न्यायपालिका को स्वतंत्र क्यों होना चाहिए - nyaayapaalika ko svatantr kyon hona chaahie

न्यायपालिका को स्वतंत्र क्यों होना चाहिए - nyaayapaalika ko svatantr kyon hona chaahie

  • Home
    • Welcome to IMJ
    • Policy
    About Us
    • For Conference and Seminars Organizers
    • For Universities and Societies
    • Post Your Journal with Us
    • Plagiarism Check Services
    • DOI
    Services
  • Journals List
  • Indexing/Impact Factor
    • Author Guidelines
    • Review Process
    • Reviewer Guidelines
    • Service Charges
    Guidelines
    • Register as Editor
    • Register as Author
    • Register as Reviewer
    Register With Us
  • Contact Us

Published in Journal

Year: Sep, 2018
Volume: 15 / Issue: 7
Pages: 406 - 409 (4)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: http://ignited.in/I/a/200907
Published On: Sep, 2018

Article Details

भारत में न्यायपालिका की भूमिका | Original Article


न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप : लक्षमण रेखा खींचना जरूरी

न्यायपालिका को स्वतंत्र क्यों होना चाहिए - nyaayapaalika ko svatantr kyon hona chaahie

न्यायपालिका की स्वतंत्रता से आशय है कि सरकार के अन्य अंग विधायिका व कार्यपालिका व मीडिया उसके कार्य में कोई बाधा न डालें ताकि वह निष्पक्ष रूप से न्याय दे सके। ‘न्याय केवल

न्यायपालिका की स्वतंत्रता से आशय है कि सरकार के अन्य अंग विधायिका व कार्यपालिका व मीडिया उसके कार्य में कोई बाधा न डालें ताकि वह निष्पक्ष रूप से न्याय दे सके। ‘न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए’ वाली उक्ति तभी प्रमाणित हो सकती है जब न्यायालयों की कार्यप्रणाली में कोई हस्तक्षेप व दबाव न हो।

न्यायपालिका के सदस्यों का व्यवहार व आचरण न्यायपालिका की निष्पक्षता के प्रति लोगों के विश्वास की पुष्टि करता है। न्यायपालिका के कार्यों व निर्णयों की मनमाने ढंग से आलोचना नहीं होनी चाहिए। आज जिस ढंग से मीडिया ट्रायल स्वतंत्र न्यायपालिका पर भारी पड़ते जा रहे हैं, उससे जजों को भी तनाव में देखा जा सकता है।

वास्तव में मीडिया के कुछ लोगों को न्यायिक प्रक्रिया व विधि-विधान की बारीकियों का ज्यादा ज्ञान नहीं होता। मीडिया ट्रायल पर कोई अंकुश नहीं है तथा अब सोशल मीडिया तो सारी सीमाएं लांघ रहा है तथा कुछ भी लिखने से परहेज नहीं किया जा रहा। इसी तरह सरकार भी कई बार राजनीति को ध्यान में रखते हुए न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपनी मर्जी से कई अधिनियमों में संशोधन कर देती है। इसके अतिरिक्त जजों को अपराधियों व आतंकवादियों द्वारा भी समय-समय पर धमकियां मिलती रहती हैं तथा कई बार तो उन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी।

1989 में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नीलकंठ गंजू का आतंकवादियों ने इसलिए कत्ल कर दिया था क्योंकि उन्होंने मकबूल भट्ट नामक आतंकवादी को एक पुलिस इंस्पैक्टर की हत्या के लिए वर्ष 1968 में (जब वह सैशन जज थे) फांसी की सजा दी थी।

जुलाई 2021 में धनबाद के जज उत्तम चंद को, जब वह सुबह की सैर कर रहे थे, एक ऑटो रिक्शा वाले ने टक्कर मार कर मौत के घाट उतार दिया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि वह बहुत ही संवेदनशील मुकद्दमे की सुनवाई कर रहे थे। 2018 में गुरुग्राम के एक जज की पत्नी व उसके बच्चे को जज के सुरक्षा कर्मचारी ने ही गोलियों से भून डाला था।

हाल ही में प्रधानमंत्री की पंजाब यात्रा के दौरान कुछ असामाजिक तत्वों ने उनके काफिले को आगे बढऩे से रोक दिया जिस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में लोगों ने जनहित याचिकाएं दायर कीं। जिन वकीलों व न्यायाधीशों ने याचिकाओं की पैरवी व सुनवाई करनी थी, उन्हें ‘सि स फॉर जस्टिस’ नामक संस्था के लोगों द्वारा धमकी भरे टैलीफोन आने आरंभ हो गए।

इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के 2 जजों जस्टिस डी.वी. चंद्रचूड़ और ए.एस. बोपन्ना ने कृष्णा नदी जल विवाद की सुनवाई से अपने को इसलिए अलग कर लिया क्योंकि यह विवाद महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना राज्यों के बीच पानी के बंटवारे से संबंधित था तथा ये दोनों जज क्रमश: महाराष्ट्र व कर्नाटक के रहने वाले हैं तथा उन्हें सोशिल मीडिया पर पक्षपात करने के संबंध में ढेरों संदेश आने शुरू हो गए थे। हालांकि न्यायाधीश डर या पक्षपात के बिना न्याय करने की शपथ लेते हैं लेकिन अपमानजनक आलोचना की आशंकाओं ने उन्हें इस मामले से हटने के लिए मजबूर कर दिया।

मीडिया, विशेषकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का इस्तेमाल करते समय अपनी भाषा, मर्यादा, संयम और किसी भी जांच में हस्तक्षेप के अनजाने प्रयास में अदृश्य सीमा-रेखा नहीं लांघनी चाहिए अन्यथा वह समय दूर नहीं जब न्यायपालिका संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आ रहे मीडिया के लिए विशेष परिस्थितियों या मामलों के संबंध में कोई लक्षमण रेखा खींच सकती है। एक अन्य मामले में रिटायर्ड जस्टिस कुरियन ने 2015 में बार काऊंसिल में कहा था कि निर्भया हत्याकांड में जजों पर इतना दबाव था जो निष्पक्ष ट्रायल में एक बहुत बड़ी बाधा थी। एक जज ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर वह कड़ी सजा न देता तो उसे ही लटका दिया होता।

उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि जज एक भगवान के रूप में हम सभी के अधिकारों की रक्षा करते हैं। न्यायपालिका पर हम सभी को विश्वास होना चाहिए तथा बिना वजह की छींटाकशी करने से बचना चाहिए। हमें न्यायालय का साथ देना चाहिए ताकि अधिक से अधिक अपराधियों को सजा तथा पीड़ित व ग्रस्त लोगों को तुरंत न्याय भी मिल सके।

हमारे न्यायाधीशों के विश्वास पर ही हमारी उत्कृष्ठ न्याय व्यवस्था टिकी हुई है। हमारी सरकारों को भी न्यायपालिका के निर्णयों को स मानजनक रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए तथा केवल वोट की राजनीति के आधार पर किसी वर्ग विशेष के अधिकारों की रक्षा दूसरे वर्ग के अधिकार मूल्यों के आधार पर नहीं करनी चाहिए अन्यथा न्यायालय को यहां पर भी कोई लक्षमण रेखा खींचनी पड़ सकती है।-राजेन्द्र मोहन शर्माडी.आई.जी.(रिटायर्ड)