बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा क्या है? - bihaar paathyacharya kee rooparekha kya hai?

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बिहार डीएलएड इकाई 8

बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा  – 2008

निर्माण की प्रक्रिया – राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 पर विभिन्न दौर की परिचर्या के उपरांत यह निर्णय लिया गया कि इस बात की संभावना तलाशी जाय कि बिहार राज्य भी अपनी पाठ्यचर्या की रूपरेखा तैयार कर सकें। मानव संसाधन एवं विकास विभाग के सचिव ने इस कार्य को एन.सी. ई.आर.टी. को सौंपा। परिषद् में आंतरिक विचार-विमर्श के उपरांत इस विषय में एक पाठ्यचर्या समिति का गठन प्रो. विनय कुमार कंठ की अध्यक्षता में करने का निर्णय लिया गया। इस कार्य को आरंभ करने के लिए एस.सी.ई. आर.टी. में एक कार्यशाला 28 तथा 29 मार्च 2006 को आयोजित की गई, लेकिन जुलाई 2006 के बाद ही काम रफ्तार पकड़ पाया। कार्यशालाओं की एक श्रृंखला एस.सी.ई.आर.टी. में आयोजित की गई जिसमें विशेषज्ञ, विद्यालय, शिक्षक, सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता और छात्रों तथा अभिभावकों के साथ संपर्क व विचारों के आदान-प्रदान से विचारों में स्पष्टता आई । पाठ्यचर्या समिति के सदस्यों ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा तथा एन.सी.ई.आर.टी. के फोकस समूहों के दृष्टिपत्रों का अध्ययन किया और कार्यशालाओं में भी उनका उपयोग किया गया । जब भी संभव हुआ छोटे-छोटे प्रतिवेदन तैयार किए गए. व उसका उपयोग रिपोर्ट को तैयार करने में किया गया ।

बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा की प्रारूप का अंग्रेजी संस्करण 3 दिसम्बर 2006 को पाठ्यचर्या समिति की ओर से परिषद् को सौंपा गया। इसके प्रकाशन में कुछ वक्त लगा और प्रकाशित दस्तावेज का 10 जून 2007 में लोकार्पण संपन्न हुआ। हिन्दी अनुवाद एवं प्रकाशन में कुछ और विलम्ब हुआ।

अगली महत्त्वपूर्ण बात थी प्रारूप प्रशिक्षकों के बीच चर्चा। इसके लिए जिला स्तर पर कार्यशालाएँ आयोजित की गई जिसमें इस प्रारूप के अतिरिक्त प्रस्ताविक पाठ्यक्रम और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के कतिपय अंशों पर चर्चा हुई। इन कार्यशालाओं के द्वारा एक ओर तो शिक्षकों को इन दस्तावेजों की जानकारी मिली और दूसरी ओर उन्होंने अपनी राय दी जिन्हें रिकॉर्ड किया गया। 

12 से 17 मार्च 2008 तक एस.सी.ई.आर.टी. में पाठ्यचर्या को अन्तिम रूप देने के लिए एक पाँच दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसमें सौभाग्य से बाहर के कई विशेषज्ञ भी उपस्थित रहे और अपनी-अपनी राय दी। अन्तिम कार्यशाला एस.सी.ई.आर.टी. में 14 एवं 15 मई को बुलाई गई जिसके उपरान्त बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा का यह संशोधित रूप तैयार हुआ है। समिति के सामने पहला प्रश्न यह उठा कि आखिर राज्यस्तरीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा क्यों तैयार की जाए, विशेषतया तब जबकि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा को एन.सी.ई.आर.टी. ने सारे देश में विस्तृत संपर्क व परिचर्या के बाद तैयार किया है। बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा के प्राक्कथन और फिर पहले अध्याय में इसके औचित्य पर प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः सैद्धांतिक रूप में कोठारी से कृष्ण कुमार तक पाठ्यचर्या के निर्माण में विकेंद्रीकृत नजरिए की सिफारिश होती रही है, जो अधिकांश संवेदनशील शिक्षाविदों द्वारा अनुमोदित होता रहा है। साथ ही, इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि शिक्षा के संदर्भ में बिहार की स्थिति राष्ट्रीय सामान्य स्थिति की तुलना में विशिष्ट और अलग है। संदर्भगत आवश्यकता को देखते हुए, राज्य के लिए एक अलग पाठ्यचर्या की रूपरेखा की आवश्यकता महसूस की गई। आर्थिक पिछड़ेपन या मानव विकास सूचकांक में बिहार निम्नतम पायदान पर है, यहाँ तक कि शहरीकरण का प्रतिशत भी राष्ट्रीय औसत 27.78 प्रतिशत की तुलना में केवल 10.47 प्रतिशत है। बिहार में जाति आधारित सामाजिक स्तरीकरण की एक दृढ परंपरा है। शैक्षणिक अधः संरचना का स्तर सामान्यतः निम्न रहा है। इन सभी सीमाओं के बावजूद राज्य की अपनी एक शक्ति हैं और यहाँ के छात्र अन्य जगहों पर भी प्रतिभा प्रदर्शित कर रहे हैं।

मार्गदर्शक सिद्धांत – बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा शिक्षा की एक ऐसी प्रणाली विकसित करने को प्रतिबद्ध है जो समानता, सदभाव और उत्कृष्टता को बढ़ावा दे सके। बिहार पाठ्यचर्या रुपरेखा के मार्गदर्शक सिद्धांत इसके पहले अध्याय में दिए गए हैं जो निम्नलिखित हैं

•शिक्षा को विद्यालय के बाहर प्रकृति, समाज और जीवन से जोड़ना। 

•सकारात्मक लेकिन आलोचनात्मक नजरिया विकसित करने के लिए पाठ्यपुस्तकों तथा शिक्षण-अधिगम रणनीति का पुनर्निर्माण।

•सीखने की प्रक्रिया को मजबूत करने के लिए कक्षाओं व परीक्षाओं को नया रूप देना ।

•बच्चों का बहुआयामी विकास तथा उनके व्यक्तिगत विशिष्ट गुणों को उभारने में मदद करना ।

•बच्चों की देखभाल इस प्रकार से करना कि वे जागरूक, सक्षम और संवेदनशील नागरिक बन सकें जो अपने समाजिक सरोकारों से जुड़े हों।

पाठ्यचर्या की रूपरेखा का स्वरूप एवं अंतर्वस्तु

बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा के नौ अध्याय हैं, जो पाठ्यचर्या पर एन. सी.ई.आर.टी. दस्तावेज की तुलना में काफी अधिक है। इसका कारण है कि बच्चे, शिक्षक, पाठ्यपुस्तक, मूल्यांकन तथा सबसे महत्वपूर्ण, ग्रामीण शिक्षा पर अलग अध्याय दिए गए हैं। प्रस्तुत संशोधित संस्करण में आकलन एवं मूल्यांकन के अध्याय को पाठ्यचर्या क्रियाशीलन के अध्याय के साथ जोड़ा गया है इसलिए अध्यायों की कुल संख्या आठ हो गई है। अध्यायों के क्रम में भी थोड़ा अंतर लाया गया है।

बच्चों के अध्याय के अंदर शिशु शिक्षा एवं किशोर शिक्षा के साथ-साथ वंचित बच्चों के मुद्दे को भी उठाया गया है, जो राज्य में बच्चों की आबादी के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें सर्वोत्तम शिक्षा कैसे दी जा सके यह राज्य स्तरीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा की सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। शिक्षकों से संबंधित मुद्दे, उनकी बदलती भूमिका, उनके प्रशिक्षण की आवश्यकता तथा अंततः उसके किए संस्थागत व्यवस्था की चर्चा दस्तावेज के तीसरे अध्याय में की गई है।

चौथा अध्याय पाठ्यचर्या के मुद्दे, इसके क्षेत्र व रणनीतियों से जुड़ा है। न केवल यह भाग सबसे लंबा है बल्कि सबसे महत्त्वपूर्ण भी। एन.सी.एफ, 2005 की तरह इस अध्याय में पाठ्यचर्या में विषयों के चुनाव की समस्या को स्वीकारा गया है। साथ ही यहाँ स्तर आधारित चुनाव तथा विषय की परिभाषा व पढ़ाने-सीखाने की शैलियों की चर्चा है। यहाँ पाठ्यक्रम के चार परंपरागत: हिस्से, भाषा, गणित, विज्ञान व सामाजिक विज्ञान के अलावा पर्यावरण शिक्षा को विशिष्ट क्षेत्र के रूप में लिया गया है, हालांकि इसकी प्रकृति अन्य चार की तुलना में अलग है। बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा बहुत हद तक राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा से सहमत है कि परंपरागत विषयों के अध्ययन की रणनीति में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है। पाठ्यक्रम में पर्यावरण शिक्षा एक व्यापक बदलाव ला सकता है, जो इसके खुले आयाम के कारण संभव है। महज पाठ्यपुस्तकों से कक्षा में कैद पर्यावरण की पढ़ाई अक्सर परीक्षा की तैयारी के सिवाय कुछ नहीं देती। उसकी सार्थकता संदिग्ध है और शायद हो 1977 के तिबलिसी सम्मेलन की मूल भावनाओं को पूरा कर पाए। इन मूल विषयों के अतिरिक्त पाठ्चर्या में अब उन क्षेत्रों को शामिल करते हैं, जिन्हें कल तक सह-पाठ्यचर्या क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। जैसे कला, स्वास्थ्य, शारीरिक शिक्षा, योग, शिक्षा में काम तथा अंततः मूल्य आधारित शिक्षा एन. सी.ई.आर.टी. के फोकस मूह ने इस विषय में काफी रोचक व महत्त्वपूर्ण सलाह। दी है तथा विचार पाठ्यचर्या की रूपरेखा में इस अन्तर्दृष्टि का भरपूर उपयोग सामयिक बदलावों के साथ किया गया है।

ग्रामीण शिक्षा पर अध्याय बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा का सबसे विशिष्ट व महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसका कारण है कि बिहार की जनसंख्या में ग्रामीण बच्चों की संख्या नब्बे फीसदी के आस-पास है। एक ओर अगर यह अध्याय गाँव को समझने तथा ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में शिक्षा को देखने की बात करता है, तो दूसरी ओर यह भारत में लागू किए गए शिक्षा के सबसे प्रमुख प्रयोग बुनियादी शिक्षा की ओर भी देखता है। इस बात की चर्चा करना यहाँ समीचीन होगा कि बुनियादी शिक्षा की अवधारणा सबसे पहले महात्मा गाँधी द्वारा उत्तर बिहार के चंपारण जिले में लागू की गई और बाद में बुनियादी विद्यालय की एक श्रृंखला सारे राज्य में खुली। दुर्भाग्यवश हमलोगों ने आज इस अहम प्रयोग को भुला दिया है। बुनियादी शिक्षा का प्रयोग ग्रामीण बच्चों में समानता एवं सौहार्द्र बढ़ाने का महत्त्वपूर्ण कदम था और आज भी ग्रामीण शिक्षा की रणनीति बनाने में इस प्रयोग का अनुभव काफी लाभप्रद होगा ।

छठा अध्याय पाठ्यचर्या क्रियाशीलन पर केन्द्रित है। आरंभिक भाग इस बात की संभावना तलाशता है कि पाठ्यपुस्तकों व शिक्षण सामग्री का भरपूर उपयोग कैसे किया जाए। शिक्षकों के परे कक्षा में पाठ्यपुस्तकों का अनिवार्यतः प्रवेश तथा पढ़ाने-सिखाने की प्रक्रिया में निश्चित योगदान बनता है इसलिए सीखने की प्रक्रिया को बगैर संकुचित किए इस साधन का पूरा इस्तेमाल किया जाना चाहिए। आकलन एवं मूल्यांकन को भी इसी अध्याय में शामिल कर लिया गया है, हालांकि शिक्षा में इस विषय पर आज भी आवश्यकता से अधिक बल दिया जाता है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा की तरह यहाँ भी कुछ क्षेत्रों के मूल्यांकन में परीक्षा प्रणाली की सीमाएँ स्वीकार की गई हैं। साथ ही, पाठ्यचर्या पर प्रकाशित अन्य रिपोटों की तरह मूल्यांकन को पढ़ाने-सिखाने की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण अंग के रूप में मान्यता प्रदान किया गया है।

सातवाँ अध्याय इस दस्तावेज की एक अपेक्षाकृत नई विशिष्टता है। इस आधार पर कि पाठ्यचर्या अपना वास्तविक रूप हर विद्यालय में ग्रहण करती है, स्कूल स्तर पर पाठ्यचर्या के निर्माण की संभावना की तालाश यहाँ की गई है। इस बात की संभावना पर विशेष रूप से बल दिया गया है कि शैक्षणिक स्थलों व स्कूल अंदर सीखने के मौकों को कैसे गुणित किया जाए ताकि सीखने के उद्देश्य को पूरा किया जा सके। इसमें बच्चों की भागीदारी तथा उन्हें समुदाय से जोड़ने पर भी विशेष बल दिया गया है

व्यवस्थागत सुधारों व कार्यात्मक मुद्दों पर अध्याय भी काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि बिना एक सक्षम व्यवस्था तथा स्पष्ट कार्यात्मक रणनीति के पाठ्यचर्या पुनर्निर्धारण का सारा प्रयास आरंभ ही नहीं हो पाएगा। कोठारी आयोग ने समान स्कूल प्रणाली का सुझाव दिया था तथा इसे बाद की शिक्षा नीतियों में स्वीकार किया गया। हालांकि आज तक किसी भी राज्य में इसे लागू नहीं किया गया है। राज्य में शिक्षा पर बनी एक विशेषज्ञ समिति ने इस बहस को पुनः चर्चा में लाया और इसके लागू करने की सिफारिश की है। हाल ही में बिहार सरकार ने इन मुद्दों को कार्यात्मक बनाने के लिए एक आयोग का गठन किया है, और सरकार ने सिद्धांत रूप में इसे स्वीकार कर लिया है। पंचायती राज संस्थाओं के लागू होने तथा विद्यालय प्रणाली के पंचायती राज संस्थाओं को आंशिक हस्तांतरण ने एक नई स्थिति को जन्म दिया है जो बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा के उद्देश्यों की प्राप्ति में मदद करेगा; राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा या बिहार पाठ्यक्रम की रूपरेखा को वास्तविकता में बदलने के लिए अनेक संस्थाओं के निर्माण की आवश्यकता है। यदि व्यावसायिक शिक्षा पर विशिष्ट ध्यान देने की आवश्यकता है तो इसका कारण है कि नई तकनीकों ने संभावनाओं के कई द्वार खाले हैं व उनका लाभ उठाने की आवश्यकता है. कुछ अन्य कार्यात्मक मुद्दे हैं, जिनका परीक्षण इस अध्याय में किया गया है अन्ततः यह पुनः स्पष्ट कर देना जरूरी है कि यह एक निर्देशक रूपरेखा मात्र है जिसे विभिन्न संदर्भों एवं विद्यालयों में अंतिम रूप दिया जाना है हालांकि इस दस्तावेज का निर्माण कई चक्र के विमर्श के उपरांत किया गया है लेकिन विचार-विमर्श का दायरा अपेक्षित रूप से बड़ा नहीं हो पाया। लंबे व विविध अनुभवों से लैस शिक्षकों की भूमिका पाठ्यचर्या को अंतिम व्यावहारिक रूप देने में काफी कारगर होगी तथा पाठ्यचर्या समिति इस बात को लेकर काफी आशावान भी है ।


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बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2008 के अनुसार क्या है?

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 एवं बिहार पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2008 में बच्चों के घर की बोली या उनकी मातृभाषा को उनके सीखने का सबसे मजबूत आधार माना गया है। बच्चों की शिक्षा उनकी मातृभाषा के माध्यम से दी जाए, यह शिक्षाशास्त्र का मान्य सिद्धांत है ।

बिहार के लिए प्रथम पाठ्यचर्या क्यों है स्पष्ट करें?

बिहार पाठ्यचर्या में एक व्यावाहरिक शिक्षाशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाया गया है। इसमें शिक्षकों या समुदाय के बीच सामान्यतः मौजूद और यहाँ तक कि पारंपरिक, विचारों को भी समायोजित किया गया है। लेकिन इसका यह अर्थ कत्तई नहीं है कि यथास्थितिवादी विचारों को इसमें स्वीकारा गया है ।