महात्मा की उपाधि मिलने पर फुले ने क्या प्रतिक्रिया जताई? - mahaatma kee upaadhi milane par phule ne kya pratikriya jataee?

ज्योतिबा और उनकी पत्नी सावित्रीबाई द्वारा किए गए शिक्षा और सुधार संबंधी कार्यों का वर्णन किया है। उन्होंने समाज और धर्म में व्याप्त पारंपरिक और अनीतिपूर्ण रूढ़ियों का विरोध किया। महिलाओं के शिक्षा और अधिकारों के लड़ाई लड़ी जिसके कारण उन्हें परिवार और समाज के विरोध का सामना भी करना पड़ा|


भारत के सामाजिक विकास और व्यवस्था में बदलाव लानेवाले पाँच सुधारकों की सूची में महात्मा ज्योतिबा फुले का नाम नहीं है, इसका कारण यह है कि उन्होंने ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणवाद और पूँजीपति समाज का डटकर विरोध किया। वर्ण, जाति और वर्ग व्यवस्था में निहित शोषण प्रक्रिया को एक दूसरे का पूरक बताया। महात्मा ज्योतिबा फुले के विचार 'गुलाम गिरी', 'शेतकर यांचा आसूड', 'सार्वजनिक सत्यधर्म' आदि पुस्तकों में मिलते हैं। उनकी सोच समय से आगे की थी| वे अपने समय से आगे की सोच रखते थे। आधुनिक शिक्षा के लिए वे कहते थे यदि विशेष वर्गों को शिक्षा का अधिकार नहीं है ऐसी शिक्षा का क्या लाभ है उनसे ही 'कर' के रूप में पैसा इकट्ठा करके ऊँची जाति के बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना कहाँ तक उचित है।

ज्योतिबा फुले के अनुसार जिस परिवार में पिता बौद्ध, माता ईसाई, बेटी मुसलमान और बेटा सत्य धर्मी हो वह परिवार आदर्श परिवार है। महात्मा ज्योतिबा फुले ने स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए लिखा कि स्त्री-शिक्षा के दरवाजे पुरुषों ने इसलिये बन्द कर रखे हैं ताकि वह पुरुषों के समान स्वतन्त्रता न ले सकें। ज्योतिबा फुले ने स्त्री-समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह-विधि की रचना की। उन्होंने अपनी इस नई विधि से ब्राह्मण का स्थान ही हटा दिया। उन्होंने पुरुषप्रधान संस्कृति समर्थक और स्त्री की गुलामगिरी सिद्ध करने वाले सारे मन्त्र हटा दिये।

1888 में ज्योतिबा फुले ने 'महात्मा' की उपाधि को लेने से यह कहकर इन्कार कर दिया कि इससे मेरे संघर्ष का कार्य बाधित होगा। वह एक साधारण व्यक्ति के समान ही कार्य करना चाहते हैं। वे कथनी और करनी में विश्वास करते थे। स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए, इसके लिए सबसे पहले अपनी पत्नी सावित्री बाई को शिक्षित किया। सावित्री बाई को भी बचपन से शिक्षा में रुचि थी लेकिन उनके पिता ने उन्हें नहीं पढ़ाया। उनके अनुसार स्त्रियाँ पढ़ने से बिगड़ जाती हैं।

14 जनवरी, 1848 को पुणे में भारत की सबसे पहली कन्या पाठशाला खुली। इसके बाद उन्होंने पिछड़े वर्गों और लड़कियों के लिए पाठशाला खोलनी आरंभ कर दी। इस काम में प्रतिष्ठित समाज ने दोनों का कड़ा विरोध किया। उन्हें ब्राह्मण समाज से बाहर निकाल दिया। ज्योतिबा के पिता ने भी उसे पुरोहितों और रिश्तेदारों से डरकर अपने घर से निकाल दिया। सावित्री को तरह-तरह से अपमानित किया जाता था। पर उन्होंने 1840-1890 तक पचास वर्षों तक एक प्रण होकर अपना मिशन पूरा किया। उन्होंने मिशनरी महिलाओं की तरह किसानों और अछूतों की झुग्गी-झोपड़ी में जाकर काम किया। ज्योतिबा फुले ने अपने घर की पानी की टंकी सभी जातियों के लिए खोल दी। ज्योतिबा फुले और सावित्री देवी ने सभी काम डंके की चोट पर किए। पिछड़े वर्गों और स्त्रियों को पारंपरिक रूढ़ियों से बाहर निकाला। आज के आधुनिक समाज में पढ़े-लिखे प्रतिष्ठित लोग कई साल तक साथ रहकर अलग हो जाते हैं| ज्योतिबा और सावित्री देवी का एक-दूसरे के प्रति समर्पित जीवन भाव की भावना अन्य दंपतियों के लिए एक आदर्श है।

ज्योतिराव गोविंदराव फुले 19वीं सदी के एक महान भारतीय विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। उनको महात्मा फुले एवं ज्योतिबा फुले के नाम से जाना जाता है। आज ही के दिन यानी 28 नवंबर, 1890 को 63 साल की उम्र में उनका निधन हुआ था। आइये उनसे जुड़ी खास बातें जानते हैं...

1.महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल,1827 को पुणे में हुआ था। उनका परिवार कई पीढ़ी पहले सतारा से पुणे आकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करने लगा था। इसलिए माली के काम में लगे ये लोग 'फुले' के नाम से जाने जाते थे।

2. उन्होंने महिलाओं एवं विधवाओं के कल्याण के लिए काम किए। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था।

3. लड़कियों को पढ़ाने के लिए जब कोई योग्य अध्यापिका नहीं मिलीं तो इस काम के लिए उन्होंने अपनी सावित्री फुले को इस योग्य बनाया।

4. उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की कोशिख की लेकिन जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया। इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका जरूर लेकिन शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।

5.दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने 1873 में 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की।

6.उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी गई।

7.ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे।

8.अपने जीवन काल में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं- तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी, राजा भोसला का पखड़ा, ब्राह्मणों का चातुर्य, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत आदि।

9.महात्मा ज्योतिबा व उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘ऐग्रिकल्चर ऐक्ट’ पास किया।

10.ज्योतिराव ने ही 'दलित' शब्द का पहली बार प्रयोग किया था।

महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे में हुआ था। उनकी माता का नाम चिमणाबाई तथा पिता का नाम गोविन्दराव था। उनका परिवार कई पीढ़ी पहले माली का काम करता था। वे सातारा से पुणे फूल लाकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करते थे इसलिए उनकी पीढ़ी 'फुले' के नाम से जानी जाती थी। 

ज्योतिबा बहुत बुद्धिमान थे। उन्होंने मराठी में अध्ययन किया। वे महान क्रांतिकारी, भारतीय विचारक, समाजसेवी, लेखक एवं दार्शनिक थे। 1840 में ज्योतिबा का विवाह सावित्रीबाई से हुआ था।

महाराष्ट्र में धार्मिक सुधार आंदोलन जोरों पर था। जाति-प्रथा का विरोध करने और एकेश्‍वरवाद को अमल में लाने के लिए ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना की गई थी जिसके प्रमुख गोविंद रानाडे और आरजी भंडारकर थे। 

उस समय महाराष्ट्र में जाति-प्रथा बड़े ही वीभत्स रूप में फैली हुई थी। स्त्रियों की शिक्षा को लेकर लोग उदासीन थे, ऐसे में ज्योतिबा फुले ने समाज को इन कुरीतियों से मुक्त करने के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाए। उन्होंने महाराष्ट्र में सर्वप्रथम महिला शिक्षा तथा अछूतोद्धार का काम आरंभ किया था। उन्होंने पुणे में लड़कियों के लिए भारत की पहला विद्यालय खोला। 

इन प्रमुख सुधार आंदोलनों के अतिरिक्त हर क्षेत्र में छोटे-छोटे आंदोलन जारी थे जिसने सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर लोगों को परतंत्रता से मुक्त किया था। लोगों में नए विचार, नए चिंतन की शुरुआत हुई, जो आजादी की लड़ाई में उनके संबल बने।

इस महान समाजसेवी ने अछूतोद्धार के लिए सत्यशोधक समाज स्थापित किया था। उनका यह भाव देखकर 1888 में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी गई थी। ज्योतिराव गोविंदराव फुले की मृत्यु 28 नवंबर 1890 को पुणे में हुई।