Show कश्मीर की चौदहवीं सदी की संत कवयित्री ललद्यद अर्थात लल्लेश्वरी के जीवन के विषय में तमाम तरह की किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं. वेद राही ने ललद्यद नाम से उपन्यास लिखा है, जिसकी चर्चा कर रही हैं कथाकार योगिता यादव एक रहस्यमयी कवयित्री का लौकिक संसार योगिता यादव वेद राही शिल्प के जादूगर हैं. यह रात फिर न आएगी, पवित्र पापी, संन्यासी, बेईमान, कठपुतली, पराया धन, चरस और पहचान जैसी फिल्मों के पटकथा लेखक रहे वेद राही के पास पटकथा लेखन का लंबा अनुभव है. इधर वह कहानियों और उपन्यास में भी लगातार सक्रिय हैं. 'चुप्प रैहिये प्रार्थना कर’जैसा कविता संग्रह देकर उन्होंने अपने भीतर मौजूद आध्यात्मिक अनुभूतियों का भी परिचय दिया है. इस समय मेरे हाथ में जो पुस्तक है वह स्मृति कथाओं और अध्यात्म में डुबकियां लगाने का मौका एक साथ देती है. शैव दर्शन की आदि भक्त कवयित्री ललद्यद के जीवन पर लिखे गए इस उपन्यास की भूमिका में वह स्वयं कहते हैं- 'कश्मीरी भाषा की आदि कवयित्री ललद्दय की कविता में जो गहराई और उत्कर्ष है, वहां तक पहुंचने के लिए आज भी कश्मीरी के बड़े-बड़े कवि तरसते हैं. उस शिखर तक लपकते तो सब हैं, परंतु वहां तक पहुंचने का सपना अभी किसी का पूरा नहीं हुआ है.’ संभवत: यही उत्कर्ष और गहराई ही इस उपन्यास की भी सीमा बन गई है. जहां वेद राही का पटकथा लेखक पूरी प्रखरता से उभर कर आता है, वहीं लल की वाख की मार्फत जब बाहर से भीतर की ओर दाखिल होने की बात होती है तो लेखक कामिल और पागल के बीच का भेद नहीं बतला पाता. समग्रता में यह एक उत्कृष्ट रचना है. सदियों से चले आ रहे स्मृति- इतिहास के आधार पर कहा जाता है कि लल का जन्म 1320 में कश्मीर के पांद्रेठन गांव में हुआ, जो श्रीनगर से दक्षिण पूर्व में लगभग साढ़े चार मील की दूरी पर स्थित है. यह वह दौर था जिसे यूरोप में
'रिनैसांअर्थात पुनर्जागरण काल के रूप में याद किया जाता है. जब पुरानी सभ्यताएं ढह रहीं थी और नई सभ्यताओं का विकास हो रहा था. यह सांस्कृतिक इतिहास और बौद्धिक आंदोलन का काल है. इस काल को जब हम लिखित इतिहास में पढ़ते हैं तो पाते हैं कि पुनर्जागरण काल की शुरूआत इटली से हुई, वहां प्रसिद्ध कवि दांते हैं. रिनैसां का उद्देश्य पूर्ण मानव मात्र को प्रस्तुत करना था
और माना जाता है कि सबसे पहले यह भाव दांते की कविताओं में नजर आए. उस दौर में जब कश्मीर संस्कृत साहित्य का गढ़ माना जाता था. उस दौर में जब
अभिनव गुप्त, क्षेमेंद्र, उत्पल देव जैसे सिद्ध कवि-लेखक संस्कृत में रचना कर रहे थे वह अपनी आम जन द्वारा बोली जाने वाली भाषा कश्मीरी में रचना करती हैं. आज वही रचनाएं कश्मीरी साहित्य का आधार स्तंभ मानी जाती हैं. ललद्यद अर्थात लल्लेश्वरी चौदहवीं
सदी की संत कवयित्री हैं. लिखित इतिहास के समानांतर मौखिक अथवा स्मृतियों के इतिहास ने उन्हें जन मन में द्यद अर्थात बड़ी बहन का स्थान दिया है. एक तरह से कश्मीरी साहित्य को दिशा देने वाली वह बड़ी बहन कही जा सकती हैं. शेख नूरूद्दीन नूरानी की दूध मां भी इन्हें कहा जाता है. इसलिए हिन्दू समाज में ही नहीं, बल्कि मुस्लिम समाज में भी लला को बहुत सम्मान दिया गया है. आज भी वह अपनी बेटियों की प्रशंसा में जब बहुत कुछ कहना चाहते
हैं, तो कहते हैं ये बिल्कुल ललद्यद सी है. रूपा भवानी, हब्बा खातून, अरण्यमाल सहित कश्मीरी में कई कवयित्रियां हुईं हैं, लेकिन किसी की भी रचना लल के वाख की गहराई और ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाती.
उपन्यास गुरु सिद्धमौल के जंगल से पांद्रेठन गांव पहुंचने से शुरू होता है. उस दौरान पूरे कश्मीर में भयंकर उथल पुथल मची हुई है. आम जन इस सत्ता परिवर्तन से खुश
हैं, परंतु गुरु सिद्धमौल इस परिवर्तन में अनिष्ट की आशंका को महसूस कर रहे हैं. उन्हें तकलीफ दे रहा है वीर सम्राज्ञी कोटा रानी का आत्महत्या कर लेना. वह इस पूरे माहौल से खिन्न हैं और कश्मीर छोड़कर काशी चले जाना चाहते हैं. अपनी इसी उद्विग्नता को वह मल्लाह से भी कहते हैं और यंद्राबट से भी. यंद्राबट से बात करते हुए उन्हें लल की याद आती है. और तब मालूम होता है कि वह कुछ अजीब सी बातें करती हैं. उसके इसी आचरण को लेकर उसके माता-पिता बहुत परेशान हैं और
वह जल्दी ही उसका ब्याह कर देना चाहते हैं. सिद्धमौल उन्हें ऐसा करने से मना करते हैं. वह कहते हैं कि लल कोई साधारण बालिका नहीं है, उसके भाव और व्यवहार असाधारण हैं. उनके पास इतना भी समय नहीं है कि वह लल के घर लौटने की प्रतीक्षा करें. जम्मू-कश्मीर के लोक समाज में लल को लेकर कई मिथक हैं. किसी की बेटी बहुत अच्छी हो तो कहते हैं कि बिल्कुल ललद्यद जैसी है और किसी की सास बहुत बुरी हो तो भी कहते हैं कि ललद्यद जैसी है. थाली में कम भोजन हो तो कहेंगे कि लल की थाल है और पश्मीना बहुत महीन कता हो तो भी मानते हैं कि जैसे लल ने काता है. इनमें से अधिकांश को लेखक ने बहुत खूबसूरती से कथा में बुना है. परंतु कहीं-कहीं उनका पटकथा लेखक उन पर हावी हो जाता है. इस नाटकीयता में लल का पति सुरा-सुंदरी का पान करने वाला एक व्यसनी खलनायक सा जान पड़ता है. लेखक का मूल डोगरी भाषी होना भी कश्मीरी समाज का डोगरीकरण सा प्रतीत होता है. मान्यताओं के द्वंद्व भी लगातार लेखक के सामने खड़े हैं. वह उनके बीच भी साम्य स्थापित करते चलते हैं. कश्मीरी हिन्दू परंपराओं के मुताबिक नुंद ऋषि जिन्हें मुसलमान शेख नूरूद्दीन नूरानी कहते हैं, लला को उनकी दूध मां कहा जाता है. मुस्लिम मान्यता है कि वह असाधारण तेज वाला बालक अपने जन्म
के कई दिनों बाद तक भी मां का दूध नहीं पी रहा था, तब ललद्यद ने उन्हें अपना दूध पिलाया था. जबकि हिंदू मान्यता है कि दूध केवल प्रतीक है. लल ने अपनी सांस्कृतिक विरासत नुंद ऋषि को सौंपी थी. भले ही प्रस्तुत उपन्यास में कश्मीरी समाज उस तरह परिलक्षित नहीं हो पाता, किंतु फिर भी कश्मीरी की आदि कवयित्री ललद्यद की जीवन कथा को पीर पंजाल की पहाड़ियाँ' पार करवाने का श्रेय वेद राही को ही जाता है. सरस कथा, खूबसूरत संवाद और तनिक नाटकीयता पाठक को अपने साथ बांधे रखती है. फिर भी जैसा मैंने पहले भी कहा कि यह उपन्यास उस गहराई तक नहीं पहुंच पाया, जिस गहराई में लल की वाख उतरती हैं. आप स्वयं पद्मपुर की पद्मावती, नुंद ऋषि की लला आरिफा, कश्मीरी साहित्य की लल दिद्दा और हम सब की लल्लेश्वरी के कुछ वाख का रसास्वादन करें - लल बो द्रायस कपसि पोशचि सेत्चेय. कॉडय ते दून्य केरनम यचय लथ. तेयि येलि खॉरनम जॉविजॅ तेये. वोवेर्य वाने गयेम अलान्जेय लथ.. मैं लला कपास के फूल की तरह एक शाख पर उगी थी. पर माली ने मुझे तोड़ा और मुझे इस बेदर्दी से झाड़ा कि कपास पर लगी सारी गर्त झड़ गई. उस स्त्री ने अपने चरखे की महीन सूईं में पिरोकर मेरी आत्मा को तब तक काता जब तक वह महीन धागे में न बदल गई. और धागा उठाकर बुनकर ले चला अपने करघे की ओर. जिस पर चढ़ा कर उसने यह कपड़ा तैयार किया है. दोब्य येलि छॉवनस दोब्य कनि प्यठेय. सज ते साबन मेछनम येचेय. सेच्य यलि फिरनम हनि हनि कॉचेय. अदे ललि म्य प्रॉवेम परमे गथ.. मुझ पर साबुन लगा कर धोबी ने घाट के पत्थर पर बहुत बेदर्दी से पटका. दर्जी ने पहले मुझे अपनी कैंची से टुकड़े-टुकड़े कर दिया और फिर तीखी सूईं से मेरे टुकड़ों को अपनी मर्जी से सी दिया. ये सब मैं चुपचाप देखती रही, भोगती रही और अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गई हूं. अब मैं अपने परमेश्वर में पूरी तरह विलीन हो रही हूं. सरस सैत्य्य सोदाह कोरूम. हरस केरेम गोढ सीवय. शेरस प्येठ किन्य नचान डयूंठुम. गछान डयूंठु आयम पछ़.. मैंने उससे सौदा किया है कि मैं पूरे मनोयोग से, अपनी भावनाओं की पराकाष्ठा तक उसकी सेवा करूंगी. मैं महसूस कर रही हूं कि ईश्वर मेरे मस्तिष्क के शून्य चक्र में नृत्य कर रहे हैं. किसी भी भक्त के लिए इससे बड़ी प्राप्ति क्या होगी. (हिंदी कीबोर्ड में कुछ कश्मीरी स्वर नहीं मिल पाते, जिनके लिए वाख में ऐ की मात्रा का प्रयोग किया गया है.) ____________ योगिता यादव कहानी संग्रह : क्लीन चिट, भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार, हंस कथा सम्मान संपर्क 911, सुभाष नगर, जम्मू ललद्यद का जन्म कहाँ हुआ था?कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय संत कवयित्री ललद्यद का जन्म सन् 1320 के लगभग कश्मीर स्थित पाम्पोर के सिमपुरा गाँव में हुआ था। उनके जीवन के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। ललद्यद को लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारिफा आदि नामों से भी जाना जाता है। उनका देहांत सन् 1391 के आसपास माना जाता है।
ललद्यद कौन है?ललद्यद का जीवन परिचय : ललद्यद का जन्म 1320 के आस-पास कश्मीर स्थित पांपोर गांव में हुआ था। ललद्यद को लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारीफ़ा आदि नामों से भी जाना जाता है। वे चौदहवीं सदी की एक भक्त कवयित्री थी, जो कश्मीर की शैव-भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी मानी जाती हैं।
ललद्यद के लिए साहिब कौन हैं?कवयित्री परमात्मा को साहब मानती है, जो भवसागर से पार करने में समर्थ हैं।
महिला भक्त संत लाल डेड कहाँ की थी?लल्लेश्वरी या लल्ल-द्यद (1320-1392) के नाम से जाने जानेवाली चौदवहीं सदी की एक भक्त कवियित्री थी जो कश्मीर की शैव भक्ति परम्परा और कश्मीरी भाषा की एक अनमोल कड़ी थीं। लल्ला का जन्म श्रीनगर से दक्षिणपूर्व मे स्थित एक छोटे से गाँव में हुआ था।
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