राष्ट्रपति को सजा क्यों नहीं होती? - raashtrapati ko saja kyon nahin hotee?

नई दिल्ली. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को दी गई मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई तो कई सवाल उठने लगे। इनमें सबसे अहम सवाल यह भी है कि आखिर दोषियों की दया याचिका पर फैसले में इतना विलंब क्यों होता है। दया याचिकाओं पर फैसले में लगातार हो रही देरी की वजह से सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकारों का उपयोग करने में तेजी बरती है। पिछले दो साल में कोर्ट ने 16 दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है। बेवजह लंबित की जा रहीं दया याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट अफसोस भी जता चुका है। हालांकि प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद फैसलों में तेजी आई है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट फांसी की सजा पाए कैदियों के लिए कुछ गाइडलाइन भी तय कर चुका है। कोर्ट की ओर से जेल प्रबंधन को सख्त निर्देश हैं कि दया याचिका खारिज होने के बाद वह फांसी देने में जल्दबाजी न दिखाए।

फांसी की मुखालफत : मानवाधिकार संगठन और कई सामाजिक संगठन फांसी की सजा के खिलाफ हैं। उनका तर्क है कि मौत की सजा नृशंस है। आज तक यह बात साबित नहीं हो सका है कि फांसी की सजा से अपराधों की रोकथाम का मकसद हल होता है। संगठनों का यह भी तर्क है कि दया याचिकाओं को लंबे समय तक अटकाए रखना दोषी को दोहरी सजा देने जैसा और अमानवीय है। सामाजिक संगठन मांग करते रहे हैं कि भारत को उन देशों के साथ आना चाहिए, जिन्होंने मौत की सजा के प्रावधान को पूरी तरह से खत्म कर दिया है।

जानकारों का मानना है कि बीते कुछ सालों में मौत की सजा में देरी के पीछे बढ़ता राजनीतिक दबाव भी रहा है। दया याचिका पर फैसले में देरी पर तर्क दिया जाता है कि राष्ट्रपति और गृह मंत्रालय के बीच फाइलों के आदान-प्रदान में ही काफी वक्त लग जाता है, लेकिन यह कारण तर्क संगत नहीं लगता, क्योंकि कुछ राष्ट्रपतियों के पांच साल के कार्यकाल में दर्जनों याचिकाओं पर फैसला हो गया।

सुप्रीम कोर्ट जता चुका अफसोस: बीते 30 सालों में दया याचिकाओं पर फैसले में देरी की प्रवृत्ति बढ़ी है। वर्ष 1980 से पहले तक किसी भी दया याचिका पर फैसला लेने में न्यूनतम 15 दिन और अधिकतम 10-11 महीने का वक्त लगता था, लेकिन 1980 से 1988 के दौरान देरी का समय बढ़ता गया और यह औसतन करीब चार साल तक हो गया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए दया याचिकाओं के निपटारे में तेजी लाने का आदेश जारी किया। इसका असर हुआ और 1989 से 1997 के बीच याचिकाओं के निपटारे की अवधि घटकर चार से पांच महीने हो गई।

दया याचिका अगर लंबे समय तक बगैर किसी वाजिब कारण के लंबित रहे तो दोषी संविधान के अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) के आधार पर कोर्ट में सजा कम करने की याचिका दायर कर सकता है। यहां तक कि राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज किए जाने के बाद भी दोषी सजा कम करने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है। हालांकि दया याचिका पर फैसले में हुई देरी को सजा कम करने का आधार नहीं माना जा सकता।

आगे की स्लाइड में पढ़ें, क्या है दया याचिका?, किनके काल में कितनी दया याचिका?, क्या कहती है सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन और 2012 में कितनों को फांसी की सजा?...

हमारे संविधान के अनुसार अनुच्छेद 72  राष्ट्रपति  को यह अधिकार देता है। कि वह क्षामादान कर सकते है लेकिन यह क्षामादान गृहमंत्रालय के अधिन होता है। ये क्षामादान पांच तरीके का होता है।

                         

1.क्षामा(padon)-पूर्णतः माफ - 

जब कभी राष्ट्रपति गृहमंत्रालय के सलाह पर कितना भी बढ़ा अपराध को माफ कर देते है । तो उसे क्षामा कहते है । इसके बाद वह व्याक्ति सामान्य हो जाता है. हमारी और आपकी तरह ।यह इतना पावरफुल होता है कि इसे किसी व्याक्ति के खिलाफ अभी मुकदमा चल ही रहा है । चाहे वह हाइकोर्ट हो या सुप्रीकोर्ट तब भी राष्ट्रपति  कह सकता है ।  जाओ तुमको माफ कर दिया! 


2. लघुकरण(commutation): इसमें सजा के नेचर को बदला जाता है । न कि समय को ,जैसे किसी  व्याक्ति को 10 वर्ष कि कठोर सजा है । उसे 10 वर्ष की साधारन सजा में बदल दिया जाता है 


3. परिहार(Remission): इसमें सजा के समय को कम कर दिया जाता है । न की नेचर को जैसे, किसी व्याक्ति को 10 वर्ष की कठोर सजा को पांच वर्ष की कठोर सजा में बदल दिया जाता है । यह फांसी की सजा पर लागू नहीं होता है।


4 .विराम (Respite):जब जेल के अंदर कैदी का स्वास्थ्य खराब हो जाए ।जैसे करोना हो जाए बुखार हो जाए या कोई बढ़ी बिमारी हो जाए तब यह लागू होता है

5.प्रबिलंबन(reprieve): जब कोर्ट फांसी की सजा सुना दे तब। उसे अस्थायी रोकने के लिए राष्ट्रपति प्रबिलंबन का प्रयोग करते हैं। जैसे कोर्ट ने किसी को 12 मार्च को फांसी की सजा सुनाई है । तब प्रबिलंबन लगा कर तारीख को आगे बढ़ाया जा सकता है 


भारत में मृत्युदंड देने की क्या प्रक्रिया है?

भारत में दुर्लभतम मामलों (जैसे छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार और हत्या, किसी महिला या पुरुष की अमानवीय तरीके से हत्या) में मौत की सज़ा दी जाती है. सत्र न्यायालय में जब मुक़दमे की सुनवाई होती है, तो सत्र न्यायाधीश को फ़ैसले में यह लिखना पड़ता है कि मामले को दुर्लभतम क्यों माना जा रहा है।

सत्र न्यायाधीश द्वारा दी गयी फांसी की सज़ा तब तक वैध नहीं है जब तक कि इसे हाई कोर्ट की मंजूरी ना मिल जाये।भारतीय संविधान के अंतर्गत यह व्यवस्था है कि किसी भी अपराधी के साथ भी किसी दशा में अन्याय नहीं होना चाहिए. इसी कारण यदि किसी व्यक्ति को निचली अदालत ने सजा सुनाई है तो उसे यह अधिकार दिया गया है कि वह व्यक्ति ऊपरी कोर्ट में जा सकता है अर्थात वह राज्य के हाईकोर्ट में अपील कर सकता है और अगर वंहा भी उसे लगता है कि उसके साथ न्याय नहीं हुआ है तो वह सर्वोच्च न्यायालय यानि कि सुप्रीम कोर्ट में भी शरण ले सकता है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जो सजा सुनाई है वह नहीं बदल सकता।यदि सुप्रीम कोर्ट ने किसी को मृत्यु दंड की सजा दी है या निचली अदालत की सजा को बरक़रार रखा है। तो फिर सजा में सिर्फ राष्ट्रपति ही परिवर्तन कर सकता है।

राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर करने की प्रक्रिया क्या है?

जब किसी भी मामले में किसी अपराधी को सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत नहीं मिलती है और उसकी फांसी की सजा बरक़रार रहती है या ऐसे कोई मामले जिसमें खुद सुप्रीम कोर्ट ने दोषी को फांसी की सजा दी हो तो वह व्यक्ति सीधे राष्ट्रपति के दफ्तर में अपनी याचिका लिखित में भेज सकता है।राष्ट्रपति के पास दया याचिका दाखिल करने का प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 में है. अपराधी अपने राज्य के राज्यपाल को भी दया याचिका भेजी जा सकता है. हालाँकि राज्यपाल को प्राप्त होने वाली याचिकाएं सीधे गृह मंत्रालय को भेज दी जाती है.राज्यपाल, किसी व्यक्ति की मृत्युदंड की सजा को माफ़ नहीं कर सकता है जबकि राष्ट्रपति ऐसा कर सकता है.अपराधी अपनी याचिकाएं अपने वकील या किसी अपने किसी परिवार वालो से भेजवा सकता है

फांसी कौन रोक सकता है?

भारत में फाँसी की सज़ा अति दुर्लभ कैसो में ही दी जाती हैं। संविधान के अनुच्छेद 72 के मुताबिक, राष्ट्रपति (और संविधान के अनुच्छेद 161 के अनुसार राज्यपाल) फांसी की सजा को माफ कर सकते हैं, स्थगित कर सकते हैं, कम कर सकते हैं या उसमें बदलाव कर सकते हैं.

राष्ट्रपति के अधिकार क्या है?

विधायी शक्तियां राष्ट्रपति को संसद सत्र आहूत, सत्रावसान करना एवं लोकसभा को भंग करने की शक्ति भी रखता है। नए राज्यों के निर्माण राज्य की सीमा में परिवर्तन संबंधित विधेयक, धन विधेयक या संचित निधि से व्यय करने वाला विधेयक एवं राज्य हित से जुड़े विधेयक बिना राष्ट्रपति के पूर्व अनुमति के संसद में प्रस्तुत नहीं होते हैं।

एक व्यक्ति कितनी बार राष्ट्रपति बन सकता है?

राष्ट्रपति अधिकतम कितनी भी बार पद पर रह सकते हैं इसकी कोई सीमा तय नहीं है। अब तक केवल पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने ही इस पद पर दो बार अपना कार्यकाल पूरा किया है।

राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति क्या है?

राष्ट्रपति के पास किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति की सजा को क्षमादान, प्रविलंबन, विराम या सजा में छूट देने या निलंबित करने, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी। जब राष्ट्रपति क्षमादान करता है, तो सजा और दोषी की सजा दोनों ही वाक्यों, दंडों और अयोग्यताओं को पूरी तरह से समाप्त कर देती है।