निर्गुण और सगुण भक्ति में अंतर pdf - nirgun aur sagun bhakti mein antar pdf

Que : 464. निर्गुण और सगुण भक्ति में क्या अंतर है ?

निर्गुण भक्ति सगुण भक्ति

1.

निर्गुण भक्ति में ईश्वर के निर्गुण रूप की आराधना की जाती है। सगुण भक्ति में ईश्वर के सगुण रूप की उपासना की जाती है।

2.

निर्गुण में ईश्वर की रूप, रंग, गुण, जाति नहीं होती है। सगुण भक्ति में ईश्वर की रूप, गुण, जाति होती है।

3.

निर्गुण भक्ति में गुरु को ज्ञान  के नेत्रों को खोलने वाला बताया है। सगुण भक्ति में गुरू की महिमा को अनंत बताया है।

4.

निर्गुण भक्ति में बालू आउबर तीर्थमाला, मंदिर, मस्ज़िद, रोजा, नमाज, तिलक जपमाला आदि का विरोध किया गया है। सगुण भक्ति में मूर्ति पूजा, नित्यध्मान, संकीर्तन तिलक, तीर्थयात्रा आदि को आवश्यक बताया है।

5.

निर्गुण भक्ति में ईश्वर में को निराकार मानकर मानक एक बताया है। सगुण भक्ति में ईश्वर के अलग-अलग रूपों को बताकर अनेकता व अवतारों का वर्णन हुआ है।
उदाहरण
 
म.मु.जा., कबीर, वृंद, रहीम आदि । तुलसी, सूर, मीरा ,रसखान आदि ।

आज के दौर में बहुत से लोग परमात्मा को सगुण रूप में पूजते है और बहुत से निर्गुण रूप में । सगुण रूप में पूजने का सीधा सीधा मतलब होता है कि हम परमात्मा को एक आकर में देखते है । आप अपनी सोच के हिसाब से परमात्मा को देखते है । हम कृष्ण को उस रूप में देखते है , जिस रूप में हमें बताया गया, दिखाया गया, चित्रित किया गया हमारे द्वारा और मूर्तिवत रूप दे दिया गया उन्हें, जिन्हें हम पूजते है। ये है सगुण पूजा -एक रूप की, आकार की, ये है सगुण साकार ब्रह्म । जब भी हम ब्रह्म को एक शरीर में मूर्त रूप में देखते है तो ये सोच ये नजर हमारी है तमोगुणी, क्योंकि सोच का धरातल शरीर है । और यदि हम प्रभु को देखते है मन के धरातल पर तो ये रजोगुणी है और यदि हम देखते है आत्मा के धरातल पर तो ये सतोगुणी है । ये अलग अलग ढंग से देखने की नजर है, आँख है प्रभु को देखने की ।

अब इसको विस्तार से समझते है । यदि हम परमात्मा को एक अस्तित्व के तौर पर सर्वत्र विद्यमान सत्ता के रूप में देखते है तभी हम अपने अंदर सोच लाते है निराकार की । एक ऐसी परम सत्ता जिसका कोई ओर-छोर नहीं, एक ऐसी सत्ता जो सर्वत्र है । यदि हमें एक खिडकी से पूरे आकाश को देखना चाहे तो क्या देख पाएंगे ? नहीं, क्योंकि वो आकार नहीं है । आपने अधूरा देखा । आप उसे पूरा देख ही नहीं सकते । आप उसमें है, आप कैसे देखेंगे अस्तित्व को । आप हाथ जितना खोलोगे आकाश उतना ज्यादा । मुट्ठी भींच लो, आकाश नहीं । हम अस्तित्व में जीते है कैसे कहेंगे उसको ।

इसमें एक चीज देखने जैसी है परमात्मा हर वस्तु में है भी और नहीं भी है । गहरा दर्शन है जैसे वह शरीर में है भी और नहीं भी, मन है भी और नहीं भी । जैसे जल की एक लहर और बूंद अलग अलग है और नहीं भी । जो लोग परमात्मा को हमेशा एक सगुण यानि साकार रूप में देखते है और उससे ज्यादा हाथ नहीं बढ़ाते है अपना, उस परम की तरफ तो यात्रा उनकी भी ऊपर की होकर रह जाती है। जीवन में सिर्फ शरीर की, यानि तमोगुणी जो थोड़ा सा और करीब आया, अंदर उतरा पर मन में फंस के रह गया तो वह है रजोगुणी और यदि उससे आगे उतरा प्रभु के ध्यान में और प्रभु ने जनवाया उसे अपने आपको, तब वह आया आत्मा की सोच पर, धरातल पर । आप देखते होंगे आज के समाज में 55 साल के वृद्ध भी अभी तक मूर्ति पूजा में फंसे है । एक चौखटे से देखते है परमात्मा को, अस्तित्व मे नहीं । आज भी मंदिर जा रहे है । जीवन में ध्यान नहीं, है समझ में गहराई नहीं , ऊपर ऊपर तैर रहे है, अंदर गये ही नहीं, मोती कैसे मिले और हाँ उनकी समझ को इतना भ्रमित कर दिया गया है कि कृष्ण की कथा में भी वह कहानी में उलझे है । छू तक नहीं पाते वह उस अनुभूति को जो समाधि पायी उन्होंने । ये बिलकुल वैसा ही है जैसे एक बुजुर्ग पहली कक्षा की पढाई करे। उम्र बीती है, अनुभव नहीं बढा । गुना नहीं किया जीवन को सिर्फ काटा है । यात्रा नही की, चले है सिर्फ जैसे मन ने चलाया वैसे और पुजारी ने समझाया वैसे।

ये यात्रा है सगुण साकार से निर्गुण निराकार को पाने तक की । हम मूर्ति पूजा करें, कोई मतभेद नहीं लेकिन हम जैसे-जैसे अपनी उम्र के पड़ाव को पार करते जाये साथ साथ अपने आप को उतारे उस अस्तित्व में परम के क्योंकि पहुंचना तो सही मायने में यही है । यही तो है यात्रा परम की ।

लोग गुलाम हो गये है आदतों के । आज तक आरतियों के अंदर, घंटों की आवाजों में, उलझे है आदतन । इससे होता कुछ नहीं । क्या होगा इससे, ह्रदय परिवर्तन कैसे होगा ? परिवर्तन तब होगा जब हमारी यात्रा सगुण साकार से निर्गुण निराकार यानि ह्रदय की बने । हम इतना डूबे इसमें कि जो अमृत छिपा है अंदर, छलके वह, दिखे हमारे चेहरे पर वो तेज आनंद का और ह्रदय में अविरल बहे धारा उस परम आनद की । गीता में प्रभु ने स्वयं कहा है मै सगुण भी हूँ और निर्गुण भी क्योंकि जिस सगुण के तुम उपासक हो वह भी तो अस्तित्व का एक हिस्सा ही है । कैसे अलग है वह अस्तित्व से । हम यदि गुलाब के हजारों फूलों को निचोड़ के इत्र बनाये, वह है समाधि की अवस्था ।

हमें जरुरत है अभिप्सा की, एक ऐसी प्यास की, जो कभी खत्म न हो । एक ऐसी तड़प, परमात्मा को पाने की, जो सदा हमें दिलाये एहसास उसके करीब होने का हर पल हर साँस में घटे वो हममें ।

आज प्रातः मै सुन रहा था गुरु माँ आनंदमयी को । उन्होंने बताया सुखमणि साहब में कहा गया है कि ब्राह्मण वह है जिसकी बुद्धि में ब्रह्म है, जिसकी अंतरात्मा में उसने पिरो लिए है मोती राम नाम के । जाति का ब्राह्मण हो, जाति का वैश्य हो, जाति का राजपूत हो, जाति का शुद्र हो, परमात्मा की निगाह में सब कर्मो के अनुसार निर्णित है । ये जातियां प्रभु ने नहीं बनायी, हमारे समाज ने बनायी हैं अपनी व्यवस्था के अनुरूप । अगर ब्राह्मण हो लेकिन नजर आपकी जेब पर, अगर वैश्य ही करे व्यापार के नाम पर चोरी, राजपूत हो लेकिन अपने बाहुबल का प्रयोग करे निर्बल को सताने में । शुद्र हो लेकिन साधना के पथ पर मोती चुग ले तो वह ब्रह्म ही है । रैदास थे चमार लेकिन पाया ब्रह्म को, मीरा थी क्षत्राणी लेकिन ऐसा डुबाया अपने आपको उस परम में कि क्या करेंगे ब्राह्मण जो जाति से है। ब्राह्मण थे अष्टावक्र, शंकराचार्य जिन्होंने साबित किया अपने आपको । जब अष्टावक्र का मजाक बनाया गया क्योंकि वे आठ जगह से टेढ़े थे शरीर से, कहा उन्होंने जो शरीर को, चमड़ी को देखते है वे एक चमार से ज्यादा देखने की नजर नहीं रखते और रैदास जैसे जाति के चमार कहलाने वाले ऐसे बैठे परम समाधि में कि कोई ब्राह्मण भी क्या जानेगा ब्रह्म को ।

गीता में प्रभु कहते है कि अगर देखने की नजर रखता है तो देख कुछ भी अलग अलग नहीं है । ना सांख्य-योग ना कर्म योग, ना भक्ति योग । सब एक ही तो है । नजर बना देखने की । अगर कोई कर्त्ता है ही नहीं तो परमात्मा की तरफ किस रास्ते से पहुंचे वह, ये फैसला भी तो परमात्मा का ही है । वह कुछ करता ही नहीं, करवा तो प्रभु रहे है । आदमी अपने जीवन में ये मानना शुरू कर देता है कि वह कर्त्ता है तब वह सत्य से दूर असत्य को गले लगाता है जो ये मानता है कि यात्रा तेरी, मै तेरा, समा ले मेरे छोटे से दिये की टिमटिमाती लौ को अपने परम प्रकाश में । सोच उसकी ही सही है । सत्य साथ है उसके, क्योंकि वह किसी भी तरह के बंधन में नहीं है । भला-बुरा सब तुझे अर्पण, मै हूँ नहीं कुछ, न श्रेष्ठ, न दीन, हर दम एक सा, जैसा हूँ, तेरा हूँ । सारा खेल भाव का है । कैसे याद करें हम उसको ? किस श्रेणी का बनाया हमने अपने आपको, प्रभु ने क्या पात्रता मांगी थी हमसे, सिर्फ इतना ही तो, जैसा भेजा था इस दुनिया में निर्दोष वैसे ही बने रहे हम । सब खो दिया हमने । हम अपने आपको बुद्धिमान कहते है । कहाँ है बुद्धिमता ? सब कुछ धीरे-धीरे अवगुणों से ढँक दिया हमने ।

प्रभु की लीला है सगुण और निर्गुण । इसको हम एक तरीके से और कह सकते है कि सब ‘भाव’ चित्त का है । जैसी जिसकी पात्रता वैसा उसका दर्जा । जब श्रीराम ने लंका पर चढाई करने का विचार बनाया तो उससे पहले कहा उन्होंने कि यज्ञ और अनुष्ठान करने है और इसके लिए एक ब्राह्मण की आवश्यकता है जो श्रेष्ठ हो । जानकारी आई कि इस क्षेत्र का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण है रावण। अब रावण को सन्देश भेजा गया कि श्रीराम लंकापति रावण को परास्त करने के लिए, चढाई करने के लिए पुल का निर्माण करना चाहते है और इसके अनुष्ठान और यज्ञ के लिए ब्राह्मण रावण को बुलावा देते है । रावण के पास सन्देश भेजा गया । स्वीकार किया रावण ने । कहा, कह दो यजमान से, अवश्य पहुंचेंगे । पहुंचा रावण, कराया उसने अनुष्ठान और यज्ञ इतने विधि विधान और तरीके से कि जब यज्ञ का प्रसाद दिया उसने श्रीराम को तब कहा श्रीराम ने आपने जिस अति उत्तम तरीके से विधि पूर्वक निर्दोष इस यज्ञ को करवाया उसके लिए मै आपको प्रणाम करता हूँ । ब्राह्मण रावण ने आशीर्वाद दिया श्रीराम को सफलता का । मतलब अपने ही संहार का, अपने पर ही विजय का । ये सब लीला थी प्रभु की, एक सन्देश था जनमानस के लिए । कर्त्ता का क्या मतलब है, सब कुछ तो लीला है प्रभु की । सिर्फ कर्म करने का अधिकार है हमें, वह भी अकर्त्ता बनकर, यही सच है ।

हमेशा करे हम सगुण से निर्गुण की यात्रा यानि शरीर से आत्मा की ओर चलें हम जिये उस अनुभूति में उस परम को हर पल हर क्षण।

निर्गुण और सगुण भक्ति से क्या अंतर है?

जो ईश्वर का मूर्त या साकार रूप है , उसे ही सगुण रूप कहते हैं और जो अमूर्त या निराकार रूप है, उसे निर्गुण रूप कहते हैं।

2 सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति का अंतर स्पष्ट करते हुए कबीर की भक्ति के स्वरूप का विश्लेषण करें?

प्रथम धारा के कवियों ने ईश्वर के निराकार रूप को और दूसरी धारा के कवियों ने ईश्वर के साकार रूप को महत्त्व दिया है। (क) निर्गुण भक्ति काव्य-धारा निर्गुण भक्ति काव्य-धारा के कवियों ने निराकार ईश्वर को प्राप्त करने के लिए ज्ञान एवं प्रेम को आधार बनाया।

सगुण भक्ति क्या है?

' सगुण भक्ति का अर्थ है- आराध्य के रूप – गुण, आकर की कल्पना अपने भावानुरूप कर उसे अपने बीच व्याप्त देखना. सगुण भक्ति में ब्रह्म के अवतार रूप की प्रतिष्ठा है और अवतारवाद पुराणों के साथ प्रचार में आया. इसी से विष्णु अथवा ब्रह्म के दो अवतार राम और कृष्ण के उपासक जन-जन के ह्रदय में बसने लगे.

निर्गुण भक्ति का क्या अर्थ है?

निर्गुण उपासना पद्धति में ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की जाती है। हिन्दू ग्रंथ में ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूप और उनके उपासकों के बारे में बताया गया है। निर्गुण ब्रह्म ये मानता है कि ईश्वर अनादि, अनन्त है वह न जन्म लेता है न मरता है, इस विचारधारा को मान्यता दी गई है।