भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए Show सखि, वसन्त आया / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"Kavita Kosh से सखि वसन्त आया । लता-मुकुल-हार-गंध-भार भर, सखि वसंत आया...वसंत ऋतु नवजीवन की पुलक जगाती है। वसंत पंचमी के साथ प्रकृति का रंग सब तरफ बिखर गया है। प्रकृति का बौरायापन देखना हो, तो वसंत में रम जाना होगा। हिन्दी के प्रख्यात कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की...Newswrapहिन्दुस्तान टीम,रांचीMon, 22 Jan 2018 01:35 AM वसंत ऋतु नवजीवन की पुलक जगाती है। वसंत पंचमी के साथ प्रकृति का रंग सब तरफ बिखर गया है। प्रकृति का बौरायापन देखना हो, तो वसंत में रम जाना होगा। हिन्दी के प्रख्यात कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रसिद्ध कविता है- सखि वसंत आया, भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया...। यही वसंत का आकर्षण है जो मनुष्य ही नहीं, संपूर्ण जीव जगत को अपने मोहपाश में बांध लेता है। पीली सरसों, नीली अलसी और सुर्ख पलाश के फूलने का मौसम भी वसंत ही है।धरती ताप, वर्षा और शीत को ग्रहण करने बाद अब वसंत में रंगी है। प्रकृतिप्रेमियों की मानें तो वसंत के अंतर्निहित आनंद की अनुभूति के लिए दृष्टिसंपन्न होना होगा। तब यह भेद खुलेगा कि वर्षभर छिपी रहनेवाली कोयल वसंत के आगमन पर आम्र मंजरियों की गंध पाकर कूकने क्यों लगती है। उसकी कूक वसंत के आगमन की दस्तक है। भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि ऋतुओं में मैं वसंत हूं। संस्कृत और हिन्दी साहित्य में वसंत पर भरपूर लिखा गया। भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल के साहित्य में भी वसंत छाया है। अंग्रेजी साहित्य भी वसंत के आकर्षण से अछूता नहीं। विलियम वर्ड्सवर्थ, पीबी शेली ने वसंत की निराली छटा को समेटने को कोशिश की। पीबी शेली ने लिखा है- इफ विंटर कम्स, कैन स्प्रिंग बी फार बिहाइंड? (अगर कष्टकर सर्दी दस्तक देती है, तो वसंत के आने में भला क्योंकर देर होगी!)। वसंत आशाएं जगाता है। यही आशा वसंत का सौंदर्य है। यह नवजीवन के उत्साह का संचार करता है। आज हम प्रकृति को गमलों में बसाने की जद्दोजहद कर रहे हैं। ऐसे नहीं होगा प्रकृति और पर्यावरण का संरक्षण। प्रकृति की सांसों से अपनी सांसों को जोड़ना होगा। वसंत का अग्रदूत बनना होगा। युवा रंगे वसंत के रंग में रांची के विभिन्न हॉस्टलों व लॉज में सरस्वती पूजा को लेकर विशेष आयोजन किए गए हैं। रांची कॉलेज के हॉस्टल नंबर-1, रांची विश्वविद्यालय के पीजी हॉस्टल नंबर-2, यूजीसी हॉस्टल नंबर-3 और बरियातू स्थित पीजी गर्ल्स हॉस्टल में पूजा सुबह 9 बजे से शुरू हो जाएगी। इसके अलावा वीमेंस कॉलेज स्थित हॉस्टल में सरस्वती पूजा होगी। छात्राओं ने वसंत के मद्देनजर पीले रंग का ड्रेस कोड रखा है। पूजा के बाद प्रसाद वितरण की भी व्यवस्था की गई है। सखि, वसंत आया। भरा हर्ष वन के मन। नवोत्कर्ष छाया। सखि, वसंत आया। किसलय-वसना नव-वय-लतिका। मिली मधुर प्रिय उर तरु-पतिका...। संयोगवश हिंदी साहित्य में वसंत को समर्पित सर्वश्रेष्ठ कविताओं में से एक इस कालजयी कविता के रचनाकार ‘निराला’ नाम से मशहूर सूर्यकांत त्रिपाठी का जन्म वसंत पंचमी के दिन ही1896 में बंगाल के मेदनीपुर जिले में हुआ था। वसंत को समर्पित यह कविता गीतिका नामक काव्य संग्रह में संकलित है। इसके अलावा निराला की ‘जूही की कली’, ‘संध्या सुंदरी’ जैसी रचनाओं से भी उनके प्रकृति से बेहद जुड़ाव का पता चलता है। माता-पिता से उन्हें ‘सूर्य कुमार’ नाम मिला था, लेकिन काव्य क्षेत्र में पदार्पण के बाद उन्होंने अपना नाम बदल कर ‘सूर्यकांत’ कर लिया। बाद में अपने निराले स्वभाव के चलते ही ‘निराला’ उपनाम अपने नाम के साथ जोड़ लिया। 22 वर्ष की अल्पायु में विधुर होने के बाद जीवन का वसंत भी उनके लिए पत्नी-वियोग का पतझड़ बन गया। हालांकि पत्नी की प्रेरणा से निराला ने बंगाल से उत्तर प्रदेश अपने गांव गढ़ाकोला (जनपद उन्नाव) लौटकर हिंदी साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। उनकी पहली कविता ‘जूही की कली’ (1916) तत्कालीन प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशन योग्य न मानकर संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लौटा दी थी। आज उसकी गिनती छायावाद की श्रेष्ठतम कविताओं में होती है। 1923 में निराला ने ‘मतवाला’ नामक पत्रिका का संपादन आरंभ किया, जो हिंदी का पहला व्यंग्यात्मक पत्र था। निराला कभी उत्तराखंड नहीं आए, लेकिन रामगढ़ में दीपशिखा समेत कई कालजयी रचनाएं रचने वाली सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा अपने संस्मरण ‘पथ के साथी’ में लिखती हैं ‘उनके अस्त-व्यस्त जीवन को व्यवस्थित करने के असफल प्रयासों का स्मरण कर मुझे आज भी हंसी आ जाती है। एक बार अपनी निर्बंध उदारता की तीव्र आलोचना सुनने के बाद उन्होंने व्यवस्थित रहने का वचन दिया। संयोग से तभी उन्हें कहीं से 300 रुपए मिल गए। अगले दिन पहुंचे। बोले-50 रुपये चाहिए...किसी विद्यार्थी का परीक्षा-शुल्क जमा करना है, अन्यथा वह परीक्षा में नहीं बैठ सकेगा। संध्या होते-होते किसी साहित्यिक मित्र को 60 रुपये देने की जरूरत पड़ गई। दूसरे दिन लखनऊ के किसी तांगे वाले की मां को 40 रुपये मनीआर्डर करना पड़ा। दोपहर को किसी दिवंगत मित्र की भतीजी के विवाह के लिए 100 रुपये देना अनिवार्य हो गया। इस तरह तीसरे दिन उनकी जमा धनराशि समाप्त हो गई और तब उनके व्यवस्थापक के नाते यह दान-खाता मेरे हिस्से आ पड़ा। मैंने समझ लिया कि यदि ऐसे औघड़दानी को न रोका जाए तो वह मुझे भी अपनी स्थिति में पहुंचाकर दम लेंगे।‘ फक्कड़ होते हुए भी वह ‘अतिथि देवो भव’ मंत्र को कभी नहीं भूले। महादेवी लिखती हैं ‘उनके अतिथि यहां भोजन करने आ जावें, सुनकर उनकी दृष्टि में बालकों जैसा विस्मय छलक आता है। जो अपना घर समझ कर आए हैं, उनसे यह कैसे कहा जाए कि उन्हें भोजन के लिए दूसरे घर जाना होगा। भोजन बनाने से लेकर जूठे बर्तन मांजने तक का काम भी वह अपने अतिथि देवता के लिए सहर्ष करते।’ महादेवी वर्मा सृजन पीठ के शोध अधिकारी मोहन सिंह रावत बताते हैं कि अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए गांधी-नेहरू जैसी हस्तियों को फटकार देना निराला का स्वभाव था। आकर्षक और ओजपूर्ण व्यक्तित्व के कारण उन्हें आलोचक ‘महाप्राण’ कहते थे। 1935 में पुत्री के निधन के बाद वह विक्षिप्त-सी अवस्था में कभी लखनऊ, कभी सीतापुर, कभी काशी तो कभी प्रयाग का चक्कर लगाते रहे। 1950 से वह दारागंज, प्रयाग में स्थायी रूप से रहने लगे। वहीं 15 अक्तूबर 1961 को उनका देहावसान हुआ। अवरोधों और दैवीय विपत्तियों के बावजूद निराला कभी साहित्य-रचना से उदासीन नहीं हुए। |