कोई खतरा नहीं शहर की सड़कों पर जो हर बार फँस जाता है नहीं आएगा उसके हिस्से फिर भी वह देखता है घोषणा होती हैं चुप्पी साध लेती है दिल्ली आवाज़ें फुसफुसाती हैं — चारों ओर ख़ामोशियों का घना अरण्य शामिल हो जाते हैं न धर्म-विरोधी होने का डर वैसे भी संस्कृति अक्सर चुप ही रहती है संस्कृति और धर्म जश्न मनाते हैं जो भी आएगा घोषणा होती है — सड़कों पर सुनाई पड़ती है चुनाव होते हैं हर बार भूख और मौत से भयभीत आदमी क्यों गिने जाते हैं यह अलग बात है और, या फिर किसी तहख़ाने में बैठकर सभ्य नागरिकों के लिए सलाह देकर निकल जाता है मैं देख रहा हूं वह सब जिसे देखना जुर्म है उस तालाब का पानी जिन्हें गर्व है संस्कृति पर दोस्तो ! फिर हम सब इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को हमने अपनी उँगलियों के किनारों पर दोस्तो ! (जनवरी, 1989) शंबूक का कटा सिरजब भी मैंने मैं उठकर भागना चाहता हूँ मेरे शब्द पंख कटे पक्षी की तरह यहाँ गली-गली में शंबूक ! तुम्हारा रक्त ज़मीन के अंदर (सितंबर 1988) युग-चेतनामैंने दुख झेले इतिहास यहाँ नकली है कितने सवाल खड़े हैं मैं खटता खेतों में इठलाते हो बलशाली बनकर (अक्टूबर 1988) वह मैं हूँवह मैं हूँ कुशल हाथों से तराशे खेत की माटी में जिसे झाड़-पोंछकर भेज देते हैं वे प्रताड़ित-शोषित जनों के पेड़ों में नदी का जल सिर्फ मैं हूँ !!! चोटपथरीली चट्टान पर एक तुम हो, (फ़रवरी, 1985) ठाकुर का कुआँचूल्हा मिट्टी का भूख रोटी की बैल ठाकुर का कुआँ ठाकुर का (नवम्बर, 1981) पहाड़पहाड़ खड़ा है बारिश में नहाया लेकिन जब पहाड़ थरथराता है गहरी खाइयों का डरावना अँधेरा पहाड़ जब धसकता है जब पहाड़ पर नहीं गिरती बर्फ़ यह अलग बात है मेरे भीतर कुनमुनाती चींटियों का शोर फिर भी ओ मेरे पहाड़ ! हिकारत भरे शब्द चुभते हैं जबकि मेरे लिए क़दम बढ़ाना वे फिर कहते हैं– मैं कहता हूँ– वे चीख़ते हैं– तुम्हारी महानता मेरे लिए स्याह अँधेरा है । वे चमचमाती नक्काशीदार छड़ी से उनका रौद्र रूप- मैं जानता हूँ इसीलिए, मेरे और तुम्हारे बीच जब भी चाहा छूना हर बार कसमसाया हथौड़े का एहसास जब भी नहाने गए गंगा मुश्किल होता है पाँव तले आ जाती हैं ये हडि्डयाँ जो लड़ी थीं कभी ये अस्थियाँ धारा के नीचे लेटे-लेटे इसलिये तय कर लिया है मैनें उन्हें डर है वे जानते हैं आसमान से बरसते अंगारों में फिर भी चौराहों से वे गुज़रते हैं जानते हैं आँखों पर काली पट्टी बाँधे फिर भी, वे खड़े हो गए हैं रास्ता रोक कर भीतर मरीज़ों की कराहटें चिड़िया उदास है — खेत उदास हैं — लड़की उदास है — किराये के हाथ मेरा विश्वास है स्वर्णमंडित सिंहासन पर बंद कमरों में भले ही खेत –खलिहान गहरी नींद में सोए मौज़-मस्ती में डूबे लोग थके-हारे मज़दूरों की फुसफुसाहटों में क्योंकि, 4 मई,2011 जुगनूस्याह रात में जुगनू अपनी पीठ के नीचे जुगनू की यह छोटी-सी चमक भी जिसके होने का सही-सही अर्थ जिनका जन्म लेना जिंनके पुरखे छोड़ जाते हैं रोशनी के ख़रीदार उसकी यह छोटी-सी चमक भी 29.04.2011 अँधेरे में शब्दरात गहरी और काली है जहाँ हज़ारों शब्द दफ़न हैं समय के चक्रवात से भयभीत होकर ऊँची आवाज़ में मुनादी करने वाले भी पुरानी पड़ गई है पर्वत कन्दराओं की भीत पर जिन्हें चिन्हित करना कविता में अब कोई बस, कुछ उच्छवास हैं 3 मई, 2011 युग चेतनामैंने दुःख झेले इतिहास यहां नकली है कितने सवाल खड़े हैं मैं खटता खेतों में इठलाते हो बलशाली बनकर अरे, मेरे प्रताड़ित पुरखों तुम्हारी पीठ पर सख़्त हाथों पर पड़ी खरोंचें बस्तियों से खदेड़े गये तुम तलाशते रहे ओ, मेरे अज्ञात, अनाम पुरखो जो तमाम हवाओं के बीच भी कुश्ती कोई भी लड़े बहुत गहरा है रिश्ता ढोल ख़ामोश है ख़ामोश ढोल को जब भी देखता हूँ मैं झाड़ू थामे हाथों की सरसराहट बस्स, दीवार बनकर खड़े हैं दुःख अच्छा प्रपंच रचा है तुमने (1) (2) (3) (4) रौशनी के उस पार अँधेरे-उजाले के बीच रौशनी के उस पार रौशनी के उस पार तुमने बना लिया जिस नफ़रत को अपना कवच |