कभी कभी भाषा के चक्कर में सीधी बात भी टेढ़ी हो जाती है कैसे? - kabhee kabhee bhaasha ke chakkar mein seedhee baat bhee tedhee ho jaatee hai kaise?

विषयसूची

  • 1 भारत और भाषा परस्पर जुड़े होते हैं किंतु कभी कभी भाषा के चक्कर में सीधी बात भी टेढ़ी हो जाती है कैसे?
  • 2 इस कविता के बहाने बताइए कि सब घर एक कर देने के माने क्या है?
  • 3 कविता के अनुसार बिना मुरझाए कौन महकता है?
  • 4 भाषा को सहूलियत से बरतने से क्या अभिप्राय है Class 12?
  • 5 बिना मुरझाए महकने के माने कविता के संदर्भ में क्या होते हैं?

भारत और भाषा परस्पर जुड़े होते हैं किंतु कभी कभी भाषा के चक्कर में सीधी बात भी टेढ़ी हो जाती है कैसे?

इसे सुनेंरोकेंबात और भाषा का आपस में गहरा संबंध होता है। बात का अभिप्राय स्पष्ट करने के लिए सही भाषा का प्रयोग करना चाहिए किन्तु कई बार ऐसा होता है कि हम भाषा को सहज नहीं रहने देते। हम क्लिष्ट भाषा का प्रयोग कर सीधी सरल बात को भी शब्द-जाल में उलझाकर टेढ़ी बना देते हैं।

इस कविता के बहाने बताइए कि सब घर एक कर देने के माने क्या है?

इसे सुनेंरोकें”सब घर एक कर देने के माने’ का अर्थ है सभी घरों को एक समान समझना| जिस प्रकार बच्चे खेलते समय किसी घर में भी जाकर अपना-पराया, छोटा-बड़ा, गरीब-अमीर, जाति-धर्म का भेद ,मिटाकर खेलते हैं उस तरह हमें भी इन भावनाओं को मिटाकर सबको एकसमान देखना चाहिए।

5 भाषा को सहूलियत से बरतने से क्या अभिप्राय है?

इसे सुनेंरोकेंइसका अभिप्राय है कि हमें भाषा का प्रयोग उचित प्रकार से करना चाहिए। भाषा शब्दों का ताना-बाना है। उनके अर्थ प्रसंगगत होते हैं। अतः हमें उसका प्रयोग सही प्रकार से करना चाहिए।

कविता को बच्चों के समान क्यों कहा गया है तर्क सहित उत्तर दीजिए?

इसे सुनेंरोकेंव्याख्या-कवि कविता को बच्चों के खेल के समान मानता है। जिस प्रकार बच्चे कहीं भी किसी भी तरीके से खेलने लगते हैं, उसी प्रकार कवि के लिए कविता शब्दों की क्रीड़ा है। वह बच्चों के खेल की तरह कहीं भी, कभी भी तथा किसी भी स्थान पर प्रकट हो सकती है। वह किसी भी समय अपने भावों को व्यक्त कर सकती है।

कविता के अनुसार बिना मुरझाए कौन महकता है?

इसे सुनेंरोकेंAnswer: फूलों के खिलने के बहाने कवि ने कविता के अंदर की चिरंतनता को प्रमाणित किया है। फूल खिलता अवश्य है, किन्तु समय के साथ वह मुरझा जाता है। उसका सुंदर रूप तथा सुगंध समय की दया पर आश्रित होता है।

भाषा को सहूलियत से बरतने से क्या अभिप्राय है Class 12?

भाषा को सहूलियत से बरतने की बात कवि से कौन कर रहा है?

बात की चूड़ी मर गई। और वह भाषा में बेकार घूमने लगी। उत्तर: कवि कहता है कि वह अपने भाव को प्रकट करने के लिए नए शब्दों तथा नए उपमानों में उलझ गया।…NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 3 कविता के बहाने, बात सीधी थी पर

बिंब/मुहावराविशेषता
(क) बात की चूड़ी मर जाना कथ्य और भाषा का सही सामंजस्य बनना

बात कोकिल की तरह ठोकना क्या है ऐसा क्यों किया जाता है?

इसे सुनेंरोकेंउत्तर: ‘बात को कील की तरह ठोंकना’ से कवि का अभिप्राय अपनी बात को अनुपयुक्त भाषा में बलपूर्वक व्यक्त करने से है। पेंच को लकड़ी में हथौड़े से कील की तरह ठोंकने से उसकी पकड़ में कसावट नहीं आती। कवि ने भावों को अनुपयुक्त क्लिष्ट भाषा में प्रकट करने की जोर-जबरदस्ती की तो कविता का मर्म ही नष्ट हो गया।

बिना मुरझाए महकने के माने कविता के संदर्भ में क्या होते हैं?

इसे सुनेंरोकेंकविता के संदर्भ में ‘बिना मुरझाए महकने के माने’ क्या होते हैं? फूल तो खिलकर मुरझा जाते हैं और उनकी महक समाप्त हो जाती है। इसके विपरीत कविता भी मुरझाती नहीं। वह सदा ताजा बनी रहती है और उसकी महक बरकरार रहती है।

आज के इस आर्टिकल में कुंवर नारायण जी की कविता बात सीधी थी पर(Baat seedhi thi par) की व्याख्या को समझाया गया है |

  • बात सीधी थी पर (Baat seedhi thi par)
    • रचना-परिचय-
    • व्याख्या-
    • व्याख्या-
    • व्याख्या-

रचना-परिचय-

इस कविता में कथ्य के माध्यम से द्वन्द्व को उकेरते हुए भाषा की सहजता की बात की गई है। कवि का कहना है कि हमें सीधी-सरल बात को बिना पेंच फँसाये सीधे-सरल शब्दों में कहने का प्रयास करना चाहिए। भाषा के फेर में पङने से बात स्पष्ट नहीं हो पाती है, कविता में जटिलता बढ़ जाती है तथा अभिव्यक्ति में उलझाव आ जाता है। अतएव अच्छी बात अथवा अच्छी कविता के लिए शब्दों का चयन या भाषागत प्रयोग सहज होना नितान्त अपेक्षित है। तभी हम कविता के द्वारा सीधी बात कह सकते है।

बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
जरा टेढ़ी फँस गई।
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोङा मरोङा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आए-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई।

व्याख्या-

कवि कहता है कि मेरे मेन में एक सीधी-सरल-सी बात थी जिसे मैं कहना चाहता था; परन्तु उसे व्यक्त करने के लिए बढ़िया-सी भाषा का प्रयोग करने से अर्थात् भाषायी प्रभाव दिखाने के प्रयास से उसकी सरलता समाप्त हो गई। आशय यह है कि शब्द-जल में सरल बात भी जटिल हो गई। कवि कहता है तब उस बात को कहने के लिए मैनें भाषा को अर्थात् शब्दों को बदलने का प्रयास किया, भाषा को उल्टा-पलटा, शब्दों को काट-छाँटकर आगे-पीछे किया। मैंने ऐसा प्रयास इसलिए किया कि मूल बात सरलता से व्यक्त हो सके।

मैंने कोशिश की कि या तो मेरे मन की बात सहजता से व्यक्त हो जाए या फिर भाषा के जंजाल से छूटकर बाहर आये; परन्तु ये दोनों बातें नही हो सकी। इस प्रयास में स्थिति खराब होते गई, भाषा अधिक जटिल हो गई और मेरी बात उसके जाल में उलझकर रह गई। इस तरह भाषा का परिष्कार करने के चक्कर में बात और भी जटिल हो गई।

सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाए
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्योंकि इस करतब पर मुझे
साफ सुनाई दे रही थी
तामशबीनों की शाबाशी और वाह-वाह!
आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था
जोर जबरदस्ती से
बात की चूङी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी!

व्याख्या-

कवि कहता है कि भाषा के चक्कर में फँसी बात को धैर्यपूर्वक सुलझाने की कोशिश करने पर वह और अधिक उलझ गई। जिस प्रकार पेंच ठीक से न लगे उसे खोलकर बार-बार कसने से उसकी चूङियाँ मर जाती है और तब जबर्दस्ती किया गया प्रयास निष्फल रहता है। इसी प्रकार बेवजह भाषा का पेंच कसने से बात सहज और स्पष्ट होने के स्थान पर और भी क्लिष्ट हो जाती है। कवि कहता है कि ऐसा गलत करने पर वाह-वाह करने वाले और शाबाशी देने वाले लोगों की कमी नहीं थी। उनके प्रोत्साहन में मेरी उलझन और भी बढ़ जाती थी और वे बात बिगङने से खुश होते थे।

भाषा के साथ जबर्दस्ती करने का वही परिणाम हुआ जिसका कवि को डर था। भाषा को तोङने-मरोङने के चक्कर में उसके मूल भाव का प्रभाव ही नष्ट हो गया। पेंच को जबर्दस्ती कसने से उसकी चूङी मर गई और पेंच बेकार ही घूमने लगा, इसी प्रकार भाषा की बनावट के चक्कर में उसका मूल कथ्य नष्ट हो गया और भाषा व्यर्थ में प्रयुक्त होती रही।

हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जग ठोंक दिया।
ऊपर से ठीक ठाक
पर अंदर से
न तो उसमें कसाव था
न ताकत!
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछते देखकर पूछा-
’’क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?

व्याख्या-

कवि कहता है कि भाषा की तोङ-मरोङ में, उसमें पेच कसने में लगे रहने में जब मैं असमर्थ रहा, तब अपनी अभिव्यक्ति को चमत्कारी शब्दों में ठूँस-ठाँसकर ऐसे ही छोङ दिया। जिस प्रकार चूङियाँ मर जाने से पेंच को कील की तरह ठोंककर छोङ दिया जाता है, उसी तरह मैंने कथ्य के साथ किया। तब वह कविता ऊपर से तो अच्छी और ठीक-ठाक प्रतीत हुई; परन्तु अन्दर से वह एकदम ढीली एवं प्रभावहीन हो गई। तब उस अभिव्यक्ति में न तो कसावट थी और न प्रभावात्मकता थी अर्थात् उसमें अपेक्षित प्रभाव नहीं रह गया था।

कवि कहता है कि तब ’बात’ ने शरारती बच्चे की तरह मुझसे पूछा कि तुम क्यों व्यर्थ की शाब्दी-क्रीङा कर रहे हो ? तुम मुझसे खेलते हुए भी व्यर्थ का परिश्रम क्यों कर रहे हो ? मुझे अपना पसीना पोंछते देखकर बात ने कहा कि तुम व्यर्थ में पसीना बहा रहे हो। क्या तुमने अब तक भाषा को सरलता, सहजता और उपयुक्तता से प्रयोग करना नहीं सीखा ? यह तुम्हारी अक्षमता तथा अयोग्यता है, अप्रभावी अभिव्यक्ति की कमी है।

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बात और भाषा का क्या संबंध है लेकिन कभी कभी सीधी बात भी टेढ़ी क्यों हो जाती है?

बात और भाषा का आपस में गहरा संबंध होता है। बात का अभिप्राय स्पष्ट करने के लिए सही भाषा का प्रयोग करना चाहिए किन्तु कई बार ऐसा होता है कि हम भाषा को सहज नहीं रहने देते। हम क्लिष्ट भाषा का प्रयोग कर सीधी सरल बात को भी शब्द-जाल में उलझाकर टेढ़ी बना देते हैं।

भाषा को सहूलियत से बरतने का क्या अभिप्राय है?

भाषा को सहूलियत से बरतने से यह अभिप्राय है कि भाषा का उचित प्रयोग करना चाहिए। भाषा शब्दों का खेल है। शब्दों के अर्थ संदर्भगत होते हैं। शब्द का सही संदर्भ में प्रयोग करना चाहिए।