रूप बतासा हे॥ हाथ में आयो हे भायो जीव अब खाली न जाय। आये ने तिरावा हे जग सू पार लगावा हे॥ गुरुजी उगमसी हे मिल्या म्हाने मगडे रे माय। ओ काम सिखायो हे निज देस दिखायो हे॥ बोलिया रूपादे हे मालजी रे घर री नार। मन माही म्होरे हे जग ने पार उतारे हे॥ मानपदसप्रह, भाग ३ पृ. १०८ १०९ (१८) थै मानो म्हारा भाइडा रे समझने चालो म्हारा लाल भव दुख भागे रे थारा भव दुख भागे रे। पिलाऊ सुदर स्यामसू रे हा ॥टेर॥ चालो म्हाग भाइडा रे आपा सत रे जुमले माय। मिलने गास्या हे उठे मिलने गास्या हे॥ वीनू दुख मेटा रे चालो आपा गुर रे दरबार। मन ने समझास्या हे मायले ने समझास्या हे॥ भाया नुगरा मत रहीजो रे रहीजो गुरारा सपूत। कपूत पणो त्यागो रे कपूत पणों त्यागो रे॥ नुगुरा पुरुसा रो रे भाई तज दीजो सग। थाने कठ लगावे हे थाने कठ लगावे हे॥ राजप्यान सन्त शिशेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाय गावों म्हारा भाइडा रे आपों विर्ह शा गीत। हरि मिल जावे हे जिण सू हरि मिल जादे हे ॥ केवे यू रूपादे रे थाने सत रा बैण। बैण म्हांग सुणजो हे भव पैला तिस्जों हे॥ मानएदसग्रह, भाग ३ पृ ९०९ (१९) रावल़ माल हुय जाव साध सुधारों थारी काया हो जी। थाने बार बार समझाऊ म्हागा घोरी कथा। हुये जाचो साध झोणोडे मारम चालो हो जी ॥टेर॥ मालजी ओ सप्ता: अथग जल भरियों हो जो बैंरे तेरडो पार न पायो॥ रावल_ मालजी साबू माय ताव सायर बिच बेडी हो जी। चैने कुण उतारे पेले पारा रावत... मालजी काया में कूड काठ में करोती हो जी। वा वो आवत जावव रैवे ॥ रावल_ मालजी रूप देख मत मन ने डिगाओ हो जी। देंगे फल चाख्या पछतावो॥ रावत मालजी काया कूपली ने मन कसस््तृती हो जी। वा पर जर्णा रो ढकण दीजे॥ रावल_ मालजी पैले री नार जननी कर जाणों हो जी। चैने बैनड कहे बतलाओ ॥ शवल_ मालजी पैले ये वस्तु माग कर लीजे हो जी। काम सरिया पाछीो दौजे ॥ रावल_- मालजी नुगरे माणस रो सग मत कौजे हो जी। वो तो आप दूबे नै डुबावे ॥ रावल._ मालजी वालर खेत बीज मत बोवौ हो जी। देंऐे हासल हाथ नहीं आवे॥ शवल_ मालजी घर रो खाड कडकडी लागे हो जी! गुड चोगी रे मीठो ॥ रावल_ परिशिष्ट १ (रूपादे को रचनाए) ११९ मालजी नीम जखारे नीमोलो वेंरी मोठी हो जी। विप्त अपृत कर डागे॥ रवल_ मालजी रूपे हदी नाद सोने हदी सैली हो जी। बोलिया रूपादे ठगमसी री चेलो॥ रावल- + मानपदसग्रह् भाग हे पृ ११८ (२०) हा रे वीग़ किण ने केऊ रे भेद नहीं जाणे रे जौ। ओ तो स्वार्थ छुरिया चलावै रे लालजी। किण ने केऊ रे ॥टेर॥ हा रे बोस सारी सारी रात ओ जुमा रे जगावै जी। ओ तो लबी जोत जगावै रे लालजी। बाहर प्रकास उजालो नाहीं माही रे जी। ओ तो ब्रथा ही रात गमावै हो लालजी॥ हा रे बोरा भागे नोरेल़ चूरमा चूंरे रे जी। ओ तो होड़ा होड़ सू गावै हो लालजी। नाजे तदूरा मजीरा गहरा रे जी। थारो मायलो भ्रम नहीं जावे हो लालजी॥ हा रे वीणा सिध रामदेव भाई म्हारे भेव्ये रे जी। ओ तो कूडा कलक लगावै हो लालजी। रामे री करणी जगत सू न्यारों रे जी। कोई करे तो पार हो जावै हो लालजी ॥ हा रे वीरा परचे पीर परसे सोई होवे रे जो। ओ तो बिन परस्था किम पावे हो लालजी। बोलिया रूपादे ठउगमसी री चेली जो। समझे जिके नर आवै हो लालजी॥ फिण ने केऊ है भेद नहीं जाणे हे जोक + यानफदसग्रश, भाग ३ पृ १२११ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणो रूपादे और मल्लोनाथ रूपदे की वाणी (२१) हर थारी बाट जोदा ओ निकलक राजा बेगेगा थे घरौ पधारजों रग डोर डारी बाधी। में सत वचना री नाथी हर थारी बाट जोवा ओ आलम राज बाट थारी जोवा ओ ॥ठेरा कैय नै थे गया था दिनडा दोय न॑ चार जुग नै चौथों रे कोई भव नो दूजौ रे अरे सामी राजा बरतियों॥ १॥ करू म्हाय सायबा जोगणिया रा रूडा वेस जोगण होय ने ने वैरागण होय ने रे जुग सारे दूढ़ लू॥ २॥ करू स्हाए सायबा मालणिया शा रूडा बेस मालण होय मैं रे फूल मालण होय नै रे गूथू हर है सेवश॥ ३॥ लिखू म्हाय सायबा कागदिया दोय नै च्यार भंणिया हुवी तो रे कोई गुणिया हुबो वो स्वामी राजा वाचलौ॥ ४॥ करू गहरा सायवा घोडले जीण पिलाण उत्तर धर में रे कोई पिछम था में रे कालींगे ने हरली ॥५॥ 3भी स्हारा सायबा सस्बरिये री पहली तौर नैण झगेदे रे कोई बैण सरोदे रे हर थारा साजोया 0६४१७ बोलीया रूपादे मालजी रै घर री नार भव भव ग्रेलो रे कोई जुग जुग मेलो रे। मेला गरव॑ देवोरें रे ॥छ # सौजन्य डा. सोनागम विश्नोई, बाबा शमदेव पृ ४५२ ५३ परिशिष्ट १ (रूपादे को रचनाएं) १२१ (२२) चावर नोज शा जमौ दिरावौ रूडा रूडा साथ बुलावौ। रावल माल हुय जावो सुथारे थारी काया ॥टेर॥ ऊड़ा ऊंडा नौर अथग जछ भरियो। केझडा नै थाग नहीं आयो ॥१॥ रावक्ू- मालजी तालर खेत बीज मत बोबो ज्यागै हासल हाथ नहीं आबै ॥२॥ खबर. भालजी काया कूपलो मन कस्तुरी जरणा ढाकण दोजो ओ राज ॥३॥ रावक्ू_- रूप देख मायले ने मती डिगावो ज्यार गुण देख्या पिछवावों ॥र४॥ रावकृ_- खारे नीम नॉंबोली मौठो पेरी पेरी रस न््यागे ओ राज ॥५॥ रावछू_ काया में कूड काठ में करोती आती जाती रेचे ओ राज ॥६॥ रावक्र- म्होरै भाइडा री नार आगणिये में ऊभी ज्याने बहनड कह बतलाओ ओ राज ॥७॥ गवछ.. नुगरे माणस रौ संग मत कौजौ वो तो आप डूबे औय ने डुबावे ओ राज ॥८ ॥ रावब्ठ_ मालजी खाड कडकडी लागै गुड चोरी रौ मौठौ ओ राज॥९ ॥ रावछ_ रूपे हदी नार सोने री सैली बोलिया है रूपादे उगमसी री चेली ॥१०॥ रावक्क_ सौजन्य डा. सोनाराम विश्नोई, बाबा रामदेव पृ ४५३ ५४ (२३) औक घडी थू भ्हारै सामो भाव गिरघर म्हारा रे। अबला है आतगेधै बेगौ आव गिरघर म्हाग़ रे॥ टेरा॥ १२२ राजस्थान सन्त शिग्रेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ आयो रै आयौ सिरियादे रो वेल गिरपर म्हाश रे। जलतोडी नाहवा में मिनिया ठबारिया॥ १॥ आयौ रै आयौ पहलादे री वेल गिरघर म्हाग रे। जलतोडी होली में पहलादे ने तारिया॥२॥ आयो रै आयौ टींटोडी सी वेल गिरघर म्हागा रे। भरिया रे भारत में झड़ा तारिया॥३ ॥ आयौ रै आयौ पाडवा री वेल गिरधर म्हाश रे। लाखा रै महला में पाडु वारिया॥४ड॥ आयौ रे आयौ द्रोपदा री वेल गिरघर म्हाया रै। कोई भरी रै सभा में चीर बढाविया॥५॥ आयौ रै आयौ रूपादे री वेल गिएथर म्हारा रे। सोने री थाव्यी में बाग लगाविया॥६॥ गावै रै गावै रूपादे रावव्ूजी रै घर री नार। सुणिया ने साभव्ठिया भव जछ् उतरूया पार॥७॥ सौजन्य डा. सोनाराम विश्नोई, बाबा रामदेव पृ ४५४ (२४) मंदी मंदी दिवलै री लोय म्हारा बीयर रै दिन की ठगाव्यी हरीजन मिल्या ॥टेर॥ सुगय से करणा सनेह म्हारा वीर रै सुगय माणस म्हाने नित मिव्ये। नुगग़ से किसा सनेह म्हाय बौरा रै नुगरा माणस म्हानै मं मि्झो ॥१॥ बुगला से किसा सनेह म्हाय बोरा रै वन मैं बसे माटी भखे। हसला से करणा सनेह म्हार बीरा रै हसला तो मोती चुगै॥२॥ डोबलडया सै किसा सनेह म्हागर वीरा रै बरसता सूको रैवे। समदा से करणा सनेह म्हाय बीटा रै समद हथोला ले रह्या॥३॥ा कागा सै किसा सनेह म्हारा बीरा है काग कुलाटा कर रह्या। कोयल्या से करणा सनेह म्हारा बीश रै कोयल टहूका कर रहो ॥४॥ साधा से करणा सनेह म्हाय वीय रै साध सबद का पारखी। रूपादे गावे उमगजी री चेली म्टाग वो नै म्हारै गरवा को अमरापुर बासो॥५॥ सौजन्य मनोहर ज््पो, शोषपव्िका भाग ५ अंक ४ परिशिष्ट १ (रूपादे की रचनाएं) श्र३ (२५) ऊपरी म्हाग सायबा रे राम सरोवर तीर नैण संगेदे रे कोई बैण सरोदे। हर थारी बाट जोवो जियो आलम राजा रे ॥टेर॥ कह ने गया था रे दिनडे री रे दोय ने चार। कोई जुग ने चौथो रे कोई भव ने पहले रे ॥२॥ ऊभी म्हारा. - करू म्हारा सायबा रे मालण रो रूडो भेस। फूल मालण होय ने रे गृथू हरि रे सेवरो रे॥३ ॥ ऊपी म्हाग_ _- करू म्हारा सायबा जोगण रो रूडो भेस। जोगण होय ने बैशगण होय ने हर थाने दूढ लेवू ॥४॥ ऊपी म्हारा- .. लिखू म्हारा सायबा रे कागदिया रे दोय ने चार। कोई लिखिया गुणिया होवो तो रे कागज म्हागे बाच लीजो ॥५॥ ऊपी म्हाग .. .. करू म्हारा सायबा रे घोडलिये जीण पिलाण। कोई उत्तर धरा में कोई पिछम धरा में कालिंग ने मार लेवो ॥६॥ ऊमी म्हारा _ - बोलिया “रूपादे रावछ जी रे घर री नार। जुग जुग मेलौ रे हर गरवा देवरे जियो ॥७॥ ऊपषी म्हारा _ -_ सौजन्य - सुरजाराम पवार (२६) जोऊ जोऊ रे सरवरिया थारी बाट बैरागण हर रे नाव रो ॥टेर॥ डींगी डींगी रे सरवरिया थारी पातछ आववडा दिम दोय जिणा। एक म्हार धर्मिया स बार दुजोड़ा म्टारों स्थाम घणा ॥#श्ता श्रड राजस्थान सन्त शिरोमणि राणो रूपादे और मल्लीनाथ लागो लागो रे भादखे से मह्यंनो मांस रूणेचे मेव्झो हद भरे। चढिया चढिया शमदेव जी बाबो आप भगता रे कारण आविया॥र ॥ लागो लागो रे आसोज ये महीनों मास जूजाले मेलो हद भो। चढिया चढिया गोसाई बाबो आप भगता रे कारण आविया ॥३॥ लागो लागो काती रो महीनों मास कोलायत मेब्ये हद भरे। चढिया चढिया परमेसर मुनी आप. भगता रे कारण आविया॥ड॥ फूली फूली फूलोंगे फूल मात्र बागा में चप्ो केवडी। बोलिया रूपादे जी आप सत्र रे दरसन आविया॥ जोऊ जोऊ रे सावरिया थारी बाट बैरगण हरि रे बावरी॥ सौजन्य सुरजाराम पवार (२०) गुरा रा लाडा बाडी थार फुलडा सू छाई ॥टेगा इण रे बाडी में थारे मसवो रे मोगरो चदन थे पेड सवाई। आवेगा कोई संत पारखी ओ भर भर छाब लुटाई ॥१॥ पाचा में बैठ भाई झूठ मत बोल रे मत कर निंदय पराई। अएण छएण सूके एक पे, गएरी, ओर मत बाध पल्लाने बुराई रे॥र ॥ गरभ वास में कौल कर आयी चने औध मुख अगरठी कमाई) परिशिष्ट. १ (रूपादे की रचनाए) भ्र्५ वा दिन की सुधि भूल गयो रे नकटा लाज नहीं आई रे॥३॥ पहली करी जैसी अब तू करतो रे बैकुठा में जातो म्हाश भाई रे। सत के सरणे राणी रूपादेजी बोली यो सत अमरापुर ले जाई रे॥४॥ गुर रा लाडा _ _ _ सझोजन्य चोथमल पाखन” केन्रीय विद्यालय न १५ उदयपुर। (२८) घडी पलक म्होरे सामो भाल गिरघर म्हारा रे। सामो भाल अबला रे सरोदे बेगा आवजो रे ॥टेरा॥ आयो आयो पाडवा रो बेल सावक म्हारा रे। लाखा रे महला मेंऊ पाडू तारिया रे ॥१९॥ आयो आयो धने भगत री बेल सावछ म्हारा रे। बोया रे तुबा ने मोती निपजिया ओ भगवान् ॥२॥ आयो आया प्रहव्णादे रो बेल सावब्य म्हारा रे। बढ्ठती रे होछ्ो मेंऊ प्रहव्यदे ने तारियों ॥३ ॥। आयो आयो सरियादे री बेल सावशण म्हारा रे बढ्ठा रे न्याव मेंऊ बच्चीया तारिया॥ड ॥ आये आयो नरसिह भगव को बेल सावर म्हारा रे। माहेरो भरियो रे छप्पन क्रोड रो रे भगवान् ॥५॥ आयो आयो द्रौपदी री बेल सावक म्हारा रे। भरी रे सभा में चीर बढावियों रे भगवान्॥६॥ बोलिया रूपादे रावव्ूजो रे घर सी नार। म्हारी भाव री थाछ्ो में बराग लगाय दो भगवान् ॥७ ॥ (२९) फूलों जैसो प्रेम त्मेसा कौनो रहेला रे। जूठाड रो चात बटाऊ बोरों कहला रे ॥टेर॥ १२६ राजस्थान सस्त शिरोमणि यणी रूपादे और मल्लीनाथ कडवा क्डवा मोम गुड सीौचीया मीठा नहीं होवे रे। दूधथा धोया कोयला कदे नहीं अजब्ग होवे रे॥१॥ काचो तातेण तागो लियो तणियाऊ पहली दूटे रे। ओछे थरये नाडिया भरियाऊ पैली सूखे रे॥२ ॥ साथ रे घर सखणी दुब्ठ रे घर नार रे। गेइडे ने रूप दोन्हों भूल गयो किरतार रे ॥३ ॥ सोने केरी तार ने रूपा केगी सेली रे। बोलिया रूपादे गुरु ऊपमर्सिघ री चेली रे॥४ड॥ सौजन्य सुरजारम पवार, (३०) मायलो जाणै या अमर म्हाये काया हो जो ॥टेर॥ जरू बिच जलम्या ऊपर बस आकासी हो जी। वा बिच जोग बताओ अविनासी ॥१॥ घन जोबन बादव्ववा री छाया हो जी! थोड़े से जाणै खातर काई जोड़े माया॥रे॥ सोने हदा महल रूपै हदा छाजा हो जी। शज करे काया नगरी को राजा॥३ ॥ ढह गया महल बिखर गया छाजा हो जी। बिलख रहो काया नगरी को राजा॥ड॥ लोहै की जजीर में जक्ड बाध्यो हाथो हो जो। अत समै कोई सत न साथी ॥५॥ औक दूवे पर पाच पणिहारी हो जी। ओक नेजू सैं भरे न्याय न्यारो ॥६॥ सूख गयो नौर सूकण लागी बाडी हो जी। बिलखी फिरै पायू पणिहारी ॥७॥ सीतक ब्रछ की सौठछ छाया हो जी। राणी रूपादे हरी गुण गाया॥८&॥ सौडन्य हो गनोहर शर्पों परम्पत घाग १५ १६ रिशिष्ट १ (रूपादे की रचनाएं) १२७ (३१ पैला जैसी प्रीत सदा ईं कोरी रयसी रै। नैम धरम थारा छाना कोयनीं रयसी रै॥ बेठोडै रे बात बटाऊ बौरे कयसो रै। गुर सू कड़वो नौमडो क्णि विध मीठो होय रै। दूधा धोया कोयला उल्लत्य नीं होय रै। काचे तातण ताणो दणियो त्ाण्या पैला टूटे रै। साध रै घर सखणी फूहड रै घर नार रै। रोइडे ने रूप दियो भूल गयो क्रितार रै। सोने हदी नाछ रूपा हदी सैली रै। कय गया रूपादे बाई उगमसी री चेली रै। सौजन्य - प दीनदयाल ओझा, परम्परा भाग १५ १६ पृ २३१३२ (३२) सोना चादी री ईंट पडाऊ मदरियों म्होरे घारू रै आगणे। आगणिये पघारे गरुवा देव थाने मोतीडा बधाऊ ॥टेर॥ कुकू केसर की गार गव्णशऊ मदरियो निपाऊ म्होरे धारू रै आगणे॥१॥ बागा मायलो चनण मटयऊ मदरियो किरडाऊ म्होरे घारू रै आगणे ॥२॥ सुरे गायरो घिरत मगाऊ जोत जगाऊ म्हारे घारू रै आगणे ॥३॥ समदा माहली सीप मगाऊ मदरिये चौक पुराऊ म्टरे घारू रै आगणे ड़ ॥ नाई रूपारों विनती सरणे आयो ने सोय्र राख घारू रै आगणे। आगणिये पघारें गर॒वा देव थाने मोतियाऊ बधाऊ॥५॥ - सौजन्य सुरजाराप पवार १२८ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपाद और मल्लोनाथ (३३) ऊडा ऊडा नौर अथग जल भरिया जठे तेरू रो थाग नहीं लागे ओ शव माल। हो जावो साथ सुधारों थारी काया समझावे थाने रूपा बाई ॥टेर॥ पडोसिये री नार आगणिये ऊभी जिणने बेटी कह बतलावों ओ रावछ माल ॥१॥ तालर देख बौज मतों बोवो हासल हाथ मही आवे ओ रावछ माल ॥२॥ घर में गगा घर में जमुना नाडोलिये क्यों महावों ओ रावक माल ॥३॥ कहे बाई रूपा ऊगमसिंह री चेली सता रो अमरापुर में बास ओ शवक्ठ माल ॥४॥ सौजन्य सुरजाराम पवार, (३४) नर नारी माय ओक है कोई दूजों मत जाणो। सत रे मारग कोई हालिया जिके जाणे पियाणों ॥१॥ कायर काम नहीं जाणसी भूला हो भरमाणों। जिण कार्ैगर जगत जडियो जिणयरो अजब कमठाणो ॥२॥ सोई बिशजे सब रे बीच में देखो अधर ठह्राणों। सगव्झे ब्रह्माड फिर देख सो दूजो नजर न आणों ॥३॥ जिंण पायो दिण पावियों सूतो नींद जगाणों। भ्रेव्यो रेवे पण नहीं मिले ओडो है चठर सयाणों ॥४॥ जो कोई मित्र ठणमें मिव्ठे आप ना आणों जाणी। गुरु उगमसी भ्रेटिया उलसयो हा सुलझाणो ॥५॥ बाई रूपादे री बिनती ओ हो साचो परियाणों॥ सौजन्य दीकायाल ओझा, सत सुधासार मूमल प्रकाशन जैसलमेर पृ १३ परिशिष्ट १ (रूपादे को रचनाएं) १९९ ए३्फे ज्यों रे भन में विसट नहां ज्यों रे धूटड सो जीणो। ऊपर भेस सुहावणो गरू सृ रण लोनो॥१॥ आप अगन में जब्ियों नहों होय स्यो मति होनो। विरह सहित साधु हुया जिका सिर अर दोनो॥र॥ मरणे सू डरिया नहीं मंग में मारण कानों) विरह होय भारत लट्या पाऊडा पग नहीं दीना॥३ ॥ मतवाला झूमे मद भरिया रग भर प्याला पीणा। गुरु ऊगमसी साचा मिल्या जिका मन क्यो झोणा॥ड ॥ चाई रूपादे से विनदी परगट निज पद चीणा। साजन्य प दीनदयाल ओझा (३६) सुणले आगडलो सुणले पाछडली सुणलो नबचली पणियार पाणी पावो जी। कणीरो को जैथारों बेवड़ो ओ सुदर कणीरी कोज थारी डोर सुणता जावो जी। सोना रूपा रो म्होरे बबडो ओ पछी लाल रेसम रो है डोर केवता जावो जी। कादी रे माटी रो थारे बेवडो ओ सुदर सण न सुतेब्ठिण री डोर सुणता जावो जी। थागण रे घड़/ रे पाणी लागणों ओ सुदर पीजतडा मर जाय सुणता जावो जी। कणों से कीजे थारी चूदडों अ सुदर काई थारा जोबनिया ये मोल क्ता जावो जो। लाला तो जडी म्हागे चुदडो रे पछो लाख जोबरिया ये श्रेल सुणदा जावो जो । घास घूसरी चुदडो ओ सुदर फूटी कोडी शा धारो मोल सुणता जावो जा। डएगे, जाइने पाछी नाज्थियो, रे पछी. कई कई आधे भ्हा॑ लार केता जावो जी। १३० राजस्थान सन्त शिगेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ गाड़ो जो भरिया लाकडा रे पछी रेवाडी हाडी म्हारी लार सुणता जावा जो। डूगर चढी नै नीचे देखियो ओ पछी दाडा पीयरिया या लोग गाडी पड़ियो जी। मांग गेलाय नवसर हार लूटया जावों जो। आगे जाई ने नीचे मेलियो रे पछी भोग मांगे राण देता जावो जी। बाई रूपा री या विनती रे सत अमग़पुर पाया जावो जी॥आ सौजन्य डा. महेद्ध भागावत मरुभारती मेघवालों के मृत्यु गीत जनवरी १९६४ (३७) वारी जाऊ ख्यालीडा वार रै म्हारी काया ए बीय वारी रे थार करवलिया पिलाण आपा जुमले चाला रै॥टेर॥ ऊठा कै ग् घूषरा रै म्हारा बीय घुडला कै रेसम डोर जिवडा वाद रै, नारी जाऊ ख्यालौडा वारी रै म्हारों काया शा बीश वारी रै थार करवलिया पिलाण आपा जुमले चाला रै॥१॥ घुडला कै घमसाण सैं रे म्हारा बाय चढ़ो अलखजी की जान जिवडा बारी रे बारी जाऊ ख्यालीडा बारी रै म्हारी काया ये बीय वार रै थार करवलिया पिलाण आपा जुमलै चाला रै॥२॥ साथीडा का डेग बाग में म्हार मीरा गुगजी का जुमलै कै माय जिवडा बारी रै यारी जाऊ ख्यालीडा वारी रे म्दती काया ए बीरा वारी रे थाय करवलिया पिलाण आपा जुमले चाला रे॥३॥ साथीडा ने दूधर लापसी म्हाग वीर गुर जो नै गुपल्ली खौर जिवड़ा बारी रै वारी जाऊं य्यालीडा वागी रै म्हारी काया ए बीय वादी रै थार करवलिया पिलाण आपा जुमले चाला रे ॥४डआ परिशिष्ट १ (रूपादे को रचनाएं) १३१ साथीडा नै ओढण काम महा बीौरा गुराजी नै भगवा भेस जिवड़ा वाशी रै चार जाऊ ख्यालीडा वाएं रै म्टारी काया ए बीण बारे रै थारा करवलिया पिलाण आपा जुमलै चाला रे ॥५॥ बाई रूपदि की बोनती म्हास बोण, गुराजी के अवछकछ राज खिवड़ा बाण रै वार जाऊ ख्यालौडा वाए रै भ्हागे काया ए बीण वारी रै चाण करवलिया पिलाण आपा जुमले चाला रे ॥६॥ (३८) थे मानें म्हाग भाइडों रे समझ ने चालो म्हारी लाल भव दुख भागे रे पिलाऊ सुन्दर स्याम सू रे हा ॥टेर॥ चाले भ्हाएप भाइडों रे आपा मत रे जुपले माय मिल ने गास्या हे उठे मिल ने गास्या ह॥१॥ होनू दुख मेटा रे चालो आपा गुण रे दरबार भन समझास्या हे मायले में समझास्या हे॥२॥ भाया नुगरा मंद रहीजओो रे रहाजो शुरारा सपूत 'कपूतपणो त्त्यागों रे ॥३ ॥ नुगशा पुरसा रो रे भाई तज दीजो संग थाने कठ लगावे है थानें कठ लगावे है ॥४॥ गावो महा भाइड़ों रे भावों विरह शा गीत हरि मिल जावे हे जिण सू हरि मिल जावे है ॥५॥ केवे यू रूपादे रे थाने सत रा बैण चैण म्हारा सुणजों हे भ्रव पैला तिस्जों हे॥६॥ (३९) मैं धातैं बूजू भोली काया काई थे कमायो जी। नुगण से बिणज कर थे खन गमायो जौ॥ आये आमो जाण मैं त्तो आगणिए बुहायो जी। करणी हदो कूडो यो तो आक नीसर आयो जी॥ राजस्थान सन्त शिरोमणि शणों रूपादे और मल्लीनाथ मानी साना जाण में तो हाए तो घड़ायो जो। कग्णी हदो कूंडो यो तो पात्तछ नासर आयो जो॥ मोती मीत्री जाण मैं ता मय में पुकायी जी। ऋरणी हदें कूडो यो तो पाथर नांसर आयो जो॥ हसे। हसे। जाण मैं तो मोताड़ा चुगायों जी। करणी हंदों कूडो यो तो काग नोसर आयो जी ॥ गावै बाई रूपारे उगमसी से चेली जी। ग़स्वा के पस्ताप सं मैं अमणपर में खेली जी॥ (४०) आरे कायानो हिंडोलो रचीयो जगमजगी जाला खाय र॑ मायला चेती चालो भाई जा४ चेती ने चालसो वो पार लगी जाशो आ भवसागर नी मायरे मायला चेती चालो भाई जी आरे कायानो वाया वाडीनो किल्लो लुयरी आस फरके जायरे भायला चेती चालो भ्राई रे ओरे करायाने... काया बाड़ीनी हई गई तैयारी शुकन करमाया भाई रे मायला चेत्दी चालो भाई रे.आरे कामानो आलपन बचपन मा खोयो भर जोवन नी मारे मायला चेती चालो भाई रे.आरे कायानो बुद्दे थीयो हारे माला पक्डी शी गत थाय जीव दांरी रे.मायला चेतो चालो भाई र_ आर कायानी आरि मारगडे अनेक नर सोध्या वाली गणी साध केवाणा रे मायला चेती चालो भाई रे.अऐ कायानों परिशिष्ट १ (रूपादे को रचनाए) १३३ गुरु प्रतापे रूपादे बोल्या मालदे न विनती सुनाई रे-मायला चेती चालो भाई रे_आर कायानों साजन्य. थ्री क्वातिलाल जाशो आकाशवाणी भुज (४१) पीर मारी अरजुरे दाद मारो अरजुरे है सुणो ने पोर तमे रामदेवजी हो.हो जी.हो पीर तमे राखी रे गोवोब्दैया नी लाज पौर रामा रामा चनमारे वाछरू चराव्यरि होहो जी जो पोर मारी अरजुऐे... पीर तमे राखी रे नरसिंहानी लाज पीर रामा रामा हासतो आप्यो हाथों हाथमा रेहोऊो जीऊा फेर मारी आर. पीर तमे राखी रे सुधन्वानी लाज पीर रामा रामा तेल रे कडाथी उगारीयो रे होहो जीडो पीर मारी अरजुरे.. पीर तमे राखीरे रूपाबाई नी लाज पीर रामा रामा आव्या रे सकट ता उगारीया रे होहो जी पीर मारा साजन्य. श्री कास्िलाल जाशी आवाशवाणी भरुज (ड२) हुक्म हीदवा पीर लजीय' राखजो नर नकलगी अवतार लजीया राखजो छुक्म हीददा पीर लजीया राखरे तमे पाडवोनी लाक्षागृटनी माय लजोया राखज़ो लंजीया गोरे हमे नरसैंथानी मायोोनी माय लजीया... लजीया शर्खोरे तम प्रहलाद केरो स्तभमा कीधो वास लजीया शाखजो राजस्थान सन्त शिशा्माण राणां रूपादे और मल्लीनाथ मानों साना जाण मै तो हार वो घडायो जी। करणी दो कूडा यो तो पीतछ नौसर आयो जी॥ मोती मोती जाण मैं तो नथ में पुवायौ जी। करणी हटो कूडो यो तो पाथर मीसर आयो जी ॥ हसे हमसा जाण मैं तो मोतीड़ा चुगायो जी। करणी हदां कूडों था तो काग मांसर आयो जौ ॥ गावै बाई रूपादे उगमसी री चेली जी। गरवा कै परताप सें मैं अमरपर में खेली जी॥ (४०) आऐ कायानो हिंडोलो रचौयो जगमजगा जाला खाय रे मायला चेती चालो भाई जी) चेवी ने चालसो तो पार लगी जाशो आ भवसागर नी मायर मायला चेती चालो भाई जी.ओरे कायानो काया वाडीनो क्ल्लो लुटाशे आओँख फरके जायरे मायला चेती चालो भाई रे आर॑ कायाना.._ काया वाडीनी हुई गई तैयारी शुकन करमाया भाई रे मायला चेती चालो भाई रे-आरे कायानो बालपन बचपन मा खोयो भर जोवन नी मायरे मायला चेती चालो भाई रे.आरे कायानो बुद्दे थीयो दोरे माला पकडी शी गव थाय जीव ताये रे-माबला चेवी चालो भाई रे. आरे कायानो आरे माशगडे अनेक नर सीध्या ताली राणो साध केवाणा रे मायला चेती चालो भाई रे.आरे कायानो परिशिष्ट १ (रूपादे की रचनाएं) श्वे३ गुरु प्रतापे रूपादे बोल्या मालदे ने विनती सुनाई रे-मायला चेती चालो भाई रे_आर कायानो साजन्य श्री कान्ितिलाल जाशी आकाशवाणी भुज (४१) पोर मारी अरजुरे दाद मारी अरजुरे है सुणो ने पीर तमे रामदेवजी हो-ो जी.ो पीर तमे राखी रे गोवोत्झेया नी लाज पीर रामा रामा वनमोरे वाछरू चराव्यरे होहो जोजो पीर मारी अरजुरे.. पीर तमे राखी रे नरसिंहानी लाज पौर रामा रामा हारतो आप्यो हाथों हाथमा रे.होडो जी पोर मारी अरजुरे- पीर तमे राखी रे सुधन्वानी लाज पीर रामा रामा तेल रे कडाथो उगारैयो रे हो जो जीजहो पीर मारी अरजुरे_.. पीर तमे राखीरे रूपाबाई नी लाज पीर शामा रामा आव्या रे सकट ठा उगारीया रे हो-हो जी पीर मारा साजन्य. श्री कान्तिलाल जोशी आकाशवाणी भुज (४२) हुक्म हींदवा पीर लजीय” ग़खजो नर नकक्लगी अवतार लजीया राखजो हुक्म हॉदवा पीर_ लजोया गशखरे तमे पाडवोनी लाधागृहनी माय लजीया राखजो लजीया शाखे तमे नरसैंयानी मायरोनो साय लजायो_ लजीया गणशणखीरे तप प्रतलाद केरो स्वभमा कौधो वास लजीया राखजो ग़जस्थान सन्त शिग्रेमणि राणों रूपोदे और मल्लीगाथ लजीया राखार तमें भवाणारंना नीभाडानी माय लजीया लजीया राखोरे तमे सुभन्वानी तेल कडाथी माय लजीया लजीया राखीरे तमे रूपाबाईनी माणके चोक नी माय लजीया राखजो... सौजन्य. श्री कान्तिलाल जोशी आकाशवाणी पुज (४३) तारे जुनो रे अवसरीयों घेराजो रे राहोल माला जागो रे तमे जगना जुना जुना जोगी रे मालदे जीहो मालदे घेरे रे छोडाने आपणे पगे नव चालवा रे मालदे तमे घोडले बेसीने घरे आवो रे-राहोल माला जागो ने तमे_ जीहो मालदे साथुना घरमा माला चोद नव करना रे वस्तु जोइती मागी लेना रे राहोल माला. जागोने तमे_. जीहो मालदे पर रे ख्रीनो माला पालव न पकड़ना रे ऐसे बेनडी रे कही ने बोलावीये गहोल माला जागोने तमे... जोहो मालदे कडे रे कललसाहेब सुणो राहोल माला तमे रूपादे ना कर्या हवे मानो रे राहोल गाला जागोने तमे._. सौजन्य कातिलाल जोशी आकाशवाणी भुज (४४) जागीने जुओ रे जेसल शाजा मत सुवो मत क्ये काई नींदरडी छे प्योरे हा-जागीने_- पेला पेला जुगमारे नव्ठराजा सीधीयोरे... पाँच करोड देव ने वब्दीया रे हा-जागीने बीजा बीजा जुगमारे बलीराजा सीधीयारे आठ कं़रेड देव ने वल्दीया रे-हा-जागीने_ परिशिष्ट.. १ (रूपादे की रचनाए) १३५ ब्रीजा त्रौजा जुगमारे हरिशचद्र राजा सीधीयारे नव करोड देव ने वल्लीयारे.जागोने_- चोथा चोथा जुगमारे प्रहलाद राजा सीघीयारे बार करोड देव ने वल्झैयारे हा-जागीने_- ऊगमसीह नी चेलीरे रूपाबाई बोल्योरे_- मारा सतोनो अमरापुरमा वासरे-जागीने- सौजन्य. श्री कान्तिलाल जोशी आकाशवाणी भुज (४५) ब्रत रहीए अमे अकादशीना शाम शाम्र ब्रज उच्चरीये जेवा जेना भाग्य हशे ने तेवा फछ तेने मत्शे द्रत रहिए अमे अकादशौना- सुरज सामे जे एढा उडाडे पाणीया कोगव्ण जे करशे इ करणीना सरज्यो पाडशे पखाल पाणो इ भरसे द्रव रहीए अमे एकादशीना_ माथु गुथावीने सेथाओ पुरसे रावना आरोसे जे जोशे इ करणीना सरज्या वड वादरा उधे माथे इ लटके ब्रत रहोए अमे एकादशीना_ पचमा बेसीने जे खोट बोले खोटी शाखुए जे पुरसे इ करणोना सरज्या गघेडा कुभार मारी इ भरसे द्रत रहोए अमे एकादशौना_ अनदान देवे भूमिदान देवे बखस्रोना जे दान करे १३ सजस्थान सन््त शिरोमणि राणो रूपाद और मल्लीनाथ इ करणीना सरज्या कनैया पालसोयुं मा ३ करशे बरत रहीए अमे अकादशीना_ हुकमा हाले टुकमा महाले हकनी कक्प्ायु जे बरशे कहे रूपादे तम सुमोरे मालदे कए्णीना फछ एने मब्ठशे ब्रत रहीए अमे एवादशीना- सौजन्य श्रो कानिलाल जाशी आकाशवाणी भुज +++ मल्लानाथ व राणा रूपाद टवताआ की साल मडोर परिशिष्ट - २ रूपादे-मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियो की रचनाएं (१) हो पैल्यद सिंवो हो राज पहला रे जुग में राणी रतनादे नार वारा संग में ॥ थारे मेलो भरे महाराज अमणपुर में थारी जोत जले महाराज रक रा घर में ॥हो जी॥ हो हरिचद सिंवेरे हो राज दूजा जुम मैं राणी ताणटे नार बारा सग में ॥थारो मेब्णे_ हो जैठछ सिंवरे हो राज तीज जुग में हे शणी द्रौपदा नाए बाण सग में ॥थारे भेस्छे... हो बत्शीचद सिंवरे हो राज चौथा जुग में हो राणी सजादे नार वारा सग में ॥थासे मेब्ठो- हो मालजी सिंवरे हो राज मेवागढ़ में हो राणी रूपादे नार वार सग में ॥थारोे मेब्ठो.. साजन्य. रेखा सोनार्थी, भारतीय लोक कला मडल उदयपुर (२) ठाड-- आ पथ कोनीए बताइवी रब्ड माला बनी जाव साधु सुधार तमारी कायाश श३८ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ घर पर घरणी धरणी पर बस्ती ओक दिन प्रथवी परले जो जावे॥ रावल़- किया जुगमा मडप रच्या क्या जुगमा मेला। किया जुगमा लगन लखाणा ॥ राव. सतजुग मा मडप रच्यो दुवापुर में मेत्आा। तेताजुग में लगन लखाणा ॥ग़वल... घरनीं खाड हमने लागे खारी चोरी नो गोछ मीठो लागे॥ रावल_- आईला ओ नीतरी आ तमे मातु करी मानो औन तमे बेनी कही बोलावो॥ कंत रे कहांबसाह सुनो रावव्ठ माला रूपादे राणी ना क्यों मानो॥ सौजन्य. मुरधा जीवनसिह राठौड़, ४५ दिग्विजय प्लाट नई जेल के पास जामनगर (३) पादरनी पनीहारी पूछू मारी बहेन ओ था घर तो बताओ जेसलपीर ना॥ घुषरीया रो झायलो रूपला कमाड ओ वा फली आ बच्चे रे पारस पीपको रे॥ हो जी. टोडले काई सोपादीना झाड ओ वा चौक बचारे चपो रोपीयो ॥हो जी_- घो रे आव्या छे वे मिलबान ओ वा साधु ने घरे रे सत परोड ले॥ आवो माय मींदय मिलवाव ओ वा पाछली पछीत॑ पीरना बैसडा रे। सतो ओ काई कीया छे सबमान अ वा दुधेधी पछाडीया सतना पाहीलीया# सतो यथे चोखलोया ण॑ भाव ओ वा हंठन॑ प्रीते भोजन क्राब्या रेझ परिशिष्ट. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाएं) रहे बोल्या छे काई तारल सती नार ओ वा साथो रे समागम माय सतनो॥ मल्लीनाथ अजार (कच्छ) जाने पर जैसल से मिलने गये थे तव वे जैसल के घर का पता पूछते हैं वह यह प्रसंग है। सौजनय पुरभा जीवनसिह राठौड़, (४) आ पथ कोने रे जताव्यों रे रवछे मालो बनी जाव साधु सुधारों तमारी काया रे॥ घर ऊपर धरती ने थरती ऊपर वसती रे औक दिन प्रव्य हो जाबे रे॥रावछे मालो_ किया जुगमा मडप रचिया किया जुगमा मेला रे किया जुगमा लगन लखाणा रे ॥शबढे मालो... सतजुग मा मडप रचियो द्वापर मा मेला हो जो ज्रैता जुग में लगन लखाणा रे॥ रावल्ठे मालो_ कहे रे कतीबसा सुनो राव माला रे तमें रूपा दे ना कहिया माना रे॥रावछ माले_ सौजन्य वीरसिंह हरिसिंह चौहान, जामनगर (५) जाडेजा रे_ वचन सभाव्ठों पेला जाग जो रे ताक रे तबुरे सतीना हाथ भा सती करे अलख नो आराध॥ जाडेजा रे. - जाडेजा रे _ मेवाड़े थी मालो रूपा आलीया आव्या वचन ने काजा त्रण दिवस अने त्रण घडी सुरो (7) हो तो जाग ॥जाडेजा रे जाडेजा रे_ मालो ने रूपादे पारख पेढ़ीये रे पहोरे पहोरे होश हीरा लाल जाडेजा रे) शै४२ राजस्थान सन्त शिगेमणि गणी रूपादे और मल्लीनाथ चोरी नव राखी हो जी! ओ जी खरी वस्तु लेजो तमें मागी हो रावछ मालाआ ओ जी मालदे मनमा छे मेब्य्ने कमरमा छेकाती रे ओ जी छूरे कावी काठी आपण मब्झेये हो रावक्त माला॥ ओ जी मालदे मार बार मेष वरसे अग्रत धारा। ओऔ जो आपने अनगत पाणी नवगव पीए॥ हो शव. ओ जी मालदे डोब्ा ते जब्ना पान नव करीये ओ जी आपणे निरमक् निरे नित्य नाहीये। हो गवल- ओ जो मालदे दर करो दरियाने मन करो होडी रे। ओ जी आपणे सतने तुबडे तरी जइये ॥ हो रावछ ओ जी मालदे वन हुदा तालानो अक्कल हुदी कुची रे ओ जी आपणे ठाबर ढाकण न दोजिये हो रावछ..॥ ओ जी मालदे कहे रे कतीबसा सुनो जूना जोगी मालदे। ओ जी आपणे भजन क्री भवजब् दरीये॥ हो रावब्ठ माला. सौजय. भुरषा जीवन्सिंह गठौड़ जामतगर (९) कच्छथी जेसत उमा बोली अने मेवाडे मालदे आगधे। मुरी नर झल््या मुतीवध भोम आवी आधो आप देय परिशिष्ट ३ (छूपादे मस्लीनाथ विषयक अन्य झवियों की रचनाएं) माले रे जेसव् ने पूछीयु रे अने आपणे हुई ओब्खखाण रे। हाथ दई पजा मंछ्व्या थायतीया सिद्धना सघात ॥कच्छथी._. घेरे जु त्या घोयन में कूवे कड़वा नीर। आशधे अम्रत हुवा ओ माला घेरे सणी रे। कच्छथो... सावरे सानारी बारगी माही बैठा रूपादे राणीं॥ माडया मेह वस्साव्याइ तोरछ काठी राणो॥ कच्छथी... जेसले वावी पारस पीपव्णे अने माले बावों (जा०)। डाब्यीओ ब्रह्माडे पहोंची ने मूव्ठ तोडाया पाताछ ॥कच्छथी_ घनवे डुडा रे सर्तों ओ पग घरिया सो ओ लीघो विसामो। रामदेव पीएना आशधनो जाम्यो भजननो जामो॥ परबत पारखरमा कालडी कोराणी जुग जुग रहेगे पीपछी पुणणी। सतिया ओ संत रोपिया बोल्या तोरक्दे वाणी॥ सौजन्य - मुर्भा जोवनरसिह राठोड़, जामनगर (१०) देवायत पार ने भाटी उगमसी जेने मेघ घारवा नी ओलखाण। साभव्झे मालदे तमे वाणी रे मार साचा साहेबनी ओब्ठखाण रे॥ मेघ धारवाने घरे ज्यारे पाट मडाव्या तेंदी बोलाव्या रूपादे राणी रे। चद्रावव्य ओ चाय आदरियो सूता रे मालदे ने जगाडयो॥ उठो उठो ने माला पहेशे ने मोजडी आज राणी ये राजने अभडाव्या रे। तीयाथी राव मालदे चाल्या आव्या मेघ धारवाने दुवार॥ आपणे आगणे आयो कोई नुगयणे ज्योत्ु जाखी दरसाणों रे) मेघ घारवाने घेरे आराध मडाणो आहाथे मोजडी उतारी रे॥ तीयाथी गवल् मालदे चाल्या रूपादे थी मोजड़ी चोणणी रे। त्याथी रूपादे चाल्या आव्या अवव्यी बजारूमा रे॥ साकडी गेरीमा मालदे मल्या तमें. व्त्थारि गयाता, बब्गूरू ५ ब्रत रे राजा मारे अकादसीना फुलडा वीणवाने गियादा॥ आपणी भेरोमा नहीं फुलवाडी रे ढोत्यते उमव्छे पाणी रे) झडप दइने मालदे ओ छेडो ताणीयो पराणोमा फुलवाडी डेय्णी रै॥ १८३ शडड राजस्थान सन्त शिरेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ भागी प्रात ने हुआ अजवाब्श राणी पथडो तमाये बताओ। दोइ कर जोड़ी ने मेघ धारवों बोल्या थई मारा साचा साटेबनीं ओब्ब्खाणी रे ॥ ऑजय - सुरभा जीवनर्तिह राठौड्ध जामनगर (११) अगम बाग सिंघावों वनमात्ये काई काई वसत निषावों म्हारा भाइडा। नदी निवाण रो नौर खत्लकियो जद बिडलौ हो सनाई म्हाग भाइडाओं साचा म्हाग् वीराज़ी थे हीगरो बिणज करो साथे सायबाजी ने थे ध्यावो काया थारी अमर हुवे भाइडा॥ बिडले री खबर मगावौ वनमाली निरमछ भग हलावो। तिरगटी गा मौल अमीरस भरिया सो पोवै ज्याे पावो म्हाय भाइडा॥ सुखमण सरवरिये रा पाच सुबंटिया मोतीडो थे चूण चुगावो। जिण करणी मालो रूपादे सीझा सो पथ थे हलावो म्हागा भाइडा॥ सतड़े री बाड़ सजोरी खेती खश्सण साच कमावो। काई थूला बपरावों म्हागा भाईडा॥ पोवा ऊगत रा हींग होश बिणजो रतन अम्ोलक पावो। दोठ कर जोड उगमजी बोले हीय रो बिणज हलावो म्हाग़ भाइडा ॥ - मरुभारती, जुलाई १९७८ वर्ष २६, अक २, पृष्ठ ५२ (१ रूपादे री बेल (डा. बदरी प्रसाद साकरिया सपग्रह) घर धारू रे धरणीधर आप परिहरिया पूरबला पाप। अहकार जग रहो अलाप जग आरभियों जपवा जाप॥ टेर॥ अडौ रुप वंदन नहा व्यापै पापते चेलडी परण शुरू कापै॥ बीच सनीचर जमारी जोड हेव या हीय लेसा लोड ॥१॥ रजवत सजवत राज रह ओम नहचछ नूर धणीरों नेमा मनभर लाक मुनीजन मेघ विसणू साथ तेडावो बेग॥२॥ परिशिष्ट.. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाएं श्ड५ औरम सौरम पूरब दिस पाट औसर मौसर वैरारी हाट। घट मौरत सोना श घाट मोड कल्स घर मेव्यू माट॥३॥ कह ठगमसी धारू आव घूप कछस ने गवब्झी लाव। गुरु उगमसी धरिया हाथ पूरिया कव्य्स नै पात सपात॥ड॥ चीर पंडित मिल्िया पहैलोध किसद किसन कहै सब कोय। दूहा पढती दुद्दू कर जोय हुकम घणी रा सिमरण होय॥५॥ औसर मौरत वार सुवार चहु दिस गावै मगव्चार। कह मे८ घारू परथप पाव आव सके ते रुपादे आव॥६॥ मो भरतार चलौ नस्नायक खोटा फिरै खजीना खायक। आडौ पौव्ियौं पोदू पायक इतरे सकट सजै न वायक॥७॥ चेतन होय चतुरभुज चाले पकडौ साच झूठ मठ झालै। पोछ्िया ने परम गुरु पारै राणी रूपादे जमा में माले ॥८॥ बाई रूपा ऊभा मैला मझार म्हे जावा देवरै दुवारा बारे आदौ अबै बासक व्यार् आप पोदौ रायत्मजी री साकू॥९ ॥ साभव्छे वचन सजिया सिणयार हद बेहद हीण नग हारा लछण बतीसा लोधा लार बाद साद नह कीधी वार॥१० ॥ बाई रूपा ऊभा पोत्ण मझार भडीक नैणा नींद निवार। रूपा जपै हरी शा जाप खिड़की खोली हरी आपौ आप॥११॥ पोछ पाटरा जडिया तास रूपा सिंवरे अलख अविनास। चेछ काबडो स्सिपएण हाथ खुलिया ताग से एकण साथ॥१२॥ वेब्ण कुवेब्य कहा सू आवत किणगी नार कहा जावत। केप सरे डाकण कैदावव अछ्गी निकछ नैडी न आवत॥१३॥ सम सदर चायक सार मोटा घणी से लेजौ बार गवछठ माल रो अनूप नारी अधिक अभिमान भूप अधिकारी ॥१४॥ प्याग वायक कुण नर पेलै सत गुरु साहिब है थारे बेलै। अधरादा शा मैल जु मेले सतगुरु वायक कोइयक झेले ॥१५७ बाई रूपादे आवो माही माणक चौक मोतिया वधाही। जोत पाट रो निरमछ नूर रूपा रा वायफ बाबो राखे हजूर॥१६॥ दौपता दीपक देद दुदार बौत बगसिया बाई भौतर बार) मिल्ठठा मिलता की मनवार सकव्ठ सतानै सदाजी सार॥१७॥ श्डः राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ बाई पड़िया किसनरे सासै मन भर लोक जु घणा विलासै। मंछ सादका क्नकरै कासे दारू वात ठपनिया वासै ॥१८॥ चेतन हुई चंद्रावड चार जाय जगायौ रावछ माला जागौ मारू मेवै रा माल राणी गई रिपिया रै चाल ॥१९॥ नार नहीं माल निपट निकावल जोर मक सकिया बौहों राव) साभक वचन चढाया चावछ रजपूदाणी जगायौ रावब्ठ ॥२० ॥ ओ वा सपूती थू पडपूती कूडा दोस लगावै दूती। दिवलै जोत जगामग जूती राणी तो रगमैला सूती ॥२१॥ शणी चद्रावठ चलावै चाल भोव्य यवछ मन भोपाव्ठ। सौझौ राणीरा औराने सार जठै राणो महीं बैठी ठठै वागै है ताब् ॥२२॥ बार वार कहू राणों मानै नहिं वाचा मेर सुमेर सिरक जावै पाछा। भुयग न झेले धरणों रौ भार जद जाणू राणां गांखरे बार॥२३॥ सीता कहीजै सतवतों नार चालीगी दस करे द्वार! जद तो भुयगम माथे भार सात समद नहिं लोपी कार॥२४॥ सब्खेरे सुवन हिंदूपत थान मो घण मोसू मंती कर भान। अपख पाखे नै मेटे म्हात आण भोमू भाण॥२५॥ वव्व७ वाता कहू विचार ओकल राव धारू रै धोके उठे धणीसा पाय सर मारू अक्खर सारू मैं घणो ने | | ने गज थारे छोडीनै बैसता अकण संग में रु ॥ क३ 7 ख्मा पाछा आवो परिशिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) श्ड७ आया मालजी दाण हथाण क्रोध उपायौ जग परवाण। मनसा रौ मालौ मनसा रौ माण पवग गगाजरू माड पिलाण ॥हे३ ॥ नाई करमतिया बेगो रे आव घोडो गगाजर बारै रो लावा आपा जावा राणो है लार शाणों पूगी रिखा रै बार॥३४ड॥ चढिया माल दुहाई फेरी सोघौ सैर चहूघा सेरी। हद बेहद हलोहब हेरी वरसे पावस रेण अधेरी॥३५॥ वैतै माल कियौ आलौच भरै पावड़ा मन मैं सोच। चोरी विना चलाया चोजा शवक्ठ माल मगाया मोजा॥३६॥ नाई करमतिये मत्ता कीना देख पाखने साच पती ना। पगा प्रमाणा पाटरा भीना दीनानाथ पगा तल दीना॥३७॥ सुहाग भाग सौलवबत चेली महासती मन मैं नहिं मैलो। परसे पाव गुररी चेलोी अधराता रो जाय अकेली ॥३८ ॥ मार मार करे ना ऊभौ माल हाथ खडग हथ वासै ढाला ग्याता काव्ठ आया हौ आज पगला भवंश तौ जाणौ राज॥३९ ॥ बिन परमोद बकौ किण बेई सूता लोक सुणैला सोई। बिना खून विणासौ देहो म्हाने मार पिछतावौला थेई ॥४० ॥ फिट थारी माता फिट थारी जात अकरम करम कमाया थै राव। सग रमिया और रे साथ तुस्त मौत है म्हारे हाथ ॥४१॥ घिन म्हारी माता घधिन म्हारी जात सुक्रत काम कमाया रशात। संग रमिया साधरि साथ तुरत मौत म्हारी थारै हाथ॥डर ॥ कूड कपट कर छ्दिया म्हानै अधराता रा चलिया छाने। करता नाथ हुवौ थारे काने काटू सीस वरू हर हानै ॥४३ ॥ विना बाग मैं रही विशाज अजब फूल विण लाई आज। काई क थारै काई म्हारै काज झूठी होऊ तौ मारौ राज॥डुड॥ नगर नराणौ निपट निकासौ घडियक तोत्शे घडियक मासौ। नहिं मानू हासी नहिं मानू हासौ सावटू साल्दू ने पलौ करों पासो॥४५॥ हर (हरणाकुस) कियौ हैरान पैव्णद सतायौ सत थारो जाण। केहर रूप हुवा ठण काम जिका वेल्ठा म्हारै सत गुरु राम ॥४६॥ ज्रैता जुग तारादे तारी हारियों हरचद तिया नहिं हारी। उण साथा री सरबदा सारी जिका वेव्य म्हारी कुजबिहारी ॥४७॥ श्ड्ट राजस्थान सन्त शिरोमणि राणों रूयाद॑ और मल्लोनाथ मद कीचक दुस्सासण दाणू, सती द्रौपदाने लगो सपाणू। वधिया वसतर नै विद्या वखाणू, जिका वेव्य परम गुरु जाणू डेट ॥ बावन रूप हुवौ गिरपारी भौम सकव्यप ले कर झारी। पीठ मापने देह वधारों बल रे द्वारे चौकों थारी॥४९॥ परचा सू पावसा पातरियों खाती करमती कियौ ज्यू करियौ। धवक धार नै करवत धारियों उय सत राजा रणसी विरियों ॥५० ॥ साचा सेवग सालौ सूरो पड़दे मिल्यौ परम गुरु पूरौ॥ उण भायाय पूरया मनौर दुक़्त काट किया हरि दूरा ॥५१॥ सवन करू नमावू सीस थें तारीया क्रोड तैंतीस। अरघ देऊ ठगै दिन ईस जपिया झट आवोौ जगदीश ॥५२॥ “रूपा” रटे हृदय रवराय साची सूरत सबद रै माय। देव अधार करा अरदास परम शुरु आयो परकास ॥५३ ॥ सागै ही सब है सैलाण सोन सिंघासन भनके भाण। फल्छी मनोरध इण परमाण रथ रूपा नें आयो रहमाण॥पड़॥ थाट पाट शै भरियो थावठ चोखा चावव्ठ रेसमी दाक। सावदू साव्यू ने करौ समा माय महकी फूला री मात ॥५५॥ डागछ पान रेसमी डोशा कक कूपव्लिया राषिजै कोग। सिरै माणक मैं साव विजोग सिरै गगाजछ हुवैसि सोशा ॥५६ ॥ सपूवाणी थू रजरी राय बड़ा भगत थारा बाप ने माय। मेह खडग पिय लागै पाव गरवा शणी रहनें पथ बत्माव ॥५७ )॥ थे भला नें हू भूडी भरतार अत सिरजी हू थारी लार। परम जोत नट लाधै पार औ पथ जु खाड़े री धार॥५८॥ अपणपमरदू दुबध्या य देव भूडा भला मत भाखों भेवा आरभ देख लगावू टव थे कैसा ज्यू करसू सेव ॥५९॥ बरडौ गगाजछ पाडल गाय फेर कवर जगमाल बढाय! राणो चंद्रावक्न बड़ नार जट पिय आयौ देव दवार॥६० ॥# वरडिया गगाजव्ठ दिन सो बीजे आगू दफ्तर लिख लिख लीजै। अलख लखौ तो और प्रम कीजे पात सुपावा पग घोय पीजैआ१ ता कान कुडल छरिया घाल माय लियौ मैवे गे माल सेलो सौंगी सुणाई सौथ माये राव रतनसी रा हाथ ॥६२ ॥ यरिशिष्ट.. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) श्डए् जोवौ गगाजक विलम न करियौ सूर बेंद्रोसा सौ ध्यान नु घरियो। साथा मनोष्य साचा हीया जैं जै कार गगाजल जीया ॥६३॥ चद्रावक थै अपछए छलिया हेत हियात्यी हित कर मित्ििया। अवगुण गब्लिया भौहौं रग भ्व्ठिया रावक् माल रूपादे मिव्ठिया॥६ुड॥ बाजी नौबत बटो बधाई परचा री परतग्या पाई। जागी जोत नै जमो जगाई वधियों धरम मेवा रै माई ॥६५॥ सुराग भवन थी आयो साई अणत कब्ठा बापे अणव ठपाई। पाप करम रै पैंडरे नहीं पाई गत रो औदो लियौ गुसाई॥६६॥ नाथ निरजण अगम अपार सिमरौ सता सिरजणहागा। अपणा थणी सही कर जागो जलम मरण भव ठर क्यू आणो॥६७ ॥ समत चवदे सौ स्रीकार गुण चाछीसौ वरस विचार। उज्जब्ू बीज सनोचर वार चैत भयो परचौ परचार॥६८ ॥, सकक केव्य सत गुर रै सारे बौहों नामी बाबौ आप उबारै। मलोनाथ वरढे अलक ठबरे थिन पाचू जगदीस जुहयौँ॥६९ ॥ सकलयिवा - अगरचद नाहटा (१३) भाटी हरिनन्द कृत रूपादें जो रो वेल गे माल मेहवै ग़जवी सलखावत सिरदार वनरावाली डीक्री घर माला रै नार॥ घर धारू रा पाव घणण पलटा पाप धरम थपाणा जूना जोगी आया पूणी पूगो आस परम शुर थाई।' पूरा सतगुरु जंग परवाण॥ 'शवब्णजी भूंझे राजपदमणी कह्ौ भ्हारो मानौ। श्रणा हेठ सू मानो म्हाग़े महर दया कर मानो ॥१ । बीज सनीचर रा जमा जागिया कायम कलस थपाणा। चनण चौक पूरिया चोखा मोदियाथ मडप मडाणा॥ ९ शोध चूणिया सवप्प गुर पाई रे प्रया बर आया १५० राजस्थाद सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्तीनाव हो रावव्य्जी बूझे हैं थाने ॥२॥ उगमसी देवायत आया आयो मोकछ राणा। हडबू पीर रामदेवजी आया पथ थपियारे पीण राव रावव्यजी बूझै है थाने हो राजपदमणो ॥३ ॥ पार पगबर काबरें आया अल मईद कपिशव॥५ धारूजी रै घरै घरण*£ धूणी धुकाणा म्हैल मोट मिटाणों? हो रवब्लजी...॥४ ॥ घारू मेष घणी या वायक जाय झूपा ने देणा। गुरु उगमसी प्राट पधारिया ज्यारा दरसन करणा॥ हो ग़वब्जजी - - ॥५॥ आज रो भाण भलो ऊगो घारू म्हाने दस्सण देणा। किण दिन थारै अलख री पूजा किण दिन धूणी धुकाणा॥ हो ग़रवक्त जी... - ॥६॥ औघद घाट जडीजे वोग़ सैंठा* जोग किसे विध उतराणा। हर प्रणाम गुर ने म्हाग कैणा हरि मित्ठे तो मिव्यणाध॥ हो रावछ जी. _ ॥७॥ साचै मतै पधारों बाई रूपा डिग्रमिग मन क्यू डरणा। जोवा बाट पथाये बाई बेया नैम झाल निज तिरणा॥ हो य्वव्जी - - ॥८॥ ताखा कवर नै आगे दे काई९ रूपा काले कथ ओढाणा। महला तणी ये लो नीं रखवात्यी म्हें जुमले जगत मिलाणा॥ हो गबछुजो - - ॥९॥ राणी नै सुपनौ आयो सरावक्कगज'” भूल गई शाणी। महला में सुरत्ष मिलाणा॥ झालर सख छतीसा बाजा मरदग ता बजाणा। हा खवब्यजी .. ॥१०॥ । कर्षि राणा है भुंफी धूरमी दुकान ्ृ गेल पार (छः 7) पिड्ाव < सेए संगम है. ?) सादा बैवर 3ै आटे छाई रावछ गाज भूल गई 7११... धाछ बकाणा परिशिष्ट. २ (रूपादे मलल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाए) १५१ सज सिणगार जमा ने किया बाई तैयारी मोतिया थार भराणा। ओक जडीजै दूजी ऊघडै१२ (म्हारा) गुण॒जी रा वचन फिराणा। रावव्जी बूझै- - ॥११॥ खुल गया ताख जड़ गया वाव्ण कसा माहू उसा खुलाणा। चेतन कियो विरज पोब्थियो (जिणै) हाथों में हाथ झिलाणा॥ शबत्जो बूझे - - - ॥१२॥ पहरण देऊ पावरों झाझर हार टिकावट तोने। पदरे अमोलक देऊ मूदगे, वीरा छानी राखजो म्हाने॥ रावव्जी बूझै- - ॥१३॥ उण घर जनम इसे घर आया जावौ जठै जुग मानै। थारी तो लिजिया आलम राखसी म्हारी लिजिया थाने ॥ हो रावव्जी बूझे... .॥१४ ॥ रूपा महला सू उतरे ठमठम पाव धरै। बाई जाझर बाजणा पछे सारै ही सहर जगेह॥ हो ग्रववूजी बूझै- -॥१५॥ घणै जतन सू बाई जमै पधारिया इदक राख ऐ मानै। पाट खोलने बाई पाये लागिया (जणै) निवण करी साग सता ने ॥ हो राववूजी बूसै- - ॥१६॥ दाता तणा दवारे आया सुनमें सुरत मिलाणा। पाच पदम गुरा रै पाये मेलिया (जणै) बाई ने सत वचन केवरणा॥ हो रावछजी बूझै- - ॥१७॥ रूपा वायक जतर मजीर वीणा वाजिया सखरा*ई भजन सुणाणा। चेवन हुईं चदरावल्ठ राणी (जणै) महला में माल जगाणा॥ हो रावछजी बुझै_ _ ॥१८॥ गह में नार गोमती बोले चुगली चाल हलाणा। चिंताविया सो पय्न विया बाई रग में रग भराणा॥ हो सावब्णजी बूजै. _॥१९॥ १२ शोध अगड़ै। १३ शोध पदप शृष शोध सरवणा श्पर राजस्थान सन्त शिगेमणि राणों रुपादे और मल्लीनाथ बदती वाद घंणी रे आगे नित दुख देती म्हाने। माल जगाय नै रात हलाय दो कूँदे मस््जाद बानै॥ हो रावव्धजी- -॥२० ॥ चदरावक जाय माल जगावै उठो मालजों मिमाणा। पाली नहीं रे थारी घर रो पटमणी काई काई राज कमाणा!५। हो रावब्जी, ॥२१॥ झूठी राणी क्यू झूठ बोले कूड कपट क्यू कहणा! राणी तो सूती म्हारे रग महल में हुवे किस विध जाणा॥ हो शवब्य्यी - - ॥२२॥ राव माल आपरी दुवाई हू अखम ने केक अग्याना!६। शाणी तर्णों थे महल जोवावो ज्योंगे पारखा लेणा॥ हो रावकजो_ _॥२३॥ कर दोपय नै महल जोवाया सेहजा वासग*" भखाणा। महल छोडनै मेघा घर जणै मालजी गुस्से भराणा॥ हो गवछजी - - ॥२४॥ दूसरी८ बार मालजी चढिया रगर माहि रोस पराणा। ओक घाव में सोलह _डुकडा इसडा फाग खिलाणा॥ हो ग़वव्णजी बूझ्ै-॥२५ ॥ मालजी वणा मेलिया मिसरू पायों लग पूगाणा। पागी जाय मोजडी लायौ जडी लाल हीय से॥ हो ग़वछजी - -॥२६ 8 दिवलै जोति सावि अवि मोर्लु उसराणा। सोच करे सिंवते साहिब ने हि हा 3. २७ स्पी सेहू, गुध हतकार अ महारै सो कोई परिशिष्ट - २ (रूपादेगमललीनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाए) १५३ चात झाल नै ऊभी पदमणी मागै सीख घरा ने। पार लगी तो गुरु पाय लगसू, (हों तो) याद राखजो म्हाने ॥ हो रावछ जो- -॥२९ ॥ सदा सुरगी हैर” बौहरगो ताव नहीं लागै दोने। थार बुलाऊ पिस्थी रो पावठ्ठक पालजी शा पायकडा ने पालै॥ हो रावव्णजी _ -॥३० ॥ उगमसी हरिदास दाखे म्हारो सर लोक में सूना। मोची बैने मोजडी लाईजे होरों पा सू।२१ हो रावव्णजी- - ॥३१॥ अब्छी गब्झे दरवाजा सेकिया*र रूपा अरज कै अनदाता। म्हानै सगाई (जोर माल मिव्झणा॥ हो रावव्य्जी- _ ॥३२ ॥ जाझर पहर पला रब्काया दई मरण क्यू डर्णा। डर जर टाक माल ने भेव्ठो म्हात साई आगे साथ भराणा॥ हो रावत्णजो- - -॥३३ ॥ 'काढ तरवार नै भुजा कीधो आधी हर होड़ू कोपाणा। म्हानै मारिया रो विड़द राज ने पाप दोख सो थाने॥ हो रावक्कजी _ _ ॥रेड ॥ काव्झे काठछ बोज चमक्के खर्ू-हछ नोर खल्काणा।रई शरठ अरठ इद्र ज्यू गाजे उमकत पाव धराणा॥ हो रावव्जी. -॥३५ ॥ इंद्र बस्सै ने रैण अधारो बिना बरण क्यू बहणा। मालजी ठणा बाधिया मारग थानै जाव किस विध देणा। हो रावब्यजो_ _॥३६॥ खतरी तणी खोय दो सणी अकस्म काम कमाणा। महल छोड ने गया भेघा घर (पारी) डीठो लाज लजाणा॥ हो रावब्जी... .. ॥३७॥ २० शोध मद सुहाणण है २१ शोष जड़ी लाल होऐं से २२ शोध ऐेकिदा के पश्चात्. सिरेई चौक रोकाणा २३ शोध सागेईं (ज) २४ शोध नोर रख लाणा श्ाव राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाव अवरण सवरण म॑ भव्य बैठिया जीमत देखिया मैं नैणा! नर ने नार सेंफल्यँ बाजे उसडा ओढ अवरणा॥ हो ग़वव्वजी... -॥३८ ॥ बाग न बाड़ी कोई चपो न मरवो न कोई बाग सेवाणा। ओक बाडी मडावर कहीजै जिणरा दूर रहे पयाणा॥ हां रावब्जी- _ ॥३९॥ सिंखर फूलडा म्हे हाथै वीणिया जाय चप ले चुग लेणा। लाई रीझ राज रै ताई मैं सुख सायो थानौ॥ हो शवक्कजी_॥४० ॥ जद गरजत तत से गिरियौ बढ टूटो बरडाणा। चकर चलाय महाफ़द काटो विनत वार नहीं करणा॥ हो शावब्यजी- _ ॥४१ ॥ जद पेहव्शद होव्यी में हरियो उलेख आट उबराणा। वा विरिया म्हैरै आण पहूती साम संत ले चढणा॥ हा रावबजी_ _॥४२ ॥ सुरै सालै सत जडिया दिवाना हरी खोलिया जदी खुलाणा। वा सता थे बाहर पथारिया जो घोडलैर पाव थराणा॥ हो राववूजी.. - ॥४३ ॥ खीवड मेघ थापना थापी रिणसी जमा जगाणा। गढ़ दिलडी में थे परचो दीरे जणै फूला माट भराणा॥ हां रावव्जजी_ _धडड ॥ डागछ पाव वणिया पांव्िया गा झोल गगांजल झीणा। काची काच बणी कणहण री सूरज फूल महकाणा॥ हाँ ख़ब्जी... > #ड ॥ माठिया रा आखा ने सर्ब विजारा सवा लाख हींग महकी मात्ठ थाछ धट भरिया अणद किया मन भाणा॥ हो हा रावब्जजी. -॥४६ ॥ कहै मालत सुण राणों रूपा थार पूजू विद सदवाना। इण पथ में ले जाआ पदमणी थ रहिया घणा दिन छात्रा ॥ हा राबणजी_ _॥४७ ॥ अगो. आड़ + शिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) श्ष्५ कहे रूपा सुणो मालजी, कोई यूत्य ने भेद नहीं दणा। ख़ण्तर घाय खाडा रो चलणा चथासू सेल नहीं जाबै सहणा ॥ड८ ॥ आप कष्मो म्है पहली सुणियों मुख सू ना नहीं कहणा। रावक माल अनड वर नाथो (दो) सेवा री - (आण).- घलाणा॥ हो सब्जी _ - ॥ड९ ॥ रूपा अरज को अनदात्ा गुगा आप कहो ज्यू कहणा। ग्रवक माल अलख पद लागा।र०जका नै जमे किण विध लेणा हो रावकजो_ - -॥५० ॥ गुरा वायक पाडल गाय गगाजरू छोडो ओ'लो सूपियो थाने।२८ राणी नै चदरावछ बिडदो (जद) लेवा पथ में म्हानै॥२९ हो ग्रवछूजो- -॥५१॥ पाडल गाय गगाजर छोडो जद लेवा पथ में थाने ।३९ चदरावछ शणी ने बिडदो ओ लो सूपियों थानै॥र१ ओ गवलूजी_ _॥५२॥ पाडल गाय गगाजर छोडो कवर कियो बिडदा नै। राणी ने चद्रावछ बिडदी मालजी भगवा भेख भगाणा॥ हो राबल्जी_ _॥५३॥ कर पडदा रटिया परमेसुर अगर्धूप ओखाणा।रेरे पड़दा त्णी दयापत्ति राखे (जणै) जावे माल मुरढ्राणा॥ हो रावकजी... _॥५४॥ पाडल गाय किवी हरी पैदा बिसियो घनै मिलाणा। गह में नार गगाजकछू घोडो पोहो मैं कौषा पिलाणा॥ हो रावक्तजी ..॥५५ ॥ २१६. शोष २७ शोध २८. शोष २९. शोध ३० शोध ३१. शोध ३२ शोष नर हटक नर लागा कवर करे बिड़दापे जली लेवा पद में धार ओ थो सूपियों थापे (पण) लेवा यथ में म्शरै आणा १4६ राजस्थान सन्त शिरोमणि शाणी रूपादे ओर मल्लोवाप कमा क्छा बे पाज झुवा के मलला में मुब्ययाणा। चदरायछ रस सामी आवे सहिया रूप साहाणा हे गवणजो- - ॥५६ ॥ राव खनसी हाथ टियणा कावा में कुडल घलाणा। रात पलट नै रायछ वैजाणा जणै वा मय लार बिकाणा ॥ हो रावछजो- -॥५७ ॥ राव रतनमी ठगममी भाटी पौधों प्रेम रस भाण्प। हरि सरणै भाटों हरिनद बालै धिन धिन वा नर नै हो रावव्जी यूझै.. -॥५८ ॥ सोकय - अगरचद माहटा, मरुभारती (बिलाडा निवासी चौयरी श्री शिवसिह चोयल द्वार मौखिक परापरा के आधार पर सगृहीते शोध पढ़िका भाग २ अक ९ में श्री चायल द्वारा दिये गये पाठ के आधार पर पाठान्तर दिये गये हैं।) (१४) रूपादे री बेल शबब्णजी बूझे राज पदमणी मेहहऑ मया कर मानौं। मानेतण केयौ मानौ डोर घणी री झालौ॥ यू सैंजाडै अमरापुर में माल्हों ॥टिर॥ (रूपादे का पूर्वजन्य) दोहा- बेटे सू बेटी भली बेटी भली सपूत। जे लालर नो जनमती अलसी जावव अगृव ॥ अलमा उ म्हाय वचन सभालौ मन में धीरज धारौं। कराठाय'॥? से घाडा लावो चारण भाट चुकावौ॥१॥ लालर केवै बाभौजी सरग सिधावौ मन्र में धीरज धारो। बाठियावाड शा घोड़ा लामू, कारज सारग यारो॥२॥ लालर धरियौ पागड़ै पाव भाला भव्दकियों है हाथ में। भालै विलूबी चौसठ जोगणिया लालर सु बणिया लानजी पल में॥३॥ मारय प्रवता मिल्ठिया मालजी मिव्यकर बात कराणा। लाला म्हयग नाव अब्सीजी शे जायौ वाण्य बाभैडों है आणा ४ ॥ परिशिष्ट २ (रूपादे मललीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) श्५७ लारै चढो है कछवाह री बाहर द्विवे नौपत डाको लागीयो। लालजो सूवा है दुसाढे खूटो खाच वड री साखा हेंवर बाघीयों॥५॥ उठाकर थार घोड़ा पाछा राखो खतरी खेलेला माणक चौक में। लिया है हाथा में हरिया सैल भालो ठो रोपियों बडलै रै पेड में ॥६ ४ नगन सरूपी न्हावण मैठा आडो न धरियों घागो। केसर वरणा मोय परणीजौ पाप निजर रे लागौ॥७॥ सिंह रूप केकाणु दक्किया नाहवण वणग्या थे नारी। काठियावाड रा किंवाड भाग्या नहीं परणीजण री आसग म्हारी ॥८॥ बिदरे बाले रै घै जलम लेसू, रूपा हैला म्हारौ नाव। चार पहर सिकार खेलसो आजो दूधवै गाव ॥९ ॥ सात भाया री बैन लाडली मन में धोरज थारौ। काठियावाड गा घोडा लाई चारण भाट चुकावौ ॥१० ॥ (रूपादे का जन्म) राणी ने लागौ है पैलों मास सरवर न्हावण राणी साबरी। लागौ है दूजौ मास मनडो गयो साठा सेलडी॥ राणी नै लागौ है त्तोज़ो मास मनडो गयो खाएक खोपण। लागौ है चौथोडो मास मनडौ गयो सूत्य सोंखता॥ राणी ने लागौ है पाचवों मास मनडो गयौ सीण लापसी। लागौ है छठोडो मास मनडो गयौ काये पान में॥ राणी नै लागौ सातवों मास मनडो गयौ लाडू घेवरा। लागौ है आठवों मास मनडो गयो खाट बोर में। राणो ने लागौ है नवमो मास विदरे वालै रै घरे जलमी थीवडी ॥११॥ जलप्री जलमी वार नै सुवार सोने री घडिया में बाई जलमिया। बाजिया ओ वाजिया सोहन थाकू ताबे रै पाये माई जलमिया॥१२॥ बोस कूडा कीया सिनान रेसम रे गदग में बाई पोढीया। जलमवती से है जसौदा नाव रूपा केय नै बाई ने बोलावीया॥१३॥ वाचिया वाचिया बामण वेद पुराण तेहा जुगा शा वाच्या टीपणा। भरियों भरियौ मोतीडा सै थार खाती रै भुआ जावणा॥ह१४॥ ओरे खातों थू है म्हार॑ धरम रा दौर एलणियौ घडे नों वीरा फूटरौ। १५८ राजस्थान सन्त शिगेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ आवौ नी म्हारै धरम री बैण पालणियौं घडा चनण रूख रौ॥१५॥ अवर बधै दिन रात रूपा बधै दिन में चौगणी। अवर माडै ओय नै साक रूपा माड़े हर री देवव्यी ॥१६ ॥ (विवाह) मालजी केवै म्हारा वचन साभव्य॑ँ घोड़े जीण मडाणा। च्यार पौर सिकार खेलसा पराणा जाय दूधवै पोणा॥१७॥ राजा तणा भानेती कहियै गरव घणों गोलणियाँ। पूछ पकडने खेत पछाडियों घरतों पाव नो धराणा॥१८॥ लाटौ किणरौ गज सहेली कठे खेत रा हाव्ये। बाभो सा वनवास पघारिया, वन में ही घोडी ढ्राव्ये ॥१९ ॥ म्हारी रूपा मोय भोव्ठाया मन रा जाण्या कौया। साजडिये खरणाटौ बाज्यौं मूगडला चराया॥२० ॥ बरतण ले ओडी में धरिया मलकों राज महेली। बान पकडनै दुआ दुआ कीया ऐसी राज सहेली ॥२₹ ॥ विदर सूता हुवों तो बारे आवो रावक्व माल बुलाणा। थरि है रूपादे धीव मालजी रै संगपण थपाणा॥२२॥ मैं हा घर कील़िया सिरदार थे शजविया रा डीकेग। नहीं पूरवे थारै घुडला नै घास पाणी नीं पूरवा ॥२३॥ तोरण बाना दूधवै गाव घुडला पावा मेहवे जाव। अरज सुणो म्हारी ठाकरा मालै नै थे कवर केवाय ॥२४॥ चार महीना चौमासौ कहिये देव हरि रा पोढे। गुरु उगवसी गया वीरथा पूछ दी है पूठे ॥२५ ॥ रूपा तूटी क्यू नौ पालणै री डोर मोटा घय सू सीर घालिया। म्हें तो टॉकिया छोटा सिरदार मोश बनडा कदेई नीं टिकाय॥२६ ॥ रावछ झुकायी महमद मोढ्ियों हाथा में सियेही त्तवार। औँंद बण्या शव माल बाध्यां हाथा पगा रै काकण डोरडा ॥२७॥ पेलै फ्रेरे ही माय माणो कन्या थाने देका दायजों! बाभोसा दो म्हाने प्डछ गाय ग्रगाजलू धोड़ो हासलो 0२८ ॥ परिशिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) श्प्र दो महनै ताखो नाग सेवा काबल्ियों दो म्हने दायजै। दो म्हमै धारू मेघवाछ तोछी रो तदूरो दो दायजे ॥२९ ॥ रावछ माल रूपादे राणी हाल्या घर नै जावै। डीगा तोरण दोखे फूटय सइया मगर गावै॥३० ॥ (घारू के घर उगपसी भाटी के आने पर मेहवे में जम्मेजागरण का आयाजन) घर घास रै धरणोधर आप परहरिया पूरंजला पाप। ओंकार ले जपिया जाप जंग आरभिया अजपा जाप॥३१॥ अजे शाम विधन नी व्यापैं पाप रो बेडी परम गुरु काटै। आपणे गुरु नै सायब कर जाणौ सिंवरै सता सिरजणहार ॥टेर पहली॥ घर धारू रै पाव धराणा पब्ठटिया पाप धरम थरपाणा। पूरे पाच परम गुरु थारी सता लग पूणा परियाण॥३२॥ हाथ जोड उठै रिख घारू निवण करे सत गुर मै। प्रेव्ण रहता नित नित मित्ठता जुग बीत्यौँ मिलिया में॥३३ ॥ रावछूजी बूज़े राजपदमणी मेर मया कर मानौ। मानेतण केयौ भानौ डोर धणी रे झालौ। यू सेंजोडे अमग़पुर में म्हालै ॥टेर दूसरी ॥ गुरु उगमजी वचन भाखिया धारू मेघ बुलाणा। गुरु उगमजी पाट बिशजै ज्याग दरसण करणा॥३४॥ ऊरब पूरब पिछम दिस पांट चसतुवाना बोहरे री हाट! बच्चे भले मोर्त ओ ने रै घाट माड चौक पूराला पाट॥३५॥ अजैपाकछ गुरु सिमरथ सामी गुरु उगमजी धारू है बाभो। इतर सता रो कहो कीजे जाय वायक रूपानै दीजै॥३६॥ लेय मै वायक बूवौ मेघवा जाय ऊभौ रूपा रे दरबार! भलो करने आयौ गुण शा कोटवाऊ बोज थावर रूडो है वार॥३७॥ सुगरो माणस भेंटियो देह धार आब भक्ठ उगौ काछब सुत भाण। अल! भाण दरसण दिया आज रिख घाछ जाण ॥३८ ४ मो भरतार नशा हृदौ नायक आडा पाछिया पूनू पायक। खोटा माल खजाने रा खायक इसडै सकट कौंकर झलू वायक ॥३९ ॥ कह रिख धारू सुणौ बाई रूपा वचन गुग रै बहाणा। जलम मरण रा सासा अेट दा निज नाव लेय तिणणा ॥४० ॥ १६० राजस्थान सन्त शिरोमणि यणी रूपादे और मल्लीनाथ धारू मेघ धणी ग़ पायक बचन गुरा रा अब कैणा! निवण सलाम सतगुरुजी ने कहिजै हर मिव्ठावै तो मिल्ण्प ॥४९॥ गरहर गरहर इृदर गाजै मेह अथारी रात। म्हें कोकर आऊ रिख धारवा हू अबला री जाताडर ॥ हुकम हुवैला तो दरसण करसा पूजा गुरा रा पाव। गुझ चरणा दडौत कहीजै बोर नेगै रो जाव॥४३ ॥ नगर नारायणे सू रिणसी पधारिया खिंवजी वरे साथा ज्यू अधरावा बाई एकला पधारज्यो थारी सावरै राखै लाज ॥४४॥ कछ थुज सू जैसछ दोन्यी पयारिया सवा नै मिणयार। ज्यू अधरता एकला पथारज्णै सावरौ राखै लाज॥४५॥ नगर रूणीचै सू रामदे पधारिया डाली बाई वारै साथा में जाऊ सतगुरु रै द्वार चार पौर म्हारी सैज झखाव्ू ॥४७॥ ताखा नाग धर्म रा बीय केयौ म्हारौ करणा। पाव परस नै पाछी आऊ उतर माल नै देणा#ष्ट ॥ सज सिणगार जमैं में पधारे मोत्रिया थाल भराणा। ओक जडीजै डोढ़ी दूजी उघडै गुस रा वचन फव्शणा ॥४९॥ हर ह द्वारै गुरा रै पाये रीते हाथ कबहु नीं जाणा। होय स्त्री पाव मिसरी मगाय जाय सतगुरु मैं चढाणा॥५० ॥ चौरा रे हीर चीर गजमोतिया सिर पर कब्णस घरे। बाई जमै में साच रै ठप्तठम पाव यरै॥५१॥ रूपा शा जायर बाजणा सूतोड़ों सैर सुणै। ओ पथ गरवा देव रे खोजोया सू ख़बर पड़े ॥५२॥ रुणझुण रुणझुण जाझर बाजिया चौकीदार चेवाणा। आब्स मोड नै उठे आधब्येँ झपके ई चीर झलाथा ॥५३ ॥ डावै पग से जाझर देऊ हार टीकायत थाने। रन अमोलक देऊ मूदडों छदो ग़खजौ थाने #५४॥ केवै आषण्ण सुणौ रूपादे जे दुख टैला थाने। थारी पत उगमजी राखसो म्हारी लाज है थाव ॥२५॥ केवै रूपादे सुणों आधव्य जे दुख दैला यानै। चारों पत परमसर राखसी म्हरी लाज है थाने ॥+६ ॥ परिशिष्ट.. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाए) श्र ओडौ काई कोपियो किसन मुसार धाड़ो पडियौ पोव्ठिया माय। बाजता जाझरिया हीरा नगहार राणी लूटोजी सिरैबजार ॥५७॥ सोवै काई गिरधारी थारी निद्रा परी निवार। घडी क आईजै बाई रूपा रै भाव ॥टेर॥ (पार मंघ के घर पहुचने तक हर कड्डी के याद यह टेर गायो जाती ६) बाई स बूठा दोनू नैण ओक सानण नै दृजौ भादवौ। बाजियो है पणग्ा में जाझर से झगकार नख सख गैणो वापरै॥५९॥ पोछोया पोछ्य थारी परी निवार जमे जाणों है गरवा देवौ। राणी पोछ खुले परभात ताक्का जडिया वीजब्ठसार। ग़णां कूची है मालजी रै हाथ खाल कढावै माय विस भरै॥६० ॥ शाणी लीयो सतगुरुजी रौ नाव कूची बणाई चिटु आगव्यी। धरियौ ताले पर हाथ बिना कूची ताव्य झड पडिया॥६१॥ चगत विहूणी कठै सू तू आई क्णि री नार किये गढ जाई। कप भरिया डाकण कैवाई आगी रह सती म्हारी नेडी मत आई॥६२॥ रावछ माल भूप इदकारी जिणरी कहिजू नरोपत नपी। साचै गुरु रा वायक सारू झूठ बोलू तो मत उबारी ॥६३॥ मिलता ई बोलै रिख घारू री नार मोडा कौकर आया हो रावव्ज़ा री नार। था बिना बिलखौ साधूडा रौ साथ मायै आई है बाई माझल रान॥६४॥ गैली मेघवाली रिख धारू री नार म्हारे कहिजै सोकिया यै साल। आडा पोव्गीया अबखा घाटा इण सकट सू लाधिया भव जब्ठ पार॥१५॥ पूणा बाई रूपा जमै मझार आगै जब्ठता दीपक देवता रो द्वार। साय ई सता नै म्हारा जाजा है जवार लुछ लुक लागै बाई गुर रै पाव॥६६ ॥ भजन सोने रूपे री ईटा पडाऊ मिंदरियों चिणाऊ धारू थारै आगणियै। आगणिये पार देवोर हर थाने मोतिया बधावै बाई रूपा ॥टेर # कूकू केसर सी गार गढाऊ मिंदरियों निपाऊ धारू थारे आगणियै।॥ बागा मायलौ चनण वढाऊ मिंदरियो किडाऊ घारू थारै आगणिय ॥ समदा मायला मोती मगाऊ चौक पुराऊ धारू थारै आगणियै। मुरै भाव रै घिएत मगाऊ जोतडली जिगाऊ थारे आगणियै॥ + २ राजस्थान सन्त शिगेमणि राणों रूपाद और मल्लीनाथ देस देस शा सत घुलाऊ जमौ यगाऊ धारू थारै आगणिये। खीर खाड़ पकवान मिठाई सता नै जीमाऊ धारू थारै आगणिये। बाई रूपारी विणती सरणा में मोरी राख धारू था आगणियै ॥६७ ॥ घीणौ बजाबै रूपादे रणी मुख सू बोले इमरव बाणी। मोड अगूठो माल जगाया उठौ माल नौद भरमाणा॥६८ ॥ थारी मानेतण मेघवात्य घर माल्है। किण विध राजा राज क्माणा॥६९ ॥ म्हारै नै रूपा रै गांढा हेत क्यू बिछाव॑ काटा रेत। राणी सूती सुख भर सेज थारै उठे राणी ऊधा देखा॥७० ॥ थे मालजी आमिया ठामिया कुल छोडों कनक काबिया। मानेतण राणी भूषा ने छोड मित्ठगी है भाभीया ॥७१॥ थै मालजी आमिया ठामिया कामण कीया भातजीया। आपी सभाय हाथ सृ साभीया भूषा ने छोड मिछगो भाभीया ॥७२ ॥ वै हा मालजी आमे सामै कामण कर दिया किनक रै कानै। साच के झूठ जिकौ वचन आप सुणावौ म्हाने॥७३॥ कर दीपक ने जोया दलौचा माय बासग बभकाणा। चेतन भई चद्रावऋछ्ल राणी मालजी किरोप भराणा॥७४॥ ख़मा खमा म्हारा कायम किरतारू मो अबला रा आधार। राणी कामणगारी गई जमे रै माय सेजा सोवाण बासग नाग॥७५॥ पल में राव दुहाई फैरी हद बेहद पलक में हेशी। सोधवों राणी रा ओर नै सार जठै राणी है रूपादे बढ़े बाजै मृदग ताल॥७६ ॥ केबै राजा सुणौ संब साथ घोडे गगांजरू कर दो पिलाण। वेया लावौ राणी था सैलाण पाच गाव दंऊ इनाम ॥७७॥ थै हो मालजी भोव्य भरतार केयौ नी मान्यौ लियार। उण रौ नीं जाण्यौ विचार राणी गई जमे मझार॥छ८॥ गुरुजी मघली दिवल री लोय कोई'क नुगरँ आवियौ। गुरुजी गवक्ीं खाई भर पेट पयरीं मोजड़ी ले भागियं॥७९॥ बाई रूपा ही गमी मोजडी सोच भयौ सता नै। आएेदे स्ू आवे मोज़डो पैशो बाई पा में ॥८०॥ परिशिष्ट. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाए) १६३ गयौ नुगरौ राज द्वारे चुगली झूठी खाई। सत वचना सू पगरखी पडगो नुगरै रै खाक बिलाई॥८१॥ हाथ जोड उठे रूपादेनिवण करै सन गुर नै। पार लगा तो पाय लागसा मीं जो याद राखजौ म्दने ॥८२॥ केबै उगमजी सुण रूपा डिगमिंग जोच नों करणा। जलम मरण रा सामा मेट दो निज नाव ले तिरणा॥८३ ४ गुरु उपमजो वचन भाखिया साथ वचन ले इप्लै। रामकवर रुखबाब्दै मेलू, पायकडा ने पालै॥८४॥ केबै माल दुहाई फेरी राने निवछो राणी किय सेरी। हृद बेहद थारी पलक हेरे झूठो बात सुणू नी तेरी ॥८५॥ गई बागा बगौचा माय अजब फूल बिण लाई महाराज! केई थारै केई म्हारे काज चोखा फूल लाई ओ राज ॥८६॥ बाग न बाड़ो राय न चपो न कोई बाग सिवाणे। तोजौ बाग मडोर कहिजे अब्यगो दूर पियाण॥८७॥ फिट थारी जरणो फिट थारी जात। ह रेमिया साधूडा रै साथ हमैं मरणो हुसी म्हारे हाथ ॥८८॥ घिन म्हारी जरणी घिन म्हारी जात सुकरत काम क्यायां इण राव। बोलिया खेलिया सतगुरुजी रै साथ घिन मरणौ हुवे रावछजो थारौड़ें हाथ ॥८९ ॥” वेता जुग में तारदे राणी हारियों हरिचद विरिया भी हारी। आ वब्ठिया आवौ म्हारा कुजबिहासे मो अबत्शा री अरज निहारी॥९० ॥ हट हिरणाकुस हारियौ जिणरै जव्टमैयौं पैलादों जाम) केसर रूप धारियों जिण काज खभ फाड लीयो सभाछ॥९१॥ दवाजुग में द्रोपदी नार दुश्जोधन जुघ कियो हद पार। दस हजार गज बछ घटयो चोर बढायो अपार॥२२॥ ऋकजुग में राजा बठ्वत सौधो भूमिदान बामण ने दोनौ। उण बलिया बावर रूप होय रु छठ लीनौ। आ बलिया म्हागा मोटा स्थाम घडी'क आवे नौं बाई रूपा रै भाव ॥२३॥ खड़ण आकामा जोभ ताव्य्ये घरती पाव लपठाणा। केबे मप्लज़ो सुणौ रूपादे ज्या पे पग घरणा॥रडा श्६्ड राजस्थान स्तर शिरेमणि राणों रूपादे और मल्लीनाथ सात्यू सावट लीवी सभाक चोखा चावर् रेसमी दाल माय मेहकी फूला री फूलमाब्ठ लुढ लुछ लागै मालजी रूपा रै पाय ॥९५॥ थारै गुरु रो राणी पथ मताय म्हें ई चालसा ठण रै लारा पै हो मालजी भला भरतार अलख सिरजिया म्हाने थारै लार। साथै गुरु रो पथ बताय तो आज थोका म्हं गुरु रै पाव॥९६॥ हर सिंकै सिरजणहार थाने सिंवरे कोई सत्र विहार। जिणरी गति कोई जगदोस सवारै, धिन पाचों जो जगदीस जवारै॥९७॥ हाथ ज़ोड घणी अरज गुजारै आप तणै माल आबै सरणै। भव तारण मोय लीजौ उबारण सरगा सबद सुणेवा। हर सरणै भाटी हरजों भणैं काना कुडल घलेवा ॥९८॥ - सौजन्य डा. सोनायम विश्नाई, बाबा रामदंव पृ ४१९ २८ (१५) मालेजी री महिमा बधिया धरम बध्यों एकायव चनण चौकशा कलश थापने जमो जगायौ जंणै पूजा चढाई अलख रै मांड। महिमा घणी माल रे मेब्छे ता मिलजो सुर नर क्रिगेड ॥१ ॥ सत्तरा भजन सभाव्टों साथो कुबध भर मना डागै वोड) साथ देखने थे तन मन अरपो सिरख पथरणा सुरगी छोड ॥१॥ महिमा घणी- .. . सिंवर बड़ा रिखा रा मारंग सिंवय साथ सतारी ठौरा। बीज सनीचर भैत ये मेब्झे जाऊ भाण मिले काबडिया क्रियेड ४२8 महिमा घणी_ .. - कहै मालजी सुणो रूपा गुण गावव आई दिल दौड। सैदेई साहिबजी सू मिव्ठसा परिशिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) १६५ मिलछसा मास दवादस माहि ॥४॥ महिमा घणो. - अलख तणा आया पणवाणा मालजी निवण करै कर जोड। जालम छोड जोर में हालो आणी जोद नहीं कोई और॥५॥ महिमा घणी.. _ मोहरत देखने मालजी चढगा नौसाण घुगया घमघोर !) डेरा दिसया सहर रै काठे जणौ आरभ असा इदर री जोड़ ॥६॥ महिमा घणी- - चढ़ असवार साथ सोहिम ऊत्बो हाकिम निवण करे कर जोड। कहो (नी) माल थे किसे गढ़ जावो हुकम करो बाका राठौड़ ॥७॥ महिमा धणो_ _ आया जहठै उठे म्हें जावा लादो नाव धरम री ठौड। हेत कर सेवा कीवी सामरी कट गया पाप जलम रा क्रिरोड॥ा८॥ महिमा घणी.. - वणियौ तुरग सोवनी साठ ओऔ परगन मेल्हे घरणी पौड। मालजी घोडो सरगने खडियो जाऊ सडदो साथ करे कर जोड॥९॥ महिमा घणी- इंद्र तर्णों असथाने पूणा गोखा बोलिया कोयल मोर। सुर नर साध हिंडौले हीडे ज्यारि हीडा बध्या रेसमी डोर॥१०॥ महिमा घणी_ _ राजस्थान सन्त शिरोमणि शणी रूपादे और मल्लीनाथ रूपा कहे सुणों धारवा बैलिया लावो बैल सू जोड! आगे रावक्क मालजी सौदा अपणै सरग भवन में कीधी ठौडाश्शता महिमा घणी.. . णट दियौ महा में खून पडियौ था पहिली म्हारै बध्या मौड। क्रिया बिना थूं किसी कामणी कठै हाली थू मैलिया जोड॥१२॥ महिमा घणी_ _ जाऊला सदर धणी रे पाव म्हरे बात नहीं कोई और। थाव्ठी माहे किया सो वाना कब्ठी केवड़ों दाख बिजोर॥१३ ॥ महिमा शणी_ - घम घम पड्या बैल रा बाजे बाज ताल करे रिमझोल। सत री बैल गेब सू हाली जणी सरगा चढ़ी लूमती जाल ॥१४॥ महिम्रा घणी_ _- दोनों ही साध चग़बर ऊबबा पोव्ठिया निवण करै कर जोड़। सिव धरम रा ये सहीसै करो बड़ा धरम मसकत मोड॥१५॥ महिमा मंणी- _ परसण हे मिलिया परमैसर राजा विया रजाबद जोड़। कहो (नं) थे किसी घंणी घ्यावौ इसडै मते आयो नहीं कोई और॥१६॥ महिमा घणी.. _ अलख निरजण सिवरिया साथौ राम भज्यों राजा रिगछोड। साहिब एक भ्रेख संगव्य में परिशिष्ट. २ (छूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाएं शघ्७ ओ सेहस नावा में एक होज मोड ॥१७ ॥ महिमा घणी.. - सतरो कथा साभव्लै साधा कीघा धरम पावा निज छौड। नाव लिया हेला निसतागे ज्याने जम किंकर लागे नहीं जोर ॥ सबर कहता जकै साथ कमाया सरगा चढ लूमती लोछ। माणक बगस माल सलखा रौ पीण निवण करै कर जोड॥१८॥ महिमा घणी_ _- सौजन्य चौधरी शिवस्सिह मल्लाजी चोयल शोघ पत्रिका भाग २ अक २ (प्री चोयल ने इसे हरजी भाटी की रचना माना है परन्तु यह बगसा खाती की रचना प्रतौत होती है) (१६) मालैजी सी जन्मपत्रिका (रूपादे-मल्लीनाथ के पूर्वजन्म की अनुश्रुति) बुधजी चालो पाटण सहर में धृणी घुकावों पाटण पोब्थिया। करो अपणा गुरु नै याद औक जुग रौ आसण साजसा॥ बुधजी लेवो मालक रो नाव दिल रण धोखा आलप गजा पूरसी ४टेर॥ बुधजी लीधी चींपी हाथ नगर चेतावण अबे हालिया। याषी है याटण रे लोग चिमटी नहीं घालै कोरे चून री॥२॥ बुधजी द्वियो धुणो रो कोटवाल जाय लवार नै हेलौ मारियो। लवारिया सुण ले म्हारी बात "६८ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणों रूपादे और मल्लीनाथ सस्तर भाग ने करदे कवाडियो ॥३ ॥ सावामीजी कैसी सामियों री प्रीत मरै न मसाण जोगी तापिया। ओ मेल दो घूणी गा कोटवाल जातोडा ले जायजो कवाडियों ॥४॥ बुधजो बुवा वन री बनवास बन में नहीं लाधी सूवी लाकडी। घालियो है कदम नै घाव दूधा रा घारोव्ठा पर छूटिया ॥५॥ बुषजी सूता किसडी नींद आधी नै अधणती हेलो पाडियो। थाने तूठा है सिंभुनाथ जावो धूणी सेवा सोपडों॥६॥ बुघजी उठायो सिर पर बोझ सिरे बाजारों हालियो ! गया गाधां री हाट चनण मेचे मुहगा माल ये ॥७॥ बुधजी काई न्टा / कासी केदार काई अडसठ तौरथ नहाविया। काई मिव्यी नागों री जमात माथा यथा मुकुट कुण पाडिया॥८॥ गुरु नही नहायो म्हू कासी केदार नहीं म्हू अडसठ वीरथ साजियो। नहीं मित्यी नागों री जमात माथा रो मुकुट हाथों ही पाडियो॥९ ॥ बुघजों गया कुम्हार रे बार जायने कुम्हार मैं हेलो पाडियों। कुम्हारिया सुणले म्टागी बात म्हारा बचन गुरा मत लोपजे ॥१० | क्यू करियो मोड़ा रो बिसवास रहता रा छुडावै सोमो झूपडा। नित उठ करती दान ऊत्ता परिशिष्ट ३ (रुपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं श्र जिमावतों आलमनाथ नै॥११॥ सामीजी घालियो झोब्ये में हाथ पग री झाटके पावडी। ऊरठियो पाटण रो अस्डाट पाटण दाटण कर दीनो ॥१२॥ गुरु सजीवण सबद सुणाय आ बिलखे भारा री पूतव्ठी। गुरु लुछ लुछ लागू पाव गुर री सेवा म्टूं सापडो ॥१३॥ कुम्हारिया हििजे मेवा रो माल घर (नै) सलखा रो मौबो डोकरो। बाजिया सोवनिया गज थाल सोना री छुरिया सू नाछा मौरिया॥ घर घर वदनमाछठ सैड्या जावे रूपा रा सोछमा ॥१४॥ कुम्हारी ह्विजे रूपादे नार घर (है) बदराजी रै मौदी डीकरी। बाजिया सोवनिया गज था सोना री छुरिया सू नाव्ण मौरिया॥१५॥ बाला ह्विजे कबर जगमाल मुलतानी वसावत्य त्ोरण बादजे। बिछडी हिजे पाडल गाय रवड (रगड़) गगाजल धोय लो॥१६॥ गुरु छ्विजि उयममसी आप भव भव मेछो गरवा स्याम रो) बुधा हिजे धारू मेघवाल पारप्त रे पीपछ पाना ऊतरे॥३१७ ॥ सौजन्य - शिवसिंह मल्लाजी चोयल बरदा वर्ष २० अक २ अप्रेल जून १९७७ पृष्ठ ३९ ४४ १७० राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ (१७) रूपादे री वात रूपादे वाल्है तुडियै री बेटी खेव माहे रखवाब्यी करती हवी। गेही ऐे खेत हतो पाणी पूर हतो। सू ऊगवसी भाटो रावछ जैसब्य्मेर रै घणी रो मेटो पैंडे आवतो हतों सू रोही माहे तिस मरतो हतो। साथै काबडिया हता। ताहरा रूपादे बेठी हवी तठे आया। आय कर पूछियौ. बाई पाणी छै? रूपादे कह्मो. छे ऊगवसी कह्मो “आवोौ साथा पाणी पीवौं।” ताहरा रूपादे रौ मुहड़ो भूडो हुवौ। जू पाणी हतो सू पी गया। अर बाप भाई पीसो सू कासू पीसी? औ सोच कियौ। तद ऊगवसी पाणी पी अर घड़े ऊपर हाथ दे कहा “साहब पूरो।" तद घड़ो भरीज गयौ। तंद रूपाटे पगे लागी। ऊगवसी कहयो -- “परणी कि ना? कहयो कुवारी छू। तद रूपादे रै हाथे ताबे री वेल घातों अर कह्लों “बीज रै दिन सात घर माहि मांगि अर काबड़िया नू बाट देणी। इयू कहि माथे हाथ दे ऊगवसी चालग़ हुआ। रूपादे ज्यू कहाँ हतो त्यू कियौ। आ रूप माहे सुदर हुतीं। सू हेक दिन मालैजी दीठी। तद वुडियै नू कह्यौ जू थार बेटी भौनू परणाय।" तुडियौ तो नीछोे कियो पण मालोजी जोर घाती परणिया। राणी हुई पण बीज रै दिन सात घर माय काबडिया नू खींच करि बाट देवै। कितर हैकै दिने ऊगवसी महेवै आयो। काबडिया भेव्ठा हुआ। बाकरा मारिया। न्याव्ये कियौ। इतरे माहि ऊगवसी काबड़िया नू पूछियो अठे वाल्ही हुती सू कठै छै? काबडिया क्द्यौ राज उवा तो मालै री राणी हुई छै। पिण काबडिया नू भारी मानै छै। ताहरा ऊगवसी कहल्यौँ कोई खबर दो जू ऊगव्सी आयो छै।” ठाहरा अकै काबडियै जाय खबर दीवी “बाई ऊगवसी आया छै। रूपादे कद्यौ बोीरा आथण नू हर भात करि आइस।” रूपादे सौंका मालै जी ग कान भरिया कहै “आ ढेढ़ा रै जावै छै। आभडछोत करै। रावजी क्हौ आप आखिया देखू वो मानू। रात पड़ी तद रूपाद॑ काबछ लोवडी ले अर पावा लागी। वाहरा सौका कह्मौं मालैजी नूं उठी दैखो ढेढा रै गई छै। ताहरा रावकजी तलवार ले अर लारै हुआ। जाई देखे तो उगवसी बैठा। मुह आगे * बैठी छै। काबडिया गावै छे। परिशिष्ट.. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाएं) १७१ माले देखि चाकर कना रूपादे री जूती चौसई। अर आप देखे छे। तितरै काबंडियै हेकणि कह्मौ “बाई नू सोख देवौ। बाई रो आ ठौड नहीं छै। दाहय थान आगै चढावौ हतो आज्रदत्कि काव्जो छूकियो। सू थाव्ही माहे घात झूपादे नू दौन्हे। अर कह्मौ जा बाई थारों भलौ ह॒वे।” रूपादे आगै जाबै तौ जूदी नहीं। ताहरा सागर ही काबडिया उठिया देखण लागा। पण जूती नहीं। ञ ऊगवसी कह्यौ“साथा साहिब सों अरदास करगै। साहिब जूतो इयै डावडी रो आवे।” ाहरा उसी बीजी जूती अरस सू आई। रूपादे पहिरी घरा नू चाली। बीच रावक् माले राह रोकियौ। आवती नू आडै आय फिरिया कह्ौ “कौण छै?” क्ह्लौँ “जी रावत्यी हीज दासी छै।” कह्यो कठे गई हुती ?” ताहरा रूपादे कह्मो “फूला नू गयी हुती।” कह्ौ “म्हारी बायर ने फूला नू जावै सु किसी बात?” शाहर रूपादे कह्नौ “राज म्हारिया सोका रै आदमी छै। सू ले आवै। म्हारे आणणवाछ्ओो कोई नहीं।” राववूजी कह्मौ“देखू फूल?” रूपादे कह्लौ “कासू जोइसौ?” पिण रावछजी कपडौ दूरि क्यौ। थाछी उरहो लीवी। थाब्दी माहे देखे तो विविध विधि रा फूल छै। महेवै माहे एक हो बाग नहीं। अ फूल कठा छै? तिके फूल दीठा। आर महेवै भाहे अक ही फू नहीं तिके फछ दीठा। थाब्दी माहे घातियौं हुतो सू मालैजी दोठौ हुतो। दाह मालोजी रूपादे रे पगै लागणै लागा। ताहर रूपादे हाथ पकड लियौ। मालोजी कहै “रूपादे जी इये पथ दोहरो छे ते माहे म्हानू ही घातौ। रूपादे कद्मौ राज पथ दोहरे छै। “ताहरा भालोजी कहै “हू हालीम।” ताहरा पाछा ऊगवसीजी पासै गया। मालौजी पण पगा लागा। रूपादे क्ह्मौ राज नू षथ में घातौ।” ताहरा राववूजी रै हाथे ऊगवसी ताबै री वेल घाती अर मोगेडियो दियौ कह्यो बीज रै दिन सात घण सू आखा माग काबडिया नू वाटि देरायी। रावव्य्जी नू काबडियौ कियौ। परभाते ऊरवसी जी नू घेरे ले गया। न्यात्लौं कियौ। ऊगवसी जी नू मास राखिया। पूरी विद्या ले सीख दोवो। इये विधि रावछ मालोजी सोधा। अनूप सस्कृव पुस्तकालय बोकनेर १० ६ १२६ अस्तोता मनोहर शर्मा “राजस्थानी वात सग्रह साहित्य अकादमी नई दिल्ली श्र८४ पृ २६८ इसी बात को मालेजी पथ में आया तैरों वात” भी कहते हैं द्रष्टन्य बाबा रामदेव डा सोनाराम विश्नोई पृ ५३७ ३८ श्छर राजा ख्पादे श्जा रूपादे बालागदरा राजा ग़जस्थान सन्त शिरोमणि राणों रूपदे और मल्लोनाथ (१८) रावछक माल, रूपादे के विवाह की कथा चलत जपो अलखजी को जाप सुहागण भाई भीड़ पडया से धरमी थाकों बावडे ॥टेर॥ सूता सुखभर नींद साणीजी सूता सपना में जोगी हो यया ॥ काई खाग्या भून्योडो भाग मतवाव्य राजा। सपना की वाता साथी नहिं हावे ॥ करिया भ्रगवा सा भेरव बाबाजी म्हारा। प्रगा खडाऊ पहरी पावडी॥ झोली झडा लीना हाथ बाबाजी म्हाया निरगुण साधूडा जाणे रम गिया॥ कुण है थार मायर बाप संवागण नारी किसडा राजा की बाजे डावडी ॥ महीं है म्हारै सायर बाप मेवा का राजा। आभर तो पटकी धरवी ज्लेलिया ॥ नहीं बीज बिना खेत सुहागण नारी! नहीं पुरुष बिना ख्रीौ॥ सुणल्यो म्हाण समचार मेवा का राजा! बाला भदरा बाजू डावडी ॥ काई मर्या घाडा हुण मेवा का राजा। काई खजाने टोटौ आ गया ॥ काई पडग्यों मोटो काम मेवा का राज। काई फरमावों मोटी चाक्रों॥ नहीं मरिया घोड़ा हुण बालाजी भदरा। नहीं वा खजाने टीटो आवियोआ परिशिष्ट २ (रूपाद मल्लोनाथ विषयक अन्य कविया को रचनाएं) १७३ ओ ही है मोटो काम बालाजी भदरा! थारी बेटी ने मने परणाय दे॥ बालापदय थाके है परणबा को चाव मेवा का णजा। बेटो परणो थे जैसलमेर की॥ सुणल्यो म्हारा समाचार मेवा का राजा। म्हें तो घण्या का छोटा भोमिया॥ द्रव मूडौ देख्या को लागे पाप मेवा का राजा। परा चला जावों म्हाप महल से॥ थाके हो परणबा को चाव मेवा का राजा। बेटी परणाती जैसलमेर की॥ ल्याया ल््याया कूडापथो नार मेवा का राजा। परण पधारया आडी डीकरी। फ्लका पोबौ थारे हाथ चद्रावछ राणी। कासौ परूसे राणों रूपादे ॥ डोल्यो ढालवो थाके हाथ चद्रावठ राणी। सेजा पोढेली राणी रूपादे॥ ताब्ये जुडबो थाके हाथ चद्रावक राणी। कूच्या राखेली राणी रूपादे॥ पू तो गब्य को नोसरहार चद्रावछ राणी। राणी रूपादे सिर को सेवरो॥ तड़के दिन उगता थारे से बात चढद्रावछ राणी। बद करा दू थारा पेटिया॥ सौजन्य स्वामी गोकुलदास इुमाड़ा, घारू माल रूपादे की बडी वेल पृ १९ १९५७ई राजा १७४ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ _ (१९) रूपादे के पूर्व-जन्म की कथा « दोहा 5 बेटा से बेटी भली बेटी भली सपूत। अलसी के लालर बिना अलसी जाव अगूत॥ टेर ८६ घिन पघिल हो लालरबाई भक्त बिडद बधाई। गवरी का नंद गणेस मनावु सुमिरू सारद माई॥ सतगुरु देव दया का दावा पूल्या राह बताई ॥१॥ राजपाट सुख सेज पालकी इनकी इच्छा नाहो। हरि सेवा गुरु भक्ति कौरत आ मन में ठहगई॥आर ॥ महासक्ति अवतार घारियो जग कौरत फैलाई। सूर वीर सावत सी सक्ति इसमें कम्री न काई॥३॥ रमती खेलती चली जगढ्ठ में घोड़ा चाल सवाई। सग सहेली साथ चले सब अपना हुकम चलाई॥४॥ मालाणी से चढिया माल्दे आया जगव्ठ माही। बन में भेंट हुई लालर से मिलिया नेह लगाई ॥५॥ देख रूप लालर को मन में मालजी हरष मनाई। लडकी ने छल से ले चाला गढ़ मेहवा के माई॥६॥ सक्ति रूप झेल्यो नहिं जावे माल रियो पछताई। कहवे लालर कहा सिघावों साच बोल समझाई ॥७ ॥ प्रगट बात जाणों सब लालर जावा धाडा के माही। काठियावाडी घोड़ा ल्यावा तब रजपूती जाई॥८ ॥ कहते लालर सुरे| भालजो एहदा सोए के भाहो। आधो आध करा सब बाटो राम धरम उहराई ए९ 0 दोनों फौज चढी लालर संग गया धाडा के माही। काठियावाडी सूर वीरा से माल गया घबराई ॥१०॥ परिशिष्ट दाह २ (हूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाए) १७५ सूरवीर रणक्षेत्र में पाछा धरे न पाव। कायर काची खा गया नहिं रजपूती राव॥११॥ ऐसा नण से नारी भली नहीं देवे रणपीठ। अग्नि आगे जछ जावे ज्यों कुल्हड का कौट॥१२॥ घोडा घेर लिया महासक्ति अब कुछ धोखा नाही। लालर कहे मालजी सुनल्यो रख थिरचा दिल माही ॥१३॥ जो रण से पीछे हट जावे क्या रजपूत कहाई। आया देस में चाटो करल्यो जो राम धरम ठहराई ॥१४॥ आघो बाटो राम धर्म को आधो आध कराई। गिनती बोच बचे एक घोडो किस विधि बाटयो जाई॥१५॥ सुदर रूप मालदे देखे मन लागी उगमाई। मन में लगी ब्याह करने की तेज सह्यो नहीं जाई ॥१६॥ रूप देख राजी हो दिल में मन में हरप समाई। प्रगट बार मालदे दाखे परणो आप भलाई ॥१७॥ रग रूप सक्ति सम थाको मोसे सह्यो न जाई। रूप पलट कर बात करो मन में थिरचा आई॥१८॥ बलभद्र के जन्म घारस्यू, गाव दूदया माही। समता खेलगा आवो मालजी रूपा कह बकलाई ॥१९ ॥ चचन देय रम गई महासक्ति माल मालाणी माही। भक्ति बोज जुगाजुग अमर जग कीस्त फैलाई ॥२० ॥ (रूपादे का जन्म) घिल हो घडी घिनन वार बाईजी बलभद्र के बाई जलमिया। जोसी का जूता वेद सम्हाल काई नश्ष्रा बाई जॉन्सया॥ सुभ घडी सुप वार रूपा के पाये बाई जलमियावरश॥ जन्मत लालर नाम रूपा कट बतलावज्यो। १७४ राजस्थान सन्त शिरोमणि शणी रूपादे और मल्लीनाथ बलभद्र मर घोड़यो रजपूत करसण करे गरीबी हाल में ॥२२॥ बीज थावर दिन वार बलपद्र के जन्मों डोकरी। जन्मत लागी गुर के पाय भाटी उगमसी भेटिया ॥२३ ॥ बाई जावे मडव्शी माय सुखदेव पवार मेघ के। पूरव भक्ति अकुर हरि की भक्ति में बाई लागगी॥२४॥ धारू धरम को वीर रूपा खेले धारू के चौक में। ओक गुर को उपदेस भाटी उगमसी गुर भेंटिया ॥२५॥ बाईजी खेले मडली माय मेघा घर जमला जागिया। बाई के लाग्यो रिखा को उपदेस धारू कहवे सो कर रिया ॥२६॥ घिल पूरवलों भाग भक्ति पाई रिखा के बारणे। कोरति फैली जग के माय बलभद्र की डीकरी ॥२७॥ खेले चौक के माय मदिर बणावे घणी ध्यारिया। बाई जलमिया शुभ दिन वार नापुत्या घर मगछ होरिया ॥२८॥ कीरति सुणी जगत के माय रूपा रूपा जग में हो रही। सुणी मवा में माल घोडा डकावे गोरमें रम रिया॥२९ ॥ गाव दूधवा के माय फौजा धूमे जी रावछ माल की। परिशिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) श्छ७ रूपा गई पिता के साथ खेतो लाटे आ मूंग रसाक की ॥३० ॥ धारू रिख रूपादे लार मात पिता सब साथ में। घूमे खब्य के माय खो काड़ेजी मूग रसाछ को ॥३१॥ धारू कहे मालजी सुणल्यो क्यों फिये जगछ के माही। घोडा भूखा थे हो प्यासा ओ कारण बतलाई ॥३२ ॥ किस कारण जगछ में डोलो सग में फौज सवाई। भूखा प्यासा फिये जगछ में साच कहो समझाई ॥३३ ॥ कहे बाई रूपा सुण भाई धारू सुणल्यो बात हमारी। पूरच लेख लिखा विधाता ने करमन की गति न्यारी॥३४ ॥ द्वोरे आया को आदर करस्या तन मन सेवा धारी। जाति पाति कुल कारण नाही बात मानल्यो म्हारी ॥३५॥ भारू कहे समचार बत्ूभद्र की कट्यि डीकरी। घर घोड्या रजपुत भक्ति साधे अलख महाराज की ॥३६॥ बाई को रूपादे नाम भाटो उगमसी गुरु भेटिया। धघारू के धरम की बहन चेला दोनु एक गुरुदेव कात३७॥ फौजा अनत अपार मेवा खन््ठ के तबु तण ग्या] १७८ शजस्थान सस्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लोनाथ बाई फिरै फौज के माय फिर फिर मनुहारिया कर रिया॥इट ॥ प्रालेजी जाण्या मन के माय रूपा सक्ति अवतार है। लिखिया पूरबला लेख भाग भलो रूपा परणल्या॥३९॥ > दोहा ५ सरवर को पछी जपे आवे तीर नजीक। प्यासा पानी पी चले नहिं सरवर के पीक॥४० ॥ मेघमाल इदर चढे घन चीजछ घन घोर। यहा नाडा में उहे नहीं सर्वर देखो और॥४१॥ मालजी.रजी मस्तक जा चढे नर्माई के पाण। टोल्या ठोकर खात है करडाई के काण ॥४२ ॥ घारू मोटा से मोटा मित्ठे करे मोटली बात। अपने गरीबी हाल है कैसे निमसी साथ ॥४३॥ रूपादे. मोटा जग में है नही मोटा है भगवान। राजा रक फकीर सब वही रची खल जहान ॥४४ ॥ बाईजी करे घणी मनुहार फौज में परूसे मीठा चूरमा। रुच रुच जीमो सब साथ चावछ जीमो मीठा खाड से ॥४५॥ परिशिष्ट २ (रूपाद मल्लीनाथ विपयक अन्य कवियों को रचनाए) १७ घोड़ा ने मृग रसाल टोडया ने नौरे नागर बेलडो। नगरी में हो रियो चाव घर घर अचभो सब मानियों ॥४६॥ अचरज करे नगर का लोग गरीबी हाल में फौजा डाटली। तान मात विस्वास घारू घ्यावे जूना देव ने ॥४७॥ मालजी आसा लग रही आपकी करो वचन बक्षीस। पूरव अक टवब्ठसी नहीं नही कहता विस्वा वीस॥४८॥ मिसरी का परवत बना कीौडी लागी जाय। मुख मावे सो ले चले परवत लिया न जाय ॥४९ ॥ टीको नारे झिलाय गरीब हालत में ब्याव रचाविया। आला नीला बास कटाय जोसी मे घुलायो वेदी ऊपरे॥५० ॥ माला को विनायक तबू माय घर में बाई रूपा तणो। घर घर मगर गाय सावा झिलाया घडी चौबीस काता५१॥ आला नीला बास क्टाय हरिया वोरण थन्न रौपाय। घर तो भद्रा के। कुटम क्बोलो नगरी के आय चेदी बनाकर व्याव रचाय बाई तो रूपा को ॥षरता जीमे विनोण जोमे जान सरब फौज का राख्यों ध्यात) श्८ट० राजस्थान सन्त शिरोमणि णणी रूपदे और मल्लौनाथ पघिल है घड़ी पिन है बार रूपा परणे माला के लार अक पूरवला ॥५३ ॥ वित बनोस नित मगव्थचार नित का जान चढ़ीं रहे तारा माला के डेण में। सुभ घडो सुभ नक्षत्र वार फ्रैय फिरे माला की लार गणी रूपादे [५४ ॥ कन्यादान हंथलेवा की वार वेदी हकन भक्ति अधिकार। धारू भद्ठा को। रूपा कहे सुण धारू वीर बिछडे पडे पैली तीर कब मिलणा होसी ४५५ ॥ सात फ्रेश बाई फ़िर रया माला के लोरे। बचन भाव पूरे भक्ति पद थारे॥५६ ॥ दोनू बिच में राम है सायबो पार ठतारे। सुगया नर सरगा जावसी मुगया नरक सिधोरे ॥५७ है गुरुमुख बचन निभावसी मालिक वाने तारे। साचा के सायबों संग रमें दिल कपट्या के बरे॥५८ ॥ (बारात की रवानगी) मात पिता से मिला प्रेम से कुटुम क््बीला भाई। गाव नगर नर नाये सास मिलिया अग लगाई॥५९ ॥ अलभठ ने सीख सातर में हाथ जोड़ सिर नाई परिशिष्ट २ (रूपादे मललोनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) १८१ दोन््हीं कन्या कलस मिट्टी को आ मोसे बण आई॥६० ॥ कह्मे सुण्यो सब माफ राखज्यों हम तुम अतर नाही। बेटी दोन््हों जन्म हारियो इसमें झूठी नाही ॥६१॥ दोहा हाथा हो कर्तव्य किया हाथा नाख्या फासा। बडा घंश में बेटे दौन्हीं फिर मिलने का सासा॥६२॥ घारू माल रूपादे राणो गया मालाणी माही। गढ़ दरवाजे चरचा फैली चद्रावढ तक जाई ॥६३ ॥ मालजी ब्याव कियो रूपा से घर घोड़या को जाई) पायेतण टीकायव बनाके राखे महला माई॥६४॥ चद्रावछ के क्रोध जागियो तन में आग लंगाई। इस जीवन से मरणो आच्छो इस दुनिया के माही ॥६५॥ « टेर ६ धारू ध्यान धरे घट माय पक पक सिमरे भूले नाय। तन मन धन अस्पे तत्काल आया साधा से प्रीति पाव्ठ। तन मन सेवा। ॥६६॥ माला के महला पडयो बिमचाछ माला के दिल में उपजे काढठ। नारद व्याप्यो। मालो परण ल्थायो रूपादे माल रूपा आई है धारू की लार मेघा की डोकरो ॥६७॥ घारू भजन करे हर बार रूपा जावे रिखा के द्वार जमलो जगावे। राणों चद्रावछ के क्रोध अपार रूपा ने लेवो जीव से मार जहर विखर देधोता६८ वा माल बहकवट में लाग्यो लार चद्भावठ बहकायो घर मार श्र राजस्थान सन्त र शिय्ेमणि राणी रूपादे और मल्लोगाथ नुगरी परमोद्या। हरजी भाटी हरिगुण गाय अ्रक्ता को भगवव करेला सहाय। सायबो उचारे ॥६९ ॥ सोजन्य स्वामी गोकुलदास डूपाडा धारू माल रूपादे की बडी वेल पृ १० २१ (२०) धारू माल रूपादे की बड़ी बेल > टेर की ८ सता रो सायब कर जाण जन्म मरण को भग मत आण तन मन अरपो। बीज थावर मिले बारह करोड हित कर हीय लीज्यो हिलौर घर तो धारू के॥ चलत रावब्ठ पूछे थाने राज पद्मणी महर भुम)या कर मानों थाये पथ रियो घणा दिन छानो। यू डोर माल कर झालो राणी यू अमरशपुर म्हालो ॥हो ॥ गणपत सुरसत रिध सिंध हेत नहवे ना धण्या का लेत पहली मनाऊ॥ बारह करोड़ गुरु घारू समेत जमले पायें धणी हित कर हेव। भक्त आगेधे॥१॥ धारू घ्यावे आवो आप परिहागे पूरवला पाप कृपा विचागे। ओंकार जग आराम थाप हरदम जपू आपका जाप स्वास स्वास में ॥२॥ चत्त घर थारू के जुमो जगाणा पूरे पाट परम गुरु आणा पर्तिशिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) श्ध्३े सत गुरुजी मेगा आणा हो) घारू के गुरु पाव धरणा पलट पाप धरम थरपाणा पैला गरुद्बेरे आणा हो॥ा३॥ हरबू' पावुर कवर रामदेरे मेहवे मेल मडाणा सठगरुजी बेगा आणा हो। भाटी उगमसी देवायत आणा मत भर सत बुलाणा सतगुरु का आज पियाणा हो ॥ड॥ टेर - आखा दौीन्हा घारू मेध ने गणपत निवत बुलावे। गणपठ जी ने बुलावज्यो लारे रिघ सिथ ल्यावे॥ आखा दीना घारू मेघ ने हनुमत निवत बुलावे। हनुमतजी ने बुलावज्यो माता अजनी ने ल्यावे॥ आखा दीन्हा घारू मेघने भैरू निवत बुलावे। बावन भैरू ने बुलावज्यो चौंसठ जोगण ने ल्यावै॥ आखा दीन्हा धारू मेघने रामदेव निवत चुलावे। रामकवर ने बुलावज्यो साथे डाली ने ल्यावे॥ ठेको कहे उगवसी सुण धारू बात चायक लेल्यो आपके हाथ निवतण जावो। झोली हाथ ले डोडया जा आज बाई रूपा ने के महला जाय जमला में बाई ने बेग बुलाय १३ ठीयें पीर माने गये है। श्टड राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लॉनाथ आज के दिहाड़े ॥५॥ झोली हाथ ले डोडया जा आज बाई रूपा ने दे अलख आवाज वायक देवो। सुद भादवों मुप मोहरत थाव हिल मिल पूजो अलखर पाव आज के दिहडे ॥६॥ चलत पूरीया पाट चावला चोखा मेले माट भराणां केंदीसो जमले आणा हो। डे भर धारू के धणी पथारया थरप्या पाट पुणणा बाई ने झट पट ल्याणा हो॥७॥ झोली घाल चल्यो रिख घारू महला अलख जगाणा बाईजी ध्यान लगाणा हो। ले वायक रिख धार आया रूपा वायक लेणा माईजी गुरु का कहणा हो ॥८ ॥ ठेको सुणों बात बाई बाहर आव धारू पूजे गुरा का पाव सुणता हो वो तो। गुरु उगवसी बिराजे पाट सुर नर देवा का रचाया टाठ वायक झेलो ॥९ ॥ बडा बढा जोगी राणा राव सब मित्ठ पूजें गुरा का पाव आपने ही मुलावे। सुणताई बाईजी पस्ताया हाथ बायक झेल्या जोवणे हाथ निवतो गुरा को ॥₹० ॥ परिशिष्ट. २ (रूपादे मललीनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाएं) श्८प चल्त - अवाट घाट घणा म्हारा वोग किस विय पार उतरणा बोरजो किस विष आणा हो। सादो सघर पोलिया पायक ताब्य सजड जुडाणा चौराजी मुस्किल आणा हो ॥११॥ निमण सलाम कोज्यो सता ने गुरा ने सीस निवाणा धारूजी जाके कहणा हो। आप मिलवो तो मिलस्या मेला में नौंदर याद राखजो म्दाने पैला गुरु अस्जी थाने हो ॥१२॥ ठेको - चोरी मत कर चाक होय चाल बोलो साथ झूठ मत हाल घणिया ने ध्यावो। या अकडा ने लेला परम गुरु पाल काई करेलौ रावछ माल नेहचौ राखो ॥१३ ॥ चारू कहवे घोखो मत मान अलख पुरुष का घर ल्यो ध्यान पार उतारे। सुमिरण कर बाई स्वार्सों स्वास भक्ता की भगवत पूरेला आस धोखा निवारों ॥१४ ॥ धारू कहे नागन नाग जगाय घारू ऊभो द्वार आय रूपा बुलावे। सुरे गाय को दूध मगाय दे छाटो थारू नाग जयाय काचा दूध से ॥₹५॥ काचा दूध को छाटौ दिशय मख दे धारू नाग जगाय बआमसक जायया। १८६ सजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाय सैंस फ्णा से जाप्यो नाग दे परकमा थारू पावा लाथ रूपा बुलावे॥१६ ॥ चलव पघारू पाट पहुचा पाछा निमण क्री साथा ने और सवगुरु ने हो। आप मिल्वों तो मिल्सा मेत्म में याद राखज्यो वाने चैला गुरु मुस्किल आणा हो ॥१७॥ सतगुर अण्ज सामने दाखे वेग बाई ते लाना प्रप्रय सुन अए्जी बाते हो। वा अकडा ने पालो परम गुरु भक्त सहाय कर लाना पैला गुरु जल्दी लाना॥१८॥ ऊभा अरज करे रूपादे सुण घरणीपर काव्य शअक््त रुखाव्य हो। साभलौ अरज आदैये आवो वासक सेज रूखाव्य बासक वात्या हो॥१९॥ सपह पिंयाव्य से बासक आवौ सेवक तणा रूखाव्य भक्त रुखात्य हो। बाई आरथे बासक आया सेज छोड बाई जमले सिधाया गुरुद्वरे हो॥र० ॥ ठेको सुगव विचार सोब्य सिणगार हेम जडया हीय नंगे चार करे तैयारी ॥ झेल सादका हो गई दैयार लखण बतोमों लीना लार जमले पथोरे॥२१३॥ शष्ट २ (छपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाए) श्८७ पायल बाजे पगा के माय मसरू पहरिया अगिया माय चण्यों ने आगेषे। वासक बात सुण प्रसन होय सेज छोड बाई मारण जोय गुरुद्वोर हो॥२२॥ चलत - लखण बत्तीस लार ले सकती वचन गुण के बेहणो नेम निभाणों हो। कर सोला सिणगार पद्मणी घणे हेत हरखाणो जमले जाणो हो ॥२३ ॥ कर चोरी चाली चाज्गी वासक मेल अडाणो हो। दृदय हार होर नग जडिया सब जेवर और गहणो धारू घर बाई ने जाणो हो ॥२४॥ नखसिख गहणो पहगर्यो सुदरी सोलह रूप धणणो हो। थट कर थाक भरियों गज मोत्या भोजन भाव भराणे जमले जाणो हो ॥२५॥ कर सिणगार गुर दिस चाली गुरु चरणा चित घरणा हो। कयो आगेध ध्यान धर हृदय सब धोख परि हरणो घणी मनाणो हो॥२६॥ ठेको - सूतो माल सेज के माय चोरी कर चाली महला माय महला से उतरे। मोत्या थावठ भण्या गज ठाट मोत्या जुडिया सजड कपाट खोलो खोलो हो ॥२७॥ पोलीडा बीरा पोछ उघाड हें जावा हरि गुरु के द्वार जागो जागो हो। १८८ राजस्थान सन्त शिगेमणि राणों रूपादे और मल्लीनाथ जावे जा? सत्ता को साथ बासक बध्या जावा रातों शत वाल्घ खोलो ॥२८ ॥ चलत. महर्ला से उतरी महागणां पोली ने आय उठाणो हो। डयोढीवान खडा दरवाजे ताला सजड जुडाणो पोल्छीडा मानो कहणों हो ॥२९ # रूपा कहे पोढिया वीरा ताब्य बुर खुलाणो हो। सकर सेवा देव गुरु दरसन दार्नों. काम पर जाणा पोव्यैडा पोल खुलाणो हो ॥३० ॥ कृच्या बिना किसी विध खोलू, ताला सजड जुडाणा हो। कूच्या पड़ी मालजी रे महला कूच्या आप मगाणों शणीजी कहणो मानो हो ॥३१॥ सवा करोड यो हार मूदडों देस्यू राझ से पाने हो। म्टारी बात करज्यो मत प्रगट बात राखज्यों छान पोलांडा कहणा मात्रा हो॥३२॥ ठकी. सार्ती ताब्या जुडिया साथ कृच्या फहीजे मालजी रे होथ। कृण नर लाव। कौण जगावे सृता सिंह कुण की मसरतटा जाये उम्र दविग प्रालजा यृत्ा है॥३३॥ कया आयाध बाई पाब्थिया जाय मेक? बला म्टाये काज्या सहाय टोन दयाहा। कर आगध पाल्या ताक" जुडिया परिशिष्ट. ३२ (छूपादे मललोनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं १८१ कूच्या बिना ही वाब्य खुल पड़िया हेलो सुणियों ॥३४॥ चलत - रूपा अरज करे अनन्दाता अजर पथ में जाणा हो। सतगुरु अरज सुनो अबब्य री पेले पार लगाणा जीवा का धणी झट आणा हो ॥३५ ॥ रूपा हाथ घरयो ताव्य पर जुडिया तोख खुलाणा हो। सजड जुडोजे खुल कर पडीजे अवगट घाट लगाणा ढौला गुरु जल्दी आणा हो ॥३६॥ रूपा कहे पोकिया बीरा प्रगट बात नहीं कहणा हो। पाछी आय रीझ थाने देस्यू म्हारी लाज रख लेना पोव्छीडा मानो कहणो हो ॥३७॥ म्हे तो राण चून का चाकर सरम भला वा काई म्हाने हो। थारी लाज परम गुरु राखे म्हारी लाज है थाने मानेतण बेगा आणा हो ॥३८॥ रैन अधेरी पावस बरसे नदिया पूर बहाणा हो। कर आरोध गुरा दिसि चाली उबग्यो नीर ठिकाणा चैला गुरु सहाय कग्रणा हो ॥३९॥ जमले जाय पूणी सतवती देख संत हरखाणा हो। फिर फिर नमण करे सत गुरू ने सब गत निरखे नैणा सत गुरु को साचो सरणौ हो॥४० ॥ १९० राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ वाल मजीय वोणा बाजे स्रवण सबद सुणाणा हो। जमले मित्झे सतवती सूरी साचा नेम ढबाणा वचन निभाणा हो ए४१॥ निमण सलाम सब ही सता ने पायो पथ पुराणों हो। आदू पथ धण्या का प्याता आवागमन मिठाणो साचो सरणो हो ॥४२ ॥ ठेको परसन होय पूज्या गुरु पाय मित्दी भाईडा से हेव लगाय हिब्>मिव्ठ जमले। जो मैं परणी मालजी रै साथ रैन चौमासा सो हो जावो यत इंद्र बरसों ॥४३ ॥ बारह मेघमाल ले बरसो इंद्र मालजी सूता रहे सुख भर नींद गढ मेव्ा में। बरसे बादक०क चमकै बीज भादौ मास उजाकी बीज मोत्या पाट पुराया॥ड४ड॥ आया अएोधे हरि गुरु देव मेहवा ऊपर बरसे मेह झडिया लगाई। कचन कब्ठस माणका ठांट सुभ मोहरथ गुरू पूरिया पाट लाभ के चौघडिये ॥4५॥ मगब्णचार होवे जै जै कार रिख धारू घर आनद अपार घर तो मेघा के। कव्ठह क्शवण गोमती जाय परिशिष्ट २ (छपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाए) श्९१ सूदी चद्रावछ ने जाय जगाय जागो जागो ॥४६॥ चलत कहै गोमती सुण चद्राववठ सूता माल जगाणो हो। रूपा गई रिखा के द्वारे बात झूठ मत जाणो माल जगाणो हो ॥४७॥ चेतन होय चद्रावल राणी सूता माल जगाणां हो। जागो कथ मेवा का राजा बात साच कर जाणो जाच कराणो हो ॥४८॥ कह्यो न माने राज री राणो थे काई राज कमाणो हो। आब्स मोड माल झट ऊठया किसड काम जगाणां चद्रावढ् मानो कहणो हो ॥४९ ॥ दीठा बिना दोगली राणी झूठ बात क्यों कहणो रूपादे सेज सपाणों हो ॥५० ॥ ठेको रात्यू जागी चद्रावव्ड नार करे कल्पना ऊभी द्वार) माल ने जगाया। जागो पीव भोव्ण भरतार लाडली गई है रिखा के द्वार! मानो मानो ॥५१ ॥ वा नहीं माने गज रे कहण छूटे नहां पडयौडा बेण जाकर देखो। नहीं देखो तो तज देवू प्राण झूठ बोलू तो राजरी आण साची साची है॥५२॥ १९२ राजस्थान सन््द्र शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ चलते. ठाव्य जुडकर सुख भरी सूतो दिवलो महल जगाणों हो। तू है दूती वा है सपूती तू कृडा कलक लगाणी झूठी राणों हो ॥५३ ॥ सातों सथर पोछिया पायक किछ विधि होवे जाणो हो। मालजी गढ़ मेहवा का राजा मानो बडा को कहणों चद्राव&छ मानो कहणो हो ॥५४॥ बोलू साच झूठ मत जाणों नहीं में अपब भखाणौ हो। रूपा रग सेज में ह्हादे तो कछ सीस कुरबाणो साच कर जाणो हो (५५ ॥ निपट नार नखराब्दे आपके सूप्यो राज ठिकाणों हो। ज्याने सृप्यो थे राव बिरावछ सूनी सेज पिछाणों मानों कहणौं हो॥५६॥ ठेका. कहे चढद्रावक्क सुनो भरतार ज्याको थाने घणों इतबार जाणों पाटोदणा लाइली गई है रिखा के द्वार कुण छा हो पुरख बुण का है नार खबर कराणों ॥43॥ सछयोजा गे सुतत हा नरपति जाण। बोर्र नहा मंद सके म्हारो काण हठ मत ठानां। जा कोई मेटे स्टारी का भूष पिउम रिप्ति ठग जावे भाण सत कर मतों ॥८८ # पौरोशष्ट २ (रूपादे मल््लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) १९३ कहे चद्रावछ सुणज्यो कथ नर से नारी बाद बदद सौस दे देस्यू। अबा बाद रे आ गयो तत कर कामण वस कर लीन्हो कथ साची जाणे॥५९ ॥ वाब्ठ मजीरा बाजे चौतरा मानेतण ल्हादेली रिखा के द्वार जा के सोध ल््यो। झुठ बोलू दो राज सी आण रूपा ल््टादे तो काया कुरवाण महला सोधो ॥६० ॥ राणी सूती महला के माय कूडा कलक लगावो नाय झूठी झूठो॥ महला ने छोड राणी भेघा के द्वार भूपा ने छोड भाभी भरतार सेज सभालौ ॥६१॥ उठया माल आयग्यो क्रोध सोकड तणो लाग्यो परबोध क्रोध घणेरो॥ बसता घग में पाडे विरोध साच झूठ थारी लैस््यू सोध झूठ मत बोले ॥६२ ॥ चलते कीर्न्य कोप मालजी मन में खड खड महल चढाणों हो। सणकत स्वास लेव महला में मालजी करे पिछाणो चद्रावछ मानो कहणो हो ॥६३ ॥ बोली झूठ झूठलो राणो झूठो अभख भखाणी हो। रूपा रग सेज में सूतो जमले कठा मे जाणी १९४ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ निरखों नेणों हो (६४ ॥ झूठ बोलू तो आण राजरी म्हने दाख क्यों देणो हो! दीपक जब्ढे दछोचो सोधो दख पारख लणो गाजाजां तन कुरबाणों हां ॥६५॥ जगमग दिवलो हाथ चद्रावछ महला भीतर जाणो हो। रूपा तेणी सेज मे सोधी सूतो नाग जगाणों महल गरणाणों ॥६६ ॥ ठेको. सेजा जाय समात्ये साल भपकयो माग उठयो विकराब्ठ सेम फण्या से! कहे चद्राव मोहि दिसि नहा कामणगारी करी थासे चाल सरप सुवायों ॥६७ ॥ थाने मारण मंल्यां काब्ये नाग देख नाग कांप्यो भड माल मार मार करता। पाछा पावडा दान्हा चार मालजों देख्यों अजब 'चिचार मन में सोचा ॥६८॥ चलत पाछ चार पावड़ा दीन्हा देख माल भभकाणों हो! कीनी कोप भूप भड़ मन में ओ काई आणो जाणो फैल मदाणों हो ॥६९ ॥ रैन अथरी पावस बरस बिना पूछया क्यों जाणा हा। कोष करियों मेहवा वो राजा क्षत्रिय खग समाणो पवा लगाणों हो ॥७० ॥ परिशिष्ट ३ (छूपादे मललीमाथ विपयक अन्य कबियों की रचनाएं) श्र्५ मजिया तुरग सोहनी सागत पवग जीण मडाणो हो। घणो कोप भेहवा को राजा रूपारी ब्हार बहाणा हो जाणों हां ॥७१॥ हल हल कार महर में हो गई रावक माल चढणो हो। तोनों हजूरिया नाई लार रूपा हेरण जाणो मालो कोपाणों हो ॥७२॥ हठेको - रल हल मालजी हुआ हलाण पवग नोला पर माडी पलाण हेरण जावे। रोग्या माल घेडे असवार फिर फिर सोधे सत द्वार धारू घर ही ॥७३ ॥ आगे पीछे सुणे रणुकार मालजा फिरिग्या धर घर द्वार हेरिया नहीं पाया। सालरियो कहने अरज गुजार भेख बिना नहीं मिले सत द्वारा भगवो धारो॥छड]॥ ठेको शावक चढिया रूपा वी वार भारू घर पड़दे देव द्वार मिन्ठ्या मिव्ठ्या। बाई साधा में चाटे भाव गुरु पीण का चापे पाव नजर से देखी ॥७५॥ बाबा पग की ली मोजडी चोर बाध कमर के तिहरे और देखे तमासा। सत मडब्ठों में व्यापी छोत मधरी पड़ी दिवलारी जोत बोई नुपस आया॥जउ६ ॥ १९६ राजस्थान सन््तर शित्रेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ मडब्ये में कोई धूल बैठो आय ख़बर करो कटक की जाय पकड़ भगयावों। इतरी सुन कर ठठ्यो भड माल आडा मारग रोका चाल कठे हो सिधारे ७७ ॥ आया माल रूपा गई जाण अवर घट की पडी पिछाण गुरुजी ने दाखे। राजमहल में पड गई जाण सागे सोकड का लाग्या बाण माल ने पठाया॥७८ है चलत दोय कर जोड खडी गुरु आगे कर रही अरज शुर् ने हो। सवगुर अग्ज सुणो अबला री बख्सो सीख घराने सतगुर जी लाज रखाणो हो ॥७९ ॥ बीदी रैन पाछलो तड़को खुबाप्त खबर ले जाणो हो। रूपादे की चोरी मोजडी माए्य माल रूकाणो सतगुरु जी साथी जाणो हो ॥८० ॥ बाई रूपा की चोरी मोजडी सोच घयो सता ने हो। करे आगेध सत सब प्िमरे नाई जावे ठबरने अरज गुराने हो ॥८१॥ अविगत अरज सुणी सता से सोध भोजड़ी लाना हो। ज्यरि पास मोजडी पाई सुर्ठ दरद कर दीता विडद रख लीना हो ॥८२॥ परिट २ (हुपदे मल्तौवाप विषयक अन्य यात्रियों बी रघनाएँ) श्र ठेछा - देसी सती रूपादे नार झूठो सोय करे बेवार सायबो ठबोरे। अरप राव आई एक पग थार अतए पुरुस रहतां धारी लार सोच ने निवारे ॥८३ ॥ बहन चंद्रावछ सोक कहाय एक बाद की दोय लगाय माल ने बहकाया। सूहा माल ने जगाया जाय बोप कर राजा मोपर आय बाका अनडी 0८४ ॥ घलत निमण सलाम करे सता ने राखे अरज गुर ने हो। आप मिलावौ हो फेर मिलाला नहीं तो याद राखज्यो म्हाने सलामी थाने हो ॥८५॥ इतरों सोच करो मत रूपा एकलडा नहीं जाणा हो। धाकी साथ कवर रामदे मत्र घोकौ नहीं लाणा नहथे रहणा हो ॥८६॥ आज पछा बाई रूपादे एकलडा नहीं आणा हो। हो साज़ोडे पघाणें महारणी सरगा बाट जोवाणा माल निवाणा हो ॥८७ ॥ राखो घीज रोज गुरु दीन्हीं यही वचन परमाणा हो। अब आस्यो जद आस्यो साजोड़े अनडी माल निवाणा साच कमाणा हो ॥८८ ॥ १९८ राजस्थान सन्त शिरामणि राणी रूपादे और मत्लीनाथ ठेका. निमण क्री है जोत ने जाय पल पल लागे गुयदी के पाय प्रानज्यो सलामी। लाख लाख पग पायल थोय सेवा देख सामिल सब हाय भाइडा भेव्ण रीज्यो ॥८९ ॥ सायब संत रम्या एक घाट रूपा सतवती निछोे बाट सामिल रीज्यो। फिर फ़िर निमण करे अरदास फेर मिलन की जग रही आस गुर देव मिव्णवों ॥९० # ठेको सथधर भरोसे एकलडी मत चाल स्ग मैं स्थाम ले पायडा ने पाल राखो भगेसो! इतरी सुण बाई आई मन धीर सूग में चढिया पिछम का पोर धघोक्छे घोड़े ॥९१॥ रहसी शुप्त बाई थार लार अजमल सुतन होग्या असवार अगत उबारण! जीवत बचू ता पिव्यस्यू आय नौतर समाव्ये सरगा माय प्रेष ही राखज्यो ॥९२ ॥ चलत सीख माग चाली सतवतों मारग माल मिलाणा हो। करे क्रोध मालजी पूछे कठे गई सो कहणा साथ बताणा हो ॥९३॥ पैन अथरी पादस चस्से क्ठे गई सो कहणा हो। फ्री फिरे अक्ला शत्यू, जिनवा उत्तर दणा परिशिष्ट २ (रूपादे मललोनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाए) १९९ मानो कहणों हो॥९४॥ कर रियो कोप मालजी ठाडा हाथा खडग समाण्ण हो। मास्या बिना आज नहीं छोडू, छत्री धर्म घटाणा झूठ कमाणा हो ॥९५॥ गई अकेली गज रे खातिर बिना बाग फूलों ने हो। लाई रोझ राजरे सम्मुख कोई थाने काई म्हाने राज सत्य जाणो हो ॥९६॥ ठेको मार मार करता उठया भड माल हाथ खंडग हथवासे ढात्ठ॥ जीवो माल। सिर पर खडग दियो कर झोंप जाणे सिंह उठयो कर होप मार मार करतो ॥९७॥ मार सको ते मारो राज पति मारिया की कोनी लाज मारो मारो। सूता लोग जगावो नाय बडा घरा ने हसला आय मानो मानो ॥९८॥ फिर फिर भाव्ठी थारो जात अकरम करम देखिया रात घर तो मेघा के। गुरु उगवसी कठे थारी साथ तुरत मारू अब हाथो हाथ थारा गुराने बुलाबो॥९९ ॥ मैं तो गई थी फूला के काज म्हानै मार पछतावोला राज थोडी समझ विचारो॥ अऋज्त बीण लाई थावर राजस्थान सन्त शिग्रेमणि राणी रूपादे और मत्लीनाथ थाके ता गूथ लाई फूलमाब्ड पहरा पहरौ ॥१०० हा चलत फछ् नहीं फूल बाग नहीं बाड़ी न कोई बाग सेवाणों हो। रात्यू बसी मेघा घर राणी जमला जोठ जगाणी कूड बखाणी ॥१०१ ॥ गंढ गिरनार मडोवर बाडी जयसलमेर जूजाब्ये हो। के चित्तौड मेडते बाडी ज्याको दूर पियाणों किस विध जाणो हो ॥१०२॥ फूल लाया तो म्हने फूल मवावो नहीं तो धार खडग की सहणो हो। परच्या बिना परतीत न मात्र, परव्यो आज मने लेणो पराटोतण मानों कहणां ह॥१०३॥ कोप्यो आज मेहवा को राज भुजा खडग भव्काणों हो। भव्य्की भुजा इस्ट सब आडा ऊचा हाथ रहाणो भक्त बचाणों (१०४ ॥ ठेको वैसी हो घड़ी है म्हात दीन दयाल भीड पडी थार भक्त सम्हाबू वैसी तो घडी है वो] सतयुग हिरणाकुस होय हैराण भक्त प्रहाद छोडी नहीं बान संत कर सिमरिया। ब्रसिंह रूप थरियो भणी आण अरज सुथो ज्या की सारग पाण वा गा बेव्य है ॥१०५॥ हरिचद सुवन ताशदे नार सतत के काज बिक्या नर नार सिमरण सावा था परिशिष्ट २ (रूपादे मल्लोनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाएं) २०१ बा सता ने है बब्वहार पाछ्छी प्रीव म्हारा कुजबिहार वैसी तो घड़ी है। दुस्सासन कौचक लाग्यो लार खेंचत चीर दुसस््ट गयो हार साचे मन ध्याया। खेंचत चीर अत नहीं आय लाज रखी नाग़यण राय वा तो घडी है॥१०७॥ जल दूबत गज करत पुकार गरुड छोड भाग्या करतार 'फद निवारियों। आह मार गज लीन्हों उबार जेज करो मत सुणो पुकार वैसी तो घडी है ॥१०८॥ दिल्ली बादशाह परच्यो लियो पूर खींवण मेघ रणसी नहीं दूर अलख मनाया। सत का कग्ेत लिय सीस धराय दूध फूल निकल्या देह माय वा तो बेला है ॥१०९॥ साचा सत साचा गुरुदेव साचा धणी की करी म्हें सेव सिमरण साचा है। कोष्या मालजी चीर उठाण थटकर थावठ फूल महकाण आरोध्या आग्या ॥११० ॥ चलत रूपा अरज करी सतगुरु ने अलख आरोध आणा हो! लाजे बिडद म्हा'र चढ बेगो अनडी माल निवाणा चणी झट आया हो॥श्श्श्श ्ई०्२े राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ चीर उछाठ माल किया दूरा फरहर फूल महकाणा हो। रग रंग फूल थाढ्ू थट भरिया पड़दे पौर दरसाणा अनड निवाणा हो ॥११२॥ पान फूल भरिया थाव्झे में गया नीर झलकाणों हा। चपो चमेली केत केतकी थट कर थाछ पराणो बिड॒द निभाणी ॥११३ ॥ पड़दे नूर बरत्या घणिया रा 'भनडी माल निवाणा हो। प्रव्त्की भुजा जहा ठहा रह गई साज्ो पश् अब जाते मिलयो ठिकाणो हो ॥११४॥ ठैको देख माल अब आई धीर परव्यो दियो पिछम का पीर धौज धरिया की। धिल्म थारी जन्म पिन थारी जात घिल घिल रमी सता रे साथ जन्म सुघारियो ॥११५ रूपा राणी रतन सवाय थार धणी को म्हाने पथ बताय गुनाह माफ़ करावो। थे साथा म्हे झूठा भरतार अलख पुरुस रम रीग्रा थाकी लार भक्ता के भ्रेव्य ॥११६॥ चलत टेर दूसरी रावक्ट पूछे थाने राज पद्मणों महर मया कर माना चाये पथ रियो घणा दिन छानो मानतण किया म्हारों मानो। आप क्हस्यों सो हो वरस्यू राणी परिशिष्ट. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) २०३ नही लोपू मैं कह्णो हो। सतत का पथ सता का मारग वचन आके बहाणो मानेहण मानो कहणों हां॥११७॥ दाखो भेद राखो मत छात्र जाय गुरने कहणो हो। तन मन धन अरपण कर देस्यू, म्हाने अजर पथ में लेणो पाटोतण मानो कहणो हो ॥११८॥ सरणे राख त्यार महादुरगा पत्न पल चरणा रहणा हो। आज पहली की खता माफ कर अब तो थारों सरणों मानेतण मानो कहणो ॥११९ ॥ रहस्यू बचन वचन में थाके अबा पथ में लेणों हो। जूना धण्या का मारग बताओ म्हारो सीस कू कुरबाण पाटोतण मानो कहणो ॥१२० ॥ ठेको बिना प्रतीत पावे नहीं पार ओ पथ मालजी खाडा कौ धार कठिन करारो। अजरा जरे राखे ईमान पूरा गुय को पाब्ठे ग्याव। मुस्किल जाणो ॥१२१॥ इतर दिन तक रियो मैं अजाण साचा पथ की अब पडी है पिछाण बेग मिलावो। अब नहीं बढाओ तो दज दू मैं प्राण झूठ कहू तो सब्खखाजी री आण गुरा ने मिलाबो ॥१२२॥ बेगा जाबो णाणी गुरा के द्वार बिच-मेंअिलम न कीज्या बार राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनायथ बेगी पणारों। पूणी रूपा रिखा के द्वार गुरु चरण में करे निमस्कार पिन धिन दाता १२३ ॥ पिन गुरु दीन्हा अजड निवाय अब तो चेलो का होग्या मन चाय बंगाई समाल्या। बाका माल आपके चरणा में आय चेलो कर करल्यो मन चाय बेगा पघारों ॥१२४॥ चलव कठिन पथ है गुण शा मालजी बिन पर प्रतीव न कहणो हो। निर्मल सत पथ में चालो थूछ भेद नहीं दणा मालाजी मानो कहणों हो॥१२५॥ थूल मिटावो सत बगाणो चरण गुरा के रहणे हो। थावर गीज सब करे मेव्य वचन गुर ने लेणो मालाजी सरणे जाणा हा ॥१२६॥ रूपा अरज माल ने दाखे सत संगत में रहणों हो। गुठ का नेम भाद रा मारप ओ हिरदे घर लेणो मालोजी मानों कहणां हो॥१२७॥ अजगर जर ईमान राखो राजा महाधरम में मिलणो हो। खाडा वी धार सुई को नाको कठिन पथ मित्ठ रहणों राजा जो मानो कहणों हो ॥१२८॥ ठेका गढ़ मेहवा में निवत्योडा आय गुझ सता ने माल बधाय आवो आवा। परिशिष्ट २ (छूपादे मल््नीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं २०५ बाजा बाजे अनत अपार गढ़ भेहवा में जै जै कार गुरुजी पधारिया॥१२९॥ शुरु देवायव उगवसीजी आय पुजल यद्या मगछ गाय गढ तो मेडवा में। रामा कवर अजमल घनराज साह सधीर तोब्य जेठछ राज भला हा पधारिया ॥१३० ॥ ऐल्ू दैक्ू सलारिखों साथ प्रेर्ू हनुमत बात्ये नाथ भण भला है रावत रणसी खींवण भेघ सामिक रिखी का चेला भेख आय्य आया॥१३१॥ सुवारथ्यो बोय तो हरबू पाबू लार मेवो मागव्यियो धारू कोटवाब भाग्य सरावै। सिद्ध चौरासी नौजनाथ पडदे रमे दैवा के साथ पघिनन बाई डाला ॥१३२ ॥ घिन घिन रूपा सधर घणी ध्णय अनडी माल ने अलख निवाय अब आवे पथ में। माणक भोत्या चौक पुराय कचन कव्ठस अघर ठह्राय गगाजक भरियो॥श३३॥ धारू रूपा है कोटवाब्ठ थावर बोज है सुद पखवार घिनन दिहाडो। कब्स होर अमोलख चार झिलमिल जोति देव द्वार बाहर भीतर॥श्रेड॥ २०६ राजस्थान सन्त शिगेमणि राणी रूपादे और मल्लोनाथ चलत रूपा अरज गुगने दाखे अनडी माल निवाणा हो। आवै माल राज रे सरणे लोह कचन कर लेणा चोर ने लाणा हो॥१३५॥ अठे चोर को काई काम बाई पहली पारख कर लेणों हो। चारों जीव हेत कर विरधो पछा पथ में लेणों मानो कहणो हो ॥१३६॥ पाडछ गाय गगाजर घोडो कवर जगमाल विरघाणों हो। अद्रावछ महला में विरधो जदा पथ में लेणो साच कमाणों हो ॥१३७॥ घारू वचन गुरा का सुणाया करो मालजी कहणो हो। चारों विरथ पछा ये आवो गुरु पथ में बढणो माल सुण कहणों हो॥१३८॥ सत गुरु वचन लियो सिर ऊपर झंत्री खडग समाणो घोडो विरध आय कवर व ॥ब९ आयो क्भा पररिशिष्ट. २ (रूपादे मल््लीनाथ विषयक अन्य कवियों कौ रचनाएं २०७ अब तो पथ में लेणो रूपादे मानो कहणो हो ॥१४१॥ समचे साथ हुआ सब भ्रेव्य अगर घूप महकाणों हो। अलख पुकार ब्हार चद बंगा चारों जीव जगाणो माल निवायों हो॥श्डर ॥ अलख़ आगे ऋपप कर दान्हा मरे वचन गुराज़ो रे बहणों हो। फ़ैरू कहो सो करस्यू स्वामी नेम आपको लेणो पायेदण मानों कहणों हो ॥१४३॥ ऊठो माल झेल गुरु वायक पहली महल में जाणो हो। होया पन्ना मोती जवाहर चारों रन ले आणो पट चढाणों हो ॥१४४॥ पाड़छ गाय सजीवन कौदी बछडो घेनु मिलाणो हो। हेवर खुरी पायगा हींसे पबग जीण मडाणो पथ में जाणों हो॥१४५॥ कवर पाग पचरगों बाघे महला में मुलकाणो हो। घणे हेत चद्रावछ राणी सोलह रूप चढाणो आयो पियाणों हो ॥१४६॥ हुकम करो गुरु हाजिर आयो देव दिलासा देणो हो। सत के पथ सत कर भेव्य मेने अस्ज पथ में लेणे मानेदण मानो कहणों हो ॥१४७॥ राजस्थान सन्त शिगेमणि यणी रूपादे और मल्लीनाथ चार्यो दिसा भेजिया बायक मन भर सत बुलाणों हो। आया सत मालरे निवते मेहवा में मेब्ये मडाणों पथ थपाणो हो ॥१४ड८ ॥ थिर कर पाट परम गुरु थरप्या मोत्या चौक पुगणों हो। सोहन कब्ठस गगाजर भरियों धणिया री धीज थपाणो पथ पुराणो हो ॥१४९ ॥ हालिया धरम धणियारी महिमा झिलमिल जोव जगाणों हो। मिल्िया सत हुई मनुहारा संतरे पथ बहाणो गुग को सरण्गे हो ॥१५० ॥ ठेखो आख नाधू तो अलख जी री आण सतगुरु आगे लाया वाण रावछ मालने॥ पाट पीवाबर पडढ़दा तणाय जोत कव्स के सन्मुख बेठाय खराब माल ने॥१५१॥ आख बाधकर धारूजी स्याय सेली सिंगी देवायव पहशाय नुगरा का सुगरा। गुरु ठामसीजी दील्हा माधे हाथ दे गुरुमत्र करिया सुनाथ चेला नाथ्या हे १५२॥ आरती करे मालजी री नार कंचन कब्स्स हाथ ले थार घणियारी उतारे। सहस्त बाती जत संत सार झिलमिल जोवी देव दवार घरणा हो ठगमसे ॥१५३ ॥ परिशिष्ट २ (छपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) २०९ बधियो थरम मेट्वा रे माय घर घर जमला जोत जगाय घोखा मिटम्या। सता सी साहब राखो लाज बाजा बाजे मनोज दिन आज घर तो माला के॥१५४॥ चलत सेली सिंगो नार जनेऊ काना कुडल दोन्हा हो। सती मर्द सिवनाथ सजोया वचन उगवसी दीन्हा पथ भवीना हो ॥१५५॥ सत का वचन पात्यया साथा वचन गुर का चीन्हों हो। राणी का पथ साच का सिमरण माल रूपा पथ झीणा मारग इण बेणा हो॥१५६॥ धारू मेघ को घूप प्रमाण धूप तो धणिया ने खेवा धूप है अवतार ने! झरका रा देव ने रूणीचा रा सम। भाई तो हींगव्यज ने आपणा गुरुदेव ने। ब्रह्मा विष्णु महेश ने भैरू हनुमत वीर ने तेंतीसों सुर देव ने खेवा गूगछ घृूष हरि ने। प्रथम सुमिरू सारदा गणपत लागू पाय जी। सुरसत यणपत सिमरता भूल्या यह बठाय जी॥१॥ आगणियो रव्ियावणोमदिर जे जै कार जी। अर फ्रणी नूर बरसे राच हो सचियार जी ॥३ ॥ आवो साधो खेती बोवा माणक मोती जवाहर जो। खेती माही होगा निपजे लूणेला सचियार जी॥३॥ एक डोरी गुरु सबदा दूजी अलख परवाण जी। सीता कुती अहिल्या वे चढी निश्वाण जो॥ड॥ २१० राजस्थान सन्त शिरोमणि रणी रूपादे और मल्लीगा इगब्य पिंगव्य सुखमणा उन्मुनो उरधार जी। खेचरी में पीवत प्याला आवागमन निवार जी ॥५॥ पिंड ब्रह्मम एक सोझो घट मठ सरजनहार जी। स्वासा स्वासा सुमिरण साझो गुरु वचन आधार जी ॥६॥ धरा आभर बिच बेलडी साथे सत सुजाण जी। मेघ घारू यों भणे धूप रा प्रमाण जी॥ घारू द्वारा मालली को उपदेश जमला री रेण जगाय म्हारा बीरा रे जमला री रेण जगाय॥ जमले गुरु म्हागे आवेलो अजमलजी का रामा आवेला गुरुजी वो। मत कर अरडा से हेत म्हागा वोणा ॥१॥ अरड चढे ऊचा चढे गुरुजी यो कर आबा से हेत म्हाग बीय जी॥२॥ आम फक्े नीचा लूल्े गुरुजी वो कर समदा से हे म्हारा वीराजी ॥३॥ नाडल्या काई न्हावणा गुरुजी वो। नादूल्या सूख जाय म्हारा वीराजी॥४॥ समद हिलोला ले रिया शुरुजी वो। मत कर नारिया से हेत म्हारा वीरा ॥५॥ जाणो कसूमल काचव्ठी गुरुजी वो। थोया से घुप जाय म्हांग़् वीरा जी॥६ ॥ फटकारिया काई बैठणो गुरुजी वो! डूगरिया सूक जाय म्हारा वोरजी हो ॥७॥ परवत हरिया रहवसी गुरुजी वो। गुड से होवे खाड म्हाय वीराजी ॥८ ॥ खाड पलट मिस्रो बणे गुरुजी वो। बोले घारू मेघ म्हाग वोरा जो॥ कठण करणी है साध री मालाजी बो॥९ ॥ परिश्िश २ (छूपादे मल््लौनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) २११ धारू ऋषि की ज्ञान-कथा स्री गनपति सन्मुख रहे हिरदे सारद माता] आदि अनादि अलंख थाने सुमिण देव दया कर दाता॥श॥ उत्पत्ति आदि प्रथिवी पहले अविगत आप ठपाया। आदि अलख का अस अरल रिख हरि घर रुजमा पाया॥२॥ आतम देव रहिया गुण गेवी जब रिख सुनमें रहता। परथम मूछ भाव मैं भेला हाजर सन्मुख होताआ३ ॥ पजा जोड परम गुरू मिव्िया क्रपा करके हाथ घरिया। जुगा जुगा से आगे रहता अलख किया सो काम करिया॥ंड॥ पहले धणी ध्यान में बैठा मेघवस पर हुई मया। अमर छडी अलख की सेवा रीझ् करी जद राय दिया॥५॥ आरम रूप करिया बहु भारी नर नारी घर वास हुया। चार देव ब्रह्म ने सृप्या घर रिखिया के आप रिया॥६॥ घर घर भेघ धरम रिख झेल्यो हर का आग्याकारी। बाचे वेद अगम को वाणी अगिरा रिख जाणा जारी॥छ॥) सत का नेम लिया सतवादी मानव मेघ रिख मणघारी। आया भेख आत्मा पेखी उदको कन्या कवारी॥८॥ घर भार धरम रिख जूप्या खींवण डाली अधिकारी। पाया पथ पियाव्झ पूणा सारी बात सुघारी॥९॥ अब करता ने कौन समाल्यो आग्यो सत को बारो। परणो पाट सती रिख चवरया निकरछंग पाट पधारों ॥१० ॥ सव का वचन सुनो सतवाद्या गुरु पीर दिया आदि चिता। रिख भगवान सदा हरि सरणे अमर बाचे ग्यानकथा॥श्श 0 रूपादे द्वारा मल्लीनाथजी को उपदेश हो जावो साध सुधर जावे काया। पम्हात धणिया रो मरग झीणो! हो रावछ माला मालजी ऊडा ऊडा नीर अथग जछ ऊडा। तेरूडा से चाग नहीं आयो ॥१॥ प्र राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ मालजी दिल माही कपट कमर माही छुरिया। कहवा का साध कहावे॥२॥ मालजों घर में हो आबो थरे घर में आमली। पर घर चूखण क्यों जावे ॥३ ॥ मालजी पसर बेलडी के नाना फल लागे। ज्यानें खाया ही मर जावे॥ड ॥ मालजी भावला री नार आगणिये ऊभी। जीने माता कह बतलावो॥५॥ मालजी घर कौ खाड करकरी लागे। चोरी को गुड मीठो ॥६॥ मालजी बिछत्ठे नारी कौ सग नहीं करणो। कुसग लाछण लागे॥७॥ मालजी उतर खेत बीज नहीं बोणा। बीज गाठ को जावे ॥८॥ दोय कर जोड रूपा राणी बोल्या सत अमरापुर पाया॥९॥ वो रावछ माल_ ऋषि खीवण की रचना गायत्री राज सरस्वती ध्यावु तोय सबद सारदा दीजे मोय। तेशा कथिया कहू मैं ग्यान मीतर कुण जाणे अनुमान॥१॥ ग्यान भडारा तू ही खोले मुख से वाणी अनुभव बोले। उत्पत्ति प्रयय कौ पूछू बात धरती की पूछू मरियाद॥२॥ केती घण्ती केता कपाट केता है मेरु मदिर कैछास। केती है साधा री वाणी केता है पावन पाणी॥३॥ केता है द्वीप केता है खड केता है राजा केता है ब्रह्मड। ञ परिशिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों कौ रचनाएं श्ध्३े चांद सूरज के केता है पियाणा समझ बताओ ठौर ठिकाणाएड॥ मूरख नर अभिमान करे बिना ग्यान से अडवों फिरे। ब्रह्मा वेद काजी कुगण कहो पडिता किसे दिन रचाया घरती आसमान॥५॥ वा ठिथि वार बता दो मोय जब सिर मोड हमारा होय। सकछ जगत को एक हो खोज ब्रह्माड घट माही सोझ ॥६॥ इसी ग्यान को धरल्यो ग्यान सब ग्यान को ओ ही है म्याना पढ़ पढ पडित वेद सुनाया उनका पार कोई नहीं पाया॥७॥ पाच तत्व से जग रचाया रणुकार का स्थभ लगाया। सक्ति ऊभी हरि के सहारे सायब सक्ति मिव्ठ मडप घारे॥८॥ जग थरपना का पढिये जाप प्रलय जाय क्रोडा पाप) सुरसत ग्यान से हुआ विचारा हिरंदे खुल गया ग्यान भडारा॥९ ॥ अनुभव ने भाखे अपरपारा अजल्यो नाम ने बारबारा। हो जावे काया निस्तारा कर्ता आप अखड अपाया॥ए० ॥ अदर बाहर रहदे न्याग नहीं था अबर घरण पसारा। चाद सूरज नहीं नौ लख तारा सुन मडछ में धुघुकारा॥श्१ ॥ र्श्ड गजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ । जब्ये बब नहीं थो काया नहीं था मन नहीं थी माया। सक्ति साहब का जोड़ा होता सेस सैया में आप ही सोगा॥ह२॥ नाभि में से कमछ ठपाया पैदा किया ब्रह्म से माया। उपाया तीन देव लोक रच चौदह पाच उत्व वीन गुण भेद संरोदा॥१३ ॥ पहली थरियो पात्र में पाव पानी ऊपर बण्यों बनाव। हरि मनसूबो फेर करियो कच्छ मच्छ होय जछ् में तिर्रियों ॥१४॥ कोरम को इतनो विस्तार प्रथ्वी से दूनी देह सुम्मार। उनकी पीठ पर आठ दिग्पाढ बासक रहवा सात पवाछ॥१५॥ बासक को इतना विस्तार दो दो रसना फ़ण एक हजार। छप्पन लाख चौडी फ्ण एक ऐसी जुगत से ओर अनेक ॥१६ ॥ ऐसा जोध मेल्या नौचा ने राई जिकनों भार लगे छे वाने। ओजन करे है स्वास उस्वास अरध नाम को है विस्वास ॥१७ ॥ उनचास क्रोड भ्रथ्वी जानों न्यासे न्याये कहू ठिकानों! सोलह क्रोड करवश नौचे तेरह क्रोड तरवरा नीचे ॥१८ ॥ नौ क्रोड पर्वत है साथ नर के नीचे जानो ग्यारा ऐसी जमत मेल्या विस्तार १९ ॥ परिशि् २ (रूपादे मल्लोनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाएं) र्श्५ छप्पन क्रोड चाद सूरज ठजाव्य छत्तीस क्रोड ग्रहण में भाव्य। सूरज देव के सहस किरण घोडो जूपे सावकरण ॥२० ॥ उस थोडा के मुख है सात रथ हाके चोर्यो जात। बह्या का बेटा हवा करे चले अफूटा काज सरे॥रश्॥ विस्तार है नौ लख बाग सात रिसी और घुवजों न््याग। चस्तो से एक लाख योजन ऊचो सूरज को बिवाण॥२२॥ सूरज से एक लाख योजन ऊचो चद को विमान!) चद से एक लाख योजन 'ऊचा नक्षत्र ताग॥२३ ॥ नक्षत्र तार से एक लाख योजन ऊचो मगढ्ठ को विमान मगछ से एक लाख जोजन ऊचो बुद्ध को विमान॥र४ड॥ बुद्ध से एक लाख जोजन ऊदचो बृहस्पति को विमान बृहस्पति से एक लाख जोजन ऊचे शुक्र को विमाना२५॥ शुक्र से एक लाख जोजन ऊचो सनिस्वर को विमाना सनिस्वर से एक लाख जोजन ऊचो राटू को विमान॥२६॥ राहुसे एक लाख जोजन ऊचो केतु को विमान। केतु से एक लाख जोजन ऊचो पवन मडछ॥रऊ॥ २१६ सजस्थान सन्त शिरोमणि राणों रूपादे और मल्लीगाथ है? पवन मडब्ठ से एक लाख जोजन ऊची इंद्र मडब्ल। इंद्र मडछ से एक लाख जोजन ऊचो जठर पछी ॥२८ ॥ जठर पछौसे एक लाख जोजन ऊंचो गरुड पछी। गरुड पछी से एक लाख जोजन ऊचो कैलास 0२९ ॥ कैलास से एक लाख जांजन ऊचो ब्रह्मतोक। ब्रह्म लोक से एक लाख जांजन ऊचो स्वरगलोक ॥३० ॥ स्वग लोक से एक लाख जोजन ऊचो मड। मड़ से एक लाख जोजन ऊचो डड॥३१॥ डड से एक लाख जोजन ऊचो अड१ अंड से एक लाख जाजन ऊचो धन॥इर ॥ घन से एक लाख जोजन ऊँचे निरंजन स्वर्ूपी।) जिनके ऊपर अलख मरूपी पिन घिन हो करता भगवान ॥३३ है मनुस्य ने दौन्हों भक्ति दान आप उपाई लख चौरसी खाना मो लख जीव थरिया जल माही दस लाख पछी परवाई॥उड ॥ श्याण लाख कौट भ्रम भाई बीस लाख स्थावर विस्ताय। होम लाख पस्तु परिवार चार लाख मनुस्य मडाण॥३५ ॥ परिशिष्ट २ (हपादे मललौनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) २१७ यह सब लख चौगसो जाण अजुस्य जन्प में ग्यान सिर साथ। पहले कहिये आद जुगाद ब्रह्मा विस्णु महेस महाघ ॥३६॥ संतरूपा स्वयभू भोन जिनके लडकी जन्मी तीत। जिनकी पति प्रिथु उपनीत रघ में बैठ गया डूडी॥३७॥ नौ जोजन लीक पड़ गई ऊडी बद्याजो का मार्कण्डेय जी। पअ्रक्यय हो गया खडे खडे जी बछुडा चार गाय एक टेबी॥३८॥ लाल गुवाल्यो लारे है भी परख्या पाठाछ में पाव। इवकौस ब्रह्माड को कन्हो न्याव ब्रह्मा के बारह अवतार॥३९॥ हिस्ण्यकश्यप को कोन्हों सहार ब्रह्मा के बेटा चार लाख साठ हजारा केता तो सिखेसर होग्या केता होग्या गहस्थ चार ॥४० ॥ बहन भाई से मडयो व्यवहार उनके हुआ राजा दक्ष दक्ष के हुआ पिथु अवतार जिनसे बधी मेर मण्जादाडश 0 पीछे ऊच नीच को पड़ी भाव शजा पिथु लियो पृथ्वी से दड बसा दिया न््यार नो खड राजा पिथु हुयो अवतारतडर ॥ पथोजे दुह दुह कर निकाब्ये सार जिनमें नाज निपज्या चार। गेहू चावल जौ ज्यार जोवा के ताई क्यो इलाज ॥४३॥ २१६ राजस्थान सन्त शिरोमणि शणी रूपादे और मल्ली पवन मडछ से एक लाख जोजन ऊचो इंद्र मडछ। इंद्र मडछ से एक लाख जोजन ऊचो जठर पछी॥२८ ॥ जठर पछीसे एक लाख जोजन ऊचो गरुड पछी। गरुड पछो से एक लाख जोजन ऊचो कैलास॥२९ ॥ कैलास से एक लाख जोजन ऊचो ब्रह्मलोक। ब्रह्म लोक से एक लाख जोजन ऊचो स्वरगलोक ॥३० ॥ स्वर्ग लोक से एक लाख जोजन ऊचो मड। मड से एक लाख जोजन ऊचो डड॥३१॥ डड से एक लाख जोजन ऊचो अडा। अड से एक लाख जोजन ऊचो घन॥३२॥ घन से एक लाख जोजन ऊचो निरजन स्वरूपी। जिनके उसर अलख मखूपों पिन घिन हो करता भगवान ॥३३॥ मनुस्य ने दीन्हो भक्ति दान आप ठपाई लख चौयसी खान। नौ लख जोव धरिया जल माही दस लाख पछी परवाई॥३४॥ ग्याए लाख कीट श्रग भाई बीस लाख स्थावर विस्ताग्रा ठोस लाख पसु परिवार चार लाख मनुस्य मडाण॥३५॥ परिशिष्ट. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाए) २१७ यह सब लख चौणासी जाण मनुस्य जन्म में ग्यान सिद्ध साधा पहले कहिये आद जुगाद ब्रह्मा विस्णु महेस महाघ ॥रे६॥ सतरूपा स्वयभू मौन जिनके लडकी जन्मी तोन। जिनकी पति प्रियु उपनीत रथ में बैठ गया डूडी॥३७॥ नौ जोजन लीक पड गई ऊडी ब्रह्माजी का मार्कण्डेय जो । प्रद्य हो गया खडे खडे जो बछडा चार गाय एक टेबी॥३८॥ साल गुवाल्यो लारे है भी परख्या पाठाछ में पाव। इबकौस बह्याड को कन्हो न््याव ब्रह्मा के नारह अववार॥३९॥ हिएण्यकश्यप को कीन्हों सहार ब्रह्मा के बेटा चार लाख साठ हजार। केता तो रिखेसर होग्या केता होग्या गहस्थ चार॥४० ॥ बहन भाई से मडयो व्यवहार उनके हुआ राजा दक्ष । दक्ष के हुआ पिचु अवतार जिनसे नथी मेर मरजाद॥४ड१॥ पीछे ऊच नीच को पड़ी भाव राजा पिथु लियो पृथ्वी से दड बसा दिया न्याय नौ खड राजा पिथु हुयो अववारशंडर ॥ पथीजे दुह दुह कर निकाव्ये सार जिनमे नाज निपज्या चारा गेहू चावल जौ ज्वार जीवा के ताई कियो इलाज ॥४३॥ रश८६ राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ पवन मडब्ठ से एक लाख जोजन ऊचो इंद्र मडब् | इंद्र मडछ से एक लाख जोजन ऊचो जठर पछी ॥२८॥ जठर पछौसे एक लाख जोजन ऊचो गरुड पछी। गरुड पछी से एक लाख जोजन ऊचो कैलास॥२९॥ कैलास से एक लाख जोजन ऊचो ब्रह्मलोक। ब्रह्म लोक से एक लाख जोजन ऊचो स्वर्गलोक ॥३० ॥ स्वर्ग लोक से एक लाख जोजन ऊचो मड। मड से एक लाख जोजन ऊचो डड॥३१॥ डड से एक लाख जोजन ऊचो अडा! अड से एक लाख जोजन ऊचो घन॥३२॥ धन से एक लाख जोजन ऊचो निरजन स्वरूपी। जिनके ऊपर अलख मखूपी घिन घिन हो करता भगवान॥र३३॥ मनुस्य ने दीन्हो भक्ति दान आप ठपाई लख चौरासी खान! नौ लख जीव धरिया जल माही दस लाख पछी परवाई॥३४॥ ग्यारा लाख कौर ग्रग भाई बोस लाख स्थावर विस्तारा। तीस लाख पसु परिवार चार लाख मनुस्य मडाण॥३५॥ परिशिष्ट ३ (हूपादे-मल्लीनाथ विषयक अन्य कविर्यों को रचनाएं) २१७ यह सब लख चौगरासी जाण मनुस्य जन्म में ग्यान सिद्ध साप। पहले कहिये आद जुगाद ब्रह्मा विस्णु महेस महाघ ॥३६ ॥ सतरूपा स्वयभू मीन जिनके लडकी जन्मी तीन) जिनकी पति प्रिथु उपनीत रथ में बैठ गया डूडी॥३७॥ नौ जोजन लीक पड़े गई कही बह्माजो का मार्कष्डेय जी। प्रठय हो गया खडे खडे जी बछडा चार गाय एक टेबी ॥३८॥ लाल गुवाल्यो लोरे है भी परख्या पादाछ में पाव। इबकौस ब्रह्माड को कन्हों न््याव ब्रह्म के बारह अववार॥३९॥ हिरण्यकश्यप को कौन्हों सहार ब्रह्मा के बेय चार लाख साठ हजार। केता तो रिखेसर होग्या केवा होग्या गहस्प चार॥ड० ॥ बहन भाई से मडयो व्यवहार उनके हुआ राजा दक्ष दक्ष के हुआ पिथु अवतार जिनसे नघी मेर मरजाद॥४ड१ ॥ पीछे ऊच नीच की पड़ी भात राजा पिथु लियो पृथ्वी से दड बसा दिया न्याय नौ खड़ राजा पिचु हुयो अवतार धइर॥ पथीजे दुह दुह कर निकान्ये सार जिनमे नाज निपज्या चारा गेहू चावल जौ ज्वार जोबा के वाई कियो इलाज ॥ड३ ॥ २१८ राजस्थान सन्त शिरोमणि गणी रूपादे और मल्लीनाथ ऐसा होग्या राजा कासव ऐसा होग्या राजा बासक। तीन देवा ने सूपी माया यास न्यारा धंधे लगाया॥डड। देखो ना सिद्धा की ठकुााई कहे रिख खीवण सुनो रे भाई। रचना तो आपों आप अलख पुरूस ने रचाई ॥४५॥ लिखमसी माली कृत रिखा की आगवाण सत विस्वास सदा रिख सीधा जुगा जुगा रिख अग॒वाण हुवा। अमर जोत रिखा घर माही सत ही सत बाके नासत नाही ॥टेर॥ पहली म्हारो साहब स्त्रस्टि उपाई साव सायर आठों मुलतान। सत की तणी मेघ रिख झली कन्या कवारी दीन्हीं दान॥१॥ सतजुग में प्रहाद सरियादे भ्रगी रिख की लाग्या लार। मेघ रिख सत सब्द झिलायो पाच क्रोड प्रद्माद वी लार॥२# रोष्ट्ना हरिचद राणी वारादे गाछा विलोचद गुरू निवाज। रिख ऊकारजी सबद झिलायो सात करोड हरिचद की लार॥३॥ मरहर गुरू का पुत्र दुरवासा कुता पाडू लाग्या लार। सत्र का सब्द दिया रिख राजा नौ करोड ले उतरिया पार॥४॥ गुरू आंत्र रिख राजा बब्विचद चित मन बुध कीन्हा विसतार। जुगा जुगा रिख सब्द झिलाया परिशिष्ट २ (रूपादे मल््लीनाथ विषयक अन्य कवियों कौ रचनाए) श्श्र बारह करोड़ ठठरिया पार॥५॥ राजा अजेसिंह ताल खणाया नीर न निकल््यो एकण घार। मेष महाचद काया होमी, ध्रुव लगे नीर भरे पणिहार॥६॥ रणसोी आगे खोवण रिख सोघा परच्या दिया दिल्ली के माय। संत का क्रोत लिया सिर ऊपर दूध फूल निकल्या देह माय॥७॥ रामदेवजी आगे डालौबाई सोधा गुफा खुदी धणिया हितकार। दे परच्यो पडदो बाई लीन्हों पीछे पडदो सत अवतार॥८॥ रूपा माल आगे धारू रिख सीधा जमलो जगायो धारू के द्वार। सातों जोव स्वरण में पूणा सत परवाने उतरिया पार॥९॥ कुहोलगढ राणो कुभाजी होता नशणा पाचारी लाग्या लार। जमा जगाया घणिया ने ध्याया सत रिख भक्ति उतरिया पार॥१०॥ गुरु खींवण जस गावे मालो लिखमो रुजमों देख्यो रिखा के माय। घड़दे भक्त पकाई म्हारा दाता खूब फली वा निरफल नाय॥११॥ चलत - घिन घिन गुरु सत जन घिन है घिन घिन पथ कहाणा हो। सपरथ गुरु सेविया रूपा सब हो काज सराणा हुया परवाणा हो॥ए२॥ अनत सता के सरणे आया गुरु चरणा चित दौन्हा हो। २२० राजस्थान सन्त शिरोमणि शणी रूपादे और मत्लीवाब हरिसरणे भायी हरिनद जोल्या यू परमारथ चीन्हा पथ है झीणा हो॥१३॥ टेर - बधियों थरम मालजी रे द्वार हुया सुनाव परण मिल्ठ चार, गुरु मुख सब होग्या। हुई सीख सब देव द्वार साथु जन बोले जै जै कार आनंद सद होग्या॥१४॥ रूपा यारू की लीन्हीं अलख सुधार घिन धिन “पाचो” जगदीस जुहार सरणे सुछ् पाया। भूल चूक सज्जन लीज्यों सुधार “पीरदान” गावे प्रेम लगार सरणे राको ॥१५॥ सजन्य. स्वामी गोकुलदास नाययण पाचाणो पीरदान दूपाड़ा। (२९) रूपादे री कथा पहले जनम में थी वो लातर मालदेव से मेव्झे कियो। दूजे जनम में भदोजी घर रूपादे जी जनम नियो ॥टिर ॥ रूपादे भटरेजी री बीवडी रूपादे जी नाम भगती की भगवान् कौ तो अरस परस पग्वाना अरस परस भगवान जाण॑ जाणे दुनिया सारी क्षत्रिय कुब्ऐे मायने गाव दूधवे अबवारी 0१॥# 'पाट बचाकर चालजो हुम सुन लो थोडेवाव्य! पाट किया ग्रेम से मैं दो रू रामदेव सै माव्य ॥र ॥ परिशिष्ट २ (रूपादे मल््लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) २२१ पहले जनम में... _ नौकर वासू चालियो जो गयो रूपादे ताई। मैं हू नौकर मालदेव को रहू मेहवागढ माही॥३॥ मालदेव घोडाने लेकर गया रूपादे ताई जो। पीदत पाणी अब मं आप्यो मन में होयो हुलास जो ॥४॥ मल्लीनाथ किणरी कहीजो धीवडी काई जो थारो नाम जी। किण कुछ माही जपष्मो पायो कौण कहीजे गाव॥५॥ रूपादे भदरेजी री बेटी कहीजू, रूपा म्हागे नाम। छत्री कुल में जनम लियो इण ही दूधवे गाव॥६॥ मल्लीनाथ गालो मुख सू यों कहे सुण भदर जी बाव। इण समै मैं ब्याव करूला तो इण कनिया के साथ) भालदेव सग होया रूपादे आया मेहवा माही जी। हरस हेत कर गले लगाया घर घर खुसिया छायी जी ॥८॥ चद्रावऋ-प्रेप भाव आपस से डूटो म्टाजे सुहवे णही। नीच घर घर जमा जगावे जावे सत संग माही ॥९ ॥ धारू- मैं तो गुरासा रे पाय लागू, मन में हरसाऊ। सहारा सतगुरु दीन दयाल चरणा मे चित लागू ॥१० ॥ र्र्२ राजस्थान सन्त शिरोमणि शणी रूपादे और मल्लीनाथ उगमसी कलयुग माही साचा देव केवे बीस धारू रे। निस दिन भज लो भ्रेमसू, जमलो जगावो साचे नेमसू ॥११॥ गमदेव से जमलो जगावो सिंवरों सासो सासा गुण गावी और रत जगावो जमले जगावो साथे नेमसू ॥१२॥ ओ बीजने थावर रो आछो वार आवे थणिया रे जमलो जगावजो) नवनाथ सिंध नुलावो और मुलावो शामजां बाई रूपाने आखा देवणा ॥१३ ॥ हो लेने तदूणे माक्षझ राठ शे निकेछजों बीरा धारू। भगवे भेस बणाय थू तो निकल्जो बीरा घारू ॥१४॥ काबन्या में आखा धू तो बाध लोजे बोर घारू। महला पाही अलज जगाइजे थू तो बीय धारू॥१५॥ घारू- भाछ म्हाते नाम ठगमस्ती से चेलो गुरु आप्या सू आयो म्हारी बाई। बीज धावरीरों जमलो जगावा आया जमे ये लायो हुआर६॥ा रूपादे ओ नागराजा के थाने आई नौंद नैणा में काई थू भूल गयो आगो। रूपादे चासी बार निलरी आज जला में जाणो जो ॥१७॥ आस पास में अथग जछ भरियों दौखव नाही किनागे। बौच में रस्तो देध्यो रूपादे गे दियो ग़मदेव सहारों जो ॥१८॥ परिशिक़ २ (छूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाए) २२३ रूपादे जमले में पहुच्या लियो तदुरो द्वथा। उगमसी से आग्या लीनी गुण गोविंद रो गात॥श९ ॥ हाथ दुसाले घालता नाग करी फणवार। राजा डरकर भागियों ज्ञाझर री झनकार ॥२० ॥ बनमें रसस््तो रोकियो रावछ मालदे आय। रात कठे राणी गया कह दो हाल-छुणाय ॥२१॥ मल्लीनाथ पैलो बाग कहीजे मेडते दूजो मडोवर माय) तीजो कहीजे आबू पाड चौथो गढ मुलतान ॥२२॥ रूपादे अबब्य री या बिणती सुणियो रामा पीर। कोपियो रावछठ मालदे आवो बघावों धोर॥र३॥। मल्लीनाथ घन घनन रे राणो थाने तू भगती करी अपार। घिन घिन नाथ मोहि दरसन दीन्हा तो लोजो दीन उबार॥२४॥ रूपादे दोहरो पथ बैशग रो बहणो खाडे री घार। राज सम्हालो म्हार सायबा नहीं जाणो भगती रो सार॥२५॥ ओ जी रूपादे जी चाल्या वा से पहर भगवा भेस। ओ मालदेवने लाया सता पास रे॥ अरजो सुणानु दावा आपने र्श्ड साजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ ओ ठोे जीव अआगयानी अनाडी दो साचो उपदेस॥२६ ॥ मल्लीनाथ सिर दोनों का हस रिया रे राणी और पूत। राजा डर करी भागियों मैं हो हो गयो भूव॥२७॥ बालीनाथ ओर कौन दिसा स॑ भागा आयो इतो कई मन घबडाओ जी। के कोई भूत पिसताच डरशायो के कोई कस्ट सदायो 0२८ ॥ मल्लीनाथ ओ म्हरे घर आज गुरुजी उगमसीजी पघारिया। पूजा कीनी पाट पुरायो गुरुजी रे हुकम ठठामो॥२९ ॥ बालीनाथजी चाल्या वा सूं, ले राजाने साथ। पूरण मेहर भई झतगुरु की सिर पर घरियों हाथ ॥३० ॥ गुरु सेवारो नेम झालियो मालदे रा मल्लीनाथ केवाय॥ पूजा कौनी पाट पुराया सुरपुर अत सिघाया॥ ३१॥ मल्लीनाथ ओ म्हाय सवगुरु दया विवारी चरण कमर में महारे सक्ट निवारी जो॥टिर॥ पाप की परोट हुवी सिर ऊपर मर्ता भारी जी। कर क्रपा गुरु दरसन दोन्हा सिर पर धारीं जी आ३३ ॥ जो म्हाय अवगुण देखो वो आवे नहीं पार जी। जप तप परत होरथ नहीं जाणू नहीं नेम अचाएें जो॥३४ ता प्रगिशिष्ट २ (रूपादे मल््लीनाथ विषयक अन्य कवियों वी रचनाएं) स्र्५ जाऊ म्टागा सतगुरु ने बलिहारी चधन काट कियाजीव मुकता सारी विपद निवारी ॥९ सॉजन्य. ह्नुपानर्सिह इदा (२२) गीत रावक मल्लीनाथ सकखाऊत्त मालाणी रौ (गोत सपखरीो) अ्रथी देसातण मुरघण अबैरा बडेरा पोरा सूरवीरा मुरा च्यार पैकबरा साथा ख़गरा अम्मरपुरा करा जोड मानै सेव नशा अहीपुरा सुर दौपै मलीनाथ ॥१॥ दरवेस नरेस थाट सुरेसले माने तूझ महेस दिनेस तू ही देव तू मुगर। प्रवेस तैंतीस क्रीड असदेव तुहा प्रभु दसों देसा तणा जीता माल रै दुवार॥र भ सहसौई कब्ण भार ब्रिमव्ण विराजे सूर चब्मैवव्य अणकब्ण प्रधव्ण बखाण। जब्यहव्य दीपमाव्य अप्रला जागै जोत ऊजव्ा पखा री बीज माव्े भाण॥३॥ नवै भरहा सेवा तूझ नवै कुब्यी सेव नाग नवा नाथा सिरे नाथ नवे खडा नामे। नवे ही पकने खडा नवै नैह आगे नीत सता नवे निध देवै महेवा रो साम ॥४॥ (रे गीत रावछ मल्लीनूथ सलखाऊत रो पाट मडाओन चौक पूरायौ माड॒ह मगछाचार] चेडावौ च्यारे महासतिया../ बघाय ल्यो काय रावौ॥ श्र४ड राजस्थान सन्त शिरोमणि शणी रूपादे और मल्लीनाथ ओ च्चो जीव अग्यानी अगाडी दो साचो उपदेस ॥२६॥ मल्लोनाथ सिर दोनों का हमप्त प्या रे शराणी और पूता राजा डर करो भागियों मैं तो हो गयो भूत ॥२७॥ बालीवाथ ओरे कौन दिसा से भागो आयो इतो कई मन घबडाओं जो। के कोई भूत पिसाच डरायो के कोई कस्ट सतायो॥२८ ॥ मलल््लीनाथ ओ म्होरे घर आज पमुरुजी 'उगमसीजी पधारिया। पूजा कौनी पाट पुरायो गुरुजी रे हुकम उठायो॥२९ ॥ बालीनाथजी चाल्या वा सूं, ले राजाने साथ। पूरण महर भई सतगुरु की सिर पर धरियो हाथ ॥३० ॥ गुर सेवारों नेम झालियो मालदे ए मल््लीनाथ केकाय ॥ पूजा कीनी पाट पुराया सुरपुर अत सिधाया॥ ३१ ॥॥ मल्लीनाथ ओ म्हाया सतगुरु दया विचारी चरण कमल में राखियां म्हारे सकट निवारी जी॥टेर॥ओं पाप की पोट हुती सिर ऊपर मरता भारी जी! कर क्रपा गुरु दरसन दीन्हा सिर पर घाये जी ॥३३ ४ जो महाग्म अवगुण देखो ता आवे नहीं पार जौ। जप तप परत ठोरथ नहीं जाणू नहीं नेम अचारी जी आ३४ड॥ परिशिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं र्र५ जाऊ म्हारा सतगुरु ने बलिहारी बधन काट कियाजीव मुकता सारी विपद निवासी ॥१ सौजन्य. हनुमानसिंह इदा (२२) गीत रावछठ मल््लीनाथ सल्खाऊत मालाणी रौ (गोत सपखरोौ) प्रो देसातरा मुरघण अबैश बडेरा पीरा सूरवीरा मुरा च्यारा पैकबरा साथ। खगशा अम्मग़पुरा कया जोड मानै सेव जरा अहीपुरा सुग्र दीप मलीनाथ ॥१॥ दस्वेस नरेस थाट सुरेसले माने तूझ महेस दिनेस तू ही देव तू मुरार। प्रवेस तैंतीस क्रोड असदेव तुहा प्रभु दसौं देसा वणा जोता माल रै दुवार॥२ १ सहसौई कव्ण भाछ् त्रिमव्ण विराजे सूर वब्शैवव्य अणकव्य प्रघव्य बखाण। जव्णहब्डा दीपमाव्श अप्रला जागै जोत ऊजव्य पखा री बीज माछो भाण॥आ३॥ नवै ग्रहा सेवा तूज्ञ नवै कुब्छे सेवे नाग नवा नाथा सिरै नाथ नवे खडा नाम। नवे हो पवने खडा नवै मैह आगे नींव सता नवे निध देवै महेवा रो साम ॥४॥ (२३) गीत रावक्त मल्लीनाथ सलखाऊत रो पाट मडाओन चौक पूरायों माडह मगव्यचार। तेडावौ च्योरे महासतिया ० बाय ल्यो काय रावौ॥ श्र राजस्थान सन्त शिरोमणि शणी रूपादे और मल्लीवाथ ओ तो जीव अग्यानी अनाडी दो साचों उपदेस ॥२६॥ मल्लीनाथ सिर दोनों का हस रिया रे राणी और पूत। राजा डर करी भागियों मैं तो हां गयो भूत॥र७॥ बालीनाथ ओरे कौन दिसा से भागां आयो इतो कई मन घबड़ाओ जी। के कोई भूत पिसाच डययो के कोई कस्ट सतायो॥२८॥ मल्लीनाथ ओ म्हारे घर आज गुरुजी उभमस्तीजी पधारिया। पूजा कीनी पाट पुराणों गुरुजी रे हुकम ठठायो॥२९ ॥ बालीनाथजी चाल्या वा सू, ले राजाने साथ। पूरण मेहर भई सतगुर को सिर पर धरियों हाथ ॥३०॥ गुरु सेवारों नेम झालियो मालदे य॑ मल्लीनाथ कैवाय॥ पूजा कोनी पाट पुराया सुरपुर अत सिधाया॥ ३१॥ मल्लीनाथ ओ म्हाग सतगुरु दया विचाते चरण कमर में गखियो महागे सकट निवारी जी॥टेर॥ पाप की पोट हुती सिर ऊपर मां भारी जी! कर क्रपा गुढ़ दरसन दीन्हा सिर पर थारी जो ॥३३ 7 जो म्हाथ अवगुण देखो तो आवे नहीं पार जी। जप ठप परत ठौरथ नहीं जाधू नहीं नेम अचारी जीआइडआ रिशिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) श्श्प जाऊ म्हाग सतगुरु ने बलिहारी बधन काट कियाजीव मुकता सारी विपद निवारी ॥१ सौजन्य हनुमानसिह इदा (रे गीत रावक मललीनाथ सब्खाऊत मालाणी रौ (गीत सपखरौ) प्रथो देसातग मुरधरा अबेश बडेरं पोण सूरवोरा भुरा च्याग पैकबरा साथ) ख्गरा अम्मरापुर कया जोड मानै सेव नरा अहीपुरा सुर दीपै मलीनाथ॥१॥ रेस नरेस थाट सुरेसले माने तूझ महेस दिनेस तू ही देव तू मुरार। अवेस तैंतीस क्रौड असदेव तुहा अभु दर्सों देसा तणा जीता माल रे दुबार॥२ १ सहसौई कव्ण भाव्ठ त्रिमव्य विगजे सूर वन्जैवव्य अणकब्ठ प्रघव्ण बखाण। जव्यहत्ण दोपमाव्य अप्रला जागै जोत ऊजतब्य पखा ये बीज माव्ये भाण॥३॥ नवै ग्रहा सेवा तूक्ष नवै कुब्यी सेवे नाग नवा नाथा म्रिरै नाथ नवे खडा नाम! नवे ही पकने खडा नवै नैह आगे नौत सता नवे निध देवै महेवा रो साम॥ाड॥ (२३) गीत रावरू मल्लीनाथ सलखाऊत रो घाट मड़ाओन चौक पूरायौ माड॒ह मगव्यचार। तेडावौ च्यारे महासंविया ४ बघाय सथो क्यय रावौ॥ श्र६ राजस्थान सन्त शिग्ेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ महारै आज भिंदर रव्थयावणौ लागै धणी म्हारा आय जुमे बेठों॥ बाबो आय बैठो हम बोले मीठो जब लग दास तुम्हारों हू। बाबो दीहडा डोहेला टव्टसै सेव करा पाय लागौ॥ बाबा रेणायर में रतन नौपजे बेसगर में होरा। खार समद में मीठी बेरी इहडी सायिब घर लीला॥ कोप मछर मनडा या मेलौ काम करौ घर रूडा। देख अध्यागत घर आबै दो हैनें सौ साणौ कए जोड़ा ॥ ओक बिरख नव डालडिया चाबौ परगटियौं पड माहे। कहै कुतुबदीन सुण रावछ माला अलख निरजण थाहे॥ (२४) गीत राणी रूपादे जी रौ (गीत वड़ौ साणौर) असी न कोई चीत्तौड सीसोदिया आगणै जितका कोरम घरै न कौ जाणी। आ हुई मालरै महेवै अरधगा रूपादे राणिया सिरे रणों ॥१ ॥ जाम लाखै ठणी जग नहीं जिका मात बाब्हे तणी जीवता मीढ]॥ थिनौ सद बदगी सघूतर सगत धरे अवर पैंवीस बस न आबे ईढ॥र ॥ दना परचौ दियो शाह जाणै दुनी जमे रावछ भरम ह्लात जाणी। परिशिष्ट ३ (रूपादे मल्लोनाथ विषयक अन्य कवियों को रचनाएे २२७ परो औछाड कर नजर सू पेखता आपरी कव्य तहतोख अणोी॥३ ॥ सब्ख सुत जोडिया पाण देखव समा दियौ सत याहियौ तिसौ उपदेस। तल्ण लगै राज माला तणै महेवै सृर्चद जिमि जहा लग सपर सेस॥४ड ॥ बढ़ा कम्रपा खरै रा आगण विराजे घणा भागा उसर छ खड घण घाय। इण कब्दू बिचाले माल रूपा अचछ जोत सह देव होवे पर्स जाय॥५ ॥ सौजन्य - सोभाग्यर्सिह शेखावतु मालानी के गौरव भीतु राणी भटियाणी ट्रस्ट, जसोल १९९२ पृ १८ १९ (२५) दृहौ राचछ मल्लीनाथ रौ जै थानक लीधो जलम माल जसे महवेच। नर अवतारी नीपजै खतद्॒वर भड खेडेच॥१ ॥ स्जनय सौध्ाग्यर्तिह शख्धावत भालाणी के गौरव गीत राणों भटियाणी ट्रस्ट जसोल १९९२ पृ २०९ (२६) श्री मेघ घारूनी वाणी (श्रोरॉमदेव पोरना समयमा हरिज्न मेघवार्ू सत थया अने मारवाड मा थया हता) चाणयक जाघ्य शुरुओेगा देखना जो रूपादे शणी जमले पषारों जो) केम आबु गुरु मारा ओकली जो रे सुतो मालजो जागेजी रे॥३१ ॥ र्र्ट राज्स्थान सन्त शिरोमणि शणी रूपादे और मल्लीनाथ निंद्रा मागवु सार सहेर्नी जी ऊपर अम्मर पछेडो ओढाडी जी रे। सोडमा सुवाड़ वासगी जाग ने रे खूणे खाद ढव्यवु जी रे॥२ ॥ बाके वाले मोती परोवीयाजी रे वीलडी चोडी ललाट रे जी। थाल् भरियो रे सग मोती ओ रे रमझम करता चालीया रे॥३ ॥ त्याथी रूपादे शणी चालौया रे आव्या दोडी ने दरवाजे रे। भाई परोलीया वीय वीनवु जी रे वू तो सुते छो के जागे छे रे॥४ ॥ काक सुतो काक जायया रे राणी तमे कड़े पधारो जी। ब्रव पहिया औऐे ओेकादसीश की रे ईस्वर पुजवा जावु जी रे॥५ ॥ ताव्य जडाव्या साया सहेरना कुची मालाने दरबारजी रे। ऊपरी रही सती ओ अलखने आगधयों रे खडग मारी खोली बारी रे॥६ ॥ त्याथी रूपादे गणी चाल्या रे आव्या धणीना दरबार रे जी। अलख बधाव्यों साचा मोतीयो जी सोनैयो आपों पधारव्यों जी ॥७ ॥ सऊ गतने हरि हर मादा रे गुरुजी ने श्रणामा हो जी। आव्या रूपादे राणीजी २ जरहब ज्योंतु दर्शागी जो रा ॥ चद्रावत्यी ज'ल्था महोले सुतो मालाजी ने जगाडीयो जी। उठो शणा उठो राजिया रे यणी अ राज अभडाव्या रे॥र ह परिशिष्ट २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कंवियों को रचनाएं) श्र९ झडप दईने मालाजी जागीया रे सेठमा वासगी नाग घुघवायोंरे। करडयो छता ऊंगर्यो रे चद्रवब्ग आपणे भागीओ रे॥१० ॥ खड़ण खाडु लीघु हाथपा रे मालदे क्रोध काया हो जी। जोया मदिर ने जोया मात्ठीया रे जोया घोडानी घोडसरू रे॥११॥ त्याथी रावछ मालो चालीया रे आव्या दोढी ने दरवाजे रे। भाई परोव्ठीया विनवुजी रे रशाणी ने जाता ते जाणी रे॥१२ ॥ काक सुतो काक जागीयो रे मुझने खबर नथी रे। कोप करीने माले खाडु फेरव्यु रे प्रोष्छीया ओ प्रो ऊधाडीयु रे ॥१३ ॥ त्याथी रावछ मालो चालीया रे आव्या रूखी (ब) ने दुवार रे। पाछली पछीते चडीयो जी रे नजरे भाली राणीजी ने रे॥१४ ॥ आपणः सहस्मा नहीं कोई नुगरो रे मालदे पधारिया हो जी रे। बहारेथो मोजडीयु रे उम्पाडयु रे उपायु रे मालदे त्याथो चाल्या रे॥१५ सऊ गततो हरिने समेरे रे मा गुरुजी ने प्रणाम होजी रे। गुरु महारा देव देवगों रे पगनी मोजडी दे णाणोजो रे १६ ॥ सहु गततो अलख आराध्यो रे स्वरगथी मोजडी उतारी जी॥ ल्यो रूपादे पेरो मोजडो रे कई केण कहेराव्या रेएश७ ए २३० राजस्थान सन्त शियरेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ त्याथी ग्रवष् मालो चाल्यरि ओ तो ग्ोब्झैयाने मारियो जी रे। सीखु मागी रूपादे चालीया रे आव्या दोढीने दरवाजे रे॥१८ ॥ ऊभा रही अलख आराष्यो रे प्रोढ्लीयाने सजावन कौधो जी। साकडी सेरी मा मालदे सामो भव्झीयों रे सत्िनो छेडलो झाल्यो जी ॥१९ ॥ रात अधारे आखो लुबे झुबे झुले जी राणी तमे कठडे पधारिया जी। ब्रत एकादसीना जी रे ईश्वर घपुजवा गौयाता रे॥२० ॥ आपणा सहेरमा नहीं फुलवाडीयु रे जी ढोलने ढमके पाणी जी रे। पहेली वाडी आयु सहेरमा बीडी गढ गीरनार रे (२१ श्रीजी बणोना चोकमारि चोथी थाब्ठैमा ठेराई रे। झडप लईने माले छेडला ताणीयों रे फुलड्ड छाबु भराणां रे॥र२ ॥ जेरे मारगडे तमे गया हवा जी रे ते पथ अमुने बतावो रे। ओ पथ मालदे दोहीला रे खेलवु खांडा केरी धार रे॥२३ ॥ पहैलो मार मोभो डोकरो रे बीजे हसलो घोडा हो जी रे। व्रीजे मार कतत्यी केरो वाछडो रे चोयी चद्रवन्यी राणी जी रे॥२४। चार मस्तक लई आवजो रे जी त्यरे राजा ओ पथ बतावु रे। त्याथी राव मालो चालोया रे आव्या पोताने महेल नी माही ॥२५॥ पिशिष्ट. ३ (छूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाए) २३९ चार मस्तक वाढिया रे आबव्या रूपादे नी पास रे। त्याथी रूपादे मालो चालीया रे जो आव्या धणी त्रणा दुवार रे॥२६ ॥ गुरु माश रे देवची रे मोटो भूष तमे नमाज्यों रे। सरवे गतने हरोहर जो रे मालाना काकण भरीया रे॥२७ ॥ पहेलो जीवाडयो मोभी डीकरो रे बोजे ह्सलो घोडो हो जी रे। त्रौजे जीवाडयो कवब्यी केश बाछडो रे अनी माताने घावे रे॥२८ ॥ चोथी जीवानी चद्रावव्यी राणी जी रे ओ तो हरिनी आरती उतारे रे। चले भल्या गुरु मेघ घारू रे मुचा सजीवन कोधा रे॥२९ ॥ मुचा सजीवन कोघा रे गाय सीखे सुणे साभकछे रे। बैकुण्ठमा ओनो वासो रे मेघ घारू अम बोलीया रे। सतोनो बैकुठमा वास होसे जी रे॥३० ॥ श्री राजयोगवाणी, पृ ९७८ १८० सपादक प्रकाशन भगत श्री रामजी हीरसागर तिलक प्लोट शेरी न ३ कृष्ण सोनेमा पाउण शजकोर १ (प्तौराष्ट्ू गुजरात राज्य) राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लोनाथ त्याथो ग़वत्ठ मालो चाल्यारि औ वो प्रोव्यैयाने मारियो जी रे। सीखु मायो रूपादे चालोया रे आबव्या दोढोने दरवाजे रे॥१८ # ऊभा रही अलख आखध्यो रे प्रोव्यीयाने सजावन कौधो जी। साकडी सेरी मा मालदे सामो भव्येयों रे सतिनों छैडलो झाल्यो जी॥१९ ॥ रात अधोरे आखो लुबे झुबे झुले जी राणी तमे कठडे पघारिया जी। ब्रव एकादसीना जी रे ईश्वर पुजवा गीयाता २॥२० 0 आपणा सहेरमा नहीं फुलवाडोयु रे जी ढोलने ढमके पाणी जी रे। पहेली वांडी आबु सहेरमा बीजी गढ़ गीरनार रे॥२१॥ ब्रीजी धणोवा चोकमरि चोथी थाव्यमा ठेराई रे! झडप लईने माले छेडला ताणोयो रे फुलडे छाबरु भराणी रे॥२२ ॥ जेरे मारमडे हमे गया हता जी रे ते पथ अमुने बवावों रे। ओ पथ मालदे दोहौला रे खेलवु खाड़ा क्शी यार र॥२३ ॥ पहेलो मार मोधी डीकरो २ बीजे हम्नलो घोडा हो जी रे। जीजे भार कतव्ये करो बाछडा रे चोथी चद्रवत्यी गणी जी रे॥२४ | चार मस्तक लई आवजो रे जी त्यरे राजा ओ पथ बतावु रे! त्याथी रावछ माली चालीया रे आय्या पाताने महेल नो माले ॥२८ ॥ पर्रिशिष्ट २३ (छूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं २३१ चार मस्तक वाढिया रे आबव्या रूपादे नो पास रे। त््याथी रूपादे मालो चालीया रे जो आव्या घणी तणा दुवार रे॥२६ ॥ गुरु मात रे देवची रे मोटो भूप तमे नमाव्यों रे। सरवे गतने हरोहर जी रे मालाना काकण भरीया रे॥२७ ॥ पहेलो जीवाडयो मोभी डीकगे रे बोजे हसलो घोडो हो जी रे। त्रीजे जीवाडयो कबब्ी केरा वाछडो रे ओनी माताने घावे रे॥२८ ॥ चोथी जोवाडी चद्राववी राणी जी रे ओ तो हरिनी आरती उतारे रे। चले भल्या गुरु भेघ धारू रे मुवा सजीवन कोधा रे ॥२९ ॥ मुबा सजोवन कौधा रे गाय सीखे सुणे साभक्े रे। चैकुण्ठमा अनो बासो रे मेघ घारू ओम बोलीया रे। सवोनो वैकुठमा वास होसे जी रे॥३० ॥ श्रो राजयोगवाणी, पृ ९७८ १८० सपादक प्रकाशन भगत श्री समजी हीरसागर तिलक प्लोट शेर न २ कृष्ण सीनेमा पाछण राजबोर १ (सोणट्ू शुजगत राज्य) २३२ राजस्थान सन शिग्ेमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ (रे धणिया शा नाव जपा मालजों घम कर हाव्यें हो जो जीवडा चाोडा म्हाये यो पथ घाडे री थार हो जी ॥देक ॥ ाणी रूपादे जमलै पधारिया मालै सारण बाध्या हाथ खडग दुधारों याडों बाण अपूठा साध्या॥१ ॥ जोर कया म्हाथ जोर न चाले बायर राय न आवे। मालो पूछे सजपदमणी पथलो काय कुढावै ॥२ ॥ म्हारै गुर को यो मारगियों छिप्यां रबै ना छानो। निज पथ बैठया नाव जपागा पूजा अलख रो बानो॥३ ॥ राणी रूपादे परचों दोन्यों परवे राव पतीज्या। थात्य में अक बाग लगायो मैणा फुलडा दीख्या पढ़ ॥ बार सुबरणा भ्रेव्श बेठया जद म्हे नैणा दीठा। करी रसोई पान मिठाई जीम्या मेवा मौठा॥५ ॥ इण पथडे राज हरिचद सीइया बा ये कोड बुलाया। जाट रूपसी भणै अलख नें अर्गी कयेय प्याया [६ 0 +++ परिशिष्ट. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं) २३३ (२८) अथ वात राव सलखेजीरी राव सलखैजौरै पुत्र नही सु एक दिन सिकार पधारिया दद दूर पधारिया अर असवारी हुदी सु सर्व वासै रह गई। अर आप सिकाए वास्ते एकल असवार कोस ४ तथा ५ आगे पधारिया। सु तृखा लागी। तद जछरी ठोड जोवण लागा। तद आगे दरखतारो ज्ाड़ो दीठौ तडै पधारिया। तद बढ देखे तो एके ठोड घुवो नीसरै छे। तठे पषारिया। उठे देखे तो तपस्वी १ जोगी रावछ बैठो छै। उठे जाय ऊभा रहा ने जोगीरै पगै लागा। तद जोगी कह्मो बाबा । थारी किसी ठोड? तद कहो बाबाजी ! हू सिकार आयो थो सु म्हारे साथ वासै रहे गयो। र हू सिकारै वासै लागो थको आगै आय नीसरियो। सु म्हनै तृखा लागी छै सु पाणी पावो। तद जोगी कहो इयै कमडछ माहि पाणी छै थे पीवो अर घोडो दिसियो हुवे तो घोडानू हो पावो। पछे सलखैजी आप ही पोयो अर घोडेनू हो पायो। पण कमडछ खाली नहीं हुवो तद सलखैजी दीठो जु ओ अतीव सिद्ध। तद आप अरज कीवी। और तो सर्व थोक छे पण म्हारै पुत्र नहीं छै। तद सिद्ध मेखछों माहै हाथ घातनै गोटो १ बभूतरों सोपारी ४ काढ दीवी। ओ बपूतगे गोटो राणीनू देई तैरै वडो पुत्र हुसी। तैरो नाम मलोनाथ काढे। और च्यार पुत्र चीजा हुस्तो। वड़ै बेटेनू टीकों देई। तद पाछा घोर पधारनै जे भात जोगी कहे हतो ते भात राणियानू बभूतरो गोटो सोपारिया विहव दीवी। पछे कितरैके दिने पुत्र हुवो। फेर ४ पुत्र भीजा हुवा। पछेै कितरैके दिने वड़ै बेटेनू टीको दियो। जोगीनू बोलाय जोगीर आभरण पैहरय रावठ मलीनाथ नाम दियो। पछै सुख सौं राज कियो। तपो बढ्ही हुवो। ॥ बात राव सलखैजी री सपूर्ण ॥ ६११९ (२९) कवित्त मालाणी रो जैसलमेरु सुभेरु बनाय कै दृदा तिलोक मरे रन रत्ता। सातल सोम सिवाने मेरे रिपुसेन पै दै कें कराकर कत्ता॥ घक कहै क्बह् नहिं जाय चह् जूगलौं थिर नाम. की. गत्ता,६ गौर औ बादल जूझे चितौर पे असे ही जूझ हैं जैमल पत्ता ॥१॥ शावल माल कौ तेज निहार के भेछन के मुष होत हैं पीरे। होत जहा अति जाछे तुरणम हीरे की षान में होत ज्यू हीरै॥ लोक मजीठ के रग रंगे जिद ओढत प्रीषम में पट सौरे। लौनी बहैरु लसे थल-तुग महेवे सुधारस होत मतीरे॥२ ॥ ग़जस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ (२७) धणिया रा नाव जपा मालजां घम कर हाव्झे हो जो जीवडा थोडा म्हाये यो पथ खाड़े री धार हो जी ॥टेक॥ ग़णी रूपादे जमलै पथारिया माले मारग बाध्या हाथ खडग दुधारों खाडो बाण अपूठा साध्या॥१ ॥ जोर करा म्हाग जोर न चाले बायर हाथ न आवे। मालो पूछे राजपदमणी पथलो काय कुहावै ॥२ ॥ म्हरै गुय को यो भारगियों छिप्यो रवै ना छानो। निज पथ बैठया नाव जपागा पूजा अलख रो बानो॥३ ॥ राणी रूपादे परचों दौन््यों परचे राव पवीज्या। थात्ठी में ओक बाग लगायो नैणा फुलडा दीख्या॥४ ॥ नार सुबरणा भ्रेव्ा बेठया जद भ्हे नैणा दीठा। कसी रप्तोई पान मिठाई जौम्या मेवा मौठा ॥५ ॥ इण पथडै राजा हरिचद सीझ्या बा शा कोड बुलाया। जाट रूपसों भणै अलख मैं अर्मी कटोरा प्याया ॥६ ॥ $$९ परिशिष्ट. २ (रूपादे मल्लीनाथ विषयक अन्य कवियों की रचनाएं २३३ (२८) अथ वात राव सलखैजीरी राव सलखैजौरै पुत्र नहों सु एक दिन सिकार पधारिया तद दूर पथारिया अर असवारी हुती सु सर्व वासै रह गई। अर आप सिकारै वास््ते एकल असवार कोस ४ तथा ५ आगे पधारिया। सु तृखा लागी। तद जब्यी ठोड जोबण लागा। तद आगै दरखतारो झाडो दीठौ तठे पधारिया। तद बढ देखे तो एके ठोड घुवो नीसरै छे। तठे पयारिया। उठे देख तो तपस्वी १ जोगी रावव् बैठो छै। उठे जाय ऊभा रहा ने जोगौरे पगै लागा। जद जोगी कह्यो बाबा ! थारी किसी ठोड? तद कहो बाबाजी ! हू सिकार आयो थो सु म्हारो साथ वासै रहे गयो। र हू सिकारे वासै लागो थको आगै आय नीसरियो। सु म्हनै तृखा लागी छे सु पाणी पावो। तद जोगी कह्यो इयै कमडछ माहि पाणी छे थे पीवो अर घोड़ो तिसियो हुवे तो घोडानू ही पावो। पछे सलखेजी आप ही पीयो अर घोडैनू ही पायो। पण कमडछ खाली नहीं छुवो तद सलछेैजी दीठो जु ओ अतीत सिद्ध। तद आप अए्ज कीवी। और तो सर्व थोक छे पण म्हरै पुत्र नहीं छे। तद सिद्ध मेखब्यी माहै हाथ घातने गोटो १ बभूतरो सोपारी ४ काढ दौवी। ओ बभूतरो गोये राणीनू देई तैरै वडो पुत्र हुसी। तैरो नाम मलीनाथ काढे। और च्यार पुत्र बीजा हुसी। बड़े बेटेनू टोको देई। तद पाछा घरे पधारनै जे भात जोगी कह्यो हतो ते भात राणियानू बभूतते गोटो सोपारिया विहच दोवो। पछे कितरैके दिने पुत्र हुबो। फेर ४ 2008 हुवा। पछ कितरैंके दिने वडै बेटेनू टीको दियो। जोगीनू बोलाय जोगीरा आभरण रावछ मलीनाथ नाम दियो। पछै सुख सौं राज कियो। त्तपो बछी हुवो। ॥ बात राव सलखैजी री सपूर्ण ॥ा ++१+ (२९) कवित्त मालाणी रौ जैसलमेरु सुमेरु बनाय के दूदा तिलोक मरे रन रत्ता। सांतल सोम सिवाने मरे रिपुसेन पै दे कै कग़कर कत्ता॥ जक, कहे ऋ, नहि ज्यग, चढ़, जुप्लों, फैयर खान को सत्ता) मौरा औ बादल जूझे चितौर पे जैसे हो जूज़े हैं जैमल पत्ता॥१॥ रावल माल कौ तेज निहार कै मेछन के मुष होत है पौरे। होत जहा अति आछे तुरगम हीरे की पान में होत ज्यू हीरै॥ लोक मजीठ के रग रण जित ओढत ग्रीषम में पट सीरे। लौंनो बहैरु लसै थल तुग महेवे सुधारस होत मततीरे ॥२ ॥ र३े४ड राजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ (३०) कवित्त लूणी नदी रो निकसी यह पुक्कर तैं तट नहात ही लोकन की मिट जात बदी। अति ऊजरौ याकौ प्रवाह चिते वक लजात है जिस्नुरदी॥ गन भाग मुरध्यर देस बडौ जित देषियै दूसरी विस्तुपदी। रतनागर नागर की गज गॉनि है निकै सुहाग सौं लौंनी नदी॥ +९१९+ परिशिष्ट - ३ गुजरात भे रूपादे और मल्लीनाथ- बाबा रामदेव के समकालीन जैसल तोरलंदे और कठीब शाह से मल्लीनाथ रूपाटे के सम्पर्क का आख्यान करने वाली कुछ लोक कथाएँ और भजन आदि गुजगत में उपलब्ध हुए हैं। इनके आधार पर प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम खड में दो आख्यानों का सक्षिप्त परिचय दिया गया है। पहले के अनुसार मल्लीनाथ काठियावाड के केसर मोरी की भक्ति निष्ठ 'कम्य। रूपादे से विवाह करते हैं। इस कथा में रूपादे को कृष्णभक्त चित्रित किया गया है। कथा में उगमसी भाटी का कहीं उल्लेख नहीं है जागरण आदि का आयोजन धारू मेघ ही करते हैं। दूसस आख्यान जेसल तोरल व रूपादे मल्लीनाथ परस्पर मिलने के लिए महेवा और अजार (कच्छ-भुज) से चल पडठते हैं। रास्ते में एक स्थान पर इनका मिलना होता है। परिचय के बाद सतसमागम होकर राव गुजरती है। प्रात जेसल पीपली की टहनी से और मल्लीनाथ जाल की टहनो से दन््त घावन करते है। कुए के खारे पानी को रूपाद मोठा बनाती है और तोलादे वर्षा करवाकर ब॒जर भूमि को सस्यशामला चनाती है। मल्लीनाथ और जेसल जाल और पीपल को टहनी को जमीन में रोप देते हैं। वे वृक्ष बडे होने पर उस स्थान को मालाजाल कहा जाने लगा। कालान्तर में मल्लीनाथ जेसल तोरल को मंहेवा आने का निमंत्रण देते हैं। जेसल अस्वस्थ थे अकेली तोरल द आयी। जागरण में जेसल के नाम से रखी ज्योति क्षीण होने लगी तब तोग्ल आशकित हुई और उसने तुरन्त अजार के लिये प्रस्थान किया। जेसल समधिस्थ थे। तोस्ल के शोक ठिकाना नहीं रहा। तब तक मल्लौनाथ और रूपादे पहुँचे। जेसल ने मल्लीनाथ को सशरोर मिलने का बचन दिया था। मल्लोनाथ ने तोरल को उपदेश दिया। उसका शोक कम हुआ। तब समाधिस्थ जेसल मल्लीनाथ से मिलने बाहर आये और बाद में तोस्ल दे के साथ समाधि लो॥ जेसल और तोरलदे के इस आख्यान ने हमें कच्छ-भुज जाने के लिये प्रेरित क्या। ट्रस्ट के सौजन्य से श्री बेरीसाल सिंह पर्व उदघोषक आकाशवाणी जेफाएफ के साथ मैं २३६ शाजस्थान सन्त शिरोमणि राणी रूपादे और मल्लीनाथ पहुँचा। सबसे पहले तोरल जेसल की समाधि के दर्रन किये और वहाँ समाधि के साथ मल्लीनाथ रूपादे और रामदेव की मूर्तियों के दर्शन कर हमें कृदार्थता का अनुभव हुआ। अजार के मामलतदार और भुज के जिलाघीश की स्वीकृति प्राप्त कर मदिर के कई उायाचत्र लिये। उनमें से कुछ इस पुस्तक में भी दिये है। कुछ समय दक रूपादे के मौखिक रूप में सुरधित पर्दों को गाने वाले व्यक्तियों का खोज में हम लग गये। मदिर में प्रति दिन सायकाल को भजन गाने वाले श्री महेशजी न्गेशी पचायत समिति अजार के अयलों से हम कापडी बाबा सन्तराम दादा मनजी से मिले। ९० वर्ष की उमर में उन्होंने दोरल जेसल के आख्यान का वह अश ध्यनिमुद्रित वरवा दिया जो रूपादे मल्लीगथ से सम्बद्ध है। इसी प्रकार आकाशवाणी भुज के लोकगायक श्री कान्तिलाल भाई जोशी ने भी हमें रूपादे कुछ पारम्परिक भजन दिये। तोरल जेसल से सम्बद्ध भजनों की उपलब्ध ध्वनिमुद्रिकाए भी हमने हस्तगत को। इस समस्त सामग्री का किसी न किस। रूप में अस्तुत पुस्तक में उपयोग हुआ है। इसीलिए हम इन सभी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं। विशेषकर एक बात उभरकर सामने आयी कि वहा पर भी मौखिक परम्परा के गायकों की दिनों दिन कमी होती जा रही है जो अत्यधिक चिन्तनीय है। ++$५ |