पतंजलि योग सूत्र में वृत्ति का शाब्दिक अर्थ क्या है? - patanjali yog sootr mein vrtti ka shaabdik arth kya hai?

पतंजलि योग सूत्र.... योग मन की समाप्ति है।’ यही योग की परिभाषा है, सबसे सही परिभाषा। योग को बहुत ढंग से परिभाषित किया...

Posted by सनातन धर्म एक ही धर्म on Thursday, June 11, 2015

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नमो नारायण सबसे पहले सर्वश्रेष्ठ का जो मतलब होता है सर्वश्रेष्ठ मतलब सर्वोत्तम जो कहा गया है कि उससे अच्छा कुछ भी नहीं है तो उसको सर्वश्रेष्ठ कहा गया है और पतंजलि योग समिति सर्वश्रेष्ठ कहां गया उसका मतलब यह है कि यह सबसे अच्छा है करने के लिए कोई भी चीज करने के लिए यह सबसे उत्तम है यही उसका मतलब है नमूना रहा है और उसका शब्द का मीनिंग बताया जाएंगे सर्वश्रेष्ठ मदद सबसे उत्तम सभी से बढ़िया सभी से अच्छा उसको बता जाता है सर्वश्रेष्ठ नमो नारायण

namo narayan sabse pehle sarvashreshtha ka jo matlab hota hai sarvashreshtha matlab sarvottam jo kaha gaya hai ki usse accha kuch bhi nahi hai toh usko sarvashreshtha kaha gaya hai aur patanjali yog samiti sarvashreshtha kaha gaya uska matlab yah hai ki yah sabse accha hai karne ke liye koi bhi cheez karne ke liye yah sabse uttam hai yahi uska matlab hai namuna raha hai aur uska shabd ka meaning bataya jaenge sarvashreshtha madad sabse uttam sabhi se badhiya sabhi se accha usko bata jata hai sarvashreshtha namo narayan

नमो नारायण सबसे पहले सर्वश्रेष्ठ का जो मतलब होता है सर्वश्रेष्ठ मतलब सर्वोत्तम जो कहा गया

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पतंजलि योग सूत्र में वृत्ति का शाब्दिक अर्थ क्या है? - patanjali yog sootr mein vrtti ka shaabdik arth kya hai?
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पतंजलि योग सूत्र में वृत्ति का शाब्दिक अर्थ क्या है? - patanjali yog sootr mein vrtti ka shaabdik arth kya hai?

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प्रिय पाठको महर्षि पतंजलि ने बहुत संक्षेप में स्पष्ट कर दिया है कि योग क्या है। योग का सार उन्होने एक ही सूत्र में लिखकर रख दिया है। 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध' कि योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है, रूक जाना है। यही सत्य है। योग एक संकल्प साधना है। यह एक ऐसा विज्ञान है जिसमें अपनी इन्द्रियों को वश में करके चेतन आत्मा से संयुक्त हो सकते है। यह योग एक अनुशासन है। यह न कोई ग्रन्थ है ना कोई शास्त्र ही है। यह योग मनुष्य के जीवन को अनुशासित करने वाला विज्ञान है। मनुष्य के शरीर, इन्द्रियां मन सभी को नियन्त्रित कर पूर्ण अनुशासन प्राप्त कराने का विज्ञान है।


  • इस चित्त में वासनाओं का पुन्ज एकत्रित है। वह भी जन्म जन्मान्तर के कर्म संस्कारों का पुन्ज इसमें विद्यमान - है। जिसमें हमारी तरंगे (वासना रूपी) उठती रहती है। जिस प्रकार बादलों के कारण या बादलों के आवरण से आकाश दिखाई नहीं देता है उसी प्रकार चित्त में उठने वाली तरंगों के कारण आत्मा का प्रकाश दिखाई नहीं देता है। चैतन्य आत्मा इससे परे है। ये चित्त की वृत्तियाँ बर्हिमुखी है जो सदा संसार की ओर उन्मुख रहती है। इसलिए मनुष्य का मन चंचल इन्हीं चित्त की वृत्तियों के कारण बना रहता है। 


  • प्रिय पाठको इन तरंगो को ही वृत्तियाँ कहा गया है। ये चित्त पर पड़ने वाली तरंगे वृत्तियाँ ही है।

 

  • महर्षि पतंजलि इन वृत्तियों को समझाते हुए कहते है कि जब इन वृत्तियों का सर्वथा अभाव हो जाता है तब ही आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होती है। क्योंकि जब आत्मा का संयोग वृत्तियों के साथ में होता है तब आत्मा वृत्तियो के साथ मिलकर वृत्तियो के समान ही अन्य वस्तुओं को देखती है। आत्मा उस समय स्वयं को नहीं देख सकती है। उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता है। परन्तु जब वृत्तियो रूक जाती है उसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। इसे इस प्रकार से समझ जा सकता है। जिस प्रकार अपना स्वरूप आइने में देंखे तो उसके आस पास की सभी वस्तुए दिखाई देती है। किन्तु इन्हें तो आँख देख रही है। वह नहीं दिखाई देती है तथा देखने वाली आँख को देखने पर फिर अन्य कुछ भी नहीं दिखाई देता है। इसी प्रकार उस आत्मा (दृष्टा) की भी स्थिति ऐसी ही है। चित्त का कारण प्रकृति है तथा इसमें भेद बुद्धि के कारण दिखाई देता है।

 

चित्त वृत्ति के भेद -

 

महर्षि पतंजलि ने चित्त की पाँच वृत्तियाँ बताई है। तथा उनके प्रत्येक के क्लिष्ट ओर अक्लिष्ट दो - दो भेद है। महर्षि पतंजलि ने वृत्तियों का वर्णन इस प्रकार से किया है 

'वृत्तयः पच्यतययः क्लिष्टाइक्लिष्टाः ।' पा० यो० सू० 1 / 5

 

  • अर्थात् वृत्तियाँ पाँच प्रकार की है। तथा उनके प्रत्येक के क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो- दो भेद है।

 

वृत्ति शब्द का नामकरण 

  • वृत्ति शब्द वृत्त वर्तने धातु में 'ति' प्रत्यय लगने से बनता है। जिसका अर्थ - हैबर्ताव करना या गोल घूमना। चित्त जो बर्ताव करता है, या कार्य करता है वह सब वृत्तियों का रूप ले लेता है। जिस प्रकार जल में वर्तुलाकार गोल गोल लहरे उठती है, उसी प्रकार चित्त में भी एक के बाद एक वृत्तियाँ उठती है। हमारा चित्त कुछ न कुछ विचार या कल्पना आदि करता रहता है। वाहृय विचार जो हमारे चित्त में हलचल या परिणाम उत्पन्न करते है, इन्हीं परिणामों को वृत्तियों कहते है। इन्द्रियो का विषयों से सम्पर्क में आने से वृत्तियाँ उत्पन्न होती है।

 

  • महर्षि पतंजलि ने वृत्तियों को पाँच प्रकार की बताई है। परन्तु ये वृत्तियाँ स्वभाव से दो प्रकार की होती है क्लिष्ट व अक्लिष्ट क्लिष्ट वृत्ति वे वृत्तियाँ है, जिनसे मनुष्य को कष्ट होता है। कष्ट या दुःख का अनुभव करता है।

 

  • दूसरी वृत्ति अक्लिष्ट वे वृत्ति है, जिनसे मनुष्य दुख का अनुभव नहीं करता है। सुख का अनुभव करता है। अतः पहली वृत्ति को क्लिष्ट अर्थात् दुःख प्रदान करने वाली कहा गया है। तथा दूसरी अक्लिष्ट अर्थात् सुख प्रदान करने वाली वृत्ति ।

 

  • उदाहरण स्वरूप इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं। जब हम कोई अच्छा दृश्य जैसे सुन्दर उद्यान या अपनी पसन्द की वस्तु को देखते है तो हम प्रसन्न होते है । मन में प्रसन्नता उत्पन्न होती है। चित्त में अच्छे व सकारात्मक विचार घूमने लगते है। जिन दृश्यों या विचार द्वारा हमें सुख की अनुभूति हुई, सुख मिला वह अक्लिष्ट वृत्ति होती है। इसके विपरीत यदि हम मार्ग में कोई दुर्घटना देखते है, ऐसे दृश्य देखते है जो कि हमे दुःखी करते है, हमारा मन दुःखी होने लगता है। हम परेशान व उदास हो जाते है। इस प्रकार की वृत्ति जिनसे हमे दुःख प्राप्त होता है, क्लिष्ट वृत्ति कहलाती है।

 

क्लिष्ट व अक्लिष्ट वृत्तियों का विस्तृत वर्णन

इन दोनो उदाहरणो में दृश्य मात्र के अनुभव अलग अलग है। एक से सुख की, प्रसन्नता की अनुभूति हुई तथा दूसरी घटना से दुख की अनुभूति होती हैं। इन क्लिष्ट व अक्लिष्ट वृत्तियों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार से है -

 

क्लिष्ट वृत्ति (दुःख उत्पन्न करने वाली) 

  • क्लिष्ट वृत्तियो का अर्थ है - क्लेशपूर्ण वृत्तियाँ। ये वृत्तियाँ ही पंचक्लेशों को उत्पन्न करती है। इन वृत्तियों में रज तथा तम गुण प्रधान होते हैं तथा मनुष्य को विवेक ज्ञान से दूर ले जाते है। ये क्लिष्ट वृत्तियाँ भौतिक सुख व दुःख दोनो उत्पन्न करती है। ये वृत्तियाँ अधर्म तथा वासनाओं को उत्पन्न करती हैं। इन्हीं वृत्तियों के कारण ही मनुष्य संसार चक्र में फंसा रहता है।

 

अक्लिष्ट वृत्ति (सुख प्रदान करने वाली) 

  • अक्लिष्ट का अर्थ है क्लेष रहित या क्लेशों को कम करने वाली वृत्तियाँ। ये वृत्तियाँ सत्व गुण प्रधान होती है। ये वृत्तियाँ पांचो क्लेशो को नष्ट करने वाली होती है। इस वृत्ति में चित्त आत्मा की और आकृषित रहता है। ये वृत्तियाँ पॉच क्लेशो को नष्ट करने वाली होती है। तथा जन्म मरण के चक्र से मुक्ति प्रदान करने में सहायक होती है। ये वृत्तियाँ योगी को विवेक ख्याति की ओर अग्रसर करती हैं। इन अक्लिष्ट वृत्ति से ही साधक पहले क्लिष्ट को हटाता है। फिर उन अक्लिष्ट वृत्तियों का भी निरोध करता है। यही स्थिति ही योग है, जब चित्त की सभी वृत्तियों का अभाव हो जाता है।

 

महर्षि पतंजलि ने इन वृत्तियों को पाँच भागो में बॉटा है। जिनका वर्णन इस प्रकार है-

 

'प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा स्मृतयः ।' 1 /6 पा० यो० सू०

 

इस सूत्र में महर्षि पतंजलि ने यह स्पष्ट किया है कि हमारे चित्त में जो वृत्तियाँ समय समय उठती रहती है, तथा हमारे चित्त को चलायमान करती रहती है वह पॉच प्रकार की है। (1). प्रमाण (2).विपर्यय (3). विकल्प (4) निद्रा (5). स्मृति

 

1 प्रमाण वृत्ति

 

प्रमा (यथार्थ ज्ञान) करण (साधन) को प्रमाण कहा जाता है। इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त वास्तविक ज्ञान से चित्त में उत्पन्न हुई वृत्ति को प्रमाण वृत्ति कहते है। जिस ज्ञान से में सुनता हूँ, मैं देखता हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं यह वेद शास्त्र से जानता हूँ, इस प्रकार के ज्ञान को बोध कहते है। यह बोध यदि यर्थाथ हो तो प्रमा कहलाता है। अर्थात जिस वृत्ति से प्रमा यर्थाथ बोध उत्पन्न होता है उसे प्रमाण वृत्ति कहते है। यह प्रमाण इन्द्रिय जनित ज्ञान है। इस प्रमाण के तीन भेद हैं, जो इस प्रकार है-

 

'प्रत्यक्षानुगमानागमा गमाः प्रमाणानि ।1 /7 पा० योo सू०

 

प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम तीन प्रकार की प्रमाण वृत्ति है। 

यह प्रमा चक्षु आदि इन्द्रियो द्वारा व अनुमान द्वारा अथवा श्रवण द्वारा या आप्त वचन द्वारा चित्त वृत्ति उत्पन्न होती है। इसलिए इस चित्त वृत्ति को प्रमा (ज्ञान) का कारण होने से प्रमाण कहा जाता है। यह प्रमाण वृत्ति तीन प्रकार की होती है - 

1- प्रत्यक्ष प्रमाण - इन्द्रिय जनित ज्ञान 

2 अनुमान प्रमाण - इन्द्रियगत अनुभव न होकर अनुमान के आधार पर ज्ञान 

3 – आगम प्रमाण - यह शब्द प्रमाण है, जो आप्त वाक्य या श्रवण द्वारा उत्पन्न होते है। 



1 प्रत्यक्ष प्रमाण 

  • प्रति + अक्ष अर्थात् आँख के सामने उत्पन्न वृत्ति प्रत्यक्ष वृत्ति है। हमारा चित्त इन्द्रियों के सम्पर्क में आकर जो ज्ञान प्राप्त करता है उसे प्रत्क्षय प्रमाण वृत्ति कहते है या इसे इस प्रकार कहा जा सकता है कि इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान या अनुभूति को प्रत्यक्ष प्रमाण वृत्ति कहते हैं। इसी को यथार्थ अनुभव या सत्य ज्ञान भी कहते हैं। किसी वस्तु का ज्ञान जब हमे इन्द्रियों की सहायता से होता है। वह प्रत्यक्ष प्रमाण है। जैसे - आँखों देखी, जिहवा से स्वाद का ज्ञान, कानो से श्रवण, नासिका से गन्ध का ज्ञान तथा त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होना प्रत्यक्ष प्रमाण है। जब यह ज्ञान भ्रम या संशय रहित होता है। तब वह सत्य ज्ञान होता है। परन्तु यह प्रत्यक्ष प्रमाण भी क्लिष्ट व अक्लिष्ट दोनो हो सकता है। यदि यह ज्ञान संसार की अनित्यता का बोध करा कर ईश्वर की ओर उन्मुख करा देता है तो यह अक्लिष्ट प्रमाण वृत्ति । जिससे की परम सुख की प्राप्ति होती है। किन्तु यदि इस वृत्ति से संसार की माया व प्रपंच भोग सत्य होने लगे तथा ईश्वर के प्रति अनास्था उत्पन्न हो जाए तब यह क्लिष्ट वृत्ति है। जिससे की मनुष्य के दुखों की वृद्धि होती है।

 

2 अनुमान प्रमाण 

  • अनु + मान अर्थात किसी अन्य के आधार पर ज्ञान प्राप्त करना । अनुमान प्रमाण वह है। जब वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियगत अनुभव न होकर अनुमान के आधार पर हो किसी पूर्व दृष्ट पदार्थो के चिन्ह देखकर हमे उसी पदार्थ का यथार्थ ज्ञान होता है। जैसे धुँए को देख कर पहाड़ी पर आग का अनुमान लगाना । बादलो को देख कर वर्षा का अनुमान आदि ।

 

अनुमान प्रमाण तीन प्रकार का होता है पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतयोदृष्ट । 

(अ) पूर्ववत् अनुमान

  • पूर्ववत् अनुमान वह है, जहा कारण को देखकर कार्य का अनुमान हो। जैसे यदि काले बादल और आकाश विद्युत को देखकर तथा बादलो की गड़गड़ाहट को सुनकर भविष्य में होने वाली वर्षा का अनुमान होता है। जो कि वर्तमान में इन्द्रियों द्वारा ग्राहय नही है। इस प्रकार के अनुमान को पूर्ववत या पूर्ववत उत्पन्न होने वाला ज्ञान कहा जाएगा।

 

(ब) शेषवत् अनुमान - 

  • जब किसी कार्य को देख कर उसके कारण का अनुमान लगाया जाता है, उसे शेषवत् अनुमान कहा जाता है। जैसे नदी के मटमैले जल को देखकर व बड़े हुए जलस्तर को देखकर उसके कारण रूप पर्वतो पर हुयी वर्षा का अनुमान लगाया जाता है। यह वर्षा एक दो दिन पहले हो चुकी होती है। जो कि इन्द्रियो द्वारा ग्राहय नही है। परन्तु उसका ज्ञान परिणाम को देखकर वर्तमान में (आज) लगाया जा सकता है। इसी को शेषवत् अनुमान कहते है।

 

(स) सामान्यतः दृष्ट

  • सामान्यतः दृष्ट का तात्पर्य यह है कि जब किसी कार्य के कारण - को अनेको बार देख कर उसका ज्ञान किया जाता है। जो सामान्य रूप से देखा गया हो परन्तु विशेष रूप से देखा न गया हो वह सामान्यतः दृष्ट वृत्ति कही जाती है। जैसे मिट्टी के बने घड़े को देखकर हम उसके बनाने वाले का अनुमान लगा लेते है कि यह वस्तु कुम्हार ने बनाई होगी। क्योकि कोई भी बनी हुई वस्तु को बनाने वाला अवश्य होगा। प्रत्येक बनी हुई वस्तु का कोई चेतन निमित्त कारण अवश्य होता है। इसी प्रकार लोहे से निर्मित वस्तु को देखकर यह अनुमान लगा लेते है कि यह वस्तु लोहार ने बनायी होगी। क्योकि प्रायः कुम्हार द्वारा घड़े का निर्माण और लोहार द्वारा हथियारों का निर्माण हम सामान्यतः शैशव अवस्था से ही देखते आ रहे होते है। उन्हें देखने पर हम अनुमान लगा लेते है कि यह वस्तु लोहार या कुम्हार द्वारा बनाई गयी है।

 

  • सामान्यतः दृष्ट प्रमाण को एक अन्य उदाहरण से भी इस प्रकार से समझा जा सकता है। जैसे दो व्यक्ति हमेशा साथ-साथ रहते हैं। राम व श्याम उनके नाम है। राम को देखकर यह अनुमान लगा लेते है कि दूसरा व्यक्ति अवश्य श्याम होगा। इसे सामान्यत दृष्ट अनुमान कहते है। इस अनुमान प्रमाण के द्वारा यदि योग साधको श्रद्धा बड़ती है। तब वह अक्लिष्ट वृत्ति है। और यदि इस वृत्ति के द्वारा सांसारिक भोग पदार्थों की रूचि बड़ती है। तब वह क्लिष्ट वृत्ति होती है।

 

3- आगम प्रमाण - 

  • आगम प्रमाण वह ज्ञान है, जो प्रत्यक्ष अथवा अनुमान के आधार पर न होकर विद्वानों द्वारा या ज्ञानियों द्वारा कहे गये वचन तथा शास्त्रो के वचनो के आधार पर होता है। वेद, शास्त्र और महापुरूषों के वचनो को आगम प्रमाण कहते है।

 

  • जब किसी वस्तु अथवा तत्व के ज्ञान का कारण ना तो इन्द्रियाँ हो न ही उनका अनुमान किया जाए तो उस ज्ञान को आगम प्रमाण से प्राप्त ज्ञान कहते है। 


योगसूत्र (व्यासभाष्य 1 / 7) वर्णन किया गया है-

 

"आप्तेन दृश्टोऽनुमितो वाऽर्थः परत्र स्ववोधसंक्रांतये । 

शब्देनोपदिष्यते शब्दात् तदर्थविशयावृत्तिः श्रोतुरागमः ।।

 

अर्थात् आप्त पुरूष अथवा आप्त ग्रन्थों द्वारा प्रत्यक्ष तथा अनुमान से ज्ञात विषय को दूसरे में ज्ञान उत्पन्न करने के लिए शब्द के द्वारा उपदेश दिया जाता है। उस शब्द से उस अर्थ को विषय करने वाली जो श्रोता की वृत्ति है, वह आगम प्रमाण कहलाती है।

 

यदि देखा जाए तो स्वर्ग आदि को चक्षु से ग्रहण नही किया जा सकता है। और न वह किसी के द्वारा अनुमानित है। जबकि स्वर्ग की मान्यता मानी जाती है। क्योंकि वेद आदि ग्रन्थों में स्वर्ग ओर नरक की मान्यता मानी गयी है। इसलिए ज्ञानियो द्वारा कहे गये कथन जो शास्त्रों में संग्रहीत है आगम प्रमाण के अन्तर्गत आते है। वेद, उपनिशद, दर्शन आदि मनीषियों के अनुभव के आधार पर लिखे गये है। इन कथनों से भोगो से वैराग्य होकर यदि मनुष्य का चित्त योग साधना की और प्रवृत होता है

योग चित्त वृत्ति निरोध का क्या अर्थ है?

योग को संस्कृत के एक सूत्र में योग: चित्त-वृत्ति निरोध: कहा गया है. तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिकी है. "योग बुद्धि के संशोधनों का निषेध है." स्वामी विवेकानंद इस सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते है,"योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूप (वृत्ति) लेने से अवरुद्ध करता है.

पंच वृत्ति क्या है?

वाक्यों को शब्द या आगम प्रमाण माना गया है। जैसे पूर्ण एवं परिपक्व गुरु किसी बात को कहता है, तो उसे प्रमाण के तौर पर माना जाता है। ठीक इसी प्रकार वेद – शास्त्रों के उपदेशों को भी प्रमाण माना गया है। इस प्रकार के प्रमाण को आगम अथवा शब्द प्रमाण वृत्ति कहा जाता है।

योग सूत्र के अनुसार वृत्तियों के कितने भेद है?

वृत्तियाँ पाँच प्रकार की - क्लेशक्त और क्लेशरहित ॥ ५॥ १-प्रमाण, २-विकल्प, ३-विपर्यय, ४-निद्रा तथा ५-स्मृति ॥

पातंजल योग सूत्र में कितनी वृत्तियां बताई गई है?

पतञ्जलि (पतंजलि) योग सूत्र में महर्षि पतञ्जलि (पतंजलि) ने विभिन्न ध्यानपारायण अभ्यासों को सुव्यवस्थित कर उनकों सूत्रों में संहिताबद्ध किया है। यह सूत्र योग के आठ अंगों को दर्शाते है। इसमें कुल १९५ सूत्र है जिन्हे ४ पदों में विभाजित किया गया है। समाधी पद - इसमें ५१ सूत्र है।