ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या कीजिए - eeshvar ke svaroop kee vyaakhya keejie

अकारण कुछ भी नहीं होता है। शरीर में जो श्वांस भी चल रहा है यह भी अपने आप नहीं चल रहा है इसके चलने की प्रक्रिया और यह क्यों चल रहा है?

डॉ. वरुण वीर

ॐ तत्सत् ॐ ही सत्य है। आज विश्व में अनेक मत हैं लेकिन 10 मत ऐसे हैं जो कहीं ना कहीं जीवित हैं। हिंदू, ईसाई, मुसलमान, सिख, यहूदी, पारसी, बौद्ध, जैन, ताओ, कन्फ्यूशंस, बाहाई आदि यह मत प्रमुख हैं। जिनमें कुछ ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं तो कुछ ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं। जो ईश्वर को स्वीकार करते है उनमें भी ईश्वर को लेकर अलग-अलग धारणाएं हैं। यदि केवल हिंदू मत को ही लिया जाए तो उसमें भी ईश्वर को मानने की एक नहीं बल्कि अलग-अलग धारणाएं हैं। लेकिन यदि हिंदू धर्म का मूल ग्रंथ वेद को पढ़ा तथा समझा जाए तो ईश्वर एक है। जो कि सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, अजर, अमर, अभय तथा सच्चिदानंद स्वरूप नित्य अनादि है। यदि बुद्धि पूर्वक विचार किया जाए तो हम पाएंगे कि इस सृष्टि का निर्माण अपने आप नहीं हो सकता है। प्रत्येक पदार्थ, वस्तु जो भी क्रियाकलाप इस सृष्टि में हो रहा है उसका कुछ ना कुछ कारण जरूर है। अकारण कुछ भी नहीं होता है। शरीर में जो श्वांस भी चल रहा है यह भी अपने आप नहीं चल रहा है इसके चलने की प्रक्रिया और यह क्यों चल रहा है? इन सभी के पीछे सृष्टि का विज्ञान और उस सृष्टि को बनाने वाले परमात्मा की शक्ति कार्य कर रही है। वेदों में त्रैतवाद का सिद्धांत है जो परमात्मा, आत्मा व प्रकृति की अपनी अपनी सत्ता को स्वीकार करता है। परमात्मा, आत्मा तथा मूल प्रकृति अनादि है। परमात्मा ने प्रकृति को लेकर इस जगत को आत्मा के आनंद कल्याण के लिए रचा है। इसलिए ईश्वर का सदैव स्मरण करना तथा उसके सर्वश्रेष्ठ नाम ॐ का जप अर्थ सहित करना चाहिए। बिना अर्थ के जप करना तोता रट हो जाता है जिसका कुछ लाभ नहीं होता है। ईश्वर का मुख्य नाम ॐ है जो कि तीन अक्षर अ, उ, म् से मिलकर बना है। ‘अ’ का अर्थ धन संपदा (अनुपम= ईश्वर) ‘उ’ का अर्थ आत्म संपदा ( उन्नतिशील= जीवात्मा) ‘म्’ का अर्थ माया संपदा ( माया= प्रकृति) है। इस्लाम तथा ईसाई मत में भी ॐ का ही उच्चारण अंत में आमीन कहकर किया जाता है। अंग्रेजी में ईश्वर को जीओडी (गॉड) कहा जाता है। जिसमें ‘जी’ का अर्थ है जेनेरटर (उत्पादक), ‘ओ’ से आॅपरेटर (गति देने वाला) तथा ‘डी’ से डिस्ट्रॉइअर (संहारकर्ता) है।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म, व्याहरन् मामनुस्मरन्। य: प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमांगतिम् ॥ गीता
ॐ ब्रह्माण्ड की गति का साधक है। ओंकार ध्वनि पर ध्यान लगाता हुआ जो कोई भी इस शरीर को त्यागता है वह परम गति को प्राप्त होता है। ऐसे अनेक प्रमाण हैं जिन से सिद्ध होता है कि जीवन के आदि और अंत में ॐ के ध्यान का विधान है। योगिराज श्री कृष्ण ने भी ॐ को सर्वश्रेष्ठ कहा है। भागवत के अंतिम अध्याय में ॐ को ही परम मंत्र माना है तथा योग दर्शन के रचयिता महर्षि पतञ्जलि भी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अर्थ सहित ॐ का सिमरन करो। ॐ स्वाभाविक ध्वनि है। जब शिशु जन्म लेता है तब उसकी रोने की ध्वनि ॐ जैसी प्रतीत होती है। जब व्यक्ति भोजन करके तृप्त होता है तब डकार के समय भी ॐ ध्वनि ही प्रतीत होती है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय में भी ॐ ध्वनि गुंजायमान थी। ॐ ही ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ नाम है।
न त्वावाँ२ ऽ अन्यो दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते ।
अश्वायन्तो मधवन्निन्द्र वाजिनो गत्यन्तस्त्वा हवामहे ॥
ना कोई परमेश्वर के समान शुद्ध हुआ है, ना होगा और ना है इसलिए मनुष्य को चाहिए कि ईश्वर को छोड़कर अन्य किसी की भी उपासना कभी भी नहीं करनी चाहिए। यही कर्म इस लोक और परलोक में आनंददायक जाने।
न तस्य प्रतिमाऽ अस्ति यस्य नाम महद्यश:
उस परमेश्वर की प्रतिमा, उसके समान साधन मूर्ति तथा आकृति नहीं है। ईश्वर देहधारी नहीं होता है। जिसकी सीमा नहीं है, जिसकी आज्ञा का पालन ही नाम स्मरण है, इससे भिन्न उपासना करोगे तो इस महान पाप से युक्त होकर लोग दुख कलेश में नष्ट होते रहेंगे।
ऐश्वर्यस्य वीर्यस्य यशस: श्रिय:।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षष्णां भग इतीरणा ॥
ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य इन छह का नाम भग है। जिन महापुरुषों में यह 6 गुण हैं वह भगवान कहलाने योग्य हैं इसका अर्थ यह नहीं है कि वह ईश्वर हो गया है। केवल भगवान कहलाने योग्य हैं। देहधारी कभी ईश्वर नहीं बन सकता है और ना ही ईश्वर की बराबरी कर सकता है। अपने कर्मों से वह महात्मा बन सकता है, ऐश्वर्य प्राप्त कर सकता है, ईश्वर के कुछ गुणों को धारण कर सकता है, वह भगवान बन सकता है लेकिन ईश्वर नहीं बन सकता है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं।
बहुनिये व्यतीतानि जन्मानि अर्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न तवं वेत्थ परंतपं॥
अर्जुन तेरे मेरे और तुम्हारे बहुत बीत चुके हैं मैं उनको योग बल से जानता हूं परंतु तुम नहीं जानते ।
अज गतिक्षेपणयो: , जनी प्रादुभार्वे।
आज गति से पढ़ो जो सब प्रकृति के अवयव आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी आदि के पंच भूत परमाणुओं को यथा योग्य मिला था शरीरों के साथ जीवो का संबंध करके जन्म देता और स्वयं कभी जन्म नहीं लेता इसलिए उस परमेश्वर का नाम “अज” है।
सर्वा: शक्त्यों विधनते यस्मिन् स सर्वशक्तिमानीश्वर:।
ईश्वर जो अपने कार्य में किसी अन्य की सहायता की इच्छा नहीं करता, अपने सामर्थ्य से सब कार्य पूरे करता है इसलिए उस परमात्मा को सर्वशक्तिमान कहा जाता है। जो भी कार्य हमें इस ब्रह्मांड में होता दिख रहा है वह ईश्वर के द्वारा किया जा रहा है। हम मनुष्य की बुद्धि सीमित है इसी कारण सोच भी सीमित है। बहुत दूर तक देखने तथा सोचने के लिए हमें यंत्रों की सहायता लेनी पड़ती है लेकिन यंत्रों की सीमा है। केवल सूर्य, चंद्र, मंगल आदि ग्रहों तक ही हम पहुंच पाते हैं, यदि और प्रयास करें तो लाखों-करोड़ों मील तक चले जाते हैं लेकिन परमात्मा अनंत है ना ही उसका कोई आरंभ है नाही अंत है। उसको तो केवल योग के आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा ही पाया जा सकता है। उसकी शक्ति अनंत है।
यदस्तित्रिषु कालेषु न बाध्यते तत् सद्ब्रह्म ॥
जो सदा वर्तमान स्वतंत्र है। जो भूत भविष्य वर्तमान काल में बंधा हुआ नहीं है। इसीलिए उसे सत् कहते हैं। जो चेतन स्वरूप सब जीवो को चिताने और सत्य असत्य का जानने हारा है। इस कारण परमेश्वर को चित्त् नाम दिया है।
आनन्दन्ति सर्वे मुक्ता यस्मिन् यद्वा य:
सर्वान् जीवानानन्दयति स आनन्द: ।
जो आनंद स्वरूप है। जिससे सब युक्त जीव आनंद को प्राप्त होते और सब धर्मात्माओं को आनंद युक्त करता है। इसलिए उसे आनंद कहते हैं।
सत्त् चित् तथा आनंद इन तीनों विशेषणों के होने से परमेश्वर को सच्चिदानंद कहते हैं।
निर्गत आकारात्स निराकार:।
जिसका आकार कोई भी नहीं और ना कभी शरीर धारण करता है। इसलिए परमेश्वर का नाम निराकार है। यदि ईश्वर जन्म लेकर शरीर के बंधन में आ जाएगा तब कैसे संपूर्ण ब्रह्मांड को गति दे सकेगा? इसलिए यह कहना कि वह सर्वशक्तिमान है तो वह यह कर भी सकता है तब यह बात बालकपन की लगती है। ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे करने के लिए ईश्वर को शरीर के बंधन में बंधना ही पड़े। यदि किसी अधर्मी राक्षस को दंड देना है तब ईश्वर किसी भी रूप में उसे दंडित कर सकता है और चाहे तो गर्भ में ही मार सकता है। इसलिए ईश्वर को जन्म लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह न्यायकारी है। किसी के साथ पक्षपात नहीं करता है। वह जीवो के कर्मों का ही फल देता है ना ज्यादा ना कम देता है। हम मनुष्यों की अल्प बुद्धि उसे देखना चाहते हैं। इसलिए कुछ ना कुछ दृश्य मान होना चाहिए लेकिन वह अदृश्य है। उसे भौतिक आंखों से नहीं केवल आत्मा के स्तर पर अनुभव किया जा सकता है। इसलिए सभी बुद्धि मानव को उस परमेश्वर का ध्यान ओम ध्वनि के साथ हृदय कोश में लगाकर उसे पाना चाहिए तभी उस निराकार ईश्वर के दर्शन संभव है। यही ईश्वर का स्वरूप है।

ईश्वर का स्वरूप क्या है?

आज तक कभी ईश्वर अपने मूल रूप में प्रकट नहीं हुआ है। कभी उसने यह घोषणा नहीं की है कि वह ईश्वर है और इस सृष्टि का सृजनकर्ता है। आज तक कभी ईश्वर अपने मूल रूप में प्रकट नहीं हुआ है।

ईश्वर कितने प्रकार के होते हैं?

हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुड़ी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है।

योगसूत्र के अनुसार ईश्वर का क्या स्वरूप है?

ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगदर्शन में संसार को दुःखमय और हेय माना गया है।

ईश्वर के बारे में आप क्या जानते हैं?

जब आप धर्म के सच्चे अर्थ को अनुभव करते हैं, जो है ईश्वर को जानना, तो आप जान जाएँगे कि वे ईश्वर आपकी आत्मा हैं, और वे सभी प्राणियों में समान और निष्पक्ष रूप से विद्यमान हैं। तब आप दूसरों को अपनी आत्मा के रूप में प्रेम करने में समर्थ होंगे।