उपभोक्तावाद क्या है ? यह हमारी जीवन शैली को कैसे प्रभावित कर रहा है ? उपभोक्तावाद का अर्थ क्या है? उपभोक्तावादी संस्कृति से आप क्या समझते हैं? हमारी उपभोक्तावादी संस्कृति का कड़वा सच क्या है? उपभोक्ता संस्कृति का हमारे सामाजिक मूल्यों पर क्या प्रभाव पड़ा है? 1 Answers उपभोक्तावाद से अभिप्राय यह है कि जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति उत्पादित की गई वस्तु के उपभोग से आनन्द तथा सुख की प्राप्ति का अनुभव करने
लगता है और व्यक्ति को जीवन में केवल भोग के द्वारा ही संतोष मिलता है। वह सदा भोग-विलास में डूबा रहता है। Gujarat Board GSEB Hindi Textbook Std 9 Solutions Kshitij Chapter 3 उपभोक्तावाद की संस्कृति Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf. Std 9 GSEB Hindi Solutions उपभोक्तावाद की संस्कृति Textbook Questions and Answers
प्रश्न-अभ्यास प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. ख. प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो । रचना और अभिव्यक्ति प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. अब लोगों में दिखावे और हैसियत दिखाने की प्रवृत्ति पनप रही है, लोग एकदूसरे से महँगी और ब्रांडेड वस्तुओं को खरीदकर मात्र दिखावा करते हैं । लोग अपने जीवन के उद्देश्य से भटक गये हैं । दिवाली के पावन पर्व पर एकदूसरे को नीचा दिखाने के लिए महँगे से महँगे पटाखे खरीदकर वातावरण को दूषित करते हैं । यों उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारे रीति-रिवाजों और त्यौहारों को प्रभावित किया है । भाषा-अध्ययन प्रश्न 9. क. ऊपर दिए गए उदाहरण को ध्यान में रखते हुए क्रिया विशेषण से युक्त पाँच वाक्य पाठ में से छाँटकर लिखिए ।
ख. क्रिया विशेषण
ग. नीचे दिए गए वाक्यों में से क्रिया विशेषण और विशेषण छाँटकर लिखिए : GSEB Solutions Class 9 Hindi उपभोक्तावाद की संस्कृति Important Questions and Answers आशय स्पष्ट कीजिए : प्रश्न 1. प्रश्न 2. अन्य लघूत्तरी प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर (अतिरिक्त) प्रश्न 1. प्रश्न 2. हमारी अपनी संस्कृति की नियंत्रण शक्तियाँ क्षीण होती जा रही हैं । समाज के दो वर्गों के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही हैं । दिखावे की यह संस्कृति जैसे जैसे फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी । हमारी सांस्कृतिक अस्मिता धीरे-धीरे अपनी पहचान खो देगी । उपभोक्तावादी संस्कृति के ये सभी दुष्परिणाम हो सकते हैं । प्रश्न
3. व्यक्त्ति चाहता है कि वह अपने आप को अत्याधुनिक कहलाए । इस चक्कर में यह अपने आप को औरों से अलग दिखने के लिए कीमती और ब्रांडेड वस्तुओं को खरीदता है । अधिकाधिक सुख के लिए साधनों का उपभोग करना चाहता है । बहुविज्ञापित वस्तुओं के जाल में फँसकर गुणवत्ताहीन वस्तुओं को खरीदने लगा है । महँगी से महँगी वस्तुओं को खरीद कर समाज में अपनी हैसियत जताना चाहता है । यों उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव में आकर व्यक्ति स्वकेंद्रिय व स्वार्थी हो गया है । अभ्यास निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर नीचे दिए गये विकल्पों में से चुनकर लिखिए । प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. अर्थबोध संबंधी प्रश्नोत्तर धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है । एक नयी जीवन-शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है । उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन-दर्शन-उपभोक्तावाद का दर्शन । उत्पादन बढ़ाने पर जोर है चारों ओर । यह उत्पादन आपके लिए है; आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए है । ‘सुख’ की व्याख्या बदल गई है । उपभोग-भोग ही सुख्ख है । एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में । उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं । प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. विलासिता की सामग्रियों से बाज़ार भरा पड़ा है, जो आपको लुभाने की जी तोड़ कोशिश में निरंतर लगी रहती हैं । दैनिक जीवन में काम आनेवाली वस्तुओं को ही लीजिए । टूथ-पेस्ट चाहिए ? यह दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाता है, यह मुँह की दुर्गंध हटाता है । यह मसूड़ों को मजबूत करता है और यह ‘पूर्ण सुरक्षा’ देता है । वह सब करके जो तीन-चार पेस्ट अलग-अलग करते हैं, किसी पेस्ट का ‘मैजिक’ फ़ार्मूला है । कोई बबूल या नीम के गुणों से भरपूर है, कोई ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत तथा मान्य वनस्पति और खनिज तत्त्वों के मिश्रण से बना है । जो चाहे चुन लीजिए । यदि पेस्ट अच्छा है तो ब्रुश भी अच्छा होना चाहिए । आकार, रंग, बनावट, पहुँच और सफ़ाई की क्षमता में अलग-अलग, एक से बढ़कर एक । मुँह की दुर्गध से बचने के लिए माउथ वाश भी चाहिए । प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. साबुन ही देखिए । एक में हलकी खुशबू है, दूसरे में तेज़ । एक दिनभर आपके शरीर को तरोताजा रखता है, दूसरा पसीना । रोकता है, तीसरा जर्स से आपकी रक्षा करता है । यह लीजिए सिने स्टार्स के सौंदर्य का रहस्य, उनका मनपसंद साबुन । सच्चाई का अर्थ समझना चाहते हैं, यह लीजिए । शरीर को पवित्र रखना चाहते हैं, यह लीजिए शुद्ध गंगाजल में बनी साबुन । चमड़ी को नर्म रखने के लिए यह लीजिए – महँगी है, पर आपके सौंदर्य में निखार ला देगी । संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हज़ार की सौंदर्य सामग्री होना तो मामूली बात है । पेरिस से परफ्यूम मँगाइए, इतना ही और खर्च हो जाएगा । ये प्रतिष्ठा-चिह्न हैं, समाज में आपकी हैसियत जताते हैं । पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं है ।। पहले उनका काम साबुन और तेल से चल जाता था । आफ्टर शेव और कोलोन बाद में आए । अब तो इस सूची में । दर्जन दो दर्जन चीजें और जुड़ गई हैं । प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. छोड़िए इस सामग्री को । वस्तु और परिधान की दुनिया में आइए । जगह-जगह बुटीक खुल गए हैं, नए-नए डिज़ाइन के परिधान बाज़ार में आ गए हैं । ये ट्रेंडी हैं और महँगे भी । पिछल वर्ष के फ़ैशन इस वर्ष ? शर्म की बात है । घड़ी पहले समय दिखाती थी । उससे यदि यही काम लेना हो तो चार-पाँच सौ में मिल जाएगी । हैसियत जताने के लिए आप पचास साठ हज़ार से लाख-डेढ़ लाख की घड़ी भी ले सकते हैं । संगीत की समझा हो या नहीं, कीमती म्यूज़िक सिस्टम ज़रूरी है । कोई बात नहीं यदि आप उसे ठीक तरह चला भी न सकें । कम्प्यूटर काम के लिए तो खरीदे ही जाते हैं, महज़ दिखाये के लिए उन्हें खरीदनेवालों की संख्या भी कम नहीं है । प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. भारत में तो यह स्थिति अभी नहीं आई पर अमरीका और यूरोप के कुछ देशों में आप मरने के पहले ही अपने अंतिम संस्कार और अनंत विश्राम का प्रबंध भी कर सकते हैं – एक कीमत पर । आपकी कब्र के आसपास सदा हरी घास होगी, मनचाहे फूल होंगे । चाहें तो वहाँ फव्वारे होंगे और मंद ध्वनि में निरंतर संगीत भी । कल भारत में भी यह संभव हो सकता है । अमरीका में आज जो हो रहा है, कल वह भारत में भी आ सकता है । प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं । चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों । प्रश्न
1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी ही करें; परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है । कड़वा सच तो यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं, पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं । हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है । हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते जा रहे हैं । प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो अपना है उसे खोकर छद्म आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं । संस्कृति की नियंत्रक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं । प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. अंतत: इस संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा ? यह गंभीर चिंता का विषय है । हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है । जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती । न बहुविज्ञापित शीतल पेयों से । भले ही वे अंतर्राष्ट्रीय हो । पीज़ा और बर्गर कितने ही आधुनिक हों, हैं वे कूड़ा खाद्य । समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है । जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है । जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी । प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. सूचना – गद्यांश को पढ़िए; उत्तरों को समझिए । मनुष्य का हृदय बड़ा ममत्वप्रेमी है । कैसी भी उपयोगी और कितनी ही सुन्दर वस्तु क्यों न हो जब तक मनुष्य उसे पराई समझता है तब तक उससे प्रेम नहीं करता । किन्तु भद्दी से भद्दी और बिल्कुल काम में न आनेवाली वस्तु को भी यदि मनुष्य अपनी समझता है तो उससे प्रेम करता है । पराई वस्तु कितनी मूल्यवान क्यों न हो उससे नष्ट होने पर मनुष्य कुछ भी दुःख अनुभव नहीं करता, इसलिए कि वह वस्तु उसकी नहीं, पराई है । अपनी वस्तु कितनी भही हो, काम में आनेवाली न हो उसके नष्ट होने पर मनुष्य को दुख होता है । कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि मनुष्य पराई चीज से प्रेम करने लगता है । ऐसी दशा में भी जबतक मनुष्य उस वस्तु को अपनी बना कर नहीं छोड़ता अथवा अपने ह्रदय में यह विचार दृढ़ नहीं कर लेता कि यह वस्तु मेरी है तब तक उसे सन्तोष नहीं होता । ममत्व से प्रेम उत्पन्न होता है और प्रेम से ममत्य । प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. उपभोक्तावाद की संस्कृति Summary in Hindiश्यामाचरण दुबे का जन्म मध्यप्रदेश के बुंदेल खण्ड क्षेत्र में हुआ था । इन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की । ये भारत के अग्रणी समाज वैज्ञानिक रहे हैं । मानव और संस्कृति, परंपरा और इतिहास बोध, संस्कृति तथा शिक्षा समाज और भविष्य भारतीय ग्राम, संक्रमण की पीड़ा, विकास का समाजशास्त्र, समय और संस्कृति हिन्दी में उनकी महत्त्वपूर्ण व प्रमुख पुस्तकें हैं । डॉ. दुबे ने विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन कार्य किया तथा अनेक संस्थानों में प्रमुख पदों पर रहे । जीवन, समाज और संस्कृति के जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनके विश्लेषण और स्थापनाएँ उल्लेखनीय हैं । भारत की जनजातियों और ग्रामीण जीवन पर केन्द्रित उनके लेखों ने बृहत्तर समुदाय का ध्यान आकर्षित किया है । वे जटिल विचारों को सरल सहज भाषा में प्रस्तुत करते हैं । ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ बाजार की गिरफ्त में आ रहे समाज की वास्तविकता का चित्रण किया गया है । लेखक का मानना है कि आज का मनुष्य वस्तुओं की गुणवत्ता पर ध्यान न देकर विज्ञापन की चमक-दमक के कारण अनावश्यक वस्तुओं को खरीद रहा है । सम्पन्न व अमीर वर्ग द्वारा प्रदर्शनपूर्ण जीवनशैली अपनाई जा रही है । सामान्य जन भी उन्हीं की तरह का अनुकरण करना चाहते हैं । यह वास्तव में भारतीय सभ्यता के लिए चिंताजनक बात है । लेखक ने इस बात की ओर ध्यान दिलाना ब्राहा है कि जैसे-जैसे यह दिखावे की संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति और विषमता भी बढ़ेगी । पाठ का सार : नयी जीवन शैली और उपभोक्तावाद : धीरे-धीरे आप सभी कुछ बदल रहा है । भारतीय समाज में नवीन जीवनशैली ने अपना वर्चस्व स्थापित करता जा रहा है ।। उसी के साथ एक नया जीवन-दर्शन उपभोक्तावाद का दर्शन समाज में जोर पकड़ता जा रहा है । चारों तरफ वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाने पर बल दिया जा रहा है । यह उत्पादन हमारे लिए ही है । हमारे उपभोग के लिए हैं । लोगों में सुख की परिभाषा बदल गई है । अब भोग ही सुख है । इस माहौल के कारण एक नई स्थिति ने जन्म लिया है, जो हमारे चरित्र को धीरे-धीरे बदल रही है और हम पूर्ण रूप से उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं । विलासितापूर्ण सामग्री से भरा बाजार : आज का बाजार विलासितापूर्ण सामग्रियों से भरा पड़ा है । विज्ञापनों के जरिए हमें लुभाने की कोशिश की जाती है । बाजार में अनेक प्रकार के टूथपेस्ट हैं, सबका मैजिक फार्मूला है, कोई बबूल या नीम के गुणों से भरपूर है, कोई वनस्पति और खनिज तत्त्वों के मिश्रण से बना है । जो चाहे चुन लीजिए । पेस्ट के साथ ब्रश भी अच्छी क्वालिटी का होना चाहिए । एक से बढ़कर एक ब्रश आपको बाजार में मिल जाएँगे । मुँह की दुर्गध से बचने के लिए माउथवॉश भी चाहिए । इसकी भी बड़ी लम्बी सूची है । हम बहुविज्ञापित और कीमती ब्रांड ही खरीदना चाहते हैं । जिससे हमारा बिल भी ज्यादा होगा। सौन्दर्य सामग्रियों की भीड़ : दिन – प्रतिदिन सौन्दर्य-प्रसाधनों में वृद्धि होती जा रही है । कोई साबुन हल्की सुगंधवाला है, तो कोई पसीना रोकता है, कोई शरीर को ताजगीभरा रखता है, कोई जर्स से बचाता है, यों बाजार में अनेक प्रकार के साबुन मिल जाएँगे । सँभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार की सौन्दर्य सामग्री होना आम बात है । विदेश की वस्तुओं को मंगाना हमारी हैसियत का प्रतीक बन गई है । सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग अब पुरुषों द्वारा भी खूब किया जाने लगा है । तेल-साबुन से काम चलानेवाले पुरुषों की सौन्दर्य सामग्री में इजाफा हुआ है । वे भी अब आफ्टर शेव लोशन और कोलोन लगाने लगे हैं । फैशन और हैसियत दिखाने के लिए खरीददारी : आजकल बाजारों में जगह-जगह बुटीक खुल गये हैं । नये, ट्रेंडी व मँहँगे परिधान आ गये हैं । पहले के कपड़ों का फैशन अब नहीं रहा । महँगे से महँगे परिधान लोग अपनी हैसियत के अनुसार खरीदने लगे हैं । समय देखने के लिए घड़ी चंद रुपयों में मिल जाती है, परन्तु अपनी हैसियत और फैशनपरस्ती दिखाने के लिए पचास-साठ हजार से लेकर एक डेढ़ लाख रुपयों की घड़ी खरीदते हैं । जब कि काम तो वह भी वही करती है जो कम दामों की घड़ी करती है । कीमती म्यूजिक सिस्टम और कम्प्यूटर लोग दिखाये के लिए खरीदते हैं । पाँच सितारा होटल में विवाह करने का ट्रेंड शुरू हो गया है । इलाज व पढ़ाई के लिए भी लोग महंगे से महेंगे अस्पताल व स्कूल का चयन करते हैं । ये सब कुछ मनुष्य अपने आपको अत्याधुनिक बताने के लिए करता है । उपभोक्तावाद का सामान्य लोगों पर प्रभाव : कई बार प्रतिष्ठा के अनेक रूप अशोभनीय होते हैं पर उपभोक्तावादी लोग इसकी तनिक भी परवाह नहीं करते । यह सब समाज का एक विशिष्ट वर्ग अपना रहा है और सामान्य जन उसे अपनाने के बारे में सोचता है । समाज का एक वर्ग इसे ‘राइट च्याइरा बेबी’ मान बैठा है। उपभोक्तावादी संस्कृति का कुप्रभाव : उपभोक्तावाद के प्रसार के मूल में सामंती संस्कृति है । उपभोक्तावाद के फैलाव से हमारी परंपराओं का अवमूल्यन और आस्थाओं का बहुत नुकसान हुआ है । हम बौद्धिक दासता का अंधानुकरण कर पश्चिम के सांस्कृतिक का उपनिवेश बन रहे हैं । हम इस नई संस्कृति और आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते जा रहे हैं । हमारी अपनी परम्परा क्षीण होती जा रही है और हम नकली आधुनिकता के शिकार हो रहे हैं । विज्ञापनों के कारण हमारी मानसिकता बदल गई हैं । उपभोक्तावाद का प्रसार वास्तव में चिंता का विषय है । इससे संसाधनों का अपव्यय हो रहा है । इससे समाज के वर्गों की दूरियाँ बढ़ रही हैं । सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही हैं । हमारी सांस्कृतिक अस्मिता धीरे-धीरे अपनी पहचान ‘खोती जा रही है । उपभोक्तावाद : एक चुनौती : दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, इससे सामाजिक अशांति बढ़ेगी । मनुष्य का नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं । मर्यादाएँ टूट रही हैं । व्यक्ति स्वकेंद्रित बनता जा रहा है । भोग की आकांक्षाएँ आसमान छू रही हैं । यह हम सभी के लिए एक चुनौती है कि मनुष्य की यह दौड़ किस बिन्दु पर रुकेगी । उपभोक्ता संस्कृति ने हमारी सामाजिक नींव को हिला दिया है । भविष्य में यह हम सब के लिए एक चुनौती है। शब्दार्थ व टिप्पण :
उपभोक्ता संस्कृति का हमारे सामाजिक मूल्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?(क) उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव अत्यंत सूक्ष्म है। इसके प्रभाव में आकर हमारा चरित्र बदलता जा रहा है। हम उत्पादों का उपभोग करते-करते उनके गुलाम होते जा रहे हैं। यहाँ तक कि हम जीवन का लक्ष्य ही उपभोग करना मान बैठे हैं।
उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा गया है?गाँधी जी चाहते थे कि हम भारतीय अपनी बुनियाद पर कायम रहें, अर्थात् अपनी संस्कृति को न त्यागें। परंतु आज उपभोक्तावादी संस्कृति के नाम पर हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी मिटाते जा रहे हैं। इसलिए उन्होंने उपभोक्तावादी संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती कहा है।
लोगों की दृष्टि में सुख क्या होता है?Answer: लेखक के अनुसार उपभोग का भोग करना ही सुख है। अर्थात् जीवन को सुखी बनाने वाले उत्पाद का ज़रूरत के अनुसार भोग करना ही जीवन का सुख है।
उपभोक्तावाद की संस्कृति से क्या नुकसान है?उपभोक्तावादी संस्कृति से समाज में वर्गों के बीच दूरी बढ़ रही है। सामाजिक सरोकार कम होते जा रहे हैं। इससे व्यक्ति केंद्रिकता बढ़ रही है। नैतिक मापदंड तथा मर्यादाएँ कमज़ोर पड़ती जा रही हैं।
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