दुनिया की अनेक संग्रहालयो में बड़े लोगों के पत्रों का संकलन क्यों रखा गया है? - duniya kee anek sangrahaalayo mein bade logon ke patron ka sankalan kyon rakha gaya hai?

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हिन्दी-साहित्य-- 
मौखिक - परीक्षा पथप्रर्दाशका 


[एम० ए० हिन्दी साहित्य की मौखिक परीक्षा 
के लिए अनुपम प्रन्थ ] 


>. 


लेखक 
डॉ० जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल 
एम० ए० (संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि) 
एल-एल० बी०, पो-एच० डी० 
प्राध्यापक संस्कृत विभाग 
राजा बलवर्न्तासह कॉलेज, आगरा 


विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा 


प्रकाशक 
विनोद पुस्तक मन्दिर 


कार्यालय : रांगेस राघव मार्ग, आगरा-२ 
बिक्री-केख्र : हॉस्पिटल रोड, आगरा-रे 


@ विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा 


प्रथम संस्करण : १९६६/७० 


सूल्य : ५.०० 


कम्पोजिग : हिन्दी कर्म्पोजग गृह, आगरा 
मुद्रण : कंलाश ग्रिन्टिङ्ग प्रेस, आगरा 
[९११६९१५] 





डा० राजेइवरप्रसाद चतुर्वेदी डी० लिट्‌ 
को 
सर्मापत 
जिनमें मैंने वहुत सी अच्छाइयों के 
दर्शन किए और उनके वात्सल्य 
से सदैव प्रसन्नता की अनुभूति 
प्राप्त की -- 


विनम्र 
जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल 





दो शब्द 


एम० ए० हिन्दी साहित्य उत्तराद्धा (फायनल) के परोक्षाथियों से मेरा निवेदन 
है कि इस वर्ष पहली बार जो मौखिक परीक्षा हो रही है, उससे किसी भी प्रकार से 
चितित होने का कोई कारण नहीं है । वास्तव में इस मौखिक परीक्षा से बहुतों की 
श्रेणी (डिवीजन) उच्च हो जाएगी । सौ अङ्क की मौखिक परीक्षा में परीक्षार्थी के 
हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध में सामान्य ज्ञान की परीक्षा की जाएगी । प्रायः हिन्दी 
साहित्य के उस अंश के सम्बन्ध में ही प्रश्‍न पूछे जायेंगे जिसे परीक्षाथियो ने आठौं 
प्रश्‍नपत्रों की परीक्षा हेतु पढ़ा है । यह मौखिक परीक्षा अधिक से अधिक बीस मिनट 
की और सामान्य तौर पर पाँच-सात मिनट की होगी । दो परीक्षक रहेंगे जो अदल- 
बदल कर पढ़ो हुई पुस्तकों पर प्रश्‍न करेंगे । 

एम० ए० हिन्दी साहित्य में मौखिक परीक्षा का लक्ष्य यह देखना है कि 
परीक्षाथियों ने सामान्य रूप से अपने पाठ्यक्रम में निर्धारित साहित्य का विवेकपूर्ण 
अध्ययन किया है या नहीं और वे कहाँ तक इस सर्वोच्च एम० ए० उपाधि के लिए 
योग्य हैं । इसमें तो सन्देह नहीं कि एम० ए० की उपाधि का महत्व है । अतः हिन्दी 
साहित्य में “मास्टर ऑफ आर्टस्‌' की उपाधि के प्रत्याशी से यह आशा की जाती है कि 
उत्तरार्धं (फायनल) की परीक्षा देने के पश्चात्‌ उसने हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन 
कराने की योग्यता प्राप्त कर ली होगी । 

यों तो आठ प्रइनपत्रों की परीक्षा दे चुकने पर आप स्वयं विज्ञ हो गए हो, 
फिर भी आपको मौखिक परीक्षा में सहायतार्थ यह दिग्दशंन प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि इससे आपको दिशा का निर्देशन प्राप्त होगा और 
मौखिक-परीक्षा सम्बन्धी चिन्ता दूर करने में सहायता मिलेगी । इस पुस्तक में आपके 
आठों प्रश्‍न-पत्रों के साहित्य एवं विषय को ऐतिहासिक क्रम से प्रस्तुत करने का प्रयास 
किया है। आशा है परीक्षाथियों को इस पुस्तक से लाभ होगा । मैं इसीमें अपने 
परिश्रम की सार्थकता समभू गा कि इस पुस्तक का अध्ययन करके परीक्षार्थी अपने 
अन्दर आत्मविश्वास अनुभव करें और मौखिक परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करके 
उच्च श्रेणी प्राप्त करें । 

यह प्रथम प्रयास है, सुझावों का स्वागत है, आगामी संस्करण में तदनुरूप 
संशोधन एवं परिवद्धंन किया जाएगा । 


विजयादशमी सं० २०२६ जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल 
६/२४०, बेलनगंज, आगरा- 








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विषय सूची 
१ 
हिन्दी साहित्य की परम्परा 


हन्दो भाषा में साहित्य की परम्परा का प्रारम्भ 
प्राकृत भाषा का उद्‌नव एवं विकास 
अपभ्न श भाषा एवं साहित्य का उद्भव-काल 


रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन 


२ 


आदिकालीन हिन्दी साहित्प की प्रवृत्तियाँ 


आदिकाल के विविध नामकरण 

डिगल भाषा 

हिन्दी साहित्य की आदिकालीन प्रवृत्तियाँ 
चारण काव्य की प्रमुख विशेषता एं 
आदिकाल के प्रमुख ग्रन्थ 

सन्देशरासक का परिचय 

रासो से आप क्या समझते हैं ? 
पृथ्वीराज रासो--संक्षिप्त परिचय 
रासो में प्रबन्धात्सकता 

कयमास वध 

कयमास वध की प्रमुख घटनाएँ एवं वेशिष्ट्य 
पृथ्वीराज चौहान का चारित्रिक विकास 
पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता 

ढोला मारूरा दृह 


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आदिकालीन सिद्धों और योगियों की काव्यधारा 
अपभ्र श साहित्य 


अपभ्र'श का राम-साहित्य-हिन्दी के प्रथम महाकवि स्वयंभू 


स्वयंभू और तुलसीदास 
आदिकाल के महान्‌ कवि योगीन्दु या जोइन्दु 
विद्यापति भक्त या श्रंगारी कवि ? 


३ 
भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ 


भक्तिकालीन साहित्य की मूल प्रेरणा एवं विभिन्न शाखाएँ 
भक्तिकाल : हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग 
भक्तिकाल को समान भावनाएं 

सगुणमत के सिद्धान्त 

रामकाव्य की परम्परा का प्रारम्भ एवं विकास 
जैन रामकाव्य-परम्परा 

तुलसीदासजी की रचनाएं 

लोकनायक तुलसीदास की समन्वय-साधना 
विनयपत्रिका--विशेषता एं 

विनयपत्रिका का प्रमुख प्रतिपाद्य 

विनयपत्रिका मे तुलसी के विचार 

विनयपत्रिका में तुलसी की देन्य भावना की अभिव्यक्ति 
विनयपत्रिका : प्रबन्ध या मुक्तक काव्य 
विनयपत्रिका की श्रेष्ठता के कारण 

रामकाव्य का विकास क्यों न हुआ 

कृष्ण काव्यधारा के प्रमुख संस्थान 

अष्टछाप के कवि 

सुरसागर का परिचय 

सूरदास के विरह वर्णन की विशेषताएं 

भ्रमरगीत 

भ्रमरगीत में विरह व्यंजना 

सूरदास और रत्नाकर के भ्रमरगीतों की तुलना 
सन्तमत के सामान्य सिद्धान्त 

निगुणिए सन्तो की काव्यधारा को प्रमुख प्रवृत्तियाँ 
कबीर पर विभिन्न दर्शनों का प्रभाव 


२४ 
२५ 


३५ 
३५ 


( हे) 





२६. कबीर के दाशंनिक सिद्धान्त 200. 
२७. कबीर के काव्यरूप-साखी-सबद-रमैनी ४१ 
२८, कबीर की भाषा ४१ 
२९. कबीर की प्रतीक-योजना ४२ 
३०. कबीर और जायसी का रहस्यवाद ४२ 
३१, सूफो काव्य को प्रमुखप्रतृत्तियीि ४३ 
३२, प्रेममार्गी सूफी काव्यधारा के प्रमुख कवि नानक लाक 
३३. जायसी के पद्मावत का कथानक ४५ 
३४. पद्मावत अन्योक्ति था समासोक्ति ४५ 
३५. जायसी के पद्मावत का वैशिष्ट्य ४६ 
४-० ` 
शूज्भारकाल या रीतिकाल के हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ 
१, रीतिकाल या श्वुंगारकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ ४७ 
२. रीतिकाव्य की श्रगारिकता का रूप ४८ 
३. रीतिग्रन्थों का प्रवर्तक आचार्य कौन है ४६ 
४. केशवदास : विशेषताएं ५० 
५. केशव का वर्णन-कौशल भ्र्र्‌ 
६. केशवदास का संवाद-सौष्ठव ५१ 
७. केशव का प्रकृति चित्रण ५२ 
८, विहारी सतसई की विशेषताएं ५२ 
8. बिहारी सतसई की लोकप्रियता ५३ 
१०. मतिराम का कृतित्व ५३ 
११. रीतिमुक्त काव्य को विशेषताएं ५४ 
१२. रीमिमुक्त कवियों की प्रेम व्यंजना ५४५ 
१३, घनानन्द : विशेषताएँ ५६ 
१४. बोधा का कृतित्व ५६ 
१५. श्वृंगारकाल या रीतिकाल में वीरकाव्य ५७ 
१६. हिन्दी नीतिकाव्य : उद्भव और विकास ५७ 
१७. श्वृंगारकाल या रीतिकाल में भक्ति-भावाश्रित काव्य ५८ 
द्‌ 
आधुनिककालीन हिन्दी गद्य साहित्य : संक्षिप्त परिचय 
१. खड़ीबोली गद्य के चार प्रवर्तक ५६९ 
२. भारतेन्दुयुगीन नाटकों की विशेषताएं ६० 


३०, 
३१. 


(CL) 


प्रसाद के नाट्य साहित्य की विशेषताएँ 

प्रसादजी की नाट्यकला के प्रमुख तत्त्व 

प्रसाद के नाटकों में भारतीय तथा पाश्‍चात्य रचना-पद्धति 
स्कन्दगुप्त : एक परिचय 

स्कन्दगुष्त के आधार पर प्रसाद के नाटकों के स्त्रीपात्र 
स्कन्दगुप्त का चरित्र 

देवसेना का चरित्र 

स्कन्दगुप्त में रस-योजना 

प्रसाद के नाटकों में नारी समस्या 

हिन्दी में गीतिनाट्य 

कथाकुसुमाञजलि में सर्वश्रेष्ठ कहानी 

प्रेमचन्द की कहानी कला 

प्रसाद और प्रेमचन्द की कहानी कला में अन्तर 
नई कहानी की प्रमुख विशेषताएँ 

प्रेमचन्द की उपन्यासकला 

प्रसाद का उपन्यास-साहित्य 

प्रेमचन्दोत्तर उपन्यास 

भगवतीचरण वर्मा का परिचय 

चित्रलेखा उपन्यास की कथावस्तु 

चित्रलेखा : एक सामाजिक उपन्यास 

चित्रलेखा ऐतिहासिक उपन्यास के रूप में 
चित्रलेखा समस्याप्रधान उपन्यास 

चित्रलेखा उपन्यास का उपसंहार 

हिन्दी की ऐतिहासिक उपन्यासधारा 

राहुल के ऐतिहासिक उपन्यास 

आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ऐतिहासिक उपन्यास 
उपन्यासकार यशपाल 

उपन्यासों में आंचलिकता 


पं० रामचन्द्र शुक्ल के निवन्ध : विषयप्रधान या व्यक्तिप्रधान 


महादेवी वर्मा के रेखाचित्रों में आत्माभिव्यक्ति 
महादेवी के रेखाचित्रों की विशेषताएं 


७५ 


५२ 


पड 


३०. 
३१. 


(क) 


७ 


आधुनिककालीन हिन्दी पद्य साहित्य : संक्षिप्त परिचय 


आधुनिककालीन साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ 
आधुनिक हिन्दी कविता की विभिन्न धाराएं 
भारतेन्दुकालीन कविता की विशेषताएं 
श्रीधर पाठक का कृतित्व 

द्विवेदीयुगीन कविता की विशेषता एँ 
हरिऔध एवं गुप्तजी में आधुनिकता 
साकेत का नामकरण 

साकेत का नायक 

आधुनिककाल के ब्रजभाषा के कवि 
छायावाद की परिभाषा 

प्रसाद-काव्य की प्रमुख विश्ञेषताएं 
प्रसाद का प्रकृति के साथ तादात्म्य 

कामायनी में रूपक तत्त्व 

कामायनी में श्रद्धा सगं का महत्त्व 

आँसू : एक विरहकाव्य 

पन्त और प्रसाद का प्रकृति चित्रण 

कवि निराला और उनका काव्य 

राम की शक्तिपुजा : एकपरिचय 

रामकी शक्तिपूजा : एक खण्डकाव्य 

पन्त की काव्य साधना के सोपान 

महादेवीजी की संधिनी 

महादेवी की वेदना के प्रेरक तत्त्व 

महादेवीजी का वेदनाभाव 

महादेवीजी के काव्य में प्रकृति 

महादेवीजी के प्रतीक 

आधुनिक रहस्यवाद की भावना का स्वरूप 
हिन्दी में रहस्यवाद के विविध रूप 

हिन्दो कविता में दुःखवाद का रहस्य 

हालावाद 

आधुनिक हिन्दी कविता में प्रकृति चित्रण के विभिन्न रूप 
कवि नरेन्द्र शर्मा का कवित्व 

प्रगतिवाद का आन्दोलन 


३३, 
३४. 
३५, 
३६, 


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प्रगतिवादी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ 
प्रयोगशील कविता--प्रयोंग और रूप 
नई कविता की विशेषताएँ 


आधुनिकतम हिन्दी कविता के विभिन्न रूप 


पर 


साहित्यालोचन का संक्षिप्त परिचय 


भारतीय काव्यशास्त्र 

शब्द शक्ति 

रीति और शेली 

रीति और शेली में अन्तर 

काव्य के तत्त्व 

कल्पना तत्व 

वक्रोक्ति और क्रोचे का अभिव्यंजनावाद 
काव्य की आत्मा क्या है ? 
काव्य के गुण 

काव्य के सम्प्रदायों का संक्षिप्त परिचय 
अलंकार सम्प्रदाय 

वक्रोक्ति सम्प्रदाय 

ध्वनि सम्प्रदाय 

रस सम्प्रदाय 

रस निष्पत्ति का क्या अथं है ? 
रस के अंग 

विभाव और अनुभाव का स्वरूप 
श्रुंगाररस 

वीररस भोर रीद्ररस में अन्तर 
रसों की संख्या 

भट्टनायक का साधारणीकरण 
साधारणीकरण किसे कहते हैं ? 


क्या रस सुख-दुखात्मक हैं ? करुण आदि रसों का आस्वाद कंसा 


होता है? 


श्वुंगाररस को 'रसराज' क्यों माना जाता है ? 


महाकाव्य के लक्षण 


पाइचात्य काव्यशास्त्र के अनुसार महाकाव्य 


११२ 
११३ 
११५ 
११५ 


११७ 
११८ 
११८ 
११६ 
१२० 
१२० 
श्र 
१२२ 
१२२ 
१२३ 
१२४ 
१२५ 
१२५ 
१२६ 
१२६ 
१२७ 
१२८ 
१२९ 
१२९ 
१३० 
१३१ 


१३१ 
१३१ 
१३२ 
१३३ 


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मुक्तककाव्य 

गीतिकाव्य के तत्त्व एवं रूप 

हिन्दी में विविध प्रकार के मुक्तक काव्य 
नाटक के तत्व 

नाटक की कथावस्तु में अवस्थाएँ, अथंप्रकृतियां और सन्धियाँ 
कहानी के तत्वों का निरूपण 

सफल और श्रेष्ठ कहानी की कसौटी 
कहानी और उपन्यास का अन्तर 
कहानी और निबन्ध 

कहानी और रेखाचित्र में अन्तर 

नाटक और उपन्यास 

रेखाचित्र 

रेखाचित्र के तत्त्व 

रेखाचित्र और कहानी 

गद्यकाव्य के उपादान 

कला कला के लिए या जीवन के लिए 


& 
पाइचात्य समीक्षा-सिद्धान्त 


प्लेटो के काव्य सिद्धान्त 
अरस्तू का काव्यसत्य 
पाझ्चात्य आचार्यों द्वारा निरूपित काव्य का लक्षण एवं तत्त्व 
पाइ्चात्य आचार्यों द्वारा महाकाव्यों का वर्गीकरण 
स्वच्छन्दतावाद (Romanticism) 

शोकगीति या एंलिजी 

बिम्ब (Ima९९) 

अरस्तु का विरेचन का सिद्धान्त (45) 

भारतीय काव्यशास्त्र और विरेचन का सिद्धान्त 

अरस्तु द्वारा त्रासदी (774६९४) में कथानक को चरित्र की 
अपेक्षा अधिक महत्व 

त्रासदी की अनुभूति 

कामदो (९०७९4) स्वरूप एवं विभिन्न प्रकार 

संकलन त्रय 

कहानी का स्वरूप 

निबन्ध 





अनुकरण सिद्धान्त 


१३४ 
१३५ 
१३५ 
१३६ 
१३६ 
१३७ 
१३८ 
१३९ 
१४० 
१४० 
१४१ 
१४२ 
१४३ 
१४३ 
१४४ 
१४४ 


१४६ 
१:६ 
१४७ 
१४८ 
१४९ 
१५० 
१५० 
१५१ 
१५१ 


१५२ 
१५३ 
१५२ 
१५४ 
१५४ 
१५५ 





निबन्ध का स्वरूप 

रिपोर्ताज 

समालोचना का स्वरूप 

समालोचक के गुण 

आदर्शवाद 

प्रतीकवाद (Symbolism) 
अतियथार्थवाद (Surrealism) 
अस्तित्ववाद (Existentialism) 

टी० एस० इलियट की आलोचना प्रणाली 


१ 0 
भाषाविज्ञान का संक्षिप्त परिचय 


भाषा विज्ञान का प्रतिपाद्य 

भाषाविज्ञान की उपयोगिता 

भाषा विज्ञान और व्याकरण 

भाषा की परिभाषा एवं उसके अंग 

भाषा की उत्पत्ति-सम्बन्धी विविधवाद 
भाषा का विकास अथवा परिवतंन 

ध्वनि वर्गीकरण 

स्वराघात 

अ्थ-परिवतंन की दिशाएँ 

बौद्धिक नियम 

बल के अपसरण से अथं-परिवतंन 
अयोगात्मक भाषाएँ 

डॉ० चटर्जी का भारतीय आयंभाषाओं का वर्गीकरण 
हिन्दी भाषा का ऐतिहासिक विकास क्रम 
हिन्दी की प्रमुख बोलियाँ 

देवनागरी लिपि में सुधार 

लिपि में सुधार की आवश्यकता 


११ 
संस्कृत साहित्य का परिचय 


संस्कृत के आप महाकाव्य 
संस्कृत के महाकाव्य 


१५५ 
१५६ 
१५६ 
१५७ 
१५८ 
१५८ 
१५९ 
१६० 
१६१ 


१६३ 
१६४ 
१६४ 
१६५ 
१६५ 
१६६ 
१६७ 
१६८ 
१६८ 
१६९ 
१६९ 
१६९ 
१७० 
१७० 
१७१ 
१७१ 
१७१ 


१७२ 
१७२ 


GAM A रा 


G 


संस्कृत के नाटककार 

संस्कृत के ऐतिहासिक काव्य 
संस्क्ृत-गी तिकाव्य 

संस्कृत गद्य-साहित्य 

संस्कृत चम्पूकाव्य 


१२ 


पालिभाषा और साहित्य 
पालिभाषा 
पालिभापा का उद्भव 
पालि और प्राक्त 
पालि और संस्कृत 
पालि के व्याकरण 
पालि-ध्वनि समूह 
पालिभाषा का महत्त्व 
पालि साहित्य का विकास 
जातक कथा के भाग 
जातक कथाएँ : एक परिचय 
जातक साहित्य में तात्कालिक सामाजिक जीवन 
गौतम बुद्ध के उपदेश तथा बोधिसत्व 


१३ 
विशेष कवि: (  ) सुरदास 


स्थितिकाल एवं परिचय 

सूरदास की रचनाएं 

सूर-साहित्य की विशेषताएं 

सूर का वात्सल्य रस 

सूर की राधा 

भ्रमरगीत का अथं 

अमरगीत की प्रवन्धात्मकता 

सूर के भ्रमरगीत में विप्रलम्भ श्वुंगार 
सूर का सयोग श्वुङ्गार 

सुर का रामकाव्य 


१७३ 
१७३ 
१७४ 
१७५ 
१७६ 


१७७ 
१७७ 
१७५ 
१७८ 
१७६ 
१७६ 
१८० 
१८१ 
१८२ 
१८२ 
१८२ 
१८४ 





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विशेष कवि: ( 7 ) तुलसीदास 
स्थितिकाल एवं परिचय 
तुलसी-काव्य का वर्गीकरण 
तुलसी का काव्य-लक्षण 
रामचरितमानस में निगुण-सगुण, रस, चरित्र-चित्रण 
अलौकिकता, लोकनायक तुलसीदास 
तुलसी और प्राचीन रामसाहित्य 

विशेष कवि : ( ॥ ) जयशङ्करप्रसाद 

परिचय 
प्रसाद युग- युगप्रवर्तक जयणद्धूरप्रसाद 
प्रमादजी विभिन्न विधाओं के प्रवर्तक 
प्रसादजी की रचनाएं 
प्रसादजी के काव्यग्रन्थ : खड़ीवोली की रचनाएं 
ब्रजभाषा की काव्य रचनाएं 
प्रसादजी की नाट्यकला के मूल तत्त्व 
प्रसादजी : एकांकी के प्रवर्तक 
कंकाल : एक यथार्थवादी उपन्यास 
ग्राम्य जीवन का उपन्यास तितली 
आकाशदीप : एक भावात्मक कहानी 


१ १.६ 
निबन्ध 


को 


शिक्षा समस्या, महत्त्व, शिक्षा का स्वरूप, प्राचीन भारत के महान्‌ 
१ ९ 


केन्द्र, शिक्षा के विषय, आधूनिक समस्या 


शिक्षा की समस्याएं भाषा और शिक्षा का नेतिक आधार, 


शिक्षा में वर्ग भेद, शिक्षा और राजनीति, शिक्षितों की वेरोजगारी 
अतः शैक्षिक नियोजन की आवश्यकता, राज्य के कर्तव्य, शैक्षिक 


प्रशासन में समायोजन 

कोठारी शिक्षा आयोग का प्रतिवेदन 

शिक्षा में प्रयुक्त होने वाली श्रव्ग्र-हश्य सामग्री 
शिक्षा में भाषा का महत्त्वपुर्ण प्रश्न 

हिन्दी का अध्ययन भाषा के रूप में 
राजभाषा के रूप में हिन्दी का अध्ययन 


१९३ 
१९४ 
१९४ 


१६५ 
१९५ 


१६६ 
१६७ 
१६७ 
१९८ 
१९८ 
१९९ 
१९९ 
२०० 
२०१ 
२०१ 
२०२ 


२०४ 


२०६ 
२०६ 
२०७ 
२०८ 
२०८ 
२०८ 


०९ ०७ 


( ३१ ) 


भाषा समस्याः त्रिभाषा फामुला 
शिक्षा-भाषा का वैज्ञानिक हृष्टि से चुनाव 
अंग्रेजी की अनिवार्यता क्यों ? 

काव्य में अभिव्यंजनावाद बनाम वक्रोक्तिवाद 
हिन्दी-गीतिकाव्य का विकास 

काव्यलक्षण या काव्य का स्वरूप 


परिशिष्ट 
मौखिक परीक्षा के सम्बन्ध में परामर्श 
पाठ्यक्रम का पुनर्वीक्ष्ण 


२१५ 
२१७ 





RR तह त कक ना 





१ 
हिन्दी साहित्य की परम्परा 


हिन्दी भाषा सें साहित्य की परम्परा का प्रारम्भ 


हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का प्रारम्भ कब से हुआ ? यह विषय बड़ा 
विवादास्पद रहा है । आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में हिन्दी साहित्य 
का प्रारम्भ सम्वत्‌ १०५० से माना है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के आदिकाल की 
प्रवृत्तियों के निरूपण के लिए चार अपञ्रश काव्यों को भी विवेच्य बनाया है । 

मिश्चबन्धुओ ने भी हिन्दी साहित्य के आदिकाल की सामग्री का विवेचन 
करते हुये अनेक अपश्र'श रचनाओं को स्थान दिया है । 

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने परिनिष्ठित अपञ्नश् को 'पुरानी हिन्दी? कहना उचित 
समभा है । 

हुलजी ने अपभ्रश की रचनाओं को हिन्दी की रचनाएँ माना है और 
अपश्रश.के उत्कृष्ट कवि स्वयंभू (आठवीं शती ईसवी) को हिन्दी का प्रथम महाकवि 


माना है । वाक्क हि” गा | 


डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है 'अपञ्नश साहित्य को मध्यप्रदेश में 
उसी प्रकार भाषा-काव्य समझा जाता रहा है जिस प्रकार परवर्ती ब्रजभाषा या 
अवधी कविता को । उन्होंने लिखा है कि 'अपश्र'श को भाषा-काव्य कहने की प्रथा 
बहुत पुरानी है । 

डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल ने सिद्ध सरहपा को हिन्दी का प्रथम लेखक 


माना । राहुल ने सरहपा का समय संवत्‌ 5१७ और डाँ० विनयतोष भट्टाचायं ने _ 


संवत्‌ ६९० माना हे । १ 

डॉ० द्विवेदी ने देशभाषा की रचनाओं को हिन्दी की रचना माता है। ये 
रचनाएं लोकभाषा के काव्य रूपों को समझने में सहायक हैं। देशभाषा परिनिष्ठित 
अपन श से आगे बढ़ो हुई भाषा है । 





२ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


तात्पर्य यह कि हित्दो साहित्य का प्रारम्भ स्त्रयंभू (आठवीं शती) से मानना 
उचित होगा । 
प्राकृत भाषा का उद्भव एवं विकास 
प्रकृत--- भारतीय आर्यभाषाओं को प्राचीन, मध्य और आधुनिक, तीन 
कालों में विभाजित किया गया है । 'प्राकृतः मध्यकालीन भाषाओं का प्रतिनिधित्व 
करती है । प्राकृत भाषा कोई एकाएक प्रयोग में नहीं आ गई । अपने नैसगिक रूप 
में यह वेदिककाल के पूर्व भी बर्तमान थी। वँदिक भाषा को स्वयं उस काल में 
प्रचलित प्राकृत बोलियों का साहित्यिक रूप माना जाता है। प्राकृत महाकाव्य 
'गौडवहो' का यह उल्लेख 'सयलाओ इमं वाया विसन्ति एत्तो य गेति वायाओ एंति 
समुद्धं रचेय णेति सायरोओचिच्य चलाई” अर्थात्‌ जिस प्रकार जल समुद्र में प्रवेश 
करता है और भाप बनकर पुनः समुद्र से बाहर जाता है, उसी प्रकार प्राकृत से 
सब भाषाओं का उद्गम होता है और उसीमें सब भाषाएँ फिर समाहित हो जाती 
हैं यह सर्वथा ठीक जान पड़ती है। यह प्राकृत का व्यापक अर्थ है। भाषा का यही 
स्वछन्द रूप स्थानगत और कालगत विभिन्नताओं के कारण ५०० ई० पुण से 
१००० ई० तक पालि, प्राकृत, अपश्रश भाषाओं के रूप में विकसित हुआ । प्राकृत 
उस काल में लोकप्रिय भाषा बन गई थी, जसा, राजशेखर ने स्पष्ट भी किया है 
कि प्राकृत भाषा स्त्री के सहृश सुकुमार और संस्कृत पुरुष'के समान कठोर है । 
वेय्याकरणों ने सम्भवतः संकुचित अर्थ में साहित्यिक प्राकृत का मूल आधार संस्कृत 
भाषा को माना है। यद्यपि यहाँ पर संस्कृत का आशय प्राचीन आर्यभाषा के 
स्वछन्द रूप वेदिक से लेना युक्तिसंगत होगा, क्योंकि संस्कृत तो स्वयं ही लोक- 
भाषा का संस्कार किया हुआ रूप है । व्यापक अर्थ के अनुसार प्राकृत का प्रारम्भिक 
रूप पालि, मध्यकालीन रूप प्राकृत तथा उत्तरकालीन रूप अप्रण कहा गया है। 
मध्यकालीन रूप के अन्तगंत साहित्यिक प्राकृत एक विशिष्ट रूप हे । इसके मुख्य 
भेद शौरसेनी मागधी, अद्धंमागधी, महाराष्ट्री, पैशाची हैं, जिनका उद्भवकाल 
१०० ई० से ६०० ई० तक माना जाता है। इनके अतिरिक्त नाटकीय प्राकृत, 
शिलालेखी प्राकृत, नियतध्राकृत का भी विभाजन किया है । संस्कृत के शब्दों में पर्याप्त 
घ्वनि परिवतंन, विभक्तियों में एकीकरण, कतिपय व्याकरण-सिद्ध रूपों का हास 
आदि प्राकृत की मुख्य विशेषताएँ हें । तृतीया, चतुर्थी तथा पंचमी, षष्ठी की समान 
विभक्तियाँ मिलती हैं |”! --डॉ० सरयुप्रसाद अग्रवाल 
हिन्दी साहित्य कोश के उपयुक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि 
प्राकृत अपने ब्यापक एवं मूल अर्थ में वेदिक संस्कृत से पूर्ववर्ती है भौर साहित्यिक 


१. हिन्दी साहित्य कोश : सम्पादक मण्डल डॉ० धीरेन्द्र वर्मा, डॉ० व्रजेश्वर वर्मा, 
डा० धर्मवीर भारती, श्री रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ० रघुवंश, संवत्‌ २०१ शू 
पु? ४९२ । 


हिन्दी साहित्य की परम्परा 
4 


प्रयोग की दृष्टि से वेदिक साहित्य ही उसका साहित्यिक रूप माना जा सकता है । 
किन्तु अपने विशिष्ट अर्थे में प्राकृत मध्यकालीन आर्यभाषा है और इसके दो रूप हैं 
>पहली प्राकृत और दूसरी प्राक्कत । पहलो प्राकृत का दूसरा नाम पाली है, यह 
बीद्धधर्म की धर्मभाषा है और दूसरी प्राकृत का प्रयोग हमें महाकवि भास (चतुर्थ 
शताब्दी ईसा पूर्व) तथा कालिदास के नाटकों में मिलता है, जिस परम्परा के रूप 
को संस्कृत के नाटककारों ने बराबर निबाहा है। कुछ विशेष वर्ग के पात्रों के लिए 
प्राकृत भाषा का प्रयोग ही ठीक समझा गया । इसके मुख्य पाँच भेदों की हम ऊपर 
चर्चा कर चुके हैं । 


अपभ्र श भाषा एवं साहित्य का उद्भव काल 


अपभ्र'श भाषा का प्रारम्भ निश्चय ही ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में हो 
चुका था, जँसा कि महपि पतञ्जलि ने अपने महाकाव्य में दिया हे । यह बात 
सम्भव है कि अपञ्रश का प्राचीन साहित्य काल के प्रवाह में लुप्त हो गया हो । 
इसीलिए विद्वानों ने यह अनुमान किया है कि अपभ्रंश साहित्य का रचनाकाल 
पष्ठ शती ईसवी से प्रारम्भ होता है । यह अनुमान असिद्ध है क्योंकि महषि पतञ्जलि 
(ई० पू० द्वितीय शती) ने अपने महाभाष्य में अपाणिनीय प्रयोगों को अपभ्रश 
कहा है-- | न 0 

एकस्येव शब्दस्य बहवोडपभ्र शा: तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी, गोणी, 
गोता, गोपोतालेकेत्यवमादयोऽपश्रशाः-महाभाष्य १।१।१ 


उपयु'क्त उदाहरणों से अपञ्र॑श भाषा की स्थिति ईसा पूर्वं द्वितीय शती में 
स्पष्ट रूप से निश्चित हो जाती है । इसका साहित्य में प्रयोग कब से हुआ, इसके 
सम्बन्ध में हमें प्राचीन साहित्य उपलब्ध नहीं होता । भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में 
पराकृत पाठ्य का संकेत करते समय विश्रष्ठ शब्द का प्रयोग किया है-- 

समान शब्दं विभ्रष्ठं देशीगतमथापि च- नाय्यशास्त्र १८।३ 


यह भी अपभ्रंश भाषा के अस्तित्व का द्योतक है । कहने का तात्पर्यं यह 
कि ईसा पूवं से ही हमें अपभ्रंश का अस्तित्व प्राप्त होता है। कालिदास के एक 
नाटक में अपभ्र'श के कुछ वाक्य मिलते हैं । कालिदास की स्थिति ईसा पूर्व प्रथम 
शती में निश्चित हो चुकी है । 


साहित्य की दृष्टि से आठवीं शती के महाकवि स्वथं भू को अपभ्रश का प्रथम 
महान्‌ कवि मानते हैं और अपञ्जश में साहित्य की रचना का प्रारम्भ विद्वानों ने 
५०० ई० से माना है क्योंकि तभी से अपभ्रश की रचनाएँ मिलती हैं । इससे पूर्व 
की अपश्र जश की रचनाएँ न मिलने से ही अपश्र'श साहित्य का प्रारम्भ ५०० ई० से 
माना जाता है किन्तु इसका उद्भव तो बहुत समय पूर्वं ईसवी के प्रारम्भ में होना 
सहज ही सम्भव है । 


४ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य का फालविभाजन 
आचार्य पं० रामचन्द्र शुवल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को चार कालों में 
बाँटा है--- 


] आदि काल (वीरगाथाकाल, सं० १०५०-१३७५) 
| पूर्व मध्यकाल (भक्तिक्ाल, सं० १३७५-१७००) 
उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, सं० १७००-१६००) 
आधुनिककाल (गद्यकाल, सं० १९००-१६५४) 


शुकलजी नै आदिकाल का नामकरण वीरगाथाकाल किया क्योंकि उन्हें इस 
काल में दो प्रकार की रचनाएँ प्राप्त हुई--अपश्रश की और देशभाषा (बोलचाल) 
की । अपश्र'श की रचनाएँ जेन घर्भेतत्व निरूपिणी होने के कारण शुवलजी ने उन्हें 
साहित्य कोटि में नहीं माना । साहित्यकोटि में आने वाली रचनाओं में विभिन्न 
विषयों पर फुटकल दोहे हैं । साहित्यिक पुस्तकें चार हें - विजयपाल रासो, हम्मीर 
रासो, कीतिलता, कीतिपताका । देशभाषा की आठ काव्य पुस्तके हैं। इनमें अधिकांश 
पुस्तकं वीरगाथात्मक होने से शुक्लजी ने इस काल का नामकरण वीरगाथाकाल 
रखा । 

पूवेमध्यकाल का नामकरण भक्तिकाल रखा । उन्होंने लिखा भी है कि 'एक 
ही काल और एक ही कोटि की रचना के भीतर जहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की परम्परा 
चली हुई पाई गई हैं वहाँ अलग शाखाएँ करके सामग्री का विभाग किया है । जैसे, 
भक्तिकाल के भीतर पहले तो दो काव्यधाराएँ-- निगुणधारा और सगुणधारा-- 
निदिष्ट की गई हैं । फिर प्रत्येक धारा की दो दो शाखा स्पष्ट रूप से लक्षित हुई 
हैं । निगुण धारा की ज्ञानाश्रयी और प्रेममार्गी (सुफी) शाखा तथा सगुण धारा की 
रामभक्ति और कृष्णभक्ति शाखा ।' 

उत्तर मध्यकाल का नामकरण रीतिकाल करके गुक्लजी सन्तुष्ट नहीं हुए हैं । 
उन्होंने लिखा है कि 'रीतिकाल के भीतर रीतिबद्ध रचना की जो परम्परा चली है 
उसका उपविभाग करने का कोई संगत आधार मुझे नहीं मिला । रचना के स्वरूप 
आदि में कोई स्पष्ट भेद निरूपित बिना विभाग कैसे किया जा सकता है ।''“थोड़े 
थोड़े अन्तर पर होने वाले कुछ प्रसिद्ध कवियों के नाम पर अनेक काल बाँध चलने 
के पहले यह दिखाना आवश्यक है कि प्रत्येक काल-प्रवतंक कवि का यह प्रभाव उसके 
काल में होने वाले सब कवियों में सामान्य रूप से पाया जाता है । 


आधुनिककाल का नामकरण गुक्लजी ने गद्यकाल किया है क्योंकि उनके 
शब्दों में ही 'आधुनिककाल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है । 
इसलिए उसके प्रसार का वर्णन विस्तार के साथ करना पड़ा है ।' 


२ 


आदिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ 
आदिकाल के विविध नामकरण 


हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक रचनाकाल (आदिकाल) के अनेक नामकरण 
थिद्वानों ने किये हैं । इत्य की अखंड परम्परा है, जो बहुत प्राचीनकाल से या 
ऋग्वेद से चली आ रही हे । हिन्दी भाषा में साहित्य रचना की निश्चित प्रवृत्ति सं० 
१०५० के आसपास दिखायी पड़ती है। यही हिन्दी साहित्य का आदिकाल माना 
जाता है । यह भाषा की इष्टि से आदिकाल है, साहित्य की दृष्टि से नहीं । 





¢ 


आचार्य पं० रामचन्द्र गुक्ल ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल का नामकरण 
बीरगाथाकाल किया है । उदको आदिक्ालीन ' हिन्दी साहित्य की बारह पुस्तकें प्राप्त 
हुई, जिसमें चार अपभ्रश की और आठ देशभापा की पुस्तके थीं। इन रचनाओं 
में अधिकांश वोरगाथात्मक होने के कारण गुक्लजी ने इस काल का नामकरण वीर- 
गाथा काल रखा । गुक्लजी ने जैन अपभ्रंश की रचनाओं को धार्मिक मानकर अपनी 
विचार परिधि से बाहर कर दिया--उन्हें साहित्यिक सीमा में नहीं माना । 

शुक्लजी का यह नामकरण उनके बाद प्राप्त हुए अपभ्रश एवं देशभाषा के 
उत्कृष्ट ग्रन्थों फे कारण सन्दिग्य हो गया है। आचाय पं० हुजारीप्रसाद द्विवेदी 
ने हिन्दी भाषा में साहित्यिक रचता के इस प्रारम्भिक काल का नामकरण 
'आदिकाल' करना ही उचित समझा ठे। उनका आधार है कि पं० रामचन्द्र 
शुक्लजी ने जिन जैन रचनाओं को धामिक प्रेरणा से अनुप्राणित मानकर साहित्य की 
परिधि से बाहर निकाल दियां, उनर्मे उच्चकोटि का कवित्व विद्यमान है। दूसरे 
घुबलजी ने मिश्रवन्धुओं द्वारा उल्लिखित तथा अन्य अपञ्र श ग्रन्थों को 'आदिकाल' के 

श्‌ 


त्‌ 


६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
लक्षण निरूपण तथा नामकरण के लिए विवेच्य नहीं समभा था। आज नवीनतम 
खोजों के आधार पर तथा अस्य नवीन उत्कृष्ट अप्र के काव्यग्रन्थ प्राप्त होने से 
शुक्लजी का दृष्टिकोण त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है। इतना ही नहीं, उन्होंने जिन १२ 
ग्रन्थों के आधार पर 'आदिकाल' के नामकरण का प्रयत्न किया, उनमें से कुछ तो 
परवर्तीकाल की रचनाएँ हैं, कुछ नोटिसमात्र हैं और कुछ वीरगाथाओं से रिक्त । अतः 
हुकक्‍लजी का नामकरण उचित नहीं ठहरता । 


(राहुल जी) इस काल का नामकरण 'सिद्ध सामन्त युग! किया किन्तु इस 
` नामकरण के द्वारा भी आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियों का निरूपण भलीभाँति नहीं 


हो सकता । 

महावीरप्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल का लक्षण विवेचन करके इसका नाम 
'बीजवपनकाल' रखा किन्तु यह नाम भी लोकप्रिय न हो सका । 

डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस काल काल का नामकरण आदिकाल' 
रखा भौर इसकाल के लक्षण निरूपण के लिए शुवलजी से भिन्न बारह उत्कृष्ट रच- 
नाओं की चर्चा की है। यही नाम उपयुक्त है, यद्यपि इससे उस काल का स्वरूप एवं 
प्रवृत्तियाँ स्पष्ट नहीं होतीं, किन्तु यह मत त्रुटित नहीं है । 
डिगल भाषा 

डिंगल आर्य परिवार की भाषा है । यह हिन्दी का अविभाज्य अंग्र है। इसमें 
टवं की प्रधानता हैं। इसका प्रचलित रूप मारवाड़ी है जो शौरसेनी अपभ्रश से 
विकसित हुआ है । यह जोधपुर के आसपास की भाषा है। इसमें स्थानीय शब्दों के 
अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, अपभ्न शा अरबी-फारसी-तुर्की आदि के शब्द भी पाये जाते 
हैं । इसमें संस्कृत के तद्भव शब्द, प्राकृत तथा अपश्र'श के शब्द बहुलता से प्रयुक्त 
हुये हैं । 

डिगल में दोहा, कवित्त, रासक, पद्धड़िया आदि छन्दों का प्रयोग अधिक हुआ 
है । इसके उच्चारण की चार विशेषताएं हैं-- 





१. इसमें ल का उच्चारण कहीं-कहीं वेदिक छ के समान होता है । 
२. इसमें तालव्य श और मुर्घन्य ष नहीं हैं । 'ष' का प्रयोग प्राय: 'ख' की 
तरह होता है । 
३. इसमें अनेक शब्दों के उच्चारण में अक्षर विशेष पर जोर दिया 
जाता है । 
४. इपको वर्गमाला में ङ, ऋ लु अक्ष! नहीं है और एक ही 'व' अक्षर 
का उच्चारण दो प्रकार से होता है यथा--वात=हवा, वात== 
कहानी । है 


4 


आदिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ गे 
हिन्दी साहित्य की आदिकालीन प्रवत्तियाँ 


आदिकालीत साहित्य का अध्ययन एवं विश्लेषण करने पर हमें निम्नलिखित 
प्रमुख प्रवृत्तियां लक्षित होती हैं 


चरितकाव्य लिखने की काहाणी प्रथा-- ऐतिहासिक व्यक्तियों के आधार 


पर चरितकाव्य लिखने की काहाणी प्रथा, जसे रासक ग्रन्थ तथा 
विद्यापति की कीतिलता आदि । के 

२. लोकिक रस की रचनाएं लिखने की प्रवृत्त विद्यापति की कीतिपताका 
प्रेम सम्बन्धी कविता है, सन्देशरासक विप्रलंभ शृंगार का मामिक 
काव्य है, इसी प्रकार विद्यापति की पदावली एवं स्वयंभू छन्द आदि 

चताएं लौकिक रस से अनुप्राणित 

३. बौद्ध एवं नाथसिद्धों तथा जैन मुनियों की रूक्ष, उपदेशमूलक, हठयोग 
का प्रचार करने वाली तथा अध्यात्मप्रधान रचनाए--यथा बौद्धगान 
और दोहा, सावयधम्म दोहा तथा पाहड दोहा, परमात्मप्रकाश तथा 
आराधना आदि । 

४. धामिक रचनाएँ जिनमें उच्चकोटि के साहित्य के दर्शन होते हैं, यथा 
भविपशत्तकहा, पउमचरिउ, नेमिनाथ फागु, हरिवंश पुराण, परमात्म- 
प्रकाश आदि । 

५, अन्य फुटकल रचनाएँ--जंसे, अमीर खुमरो की पहेलियां आदि । 

६. चारणकाव्य में वीरत्व का नया स्वर--रासो ग्रन्थों में, जिन्हें वीर- 
याथाएँ नाम दिया है! यह चारण भाटों की प्रभुभक्ति के साथ ही उस 
युग को साहित्यक मनोवृत्तियों का परिचय देता है । 

७. दरवारी मनोवृत्ति की परिचायक राज्याश्रय में पल्लवित वीरगाथाएं 
व्यापक दृष्टिकोण एवं राष्ट्रीय भावना से रहित हैं । 

८. भाषा की हृष्टि से आदिकालीन साहित्य में अपश्र'श से पुरानी हिन्दी 
या ,देशभापा की ओर आने की प्रधृत्ति--आदिकाल में देशभाषा के 
तीन रूप हैं--राजस्थानी मिश्रित अपश्रश्ञ या देशभाषा; मेथिल मिश्रित 
अपञ्रश या देशभापा और राजस्थानी तथा खड़ीबोली मिश्रित अप- 
भ्रंश या देशभाषा । 


चारण-काव्य की प्रमुख विशेषताएं 


न्दी साहित्य के आदिकाल में वीरत्व का एक नवीन स्वर चारण-काव्य में 
सुनाई पड़ा । उस युग में भारत पर विदेशी आक्रमण उत्तर-पश्चिम से प्रारम्भ 


हो गये थे। यह युग आन्तरिक अशान्ति एव बाह्य आक्रमण से संत्रस्त युग 


था । अन्य क्षेत्रों में भी देश अवतति की ओर बढ़ रहा था। इस.युग में युद्ध के 


वातावरण में युद्ध प्रिय वीर राजपूत अपनी प्रशंसा सुनना चाहते थे । अतः चारणों 


~ 








द्द 


भौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


का ध्यान वीरगाथाओं के निर्माण में लगा जिनमें अधिकांशतः उन्होंने अपने आश्रयदाता 
राजाओं की वीरता का गान किया । 
चारणौं के वीरगायात्मक चरितकाव्पों की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-- 


१. 
र 


१०, 


११. 


आश्रयदाता राजाओं को अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा-- 

युद्धों के सुन्दर एबं सजीव वर्णन, कर्कश पदावली एवं युद्ध'स्थल से 
संबद्ध बातों का सजीव एवं रोमहर्षण वर्णन राजस्थानी या डिगल 
प्रधान हिन्दी में हुआ । 

चारण काव्य में वीरत्व का नया स्वर श्रृंगार से पोषित है । उस समय 
स्त्रियाँ ही प्रायः पारस्परिक वैमनस्य एवं संघर्ष का कारण हुआ 
करती थीं । 

चारण काव्य में ऐतिहासिकता को अपेक्षा कल्पना को प्रचुरता है क्योंकि 
चारणों का एकमात्र उद्देश्य अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा करना है । 
वीरगाथाओं में वर्णनात्मकता का प्राधान्य है और भावोन्मेष का अभाव 
होने के कारण वर्णन नीरस हैं । 

वीरगाथाएँ दो रूपों में प्राप्त है-वीरगीतों के रूप में और प्रबन्ध- 
काव्य या चरितकाव्य के रूप में । 

वीरगाथाओं में छन्दों की विविधता श्रोता के चित्त भें प्रसङ्गानुकूल 
नवीन कम्पन उत्पन्न करने वाली है । 

चारणकाव्य में डिगल भाषा अत्यन्त उपयुक्त सिद्ध हुई है । 
चारणकाव्यों के नाम का अन्तिम शब्द 'रासो' अपनी विशेषता रखता 
है । डॉ० हुजारीप्रसाद हिवेदी के अनुसार चारणकाव्य में 'रासो' निश्चित 
रूप से चरितकाव्य का सूचक है जिनमें ऐसी घटनाओं का वर्णन है 
जो शौयंपूर्ण एवं महत्‌ कार्यों की कल्पना से अतिरंजित होकर भव्यता 
का प्रदर्शन करती है । 

चारणकाव्यों में हमें अपश्रश भाषा के काव्यरूपो का विकास तथा 
नये-नये काव्यरूपों को उद्‌भावना दिखाई पड़ती है । इसलिए भक्तिकालीन 
काव्यरूपों को समझने के लिए उसका महत्त्व सिद्ध है । 

चारणकाव्य अपने अधिकृत मूल रूप में प्राप्त नहीं हैं, अतएव विद्वानों 
ने उन्हें अर्ध प्रामाणिक रचना माना है । 


आदिकाल के प्रमुख ग्रन्थ 


हिन्दी साहित्य के आदिकाल का लक्षण निरूपण करने में निम्नलिखित पुस्तकें 
सहायक सिद्ध होती हैँ-- 


१. 


पृथ्वीराज रासो--महाकवि चन्दवरदायी की यह रचता अपनी संदिग्ध 
प्रामाणिकता के कारण विद्वानों में विवादास्पद रही है । 


आदिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ह 
२. पुरमालरासो या आल्ह्खण्ड--जगनिक की यह रचना लोककाव्य के 
रूप में विकसित हुई है, अतः इसका रूप एकदम ही बदल 
गया है । 

विद्यापति की पदावली--यह मैथिली हिन्दी की बड़ी सरस, श्यृंगार एवं 
भक्तिपरक रचना मंथिल कोकिल विद्यापति की कृति है । 

४. कीतिलता- विद्यापति ने अवहद्ु या अपभ्रश या मैथिल अपभ्रश में 
कीतिलता नामक कथाकाव्य की रचना की । उन्होंने इसे काहाणी' 
कहा है । 

५. कीतिपताका--विद्यापति की अपभ्नण भाषा की रचना है । 

६. सन्देशरासक--अब्दुलरहमान की इस रचना की उपलब्धि से शुक्लजी 
का वीरगाथाकाल नामकरण संदिग्ध हो गया है। यह विप्रलम्भ 
श्रृंगार की रचना है । 

७. पउमचरिउ--अपभ्रश के महाकवि स्वयंभू ने पउमचरिउ या रामायण 
की रचना की ॥ _ 

८. भविसयत्तकहा--जैन धनपालकृत यह रचना साहित्यक दृष्टि से उच्च- 
कोटि की है । 

९. परमात्मप्रकाश--जोइन्दु की यह रचना अध्यात्मपरक है 

१०. बौद्धि गान और दोहा--इसका संकलन महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद 
शास्त्री ने किया । 

११. स्वयंभूछन्द--यह स्वयंभू की अपभ्रश की रचना है । 

१२. प्राकृत पंद्गलम्‌--इसके सद्धुलनकर्त्ता लक्ष्मीघर हैं।इस प्रामाणिक 
ग्रन्थ में उद्धृत कविताओं से हमें हिन्दी के आदिकालीन साहित्य का 
मूल स्वरूप दिखाई पड़ता है। 

सन्बेशरासक का परिचय 


यह एक आदिकालीन महान्‌ काव्य है। इसके रचयिता अब्दुलरहमान या 
अद्दहरहमान का समय ग्यारवीं शताब्दी माना गया है । यह अयपश्रश का एक उत्तम 
काव्यग्रन्थ है । 

सन्देशरासक एक लौकिक काव्य है जिसमें एक विरहिणो की विरहगाथा 
का अत्यन्त करुण और माभिक वर्णन हुआ है। विरहिणी नायिका के करुण सन्देश 
की मामिकता को लक्ष्य करके ही इस काव्यग्रन्थ का नामकरण 'सन्देशरासक' किया 
गया है । 

सन्देशरासक में विरहिणी का करुण वर्णत सहृदय के हृदय को सहानुभूति से 
युक्त करने वाला है। इस सन्देश में ऐसी करुणा है जो पाठक को बरबस आक्रुष्ट 
करती है । उपमाएँ अधिकांश में यद्यपि परम्परागत और रूढ़ ही हैं, तथापि बाह्य- 


०८७ 


i मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


वृत्त की वैसी व्यंजना उसमें नहीं हैं जैसी आन्तरिक अनुभूति की । ऋतु-वर्णन के 
प्रसंग में बाह्य-प्रकृति इस रूप में चित्रित नहीं हुई जिससे आन्तरिक अनुभूति की 
ब्यंजना दब जाय । प्रिय के नगर से आने वाले अपरिचित पथिक के प्रति नायिका के 
चित्त में किसी प्रकार फे दुख का भाव नहीं है। बड़े सहज ढङ्ग से अपनी कहानी 
कहती जाती है । सारा वातावरण विश्वास और घरेलूपन का वातावरण है ।' 
>-डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी 
देशरासक अपभ्रश का महान्‌ ग्रन्थ है। इसमें हृदय की मर्म वेदना का 
प्रकाशन है । इसमें पुरानी प्रीति को निखारकर प्रस्तुत किया है। सन्देशरासक के 
परिप्रेक्ष्य में पं रामचन्द्रशुक्ल का 'वीरगाथाकाल' नामकरण अनुचित जान पड़ता 
है। यह ग्रन्थ 'रासो' से भिन्न प्रकृतियों एवं साहित्यिक प्रयत्नों का ही परिचय 
देता है । 
'रासो' से आप क्या समभते हैं ? 
हिन्दी साहित्य के आदिकाल या वीरगाथाकाल में हमें रासो ग्रन्थों की परम्परा 
मिलती है । रासो का मूल आचार्य रामचन्द्रशुक्ल ने 'रसायण' शब्द साना है। यह 
शब्द बीसलदेवरासो में आया हे । इस प्रकार रसायण से रासो शब्द बन गया । 
नरोत्तम स्वामी के अनुसार रासो शब्द की व्युत्पत्ति 'रसिक' शब्द से 
जिसका अर्थ प्राचीन राजस्थानी भाषा के अनुसार 'कथाकाव्य' होता है 
ब्रजभाषा में 'रासो शब्द भेगडे (रासा) के अर्थ में आज भी प्रचलित है । 
'रासो' के रासउ' भोर 'रासा' रूप भी मिलते हें । चन्द्रवली पाण्डेय ने 
रासो को उत्पत्ति 'रासक' (रूपक या उपरूपक) से मानते हैं । उन्होंने प्रथ्वीराजरासो 
के प्रारम्भ करने के ढङ्ग का हवाला दिया है, यह रूपक ढङ्ग का काब्य हे । 
डाँ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रासो की उत्पत्ति 'रासक' से मानते हए इसे 
रूपक का भेद तथा छन्द का भी भेद माना हैं । 
हरिवल्लभ भायाणी ने सन्देशरासक के आधार पर 'रासक' छन्द और काव्य- 
रूप का विवेचन किया है । 
निष्कर्ष--डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'रासो' परम्परा का तात्पर्य आदिकाल 
में राजस्थानो भाषा में रचित चारण कवियों के चरितकाव्यो से लिया है। 'रासो? 
नामधारी चरितकाव्यों की सामान्य विशेषता ऐसी घटनाओं का वर्णन है जिनका 
ऐतिहासिक महत्त्व हो तथा जिसमें कथा चमत्कार एवं शौर्यपूर्ण महतकायो की 
कल्पना से अतिरंजित होकर बड़ी ममता का प्रदर्शन करती हो । 


पृथ्वीराज रासो-संक्षिप्त परिचय 
यह ढाई हजार पृष्ठों का विशालतम काव्य है। इसमें ६६ समय या सर्गं या 


अध्याय हैं । इसमें कवित्त, छप्पय, दूहा, तोमर, त्रोटक गाहा और आर्या आदि प्रमुख 
छुच्दों का प्रयोग हुआ है । 


“0५ 





> 


आदिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ११ 


इसका उत्तराद्ध चन्दबरदाई के सुपुत्र जह्लण की रचना माना जाता है । 

इसम आदु के यज्ञकुण्ड से चार क्षत्रियों को उत्पत्ति की कथा है । अजमेर में 
चौहानों के राजस्थापन से लेकर पृथ्वीराज चौहान का मोहम्मद गोरी के द्वारा पकड़ा 
जाना एवं वध होना वर्णित है। इसकी प्रधान कथा पृथ्वीराज के उत्तरकालीन जीवन 
से तथा उसके पराक्रम एवं श्रृंगार से सम्बन्धित है । 

आरम्भ म पृथ्वीराज के जन्म की कथा तथा जयचन्द से उसके वैमनस्य का 
वर्णन है । इन दोनों का वैमनस्य संयोगिता के स्वयंवर में पृथ्वीराज का वरण होने 
भे बढ़ जाता हे । जयचन्द और पृथ्वीराज में भीषण युद्ध होता है। अन्त में पृथ्वीराज 
संयोगिता का अपहरण कर दिल्ली ले आता है। 

पृथ्वीराज संयोगिता के साथ भोग विलास में डूब जाता है, इसी समय 

बुद्दीन गौरी दिल्ली पर आक्रमण करता है। उसे पृथ्वीराज पहले ग्यारह बार 
हरा देता है, अन्तिम आक्रमण में वह विजयी होकर पृथ्वीराज को गजनी ले जाता 
हे और आँखें निकालकर जेल में डाल देता है । चन्द भी वहाँ पहुँचकर शहाबुद्दीन को 
काव्य-काशल से प्रसन्न कर पृथ्वीराज से मिलते हैं और शब्दवेधो बाण से शाह के वध 
का संकेत करते हैं । पृथ्वीराज शहाबुद्दीन का वध करता है और अन्त में चन्द और 
पृथ्वीराज परस्पर कटार मारकर मर जाते हैं । 


रासो में प्रबस्धात्सकता 


ह 


५ 


न्दबरदायी का पृथ्वीराजरासो एक विशालकाय महाकाव्य है। इसमें 
मूलकथा के साथ विभिन्न कथाओं के विकास में भी रासोकार की प्रबन्ध कशलता 


देखी जा सकती है । कथा-प्रवाह में रासोकार ने कथानक के अनुभूतिपूर्ण मामिक 
स्थलों को भी परखा है। 


“~ 


१. रासों में अनेक अवान्तर घटनाएँ होने पर भी उनमें एकसुत्रता और 
प्रबन्ध कौशल है । 

२. कवि की दृष्टि नायक के जीवन की प्रारम्भिक कथा की अपेक्षा अन्तिम 
जीवन पर अधिक रही है। अतः नायक के पूर्व जीवन की घटनाओं 
का संकेत मात्र या संक्षिप्त वर्णन है । 

३. पृथ्वीराज रासों में चार घटनाएँ प्रधान हैं जिनसे नायक के शौय का 
परिचय मिलता है । ये घटनाएँ इस प्रकार हैं--कयमास वध, पृथ्वी राज 
जयचन्द युद्ध, शहाबुद्दीन-पृथ्वीराज युद्ध तथा शहाबुद्दीत-पृथ्वीराज का 
अन्त । इन चारों घटनाओं को एकसूत्र में मिलाकर कवि ने अपने 
प्रबन्ध कौशल का परिचय दिया है । 

४. अवान्तर घटनाओं के अतिरिक्त जो वस्तु-वर्णन के रूप में प्रसंग आए 
हैं उतका सम्बन्ध नायक पृथ्वीराज चौहान से बराबर बता रहता है। 

५. कवि ने अत्यन्त मामिक प्रसंगों का समावेश करके कथा को रोचक 


१३ मौखिक-प्ररीक्षा पथप्रदशिकां 


बनाया है । ऐसे भावपूर्ण वर्णन कथानक को शिथिल नहीं होने देते, यह 
उसका प्रबन्ध-कौशल हे । 

६. रासो में कथा-प्रवाह और प्रबन्ध कौशल दोनों हैं । अवान्तर घटनाएँ 
मुख्य कथानक से अनुस्युत हैं । 


क्रयमास वध 

चंदबरदाई के सुप्रसिद्ध महाकाव्य (पृथ्वीराज रासो' की एक अवान्तर घटना 
'कयमास वध' है । कयमास पृथ्वीराज चौहान का प्रधानामात्य था। पृथ्वीराज के 
वन में आखेट शिविर में रहने की अवधि में 'कयमास' ही राजधानी से शासन सूत्र 
का संचालन करता था | कयमास अत्यन्त वीर एवं पराक्रमी था किन्तु अधिकार 
सत्ता पाकर वह कर्त्तव्यविमुख होकर अन्तःपुर की करनाटकी दासी के आकर्षण में 
फँसकर चरित्र भ्रष्ट हो जाता है । इसके उपरान्त पृथ्वीराज उसका वध करते हैं। 
'कयमास वध' के बाद कथानक में सती होने को उद्यत उसकी पत्नी का प्रसंग चलता 
है, जिसमें कवि ने जीवन और मृत्यु का दार्शनिक ढंग से विवेचन किया है । जीवन 
की नश्वरता पर भी दृष्टिपात किया है । 

'कयमास वध' इस अंश में कथानक का केन्द्र बिन्दु कयमास होने के कारण 
वही इस अंश का नायक है, वैसे सम्पूर्ण महाकाव्य का नायक पृथ्वीराज चौहान है । 
कयमास वध की प्रसुख घटनाएं एवं वेशिष्द्य 

एम० ए० हिन्दी के पाठ्यक्रम, में चतुर्थ प्रश्नपत्र प्राचीन कवियों के अन्तर्गत 
पृथ्वीराज रासो' महाकाव्य के अन्तर्गत ४३ छुन्दों के एक लघु सर्ग 'कयभास वध! 
को निर्धारित किया है । इस काव्य में पृथ्वीराज चौहान द्वारा अपने प्रधानामात्य 
कयमास के वध की घटना का वर्णन है। काव्यसोष्ठव के विभिन्न पक्षों की दृष्टि से 
इस 'समय' (सर्ग) (कयमास वध) में रासोकार की प्रतिभा का पूर्ण रूप से विकास 
हुआ है । इसमें रोद्र रस प्रधान है । इसमें अन्य रस रोद्र रस के सहायक हैं । 
पृथ्वीराज के हृदय में स्थायीभाव के रूप में 'उत्साह्‌' विराजमान है । इसमें वीरभावों 
की अत्यन्त सुन्दर अभिब्यक्ति हुई है और कहीं-कहीं कोमल कल्पनाओं और मनो- 
हारिणी उतक्तियों से इसमें अद्‌भुत चमत्कार आ गया है । 

कयमास वघ की प्रमुख घटनाएँ इस प्रकार हैं--- 

१. पृथ्वीराज द्वारा कयमास के ऊपर शासन का भार छोड़कर आखेट में 

मन बहलाना । 

२. राजसत्ता के मद में कयमास का कत्तंव्यच्युत हो भोग विलास में लिप्त 

होना । 

३. पृथ्वीराज को इस सूचना का मिलना और उसका चुपचाप आकर 

रतिक्रीड़ा में लिप्त कयमास का वध करके पुनः आखेट को लोट 
जाना । 


आदिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ १३ 


४. दूसरे दिन प्रातःकाल पृथ्वीराज का लौटना, कयमास के सम्बन्ध में 
पूछना, चन्द के द्वारा सरस्वती से इस हाल को सुनना और राजसभा 
में रहस्य प्रकट करना । 

५. कयमास की स्त्री का विलाप एवं सती होना । 

६. चन्द के साथ पृथ्वीराज का कन्नौज जाकर जयचन्द की भूमि में रण- 
नृत्य करने का निश्चय । 

इस 'समय' (सर्ग) में चन्द ने सरस्वती के रूप का नख सिख वर्णन विशेष 

उत्साह से किया है । इसमें प्रकृति वर्णन पृष्ठभूमि और उपमान के रूप में आया है । 
अनुप्रास और उलेक्षा आदि अलंकारों का सुन्दर संयोजन है । इसकी भाषा भावानुः 
कूल है । इसमें रौद्र रस है तथा वीर, भयानक, करुण और श्रृंगार रस उसे उद्दीप्त 
करने सहायक रूप में आए हैं । 

पृथ्वीराज चौहान का चरित्रिक विकास 


पृथ्वीराज रासो' में महाकवि चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान को धीरोदात्त 
नायक के खप में प्रस्तुत किया है । यद्यपि महाकाव्य के अन्त में उसका अन्त हो 
गया है किन्तु वह अन तगौरवमय है । 

१. पृथ्वीराज इस महाकाव्य के नायक हैं और इसमे उनकी बाल क्रीड़ा से 
उनके आत्मोत्सगं तक का चरित्र चित्रित हुआ है। 

२. पृथ्वीराज महान्‌ वीर एवं संघर्षशील है । वह उदात्त चरित्र वाले हैं। 
उन्होंने अनेक विवाह किए, अनेक युद्ध जीते, अनेक बार शत्रुओं को 
क्षमा किया और अन्त में शहाबुद्दीन को शब्दभेदी बाण से मारकर 
मृत्यु को वरण क्रिया । 

३. पृथ्वीराज महान्‌ धेर्यवान, साथ ही विनयशील हैं । वह अपने सामन्त 
और सेनापतियों तथा कवि चन्द का भी सम्मान करते हैं । 

४. कर्तव्य पालन की भावना तो पृथ्वीराज में कूट-कूट कर भरी है। वह 
कयमास का कर्त्तव्य उल्लंघन पर वध करते हैं। शहाबुद्दीन की सेना 
से लोहा लेने के लिए संयोगिता के रोकने पर भी चल पड़ते हैं। वे 
साहस और शोयं और ककत्तंव्यशीलता की साक्षात्‌ मूर्ति हैं । 


पृथ्वीर जरासो की प्रामाणिकता 


पृथ्वी राज रासो का प्रकाशन रॉयल एशियाटिक सोसायटी के द्वारा हो रहा 
था, तभी डॉ० वुलर के हाथ “पृथ्वीराज विजय” नामक ग्रन्थ की प्रति लगी । उसमें 
दिए हुए तथ्य इतिहास की कसौटी पर खरे उतरे और चन्द कवि के पृथ्वीराज रासो 
में ऐतिहासिक त्र टियाँ प्रतीत हुई और तभी से इसकी प्रामाणिकता विवादास्पद 
ब्रन गई । 


१४ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 

महाकवि चन्दबरदायी का पृथ्वीराज रासो हिन्दी के आदिकाल का महत्त्वपूर्ण 
ग्रन्थ माना जाता है। चन्द ने अपने को पृथ्वीराज चौहान का मित्र एवं दरबारी 
कवि लिखा है । उसने पृथ्वीराज के जीवनचरित की जो घटनाएँ" एवं महत्त्वपूर्ण 
बातें प्रस्तुत कीं, वह इतिहास की कसौटी पर त्रुटिपूर्ण प्रतीत होती हैं। गोरीशंकर 
हीराचन्द ओझा ने रासो की ऐतिहासिक त्रुटियों को खोज निकाला और उसे पूर्णतया 
परवर्ती ग्रन्थ सिद्ध किया । ओभाजी के अतिरिक्त डॉ० वुलर, मारिसन, मुशी देवी- 
प्रसाद आदि विद्वानों ने भी इसे अप्रामाणिक माना है । 

डॉ० श्यामयुम्दरदास, मथुराप्रसाद दीक्षित, मिश्रवन्धु, पं० मोहनलाल विष्णु 
लाल पण्ड्याजी आदि विद्वान विभिन्‍न तर्क देकर पृथ्वीराज रासो को प्रामाणिक ग्रन्थ 
सिद्ध करते हैं। उनका कहना यह है कि सम्प्रति उपलब्ध पृथ्वीराज रासो प्रक्षिप्त 
अंशो से भरा है, अतः उसमें त्रु टियाँ दिखाई पड़ती हैं। इसके चार संस्करण मिलते 
हैं । लघुतम कृति ही मूल रासो है। 

डाँ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसे अद्ध प्रामाणिक रचना माना हे । रासो का 
लघुतम पाठ अभी तक अप्रकाशित है । लघु पाठ में भी कुछ त्रुटियाँ रह जाती हैं । 
अतः उसे बारहवीं शती की रचना नहीं मान सकते। यह पूर्ण ग्रन्थ जाली नहीं है 
किन्तु इसमें बहुत कुछ प्रक्षिप्त अंश सम्मिलित हो गया है। 

पृथ्वीराज 'रासो का अध्ययन करने के बाद नवीं और दसवीं शताब्दी में 
प्रचलित कथाओं के लक्षण और काब्यरूपों को ध्यान में रखकर देखने से ऐसा लगता 
है कि यद्यपि चन्द के मूल वचनों को खोज लेना अब भी कठिन है किन्तु उसमें हथा- 
क्या वस्तुए और कौन-कौन सी कथाएं थीं, इस बात का पता लगा लेना उतना 
कठिन नहीं है ॥--डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी । 

डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी मुल रासो को बारहवीं शती की रचना मानते हैं 
क्योंकि भाषाशास्त्र की हृष्टि से इसमें ग्राम्य अपश्र'श (अधिक अग्रसर हुई भाषा) का 
रूप मिलता है । रासो एक चरितकाब्य तो है ही, वह 'रासो' या 'रासक' काब्य भी 
है । पूर्ववर्ती अपभ्र शके चरित-काव्यो में इसकी परम्परा हू ढी जा सकती है। 

रासो एक काव्यग्रन्ध है, इतिहास ग्रन्थ नहीं। फिर भी उसके निर्माणकांल 
की समस्या तभी हल होगी जब रासो के मूल रूप का निर्धारण हो जाय । 


ढोला मारू रा दृहा 


कुशललाभ कवि की राजस्थानी भाषा में प्रेम कथात्मक रचना 'ढोला मारू 
रा दूहा' का रचनाकाल नरोत्तम स्वामी ने संवत्‌ १४५० से पूर्व माना है। यह 
अत्यन्त लोकप्रिय काव्य रहा है। 

इसमें नरवर के राजकुमार ढोला और पूंगल देश की राजकुमारी मारवणी 
की प्रणय कथा को प्रस्तुत किया है । डोला और मारवणी का विवाह बाल्यकाल में 
ही सम्पन्न हो चुका था किन्तु यौवनावस्था से पूर्व दोनों का मिलन न हो सका । इसी 





आदिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ १५ 


बीच ढोला का मालवणी के साथ दूसरा विवाह हो जाता है। मारवणी एक दिन 
स्वप्न में ढोला को देखकर उसके विरह में व्याकुल हो उठती है तथा उसके पास 
विरह सन्देश भे जती है जिसे सुकर ढोला भी उसके प्रेम में दिवाना होकर मालवणी 
के रोकने पर भी ऊट पर सवार होकर मारवणी के पाम चल देता है । पृगल देश में 
उसका स्वागत होता है और वह मारवणी को बिदा कराकर घर वापिस चल पड़ता 
है किन्तु मार्ग में सर्पदंश से मारवणी की मृत्यु हो जाती है। डोला की प्रार्थना पर 
शिव-पार्वती की कुपा से वह पुनः जीवित हो उठती है । तदुपरान्त ढोला उसे लेकर 
घर पहुंचता है और दोनों पत्नियों के साथ सुखपुर्वक जीवन बिताता है ।' 

इस काव्य में मारवणी का विरह वर्णन एवं प्रेम सन्देश अत्यन्त मामिक है। 
भादिकालीन सिद्धों और योगियों की काव्यधारा 
हन्दी साहित्य के आदिकाल में हमें बिभिन्न प्रकार का साहित्य मिलता है । आदि- 
काल में चारणों मे वीरगाथाओं का सृजन किया, जैन कवियों ने धमं प्रधान साहित्य 
की रचना की तो नाथपंथी सिद्ध और योगियों ने अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तो का 
दिग्दर्शन कराने वाले साधनापरक साहित्य का निर्माण किया । 

सिद्ध साहित्य में साधना की प्रधानता है और पारिभाषिक पदावली के कारण 
विशेष जटिलता आ गई है । कहीं-कहीं सरस एवं उत्तम साहित्य के दर्शन भी होते 
हैं । सिद्धों ने काव्य के माध्यम से अपनी साधनात्मक चर्या एवं सिद्धान्तों का निरूपण 
किया है । 

सिद्ध साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हँ 

१. अन्तस्साधना पर जोर तथा पण्डितों को फटकार तथा शास्त्रीय मागं 
का खण्डन करके स्वच्छन्द मार्ग का समर्थन । 
दक्षिण मार्ग छोड़कर वाममार्गीय प्रवृत्तियों को अपनाने का उपदेश । 
वारूणी से प्रेरित अन्तमु'खी साधना के महत्त्व का निरूपण । 
४. संध्या भाषा या उलटबांसी के रूप में अपनी रचना प्रस्तुत करना ! 

ह अटपटी वाणी सम्प्रदाय के पारिभाषिक प्रतीकों से युक्त होने के 
कारण सभी को सहज में बोधगम्य नहीं है। 

५. तांत्रिक साधना का निरूपण तथा मद्य एवं स्त्रियों के अबाध सेवन के 
महत्त्व का प्रतिपादन । 
इनकी भाषा देशभाषा या लोकभाषा या पुरानी हिन्दी है जिस पर 
अपञ्नश का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है। इसमें पूर्वी प्रयोगों 
का बाहुल्य है । इसे विद्वानों ने साहित्यिक अपञ्र'श कहा है। 
अपश्च श साहित्य 

अपश्र'श भाषा हिन्दी की पूर्ववर्ती भाषा है । आचार्ये पं० रामचन्द्र शुक्ल 
तथा अन्य हिन्दी साहित्य के इतिहासकारो ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल का 


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१६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदर्शिका 


विवेचन करते हए कछ अपभ्रश की रचनाओं को भी लिया है । विद्वानों ने हिन्दी के 
विकास में अपभ्रश के योगदान का भी अनुसन्धान किया है । अपश्रश साहित्य का 
महत्त्व इस बात में है कि--- 
१, अपभ्रश की रचनाओं से उस काल की भाषागत परिस्थितियों एवं 
प्रवृत्तियों का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। 
२. अपभ्रश साहित्य के अध्ययन से हिन्दी के आदिकालीन साहित्य के 
काव्यरूपों को समभने में भी सहायता मिलती है । 
अपभ्र'श साहित्य स्थूल तौर पर दो प्रकार का है 
() जैन अपभ्रश साहित्य 
(7) जेनेतर अपभ्रश साहित्य 
जैन अपश्रश साहित्य का महत्त्व दो कारणों से विशेष है--एक तो यह 
साहित्य धामिक आश्रय पाकर अपने मूल एवं प्रामाणिक रूप मै आज भी उपलब्ध 
है । दूसरे इस साहित्य से हमें तत्कालीन परिस्थिति एवं परवर्ती लोकभाषा के काव्य- 
रूपों के उद्भव एवं विकास को समभने में सहायता मिलती हे । 
जैनेतर अपभ्रश साहित्य का भी महत्त्व है। जनेतर अपञ्चश रचनाएँ 'बोद्ध 
गान और दोहा' के नाम से प्रकाशित हुई हैं । विद्यापति की कीतिलता की भाषा 
मैथिली मिश्रित अपञ्नश है। जेनेतर अपभ्रश साहित्य की दो अन्य महत्त्वपूर्ण 
रचनाएँ ये हैं--ढोला मारू रा दृहा तथा प्राकृत पैगलस्‌ । जंनेतर अपञ्चश साहित्य 
का संकलन राहुलजी ने अपनी “हिन्दी काव्यधारा' में किया है । 


अपभ्र श का रास-साहित्य- हिन्दी के प्रथम महाकवि स्वयंभू 


स्वयंभु कृत पउमचरिउ--स्वयंभू को अव हिन्दी साहित्य के विद्वान्‌ इतिहास- 
कारों ने हिन्दी का सर्वप्रथम महाकवि स्वीकार कर लिया है । पं० रामचन्द्र शुक्ल ने 
इस तथ्य को नजरन्दाज करके अपने साहित्य के इतिहास में हिन्दी साहित्य के 
आदिकाल का नामकरण वीरगाथाकाल किया किन्तु आधुनिक शोध एवं अनुसन्धान 
के आलोक में शुक्लजी का नामकरण विद्वानों द्वारा अनुचित सिद्ध कर दिया गया है । 
पद्मभूषण आचायं डॉ० हजारीप्रसाद ने इस काल का नामकरण आदिकाल' रखना 
ही उचित समझा क्योंकि यह काल विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों का रचनाकाल है । 
जैन काव्यकारों का हिन्दी के विकास में कितना जबर्दस्त सहयोग है, यह स्वयंभूकृत 
पउमचरिउ से ही सिद्ध हो जाता है । 


स्थितिकाल--स्वयंभू ने रामकथा को पउमचरिउ के नाम से अपभ्रश भाषा 
में प्रस्तुत किया । पउमचरिउ की रचना आठवीं शताब्दी ईसवी में हुई । स्वयंभू ने 
जिनसेनाचाय (६५० ई०) की चर्चा को है और पुष्पदम्त (९५९ ई०) ने स्वयंभू की 
चर्चा की है। इस प्रकार स्वयंभू का समय आठवीं शती सिद्ध होता है । 


आदिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ १७ 

पउमचरिउ--स्वयंभू का पउमचरिउ हिन्दी साहित्य का प्रथम महाकाव्य है । 
चंदबरदायी के पृथ्वीराज रासो को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य कहना एक भारी भूल 
सिद्ध हुई क्योंकि पृथ्वीराजरासो की प्रामाणिकता संदिग्ध है, दूसरे उनसे पूर्व ही 
स्वयंभू ने एक महान्‌ काव्य प्रस्तुत किया, जिसकी चर्चा गोस्वामी तुलसीदास ने अपने 
रामचरितमानस में जे प्राकृत कवि परम सयाने' कहकर अत्यन्त आदरपूर्वक की 
है, दुर्भाग्य से हम हिन्दी के उस महान्‌ कवि को भूले हुये हैं। हिन्दो के उस महान्‌ 
कवि के काव्य सौष्ठव की समीक्षा अत्यन्त आवश्यक है । पउमचरिउ धार्मिक कथा 
का साहित्यिक प्रकाशन है । 

डॉ० अमरपालसिह ने अपने शोध प्रबन्ध 'तुलसो से पूर्व रामसाहित्य' में 
स्वयंभु के संबंध में लिखा है 'स्वयंभू की गणना देश के महान्‌ कवियों में की जा 
सकती है । उनकी रचना अत्यन्त प्रौढ एवं प्रांजल है । इतनी प्रौढ रचना भाषा की 
आरम्भिक स्थिति में सम्भव नहीं प्रतीत होती । ऐसा जान पड़ता है कि अपभ्रश की 
काव्य परम्परा पहले से उन्नत थी और स्वयंभू की रचनाओं में उसका विशेष उत्कर्ष 
हुआ । स्वयंभू ने अपनी रचना में अपने से पूवं के भद्र, चतुमुख आदि कवियों का 
उल्लेख किया है, किन्तु इनकी रचनाएं उपलब्ध नहीं हैं ।' 

स्वयंभू से पूर्वं अपश्रश काव्य की एक निश्चित एवं सुदृढ़ परम्परा रही है 
किन्तु समय के प्रवाह से वे ग्रन्थ नष्ट हो गए । अपश्रश की रचनाएँ ५०० ई० से 
मिलती हैं, यद्यपि अपश्रश भाषा का प्रारम्भ महषि पतंजलि (ईसा पूर्व दूसरी 
शताब्दी) से भी पूर्व हो चुका था । दुर्भाग्य से ईसापूर्व पाचवीं शती से ईसवी पाचवीं 
शती तक के अपभ्र श साहित्य की रचनाएँ अभी तक प्राप्त नहीं हुई हैं, किन्तु जसा 
कि स्वयंभू ने भद्र और चतुमु ख आदि अपभ्रश के कवियों की चर्चा की है, निश्‍चय 
ही स्वयंभू से पूवं अपश्रश काव्य की बहुत प्राचीन परम्परा रही होगी जिसका उत्कर्ष 
पउमचरिउ में मिलता है। 

रचनाएं-स्वरयंभू महाकवि की तीन रचनाएं उपलब्ध हुई हैँ-पउमचरिउ, 
रिट्ठणेमि चरिउ और स्वयंभू छन्द । पउमचरिउ रामकथा का, रिट्ठणेमिचरिउ कृष्ण 
कथा का एवं स्वयंभु छन्द एक संकलित काब्यग्रन्थ है । स्वयंभू की कुछ ओर रचनाएं 
भी कही जाती हैं किन्तु वे उपलब्ध नहीं होती । उनके तीन अज्ञात ग्रन्थों के नाम का 
उल्लेख मिलता है--पुद्धयचरिउ, पंचमीचरिउ और स्वयंभू व्याकरण । 

परिचय--स्वयंभु के पिता का नाम मास्तदेव, माँ का पद्मिनी तथा पुत्र का 
त्रिभुवन था । उनका शरीर दुबला-पतला था, उनकी नाक चपटी थी तथा दाँत विरल 
थे । उनकी दो पत्नियाँ थों--अमृताम्वा और आदित्याम्बा । वे दोनों विदुषी एवं स्वयंभू 





१. सिंधी जेन शास्त्रशिक्षापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई से प्रकाशित, सम्पादक 
डॉ० हरिवल्लभ चूनीलाल भायाणी । 
२ 


१८ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


की काव्यसाधना में सहायक थीं । स्वयंभू ने पउमचरिउ के विद्याधर काण्ड और 
झयोष्याकाण्ड फे अन्त की पुष्पिकाओं में इनका उल्लेख किया हे । स्वयंभू के जन्म 
स्थान भादि के संबंध में अनुमान है कि वे दक्षिण के थे। उनके विरुद कविराज 
चक्रवर्ती, छन्दश चूडामणि आदि थे । ये छन्द-अलंकारशास्त्र एवं व्याकरण के 
विद्वान थे । 

व्यक्तित्व-स्वयंभू महाकवि कालिदास की भांति विनय और प्रबोध के कवि 
थे । उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कवियों को महान्‌ कवि कहकर ससम्मान उनका स्मरण किया 
है । उन्होंने आत्मनिवेदन भी किया है कि मुभसे बड़ा कुकवि नहीं, मुझे व्याकरण, 
महाकाव्य और नाट्य का ज्ञान नहीं है । उन्होंने कवि परम्परानुसार सज्जन-दुर्जन 
स्तुति की है । तुलसीदासजी ने भी इसी परम्परा के अनुसार मानस में आत्मविनय, 
संत और खलों की स्तुति की है । 

ग्रन्थ का स्वरूप--ग्रन्थारम्भ में स्वयंभू ने जँनधर्म के प्रवर्तक प्रथम तीथंडू-र 
ऋषभदेव की अत्यन्त काव्यात्सक वन्दना की है, देखिए-- 

णह णब-कमल~कोबल-॥णहर-वर-बहल-कान्ति-सो हिल्लं । 
उसहस्स पाय-कमल सुरासुर-वन्दियं सिरसा ॥ 
दीहर-समास - णालं सहु - दलं अत्थ - केसरुग्घवियं । 
बुह - महुयर - पीव - रसं सयस्भु-कव्वुपल॑ जय ?। 

“नवकमल की भाँति कोमल, मनोहर ओर उत्तम घनकान्ति से शोभित, 
सुरासुर वंदित श्री ऋषभ जिन के चरण कमलों को मैं शिरसा नमस्कार करता हूँ । 
स्वयंभु कृत काव्योत्पल जयशील हो, दोघे समास इसके मृणाल हैं, शब्द कमल दल 
हैं। अर्थरूपी केसर से यह सुवासित है ओर बुधजन रूपी भ्रमर इसका रसपान 
करते हैं ।” 

स्वयंभू ने ऋषभ-वन्दन के अनन्तर गुरु परमेष्ठी को नमस्कार करने के 
पश्चात्‌ चौबीस परम जिनों की वन्दना की है स्वयंभू कवि अपने आपको रामायण 
काव्य के माध्यम से व्यक्त करता है-- 

इय चउबीस वि परम-जिण पणवेष्पिणु भावें । 
पुणु अप्पाणउ पायडमि रामायण कावें॥ 

पउमचरिउ में ब्राह्मण रामकथा के प्रति शंका व्यक्त करते हुए ज॑न परम्परा 
से रामकथा की अभिव्यक्ति की है। जिन शासन में जैसी रामकथा है, वेसी स्वयंभू 
ने प्रस्तुत की है । उनकी कथा प्राकृत जैन कवि विमलसूरि की परम्परा में है । 
स्वयं और तुलसीदास 

हिन्दी रामभक्तिशाखा के महान्‌ कवि प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदास 
ने जिन प्राकृत कवियों के रामकाव्यों का अध्ययन करके उनसे कुछ रूढ़ियाँ 
ग्रहण की, उन्हें समझने के लिए हमें प्राकत और अपभ्रंश के जैन राम-साहित्य 
का अध्ययन करना आवश्यक है । वाल्मीकि रामायण में प्रारम्भ में गुरुवन्दन, 


आदिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ १६ 
सज्जन-दुर्जन स्तुति आदि नहीं मिलतीं । ऐसी परम्परा प्राकृत और अपभ्रश जैन राम- 
साहिँत्य में प्राप्त होती है । स्वयंभू (अष्टम शती ईसवी) ने अपने काव्य में प्राकृत की 
परम्परा को प्रस्तुत किया और उसको तुलसीदासजी ने भी अपनाया । उनका रामचरित- 
मानस तो 'नानापुराणनिगमागम सम्मत' के अतिरिक्त क्वचिदन्योपि' (प्राकृत-अपभ्र'श 
रामसाहित्य) भी है । पउमचरिउ में स्वयंभू ने रामकथा की तुलना सरिता से करते 
हुए साङ्गरूपक के द्वारा उसका पूणंरूप प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी 
बालक्राण्ड में रामकथा का सरोवर और सरिता के रूप में (दोहा ३६ से ४१ तक) 
वर्णन किया है 

चली सुभग कविता सरिता सो । राम विमल जसजल भरिता सो। 

निबिवाद रूप से पूर्वं परम्परा का अनुकरण है यद्यपि तुलसीदासजी ने 
साङ्गछपक का विधान अपने ढङ्ग से किया है ! इस प्रकार यदि भक्तिकालीन हिन्दी 
साहित्य की प्रवृत्तियों को भली-भाँति समझना है तो हमें प्रयेवर्ती प्राकृत और अपञ्र श 
साहित्य का सूक्ष्म अध्ययन करना होगा । इसी प्रकार तुलसीदास के रामचरितमानस 
के अध्ययन के लिए तुलसी पूर्व रामकाव्य का अध्ययन एवं उसका तुलसीदास पर 
प्रभाव निरूपित करना भी आवश्यक है । तुलसीदास तो महान्‌ थे, उनका आत्मविनय 
तो अद्भुत है । उन्होंने तो 'प्राकृत कवियों' को परम सयाने कहा है । अतः उन 
सयाने कवियों के काव्य का अध्ययन करके हमें भी अपना सयानापन दिखाना चाहिये 
डॉ० अमरपालसिह ने स्वयंभू और तुलसीदास का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए लिखा 
है--'स्वयंभू लोकभाषा के कवि थे, ठीक उसी प्रकार जेसे गोस्वामी तुलसीदास लग- 
भग आठ शतक पश्चात्‌ लोकप्रचलित भाषा के समर्थ कवि हुए । स्वयंभु और गोस्वामी 
तुलसीदास की दार्शनिक मान्यताएँ भिन्न थीं फिर भी काव्य-रचना में दोनों महा- 
कवियों में समानताएँ भी दिखाई देती हैं। दोनों ने लोकभाषा में रचना की। 
अपने-अपने घमं की परम्परा का दोनों कवियों ने रचनाओं में समावेश किया और 
दोनों ने लोकमंगल की कामना से काव्य का सूजन किया । गोस्वामी तुलसीदास 
सम्भवतः स्वयंभू की रचना से परिचित थे ।' 


आदिकाल के महान्‌ कवि योगीन्दु या जोइन्दु 


योगीन्दु (जोइन्दु की निम्नलिखित रचनाएँ परम्परा से मानी जाती हैं-- 
१--परमात्मप्रकाश (अपभ्र श) २--नौकार श्रावकाचार (अप०) या सावयधम्मदोहा 
३--योगसार (अप०) ४-अध्यात्मसंदोह (संस्कृत) । इनके अतिरिक्त तीन और ग्रन्थ 
योगीन्द्र के नाम पर प्रकाश में आ चुके हैं--एक दोहापाहुड़ (भपभ्न श), दूसरा अमृता- 
शीति (संस्कृत) और तीसरा निजात्माष्टक (प्राकृत) । 

परुमात्मप्रकाश' अप्र श का महान्‌ ग्रन्थ है। यह एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है । 
इसमें जैन दर्शन और अध्यात्म की मामिक चर्चा है। प्रारम्भ के सात दोहो में पंच- 
परमेष्ठी को नमस्कार किया गया है । फिर तीन दोहों में ग्रन्थ की उत्थानिका है । 





२० मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


पाँच में बहिरात्मा, अन्तरात्मा ओर परमात्मा का स्वरूप बताया गया है । इसके बाद 
दस दोहों में विकल परमात्मा का स्वरूप आता है । पाँच क्षेपकों सहित चौबीस दोहों 
में सकल परमात्मा का वर्णन है । छः दोहों में जीव के स्वशरीर-प्रमाण की चर्चा है। 
फिर द्रव्य, गुण, पर्याय, कर्म, निश्चय, सम्यग्हष्टि, मिथ्यात्व आदि की चर्चा है । दुसरे 
भधिकार में, प्रारम्भ के दस दोहों में मोक्ष का स्वरूप, एक में मोक्ष का फल, उन्नीस 
में निश्चय और व्यवहार मागं, तथा आठ में अभेदरत्नत्रय का वर्णन हे । इसके बाद 
चौदह में समभाव की, चौदह दोहों में पुण्य-पाप की समानता की और इकतालीम 
दोहों में शुद्धोपयोग के स्वरूप की चर्चा है। अन्त में परमसमाधि का कथन है । 
परमात्मप्रकाश में योगीन्दु ने पुण्य को विनाश का कारण बताया है बयोंकि-- 
पुण्णेण होइ बिइवो विहवेणमओ मएण मइ-मोहो । 
मइ-मोहेण य पाव॑ ता पुण्णं अस्ह मा होउ ॥ ६० ॥ 
अर्थात्‌, पुण्य से घर में धन होता है, और घन से अभिमान । मान से बुद्धि-भ्रम 
होता है और बुद्धि के भ्रम से पाप होता है, इसलिए ऐसा पुण्य हमारे न होवे । 
जोइन्दु ने योगसार में अध्यात्म की चर्चा करते हुए बड़ी गुढ बातें सरल 
भाषा में व्यक्त की हैं जिनमें उनका सुक्ष्म ज्ञान एवं अनुभूति प्रकट होती है । एक दोहा 
प्रस्तुत ह 
जो पाउ वि सो पाउ मुणि सब्बु इ को बि सृणेइ । 
जो पुप्णु वि पाउ वि भणइ सो घुह को बिहृवेइ ॥ ७२ ॥ 
अथं, जो पाप है उसको जो पाप जानता है, यह तो सब कोई जानता है। 
परन्तु जो पुष्य को भी पाप कहता है, ऐसा पंडित कोई विरला ही होता है। 


विद्यापति भक्त या श्युंगारी कवि 


मेथिल कोकिल विद्यापति रंगारी कदि या भक्त कवि--यह समस्या बहुत 
समय से हिन्दी के विद्वानों के सम्मुख अनिर्णीत है । शुक्लजी ने विद्यापति को श्वृंगारी 
कवि माना है । वे उन्हें कृष्ण-भक्तों की परम्परा में नहीं मानते । उनका कथन है कि 
'विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही हैं, जिनमें नायिका और नायक राधाकृष्ण 
हैं। इन पदों की रचना जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर ही शायद की गई 
हो । इनका माधुयं अद्भुत है । विद्यापति शेव थे । उन्होंने इन पदों की रचना श्ुंगार- 
काव्य को हृष्टि से की है, भक्त के रूप में नहीं ।' 

रामचन्द्र शुक्ल के अनुकरण पर रामवृक्ष वेनीपुरी, डॉ० बावूराम सक्सेना, 
डॉ० रामकुमार वर्मा भी विद्यापति को श्रृंगारी कवि मानते हुए कहते हैं कि 'अभिसार 
में भक्ति का सार कहाँ ।' 

डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार विद्यापति भक्त कवि हैं। उनके शब्दों 
में विद्यापति की पदावली का वक्तब्य विषय राधा तथा अन्य गोपियों के साथ श्रीकृष्ण 
की प्रेम लीला है। राधा और कृष्ण के प्रेम-प्रस्धो को यह पुस्तक प्रथम बार उत्तर 


आदिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ २१ 


भारत में गेय पदों में प्रकाशित करती है । इस पुस्तक के पदों में आगे चलकर बंगाल, 
आसाम और उड़ीसा के वैष्णव भक्तों को खूब प्रभावित किया और यह उन प्रदेशों के 
भक्ति साहित्य में नई प्रेरणा और नई प्राणधारा संचारित करने में समर्थ हुई। 
इसीलिए पूर्वी प्रदेशों में सर्वत्र यह पुस्तक धमंग्रन्य की महिमा पा सकी है ।' 

बाबू श्यामसुन्दरदास) म० म० पं० हरप्रसाद शास्त्री, बाबू ब्रजनन्दन सहाय, 
शिवनन्दन ठाकुर, घ्रो० विपिनविहारी मञ्चमदार, प्रो० जनार्दन मिश्र इन्हें भक्त कवि 
मानते हैं । 

निष्कर्ष--गोपी भाव माधुर्य भाव है । चैतन्य महाप्रभु भादि महात्माओं पर 
विद्यापति के पदों का भक्तिपरक प्रभाव देखकर तथा कृष्णभक्त साहित्य में सम्मान 
देखकर हम उन्हें भक्तवेष्णव भक्तिकाव्य के रचयिता मान सकते हैं । 


दै 


भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ 


भवितकालीन हिन्दी साहत्यि की मुल प्रेरणा एवं विभिन्न शाखाए 

हिन्दी साहित्य के इतिहास के मध्यकाल को विद्वानों ने दो भागों में विभक्त 
किया है--पूर्व मध्य काल तथा उत्तर मध्यकाल । पुवे मध्यकाल का नामकरण 
विद्वानों ने भक्तिकाल किया है । 

चौदहवीं शताब्दी के बाद जो हिन्दी साहित्य रचा गया, उसमें अधिकांश 
साहित्य की मुल प्रेरणा भक्ति भावना रही । भक्तिकाल में एक ओर तो हिन्दू जाति 
में जाति-पांति की कठोरता एवं संकोणता दृढ हो रही थो, दूसरी ओर इस कठोरता 
से पीड़ित होकर हिन्दू लोग इस्लाम को अपनाने की ओर अग्रसर थे। ऐसे ही समय 
में कबीर, तुलसी, सूर और जायसी हुए, जिन्होंने समाज को उसकी संकीणंता, 
कहरता, उच्छुङ्खलता से बचाने का प्रयत्न किया । इस प्रकार भक्ति का स्वरूप विक- 
सित होकर युग-चेतना का रूप धारण कर रहा था। इन्हीं परिस्थितियों में हिन्दी में 
भक्ति साहित्य का आविभवि हुआ । 

भक्तिकाल में भगवान्‌ के सगुण और निगु'ण रूप के आधार पर दो शाखाए 
हो गई-- 

(६) सगुणमार्गीय भक्त कवियों की शाखा । 

(7) निगुणमार्गीय भक्त कवियों की शाखा । 

सगुणोपासकों में भी राम और कृष्ण को इष्टदेव मानकर चलने वालों की 
उपशाखाए हो गई --- 

(६) रामोपासक काव्यधारा--तुलसीदास प्रवर्तक कचि 


२२ 


भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ २३ 


(0) कृष्णोयासक काव्यधारा--सूरदास प्रवर्तक कवि । 

निगु'णोपासक भक्तों में ज्ञान और प्रेम को आधार मानकर चलने के कारण 
दो शाखाए हो गयीं-- 

() ज्ञानमार्गी निगुणिए संतों की शाखा 

() प्रेममार्गी सूफी संतों की शाखा । 

इस प्रकार भक्ति काल में चार शाखाओं में भक्ति साहित्य का निर्माण हुआ । 
इन चारों से भिन्न पांचवी धारा जेन कवियों की थी, जिन्होंने शान्तरस को प्रधानता 
दी और वैराग्यमूला भक्ति को अपने काव्य का प्रतिपाद्य बनाया । 
भक्तिकालः हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग 

भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है क्योंकि इसी काल में 
हन्दी के महान्‌ कवियों (सूर, तुलसी, कबीर और जायसी आदि) ने अपनी काव्य- 
रचना की । भक्तिकालीन साहित्य की मूल प्रेरणा तो भक्ति भावना ही थी । इस काल 
के साहित्य की कुछ अन्य प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-- 

(१) समन्वय की व्यापक भावता--भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रमुख 
प्रवृत्ति उसमें व्याप्त समन्वय की प्रमुख भावता है । यह समन्वय विविध 
रूपी है-- 

(अ) ज्ञान और भक्ति का समन्वय--इस काल के कवियों ने ज्ञान और भक्ति 
का समन्वय प्रस्तुत किया । ज्ञानमार्गी कवीर ने भक्ति की महत्ता प्रतिपादित की । 


~ 


होता है । 

ls (इ) काव्य और धामिक श्रेष्ठ भावनाओं का समन्वय भी भक्तिकालीत साहित्य 
की बहुत बड़ी विशेषता है । विविध धाराओं में प्रवाहित होने वाली भक्तिकालीन 
काव्यधारा की सर्वप्रमुख भावना भक्ति की भावता है। यही कारण है कि इस 
काल के अन्तगंत सूर, तुलसी, कबीर और जायसी के परस्पर विरोधी काव्य का एक 
स्थान पर और एक सूत्र में संयोजन किया गया । 

(ई) लोक परलोक--अध्यात्म तथा व्यवहार का समन्वय भक्तिकालीन 
काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण विशेषता है । 

(उ) भक्तिकाव्य में शील और सदाचार की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। 

(२) कला पक्षान्तरगेत नवीन शैलियों का प्रणयन--भक्तिकालीन साहित्य में 
हिन्दी की ब्रजभाषा भोर अवधो का समान रूप से विकास हुआ । इस काल के साहित्य 
में प्रबन्ध और मुक्तक दोनों शैलियों में काव्य रचना हुई । इस काल के कवियों ने अपने 
काव्य में संगीत को प्रश्रय देकर एक अद्भुत माधुयं उत्पन्न कर दिया । सूर और मीरा 


के पद आज भी देश के कोने-कोने में प्रचलित हैं तथा संगीत के क्षेत्र में भी उनका 





२४ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


व्यापक महत्त्व है । उन्होने साहित्य और संगीत का समन्वय किया । इस प्रकार कला 
के क्षेत्र में भी समन्वयवादी प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। भक्तिकालीन साहित्य में 
रससृष्टि के माधुर्यं के साथ ही अलंकारों का सहकारी भाव एवं चमत्कार भी उत्कपं- 
विधायक है । 
भक्तिकाल में हिन्दी के महान्‌ एवं अमर कवि हुए और उनकी रचनाओं से 
हिन्दी साहित्य की महान्‌ अभिवृद्धि हुई । इसलिए यह काल हिन्दी साहित्य का 
स्वर्णयुग कहलाता है । 
भक्तिकाल की समान भावनाए 

भक्ति साहित्य का बीज इसी देश की सामाजिक एवं धामिक परिस्थितियों 
में मिलता है । इसमें कुछ ऐसी समान भावनाएं दिखलाई पड़ती हैं, जो निगुण एवं 
सगुण सभी प्रकार के भक्तों को रचनाओं में सामान्य हैं। वे इस प्रकार हैं-- 

१. नाम की महत्ता--इष्ट के नाम का जप, कीर्तन, भजन आदि सन्तों, 
सूफियों और सगुणोपासको में समान रूप से दिखाई पड़ता है । 

२. गुरु-महिमा-सन्तों एवं सगुण भक्तों ने समान रूप से गुरु-महिमा का 
विस्तार से वर्णन किया है । 

३. भक्ति-भावना का प्राधान्य--ज्ञानमार्गी निगु णोपासकों, प्रेममार्गी सूफियों 
एवं सगुणोपासकों में भक्ति भावना का प्राधान्य सामान्य रूप से 
दिखलाई पड़ता है । 

४. अहंकार का त्याग--अहंकार का त्याग भक्ति का दूसरा रूप माना 
गया हे । जब तक मनुष्य के हृदय में अहंकार विद्यमान रहेगा तब 
तक उसे सच्ची भक्ति प्राप्त नहीं होगी । 

५. संसार की असारता पर बल--भक्तिकालीन कविता में दार्शनिक पृष्ठ- 
भूमि का महत्त्व एकदम सुस्पष्ट है । संसार की असारता एवं आत्मा 
की साधना को ही सच्ची साधना के रूप में निरूपित किया है । 

६. शील ओर सदाचार की पुष्टि--भक्तिकालीन साहित्य में शील और 
सदाचार को विशेष महत्त्व दिया है। यह तो सच्ची भक्ति का 
आधार है । 

सगुणमत के सिद्धान्त 


हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में सगुणोपासना अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त 

हुई । सगुणोपासना में प्रमुख रूप से श्रीराम और श्रीकृष्ण की उपासना को महत्त्व 

दिया गया । रामकाव्य और कृष्णकाव्य दोनों धाराओं में सगुणमत के इन सिद्धान्तों 
का सामान्य रूप से प्रतिपादन हुआ है-- 

१. भगवान्‌ की सगुणा भक्ति के महत्त्व का प्रतिपादन तथा निगु णोपासना 

का बहिष्कार । यह भागवत धर्म की स्थापना का सफल प्रयास था । 





भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ २५ 


निगु'ण की ज्ञानमूला भक्ति की अपेक्षा सगुण की प्रेममूला भक्ति को 
अधिक प्रश्नय दिया गया । 

२. सगुण भक्त भगवान के अवतार की कल्पना करते हैं। यह अवतार 
अधमं का उन्मूलन और धर्म की संस्थापना के लिए होता है । अवतार 
का दूसरा लक्ष्य भक्तों के लिए भगवान्‌ के द्वारा अपनी लीला का 
विस्तार करना है । 

३, भगवान्‌ की लीला माधुरी का वर्णन सगुणोपासना में अत्यन्त महत्त्व- 
पूर्ण माना गया है । राम और कृष्ण दोनों भक्ति शाखाओं में भगवद्‌ 
लीलागान का महत्त्व वणित है । 

४. भक्ति का स्वरूप एवं उसका विवेचन--सगुणमत में भक्ति ही 
एकमात्र भक्त और भगवान्‌ के मिलन में साधक है । इस भक्ति के 
अनेक रूप हैं । 

५, भगवान्‌ के भक्तवत्सल रूप की महत्ता का वर्णन । 

६, मोक्ष को भक्तों ने भक्ति का चरम उद्देश्य माना है । यह भगवद्‌ भक्ति 
से प्राप्त होता है । मोक्ष सगुणमत में भक्ति की चरम परिणति है । 


रासकाव्य की परम्परा का प्रारम्भ एवं विकास 


“रामकथा की लोकप्रियता से प्रभावित होकर बौद्धों तथा जेनियों ने भी 
इसे अपनाया । बौद्ध साहित्य में तीन जातकों में रामकथा मिलती है। उनका आधार 
ब्राह्मण रामकथा है किन्तु उनमें विभिन्नता पाई जाती है। इसी प्रकार धामिक 
आग्रह के कारण रामकथा को जैन साहित्य में परिवर्तित किया गया ओर कथा को 
जेनधर्म के अनुकूल बनाया । जंनाचायों ने प्राचीनकाल से राम-साहित्य का प्रणयन 
किया है। ईसा की प्रथम शताब्दी में विमलसूरि से लेकर आधुनिककाल तक जेन 
कवियों ने पुष्कल राम-साहित्य की रचना की है जिसमें विस्तृत रामकथा मिलती 
हैं । भक्ति के उदय के पश्चात्‌ संस्कृत राम-साहित्य में रामकथा में किचित परिवर्तन 
भक्ति भावना की तुष्टि के लिए किये गये । ये परवर्ती साहित्य में लक्षित होते हैं । 
यह समस्त सामग्री हिन्दी-राम कवियों के सामने थी ।'१ 

इस प्रकार हम देखते हैं कि ईसा की प्रथम शताब्दी में विमलसूरि से ही 
रामकाव्य की परम्परा का प्रारम्भ हुआ। ईसा की आठवीं शताब्दी में विद्यमान 
जैन महाकवि स्वयंभू ने विमलसूरि की परम्परा में अपञ्चश भाषा में 'पउमचरिउ' 
के नाम से जैनधर्म के अनुसार रामकथा का विस्तृत वर्णन किया है। स्वयंभू की 
परम्परा में ही अपभ्रश के महाकवि पुष्पदन्त या पुफ्फदन्त ने महापुराण की रचना 
की जो आदिपुराण और उत्तरपुराण दो खब्डों में विभक्त है ओर उत्तरपुराण के 
RN: 


१. तुलसी पूर्व राम-साहित्य : डॉ० अमरपालसिह्‌, १६६८, निवेदन पृ० ७। 


द मौखिक-परीक्षा पथप्रदाशिका 


अन्तर्गत ग्यारह सन्धियों में गुणभद्राचार्य के आधार पर रामकथा का वर्णन हुआ है। 
जैन महाकवि रइधु ने पद्मपुराण (१५वीं शती) में रामकथा का वर्णन किया है । 

गोस्वामी तुलसीदासजी ने प्राकृत (देशभाषा या लोकभाषा अपभ्रश) में 
रचित इस रामकाव्य की परम्परा को लक्ष्य करके लिखा है 

जो प्राकृत कवि परम सयाने । भाषा जिन हरि चरित बलाने । 

भये ने अर्हाह जे होहाह आगे । प्रनवउ सर्बाह कपट छल त्यागे ॥ 

अर्थ, प्राकृत (अपश्रश) के जो चतुर कवि हुये हैं, जिन्होंने रामदेव का 
चरित बनाया है, और भागे होंगे, मैं (तुलसीदास) उन सबकी कपट रहित वन्दना 
करता हूँ । 

इस प्रकार तुलसीदास ने प्राक्त और अपश्रश में रचित जन रामायणों का 
भी अध्ययन किया था और 'मानस' के मंगलाचरण में 'नानापुराणनिगमागमसम्मतं' 
के अतिरिक्त जो 'ववचित्‌ अन्योऽपि’ कहा वे प्राकृत और अपश्रश के रामकाव्य के 
लिए ही । स्वयंभू के पउमचरिउ का अध्ययन करने पर हमें स्पष्ट पता चलता है कि 
तुलसीदास ने बहुत-सी बाते उससे अपनाई हैं। पउमचरिउ और मानस का 
तुलनात्मक अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा । 


जेन रामकाव्य परस्परा 


जैनाचार्यो ने रामकथा की अपनी काव्यकला का विषय बनाया और प्रभूत 
साहित्य की रचना की ।* उन्होंने रामकथा के पात्रों को विशेष महत्त्व दिया और 
अपनी मान्यता के अनुसार उनकी गणना जन धर्म के त्रिशष्ठि शलाका पुरुषों में की । 
२४ तीर्थङ्कर, १२ चक्रवर्ती, & बलदेव, & वासुदेव तथा & प्रतिवासुदेव। जैन मान्यता 
के अनुसार प्रत्येक कल्प में ये महापुरुष होते हैं । 

जेन राम साहित्य की अपनी निजी विशेषताओं का वर्णन करते हुए डॉ० 
अमरपार्लासिह ने लिखा हे--'इसके अनुसार राक्षस और वानर मनुष्य थे । ये विद्याधर 
वंश के थे । उन्हें कामरूपत्व, आकाशगामिनी विद्याएं सिद्ध थीं। रामचरित्र सम्बन्धी 
असम्भव वृत्तान्तों को सम्भव रूप में चित्रित करने का प्रयास जेन रामसाहित्य की 
एक अन्य विशेषता है । इसमें वृत्तान्तों को तकंसंगत रूप में परिवर्तित कर चित्रित 
किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि जेन राममाहित्य की रचना वाल्मीकि रामायण 
के वतमान रूप ग्रहण कर लेने के पश्चात्‌ हुई। जैन रामकथा संस्कृत, प्राकृत, 
अपभ्रश तथा अन्य भाषाओं में मिलती है। जेन साहित्य में रामकथा की दो 
परम्पराएँ मिलती हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विमलसूरि की रामकथा प्रचलित है 


१. बोद्धों की अपेक्षा जेनियों में रामकथा का अधिक प्रचार हुआ । जंनधर्माचार्यो 
ने विपुल राम साहित्य की रचना की । इसके अन्तर्गत रामकथा के पात्र जैन 
महापुरुष कहे गए हें । तुलसीपुर रामसाहित्य' डॉ० अमरपालसिह, पु० ४९ 


अक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ २७ 


और दिगम्बर सम्प्रदाय में विमलसूरि और गुणभब्राचार्य दोनों की रामकथाओं का 
प्रचार है ।' 

सर्वप्रथम जैन रामसाहित्य में आचाय विमलसूरि (विक्रम सं० ६०) की 
प्राकृत में रचित 'पउम चरियं' के रूप में हमें रामकथा का जैन रूप मिलता है। 
उन्होंने रामकथा को पद्मचरित कहा है और जैन आचायों की परम्परा में चले आते 
हुए रामच रित्र को प्रस्तुत किया 

णामावलिय नित्रद्ध॑ आयरिय परम्परागयं सव्वं । 
वोच्छामिप पउमचरियं अहाणूपुन्जि समासेण ॥१।८ 

विमलमुरि के उपयुक्त कथन के आधार पर नाधुराम प्रेमी ने कल्पना 
की है कि उनसे पूर्व जैन परम्परा में रामकथा रामचरित नामावली के रूप में रही 
होगी । 'उसमें कथा के प्रधान-प्रधान पात्रों के, उनके माता-पिताओं के नाम ही होंगे । 
वह पल्लवित कथा के रूप में न होगी और उसी की विमलसूरि ने विस्तृत चरित के 
रूप में रचना की होगी ।'? 

जैन आचार्य रविषेण ने ६६० ई० में विमलसूरि के 'पउमचरिउ' का संस्कृत 
ङपान्तर 'पद्याच रित! के नाम से किया जिसका खड़ीबोली में अनुवाद दौलतराम जैन ने 
१७६१ ई० में किया । 

संघदास ने भी रामकथा को काव्य में तिवद्ध किया और जैन रामसाहित्य 
परम्परा को आगे बढ़ाया । इस परम्परा में आगे कवि परमेश्वर हुए, जिनकी चर्चा 
नवम्‌ शताव्दी के आचार्य जिनसेन (आदिपुराण के रचयिता) ने इन शब्दों में की 
'कवि परमेश्वर निगदित गद्यकथामातुकं पुरोश्चरितम्‌ / कवि परमेश्वर की रचना 
उपलब्ध न होने से हम उसकी विशेष चर्चा करने में असमर्थ हैं । 

जिनसेन स्वामी के शिष्य गुणभद्राचार्य ने 'उत्तरपुराण' (रचनाकाल ५६७ 
ई०) (६७ वें तथा ६८ वें पर्व में १११७ लोकों में) रामकथा को नवीन ढंग से 
प्रस्तुत किया और सीता को रावण की पुत्री के रूप में दिखाया । 

अपभ्र श में जैताचायों द्वारा रामसाहित्य के तीत ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं--स्वयंमू 
कृत पउमचरिउ, पुष्पदन्त कृत पउमचरिउ तथा रइघु कृत पद्मपुराण । 
तुलसीदासजी की रचनाएं 

तुलसीदासजी की रामचरितमानस के अतिरिक्त अन्य कुछ रचनाएं भी हैं, जिनमें 
विनयपत्रिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । “रामचरित मानस' की रचना संवत्‌ १६३१ में 
पूर्ण हुई । इससे पूवंनिमित तुलसोदासजी की रचनाएँ ये हे 

(१) रामलला नहछू (२) वेराग्य संदीपनी (३) रामाज्ञा प्रश्‍न (४) जानकी 
मंगल । 


१. जैन साहित्य और इतिहास, १० २८० 





२५ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
रामचरितमानस फे निर्माण के बाद की रचनाएं ये हैं-- 
(१) राम सतसई (२) पार्वतीमंगल (३) गीतावली (४) विनयपत्रिका 
(४) कृष्ण गीतावली (६) वरवे रामायण (७) दोहावली (८) कवितावली । 
कवितावली में जिस महामारी का वर्णन है, उससे पता चलता है कि यह 
तुलसीदास के जीवन के अन्तिम काल की रचना है । 
उपथुःक्त रचनाओं में पाँच रचनाएँ दीर्घाकार हैं--- 
१) रामचरितमानस, 
२) राम गीतावली, 
३) विनयपत्रिका, 
४) दोहावली, 
(५) कवितावली । 
अन्य रचनाएँ लघुकाय काव्य हैं । 


तुलसी ने अपनी रचनाओं में अपने समय तथा पूर्ववर्ती काल में प्रचलित सभी 
शैलियों का विनियोग किया है। उन्होंने सभी काव्य-प्रणालियों को राममय बनाने का 
स्तुत्य प्रयास किया । उनका लक्ष्य था भक्तिभावपूर्वंक श्रीराम का गुण-गान और 
इसके लिए उन्होंने समस्त लोकप्रिय काव्यशैलियों को अपनाया । 


लोकनायक तुलसीदास को समन्वय साधना 


तुलसीदासजी लोकनायक थे क्योंकि उन्होंने समन्वयवाद को अपनाया। उन्होंने 
युग की परिस्थितियों के अनुकूल हृष्किण अपनाकर प्राचीनता का संस्कार किया और 
इस प्रकार लोकनायक पद के अधिकारी हुए 

तुलसी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम में शक्ति, शील और सौन्दर्य का अद्भुत 
समन्वय प्रस्तुत किया । उन्होंने राम के आदश चरित्र द्वारा विश्युङ्खल समाज के 
सम्मुख एक आदर्श एवं मर्यादा का भाव मूतिमान करके प्रस्तुत किया । तत्कालीन 
परिस्थितियों में हिन्दू जनता में जो भेदभाव एवं बिखराव आ गया था, 
उससे उसे बचाने के लिए उन्होंने राम के आदर्श रूप को प्रस्तुत किया । उन्होंने राम 
के लोकसंग्रही रूप में शव, स्मार्त, वेष्णव सभी का समन्वय प्रस्तुत किया । 
इसप्रकार तुलसीदास धामिक समन्वय के द्वारा हिन्दू जाति में एकता स्थापित करने 
में सफल हुए । 

तुलसीदास ने राम के आदशं चरित्र के द्वारा समाज की मर्यादा का निरूपण 
भी किया । 

तुलसीदास ने काव्य की भाषा-शैली पर भी समन्वय की छाप लगा दी और 
अपने समय तथा पूवं समय में प्रचलित सभी काव्य पद्धतियों को राममय करने का 
प्रयत्न किया । 


भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ २९ 


उन्होंने ब्रजभाषा और अवधीभाषा दोनों को अपनाकर भाषा के क्षेत्र में भी 
समवन्य प्रस्तुत किया । 
इस प्रकार महान्‌ समन्वयवादी तुलसीदास ने लोकनायकत्व किया । 


विनयपत्रिका 


गोस्वामी तलसीदास ने रामचरितमानस के अतिरिक्त अनेक ग्रन्थ लिखे हैं 
उनमें विनयपत्रिका सर्वश्रेष्ठ है । विनय-पत्रिका' में कलियुग द्वारा सताये जाने पर 
श्री हतुमानजी की प्रेरणा से तुलसीदास ने श्रीराम की सेवा में विनय की पत्रिका 
भे जी ह 


विशेषताएँ 


(१) विनय-पत्रिका एक मुक्तक काव्य है, फिर भी यह एक क्रमबद्ध रचना 
है । इसमें प्रारम्भ में गणेश, सूयं, शिव, विष्णु, दुर्गा आदि की स्तुतियाँ है। इन सब 
देवी-देवताओं से तुलसी ने बसहि राम सिय मानस मोरे' वरदान माँगा है । 

(२) विनय-पत्रिका में गोस्वामीजी के आध्यात्मिक विचारों का दिग्दशंन हुआ 
है। साथ ही उनकी भक्ति-भावना, आत्म निवेदन एवं देन्य वृत्ति का मामिक 
प्रकाशन हुआ हे । 

(३) तुलसी का हृदय इष्टदेव के प्रति भक्ति-भावना से ओतप्रोत है । 
भक्ति-भावना का आधार आत्म दंन्य तथा आराध्य की महत्ता का प्रकाशन है-- 
वितय-पत्रिका में गोस्वामीजी की यह अनुभूति अत्यन्त तीब्र एवं मामिक रूप में व्यक्त 
हुई है । 

(४) विनय-पत्रिका में दर्शन एवं धर्म का विस्तृत ज्ञान व्यक्त होता हे । 

(५) कलापक्ष की दृष्टि से--तुलसी ने इस ग्रन्थ की रचना ब्रजभाषा में की 

। उनका इस भाषा पर भी असाधारण अधिकार है। भाषा भावानुसारिणी है, 
अलंकारों का समुचित प्रयोग है, छन्द की दृष्टि से यह रचना गेय पदों में है । 

गोस्वामीजी की 'विनय-पत्रिका' उनकी उत्कृष्ट भक्ति भावना और काव्य- 
कुशलता का प्रतीक है । निश्चय ही वह भक्ति साहित्य का एक महान्‌ ग्रन्थ हे । 


विनयपत्रिका का प्रमुख प्रतिपाद्य 


गोस्वामोजी के रामचरितमानस के बाद 'विनयपत्रिका' ही अन्य रचनाओं 
में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । जहाँ तक तुलसीदासजो की आत्माभिव्यक्ति का प्रश्‍न है, 
वह विनयपत्रिका में रामचरितमानस से भी अधिक हुई है। इसमें भक्त तुलसीदास के 
हृदय की मासिक झाँकी है, इसमें तुलसी की भक्ति के उपादानों का वर्णन है, इसमें 
इष्टदेव तथा अन्य देवताओं की स्तुतियाँ हैं। विनयपत्रिका में तुलसी ने अपने 
दार्शनिक सिद्धान्तों को भो काव्य में संयोजित करके प्रस्तुत किया है । विनयपत्रिका में 
तो भक्त की अपने आराध्य के चरणों में समपित विनयोक्तियों का भण्डार है। यह्‌ 


३० 


मौखिक -परीक्षा पथप्रदशिका 


विनय अनेक रूपों में प्रस्तुत की गई है । विनयपत्रिका के वर्ण्य विषयों का निरूपण 
इस प्रकार कर सकते हैं--- 


१. 


हिन्दू धर्म में मान्य भगवान्‌ के अवतार तथा देवी-देवताओं का परिचय 
एवं उनकी स्तुतियाँ। 

हिन्दू धर्म के प्रमुख धामिक तीर्थो का परिचय । 

सांसारिक जीवन की निःसारता का वर्णन तथा निर्वेद की पुष्टि के 
लिए अनेक दृष्टान्त । 

जीवात्मा के कर्मबन्धन एवं पाप बन्धन के प्रति ग्लानि की अभि- 
व्यक्ति । 

आत्मा के स्वरूप की अभिव्यक्ति । 

आत्मसुधार के लिए आत्सप्रबोध-सदाचारों का निरूपण--सदाचारी 
बनने की तीब्राकांक्षा--कबहुक हों यह रहनि रहोंगों । 

राम की महिमा का विस्तार से वर्णन । 

राम की शरणागति में यह आनन्दानुभव की मामिक अभिव्यत्ति-- 
दीनबन्धु ! दूरि किये दीन, कोन दूसरी सरन 


विनयपत्रिका में तुलसी के विचार 


१. 


७, 


विनयपत्रिका में तुलसी ने जीव ओर ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन 
किया है । 

तुलसी का मत हे कि जीव माया के वश में होकर अपने को ब्रह्म से भिन्न 
समभता हे ।. 

तुलसी संसार को मिथ्या मानकर उसके समस्त आकर्षणों से बचने 
की प्रेरणा देते हैं । 

तुलसी ने अपने आराध्य आनन्दरूप राम में पूर्ण विश्वास व्यक्त करते 
हुए राम को ब्रह्म का अवतार निरूपित किया है । 

तुलसी के भक्तिमार्ग में साधु संगति को आवश्यक उपादान के रूप में 
चित्रित किया गया है । 

तुलसी ने भक्त के लिए आत्मगत दोषों से परिचित होकर उन्हें दूर 
करने के लिए प्रयत्नशील होने की प्रेरणा दी है । 

तुलसी का मत है कि जीव सन्त स्वभाव को प्राप्त करके ही सच्चे 
आत्मानन्द में लीन हो सकता है। 





विनयपत्रिका में तुलसी की देच्य भावना की अभिव्यक्ति 


कवि तुलसी मूलरूप से भक्त हैं । विनयपत्रिका में तो आद्यांत भक्त ही हैं और 
यह उनकी आराध्य के प्रति विनय की पत्रिका है, जिसमें उन्होंने अपनी द॑न्य भावना 
का मामिक वर्णन किया है । उनका अपने आराध्य से स्वामी-सेवक का संबंध है । 


भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ३१ 
कलियुग की यातनाओं से दुखी भक्त अपने आराध्य की शरण जाना चाहता है । वह 
अपनी वेदना व्यक्त करता है । यह केवल उसकी व्यक्तिगत वेदना नहीं है वरन्‌ समस्त 
मानवमात्र को आत्मसात करके उसने अपनी महान्‌ 'विनय' प्रकट की है। 
मानवसृष्टि कलियुग से पीडित है अतः राजा राम से सुरक्षा की प्रार्थना की 
ई है । किन्तु दरबार के नियमों का पालन करते हुए ही कवि अपनी पत्रिका राजा 
राम के पास पहुँचाना चाहते हैं। सीधे नहीं--प्रथम तो वे दरबारी देवताओं को 
प्रसन्न करते हैं किन्तु उनकी भक्ति नहीं करते । वरन्‌ उनके राजा की भक्ति करते हैं। 
सर्वप्रथम गणेशजी (देव-दरवार के द्वारपाल) की वन्दना, तदनन्तर सूर्य, शिव, देवी, 
गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न की वन्दना 
है। इन सभी का राम से संबंध है । अन्त में अपनी विनय की स्वीकृति के लिए वे 
माँ सीता की बन्दना अत्यन्त मार्मिक शब्दों में करते हैं क्योंकि वही राम को सर्वाधिक 
प्रभावित कर सकती हैं । 
तुलसी के वाक्‌-कौशल को देखिए सीता को माँ कहकर उनका वात्सल्य 
प्राप्त करने का प्रयास किया है और अपनी करुण कथा उनके हारा कहलवाई हे । 
पुनः अपने दैन्य का निवेदन करते हैं। आत्मदोष दर्शन एवं आत्मर्लानि के द्वारा 
विनय के अधिकारी के समक्ष वे अपना हृदय खोलकर रख देते हैं। इसप्रकार वे 
अपनी विनय को पुष्ट करते हैं । तुलसी की दैन्य भावना में लोककल्याण की पावन 


भावना निहित है । उनकी विनय 'स्व' के साथ समस्त विश्‍व कल्याण की कामना से 
प्रेरित है । उनक्री देन्य भावना उनके विनयपूर्ण हृदय का हो उद्गार है। यह देन्य 


भावना दीनता नहीं वरन्‌ साहस है, हृदय की सफाई है अपने स्वामी के समक्ष । 
आत्मदोष-स्वीकृति महान्‌ साहस है। दैन्य तो उनकी हृदय की सफाई एवं आत्म- 
साक्षात्कार का प्रमुख उपादान है । 


विनयपत्रिका प्रबन्ध या सुक्‍तक काव्य 


प्रबन्धकाव्य में कथावस्तु, नायक एवं रस की अनिवार्यता आचार्यों ने मानी 
है। वस्तु का संघटन घटनाओं से होता है । भावों से भी लघु घटना को लेकर संघटन 
किया जा सकता है । प्रबन्ध काव्य में मंगलाचरण, उपोद्घात, विकास एवं उपसंहार के 
क्रमों में वस्तु सुसंगठित होती है । नायक की प्रधानता स्वयंसिद्ध है । घटना एवं 
चरित्र मिलकर रस योजना में सहायक बनते हैं । 


विनयपत्रिका को कुछ विद्वान्‌ प्रबन्ध काव्य मानते हैं क्योंकि इसमें मंगलाचरण 
है । तदुपरान्त अन्य देवताओं की वन्दना है । तदुपरान्त विनय की पत्रिका कविद्वारा 
कलियुग से पीडित होकर अपने आराध्यदेव के चरणों में सपपित की गई है और 
उनसे प्रार्थना की है कि रक्षा करो। पाती के अनन्तर कवि अपने उन भावों की 
अभिव्यक्ति करता है जो वह आराध्य से निवेदन करता है । फिर भी विनयपत्रिका में 
कोई वस्तु या घटना नहीं है । इसे प्रबन्ध काव्य मानने वाले कवि को कलियुग से 


९ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


पीड़ित होना ही घटना मानते हैं। यह घटना कवि ने देवताओं से लेकर राम तक 
को सुनायी है । ऐसे आलोचक तुलसी को ही नायक मानते हैं और विनयपत्रिका में 
रस की निष्पत्ति भी आद्यान्त हुई है । शान्तरस है । 

दूसरे आलोचक विनयपत्रिका में क्रम मानते हुए भी घटनाओं के क्रमिक 
बिकास की चर्चा करते हैं। उनका कहना है कि इसमें चरित्रों का अभाव है तथा 
नायक की योजना नहीं है तथा प्रबन्धानुकूल वर्णन, हृक्‍्य-चित्रण, प्रकृति आदि का 
अभाव एवं रस योजना का अभाव मानते हैं । प्रत्येक पद में कहीं गणेश आलम्बन हैं, 
कहीं शिव, कहीं विष्णु, कहीं सरस्वती और कहीं कवि का अपना मन । इस प्रकार 
ये पद मुक्तक काव्य ही हैं। 

डॉ० रामगोपाल शर्मा दिनेश के शब्दों में "भावों की स्फुटता, कथावस्तु तथा 
नायक का अभाव और गीतात्मकता का आधिक्य विनय पत्रिका को एक मुक्तक काव्य 
की ही कोटि में ले आता है । हम उसमें काव्य कला का वह रूप जो एक मुक्तक 
काव्य के लिए अपेक्षित है, सर्वत्र देखते हैं। अतः विनयपत्रिका एक सुन्दर मुक्तक 
काव्य है ।' 


विनयपत्रिका की श्रेष्ठता के कारण 


काव्य की हृष्टि से तुलसीदास की विनयपत्रिका का बहुत ऊ चा स्थान है। 

उसमे-- 

१. काव्य और संगीत का अद्भुत समन्वय है । उससे स्तोत्र और पद राग- 
रागनियों पर खरे उतरते हैं, अतः विनयपत्रिका का काव्य और संगीत 
दोनों क्षेत्रों में समान महत्त्व है । 

२. विनयपत्रिका में तुलसीदास ने धामिक समन्वय का सुन्दर रूप प्रस्तुत 
किया है । इसमें तत्कालीन मत-मतान्तरों के निराकरण एवं सदाचार 
को महत्ता का प्रतिपादन है । यह तत्कालीन धामिक जीवन के संघर्ष 
के उन्मूलन में सहायक है । 

३. इसमें भक्ति का चरमोत्कर्ष है । देन्य, अनन्यता, विनम्रता, समपंण 
इसमें सर्वत्र व्याप्त हें । 

४. इससे तुलसी ने अपने निश्छुल हृदय की अभिव्यक्ति की है । अतः तुलसी 
के हृदय की जंसी झाँकी विनयपत्रिका में है, वैसी अन्य किसी रचना 


में नहीं । 
५. तुलसी ने इसमें परोक्ष रूप से युग के जीवन की मामिक अभिव्यक्ति 
की है । Ts? 
६. इसमें तुलसीदास ने वष्णव धमं के अनेक दार्शनिक मतवादों का अद्भुत 
मन्वय किया है । 


७. विनयपन्निका लोकमंगल की व्यापक भावना से अनुप्राणित है । 


भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ३३ 


८. विनयपत्रिका में तुलसी की अद्भुत वाकूचातुरी एवं उक्ति वैचित्र्य स्पष्ट 
झलकता है जिससे यह काव्य विशेष प्रभावोत्पादक हो गया है । 

&. इसमें तुलसी ने ब्रजभापा एवं संस्कृत दोनों भाषाओं का प्रयोग किया 
है । इसमें बजभाषा के संस्कृतनिष्ठ एवं सरल दोनों रूपों की मामिक 
व्यंजना है । 

१०, काव्यकला की इष्टि से तुलसी की रागात्मक शेली एवं उत्तम अलंकार 
विधान विनयपत्रिका को उनकी श्रेष्ठ कृति यिद्ध करते है । 

११. विनयपत्रिका शान्तरस का सागर है। निर्वेद पर आश्रित शान्तरस ही 
स्थायी शान्ति एवं आनन्द प्रदान करने में समर्थं है। 

१२. विनयपत्रिका में प्रवन्ध और मुक्तक शैली का अद्भुत समन्वय है। 
प्रारम्भ में मंगलाचरण तथा अन्य देवताओं की वन्दना, तदुपरान्त 
आराध्यदेव के सम्मुख विनय की पत्रिका । 

१३, इसमें भक्ति और दर्शन, काव्य और जीवन, साहित्यिक भाषा और जन 
भाषा, आदर्श और यथार्थ का अद्भुत समन्वय हे । 

रामकाव्य का विकास क्‍यों नहीं हुआ ? 

कृष्णकाव्य की अपेक्षा हमें रामकाव्य की लोकप्रियता तुलसीदास के पश्चात्‌ 
कम दिखाई देती है । यद्यपि रामभक्तिगाखा में कृष्णभक्ति शाखा के अनुकरण पर 
“रसिक सम्प्रदाय” का उदय हुआ और इसके अन्तर्गत राम-साहित्य का सृजन भो 
हुआ किन्तु वह तुलसी की परम्परा का राम साहित्य नहीं है । तुलसी के परवर्तीकाल 
में कृष्णकाव्य की लोकप्रियता के परिप्रेक्ष्य में रामकाव्य क विकसित न होने के कारण 
निम्बलिखित है- 

१. रामसाहित्य की गम्भीरता और मर्यादा के कारण श्र गारकाल में 
इसका विकास अवरुद्ध हो गया । जन प्रवृत्ति मधुर-व्यक्तित्व कृष्णचरित्र 
के अधिक अनुकूल थी । 

२. तुलसीदास के अद्वितीय काव्य कोशल के समक्ष परवर्तीकाल में किसी 
कवि को रामसाहित्य का निर्माण करने का साहस न हो सका | 
तुलसी-साहित्य में रामकाव्य सरमोत्कर्ष को प्राप्त हो चुका था । 

३. कृष्णकाव्य की प्रेमाभक्ति की लोकप्रियता एवं शव गारकालीन जनता को 
मधुर-प्रवृत्ति भी रामकाव्य के विकास में बाधक सिद्ध हुई । जनता की 
सरस चित्तवृत्ति के लिये रामकाव्य उपयुक्त प्रतीत न हुआ । 

४, अवधी भाषा को तुलसीदास ने अपने मातेस में अपनाकर उसे राममय 
कर दिया । परवर्तीकाल में ब्रजभापा का महत्त्व बढ़ा, बह सम्मानित 
होकर साहित्यिक भाषा बनी और चूंकि ब्रजभापा में लोकप्रिय राम- 











छु 


३४ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


साहित्य की रचना संभव नहीं थी, इसलिए रामसाहित्य का विकास 
अवरुद्ध हो गया । 


कृष्ण काव्यधारा के प्रमुख संस्थान 

कृष्ण-भक्ति के हमें अनेक सम्प्रदाय मिलते हैं (इनमें चार प्रमुख सम्प्रदायो के 
अन्तर्गत प्रचुर कृुष्णकाव्य की रचना हुई । ये चार सम्प्रदाय इस प्रकार हैं--- 

१--पुष्टि सम्प्रदाय या वल्लभ सम्प्रदाय--इसके प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभा- 
चारय है । इस सम्प्रदाय के प्रमुख महाकवि सूरदास है । पुष्टि सम्प्रदाय ने कृष्णकाब्य 
की प्रचुर रचनाएं प्रस्तुत की । सुप्रसिद्ध अष्टछाप के आठ कवि भी पुष्टिमार्गीय 
उपासक या भक्त थे । इस सम्प्रदाय में कृष्ण के बालरूप की उपासना की जाती हू । 
वल्लभाचार्य का पुष्टिमागं 'शुद्धाह तवाद' दर्शन को लेकर चला है। इसमें शङ्कराचार्य 
के अवत सिद्धान्त का खण्डन तथा ईश्वर के सगुण रूप की भक्ति की स्थापना की 
गई है । 

२-चैतन्य सम्प्रदाय--इसे गौडीय सम्प्रदाय कहते हैं । इसके प्रचारक महा- 
प्रभु चैतन्य गौड़देशीय (बंगाली) थे । रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी ने इस 
सम्प्रदाय का विशेष प्रचार किया । इस मत में कृष्ण के सगुण और निगुण दो रूप 
माने गये हैं तथा कृष्ण-भक्तिरस को “उज्ज्वल रस! माना गया है। इस सत में कृष्ण 
की मधुर भक्ति को प्रश्रय मिला । 

२--राधादल्लभी सम्प्रदाय-- गोस्वामी हितहरिवंश ने कृष्ण को राधा का 
अनुषंग मानकर राधावल्लभ रूप में कृष्ण की भक्ति परम्परा की स्थापना की । 
दार्शनिक हृष्टि से इस सम्प्रदाय को 'सिद्धाहवत सम्प्रदाय' कहते हैं। इस सम्प्रदाय में 
हितहरिवंश के अतिरिक्त बहुत से रससिद्ध कवि हुए । 

४--हरिदासी या टट्ठी या सखी सम्प्रदाय--इसकै संस्थापक स्वामी हरिदास 
थे | इस मत में सतत्‌ क्रीड़ारत राधाकृष्ण का ध्यान तथा सखी भाव से उनकी 
उपासना का प्राधान्य है । इनकी उपासना मधुर-भाव की है। नित्यकिशोर के उपासक 
इन भक्तों की कविता बड़ी संगीतमयी एवं मधुर है । 
अष्टछाप के कवि 

वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग के अन्तर्गत श्रीनाथजी (गोवर्धत) के मन्दिर में 
कोतंन सेवा प्रारम्भ हुई । उसमें क्रियात्मक सेवा पर अधिक जोर होने के कारण 
नेमित्तिक कर्मो की प्रधानता है । ये कर्म आठ हैं--मंगल, श्रृद्धार, ग्वाल, राजभोग, 
उत्थापन, भोग, संध्या, आरती, शयन । 

इन नेमित्तिक कर्मो के सम्पादन के समय उपयुक्त गीत लिखे गये और उनके 

गायन की योजना भी बनी । प्रत्येक सेवा के समय विशिष्ट शिष्यों की नियुक्ति की 
गई । महाप्रभु वल्लभाचार्य के चार शिष्य इस सेवा में नियुक्त थे, जिनके नाम इस 
प्रकार है--सूरदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास और कृष्णदास । महाप्रभु के गोलोकः 


भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ३५ 


वास के उपरान्त उनके सुपुत्र गोस्वामी विद्वुलनाथ ने श्रीताथजी की व्यवस्था का 
संचालन अपने हाथ में लिया और कीर्तन सेवा आदि को अधिक बढ़ावा दिया । इस 
कीर्तन सेवा को अधिक ठोस रूप देने के लिए उन्होंने उपयु'क्त चार महाप्रभु के शिष्य 
और चार अपने शिष्य लेकर अष्टछाप की स्थापना की । स्वामी विद्वुलनाथ जी के 


शिष्यों के नाम इस प्रकार हैं--मन्ददास, चतुभुजदास, गोविच्दस्वामी ओर 
छीतस्वामी । 





भक्तिकाल की कृष्ण भक्तिकाव्यधारा में यह अष्टछाप के कवि सर्वश्रेष्ठ माने जाते 
हैं । उनकी रचनाएं उत्कृष्ट हैं । अष्टछापी कविता की रचना श्रीनाथजी के मन्दिर में 
कीर्तन सेवा के अन्तर्गत (आठ नंमित्तिक कर्मो के अनुरूप बनाई गई) गाये हुए पदों के 
रूप में हुई है । 
सुरसागर का परिचय 
महाकवि सूरदास का विशालकाय काव्यग्रन्थ 'सूरसागर' वस्तुतः सागर ही है । 

यह एक बृहद्‌ काव्य है । इसके पूर्वाद्ध के प्रारम्भ में मंगलाचरण है, फिर कृष्ण जन्म 
से लेकर माखन-चोरी, गोचारण का वर्णन कर कवि पूतना तथा अन्य राक्षसादि के 
वघ की कथा वस्तुत करता है । कृष्ण को ऊखल से बाँचे जाने की लीला तथा माता 
यशोदा के वात्सल्य भाव का मार्मिक उद्घाटन इस खण्ड की प्रमुख विशेषताएँ हैं । 
वात्सल्य के चित्रण के अनन्तर सूरदास ने कृष्ण, राधा और गोपियों के माध्यम से 
मधुर भक्तिभाव की व्यञ्जना की है । गोपियों की सामिक विरहानुभूति, उद्धव-प्रसंग 
एवं भ्रमरगीत भी इसी खण्ड में हैं । 

सूरसागर के उत्तराद्ध में द्वारकाधीश श्रीकृष्ण का वर्णन है । इसमें जरासन्ध 
की कथा भी है, प्रद्यम्न-जन्म, वाणासुर-वध. सत्यभामा विवाह, सोलह हजार राज- 
कुमारियों का उद्धार, उषाअनिरुद्ध विवाह, नारह-मोह, जरासन्धवध आदि का वर्णन 
है । उत्तरा में और भी कुछ कथाएं हैं । 

सूरसागर की रचना श्रीमद्भागवत के आधार पर हुई है। पूर्वा में कवि ने 
अत्यन्त सरस काव्य प्रस्तुत किया है। उसका वात्सल्य एवं शख्यंगार (विशेष रूप से 
विप्रलंभ) वर्णन तो एकदम अद्‌भुत है । 
सूरदास के विरह वर्णन की विशेषताएं 

सूरदास का विरह का वर्णन अत्यन्त मामिक है । उसकी विशेषताएँ इस 
प्रकार हैं- 

१. यह विरह जड़ और चेतन दोनों को विरहजन्य व्यथा का अनुभव कराने 

बाला है । 
२. सूर ने गोपियों की विरह व्यथा से उत्पन्न विभिन्न स्थितियों एवं विविध 
अवस्थाओं के मामिक चित्र अङ्कित किए हैं । 


र मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


३. गोवियों के प्रेम-विभोर हृदय में उठने वाले झंझावात का बडा ही 
सजीव चित्रण किया है । गोपियों के व्याज से उन्होंने भावुकतामयी नारी 
के हृदय में प्रवेश करके वियोग दशा का अत्यन्त स्वाभाविक एवं मर्म- 
स्पर्शी चित्रण किया है । 

४. सुर का विरह वर्णन त्याग की उदात्त वृत्ति एवं भक्ति साधना के चरम 
लक्ष्य सायुज्यभक्ति से प्रेरित है, उसमें आश्रय और आलम्बन की एकता 
का वर्णन है। 

५. उतके विरह वर्णन में भक्ति का अत्यन्त सरस वर्णन है । 

६, उनके विरह में अनूठी वक्रोक्तियां प्रयुक्त हुई हैं, जो उसे बड़ी मामिकता 
प्रदान करने वाली हैं । 


भ्रमरगीत 
जब अक्रूर के साथ श्रीकृष्ण गोकुल से मधुरा जाने लगे तो गोपियों को यह वचन 

दे गए कि शीघ्र ही वापिस लौटेगे किन्तु कंस को मारने के बाद भी बे नहीं आए । 
नन्द-यशोदा, राधा एवं गोपियाँ कृष्ण की वियोगाग्यि मे तड़पने लगे । मथुरा में 
श्रीकृष्ण जब अपने ज्ञानी मित्र उद्धव से गोपियों के विशुद्ध प्रेम की चर्चा करते तो वे 
अपनी ज्ञानगरिमा से उसका खण्डन करके निगु'ण ब्रह्म की प्रतिष्ठा करने लगते । वे 
श्रीकृष्ण को भी योपियों के प्रति मोह न रखने का परामर्श देने लगते । श्रीकृष्ण ने 
उद्धव से कहा कि तुम एक बार गोकुल जाकर प्रेममयी गोपियों को निगु'णोपासना 
का उपदेश दे आओ फिर हम भी तुम्हारे उपदेश को मान लेगे । 

ज्ञान की गरिमा के अहंकार में मत्त उद्धव गोकुल चल दिए । वहाँ उनके 
पहुँचने का समाचार मिलते ही गोपियों ने घेर लिया और कृष्ण का समाचार पूछने 
लगीं । उद्धव ने उन्हें कृष्ण की प्रेसचर्या के स्थान पर ज्ञान-चर्या सुनाई किन्तु गोपियों 
को उनकी यह चर्या नहीं रुची । उन्होंने अपनी प्रेमानुमूति से भरी उक्तियों के द्वारा 
उद्धव के ज्ञान-गव को दूर कर दिया । उन्होंने उद्धव की विद्तत्तापूर्ण उक्तियों का 
भोला-भाला एवं मामिक उत्तर दिया और उन्हें ज्ञानी से भक्त बना दिया । उद्धव 
गोपियों को ब्रह्म की उपासना का उपदेश देने आए थे किन्तु कृष्णभक्त बनकर मथुरा 
लौटे । उद्धव और गोपियों की ज्ञान तथा प्रेमचर्या अमरगीत का माभिक प्रतिपाद्य है। 

श्रीमद्भागवत्‌ में भ्रमरगीत प्रसंग आता है । जब उद्धव गोपियो को ज्ञान का 
उपदेश दे रहे थे तो एक भौंरा गोपियों के पैरों पर मेंडराने लगा, उसे लक्ष्य करके 
गोपियो ने श्याम और उनके सखा को प्रेमभरे उपालम्भ. सुनाए। 
श्रसरगीत सें विरह व्यंजना 

१. सुर के भ्रमरगीत में प्रवास विप्रलम्भ श्रृंगार की अबाध धारा प्रवाहित 

हो रही है । 
२. कृष्ण की विरह-व्यथा से भ्रमरगीत का प्रारम्भ---कृष्ण गोपियो की 


भक्तिकालोन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ 


A 


३७ 
करुण दशा स्मरण करते हुए दुःखित होते हैं और उद्धव के द्वारा प्रेम 
सन्देश भेजते हैं । 

गोपियों की विरह वेदना में ब्यापकता--समस्त वातावरण में बेदना 
व्याप्त--जड़-चेतन सभी कृष्ण के विरह में जलते ही दिखाई दे 
ज़ेड | 


ए ट्‌ 

उद्धव के बार-बार ज्ञानोपदेश के प्रति गोपियों की खोक, तर्क, उपा- 
लम्भ एवं वक्रोक्तियाँ बड़ी मामिक हैं । 

प्रकृति का उद्दीपन रूप गोपियों को प्रकृति में सर्वच अपने विरह को 
उद्दीप्त करने वाली सामग्री दिखाई देती है । 

गोपियों की विरह-व्यथा में उत्कट मिलनाकांक्षा से बड़ी करुणा का 
मिश्रण हो गया हे । 

सुर ने भ्रमरगीत में विरह की समस्त दस दशाओं का मामिक चित्रण 
किया है । 

अमरगीत में सूर ने विप्रलम्भ श्टंगार का व्यापक, प्रभावपूर्णं तथा 
स्वाभाविक चित्रण किया है । 


सुरदास और रत्नाकर के अमरगीतों की तुलना 


र्‌. 


सूरदास ने अपने अमरगीत की रचना श्रीमद्मागवत्‌ के दशम स्कन्ध 
के आधार पर की है। उन्होंने भागवत की कथा को अत्यन्त विस्तृत 
रूप प्रदान किया है ! उन्होंने तीन भ्रमरगीत लिखे-- एक में कृष्ण के 
गोकुल को भेजे हुए सन्देश का, दूसरे में, कुब्जा के सन्देश का और तीसरे 
में, गोकुल पहुँचने पर उद्धव और गोपियों के सम्वाद का वर्णन है । 


रत्नाकार के भ्रमरगीत (उद्धवशतक) में केवल गोपी-उद्धव के सम्बाद का 
ही काव्यमय चित्रण है । 


२. 


३. 


सूर ने अपने भ्रमरगीत की रचना पदों में की है, रत्ताकार ने उद्धव 
शतक की रचना कवित्तों में की है। 

'उद्धवशतक' के कृष्ण उद्धव के द्वारा अपना प्रेम सन्देश भेजना चाहते 
हैं क्योंकि दे गोपियों के प्रेम में व्याकुल हैं । सूरदास के कृष्ण उद्धव के 
ज्ञानगर्व को चूर करने के लिये ही बहाने से उन्हें गोपियों के पास 
भेजते हैं । 

सूर की गोपियां प्रेममयी और भोली-भाली हैं, रत्ताकर की गोपियाँ 
बोधवृत्ति को जाग्रत करने वाले तक॑-वितकं करती हैं। वे दाशंतिक 
एवं तार्किक हैं । 

सूर की गोपियाँ हृदय के कोमल भाव का मघुर स्पर्शं करके ज्ञान पर 
भक्ति की श्रेष्ठता का निरूपण करती हैं, रत्नाकर की गोपियाँ तर्क 


EE 


मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


और चमत्कार से उद्धव को परास्त करके ज्ञान के ऊपर भक्ति की 
विजय दिखाती हैं, किन्तु उनमें अन्त में भावावेश का आधिक्य दिखाई 
देता है। 

सूर के भ्रमरगीत में गोपियों के विरह की मार्मिक व्यंजना, प्रेम भावना, 
प्रसादगुण, पूर्ण आत्माभिव्यक्ति एवं बिशुद्ध एवं नेसागिक, ब्रजभाषा का 
माधुर्ये है । 


उद्धवशतक में रीतिकालीन कवित्त शेली, अलंकरण की प्रवृत्ति हाव-भाव- 
अनुभाव विधान, ऊहात्मक विरह व्यंजना, उद्दोपन रूप में प्रकृति चित्रण, नाटकीयता 
भोर संवाद की प्रवृत्ति तथा रोचकता, एवं चमत्कारपूर्ण शैली है । 
सन्तमत के सामान्य सिद्धान्त 
न्तमत के प्रवतंक कबीरदास थे और नानक दादूदयाल, मलूकदास प्रभृति 
सन्तों ने इसकी अभिवृद्धि की । सन्तमत के सामान्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं-- 


१» 


२. 


८. 


ईश्वर-सन्तमत वाले निराकार रूप में उपासना करने वाले हुँ। वे 
एकेश्वरवादी हैं । 

माया- सत्पुरुष से उत्पन्न माया ही सृष्टि की सुजन शक्ति है । कबीर 
ने माया के मिथ्या रूप का खण्डन किया है । इसके सत्य और मिथ्या 
दो रूप हैं । 

हठयोग--गोरखनाथ हारा प्रवतित हठयोग की साधना का निगु णिये 
सभ्तों पर व्यापक प्रभाव है। कबीर ने इसी हठयोग को ईश्वर प्राप्ति 
का एक साधन माना है । 

रहस्यवाद--सन्तमत के कवियों का रहस्यवाद अद्वेतवाद और सुफीमत 
के मिश्रण से बना है। इसमें आत्मा को स्त्री रूप में और परमात्मा 
को पुरुष रूप में मानकर दोनों का मिलन कराया है । 
सूफीमत--सूफीमत का सन्तमत पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है । संतों ने 
सूफियों की 'प्रेम की पीर” तथा शैतान की कल्पना को अपनाया है । 
रूपक- सन्तो ने अपने गूढ़ एवं गम्भीर भावों को रूपक हारा अभि- 
व्यक्त किया है । 

सन्तों के नैतिक आदशों में आत्मशुद्धि, आत्मसंयम, अपरिग्रह, इन्द्रिय 
संयम, मानसिक संयम तथा आचार और व्यवहार सम्बन्धी संयम का 
विशेष महत्त्व है । 

सन्तों का सामाजिक आदर्श समहृष्टि पूर्ण है--वर्ण आदि भेदभाव का 
नाश और एकता का प्रचार उनकी साधना के आवश्यक अङ्ग थे । 





निगु णिए संतों की काव्यधारा की प्रमुख प्रबृत्तियां 
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के अन्तर्गत तिगु णमार्गी (ज्ञानमागीं) संतों की 


भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ३६ 
काव्यधारा का प्रतिपाद्य निगुण ब्रह्म की उपासना है । संतकाव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ 
संक्षेप में इस प्रकार हैं-- 

१. निगुण ब्रह्म की उपासना पर जोर तथा उसकी साधना का वर्णन । 

२, रूढ़िवाद एवं मिध्याडम्बर का विरोध करके भावों की विशुद्धि को 

विशेष महत्व दिया गया । र 

३. गुरु की महत्ता का प्रतिपादन अत्यन्त सुन्दर ढंग से किया है, वही ब्रह्म 

की प्राप्ति का मार्ग बताने वाला है, अतः उसका विशेष महत्त्व है । 

४. जाँति पांति के भेदभाव की संकीर्ण मनोवृत्ति का विरोध करते हुए 

'हरि को भजै सो हरि का होई' का माभिक ढंग से प्रतिपादन । 

५. वैयक्तिक साधना और आन्तरिक साधना का अनेक प्रकार से प्रतिपादन । 

६, रहस्यवादी भावना की अभिव्यक्ति-जिसमें आत्मा और परमात्मा की 

अद्देतता की सिद्धि परम लक्ष्य है । 

७. साधारण धर्म एवं सदाचार का प्रतिपादन, जिससे समाज और देश में 

शान्ति एवं विभिन्न सम्प्रदायो में सौहार्द हो सकता है । 

८. जुनभाषा का प्रयोग--सन्तों ने सधुक्कड़ी भाषा में अपने मत को प्रस्तुत 

करके लोकप्रियता प्राप्त की । 

१. निगुण साधना एवं रहस्य की प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति के लिए हठयोग 

आदि की पारिभाषिक शब्दावली का विनियोग किया । 

१०. संतकाव्य की प्रमुख विशेषता समन्वय, सर्वसमाज सुधार की व्यापक 
भावना तथा भक्ति और ज्ञान का महत्त्वपूर्ण समन्वयात्मक रूप प्रस्तुत 
करना है । 

कबीर पर विभिन्न दर्शनों का प्रभाव 

(१) वैष्णव प्रभाव--कबीर युग द्रष्टा थे । अपने समय से प्रभावित थे । 
उन्होंने विष्णु के विविध नामों का प्रयोग किया है । उपास्य के रूप में विष्णु के ही 
निगुण या अवतारी सगुण स्वख्पों की प्रतिष्ठा की है। उन्होंने निगुण को सगुण का 
विकास माना है और भक्ति तथा उपासना तत्व को विशेष महत्त्व दिया है । वैष्णव 
मत के सारभूत तत्व उनकी रचनाओं में प्राप्त होते हैं । 

(२) नाथपंथ का प्रभाव--हठ्योग की साधना का वर्णन उसी शब्दावली के 
साथ कबीर काव्य में यत्रतत्र बिखरा पडा है । उन्होंने नाथपंथ के दार्शनिक सिद्धान्तों 
का विस्तार से वर्णन किया है । उनका अवधुत नाथपंथ का योगी है। 

(३) सूफी प्रभाव-उदारतावादी कबीर पर सूफियों की प्रेमाभक्ति का प्रभाव 
पड़ा है । सूफियों की भाँति उन्होंने प्रकृति में सत्र अपने लाल की लाली का दर्शन 
किया है। कबीर ने सूफियों की पारिभाषिक शब्दावली का भी प्रयोग किया है । 

(४) वेदान्त के अद्वंत दर्शन के आधार पर ही कवीर ने जीव और ब्रह्म की 


द्‌ 
बाठा 





हि मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


एकता का प्रतिपादन किया है । इनके एकाकार होने में या आत्मसाक्षात्कार में माया 
को कारण माना है जो जीव को अपना ब्रह्मत्व भुलाए रहती है । 

(५) भक्ति-सम्प्रदायों का प्रभाव--कबीर ने ढाई अक्षर के 'प्रेम' शब्द को 
महत्ता देकर अपने ऊपर पड़े भक्ति-सम्प्रदाय के प्रभाव को अभिव्यक्त किया है। बे 
समाजसुधारक थे, अतः विवेकी थे किन्तु मूलतः तो बे भक्त ही थे । 

हरिरस पीया जानिये जे, कबहुँ न जाय खुसार । 


xX xX xX xX 
मनसा बाचा कर्मता कबीर सुमिरण सार । 
x >< xX > 


कहै कबीर तन मन फा ओरा। 
भाव-भगति हरि सु गठजोरा ॥ 
कबीर के दार्शनिक सिद्धान्त 

(१) परमतत्व सहज ही उपलब्ध है, वह सत्य है जो सहज ही प्राप्त 
होता है-- 

करत विचार मन ही सव उपजो 
ना कहीं गया न आया । 

कबीरदासजी ने सहज साधना को महत्त्व दिया । वे परमतत्त्व को सत्य के 
रूप में देखते हुँ । वह उसे कहीं अलख, निरंजन, निरभै, निराकार, शून्य भी कहते 
हैं। वह तिगुण ब्रह्म के उपासक हैं जिसका दूसरा नाम सत्य हैं। इसीलिए वे 
परमतत्त्व को सतनाम कहते हैं । 

(२) जीवतत्व--कबीर ने जोवतत्व को परमतत्त्व का अंश माना है और 
अहत सिद्धान्त को 'जल में कुम्भ और कुम्भ में जल' के द्वारा व्यक्त किया है । 

(३) मायातत्व--माया को कबीर ने 'भरम करम' कहा है और अनादि माना 
है। इसे उन्होंने सुन्दरी, विश्वमोहिनी मारी कहा है जिसका स्वभाव ही ठगना 
और फंसाना है । 

कबीरदास ने अपने साहित्य में इन चार तत्वों का विवेचन किया है— 

(१) आत्मविचार-- 

(२) भावभगति--ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय 

(३) नामस्मरण तथा सुरति- शब्द योग 

(४) सहजशील का अभ्यास । जब संसारमात्र के साथ आत्मीयता का बोध 


होने लगता है और किसी के प्रति वेर या हेष का भाव नहीं रह जाता । यही सन्तों 
की स्थिति है । कबीर महान्‌ सन्त थे । 


भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ डर 


कबीर के काव्यरूप--साखी-सबद-रसेनी 


ताली --कवीर साहित्य में साली की संख्या सर्वाधिक है । साखी रूप में 
दोहे से मिलती-जुलती है । 'साखी' शब्द का अथं है साक्षी' । अर्थात्‌ महापुरुषों के 
आप्तवचन । साखी' ज्ञानप्रधान दोहों के अर्थ में भी रूढ़ है। कबीर से पूर्व भी 
'साखी' का प्रयोग होता है । 

'साखी' दोहा नहों है वर्योंकि साखियों में हमें दोहे, सोरठे, चौपाई, श्याम 
उल्लास, हरिपद, गीतासार तथा छै जंसे छन्दों के उदाहरण भी मिस जाते हैं । 

सबद--कवीर साहित्य में 'पदों' को सबद कहा है । ये सभी प्रायः गेय तथा 
भजनों के रूप में प्रचलित हैँ । इसमें कबीर की स्वानुभूति की अभिव्यक्ति होने से 
संगीत का समावेश हो गया है । 

रसनी--कबीर साहित्य मै का बहुत प्रयोग हुआ है। रर्मनी की 
रचना दोहा-चौपाइयों में की गई है। रमैनी जसे-सतपदी रमणी, बड़ी अष्टपदी 
रमणी, चौपाई रमणी तथा बारहपदी रमणी । 

कबीर ने बसंत, चांचर, हिंडोला, वावन, चौंतीसा, थिती आदि अन्य काव्य- 
रूपों में भी अपनी वाणी प्रस्तुत की है । 
कवीर की भाषा 

कबीर की भाषा कुछ विद्वान पंजावीपन से ओतप्रोत मानते हैं, दूसरे पंचमेल 
खिचडी, तीसरे अवधी, चौथे बनार सी या पुर्वी, पांचवे राजस्थानी, छठे ब्रजभाषा । 
इसप्रकार विद्वानों के विभिन्न मत हैं । वस्तुतः कबीर सन्त थे, सभी प्रान्तों के सन्तो 
का समागम होता था--उत्तका लक्ष्य ज्ञानोपदेश को प्रकट करना था । अंतः जंसी 
तैसी समझ में आने योग्य पंचमेल खिचडी भाषा का प्रयोग करते थे । 

हमें कबीर साहित्य गुरु ग्रन्थ साहिब में सुरक्षित मिलता है, अतः उस पर 
पंजाबी रंग चढ़ जाना कोई विशेष बात नहीं है । कबीर बनारस में रहे, मगहर में 
जन्म हुआ बतः उनकी भाषा मगही एवं बनारसी से प्रभावित है। वे सभी प्रान्तों के 
साधुजन के सम्पर्क में आए, अतः उनकी भाषा में राजस्थानी, खड़ीबोली आदि 
भाषाओं के शब्द भी हैं । 

(१) कबीर की भाषा का रूप विषय एवं भाव के अनुरूप है । 

(२) वह सरल, सीधी, स्पष्ट एवं प्रभावोत्यादक है । 

(३) उसमें संकेतात्मकता, प्रतीकात्मकता और पारिभाषिकता से कहीं-कहीं 
जटिलता आ गई है । यथा उलटबांसियों की संघाभाषा । 

(४) उसमें स्वच्छन्द भाषा की प्रवृत्ति है, व्याकरण के नियमों का पालन नहीं 
किया गया है । 

(५) अनुभूतिपूर्ण होने से कबीर की भाषा हृदय को स्पशं करने में समर्थ है 
क्योंकि उनकी उक्तियो में सच्चाई-निइछलता रही है । 


07 


रमैनी 


५१ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


कबीर की प्रतीक योजना 

प्रतीक का अर्थ है चिह्न | सभी प्रतीक चिह्न होते हैं किन्तु सभी चिह्न प्रतीक 
नहीं होते । काव्य में प्रतीको का प्रयोग भावना को मूर्त रूप देने, कुतृहल और 
विस्मय उत्पन्न करने तथा गोपनीय को दूसरों से गुप्त रखने के लिए किया जाता है । 
कबीरदास ने अपने काव्य में जिन प्रतीकों का प्रयोग किया है, वे तीन स्रोतों से ग्रहण 
किए गए हैन 

(१) वैदिक साहित्य से--जेसे हंस, पद, वृक्ष आदि । 

(२) सिद्ध और नाथ-साहित्य से--जँसे गंगा, जमुना, संसार । 

(३) तत्कालीन वातावरण और व्यवसाय से--र्जसे विष, अमृत, चादर, 
दीपक, बाती आदि । 

श्री महेन्द्रकुमार ने कबोरदास द्वारा प्रयुक्त प्रतीकों को चार वर्गों में विभाजित 
किया हैन 

(१) साधना पद्धति से सम्बन्धित विशिष्ट पारिभाषिक प्रतीक--गगन गुफा, 
नाद, बिन्दु, गगन मण्डल आदि । 

(२) संख्यावाची शब्दों के साथ प्रयुक्त प्रतीक--एक कुवाँ, पंच चोर, पंच- 
नारि, चोरासी लाख । 

(३) रूपक अन्योक्ति के माध्यम से प्रस्तुत भावमूलक प्रतीक--जन्त्र, मन्दिर, 
हीरा, तरवर, दुलहिनी । 

(४) उलटबाँसियों के प्रतीक--नीर, आगि, मुआ, काग, बेल, गाह्‌, दादुर, 
सपे, मिरिग आदि । ी 

कबीरदास द्वारा प्रयुक्त प्रतीको की योजना साम्यमुलक और विरोधमूलक 
दोनों प्रकार की हुई है । 


कबीर और जाथसी का रहस्यवाद 


मध्यकालीन धर्म साधना में रहस्य की गुढ प्रवृत्ति विद्यमान थी । सन्त कवियों 
में यह रहस्यानुभूति मुखरित हुई है । रहस्यवाद के दो रूप होते हैं-- 

(१) भावनात्मक (२) साधनात्मक । कबीरदास ने भावानात्मक रहस्यवाद के 
क्षेत्र में दाम्पत्य भाव के सांकेतिक सूत्र को अपनाकर अपनी मामिक रहस्यमयी अनु- 
भूतियाँ व्यक्त की हैं । उन्होंने उस चिरन्तन प्रियतम को 'अद्भुत' कहा हे । उनके 
हृदय में प्रियतम से मिलने की तीव्राकांक्षा भी दाम्पत्य-प्रेम-पद्धति के अनुरूप है । यह 
मिलवाकांक्षा दाहक विरह व्यञ्जना के रूप में व्यक्त हुई है और इसकी परिसमाप्ति 
प्रियतम से मिलन में और आनन्दोल्लास में होती है-- 

दुलहिनि गावहु मंगलचार 
हम घर आए हो राजा राम भरतार । 


भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ 4 


ओर फिर उस 'प्रियतम' के तेज से, प्रकाश से सम्पूर्ण विश्व आभासित्त हो 
जाता है। उसी को लाली में साधक भी नहा जाता है। 

कबीर के भावात्मक रहस्यवाद में प्रेम की पीर सूफो प्रभाव से आई है और 
जहाँ वे साबनात्मक रहस्यवाद एवं हठयोग की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं, वहाँ उन 
पर नाथपंथ का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वे हठयोग के कुछ पारिभाषिक 
प्रतीकात्मक शब्दों (नाद, सुरति, नरति, बिन्दु, अमृत आदि) का प्रयोग करते हैं और 
अद्व त दर्शन को व्यक्त करते हुए आत्मा और परमात्मा की एकता को 'जल और 
जलकुम्भ” के माध्यम से व्यक्त करते हैं 

जायसी का रहस्यवाद पूर्णछ्पेण भावनात्मक है जिसमें 'प्रेम की पीर' को 

सर्वाधिक महत्व दिया है । इसी प्रेम की पीर' के हारा आत्मा को परमात्मा की 

उपलब्धि होती है । परमात्मा से मिलने फे लिये आत्मा को चार दशाएं पार करनी 
पड़ती हैं--शरियत, तरीकित, हकीकत और मारिफत । 

जायसी ने कबीर की भाँति ब्रह्म को प्रियतम न मानकर फारसी पद्धति के 
अनुरूप उन्हें प्रेयसी माना है और एक लौकिक प्रेयसी के रूप में चित्रित किया है। 
ईश्वरीय सौन्दर्य की अभिव्यक्ति हेतु ही उन्होने लौकिक नायिका के अद्भुत एवं 
अनुपम सौन्दर्यं की वर्णना की है । इसके साथ ही उन्होंने आत्मा-परमात्मा के मिलन 
की आध्यामिक यात्रा की विभिन्न मंजिलों को भी प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त 
किया है । 

जायसी की रहस्य सावना पर कबीर की भाँति अद्व तवाद का प्रभाव भी 
स्पष्ट है । उनके अनुसार आत्मा-परमात्मा मिलकर शराब ओर पानी की भाँति 
एकमेक हो जाती है । 

जायसी की रहस्य साधना में हठयोग की साधना के प्रतीक एवं पदावली भी 
यत्र तत्र प्रयुक्त हुये हैं । 

डॉ० रामकुमार वर्मा के शब्दों में कबीर का रहस्यवाद अपनी विशेषता लिए 
हुए है । वह एक ओर तो हिन्दुओं के अद्व॑तवाद के क्रोइ में पोषित है और दूसरी 
ओर मुसलमानों के सुफी सिद्धान्तो का स्पर्श करता है। रहस्यवाद में भी उन्होंने 
अवै तवाद और सूफीमत की 'गंगा-जमुनी' साथ ही बहा दी ॥ कबीरदास ने रूपक 
का सहारा लेकर अपनी रहस्यानुभूति की अभिव्यक्ति की है । उनके रूपक स्वाभाविक 
होने पर भी जटिल हैं क्योंकि इनके द्वारा अगम्य का बोध कराया गया है। 
सुफी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ 

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के अन्तर्गत सूफी कवियों के प्रेम काव्य की 
रचना हुई । सूफी कवियों की प्रेमगाथाओं की निम्नलिखित प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैँ 












१ जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, भीतर बाहर पानी । 
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यहि तत कथहु गियानी । 


~ 


मौखिक+परीक्षा पथप्रदशिका 





मसनधी पद्धति पर प्रेमगाथाओं की रचना--उन्होंने कथानक को 
गति देने के लिए उन सभी कथानक रूढ़ियों को अपनाया जो भारतीय 
कथाओं में परम्परा से चली आ रही थीं, साथ ही फारसी मसनवी 
पद्धति को अपनी प्रेमगाथाओं का आधार बनाया । 

सूफी प्रेमगाथाओं में हिन्दुओं की संस्कृति का मार्मिक चित्रण हुआ है 
बयोंकि इन प्रेमगाथाओं का आधार अधिकांशतः हिन्दुओं की लोक 
गाथाए है। 

सुफी-प्रेमगाथाओं में लौकिक प्रेमाख्यानों के हारा अलौकिक प्रेम की 
व्यञ्जना की गई है। इसीलिए उसमें समासोक्ति पद्धति मिलती है। 
सूफी प्रेमगाथाओं की रचना अवधी भाषा में हुई है । 

सूफी प्रेमगाथाओं की रचना प्रमुख रूप से प्रवन्ध-शैली में हुई 

मुक्तक शेली की रचनाए भी मिल जाती है । 

सूफी प्रेम काव्य में साम्प्रदायिकता का अभाव है, प्रबन्ध काव्यों में 
नायक का विशेष महत्त्व है, वह आत्मा का प्रतीक है । 

सुफी प्रेमगाथाओं में अलौकिक की मासिक व्यञ्जना के साथ ही हठयोग 
को साधना का गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है जिसे उन्होंने रूपक के 
द्वारा व्यक्त किया है । 

प्रेम भावना--सूफियों ने स्वछन्द प्रेम या रोमान्टिक प्रेम की अभिव्यक्ति 
की है । किन्तु इसमें सामाजिक मर्यादाओं के प्रति सम्मान भी प्रदर्शित 
किया है । 


प्रेममार्गो सुफी काव्यधारा के प्रमुख कवि 
प्रेममार्गी सूफी काव्यधारा के प्रमुख कवि थे हैं--- 


१. 


२. 


शत 


कुतबन (समय संवत्‌ १४५०)--इनकी रचना सृगावती चौपाई-दोहा में 
संवत्‌ १५४८ में रची गई । 

मंभत-- इनका समय अज्ञात है इनकी रचना 'मधुनालती”' की खण्डित 
प्रति मिली हे । इसमें चौपाई-दोहा पद्धति है। इसकी रचना मृगावती 
के पीछे हुई, ऐसा पं० रामचन्द्र शुवल का अनुमान ९ 
मलिक मोहम्मद जायसी--इनकी सुप्रसिद्ध रचना पद्मावत एक महा- 


` काव्य है, इसकी रचना सन्‌ १५५० में प्रारम्भ हई । पद्मावत में प्रेम- 


गाथा की परम्परा पूर्ण प्रौढ़ता को प्राप्त मिलती है । 
उसमान--इन्होंने १६१३ ई० में चित्रावली की रचना जायसी के पद्‌ 
मावत के अनुकरण पर की । 


शेखनबी (संवत्‌ १६७६)--इनकी रचना ज्ञानदीप एक आख्यान 
काव्य है । 





भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ शश 
६. कासिमशाह-इन्होंने संवत्‌ १७८८ के लगभग 'हंस जवाहिर' की 
रचना की । 
७. नुस्मुहम्मद-इन्होंने संवत्‌ १८०१ में इन्द्रावती’ नामक आख्यान 
काव्य लिखा । 
जायसी के पद्मावत का कथानक 
भक्तिकाल में सूफी प्रेमकाव्यधारा के प्रवतंक महाकवि मलिक मोहम्मद 
जायसी मे 'पद्मावत' नामक महाकाव्य प्रस्तुत किया है। पद्मावत भें सिंहलद्वीप के 
राजा गन्धर्वरीत की कन्या पद्मावती और चित्तौड़गढ़ के राजा रतनसेन की प्रेम-कथा 
है । हीरामन तीते से पद्मावती के रूप को प्रशंसा सुनकर राजा विरह-व्याकुल हो 
जाता है और अपनी रानी नागमती तथा राजपाट को छोड़कर योगी बनकर 
सिहलद्वीप को चल देता है । अनेक बाधाओं के बाद वह शिवजी की छुपा से पद्मावती 
को प्राप्त करता है । चित्तौड़गढ़ लौटने पर वह अपने दरबार के राघवचेतन नामक 
पंडित से वाद-विवाद में झगडा होने पर क्रोध में उसे देशतिकाला देता है। 
राघवचेतन को रोकने के लिए पद्मावती झरोखे में से स्वर्णकंकण फेंकती है। 
राघवचेतन पद्मावती के सौन्दर्य की प्रशंसा दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन से करके 
उसे चित्तौड़ पर चढ़ाई करने को प्रेरित करता है । बहुत दिन युद्ध चलता है, बाद 
में अलाउद्दीन घोले से रतनसेन को कंदकर लेता है । पद्मावती के चातुर्य तथा गोरा 
बादल की वीरता से रतमसेन छूटकर घर आ जाता है किन्तु कुम्भलनेर के राजा 





> 


देवपाल से, जिसने रतनसेत की कैद के समय पद्मावती को फुसलाने का प्रयत्न किया 
था, लड़ते-लडते मारा जाता है। अन्त में नागमती और पद्मावती रतनसेन के शव 
के साथ सती हो जाती हैं। 
एद्सावत अन्योबित या समासोबित 
अन्योक्ति वह अलंकार है जिसमें अप्रस्तुत वर्णन के द्वारा किसी प्रस्तुत अर्थं 
की व्यंजना की जाय । इसमें बित विषय को प्रधानता नहीं दी जाती । 
समासोक्ति में प्रस्तुत के कथन में अप्रस्तुत का वर्णन भी निकलता है। इसमें 
प्रस्तुत प्रधान होता है, वणित विषय ही प्रधान हे ! 
विद्वानों में पद्मावत के सम्बन्ध में चार विचारधारा प्रचलित हुँ- 
१, पद्मावत का कोई निश्चित आध्यात्मिक अर्थ नहीं है क्योंकि उसमें केवल 
आध्यात्मिकता का अनावश्यक आरोपण है । 
२. पद्मावत एक अग्योक्ति काव्य है, समस्त कथा में एक सांकेतिक अथं 
है, उसो को कवि प्रधानता देना चाहता है! 
३. पद्मावत एक समासोक्ति काव्य है, इसमें प्रस्तुत लौकिक प्रेम में आध्या- 
| त्मिकता व्यंजित होती है । " 
४. पदूमावत भें अन्योक्ति और समासोक्ति दोनों का मिश्रित रूप मिलता है । 
पद्मावत को जिस उद्धरण के बल पर अन्योक्ति काव्य कहा जाता था वहू 
| स्वर्गीय डॉ० माताप्रसाद पे प्रक्षिप्त सिद्ध कर दिया हैत « के; 


डर मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


तन चितउर मन राजा कीन्हा। 
हिय सिंहल बुधि पश्षनि चीन्हा ॥ 

अतः यह अन्योक्तिपूर्ण काव्य नहीं साना जा सकता है । उपयु'क्त उद्धरण का 

रूपक भी पद्मावत पर ठीक से नहीं घटता । 
पद्मावत को शुकलजी ने भी समासोक्तिपरक काव्य माना है क्योंकि इसमें 
प्रस्तुत कथा प्रधान होते हुये भी कहीं-कहीं आध्यात्मिकता की भी व्यंजना की गई है। 
इसमें वाच्यार्थ ही प्रस्तुत है और व्यंग्यार्थ अप्रस्तुत होने से यह समासोक्ति पद्धति पर 
लिखा हुआ माना जा सकता है । 
जायसी के पद्मावत का वेशिष्टय 

मलिक मुहम्मद जायसी सूफी काव्यधारा के प्रवर्तक या सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण 
कवि माने जाते हैं । उनका पद्मावत महाकाव्य के लक्षणों से युक्त उत्कृष्ट महाकाव्य 
है । इसकी प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं-- 

१. पदुमावत में प्रारम्भ में मंगलाचरण, देश के राजा की स्तुति एवं गुरु 
वन्दन है । 

` पद्मावत की रचना रामकाव्य की सिद्ध अवधी भाषा में हुई है । 

३. पद्मावत की कहानी में पूर्वाद्धे काल्पनिक और उत्तराद्ध ऐतिहासिक है, 
तथापि इन दोनों का ऐसा समन्वय है कि कवि के प्रबन्ध सौष्ठव पर 
आइचय होता है । 

४. जायसी ने चित्तौड़ के राजा रतनसेन को नायक और सिहल की राज- 
कुमारी पद्मावती को नायिका के रूप भें प्रस्तुत किया है। यद्यपि 
कथानक का ऐतिहासिक आधार है और उसमें प्रत्यक्ष रूप से लौकिक 
प्रेम का वर्णन हे, किन्तु यह लौकिक प्रेम आध्यात्मिक प्रेम की व्यंजना 
करने वाला है । इस प्रकार पद्मावत एक समासोक्ति है । 

५. पद्मावत में रहस्य की प्रवृत्ति वेदान्त की अद्वेत भावना के आधार पर 
प्रस्तुत की गई है । 

६. पद्मावत में श्वंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सुन्दर वर्णन 
हुआ हे । नागमती का विरह-वर्णन तो हिन्दी साहित्य में अनुपम माना 
जाता है। ५ ५ 

७. जायसी बहुश्रुत थे, उन्होंने केवल हिन्दू कथानक ही नहीं लिया वरत 
हिन्दू धर्म की बहुत-सी बातें प्रस्तुत की हूँ । 

८. पद्मावत की रचना तुलसीदास की सी दोहा-चौपाई पद्धति पर हुई है। 

&. पद्मावत में लोकजीवन की शिक्षाप्रद सूक्तियों, भौतिक तत्त्वों, मुहावरों 
तथा किवदन्तियो का प्राधान्य है । 

१०. जायसी ने पद्मावत में मसनवी शैली से 


से प्रभावित होकर कल्पना की 
प्रचुरता कर दी है । कं 2 


पू. 


श्युँगारकाल या रीतिकाल के हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ 


रीतिकाल या श्यू गारकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएं 

रीतिकाल या श्यृंगारकाल का साहित्य मध्यकालीन दरबारी संस्कृति का 
प्रतीक है । राज्याश्रय में पली इस आंगारी कबिता में रोति और अलंकार का प्राधान्य 
हो गया । जो दरबारी संस्कृति को त्याग सके उनकी कविता में 'प्रेम की पुकार' का 
स्वरूप रीति से मुक्त है किन्तु श्वुङ्खार उनकी भी प्रमुख प्रवृत्ति है । संक्षेप में श्युंगार- 
कालीन साहित्य की निम्नलिखित प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैत 

१--श्रंगार रस का प्राधात्य-श्टङ्गारकाल के रीतिबद्ध रीतिमुक्त, या 
स्वच्छन्दतावादी एवं वीरकाव्य की रचना करने बाले सभी आचार्य एवं कवियों ने 
श्रृंगाररस को महत्ता प्रदान की । श्वुंगार की भावना उनके काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति 
बन गई । 

२--शूंगारकाल की कविता में अलंकरण का प्राधान्य है इसको लक्ष्य 
करके मिश्रबन्धुओं ने इसकाल का नामकरण 'अलंकृतकाल' किया था। शृंगारी . 
रचनाओं में अलंकरण एवं चमत्कार प्रदशन आवइअक भी था। आचार्य कवियों ने 
अलंकारों की विवेचना क रने वाले ग्रन्थों की भी रचना की । रीतिमुक्त, रीतिबद्ध एवं 
वीरकाव्य के रचयिता सभी में समान रूप से यह प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है । 

३—मुक्तक शेली का प्राधान्य- श्टङ्गारकाल में कुछ प्रबन्ध काव्यों की 
रचना भी हुई, किन्तु मुक्तक शैली का प्राधान्य रहा । यही श्रंगारकाल की काव्य- 
प्रवृत्ति के अनुरूप शैली थी । रीतिबद्ध और रीतिमुक्त तथा वीरकाब्य रचयिताओं, 
सभी ने मुक्तक शेली को अपनाया । 


४७ 


ड्द मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
४ ब्रजभाषा फा प्राधान्य--भक्तिकाल में ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं 
में काव्ययूजत हो रहा था किन्तु श्युज्ञारकाल में ब्रजभापा का प्राधान्य एवं चरमो- 
न्नति हुई । 

५--नारी का प्रेमिका स्वरूप--श्पृंगारकाल की कविता में नारी केवल पुरुष 
के रतिभाव का आलम्बन बनकर रह गई, उसके सामाजिक अस्तित्व का उद्घाटन 
नहीं हो पाया । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में “यहाँ नारी कोई व्यक्ति या 
समाज के संघटन की इकाई नहीं है, बल्कि सब प्रकार की विशेषताओं के बन्धन से 
यथासम्भव मुक्त विलास का एक उपकरण मात्र है।' 

६--लक्षण ग्रन्थों की प्रधानता--श्गंगारक[ल में रीतिबद्ध कवियों का प्राधान्य 
है, जिन्होंने रीति या शास्त्र की भूमिका पर अपनी कविता का निर्माण किया 
इन्हें संस्कृत के काव्यशास्त्र की समृद्ध भूमिका पर रीति या लक्षण ग्रन्थ लिखने की 
प्रेरणा मिली । जिन कवियों ने लक्षण ग्रन्थ नटीं लिखे, उन्होंने भी अपनी काव्यरचना 
का सारा बंधान रीति की परिपाटी प्र बांधा है। 

७--प्रकृति का उद्दीपन के रूप में चित्रण--सेचापति के अतिरिक्त प्रकृति का 
आलम्बन रूप में चित्रण श्रृंगारकाल में नहीं मिलता । श्यंगारकालीन कविता में प्रकृति 
का प्रमुखतया उद्दीपन रूप में ही चित्रण हुआ है और पट्ऋतु एवं वारहमासे की 
पद्धति को विशेष रूप अपनाया है 

८--वीररस की कविता--श्युंगारकाल में एक ओर मुगल दरवार का विलास 
एवं श्रृंगार रस वातावरण को प्रभावित किए हए था, वहीं दूसरी ओर भारतीय 
पीडित जनता भी मराठे, सिखों आदि के नेतृत्व में विद्रोह कर रही थी । अतः वीर- 
काव्य का सृजन भी हो रहा था । भूषण, लाज, सूदन एवं पद्माक्रर आदि कवियों ने 
हिन्दू बीरों की वीरता के सम्बन्ध में उत्कृष्ट वीररस की कविता का सृजन किया । 


रीलिकाव्य की थु गारिकता का रूप 
हिन्दी साहित्य फे श्टंगारकाल या रीतिकाल के अन्तर्गत दो प्रकार की श्ुंगारी 
रचनाएं प्राप्त होती हैं--- 
(१) रीतिवद्ध या रीतिकाव्य 
(२) रीतिमुक्त या उन्मुक्त प्रेमकाव्य 
रीतिकाव्य की श्रुंगारिकता की प्रमुख विशेषताएं विद्वानों ने ही इस प्रकार 
बताई हैं-- 
१. उसका प्रधान रूप रसिकता है, प्रेम नहीं । यह रसिकता इन्द्रिय प्रधान 
या उपभोग प्रधान है । । यह पूर्णतया लौकिक है और कामोत्तेजक है । 
२. रीतिकाब्य में शङ्गारिकता रसिकतामूलक है, अतः वासना को उसमें 
अपने प्राकृतिक रूप में ग्रहण करते हुए उसी की तुष्टि को प्रेम मान 
लिया है । उस पर रहस्यवाद या भक्ति का आवरण नहीं डाला है । 





श्रृंगारकाल या रीतिकाल के हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ४६ 


३. रीतिकाव्य की श्वृंगारिकता में उपभोग की प्रधानता है, साथ ही इसका 
रूप गाहंस्थिक है । इसमें बाजारी इश्क या दरबारी वैया-विलास नहीं 
है और रोमानी प्रेम की साहसिकता का भी अभाव है। 
४, रीतिकाव्य की श्ङ्गारिकता में तरलता तथा छटा अधिक है, आत्मा 
की पुकार एवं तीव्रता कम है । हज 
रीतिकाव्य की श्यूज्ञारिकता के उपयु'क्त स्वरूप का कारण डॉ० नगेन्द्रजी ने 
युग के जीवन का अस्वस्थ रूप माना है ! जिस युग में राजनीतिक और आथिक 
पराभव अपनी चरमसीमा तक पहुँच गया हो उस युग का दृष्टिकोण स्वस्थ कैसे हो 
सकता है। वांछित अभिव्यक्ति के अभाव में जीवन की वृत्तियो का वह संतुलन नष्ट 
हो गया था जो जीवन-दर्शन को स्वस्थ और परिपुष्ट बनाता है ।' 
रीतिग्रन्थों का प्रवर्तक आचार्य कोन है ? 

हिन्दी में रीतिग्रन्थों की परम्परा संस्कृत के काव्यात्मा के स्वरूप को स्पष्ट 
करने के लिए बने पाँच सम्प्रदायों के अनुकरण पर चली । भक्तिकालीन अष्टछापीय 
कवि नन्ददास ने सर्वप्रथम (सं० १६००) 'रसमंजरी' में 'नायिका-भेद' निरूपण 
किया । कृपाराम का समय रामचन्द्र शुवल ने सं० १५६८ मानकर सर्वप्रथम उनकी 
चर्चा की है किन्तु चन्द्रबली पाण्डे ने उनका समय अन्तर्साक्ष्य के आधार पर १७६८ 
सिद्ध किया है । इनकी रचना 'हिततंरगिणी' नायिका भेद की रचना है। और भी 
कुछ कवि हैं जिन्होंने रस-अलंकार की चर्चा अपने ग्रन्थों में को है किन्तु सर्वप्रथम 
केशवदास (जन्म सं० १६१२ मृ० १ ६७४) ने काव्यांगों का सम्यक्‌ विवेचन किया । 
डाँ० श्यामसुन्दरदास ने केशवदास को हिन्दी में रीति ग्रन्थों का प्रवर्तक माना है। 
इनके दो ग्रन्थ हैं--ऋविश्रिया और रसिकप्रिया जिनमें क्रमशः अलंकार और रसों- का 
विशद विवेचन हुआ हैं ।- 

आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने आचार्य चिन्तामणि त्रिपाठी (संवत्‌ १७०० के 

आसपास) से हिन्दी में रीति-ग्रन्थों की अखंड परम्परा सानी है, अतः रीतिकाल का 
प्रारम्भ भी चिन्तामणि त्रिपाठी से माना है। शुक्लजी का कथन है कि केशवदास की 
किप्रिया के पचास वर्ष वाद तक हिन्दी में कोई लक्षण ग्रन्थ नहीं लिखा गया । दूसरे 
हिन्दी में रीतिग्रच्थों की जो परम्परा केशवदास के पचास वर्ष बाद चली वह केशव के 
दिखाये हुए मार्ग पर (भामह, उद्भट आदि संस्कृत के आचायो का मागं) न चलकर 
परवती आचार्यों (चिन्तामणि त्रिपाठी) के परिष्कृत मार्ग पर चली । अतः चिन्तामणि 
से ही रीतिग्रन्थों की परम्परा माननी चाहिये । इसमें सन्देह नहीं कि केशवदास ने 
हिन्दी में सर्वप्रथम रीति-अन्थों की रचना की--यह दूसरी बात है कि नवीन प्रवृत्ति 
का प्रवर्तत करने वाले के कुछ समय बाद उस प्रवृत्ति की परम्परा चले । 

जहाँ तक परवती हिन्दी के रीतिग्रन्यकारों द्वारा केशव की परिपाटी का 


प्‌ 





2 मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


आनुकरण न करने का प्रश्‍न है, उस सम्बन्ध में हमें यह कहना है कि केशव ने तो 
परिपाटी का प्रारम्भ किया, यही बात उनके महत्त्व का द्योतन करने के लिए पर्याप्त 
हैं। उन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी में रीतिग्रन्थों का सृजन किया । यद्यपि वे भक्तिकाल में 
हुए, गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे, तथपि उन्होंने अपने काव्य की मूलप्रेरणा 
संस्कृत के रीतिपरक ग्रन्थों से ग्रहण की । अतः वे भक्त कवि या भक्तिकालीन कवि 
नहीं कहे जा सकते हैं क्योंकि उनके काव्य की मूल प्रेरणा भक्ति नहीं है । 
केशवदास ने हिन्दी में सवंप्रथम रीतिग्रन्यो का सृजन किया । अपनी अनु- 
करणीय विशेषताओं के कारण यदि चिन्तामणि त्रिपाठी हिन्दी में रीतिग्रन्थो के प्रवर्तक 
माने जायं तो भी केशवदास का महत्त्व कम नहीं होता है । 
केशवदास 

केशवदास का स्थितिकाल भक्तिकाल की उत्तरी सीमा और श्ूंगारकाल फे 
प्रारम्भ में है । केशवदास तुलसीदास के समकालीन थे, अतः निश्चय ही वे भक्ति- 
कालीन थे किन्तु उनके काव्य में रीति-प्रवृत्ति को प्रश्नय मिला है, अतः विद्वान उन्हें 
रीतिकाल या श्रृंगारकाल के अन्तर्गत मानते हैं। उनकी प्रमुख एवं प्रसिद्ध रचनाएँ ये 
हैं--कविप्रिया (अलंकार ग्रन्थ), रसिकप्रिया (रस एवं नायिका-भेद सम्बन्धी ग्रन्थ) 
और केशवकौमुदी या रामचन्द्रिका (महाकाव्य) । 
विशेषताएं 

१. केशवदास संस्कृत के विद्वान थे, अपनी रचनाओं में पाण्डित्य प्रदर्शन 
हेतु इन्होंने अलंकरण का प्राधान्य कर दिया है और रस परिपाक की 
अपेक्षा चमत्कार तथा उक्ति वेचित्र्य की ओर अधिक ध्यान दिया हे । 

२. केशवदास की चमत्कारप्रियता के कारण उन्हें “कठिन काव्य का प्रेत 
कहा जाता है, उनमें सरसता का अभाव ह।ी | 

३. रामचन्द्रिका एक अलंकृत महाकाव्य है जिसमें प्रवन्धात्मकता की अपेक्षा 
चमत्कार प्रदर्शन पर अधिक ध्यान रखा गया है, रस परिपाक नहीं हो 
सका है । 

४. छन्दों की विविधता, अलंकारों का प्रार्य, उक्ति-वेचित्र्य की प्रवृत्ति, 
शब्दों की तोड़ मरोड़ एवं अर्थ की क्लिष्टता केशवदास की कविता के 
दोष हैं । इन्होंने कहीं-कहीं संस्कृत के इलोकों के अनुवाद प्रस्तुत करके 
दुरूहता उत्पन्न कर दी है। 

५. रामचन्द्रिका का संवाद-सौष्ठव इलाघनीय हे । इसके कुछ संवाद तो 
अप्रतिम है, तुलसी के मानस में भी वसे फड़कते हुए, सजीव, हाजिर- 
जबाबी से पूर्ण संवाद नहीं हैं । 

६. केशवदास का प्रकृति वर्णन भी कृत्रिम, अलंकृत और उद्दीपन रूप 
में है। 





RIT ओं 


श्ृंगारकाल या रीतिकाल के हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ५१ 


७. केशवदास का महत्त्व कवि की अपेक्षा एक आचार्य के रूप में 
अधिक है । 

केशव का वर्णन-कौशल 

१. केशव की रामचन्द्रिका में उनका वर्णन-कौशल प्रशंसनीय है । 

२, बाह्य-हृष्य-चित्रण केशव के समान अन्य कोई कवि नहीं कर सका है । 
उनके बाह्य हृश्य-चित्रण सजीव तथा फड़कते हुए हैं । 

३, इन वर्णनों में केशव का पांडित्य-दर्शन और चमत्कार-प्रदर्शन मिलता 
है । इसमें नदी, पर्वत, उपवन, युद्ध, सेना प्रयाण, सूर्योदय, समुद्र आदि 
का सुन्दर और चमत्कारी वर्णन हुआ है । 

४. केशव ने वस्तु, प्रकृति, चरित्र, प्रभाव एवं भाव सौन्दयं का बड़ा ही 
उत्कृष्ट चित्रण किया है । 

केशव की रामचन्द्रिका में वर्णन कौशल छः रूपों में सामने आता है 





१--रूप या आकृति वर्णन में 
२--वस्तु-वर्णन में 
३--प्रकृति वर्णन में 
४--च रित्र-वर्णन में 
५--प्रभाव वर्णन में और 
६--भाववणंन में । 
क्रेशवदास का संवाद-सौष्ठव 
केशवदास के महाकाव्य रामचन्द्रिका में उनके संवाद-सौष्ठव की ” सभी समी- | 
क्षकों ने प्रशंसा की है । उनके संवादों की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार है 

१, संवादों के द्वारा पात्रों की चरित्रात विशेषताओं का उद्घाटन । 
२. संवादों से कथा को गति एवं सजीवता प्रदान करना-- इनसे प्रबन्ध में | 

नाटकीयता और अभिनेयता आ गई है । | 
३. पात्रानुकूल भावों की व्यञ्जना अत्यन्त उत्कृष्ट है। केशव के संवादों 

में पात्रों के अनुकूल क्रोध, उत्साह आदि भावों की व्यञ्जना हुई है । 
४, संवादों में सरलता एवं सजीवता के साथ वाग्वैदग्ध्य हे । वाकूपट्रुता से 

उनके संवादों में रोचकता आ गई है। उनके संवादों में राजनीतिक 

दाँव-पेच का आभास भी भावपूर्ण है, यथा रावण-अंगद संवाद में । 
५, संवादों में पात्रोचित शिष्टाचार का-निर्वाह सफलता से हुआ है। 
६, संवाद संक्षिप्त हैं, गागर में सागर भर दी है। एक ही पंक्ति में दो 

प्रश्‍न और दो उत्तर तो और भी चमत्कारी हैं। उनके संवाद सजीव 

एवं फड्कते हुए हैं । 


i 
4 
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प्र मौखिक-परोक्षा पथप्रदशिका 


केशव का प्रकृति चित्रण 

महाकधि केशबदास को काव्य का प्रेत कहा जाता है । उनका प्रकृति 
चित्रण भी अलंकारों के बाहुल्य से उतना मनोहारी नहीं है । रामचन्द्रिका में हमें पाँच 
रूपों में प्रकृति-वर्णन मिलता है-- 

१, वस्तु परिगणन शैली कै रूप में--यद्यपि केशवदास ने एकाध स्थल पर 
प्रकृति का आलम्बन रूप में चित्रण किया है किन्तु वह वस्तु परिगणन 
शैली में है। 

२, उद्दीपन रूप में केशव का प्रकृति चित्रण परम्पराभुक्त है । 

३, अप्रस्तुत या अलंकृत शेली या उपमान के रूप में केशवदास का प्रकृति- 
चित्रण उतना हादिक नहीं हे कि सहृदय को प्रभावित कर सके। 
उनका उद्देच्य वर्णन को प्रत्यक्ष एवं भावगम्य बनाना न होकर विभिन्न 
वर्णन शैलियों का प्रयोग था । 

४, मांनवीकृत रूप में प्रकृति का चित्रण केशव ने पंचवटी और समुद्र के 
चित्रण में किया है । 

५, उपदेशात्मक रूप में केशव ने प्रकृति का चित्रण कम ही किया है । 

निष्कर्ष यह कि केशव का प्रकृति के प्रति सहज अनुराग नहीं था । कहीं-कहीं 

तो उन्होंने प्रकृति को विकृत कर दिया है-सूर्य को कापालिक के खुन से भरे खप्पर 
की संज्ञा दी है । प्रकृति-वर्णन में वह औचित्य एवं सन्तुलन नहीं रख सके हैं । 


बिहारी सतसई की विशेषताएं 


[री ने अपनी सतसई के दोहों में “गागर भें सागर भर दिया है। एक 
छोटे से दोहा छन्द में उन्होंने रस की निष्पत्ति कराके अपुर्व कौशल प्रदाशित किया 
है । उनकी सतसई की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-- 

१. गरी की सतसई पर सातवाहन हाल (ईसवी प्रथम शती) की प्राकृत 
में रचित गाथा सप्तशती और गोवर्धनाचार्य (१२ वीं शती) की संस्कृत 
में रचित आर्या सप्तशती' का व्यापक प्रभाव पड़ा है । 

२. र गार रस--बिहारी सतसई में रसराज श्वृंगार का वर्णन प्रधान है । 

न्होने श्वृंगार के संयोग और विप्रयोग, दोनों पक्षों का मार्मिक चित्रण 
किया है । उन्होंने श्वृंगार के हाव-भाव एवं अनुभावों का सूक्ष्म एवं 
चमत्कारपूर्ण वर्णन किया है । 

३. भाव विभोरता- बिहारी सतसई में ऊहात्मक उतक्तियों के साथ ही 
भाव विभोर करने वाली अप्रतिम रसोक्तियाँ भी हैं। उनकी भावो- 
त्कृष्टता का प्रभाव परवर्ती श्रंगारी कवियों पर भी पड़ा है । 

४. भाषा- बिहारी की साहित्यिक भाषा में समाहार शक्ति-लक्षणा एवं 
व्यंजना शक्ति का प्राधान्य है । 


श्रृंगारकाल या रीतिकाल के हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ५३ 


५, लोकप्रियता-बिहारी सतसई की लोकप्रियता परवर्तीकाल में उसके 
व्यापक अनुकरण से सिद्ध है । 


बिहारी सतसई की लोकप्रियता 


हिन्दी साहित्य के रीतिकाल (श्रृंगारकाल) में अनेक श्युंगार-सतसईयों की 

रचना हई, जिनमें बिहारी की सतसई ही सर्वाधिक लोकप्रिय हुई । 

बिहारी की सतसई की लोकप्रियता का प्रमाण उस पर लिखी गई शताधिक 

टीकाएँ हैं । परवर्तीकाल में बिहारी सतसई के अनुकरण पर अनेक सतसई ग्रन्थों का 
निर्माण हुआ--एक प्रकार से सतसई-परम्परा ही चल पड़ी । विशेषता एँ-- 

१. बिहारी सतसई एक श्युगार प्रधान रचना है जिसमें भक्ति, शान्त, वीर, 
हास्य आदि रसों की भी मामिक व्यंजना मिल जाती है । 

२. इसमें रस-विवेचन, नायिका भेद, शगार के दोनों पक्षों का चित्रण, 
प्रकृति वर्णन आदि रीतिकालीन काव्य-पद्धतियों एवं विषयों का 
समावेश किया है । 

३. मुक्तक काव्य में समाहार शक्ति का प्रदर्शन उनकी मौलिक विशेषता 
है । छोटे से दोहा छन्द में भाषा की कसावठ, भावों की मौलिकता 
एवं अर्थ गाम्भीर्यं अनुपम है । 

४. विहारी को अपनी सतसई निर्माण की प्रेरणा हाल की प्राकृत भाषा में 
रचित गाथा सप्तशती” तथा संस्कृत के अमरुकशतक तथा आर्या 
सप्तशती से मिली । त 

५. विहारी के समकालीन एवं परवर्ती कवियों में से बहुतों ने उनके भाव 
एवं शैलियों के अनुकरण का प्रयास किया । उनके दोहों की पद्यपरक 
(कुडलिया छन्द में) ब्याख्याए भी प्रस्तुत की गई । हिन्दी साहित्य मे 
बिहारी की सतसई की लोकप्रियता आश्चर्यजनक है। 

मतिरास का कृतित्व (जन्म संवत्‌ १६७४) 


मतिराम रीतिकाल या श्युंगारकाल के प्रमुख कवि है । परम्परा से ये आचायं 
कवि चितामणि तथा भूषण के भाई प्रसिद्ध हैं। ये बदी के महाराव भार्वापह के 
राज्याश्रय में थे । 

रचनाएँ--इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ रिसराज' और 'ललित-ललाम' हैं। इनके 
अतिरिक्त इनके चार ग्रन्थ ये हैँ--मतिराम सतसई, साहित्यसार, लक्षण श्यंगार और 
छन्दसार । 

पं० रामचन्द्रशुक्ल ने 'रसराज' में रसों और अलङ्कारों के रमणीय उदाहरणों 
की चर्चा करते हुए इसकी लोकप्रियता का कथन किया है । ललितललाम' में 
अलङ्कारों के उदाहरण अत्यन्त सरस एवं स्पष्ट हैं । ये दोनों ग्रन्थ सरसता एवं 
स्पष्टता के कारण इतने सर्वप्रिय रहे हैँ । ही रक 





शि मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिकां 


भावपक्ष--मतिरामं कां काव्य सरस एवं स्वाभाविक है । इनके भावव्यंजक 
ब्यापारों की श्रृंखला सीधी और सरल है । इन्होंने विरह की मामिक व्यंजना की है । 
गे सच्चे कवि हृदय थे” अतः सच्ची भाव विभूति के मर्मस्पर्शी चित्रों में अनुभूतिपूणं 
भाव प्रस्तुत किये हैं । इनमें बिहारी की सी अतिशयोक्ति एवं ऊहात्मकता का अभाव 
है। ये भावों को असमान पर चढ़ाने और दूर की कौडी लाने के फेर में भी नहीं 
पड़े । 

इनकी भाषा भी भावों की भांति अकृत्रिम है, उसमें शब्दाडम्बर का नितान्त 
अभाव है । केवल अनुप्रास का चमत्कार दिखाने के लिए अशक्त शब्दों की भरती 
नहीं की है । जितने शब्द और वाकय है, वे सब भावव्यंजना से ही प्रयुक्त हैं । अन्य 
रीतिग्रन्थकारों की अपेक्षा इनकी भाषा स्वच्छ, चलती हुई एवं स्वाभाविक है । 


रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएं 


रीतिकाल या श्यद्भारकाल की रीतिमुक्त काव्यधारा अपना विशेष महत्त्व 
रखती है । यह श्मुज्ञारी कविता रीति का बंधान ढीला करके स्वच्छन्दतावादी मनो- 
वृत्ति की द्योतक है। रीतिमुक्त काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएँ संक्षेप में इस 
प्रकार हैं-- ग्‌ न 

१--रीतिमुक्त काव्यधारा में चित्रित श्रृङ्गार विलास एवं कामभूलक न 
होकर उदात्त रूप में चित्रित हुआ है। इसमें भाव गम्भीय एवं वियोग पक्ष का 
प्राधान्य है। प्रेम का वर्णन भी दूती या सखियों के माध्यम से न. होकर आत्मा की 
पुकार एवं प्रेम की आन्तरिक भावना के रूप में हुआ है। इसमें किसी प्रकार की 
बक्रता न होकर तीब्र ऐक्रान्तिक भाव का प्राधान्य है, वासनोन्मुखता का अभाव है । 
पं० विइवनाथप्रसाद मिश्र के शब्दों में “इनमें स्वच्छन्दतामूलक प्रवृत्ति (रोमांटिक 
स्पिरिट) प्रेम की प्रकत भूमि पर आरुढ होने के लिए जगी थी, वासना के गड्ढे में 
गिरने के लिये नहीं ।' 

२--रीतिमुक्त काव्यधारा में विरहानुभूति का मार्मिक वर्णन है । वियोग में 
प्रेमी के हृदय की अन्तर्दशाओं, व्यंग्योक्तियों, उपालम्भ इत्यादि का भी सुन्दर वर्णन 
होता है । इन की प्रेम की पीर सूफी प्रेम की पीर से प्रभावित है । 

३--एकान्तवादी प्रेम का चित्रण-- रीतिमुक्त काव्य में ऐकान्तिक या एक 
तरफा प्रेम की निष्ठा का वर्णन फारसी शैली पर हुआ है । स्वच्छन्द कवियों ने प्रेम 
की पीर फारसी काव्यधारा की वेदना की प्रवृत्ति के साथ सूफी कवियों से ली है। 

४--रीतिमुक्तकाव्य में संयोग पक्ष का माभिक वर्णन है । वहाँ भी व्यं की 
मुद्राओं या हाव-भावों के हृदय पर पड़े प्रभाव का ही उल्लेख व का ही उल्लेख अधिक है । 

५-रीतिमुक्तकाव्य में श्रीकृष्ण की लीला का व्यापक प्रभाव _रष्टिगोचर 


होता है। रीतिमुक्त कवियों ने श्रीकृष्ण के अलौकिक आलम्बन के सहारे अपनी 
उन्मुक्त प्रेम की भाव-घारा को प्रवाहित किया है प्रेम की भाव-घारा को प्रवाहित किया है। a 








श्रुंगारकाल या रीतिकाल के हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ५५ 


६--रीतिमुक्तकाव्य की रचना भी मुक्तक शैली में हुई है। इस काव्य में 
कवित्त और सर्वय्या इन दो छन्दों को विशेष अपनाया गया है । 


७--अलंकरण का प्राधान्य--रीतिमुक्तकाव्य की अलंकर की प्रवृत्ति पाण्डित्य 
प्रदर्शन के लिये न होकर सूक्ष्म अन्तवृत्तियों का परिचय देने एवं प्रेम की विषमता 
का निरूपण करने के लिये दिखाई पड़ती है । 

८--री तिमुक्तका व्य में मुहावरे और लोकोक्तियों के विधान से स्वाभाविकता 
आ गई है 

8--इन कवियों ने ब्रजभाषा का भावानुकूल प्रयोग करके अपनी भाषा- 
प्रवीणता का परिचय दिया है। रीतिमुक्त कवियों ने ब्रजभाषा में विशुद्धता और 
प्रौढ़ता के साथ माधुर्ये का और कहीं-कहीं फारसी के शब्दों का विनियोग किया है । 


रौतिमुबत कवियों की प्रेम व्यञ्जना 


हिन्दी साहित्य के थर गारकाल (रोतिकाल) में एक धारा ऐसे कवियों को है 
जिन्होंने रीति के बन्धन को स्वीकार नहीं किया । इन रीतिमुक्त कवियों की प्रेम- 
व्यञ्जना का रूप रीतिबद्ध कवियों से भिन्न था । इनकी प्रेम व्यञ्जना की प्रमुख 
विशेषता एँ इस प्रकार हैं -- 

१. परम्पराभुक्त नायिका-भेद प्रणाली का परित्याग--रीतिमुक्त कवियों ने 
प्रिय के प्रति एकान्तनिष्ठा प्रदर्शित की है और अनुभवनिष्ठ प्रेम को 
महत्ता प्रदान करके रीतिवद्ध कवियों के द्वारा स्वोक्कत परम्परागत 
नैतिक मूल्यों को स्वीकार नहीं किया) 

२. अशरीरी मानसिक प्रेम--रीतिमुक्त कवियों का प्रेम रीतिबद्ध कवियों की 
भांति शरीरी न होकर मानसिक है। साथ ही इनके प्रेम में वेयक्तिकता 
का विशेष प्रभाव दिखाई पड़ता है । 

३. स्वच्छन्द नायक-नायिका --रीतिबद्ध कवियों ने अनेक प्रकार के नायक- 
ताथिकाओं के लक्षण उदाहरण दिए हैं । रीतिमुक्त कवियों ने स्वच्छन्द 
प्रेम के, उन्मुक्त प्रेम के रीतिरहित प्रेम के गीत गाए हैं। 

४, एऐकान्तिक प्रेम साधता पह मार्ग स्वच्छन्द होने के साथ ही लौकिक 
मर्यादाओं की अवहेलना करने के कारण विषम भौ है। इसमें समाज- 
पक्ष एवं परम्परा दोनों को अवहेलना हुई है । 

९ वियोग का प्राधान्य-उन्मुक्त प्रेम को तीव्रता--विरह की पीड़ा एवं 
विराशा के व्याकुल स्वर से तीव्रता होती गई है। फारसी कवियों की 
प्रेम की पीर का प्रभाव इन पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है । 

६. इत कवियों ने रूप-यौवन के साथ मानसिक दशाओं के भावपूर्ण वर्णन 

से वियोग की ममंस्पशिता को बढ़ाने का प्रयत्न किया है । 





i मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


घनानन्द (जम्म लगभग संवत्‌ १७४६) : विशेषताएं 
दि घनानन्द हिन्दी साहित्य के इतिहास के उत्तर मध्यकाल (श्वृंगारकाल या रीति 
काल) में प्रादुमू त हुए । उन्होंने श्रृंंगारकाल में रीतिमुवत काव्यधारा को अपनाया 
और उसे अपनी रचनाओं से उत्कर्ष प्रदात किया । 
घतानन्द स्वच्छन्द कवि थे जिन्होंने उन्मुक्त प्रेम के गान गाए हैं। उनके 
प्रेमकाव्य की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं--- 
भावपक्ष के अन्तर्गत--तीव्र एवं सरस विरहानुभूति का प्राधान्य--घनानन्द 
ने संयोग का भी वर्णन किया है किन्तु वियोग का वर्णन वे अधिक माभिकता से 
कर सके हैं। उनकी विरहानुभूति बड़ी तीब्र एवं सरस है। उसमें हृदय का 
सच्चा एवं तीव्र प्रेम उमड़कर बह रहा है। वे सच्चे प्रेमोन्मत्त गायक थे । 
उन्होने विरही हृदय की तड़पन, विरहिणी के उपालम्भ आदि का माभिक वर्णन 
किया है । ॥ 
घनातन्द ने विरह की दस अवस्थाओं का भी प्रभावपूर्ण वर्णन किया, साथ ही 
मेघ को दुत बनाकर विरहकाल में प्रणय-सन्देश भिजवाया है । 
कलापक्ष के अन्तर्गत--धनानन्द के काव्य की कलापक्षान्तर्गत निम्नलिखित 
प्रमुख विशेषताएं हैं-- चद > 
१. विरोधाभास का आश्रय लेकर उक्ति वैचित्र्य के सौन्दयं का उद्घाटन । 
विरोधाभास के अधिक प्रयोग से घनातन्द की सारी रचना भरी 
पाहि क 
२. नाद सोगन्दर्य--धनानन्द की भाषा की संगीतात्मकता में काव्य-सौन्दय 
काउत्कर्पहै। 
३. घनानन्द विशुद्ध, सरस और शक्तिशाली ब्रजभाषा का अपनी रचनाओं 
में प्रयोग करने के कारण ब्रजभाषा प्रवीण कहलाए । 


'बोधा का कृतित्व (जन्म संवत्‌ १८०४) 


इनका कविता काल संवत्‌ १५३० से १८६० तक माना जाता है । इनकी 
गणना रीतिकाल या श्यंगारकाल की रीतिमुक्त काव्यधारा के अन्तर्गत की जाती 
है । ये उन्मुक्त प्रेम का वर्णन करने वाले स्वच्छद कवि हैं। घनानन्द की भाँति 
इनकी भी एक वेश्या के प्रति आसक्ति थी । पन्ना दरबार में सुबहान (सुभान) नामक 
वेश्या के प्रति इनका प्रेम इनके 'विरह वारीश” में व्यक्त हुआ है। इनकी दूसरी 
प्रसिद्ध पुस्तक 'इश्कनामा' है ओर इनके अतिरिक्त कुछ फुटकल कवित्त एवं सवंये 
इधर-उधर बिखरे मिलते हैं । 

बोधा ने रीतिबद्ध या लक्षण ग्रन्थ की रचना नहीं की, ये उन्मुक्त प्रेम के 
रसोन्मत्त कवि थे । इन्होंने प्रेम-मार्ग के निरूपण में बहुत से पद्य प्रस्तुत किये हैं 


शुंगारकाल या रीतिकाल के हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ ५७ 


इन्होंने विरह की मार्मिक व्यञ्जना प्रस्तुत की है। इन्होंने प्रेम की पीर' की व्यञ्जना 
बड़ी मर्मस्पशिनी युक्ति से की है । इनमें प्रेम की उमंग एवं स्वभाव का फककड़पन 
था, जिसकी छाप इनकी कविता के भावपक्ष एवं कलापक्ष पर स्पष्ट दिखलाई 
इती है । 
बोधा ने अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग बहुतायत से किया है। इनको 
भाषा यत्र-तत्र व्याकरणिक त्र.टियों से युक्त होने पर भी चलती हुई और मुहाविरे- 
दार थी। 
श्र गारकाल या रीतिकाल में वीरकाव्य 


इन्दी साहित्य के इतिहास में साहित्य रचना के जिस काल को रीतिकाल 
या श्रंगारकाल कहा जाता है, उसमें उत्तम वीरकाव्य की रचना भी हुई। रीति 
काल के सर्वश्रेष्ठ वीरकाव्य के प्रणेता भूषण माने जाते हैं, जिन्होंने शिवाजी और 
छत्रसाल से संबंधित वीररस के उत्कृष्ट पद्य प्रस्तुत किए हैं । भूषण मुक्तक कवि थे। 
इस काल के अन्य मुक्तक वीरकाब्यकारों में शम्भुनाथ मिश्र, कवि खुमान, चन्द्रशेक्षर 
आदि हैं। 

रीतिकाल में वीर रस की प्रवन्ध काब्यों के रूप में अभिव्यक्ति अपना विशेष 
महत्त्व रखती है । लाल कवि का छत्र प्रकाश; पद्माकर का “हिम्मत बहादुर विरुदा- 
वली; सूदन का “सुजान चरित्र; श्रीधर का 'जंगनामा'; चन्द्रशेखर का “हमीर हठ' 
और जोधराज का 'हम्मीररासो' रीतिकाल के सुप्रसिद्ध वीररस सम्बन्धी प्रबन्ध-काव्य 
हैं। छत्रसिह कायस्थ द्वारा रचित महाभारत में भी वीररस का सुन्दर अंकन 
हुआ है । 
हिन्दी नीतिकाव्य : उद्भव और विकास 


नीति का सम्वन्ध नैतिकता से है । नैतिकता का प्राचीन भारतीय संस्कृति में 
महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । यही कारण है कि हमें ऋग्वेद से ही नीतिवचन मिलने 
प्रारम्भ हो जाते हैं। आगे चलकर तो संस्कृत में भी नीति काव्य एवं नीति कथाओं 
का स्वतन्त्र रूप में विकास हुआ। हिन्दी में भी नीतिकाव्य के तीन रूप 
मिलते हैं-- क्र हि 

१, स्वतन्त्र नीति काव्य--रहीम, वुन्द, घाघ, भड्डरी, वेताल, गिरिधर 


और दीनदयाल गिरि आदि की रचनाए स्वतन्त्र नीतिकाव्य का रूप 
प्रस्तुत करती हैँ। | 

२. नीतिपरक काव्य-सुधारवादी दृष्टिकोण वाले कबीर आदि .सन्तों के 
काव्य में उपदेशात्मक दृष्टिकोण मिलता है। कबीर ओर अन्य सन्तो 
ने, तुलसीदास और अन्य भक्त कवियों ने नीति और उपदेश सम्बन्धी 
बहुत-से पद्य प्रस्तुत किए हैं । यद्यपि ये कवि मुलतः भक्त कवि थे किन्तु 


इनका दृष्टिकोण] उपदेशात्मक था । 





0६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


३. परतन्त्र नीतिपरक पद्य--प्रायः सभी कवियों की रचनाओं में यत्र तत्र 
नीति वचन मिल जाते हैं। अनेक सूक्तियो एवं मुहावरों में भी नीति 
वचन या नीतिपरकता मिलती है । 
डॉ० भोलानाथ तिवारी ने नीतिकाव्य के दो वर्ग किए हैं-(;) मुक्तक नीति 
काव्य-जसे रहीम, वृन्द, गिरिधर, दीनदयाल तथा भगवानदीन के नीति मुक्तक 
पद्य । 

(ए) प्रबन्ध काग्यो में नीतिपरकता--जंसे पद्मावत, रामचरितमानस, 
रामचन्द्रिका आदि में प्राप्त होने वालो नीति विषयक सामग्री । 

मुक्तक वर्ग में नीति की फुटकल रचनाएँ, नीति की मुक्तक कविताओं के संग्रह 

ओर अन्य विषयक मुक्तक कविताओं के साथ संग्रहीत नीति कविताएँ आती हैं । 


भर गारकाल या रीतिकाल में भक्ति भावाधित काव्य 


श्वृंगारकाल की प्रमुख प्रवृत्ति म्यङ्गारप्रधान काव्य की रचना है। श्रद्धार- 
काल में उत्तम नोतिकाठ्पर, उत्तम वीरकाव्य और उत्तम भक्तिकाव्य की रचना भी 
हुई । 

श्ुद्धारकालीन भक्तिकाव्य के दो रूप मिलने हैं-- 

१--एक तो श्वज्भारी कवियों द्वारा यत्र तत्र भक्तिपूर्ण छन्दों की रचना, जैसे 
बिहारीलाल ने भक्तिभावपूर्ण कुछ मामिक पदों की रचना की हैं। महाकवि देव ने 
घोर शृङ्गार के साथ ही कतिपय भावपूर्ण भक्तिभाव के छन्द भी प्रस्तुत किए हैं । 

२--दूसरा रूप उन कवियों की रचना में मिलता है जो विशुद्ध रूप से भक्त 
कवि रहे है ओर अपने-अपने सम्प्रदायों में जिनका यथेष्ट मान रहा है। जैसे गुरु 
गोविन्दसिह ने सिक्ख सम्प्रदाय के अन्तगंत उत्तम भक्तिकाव्य का निर्माण किया । 

कृष्णभक्ति शाखा में भक्तवर नागरीदास (पुष्टि मार्ग), चाचा हितवृन्दावन 
दास (राधावहलभीय), भगवत रसिक, श्री हठीजी, गुमान मिश्र आदि की रचनाएँ 
भक्ति भावना और काव्य सोन्दय की दृष्टि से उत्तम हैं। 

इसी प्रकार ज्ञानमार्गी सत्त परम्परा में बाबा मलुकदास, सन्त चरनदास, 
सहजोबाई तथा दथाबाई की रचनाएँ उत्कृष्ट भक्ति-मावना-सम्पन्न काग्यग्रन्य हैं। 

इसी प्रकार जेन कवि भूधरदास, द्यानतराय, दौलतराम आदि ने शान्तरस 
प्रधान भजन प्रस्तुत किए । 


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आधुनिककालीन हिन्दी गद्य साहित्य : संक्षिप्त परिचय 


खड़ीबोली गद्य के चार प्रवर्तक 


खड़ीबोली गद्य का विकास आधुनिककाल में ही हुआ है। जिस समय हिन्दी 
कविता में ब्रजभापा का एकछत्र साम्राज्य था, उसी समय अंग्रेजों के शासन-विस्तार 
के साथ प्रेस, यातायात के समुन्नत साधत एवं देश की शान्तिपूर्ण व्यवस्था के साथ ही 
१६ वीं शताब्दी में शासन सम्बन्धी आवश्यकताओं के कारण गद्य का प्रादुर्भाव हुआ । 
यह गद्य खड़ीबोली का गद्य था, जिसके विकास में प्रारम्भिक काल में चार प्रमुख 
गद्यकारों ने महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया, इसीलिए वे चारों महानुभाव खड़ीबोली गद्य 
के प्रवर्तक कहलाते हैं । उनके नाम ये हैँ- लल्लुलाल जी, सदल मिश्र मुशी सदा- 
सुखलाल नियाज, और सैयद इंशाअल्लाखाँ । 

लल्लुलालजी- सनू र ८६० में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई और 
वहीं हिन्दी उदू के व्यापक के रूप में लल्लुलालजी की नियुक्ति हुई । वहों इनके 
द्वारा अपनी सुप्रसिद्ध रचना प्रेमसागर' का प्रणयन हुआ । 'प्रेमसागर' श्रीमद्भागवत 
के आधार पर निर्मित भगवान्‌ कृष्ण के ग्रेम का सागर है। इनका गद्य ब्रजभाषा 
का पुट लिए हुए तथा पण्डिताऊपन के कारण शिथिल है । 

सुदल सिश्च-- इन्होने नासिकेतोपाख्यान की रचना की। इनका खड़ीबोली 
गद्य के विकास में विशेष महत्त्व माना जाता है । इनकी भाषा-शैली का परवर्ती 
गद्यकारों ने अनुकरण भी किया । इन्होंने अपने गद्य में न तो ब्रजभाषा के रूपों की 
भरमार की और न काव्यमयी भाषा का प्रयोग किया । यह बिहार के थे अतः इनकी 
भाषा में पूर्वी प्रयोग मिलते हैं । इनकी भाषा में अधिक प्रवाह था, इसलिए वह 
परवर्ती खड़ीबोली गद्य साहित्य के विकास में सर्वाधिक सहयोगी सिद्ध हुई । 


२६ 





मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


मुशी सदासुखलाल नियाज -इनका गद्य पूरवीपन और पण्डिताऊपन के 
बाहल्‍य से शिथिल है। इसीलिए इनके संस्कृत मिश्रित गद्य का परवर्तीकाल भै 
अनुकरण न हो सका । इन्होंने विष्णुपुराण से कई उपदेशात्मक प्रसंग लेकर एक 
पुस्तक लिखी थी, जो पूरी नहीं मिली है । इन्होंने हिन्दुओं की शिष्ट बोलचाल की 
भाषा ग्रहण की, उद्‌' से अपनी भाषा नहीं ली । 

सुँय्यद इ'शाअल्ला खाँ ने खड़ीबोली गद्य में “रानी केतकी की कहानी” को 
रचनी की । इशा की कहानी का गद्य चटकीली, रंगीन, चुलबुली तथा मुहावरेदार 
भाषा लिए है। इनका फारसीपन से युक्त गद्य परवर्तीकाल में अनुकरणीयन बन 
सका । इनकी फारसी शैली की पद रचना का उदाहरण देखिए 'सिर झुकाकर नाक 
रगड़ता हूँ अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सबको बनाया । इस सिर भुकाने 
के साथ ही दिन रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को। यह चिट्टी 
जो पीकभरी कुवर तक जा पहुँची ।” 

उपयु क्त उदाहरणों से और अपनी रचनी की प्रस्तावना में इशा ने जेसा 
लिखा है, उससे स्पष्ट है कि उनका उद्देश्य ठेठ हिन्दी लिखने का था, जिसमें हिन्दी 
को छोड़ और किसी बोली का पुट न रहे । उन्होंने अपनी भाषा को अरबी फारसी- 
तुर्की, ब्रज और अवधी तथा संस्कृत के शब्दों से अलग रखने की प्रतिज्ञा की थी । 

पं० रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “आरम्भकाल के चारों लेखकों में इंशा की 
भाषा सबसे चटकीली, मुहावरेदार और चलती है / आगे उन्होंने लिखा है कि 'गद्य 
की एक साथ परम्परा चलाने वाले उपयुक्त चार लेखकों में आधुनिक हिन्दी का 
पूरा आभास मुझी सदासुखलाल और सदलमिश्र की भाषा में हो मिलता है । व्यव- 
हारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है । इन दो में भी मुशी सदासुख की साधु भाषा 
अधिक महत्त्व की हे । मुशी सदासुख ने लेखनी भी चारों में पहले उठाई, अतः गद्य 
का प्रवर्तत करने वालों में उनका विशेष स्थान समभना चाहिए ।' 


भारतेन्दुयुगीन नाटकों की विशेषताएं 


इस युग के नाटकों की दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं। एक तो इस युग के नाटकों 
में समय के साथ देवता, गन्धर्व, राक्षस आदि दंबी एवं पौराणिक पात्रों की कमी 
होती गई और इनके स्थान पर मनुष्य की बुद्धि और उसके भावों का चमत्कार अविक 
दिखाया जाने लगा । इस प्रकार नाटक का जीवन के विविध अंगों रो सम्बन्ध स्थापित 
हो गया। iE 

दुसरी महत्त्वपुर्ण बात पद्य के स्थान पर गद्य के प्रयोग की प्रचुरता एवं 
ब्रजभाषा के स्थान पर गद्य में पूर्णतया और ओर पद्य मे अंशत: खड़ीबोली की 
स्थापना है । ~ र 

यद्यपि शेली की इष्टि से इस युग में भी संस्कृत की शास्त्रीय पद्धति--नाँदी 
पाठ, भरल जाक, अकांवतार, स्वगतकथन--सन्धि-अर्थप्रक्ृति-कार्यावस्थाएँ आदि 








आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य का संक्षिप्त परिचय ६१ 


का अनुकरण हुआ है किन्तु कहीं-कहीं पारसी थियेटर शैली का प्रभाव भी दिखाई 
पड़ता है । 

भारतेन्द्र युग के अन्तिम दिनों में पारसी नाटक कम्पनियों के लिए भी कुछ 
उदू' ढंग के मनोरंजक नाटकों की रचना हुई । 


प्रसाद के नाट्य साहित्य की विशेषताएं 


जयशंकरप्रसाद के साथ ही हिन्दी नाट्य साहित्य चरम विकास को प्राप्त 
हुआ । उनका मौलिक व्यक्तित्व था । वे पुरानी रूढियों को हटाक अपने नाटक के 
पात्रों को स्वतन्त्र व्यक्तित्व प्रदान कर सके और चरित्र-चित्रण की ओर विशेष ध्यान 
देकर उन्होंने रस की धारा प्रवाहित की । उन्होंने विदेशी नाट्य शैली में भी जो कुछ 
अच्छा था, उसे अपना बनाकर अपना लिया । उन्होंने युरोप में प्रचलित शील-वंचित्र्य 
वाद का अन्धानुकरण (पात्रों के चरित्र-चित्रण में) न करके इस सिद्धान्त को रस- 
विधान के अन्तर्गत अपनाकर अपनी मौलिकता का परिचय दिया । प्रसादजी ने अपने 
नाटकीय पात्रों में अनेक प्रकार की परिस्थितियों के बीच जो अन्तद्वन्द्र की अवतारणा 
की है वह आधुनिक मनोविज्ञान के अनुकूल है । अच्तढ्न्द् के द्वारा प्रसादजी अपने 
नाटकीय पात्रों के मन के अनेक स्तरों को खोलकर दिखाने में समथ हुए हैं। नारी 
चरित्र की विविधरूपिणी कल्पना करके उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। 
ऐतिहासिक अनुशीलन और नवीन कल्पना के प्रयोग से उन्होंने नाठ्यःकला मे 
नवीन उद्भावनाएँ कीं । उनकी सांस्कृतिक पुनुरुस्थान की भावना प्राचीन भारतीय- 
संस्कृति की नाटकीयकला के द्वारा खोज में व्यक्त हुई है 

प्रसादजी की नाठ्यकला की प्रमूख विशेषताएँ ये है- सांस्कृतिक धारा के 


अक्षण्ण प्रवाह की भावना, दार्शनिक चिन्तन, स्वा; [विक चरित्र कल्पना, राष्ट्रीयता 


का आग्रह, संघर्ष के द्वारा जीवन के मूल तत्व की खोज, नारी में शक्ति और चेतना 


की प्रतिष्ठा, काव्यात्मकता का प्रवाह, नाटकीय पद्य में खड़ीबोली की पूर्ण प्रतिष्ठा 
और प्राचीन शास्त्रीय नीरस रूढ़ियों का वहिष्कार, सामाजिक समस्याओं एवं उनके 











। समाधान का प्रस्तुतीकरण और नवीन युगानुकूल नाट्य शेली को प्रतिष्ठा । 
प्रसादजी को नाट्यकला के प्रमुख तत्व 
जयशंकर प्रसाद हिन्दी के महान्‌ नाटककार हैं । उन्होंने अपनी नास्थ-सामग्री 
को प्राचीनता और नवीनता के समन्वय से अलंकृत किया हे । 
प्रमुख विशेषताएँ 
१. ऐतिहासिकता--कामना तथा एक घुट के अतिरिक्त प्रसादजी ने अन्य 
नाटकों में ऐतिहासिक कथावस्तु को आधार बनाया है जिसमें कल्पना 
के सम्मिश्रण से सजीवता उत्पन्न कर दी है । 
२. प्राचीन एवं नवीन नास्यशैली का समन्वय करके प्रसादजी ने अपने 
नाटकों के हारा एक नवीन आदर्श प्रस्तुत किया । उनके नाटक का 


६२ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


प्रथम अङ्ग ही भावी समस्याओं, घटनाओं और परिस्थितियों का परि- 
चय देता है । सम्वाद और पात्रों द्वारा वस्तु निर्देशन में भी जयशङ्कर 
प्रसाद ने एक नवीनता प्रस्तुत की है । 

३. प्रसादान्त--प्रसादजी के नाटक न सुखान्त हैं न दुखान्त वरन्‌ प्रसादान्त 
हैं । उनमें सुखान्त और दुखान्त का सम्मिश्रण है और अन्त सुखान्त है । 
प्रसादजी ने पाइचात्य 'ट्रेजेडी' की भावना को दाशंनिकता से बदल 
दिया हे । अतः उनके नाटक प्रसादान्त कहे जा सकते हैं । 

४. अतीत गौरव, नारी का आदर्श रूप एवं राष्ट्रीय भावना प्रसादजी के 
नाटकों की कथावस्तु में अनुस्यूत (पिरोये हुए) हैं। उनके सभी नाटक 
अतीत गौरव की अभिव्यक्ति करते हैं । उनमें प्रसादजी की आदर्श नारी 
का रूप भी प्रायः प्रतिफलित होता है और प्रसादजी की राष्ट्रीयता 
उनके नाटकों में सर्वत्र गीत बनकर भांकृत हो रही है । 

५, प्रसादजी के गीतकाव्य ने उनकी नाट्यकला को सरस बना दिया है। 
सुन्दर सूक्तियों एवं अलंकृत गद्य शेली से भी प्रसादजी के नाटक विशिष्ट 

बन गए हैं । 
प्रसादजी के नाटकों में भारतीय तथा पाइचात्य रचना पद्धति 


प्रसादजी ने अपने नाटकों का मूलाधार भारतीय संस्कृति एवं प्राचीन इति- 
हास को बनाया है । उन्होंने अपनी नाट्यकला में पूर्व और पश्चिम दोनों के सिद्धान्तो 
का अद्भुत समन्वय किया है । 

भारतीय नाट्यशास्त्र में नाटक की कथावस्तु प्रख्यात होती है। नाटक में 
अङ्कों की संख्या ५ से १० तक होती है । वीर तथा श्रृंगार में से कोई रस प्रधान 
होता है तथा नायक धीरोदात्त होता है। भारतीय नाय्यशास्त्र में नाटक के तीन 
प्रमुख तत्व वस्तु, नेता और रस हैं किन्तु प्रधानता रस को दी गई है। कथावस्तु के 
दो भेद--आधिकारक और प्रासंगिक हैं। गति को ध्यान में रखकर कथावस्तु की 
पांच अवस्थाएं भी हैं। भारतीय नास्यपद्धति में नाट्यरचना सुखान्त ही होती है। 
मृत्यु और वध आदि के दृश्य रङ्गमंच पर दिखाना वर्जित है तथा विष्कम्भक तथा 
प्रवेशक के द्वारा सूच्य कथांश की अभिव्यक्ति होती है । 

प्रसादजी ने अपने नाटकों में रस की सफल योजना की है । उन्होंने प्रारम्भिक 
नाटकों में नान्दी पाठ, प्रस्तावना एवं भरतवाक्य (सज्जन नाटक) देकर संस्कृत नाट्य- 
नियमों का पूर्ण पालन किया किन्तु आगे चलकर बंगला नाटकों के माध्यम से पाइचात्य 
पद्धति से प्रभावित हो उन्होंने नान्दीपाठ और भरत वाक्य का त्याग कर दिया । उन्होंने 
पाश्चात्य प्रभाव से वर्जित हृद्यों को भी प्रस्तुत किया है । उन्होंने अङ्कों की संख्या 
भी तीन रखकर भारतीय पद्धति की अवहेलना की है । उन्होंने पाश्‍चात्य पद्धति के 
नाक्य-वेग को अपनाया | उन्होंने संघर्ष की प्रवृत्ति भी पाश्चात्य नाटकों से ली । 





आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य का संक्षिप्त परिचय ६३ 


उनके नाटक न सुखान्त हैं न दुखान्त वरन्‌ प्रसादान्त हैं । अतः प्रसादजी ने 
पूर्व और पश्चिम दोनों की नाख्य-शैलियों का अपने नाटकों में अदभुत समन्वय 
किया है । 
स्कन्वगुप्त : एक परिचय 


इधर विमाता का षड्यन्त्र सामने आता है जिसे वह दवा देता है किन्तु पुरुगुप्त का 
साथी सेनापति भटार्क हृणों को निमन्त्रण देकर आगे ले आता है। कुभा नदी का 
बाँध तोड़ने से स्कन्दगुप्त और उसकी सेना आपत्ति में पड़ जाती है। सेना बिखर 
जाती है । स्कन्दगुप्त पुनः कठिन परिश्रम से सेना एकत्र करता है। सिन्धु तट पर 
पुनः युद्ध होता है और स्कन्दगुप्त हुणों को पूर्णतया पराजित करके भारत को उनके 
जाल से मुक्त करता है और आर्यावर्त को मुक्त कर देता है, किन्तु अन्त में भी वह 
पद की लालसा से मुक्त एकान्त जीवन बिताना चाहता है। उसने अपने जीवन के 
व्यक्तिगत सुख एवं नारी के प्रति आकर्षण को दबाकर अपने चरित्र को महान्‌ राष्ट्र 
प्रेमी वीर एवं आर्यावर्त के रक्षक के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया है । 


स्कन्दगुप्त के आधार पर प्रसाद के नाटकों के स्त्रीपात्र 
प्रसादजी के नाटकों में दो प्रकार के स्त्रीपात्र मिलते हँ" 


१. सतोगुणमूलक्र विशेषताओं से युक्त--यथा देवसेना, देवकी, रामा 
आदि । 

२. राजस, एवं तमोगुणी विशेषताओं से संयुक्त वेभव-विलास, वासना, 
कुटिलता और क्रूरता की मूति--यथा विजया, अनन्तदेवी आदि । ये 
पात्र अत्यन्त महत्वाकांक्षी एवं अतुप्त वासना से कु ठित हैं । 

स्कन्दगुप्त में हमें चार प्रकार के स्त्रीपात्र मिलते हैं-- 

१. राजनीतिक षडयंत्र से संबद्ध राजमहिषी अनन्तदेवी एवं श्रेष्ठिपुत्री 
बिजया । 


हर मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


२, जीवन में प्रेम के सौन्दयं को प्रधान मानने वाले पात्र जसे देवसेना । 
इनका प्रेम सात्विक एवं संयमपूणं तथा विलास रहित है । 

३. जीवन के भंवर में पड़ी मध्यवर्गीय दुर्बल नारियाँ जिनका प्रेमभाव 
आत्मसंयम तोड़कर विलासिता के गहरे गर्त में ले जाता है, यथा, 
विजया । 

४. अपने निस्पृह बलिदान से सत्‌ प्रेरणा देने वाली, नायक के जीवन को 
ऊंचा उठाने वाली तथा अस्त में नायक के जीवन में एक करुण 
गन्ध छोड़ जाने वाली देवसेना जैसी फूल सी सुकुमारियाँ । देवसेना 
की संगीतलहरी उसकी कोमलता का प्रतीक है तो उसके गीत राष्ट्रप्रेम 
जगाने वाले । 

स्कन्दगुप्त का चरित्र 

स्कन्दगुप्त एक ऐतिहासिक व्यक्ति है जिसे कवि प्रसाद ने उदात्त रूप में 
प्रस्तुत किया है । कवि ने उसमें दाशंनिकता का पुट देकर उसे अधिकार के प्रति 
उदासीन दिखाया है । किन्तु स्कन्दगुप्त कत्तंव्य़ के प्रति पूर्णछप से जागरूक है । 

वह्‌ सच्चा राष्ट्रप्रेमी एवं देशभक्त हे और अन्त तक सेतिक मात्र रहता 

है । उसके अन्दर महत्वाकांक्षा राष्ट्र की रक्षा की है, स्वसुखभोग की नहीं । 
स्कन्दगुप्त महान्‌ विनयी एवं विवेकी है अत: अपनी सौतेली माँ के षड्यन्त्र 
जानकर भी क्षमा कर देता हे । 

वह प्रेमी हृदय हे । वह विजया और देवसेना के प्रति आकृष्ट होता है । 

फिर भी उसका प्रेम पवित्र है, उसमें वासना का अंश नहीं । भावना से वह॒कर्त्तव्य 
को अधिक महत्त्व देता है । 

उसके व्यक्तित्व में सौन्दर्य, शील, शक्ति का समाहार है। इन्हीं गुणों के 

कारण वह विक्रमादित्य की उपाधि से विभूषित किया जाता है । 

प्रसादजी ने स्क्रन्दगुप्त के चरित्र में अन्तद्वन्द्व दिखाकर उसे सजीवता प्रदान 

की है । वह महान्‌ होते हुए भी मानवीय धरातल पर चित्रित किया गया है । 
उसकी मानवीय दुर्बलताएँ--घोर परिश्रम एवं चिन्ता के वाद भी विषाद--हमें 
विशेष आकषित करती हैं । 


देवसेना का चरित्र 


देवसेना के रूप में जयशंकरप्रसाद ने अपनी आदश नारी पात्र की कल्पना 
को साकार किया है । उसके चरित्र की चार विशेषताएं इस प्रकार है— 

(१) पावन प्रेम की व्यंजना । 

(२) संगीत प्रियता । 

(३) दाशंनिक प्रवृत्ति । 

(४) गम्भीरता एवं करुणा की प्रवृत्ति । 


आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ६५ 


अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण वह जीवन के संग्राम में सफल होती है । 

देवसेना स्कन्दगुप्त ज॑से उदात्त चरित्र वाले महान्‌ पुरुष को प्रेयसी है, अतः 
बह नाटक की नायिक्रा कही जा सकती है। उसने प्रेम का अर्थ त्याग समझा है 
सुखोपभोग नहीं । 

देवसेना प्रेयसी तो है किन्तु स्वाभिमानिनी भी । वह मूल्य देकर प्रणय नहीं 
लिया चाहती । उसका विलासरहित शुद्ध प्रेम है, जो स्कन्दगुप्त को कर्त्तब्यपथ पर 
आरुढ रखता है । 

देवसेना जन्म से ही संगीतप्रिय है । जीवन की विषमतम घडियों में भी वह 
स्वर लहरियों में भूलकर अपना हृदय भार हल्का कर लेती है । 

देवसेना जीवन और जगत्‌ के प्रति दार्शनिक की भाँति विचार करती है । 

देवसेना गम्भीर स्वभाव की युवती है । उसमें करुणा की गहरी भावना है 

“अतः वह सहानुभूतिशील हे । वह सबसे पृथक एकाकिनी हँ । उसका जीवन अन्त में 
करुणामय हो जाता हुँ, वेदना ही बिदाई में मिलती है-- 
आह ! बेदना मिली बिदाई । 

स्कन्दगुप्त में रस-पोजना 

जयशंकरप्रसाद ने स्कन्दगुप्त में वीररस को प्रधान रस बनाया है । वीररस के 
हमें दो रूप मिलते हैं-युद्ध-वीर तथा त्याग-वीर । 

नाटक का प्रारम्भ तथा अन्त निर्वेदभाव को प्रधानता के कारण शान्तपरक 
है किन्तु इसी आधार पर इस नाटक में शान्तरस की प्रधानता नहीं मानी जा 
सकती है । 

डॉ० जगन्नाथ शर्मा ने लिखा है सम्पूर्ण इतिवृत्त और घटना व्यापारों के 
विचार से प्रस्तुत नाटक शोक पयंवसायी नहीं माना जा सकता । स्कन्दगुप्त के समक्ष 
व्यक्त लक्ष्य केवल एक है- आये राष्ट्र के गौरव की रक्षा । यही वह्‌ जीवन पर्यन्त 
करता है और इस ध्येय को प्राप्त करके नाटक को सुखान्त बनाता है । 

कुछ विद्वानों का मत है कि पुरुगुप्त को रक्त टीका लगाकर स्कन्दगुप्त ने पूर्ण 
फल की प्राप्ति करली तब एक हृश्य बढ़ाकर निर्वेदभाव का चित्रण करना उचित 
नहीं था । किन्तु हम सम्पूर्ण नाटक के घात-प्रतिधात को देखें तो उसमें हमें शान्तरस 
की स्थिति नहीं मिलती । उत्साह स्थायी भाव ही नाटक का प्रेरणादायक तत्त्व है। 
जिससे बहुमुखी युद्ध एवं संघर्ष एवं विजय की स्थिति पदा होती है। साथ ही 
स्कन्दगुप्त के जीवन में त्याग-वीरता का चरम परिपाक है । नाटक में संचारियों की 
विविधता भी वीररस के अनुकूल है । धृति, गर्व, चिन्ता, उत्सुकता, आवेग, विषाद, 
ग्लानि आदि संचारियों के द्वारा वीररस की निष्पत्ति ही स्कन्दगुप्त में प्रधान है । 

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९ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


प्रसाद फे नाटकों में नारी समस्या 

जयशंकरप्रसाद ने अपने 'ध्रूवस्वामिनी' नाटक में नारी समस्या पर यथार्थ- 
वादी हृष्टि से विचार किया है। उन्होंने शास्त्र का विधान पलटकर, शास्त्र में 
परिवर्तन कराके भ्र्‌ वस्वामिनी को बलीव पति से मुक्ति दिलाई है । 

नारी समस्या के अनेक रूप हो सकते है; जैसे विधवा समस्या, वेश्या समस्या, 
बिवाह सम्बन्ध-विच्छेद समस्या, आदि । श्र्‌वस्वामित्री में प्रसादजी ने दाम्पत्य 
जीवन की प्रमुख समस्या को लिया है, जब स्थिति यह हो कि पुरुष अपने कर्तव्य का 
पालन न करे तो स्त्री कहाँ तक लीक में बंधी रहे, परिपाटी पर चलती रहे । कया 
ऐसा दाम्पत्य जीवन किसी प्रकार भी उचित है ? क्या इससे समाज की गति में, 
व्यक्ति के जीवन की गति में बाधा नहीं पड़ती । यह आधुनिककाल की प्रमुख नारी 
समस्या है कि शास्त्र का विधान उसे जिस पुरुष से बाँध देता है उससे मरने पर ही 
उसे छुटकारा मिलता है--चाहे वह पुरुष पौरुषविहीन हो । र 

प्रसादजी ने धरु वस्वामिनी में विवाह को एक पवित्र सम्बन्ध मानते हुए भी 
उसकी सीमा निर्धारित को है । ऐसी परिस्थितियों में विवाह विच्छेद आवश्यक है 
जब पुरुष बलीव हो और नारी के जीवन को सबसे बडी आकांक्षा मातृत्व की पूर्ति न 
कर सके । नारी का जीवन मातृत्व पद प्राप्त करके ही सफल होता है । प्रसादजी ने 
ध्यु वस्वामिनी में विवाह-विच्छेद कराकर नारी की इस प्रमुख समस्या का एक क्रान्ति- 
कारी समाधान प्रस्तुत किया है । 
हिन्दी में गीति नाट्य 

गीति नाख्य नाटक का एक प्रकार है, इसमें कविता नाटकीय कविता' के 
रूप में हमारे सामने आती हे । कबिता और नाटक का समन्वय, एक नवीन सत्ता का 
निर्माण "गीति नाव्य' हे । इसमें दर्शक या सहृदय सामाजिक या पाठक को नाटक के 
साथ ही काव्यत्व का पूर्ण रसास्वादन भी होता चलता है। इसमें इन्द्र या अन्तद्वेन्द्र के 
द्वारा नाटकीयता का आधान होता है । : 

त डॉ० नगेन्द्र ने अन्तद्वन्द्वमय स्थिति को गीतिनाट्य का प्राणतत्त्व माना है। 

अर्थात्‌ मन की एक भावरा का दूसरी भावना के विरुद्ध संघ यहाँ मिलेगा । बाह्य 
परिस्थितियों का संघर्य यदि होगा भी तो उसका प्रयोग आन्तरिक संघर्ष को तीव्रतर 
बनाने के लिए होगा । 

गीति नाट्य में मानव हृदय की विभिन्न प्रकार की समस्याओं का निरूपण 
होता है । इसमें एक नाटकीय प्रभाव के द्वारा परिसमाप्ति होती है । 

गीतिनाय्य की वस्तु का चयन ऐतिहासिक, पौराणिक एवं काल्पनिक कथाओं 


प्रस्तुत करके लेखक अपने पात्रों को जीवन प्रदान करता है । 











आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ६७ 


गीतिनाथ्य में संवादों में भी पद्य का प्रयोग होने से रागात्मक अनुभूतियों, 
|! आकांक्षाओं और विचारों की गहनता की माभिक अभिव्यक्ति होती है । इस प्रकार 
गीतिनाठ्य सर्वथा पद्यवद्ध एवं कवित्वपूर्ण होता है । 


गीतिनाव्य में छन्दोमय विधान की अनिवार्यता स्पष्ट ही है, इसमें प्रवाह एवं 
गति के कारण मुक्तछन्द ही अधिक स्वाभाविक सिद्ध होता है । 


गीतिनाठ्य की भाषा चित्रात्मक, अलंकृत एवं प्रतीकात्मक होती है क्योंकि 





उसमें जीवन की आवेगमयी झाँकी रहती है । f 

गीतिनाश्य में बिम्ब-विधान के कोशल से लेखक युग के जीवित सत्यों ॥ 
को प्रस्तुत करता है । इसमें प्रतीको के द्वारा गुढ सेवेदनाओं की अभिव्यक्ति की |; 
जाती है । | 

इतिहास--सन्‌ १६१२ में जयशंकरप्रसाद द्वारा रचित 'करुणालय' हिन्दी का 
प्रथम गीतिनाट्य है । मंथिलीशरण गुप्त का “अनघ, हरिकृष्ण प्रेमी का 'स्वणंविहान' 
भी गीतिनाठ्य हे । हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट गीति नाट्यकार उदयशंकर भट्ट हैं। उनके 





ये गीतिनास्य श्रेष्ठ हैं--मत्स्यगंघा, विश्वामित्र, राधा और अम्बा । 
सेठ गोविन्ददास, सुमित्रानन्दन पन्त, धमंवीर भारती, सिद्धकुमार, दुष्यन्त- 9 
कुमार आदि अन्य प्रसिद्ध गीतिनाट्यकार हें । धर्मवीर भारती के अन्धायुग' और । | 


|| नीली झील' का सफलतापूर्वक रंगमंच पर अभिनय किया जा चुका है । 





` कथा कुसुपाञ्जलि में सवंश्रेष्ठ कहानी 
एम० ए० हिन्दी के पाठ्यक्रम में प्रथम प्रश्‍त-पत्र के अन्तर्गत “कथा । 


कुसुमाञ्जलि' शीर्षक कहानी संग्रह की सात कहानियां निर्धारित हैं । इनमें जयशंकर | 
प्रसाद, प्रेमचन्द, चतुरसेन शास्त्री, जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल और इलाचन्द जोशी की 
कहानियाँ है । हमें इनमें से जयशंकरप्रसाद की 'ब्रतभंग? कहानी सर्वोत्कृष्ट प्रतीत | 
होती है । | 
ब्रतभंग' में प्रसादजी ने कतिपय ऐतिहासिक नाम प्रस्तुत करके कहानी में 
ऐतिहासिकता का मधुर पुट देने का प्रयत्न किया है । यह एक आद्शॉन्मुख सामाजिक $ 
कहानी है । फिर भी इसमें प्राचीन मगध साम्राज्य के युग का वातावरण प्रस्तुत करने | 
का प्रयत्न किया है । यह एक विशुद्ध कल्पनाप्रधान ऐतिहासिक कहानी मानी जा | 
सकती हे । 
ब्रतभंग के कथानक को प्रसादजी ने कई कालखण्डो में विभाजित किया है । | 
प्रत्येक कालखण्ड के समाप्त होने पर कहानी एक नवीन प्रकरण लेकर आगे बढ़ती | 
है । नौ कालखण्डों में विभाजित कहानी में एकसूत्रता एवं रसव्यञ्जना का मामिक | 
संयोजन करके प्रसादजी ने अपने कहानी कौशल का परिचय दिया है और कहानी 
को अत्यन्त रोचक बना दिया हे । 


ईद मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


कहानी का शीर्षक सार्थक है । इसमें नग्नसाघु कपिञ्जल का अहंकार का व्रत 
भंग होता है, वस्त्र पहनना तो प्रतीक मात्र है क्योंकि नग्न होने में कपिञ्जल का 
उद्देश्य प्रतिशोध लेना था । 

चरित्र-चित्रण की दृष्टि से ब्रतभंग में राधा का चरित्र आरम्भ से अन्त तक 
एक-सा दृढ़, स्पष्ट, कतंव्यनिष्ठ एवं सशक्त है । वह मुर्ख एवं सरल नन्दन को अपनी 
प्रेरणा से निर्भीक एवं पर-सेवापरायण महानू पुरुष बना देती है। राधा इढ्‌ कत्तैव्य- 
निष्ठा के साथ ही आत्मगौरव की भी प्रतीक है । उसका चरित्र पाठक को सर्वाधिक 
प्रभावित करता है । इस कहानी में नन्दन और कपिजल का चरित्र-निर्माण मनोविज्ञान 
के आधार पर किया गया है। इसमें राधा के चरित्र के द्वारा आदश प्रस्तुत 
किया है । > 

इस कहानी की संवाद-योजना अत्यन्त मार्मिक हे । इसकी रचना संवाद-शेली 
पर हुई है जो इसे नाटकीयता प्रदान करती है और अत्यन्त आकर्षक बना देती है । 
इसमें प्रसादजी ने सजीव, प्रवाहपूर्ण एवं भावात्मक शैली प्रयुक्त की है। सुललित 
भाषा के द्वारा कोमल हृश्यों एवं भावों का चित्रण सामिक हे । इसमें भावुकता के 
द्वारा प्रसादजी ने मामिकता का आधान किया है । 
प्रेमचन्द की कहानी कला 


उपव्याससम्राट सु शी प्रेमचन्द की कला का विकास उनके उपन्यासों और 
कहानियों में समान रूप से दृष्टिगोचर होता है। प्रेमचन्द महान मानवतावादी 
लेखक थे जिन्होंने भारतीय जनता के हृदय को टटोला, उसकी आकांक्षाओं एवं 











विवशताओं को एक साथ प्रस्तुत किया । उन्होंने अपने समय के भारत की वेदना से 








व्यथित होकर, अपने युग की परिस्थितियों से ऊपर उठकर युगद्रष्टा की भाँति भावी 
स्वाधीन भारत का आदर्श प्रस्तुत किया । उनका साहित्य महान्‌ है। उन्होंने बारह 


उपन्यास, दो सो से अधिक कहानियाँ, दो नाटक तथा अनेक निबन्ध लिखे । 


प्रेमचन्द के साहित्य में स्वाधीनता आन्दोलन, गांधीजी के आदर्श एवं 
सत्याग्रह का प्रतिफलन हुआ है । उन्होंने स्वयं सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर 


स्वाधीनता के लिए युग चेतना को उभारा, जीवन भर संघर्ष किया और संघर्ष करती 





हुई दासता के बंधन में जकड़ी भारतीय जनता को प्रेरणा प्रदान की । जमींदार-किसान 


का संघर्ष, पीडित नारी का संघर्ष, मजदुर-मिल मालिक का संघर्ष--सर्वत्र मानवता 
की पुकार प्रेमचन्द की प्रेरणा बत्ती । 


प्रेसचन्द ने भारतीय संस्कृति एवं समाज के प्रति अदम्य उत्साह एवं आस्था 
प्रगट की है । पंच परमेश्वर' में उच्चतम भावनाओं और प्रेरणाओ की अभिव्यक्ति 


हुई है । बड़े घर की बेटी” में परिवार की एकता को नष्ट-भ्रष्ट होने से बचाने में 
नारी के त्याग एवं उदात्त भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है। उनके अमर पात्रों में 
प्रेमशंकर, सूरदास, अमरकान्त, होरी तथा सुमन हैं । ये श्रेष्ठ मानव हैं । 





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आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ६६ 


प्रेमचन्द के कथा साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सामाजिक भावता 


। वे मनुष्य जीवन के साथ ग री आत्मीयता रखते थे । उसकी जे हे प्रति उनको 
तीव्र संवेदना प्रकट हुई है। ॥ 


मचन्द ग्रामीण जीवन के महान्‌ कलाकार हैँ । ग्राम्य जीवन भारत का केन्द्र 
बिन्दु है । उन्होंने त्रस्त एवं पीडित किसान को उसकी सारी विवशताओं के साथ भी 
एक ऐसे संघर्ष में रत दिखाया है, एक ऐसे समाजवादी भारत की कल्पना की है, 
जिसमें कोई किसी का शोषण न कर सके । उन्होंने भारत के शोषित वर्ग के साथ 
अपनी सहानुभूति प्रदर्शित करके जीवन की यथार्थता के सजीव एवं समग्र रूप का 
साक्षात्कार किया । 
प्रेमचन्द के साहित्य में राष्ट्रीय जागरण के चिन्ह स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं । 
उन्होंने भारतीय जनता की बेहतर जीवन की आकांक्षाओं को, उसकी संघर्षशील 
चेतना को अपने साहित्य में प्रकट किया । उन्होंने गांधीजी के आदशों को बड़े सशक्त 
प से साहित्य में प्रस्तुत किया--हरिजनोद्धार, कृषक वर्ग को कर्ज की गुलामी से 
छुड़ाना, गाँवों की आथिक समुद्वि--पामाजिक स्वाय एवं आथिक समानता की प्राप्ति 
के लिए सामाजिक ढांचे में आमूल एवं आधारभूत परिवर्तन करने की प्रेरणा प्रेमचन्द 
के साहित्य का मूल मन्त्र है। 
प्रेमचन्द जनवादी साहित्यकार हैं । उनको शेली भी जनवाद से प्रभावित सरल, 
सुबोध एवं मामिक है । उसमें जन चेतना को स्वाभाविक ढंग से प्रस्तुत करने की 
पूर्ण सामर्थ्य है । इस प्रकार प्रेमचन्द धरती के कलाकार थे, ग्रामीण जीवन के कुशल 
चितेरे थे, भारत की राष्ट्रीय जागरण की आवाज को मुखरित करने वाले थे, जीवन 
के यथार्थ को स्वीकार करते हुए उसके संघर्षो से संवेदना प्रकट करते हुए यथार्थ में 
ही आदर्श की उज्ज्वल रेखा को अंकित करके उन्होंने जन-आकाक्षाओं को रूप प्रदान 
किया और प्रगतिशील साहित्य की नींव रखी । उनका साहित्य सच्चे अर्थो में जन- 
वादी साहित्य है जिसके द्वारा उन्होंने समाजवादी भारत की नींव रखी है । 


प्रसाद और प्रेसचन्द की कहानी कला में अन्तर 


१. प्रसाद की शेली भावमूलक है तो प्रेमचन्द की यथार्थवादी । प्रसाद की 
जेली का अधिक अनुकरण नहीं हुआ, वह उनकी निजी शली ही बनी 
रही । प्रेमचन्द की शैली का अनुकरण बहुत अधिक हुआ । 

२. प्रसाद में हमें प्रेमचन्द की सी पात्रों के अन्तरतम की मनोवैज्ञानिक 
विश्लेषण की प्रबृत्ति नहीं दिखाई पड़ती, प्रेमचन्द ने मानवचरित्र को 
अपना विषय बनाया है । प्रसादी भावनाप्रधान कलाकार है । उनकी 
कहानियों में पात्रों के चरित्र का वंसा स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक 
विकास नहीं दिखाई पड़ता, जसा प्रेमचन्द में है । 

३, प्रेमचन्द की कहानियों में लाक्षणिक सोन्द्यं से परिपूर्ण यथार्थवादी 











(५ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


चित्रण है तो प्रसाद में नादध्वनिपूर्ण “रस? की मार्मिक व्यञ्जना 
हुई है । 

४. प्रसाद ने भावनाओं का उत्कर्ष काव्यमय बनाकर प्रस्तुत किया है, वे 
अपने भाव चित्र को संकेतों के हारा व्यक्त करते हैं । प्रेमचन्द स्पष्ट 
शब्दों में कथन करते हैं। 

५. प्रसाद हमारे मनोभावों को जाग्रत कर हमें रसानुभूति कराते हैं । 
प्रेमचन्द की कहानियों में यह रसास्वादिता नहीं है । प्रेमचन्द के यथार्थ- 
वादी चित्रण में भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता का प्राधान्य है! 

६. | प्रसाद की कहानियाँ “काव्य कहानियां! हैं, उनका निर्माण कला के लिए 
| हुआ है। प्रेमचन्द की कहानियों का उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों का 
| उद्घाटन एवं मानव मनोवृत्ति का परिष्कार है, वे कला को जीवन के 
| लिए मानते थे । 

७. प्रसाद की भाषा साहित्यिक और भावप्रधान शेली है, प्रेमचन्द की सरल 

बोलचाल की और वणंनप्रधान शैली है। 

८. प्रसाद की कहानियों में कोई उपदेश नहीं । मिलता प्रेमचन्द में नैतिक 





६. प्रसादजी की कहानियों में रसप्रवण भाषा है अतः उन्हें छायावादी 
कहानी कहा जाता है। उनमें नीरसता का अभाव व है, रसात्मकता ही 
उनकी कहानियों की मौलिक विशेषता है। _प्रेमचन्द की कहानियों में 
प्रसाद की सी सुक्ष्म संवेदनाओं एवं रसात्मकता का अभाव है। उनकी 


कहानियाँ सुनिश्चित आदर्श की अभिव्यक्ति के लिए गढ़ी गई हैं, प्रसाद 
की कहानियों में कलाकार के हृदय का भावोच्छ्वास है । 
नई कहानी की प्रमुख विशेषताएं 
नई कहानी में समाज, यथार्थ और जीवन मात्र एक वस्तु और तथ्य है, सत्य 
है । नई कहानी सामाजिक संबंधों की सारी प्रकृति, उनके बदलते हुए 'एम्फेसिस” 
और 'शिफ्ट', उनके ब्यापक परिवेश और सन्दर्भ और बदलती हुई “मन:स्थिति की 
कहानी है । इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-- 
१. इसमें बदलते हुए जीवन को पकड़ने एवं व्यक्त करने का जोरदार 
प्रयत्न है । < 
२. इसमें चरम सीमा का आग्रह चरम सीमा का आग्रह नहीं है, क्योंकि इसमें विशेष मन:स्थिति 
का निरूपण है । नई कहानी में पात्रों की किसी विशेष मनःस्वाः मन:स्थिति को 
ही लिया है और उसके चरित्र की असंग लिया है और उसे तियों का अंकन किया है । इस 
अँकन की पृष्ठभूमि सामाजिक है. २ पृष्ठभूमि सामाजिक है । 4 .-. 























आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ७१ 


३. नई कहानी में प्रवाह का अभाव है क्योंकि कथा के विकास एवं सस्पैन्स 
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को कहानीकार आवश्यक नहीं समझता । 
४. नई कहानी में सांकेतिकता एवं प्रकृति-विधान विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । 
५, नई कहानी में पश्चिमी मनोभाव एवं परिस्थितियों के कारण अवास्त- 


विकता का वातावरण उत्पन्न हो गया है। 
६, नई कहानी जीवन की प्रत्येक स्थिति और समस्या को अपना वर्ण्य 
विषय बनाकर चली है। फिर भी मूलतः कहानीकार का स्वर राष्ट्रीय 
भावना से ओतप्रोत एबं मानवतावादी रहा है । 
७. || नई कहानी में वर्ग संघर्ष से पीड़ित व्यक्ति मानव की विवशता, कु ठाओं 
| विकृतियों, विषम परिस्थितियों से जुते हुए विकास के नए मार्गों की 
।। खोज विशेष महत्त्वपूर्ण है 
८. नई कहानी में हर वर्ग एवं क्षेत्र का चित्रण है। इसमें प्रत्येक टाइप 
के पात्र हैं जिनके माध्यम से आज का सारा गुग-संघर्ष चित्रित 
हुआ है । 
&. ' नई कहानी में यौन भावना एवं संबंधों का स्वच्छन्द रूप दिखलाई 
पड़ता है । नारी के अंगों का कामोत्तेजक वर्णन ही नहीं है, वरन्‌ 


| रतिक्रिया का खुलासा, उद्टाम, वीभत्स एवं अश्लील वर्णन भी हे । 


१०. नई कहानी परिवार से सम्बद्ध विभिन्न समस्याओं को लेकर चली हे । 
दाम्पत्य जीवन से सम्बन्धित प्रइनों को नए कहानीकारों ने मनोवैज्ञानिक 
सूक्ष्म विश्लेषण के साथ प्रस्तुत किया 

११. | नई कहानी के शिल्प-विधान में सांकेतिकता, बिम्ब-विधान एवं प्रतीक 


योजना मिलती है । नई कहानी में एक विशेष शिल्प का प्रयोग करके 
लेखक प्रभाव उत्पन्न करने का प्रयत्न करता है। वह अमरीकन कहानी 












































को छोड़कर शिल्प के क्षेत्र में विचित्र प्रयोग कर रहा है। 


प्रेसचन्द की उपन्यासकला 

प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासो में यथार्थवादी समाज का चित्रण किया, व्यक्ति 
को सामाजिक परिवेश में संघर्ष करते हुए जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है । 

प्रेमचन्दजी समाजसुधार की नवीन विचारधाराओं को लेकर चले । उनके 
'सेवासदन', '्रेमाश्रम' तथा 'गोदान' आदि उपन्यासो में अनेक सामाजिक समस्याओं 
एवं उनके समाधान का चित्रण हुआ है । 

प्रेमचन्द ग्रामीण जीवन के सिद्धहस्त कलाकार हैं । वे ग्रामीण जीवन का 
कोता-कोना झाँक आए हैं । उन्होंने ग्रामीण जीवन का चित्रण मनोयोग तथा कौशल 
से किया है क्योंकि उससे उन्हें नैसगिक प्रेम था, उन्होंने उसे अच्छी तरह परखा था । 





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शिल्प से प्रभावित होकर कथावस्तु एवं कार्य-कारणनसम्बन्धन्परिणाम 


मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


यद्यपि वे नागरिक जीवन का भी सूक्ष्म एवं व्यापक चित्रण करते हैं किन्तु उसके प्रति 
उनकी अभिरुचि नहीं है । प्रेमचन्द के -उपन्यासों का प्रारम्भ व्यक्ति के गार्हस्थ्य जीवन 
से होता है और पर्यवसान लौकिक जीवन में होता है । जैसे गोदान और प्रेमाश्रम 
में । उनका गबन अवश्य ही पारिवारिक उपन्यास है, अन्य उपन्यास सामाजिक हें । 

प्रेमचन्द अपने उपन्यासों में शान्त वातावरण में अशान्ति उत्पन्न करने वाली 
और अशांत वातावरण में शान्ति उत्पन्न करने वाली घटनाएँ प्रस्तुत करने में 
सिद्धहस्त हैं । 

प्रेमचन्दजी ने अपने उपन्यासों की कथावस्तु के विस्तार के लिए असाधारण 
घटनाओं की योजना नहीं की है । वे साधारण घटना को ही असाधारण रूप में 
प्रस्तुत करके कथावस्तु का विस्तार कर देते हैं । 

प्रेमचन्द के उपन्यासों में प्रेम की सरसता का नितान्त अभाव है, सामाजिक 
उद्देश्य ही प्रधान है और अन्य तत्त्व भी इसके आधीन हैं। वे समाजवाद को लेकर 
चले हैं और सामाजिक शोषण के विरुद्ध शुद्ध मानवता की भावना से प्रेरित होकर 
गांधीवोद के अनुरूप क्रान्ति करना चाहते हैं। उन्हें साहित्य के द्वारा उदात्त 
प्रवृत्तियों का विकास करना है जो निर्माण में बाधक परिस्थितियों एवं कठिनाइयों 
का सामना करने का बल दे सकें । उन्होंने ग्राम सुधार के लिए ठोस सुभाव प्रस्तुत 
किए हैं । प्रेमचन्द देहात की दरिद्रता का सच्चा एवं करुण चित्र प्रस्तुत करने में 
सफल हुए हैं । उन्होंने देहाती जीवन की समस्याओं का सूक्ष्म एवं सहानुभूतिपुर्ण 
चित्रण किया है । 

प्रेमचन्द के पात्र चेतना एवं जीवन से परिचालित हैं, प्रगतिशील हैं, चलते- 
फिरते समाज के सजीव यथार्थं मनुष्य हैं, जिन्हें प्रेमचन्द कर्मशीलता का पथ 
दिखाते हैं । 

प्रेमचन्दजी विकासवादी समाजवाद में आस्था रखते हैं, क्रान्ति में नहीं । वे 
गांधीवाद के सच्चे अनुयायी हैं । उनके उपन्यासों में गांधीयुग अपनी समस्त विशेष- 
ताओं के साथ उपस्थित हुआ है । उनके समाजवाद में गहरी राष्ट्रीय भावना छिपी 
है जो स्वतन्त्रता आन्दोलन की मूल प्रेरणा है । 


प्रसाद का उपन्यास-सा हित्य 


जयशंकरप्रसाद हिन्दी के महान्‌ कवि, उपन्यासकार, नाटककार, कहानीकार 
निबन्धकार एवं समालोचक थे । उन्होंने केवल तीन उपन्यास लिसे---तितली, कंकाल 
ओर इरावती । इरावती एक अपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास है जिसकी पूति करने से 
पूर्व है उनकी मृत्यु हो गई । 

कंकाल में प्रसादजी ने हिन्दू धमं के विकृत रूप एवं पाखण्ड पर तीव्र आघात 
किया है और दलित विवशनारी एवं निम्नजातियों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त 
की है । प्रसादजी का लक्ष्य है हिन्दू समाज को कुरीतियो एवं कुप्रथाओं पर भरपूर 


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आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ७३ 


प्रहार करता । वे एक प्रगतिशील चिन्तक के रूप में हमारे सामने आते है । वे हिन्दू 
समाज में क्रान्तिकारी सुधारों का पक्ष लेते हैं । वूर्ण-भेद के भयानक संघर्ष का इति- 
हास प्रस्तुत करते हुए वे उसके वर्तमान रूप के प्रति विक्षोभ प्रदर्शित करते हैं । 
'कंकाल' में हिन्दू धर्म के कायाकल्प की समस्या प्रधान है । 
तितली में किसानों के सुधार की समस्या है । भारत के गाँवों की सामाजिक 
और आथिक समस्याओं पर बल दिया है । इस उपन्यास में वे प्रेमचन्द के अनुगामी 
हैं। सामन्ती व्यवस्था का शोषण, अनाचार सभी तो इस उपन्यात में साकार हो उठे 
हैं । प्रसादजी ने इस सामाजिक दुरवस्था का आदर्शवादी हल खोजने का प्रयत्न किया 
है । प्रसादजी ने सामाजिक वंषम्य को धर्म से अलग करके नहीं देखा वरन्‌ धर्म” 
संस्कृति और समाज की दुरवस्था को एक साथ प्रस्तुत किया है । तितलो में प्रसादजी 
ने भारतीय किसान की जर्जर अवस्था का व्यंजना-प्रधान शेली में माभिक चित्रण 
प्रस्तुत किया है । “इरावती' ऐतिहासिक उपन्यास है जिसे प्रसादजी ने वर्तमान की 
भूमिका एवं समस्याओं की पूर्ति के लिए प्रस्तुत किया हे । इरावती में भी प्रसादजी 
ने आयंधर्म की अबनति का ऐतिहासिक अवलोकन किया है। उन्होंने वौद्धघ मं के 
स्पर्श की तुलना मृत्यु की शीतलता से करते हुए वर्तमान के प्रति तीव्र असन्तोष की 
अभिव्यक्ति की है और भविष्य के लिए आदर्श समाज का चित्रण किया है जो प्रेमचन्द 
के आश्रमवाद से मिलता जुलता है । प्रसादजी ने मनुष्य को कर्मठता, साहस, अपना 
भाग्य स्वयं गढ़ने का, एक नए समाज को प्रस्तुत करने की ओर उन्मुख किया है, 
तभी तो आज को विभीषिक़ाओं का अन्त होगा । अपनी दुर्बलता, अभाव और 
लघुता में जब भारतीय जनता दृढ़ होकर खड़ी रहने में समर्थ हो सकेगी, तब ही 
उसका कल्याण होगा । 
फिर भी, प्रेमचन्द के उपन्यास साहित्य में भारतीय जीवन का जो वृहदा, 
विस्तृत और संशिलष्ट चित्र मिलता है वह प्रसादजी के उपन्यासों में नहीं 
मिलता । 
प्रेमचन्दोत्तर उपन्यास 
हिन्दी उपन्यास का उत्कर्ष उपन्याससम्राट मू शी प्रेमचन्द में दिखाई पड़ता 
है । उन्होंने उपन्यास को भारतीय जीवन के चित्र के रूप में प्रस्तुत किया । उनके 
उपन्यास सामाजिक कोटि के हैं, जिनमें युग और समाज दोतों ही प्रतिफलित हुए 
हैं। प्रेमचन्दोत्तर काल में प्रमुख रूप से पाँच प्रकार के उपन्यास लिखे गए-- 
१. सामाजिक उपस्यास--प्रेमचन्द की परम्परा में जनेन्द्रकुमार, भगवती प्रसाद 
वाजपेयी आदि सामाजिक उपन्यास लिखते हैं । 
२. मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास - पाइचात्य प्रभावापत्न (फ्रायड के प्रभाव 
से) मनोविश्लेणात्मक उपन्यास लेखकों में पं० इलाचन्द जोशी 
प्रमुख हैं । 


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9 मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


३. प्रगतिशील उपन्यास--इस धारा के उपन्यासों में भारतीय श्रमजीवी 
वर्ग का चित्रण है। डॉ० रागेयराघव, थशपाल, नागाजु न, अमृतलाल 
नागर ने इस प्रकार के उपन्यासों की रचना की । 

४. ऐतिहासिक उपन्यास--इस प्रकार के उपन्यास लेखकों के प्रतिनिधि 
बुन्दावनलाल वर्मा हैं। अन्य ऐतिहासिक उपन्यासकारों में चतुरसेन 
शास्त्री, डॉ० राँगेय राघव, अमृतलाल नागर, राहुलजी आदि 
प्रमुख हैं । 

५. आंचलिक उपन्यास--अंचल विशेष की चेतना को मुखरित करने वाले 
उपन्यासकारों में फणीदवरनाथ रेणु, नागाजु न, शिवप्रसाद मिश्र र्र, 
डॉ० शिवप्रसादसिह आदि प्रमुख हैं । 

भगवतीचरण वर्मा का परिचय 

भगवतीचरण वर्मा का 'चित्रलेखा' उपन्यास एम० ए० हिन्दी के पाठयक्रम 
में है । यह अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास है, जिसके सम्बन्ध में एक चलचित्र का निर्माण 
भी हो चुका है । 

वर्माजी कवि भी हैं, प्रारम्भ में ये हालावादी थे, बाद में छायावादी हुये और 

अब प्रगतिवादी । इनके चार कविता संग्रह हैं-- 

(१) मधुकण (२) प्रेमसंगीत (३) मानव (४) एक दिन । 

वर्माजी ने 'हमारी उलकन' शीर्षक से कुछ निबन्ध भी लिखे हैं। 

वर्माजी एक उत्कृष्ट कहानीकार भी हैं । इनके "इन्स्टाल मेण्ट' तथा 'दो बाँके” 

नाम से दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । 
वर्माजी वस्तुतः एक उपन्यासकार ही हैं । उपन्यास के क्षेत्र में ही उन्हें सर्वा- 
धिक प्रसिद्धि एवं सफलता प्राप्त हुई । उनके अनेक उपन्यास छप चुके हैं, कुछ ये 
हैं-- (१) पतन (२) चित्रलेखा (३) तीन वषं (४) टेढ़े-मेढ़े रास्ते (५) आखिरी दाँव, 
(६) भूले-बिसरे चित्र (७) वह फिर नहीं आई (८) शक्ति और सामर्थ्यं तथा 
(९) रेखा । 

कवि, निबन्धकार, कहानीकार और उपन्यासकार इन चारों रूपों में वर्माजी 
का उपन्यासकार रूप ही सफल है । उनके उपन्यास लोकप्रिय भी खूब रहे हैं और 
विवाद के विषय भी । 


चित्रलेखा उपन्यास की कथावस्तु 
(चित्रलेखा का कथानक भारतसम्राट चन्द्रगुप्त मौय के शासन काल से 
सम्बन्धित है । इसमें एक हृश्य में मौय सम्राट चन्द्रगष्त और चाणक्य आते हैं, इतने 


मात्र से ही इसका सम्बन्ध इतिहास से जुड़ता है, शेष पात्र, घटनाएँ, और विचारधारा 
कल्पित हैं । यह एक समस्याप्रधान सामाजिक उपन्यास है । 


७33 7” 





आधुनिककालोन हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ७५ 


उस युग के एक प्रसिद्ध दार्शनिक महाप्रभु रत्ताम्बर के दो शिष्य--श्वेतांक 
और विशालदेव--अपने गुरु के सम्मुख जिज्ञासा करते हैं कि पाप क्या है और पुण्य 
कया है ?' शिष्यों की इसी जिज्ञासा की पुति के लिए रत्नाम्बर अपने एक शिष्य को 
सामन्त बीजगुप्त के पास भेजते हैं तथा दूसरे को योगी कुमारगिरि के पास। पाप 
का स्वरूप समझाने के लिये ही महाप्रभु ने दोनों शिष्यों को युग के दो प्रसिद्ध व्यक्तियों 
के यहाँ भेजा है--एक भोगी है तो दूसरा योगो । 

सामन्त बीजगुप्त अमित वैभव एवं सौंदर्य का स्वामी है और चित्रलेखा 
नर्तकी के साथ जीवन के सुख'--मस्ती का अनुभव कर रहा है, इवेतांक को महाप्रभु 
ने उसके यहाँ सेवक के रूप में रखा | दूसरी ओर योगी कुमारगिरि ने संयम और 
नियम से इच्छाओं को वशीभूत कर लिया था। योगी के यहाँ विशालदेव शिष्य 
बनकर रहा । 

घटनाओं के घात-प्रतिघात से कथानक आगे बढ्ता है और एक वर्ष बाद 
जब महाप्रभु दोनों शिष्यों के पास आते हैं तो दोनों ही शिष्यों का दृष्टिकोण पाप 
और पुण्य के सम्बन्ध में परस्पर भिन्न था । इनके अनुभवों के आधार पर महाप्रभु ने 
अपना यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया संसार में तो कुछ पाप है और न कुछ पुण्य । 
मनुष्य परिस्थितियों का दास है । वह कर्ता नहीं, दह केवल साधन है । कोई भी 
व्यक्ति संसार में अपनी इच्छानुसार वह काम न करेगा जिसमें उसे दुख मिले ।' 


चित्रलेखा : एक सामाजिक उपन्यास 

भगवतीचरण वर्मा का सुप्रसिद्ध उपन्यास पचित्रलेखा' एक सामाजिक समस्या 
प्रधान उपन्यास है, जिसका इतिवृत्त इतिहास और कल्पना के सम्मिश्रण से निमित 
है । यह ऐतिहासिक भित्ति पर निमित एक सामाजिक समस्याप्रधान उपन्यास है) 
इस उपन्यास में वर्माजी ने दो समस्याएँ प्रस्तुत की हैं, एक समस्या तो उन्मुक्त प्रेम 
की है और दूसरी पाप और पुण्य की । दूसरी समस्या हो प्रधान है । पाप क्या है, 
पुण्य क्या- यह बहुत उलभनपूर्ण समस्या है । इसो समस्या एवं इसका समाधान 
प्रस्तुत करते हुये वर्माजी ने प्रासंज्धिक रूप से उन्मुक्त प्रेम की समस्या को भी प्रस्तुत 
किया है । 4 

प्रायः उपन्यासकार जिस समस्या को अयने उपन्यास में उठाते हैं, उसका 
समाधान प्रस्तुत न करके उसके दोनों पक्षों का निष्पक्ष विवेचन करके समस्या का 
समाधान पाठकों पर ही छोड़ देते हैं। चित्रलेखा में पाप और पुण्य' की समस्या का 
लेखक ने विशद रूप में घटनाओं एवं पात्रों के माध्यम से चित्रण किया और अन्त में 
पाठक के कुतूहल को ठंडा करते हुये उसका निष्कर्ष भी प्रस्तुत कर दिया । कला की 
दृष्टि से निष्कर्ष पाठक के लिये ही छोड़ दिया जाता है । वर्माजी का निष्कर्ष यह्‌ 
है कि मनुष्य परिस्थितियों का दास है, उन्हीं के वद्षोभूत होकर वह कार्य किया 
करता है, जिन्हें हम पाप और पुण्य को संज्ञा देते है । 





क्ष मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


चित्रलेखा की रचना में लेखक पर अनातोले फ्रांस की फंच भाषा में रचित 
'थाया' नामक और औपन्यासिक कृति का विशेष प्रभाव पड़ा है। थाया में भी अंत 
में लेखक ने अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया है । 'थाया' एक उत्तम रचना है । 
चित्रलेखा ऐतिहासिक उपन्यास के रूप में 
ऐतिहासिक उपन्यास में इतिहास और कलाना का मधुर मिश्रण रहता है। 
इतिहास और कल्पना के मिश्रण के अनुपात के आधार पर यह तीन वर्गो में बाँटा 
जा सकता है-- 
(3) कल्पनाप्रधान ऐतिहासिक उपन्यास । 
(॥) इतिहासप्रधान ऐतिहासिक उपन्यास । 
(7) सन्तुलित ऐतिहासिक उपन्यास । 
चित्रलेखा कल्पनाप्रधान ऐतिहासिक उपन्यास है । इसमें केवल एक हृदय में 
इतिहास प्रसिद्ध मौर्थ सम्राट चन्द्रगुप्त और चाणक्य हमारे सामने पात्रों के रूप में 
भाते हैं। मौर्य सम्राट की राजधानी पाटलिपुत्र ही उपन्यास के प्रधान पात्रों की कार्य- 
स्थली है । इस प्रकार इतिहास के नाम पर इस उपन्यास में कतिपय पात्र हैं किन्तु 
वे प्रधान न होकर गौण एवं नगण्य हैं । उपन्यास के प्रधान एवं अप्रधान पात्र एवं 
घटनाएँ लेखक की विशुद्ध कल्पना के प्रतीक हैं । 
चित्रलेखा में वर्माजी ने ऐतिहासिक वातावरण प्रस्तुत करने का प्रयत्त किया 
है । प्राचीन भारतीय गणराज्यों में प्रचलित 'नगरवधु' की परम्परा के आधार पर 
चित्रलेखा के चरित्र का निर्माण हुआ है । सामन्त बीजगुप्त और आर्य मृत्युञ्जय आदि 
के अगाध ऐश्वर्य और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा में विद्वानों का दार्शनिक 
तर्क-वितर्क सामन्तकालीन वातावरण के अनुकूल है । इस प्रकार लेखक ने ऐतिहासिक 
वातावरण प्रस्तुत करके चित्रलेखा को प्राचीन युग से सम्बद्ध करने का प्रयत्न किया 
है, वसे यह शुद्ध काल्पनिक ऐतिहासिक उपन्यास है। 


चित्रलेखा समस्याप्रधान उपन्यास 


चित्रलेखा उपन्यास का ताना-बाना एक समस्या के चारों ओर बुना हुआ है। 
वह समस्या है पाप क्या है ?' शिष्यों की इस जिज्ञासा का उत्तर उन्हें अनुभव से 
प्राप्त हो, इस हेतु महाप्रभु रत्नाम्बर उन दोनों को एक योगी तथा एक भोगी के पास 
भेजते है । उन्होंने पाप की खोज के लिए दो परस्पर विरोधियों के क्षेत्रों को चुना है, 
एक, सामन्त बीजगुप्त का वेभव-विलास से ओतप्रोत भौतिक क्षेत्र है। दूसरा, योगी 
कुमारगिरि का त्याग और साधना का आध्यात्मिक क्षेत्र है । 

प्राचीन मान्यता प्रायः यह रही है कि वैभव और विलास पाप को जन्म देने 
वाले तथा त्याग और साधना पुण्यमार्ग के अनुगामी होते हैं । इस मान्यता को वर्मा 
जी ने चित्रलेखा में ऊपर से (प्रत्यक्ष रूपेण) पुष्ट किया है किन्तु वह आन्तरिक रूप 
से इसमें विश्वास नहीं करते । कौन पापी है और कौन पुण्यात्मा-यह भोगी और 


आधुतिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ७७ 


योगी का आचरण एवं भावनाएँ ही बता सकती हैं । इसी कारण अन्त में दोनों शिष्य 
अपना भिन्न अनुभव प्रस्तुत करते हैं और महाप्रभु रत्ताम्बर मनुष्य को परिस्थितियों 
का दास बताकर “पाप पुण्य” की समस्या को एकदम उड़ा देते हैं। उनके निष्कर्ष से 
हम सहमत न हों किन्तु उन्होंने समस्या का एक समाधान तो प्रस्तुत किया ही है । 
इस प्रकार चित्रलेखा में लेखक ने 'उपक्रमणिका में समस्या को उठाया, कथानक क्के 
विस्तार से उसका विश्लेषण किया और उपसंहार में उसका निष्कर्ष प्रस्तुत किया ।' 
इस प्रकार यह एक समस्याप्रधान उपन्यास है। 
चित्रलेखा उपन्यास का उपसंहार 
किसी भी कलाकृति में जब कलाकर प्रत्यक्ष रूप से सामने आने का प्रयत्न 
करता है तो वह हमें खटकता है । सांकेतिकता एवं हल्की सी अस्पष्टता ही कला का 
प्रधान आकर्षण मानी गई है । उपन्यास नीतिशास्त्र नहीं है वरन्‌ कान्तासम्मित 
उपदेश या साहित्य है । 
विद्वान्‌ समीक्षकों की दृष्टि में इस उपन्यास में उपसंहार के रूप में लेखक ने 
अपने निष्कर्षों को पाठकों पर बलात्‌ लादने का प्रयत्न किया है । यह प्रयत्न अत्यन्त 
भद्दा और नग्न है । यथार्थवादी उपन्यासो में तो ऐसा निष्कर्ष प्रस्तुत ही नहीं किया 
जाता, आदर्शवादी उपच्यासों में भी निष्कर्ष अप्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत किया जाता है। 
कलाकार का कार्य तो अप्रत्यक्ष संकेत देना है, समस्याप्रधान उपन्यास में भी लेखक 
का कार्य समस्या के दोनों पक्षों को विशद बनाकर मस्तुत करना है और समस्या का 
समाधान या निष्कर्ष निकालना पाठक का कार्य है । 


इस प्रकार चित्रलेखा का उपसंहार कला की इष्टि से अनुचित हूँ। यह 
उपत्यास के सुन्दर कलात्मक रूप को देखते हुए भी नितान्त अनावश्यक है । इसके 
लेखक ने पाठक को सोचने-विचारने के लिए कुछ नहीं छोड़ा, उनकी कल्पना को उर्वर 
बनाने के स्थान पर कु ठित करने का प्रयत्न किया है। पाठक को अपना निष्कर्ष 
निकालने की स्वतन्त्रता होनी चाहिये । 
हिन्दी की ऐतिहासिक उपन्यासधारा 

हिन्दी उपन्यास का विकास आधुनिककाल में हुआ। प्रारम्भिक काल में 
हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास बंगला के ऐतिहासिक उपन्यासों के अनुवादों के रूप में 
निमित हुए । सर्वप्रथम ठाकुर गदाधर सिंह ते दुर्गेशतन्दिनी नामक बंगला उपन्यास का 
अनुवाद प्रस्तुत किया । राधाकृष्णदास, भारतेन्दुजी, बालकृष्णभट्ट, श्रीनिवासदास 
और ठाकुर जगमोहन सिह प्रथम उत्थान के ऐतिहासिक उपन्यासकार हुँ। 

हिन्दी में मौलिक ऐतिहासिक उपन्यासकारों में सर्वप्रथम पं० किशोरीलाल 
गोस्वामी है । इनके समकालीन गंगाप्रसाद गुप्त भी इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान 
रखते हैँ । 


क मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका' 


द्विवेदी युग तक हिन्दी ऐतिहासिक उपन्यासों की प्रमुख विशेषताएँ इस 
प्रकार थी-- 
१. कल्पना का उत्कर्ष और ऐतिहासिक पात्र लेकर कल्पित घटनाओं का 
संयोजन । 
२. राजपूत-मुगल युग के चित्रण का प्राधान्य । प्रायः इस युग के लेखकों 
का भारतीय संस्कृति के उन्नत प्राचीनकाल की ओर ध्यान नहीं 


गया । 
३. युद्ध और रोमांस का मिश्रण होने से इन्हे ऐतिहासिक रोमांस कह 
सकते हैं । 
४. इनमें घटना की प्रधानता है और चरित्रःचित्रण की उपेक्षा की 
गई है । 


५. इन उपन्यासो में वर्णनात्मक संबोधन शैली प्रयुक्त हुई है जिसमें लेखक 
पाठकों को बीच-बीच में सम्बोधन करके उनसे अपनी घनिष्ठता स्थापित 
करता चलता हे । 

द्विवेदी युग के अन्तिम चरण में शुद्ध ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जाने लगे 

जिनमें ऐतिहासिक तथ्यों का तथा आर्य संस्कृति के स्वर्णयुग (मौर्य तथा गृप्तयुग) का 
विशेष रूप से चित्रण हुआ तथा पात्रों के चरित्र-चित्रण की ओर भी लेखकों ने ध्यान 
देना प्रारम्भ किया । 

वृन्दावनलाल वर्मा ने हिन्दी की ऐतिहासिक उपन्यासधारा को चरम उत्कर्ष 

पर पहुंचाया । इनके उपन्यासों की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-- 

१. कथानक को सजीवता प्रदान करने के लिए परम्परा और कल्पना से 
अप्राप्त इतिहास की पूर्ति को, किन्तु परम्परा सत्य की ओर संकेत करने 
वाली है । 

२. ऐतिहासिक व्यक्तियों के चरित्रों को परम्परानुकूल सजीवता प्रदान करने 
के लिए घटनाओं में यथोचित परिवर्तन किया । 

३. नाटकीय शैली के द्वारा उपन्यास को सजीव बना दिया है । 

४. रोमांस की प्रवृत्ति_वर्माजी के उपन्यासों में युद्ध, प्रेम एवं वेचित्र्यपुर्ण 
घटनाओं का रोमांटिक शेली में वर्णन हुआ है । 

४. उनमें प्रकृति चित्रण की विशेषता यह है कि उसकी पृष्ठभूमि में रोमांस 
की प्रवृत्ति सजीव हो उठी है। 

६. वर्तमान सामाजिक समस्याओं का ऐतिहासिक कथानक से मेल बिठाने 
में वर्माजी ने कमाल कर दिखाया है । 

७. उनके अतीत के कथानकों के झरोखों से पुरातन भारतीय संस्कृति की 
शाश्वत झाँकी मिलती है । 


MNOS चु 


आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ७६ 


८. उनके पात्र गत्यात्मक (सजीव चलते-फिरते) व्यक्तित्व रखते हैं, वे इति- 
हास के मृत पात्र नहीं है । 
ह. वर्माजी का भाषा पर असाधारण अधिकार है। उनकी भाषा सर्वत्र 
सरल, सरस, प्रवाहमयी तथा बुदेलखंडी पुट लिए हुए है। 
वर्माजी के अतिरिक्त तृतीय उत्थानकाल के ऐतिहासिक उपन्यासकारों में जय- 
शंकरप्रसाद हैं । 
चतुर्थं उत्थानकाल के ऐतिहासिक उपन्यासकारों में राहुलजी, चतुरसेन 
शास्त्री, डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० रांगेयराघव, अमृतलाल नागर आदि 
प्रमुख हैं । 
राहुल के ऐतिहासिक उपन्यास 
राहलजी महान्‌ प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार थे । उन्होंने "सिंह सेनापति', जय 
यौधेय' और 'बोल्गा से गंगा तक' आदि ऐतिहासिक उपन्यास लिखे । उन्होंने प्राचीन 


गुणों की प्रशंसा और समानता तथा समाजवादी विचारों को लोकप्रिय बनाने के हेतु 
अपने उपन्यासों की रचना की । राहुलजी का ऐतिहासिक पाण्डित्य प्रसिद्ध है। 
उन्होंने इतिहास के साथ कल्पना का अपूर्व समन्वय प्रस्तुत किया । 

राहुलजी ने प्राचीन यौधेय गणों की संस्कृति और समाज का सुन्दर चित्र 
प्रस्तुत किया है । वोल्गा से गंगातट में उन्होंने दिखाया है कि वक्षू के भी उत्तर प्रदेश 
से मातृसत्ताप्रधान आर्यो का गंगा की ओर अभियान प्रारम्भ हुआ । इन आर्यगणों में 
स्वतन्त्रता एवं समानता का व्यवहार था । स्त्री पुरुषों के सम्बन्धो में बड़ी स्वाधीनता 
थी, वे सम्मिलित नृत्य करते, छुम्बनों का आदान-प्रदान भी, यौनवर्जनाओं का सवंथा 
अभाव था । "सिह सेनापति' में राहुलजी ने ई० पु० ५०० की तक्षशिला, वंशाली और 
बिम्बसार की कथा में युग की परिस्थितियों को पूर्ण रूप से--यथार्थ एवं नैसगिक-मूर्त 
रूप प्रदान किया है । वैशाली की समृद्धि का वर्णन, बिदेशी व्यापार के केन्द्र तक्षशिला 
का निरूपण, सभी अत्यन्त स्वाभाविक हैं। जय योघेय में जय का चरित्र अत्यन्त 
मामिक है । उसमे मानवीय दुर्वलताओं का प्रदर्शन करके उसे मानव रूप प्रदान किया 
है। उसका गणशासन अत्यन्त प्रशंसनीय था । प्राचीन आर्यो के वोल्गा से गंगा तक 
के अभियान को राहुलजी ने बीस अध्यायों में प्रस्तुतत किया हैं । वर्णन-शेली चित्रोपम 
एवं रोचक है । हजारों वर्षों का आयौँ का इतिहास पाठक की आँखों के सामने 
चलचित्र की भाँति निकलता है । अपने अन्तिम उपन्यास 'मधुर स्वप्त' में राहुलजी ते 
प्राचीन ईरान के इतिहास को कथा के रूप में रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है । उसमें 
उन्होंने आज का समाजवादी स्वप्न भी भविष्य-कामना के रूप में प्रस्तुत किया है । 


आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ऐतिहासिक उपन्यास 


जिसमें इतिहास के कंकाल में लेखक ने अपनी उर्वर कल्पना शक्ति के द्वारा प्राण का 





१५ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


सुचार किया है । इस उपन्यास में उनका अद्भुत इतिहास-ज्ञान और प्रगाढ पाण्डित्य 
प्रदर्शित हुआ हे । इसमें शास्त्रीजी ने शासक वरग फे वेभव-विलास और जनता के दैन्य 
और असन्तोष को ब्यक्त करने के लिए मगध राज्य के निर्माण की घटना को 
प्रतिफलित किया है । इस उपन्यास में अनेक संदिग्ध एवं अनेतिहासिक तथ्यों का 
समावेश ओज एवं प्रवाहपूर्ण शेली में हुआ है । 

सोमनाथ' में शास्त्रीजी ने सोमनाथ के मन्दिर पर महमूद के आक्रमण की 
ऐतिहासिक घटना को कल्पना के आवरण में प्रस्तुत किया है। उन्होंने इस उपन्यास 
में सामन्तों की ग्रह-कलह, विलास-क्रीड़ा के साथ ही जनता के देव्य का मामिक 
चित्रण क्रिया है । मन्दिर अपार वैभव, ऐश्वर्व एवं विलास के केन्द्र थे । शास्त्रीजी 
ने इस उपन्यास में भी अपनी रोमांसवादी दृष्टि को महमूद और शोभना के प्रेम के 
रूप में प्रतिफलित किया है । प्रमुख पात्रों में महमूद का चित्रण ही प्रधान एवं सफल 
है । अन्य पात्रों में गंग सर्वज्ञ, भीसदेव पुरुषपात्र तथा चौला और शोभना स्त्री पात्रों 
का चित्रण भी सुन्दर हुआ है । फिर भी इस उपन्यास में इतिहास पक्ष को कल्पनापक्ष 
ने कमजोर कर दिया है, अतः अनेक असंगतियाँ आ गई हैं । 


वयम्‌ रक्षामः’ में शास्त्रीजी ने इतिहास को दन्तकथाओं एवं लोककथाओं के 
फलक पर चित्रित किया है । यह एक पौराणिक रचना बन गई है। दन्तकथाओं ने इस 
उपन्यास में ऐतिहासिक पात्रों को विकृत रूप में प्रस्तुत करने को बाध्य किया है। 


उपच्यांसकार यशपाल 


प्रेमचन्दोत्तर उपन्यासकारों में यशपालजी का महत्त्वपूर्ण स्थान हे । यशपाल 
जी के उपन्यासों में राजनीतिक _फष्ठभ्ूमि को केन्द्र-बिन्दु बनाया गया उन्होंने 
वामपक्षी दलों की माक्संवादी दृष्टि को अपने उपन्यास साहित्य में प्रतिफलित किया । 
वे अपने जीवन में क्रान्तिकारी रहे हैं और माक्संवादी दृष्टि से जीवन और इति- 
हास को समझने का प्रयास उन्होंने अपने उपन्यास साहित्य में किया। दादा कामरेड 
में आतंकवादी दल का इतिहास है, 'देशद्रोही' में १९४२ के आन्दोलन का । देशद्रोही 
में खन्ना उनके माक्सवादी दर्शन का आधार है। उसमें राजनीति के साथ ही यौत 
सम्बन्ध का भी मिश्रण है । देशद्रोही के सम्बन्ध में अनेक प्रश्‍न उठते हैं, उनमें प्रमुख 
यह है कि क्रान्तिकारी अपने यौन सम्बन्धो पर संयम रखने के लिए संघर्ष क्यों नहीं 
करता ? 

पार्टीकामरेड' में सन्‌ १९४५ के चुनाव और बम्बई के नाविक विद्रोह की 
राजनैतिक पृष्ठभूमि और कांग्रेस की राजनीति पर गहरा प्रहार है । इसमें हमें स्पष्ट 
प्रतीत होता है कि लेखक कम्युनिस्ट बिचारधारा से प्रेरित होकर लिख रहा है किर 
वे पात्रों के चरित्र की दुर्बंलताओं का प्रदर्शन एक निष्पक्ष कलाकार के खूप में करते 
हैं । “मनुष्य के रूप' उपन्यास का कथानक घटनाप्रधान एवं रोमांचकारी है । इसमें 
बम्बई के फिल्म जगत का तथा कोलाहलमय पू जीवादी वर्ग एवं समाज का यथाथ 


आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य $ संक्षिप्त परिचय ८१ 


चित्रण है। इसमें देश के सामाजिक और आथिक ढांचे पर कठोर प्रहार किया 
गया है। 

'दिव्या' और 'अमिता' ऐतिहासिक उपन्यास हैं जिनमें यशपालजी ने भारत 
के अतीत के बड़े भव्य एवं आकर्षक चित्रों को एकदम सजीव शेली में मंजे हुए कला- 
कार की भाँति प्रस्तुत किया है। इन ऐतिहासिक इतिवृत्त को लेकर चलने वाले 
उपन्यासो में यशपालजी भारत की समृद्ध संस्कृति का चित्र अंकित करते हुए भी 
सामन्ती समाज का वर्ग-शोषण, नारी की असमर्थता, देन्य, गरीबी एवं युद्ध के संकट 
का वर्णन करके अपनी यथार्थवादी समाजवादी मनोवृत्ति को अभिव्यक्त करते हैं । 
अमिता में अशोक की कलिंग विजय की घटना के माध्यम से वर्तमान समस्याओं की 
अभिव्यक्ति की है । अमिता का चित्रण उनको असाधारण कलाकार के रूप में उत्कर्ष 
प्रदान करने वाला है । 

यशपालजी का उपन्यास-साहित्य आथिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण 
से मानव की मुक्ति की समस्या को मुखरित करता है। उन्होंने कांग्रेस को एक 
बुजुआ संस्था के रूप में चित्रित किया है । वे निरन्तर समाज में नारी के शोषण का 
चित्र प्रस्तुत करते हैं । वे अपने उपन्यासों के माध्यम से भारत की क्रांतिकारी 
सामाजिक शक्तियों को बल देते हैं । साथ ही यशपालजी कला के शिल्पगत सौन्दर्य 
का व्यान रखते हैं । उन्होंने जीवन के मर्म को छूकर, उसकी अतल गहराइयों में 
पेठकर, अपनी सूक्ष्म और अनुभूतिपूर्ण दृष्टि का व्यापक प्रसार दिखाकर अगणित 
सजीव पात्रों की सृष्टि की है, यथा 'दादा कामरेड' के दादा हरीश, शेल और यमुना, 
दिव्या की दिव्या, मनुष्य के रूप! का भूषण और देशद्रोही का खन्ना और चन्दा । 
यशपाल का गद्य संस्कृत एवं अलंकृत पदावली से संयूक्त एवं आकर्षक है। यशपाल 
नागरिक सर्वहारा जीवन के चित्रकार हैं । उन्होंने मार्क्स दंन को उपन्यास के 
रोचक रूप में ढालकर मूर्तेमान करने का सफल प्रयास किया है । 
उपभ्यासों में आंचलिकता 


हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों की चर्चा भी अब पुरानी पड़ती जा रही है। 
इसका प्रारम्भ फणीइवरनाथ रेणु के सुप्रसिद्ध उपन्यास "मला आँचल' १९५४ से हुआ। 
वास्तव भें 'आंचलिक' शब्द भी उम्हींने गढ़ा । उन्होंने अपने उपन्यास की भूमिका में 
लिखा 'यह है मेला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास” । सन्‌ १६५७ में उनका दूसरा 
आंचलिक उपन्यास “परती: परिकथा” प्रकाशित हुआ । मँला आँचल के अनन्तर तो 
हिन्दी उपन्यास साहित्य में आंचलिकता की होड़ लग गई किन्तु रेणु की तुलना में 
बहुत कम उपन्यासकार सफल हो सके हैं । इसका कारण रेणु की आँचलिकता नहीं 
वरन्‌ उनकी शक्तिशाली लेखनी ही उनकी आँचलिक प्रवृत्ति की सफलता का मूल 
रहस्य है । 

६ 





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हा मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


आंचिलिक उपन्यास अपने मूल रूप में सामाजिक उपन्यास ही हैं । इनमें किसी 
प्रदेश विशेष का यथातथ्य और बिम्बात्मक चित्रण प्रधानता प्राप्त कर लेता है । इनमें 
अंचल विशेष की संस्कृति का, जन चेतना का, उस अंचल की प्राकृतिक पृष्ठभूमि में 
तीर स्थानीय बोली में चित्रण होता हे । इसके प्रमुख तत्व हँ- अंचल विशेष की 
लोककथाओं को उपन्यास का इतिवृत्त बनाना, उसकी प्राकृतिक पृष्ठभूमि, परिस्थि- 
तियों एवं वातावरण का, लोक संस्कृति एवं जनचेतना का प्रभावपूर्ण अंकन तथा 
अंचल विशेष की स्थानीय बोली का स्वाभाविक प्रयोग । आंचलिक उपन्यासों में 
नपदीय विकास की कामना व्यक्त हुई है। इनमें अंचल विशेष की जनता के रीति- 
रिवाज, परम्परा, धामिक एवं नौतिक आचार-विचार, विश्वारा-आस्थाओ के साथ 
लोक संस्कृति का पूर्ण चित्र मिलता है। इसमें जन चेतना की लहर है। आँचलिक 
उपन्यासकारों में रेणु के अतिरिक्त डॉ० रांगेयराघव, नागाजुन, देवेन्द्र सत्यार्थी, 
| उदयशंकर भट्ट, शैलेश मटियानी, बलवन्तसिह, शिवप्रसाद मिश्र रूद्र, रामदरश मिश्र, 
राजेन्द्र अवस्थी, वीरेन्द्रनारायण, महन्त धनपुरी आदि प्रमुख इन उपन्यासकारों 
ने यौन सम्बन्ध का बडा स्वच्छन्द एवं अस्वस्थ चित्रण करने की प्रवृत्ति 
अपनाई है । 


पं० रासचन्द्र शुक्ल के निबन्ध : विषय प्रधान या व्यक्ति प्रधान 


आचायं पं० रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ एवं प्रौढ़ निबन्धकार हैं । 
शुक्लजी के अधिकांश निबन्ध चिन्तामणि में संग्रहीत है। चिन्तामणि के प्रकाशन से 
साहित्यिक क्षेत्र मे उसकी व्यापक चर्चा हुई । चिन्तामणि के निवन्थों को कुछ विद्वानों 
ने विषयप्रधान माता दूसरों ने व्यक्तिप्रधान । 

व्यक्तिप्रधात निबन्ध में निबन्धकार का व्यक्तित्व पूर्णतः भलकता है, इसमें 
विषय का विवेचन लेखक के व्यक्तित्व में ढलकर प्रस्तुत होता है। शुक्लजी के 
निबन्ध व्यक्तिप्रधान हैं । यद्यपि वे मनोवैज्ञानिक विषयों पर लिखे गए हैं किन्तु विषय 
से अधिक उनमें निबन्धकार का व्यक्तित्व प्रकाश में आता है । गुक्लजी ने मनोवैज्ञानिक 
विषयों को अत्यन्त व्यावहारिक ढंग से प्रस्तुत किया है। विषयप्रधान निबन्धो में 
लेखक तटस्थ रहकर किसी विषय का वर्णन करता है और उसे अपना कोई रंग न 
देकर विषय की प्रधानता रखता है । गुक्लजी के निवन्धों में उनका अपना व्यक्तित्व 
प्रधान है । 

हास्य और व्यंग्य का सुन्दर पुट शुक्लजी की शैली की प्रमुख विशेषता है । 

उनके निबन्थो में व्यंग्य बडा ही अर्थंगभित रहता है । कहीं तो वे विशुद्ध हास्य 
की सृष्टि शब्द चमत्कार आदि के द्वारा करते हैं और कहीं व्यंग्य का प्रयोग अपने 
विरोधियों को चिकोटी काटने के लिए करते हैं गुक्लजी के व्यंग्य तीखे एवं मामिक 


होते हैं। 


शुक्लजी के नित्रन्ध भावप्रधान न होकर विचारप्रधान हैं। उनमें विचारों 


हि हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ८३ 


'चिन्तामणि' की भूमिका में शुवलजी स्पष्ट कहते हैं--मेरे निबन्ध विषय 
प्रधान हैं फिर भी व्यक्तित्व का संयोग है। न तो वे शुद्ध विपयप्रधान हैं और न 
व्यक्तिप्रधान । उनमें बौद्धिक ताटस्थ्य था निलिप्तता नहीं है, वरन्‌ व्यक्तिगत अनुभव 
का सुन्दर संयोग हे । ब्रुद्धि विचारों की दौड़ में जो वलान्ति का अनुभव करती है, 
उसमें हृदय का योग होने के कारण सरसता व्याप्त हो गई है। झुक्लजी ने मनो- 
वैज्ञानिक विषयों पर लिखे निबन्धों में उनका संद्धान्तिक पक्ष प्रस्तुत नहीं किया, वरन्‌ 
व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत करके उन्हें साहित्यिक बना दिया है । विषय के प्रतिपादन 
की पद्धति में आत्मगत भावुकता है । इनमें शुद्ध शास्त्रीय विवेचना की रुक्षता 
नहीं है । 

शुवलजी के निवन्थों की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं 

१. विचारों की सुस्पष्टता 

२. भाषा सुगठित, सबल एवं समर्थं 

३. शैली में व्यक्तित्व की प्रधानता 

४. सूत्र शैली--निगमन शैली वे पहले अपनी बात या सिद्धान्त सूवरूप 
में प्रस्तुत कर देते हैं, फिर पूरे निबन्ध में उसी को विभिन्न प्रकार से 


स्पष्ट करते हैं । 





५, भाषा में अलंकारों एवं मुहावरों का भी यत्र तत्र प्रयोग तथा उद्‌ - 
फारसी-अरवी के शब्दों का भी प्रयोग करते हैं । 
६. यत्रततत्र भावुकता के छीटे-हास्य-व्यंग्य एवं विनोद की सुन्दर 
छटा मिलती है । 
महादेवी वर्मा के रेखाचित्रों में आत्सा निव्यक्ति 
महादेवी की “स्मृति की रेखाऐ रेखाचित्र को नवीन विधा का उत्कर्ष प्रस्तुत 
करती हैं। उनके अतीत के चलचित्र' संस्मरण भी हैं और रेखाचित्र भी । अपने 
रेखाचित्रों में महादेवीजी ने आत्माभिव्यक्ति की है । उन्होंने लिखा है 'इत स्मृतिः चित्रों 
में मेरा जीवन भी आ गया है। यह स्वाभाविक हो था । मेरे जीवन की परिधि के 
भीतर खड़े होकर चरित्र जैसा परिचय दे पाते हैं, वह बाहर रूपान्तरित हो 
जायेगा । 
महादेवीजी के रेखाचित्रों में हमें उनके बचपन से लेकर अद्यतन जीवन के 
विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में सूचना मिलती है । इनमें उनके परिवार, माँ-पिता तथा 
बाबा भादि सभो के सम्बन्ध में सूचना मिलती हूँ । 
महादेवीजी पर बचपन की परिस्थितियों का व्यापक प्रभाव पडा । उससे 
उनके संस्कार बने । उनके रेखाचित्रों में उनके बचपन के जीवन से सम्बद्ध बहुत से 





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हे मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


पात्र हैं । इन पात्रों के साथ उनका घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। वे इन पात्रों से प्रभावित 
भी हुई हैं और उनको प्रभावित भी किया है। 

महादेवीजी के रेखाचित्रों का एक प्रमुख उपादान उनकी वेदना की प्रबृत्ति 
है। उनके काव्य में व्याप्त विरह-मावना, वेदना और इन रेखाचित्रों में अभिव्यक्त 
करुणा में मूलतः कोई अन्तर नहीं है । काव्य में जो वैयक्तिक पीड़ा अमूर्त एवं रहस्य 
भय है, वही रेखाचित्र में सामाजिक आधार वाली होने के कारण अधिक मूतं एवं 
स्पष्ट है । 

रेखाचित्रों में महादेवी ने अपने कविरूप, कहानीकार रूप एवं चित्रकार रूप 
का अच्छा परिचय दिया है । 

रेखाचित्रो से पता चलता है कि महादेवीजी एक सुखी एवं सम्पन्न परिवार 
में उत्पन्न परिष्कृत अभिरुचि की अत्यन्त संवेदनशील, प्रतिभासम्पन्न महिला हैं। 
उन्होंने अपने रेखाचित्रों में प्रधानरूप से करुणा और आक्रोश दो भावों को अपना 
उपादान बनाया है। कहीं-कहीं उनका आक्रोश भावुकता के साथ संमन्वित होकर 
क्रान्ति का आवाहन करता है । यथा-- 

“यदि यह स्त्रियां अपने शिशु को गोद में लेकर साहस से कह सके कि 
'बर्बेरों ! हमारा नारीत्व, पत्नीत्व सब ले लिया, पर हम अपना मातृत्व किसी प्रकार 
न देंगी' तो इनकी समस्या तुरन्त सुलभ जावे ।” (अतीत के चलचित्र पृ० ६१) 

सारांश यह है कि रेखाचित्रो में हमें महादेवीजी के अपने सामाजिक परिवेश, 
अभिरुचि आदि की आत्माभिव्यक्ति मिलती है । 


महादेवी के रेखाचित्रों की विशेषताएं 


महादेवी मूलतः कवि-हुदय सहृदय हैं, अतः उनके रेखाचित्रों में हमें उनकी 
समता एवं सहानुभूति पात्रों को घेरे हुये दिखाई देती है। वे पात्रों के चरित्र में 
गहराई से प्रवेशकर उनकी मानवीय भावनाओं का संवेदनपूर्ण उद्घाटन करती हैं। 
इस प्रकार वे पात्रों के मन के सुक्ष्म भावों को उभारकर उसकी बाह्याकृति के साथ 
उसका मेल बिठा देती हैं। उनके रेखाचित्रों में कहानी कम और कविता अधिक 
रहती है, इससे उनके रेख!चित्रो में प्रभावोत्पादकता आ गई है। 
रेखाचित्रों में महादेवीजी एक समाज सुधारक के रूप में आती हैं। उनकी 
सामाजिक चेतना जाग्रत है, वे ममता और करुणा से भरी हैं। उनकी संवेदनशीलता 
भकभोरने वाली है क्रात्तिमूलक नहीं, क्योंकि उसके मूल में करुणा की तीव्र 
भावना है । 
` महादेवीजी यद्यपि भावुकहूदया हैं, कवि हैं, उनकी भाषा रेखाचित्रों में 
कविता का आकार धारण कर लेती है। फिर भी उनमें कहीं भी दुरुहता एवं 
अस्पष्टता नहीं आई है। उनकी सरल, सुबोध एवं सहज गद्य शैली कल्पना के सहज 
स्पश से अद्भुत माधुर्यं एवं चमत्कारपूर्णं बन जाती है। उनकी शैली को भावप्रवण 








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आधुनिककालीन हिन्दी गद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचयं द्‌ 


विवेचनात्मक शैली कह सकते हैं । महादेवीजी ने अपने रेखाचित्रों में प्राकृतिक हृश्यों 
के मनोरम चित्र पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत करके उन्हें अत्यन्त रोचक बना दिया 
है । वे एक चित्रकार हैं और गीतिकाव्य में भावनात्मक चित्रों को प्रस्तुत करने वाली 
श्रेष्ठ कलाकार हैं । 
हादेवी का कथन का अनुठा ढङ्ग आत्मीयता से पूर्ण है। वे स्वयं भाव- 

प्रवण हो उठती हैं और हर्के करुण स्पर्श से पाठक को भी प्रभावित कर देती हैं । 
उनके कहने का ढङ्ग उक्ति वक्रता, सहजता एवं सुबोधता, उपमानच्छल सभी एक 
भावात्मक चित्र उपस्थित करने में समर्थ हैं। स्मृति की रेखाओं में भक्तिन की 
सेवा भावना की महादेवीजी ने उपमानच्छल से बड़ी मामिक अभिव्यक्ति की है-- 

सिबक-धर्म में हनुमानजी से स्पर्धा करने वाली भक्ति किसी अंजना की 
पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है--नाम है लछमिन अर्थात्‌ 
लक्ष्मी ।' 





७ 


आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय 


आधुनिककालीन साहित्य को प्रमुख विशेषताएँ 

आधुनिककाल में हिन्दी साहित्य का बहुमुखी विकास हुआ है । सबसे बड़ी 
बात गद्य के उद्भव एवं विकास की है, जिसे लक्ष्य करके आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल 
ने इस काल का नामकरण गद्यकाल किया है। प्रेस के विकास के साथ ही गद्य का 
विकास आधुनिककाल में हो गया । 

आधुनिककालीन हिन्दी साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं-- 


१. 
प 





गद्य की अनेक विधाएँ हुई एवं उनका पर्याप्त विकास हुआ । 
आधुनिककाल में खड़ीबोली गद्य और पद्य दोनों क्षेत्रों में साहित्यिक 


भाषा के रूप में अपना ली गई॥ . 
आधुनिककाल में राष्ट्रीय भावना एवं राजनैतिक चेतना का विकास 


हुआ ओर इसका प्रभाव साहित्य पर भी (पद्य-गद्य दोनों पर) व्यापक 


रूप से पड़ा । 

इस काल के साहित्य में नवयुग को चेतना मानवतावाद का भी व्या के साहित्य में नवयुग की चेतना मानवतावाद का भी व्यापक 
प्रभाव दिखाई पड़ता है । 

इस काल के साहित्य में श्वद्धारकालीन विलास का बहिष्कार करके 
श्रृंगार का सुष्ठु एवं स्वस्थरूप प्रस्तुत किया गया । 

इस काल के साहित्य में कवियों का ध्यान प्रकृति-चित्रण की ओर २ के साहित्य में कवियों का_ध्यान प्रकृति-चित्रण की ओर भी 


आकर्षित हुआ ओर प्रकृति के मनोरम एवं सरस काव्य की रः और प्रकृति के मनोरम एवं सरस काव्य की रचना 
हुई । 











८६ 


आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ८७ 


७, इस काल के साहित्य में सभी विधाओं में अनेक वादों की भरमार हो 
गई । इन वादों के संघर्ष से साहित्य-सृजन की प्रेरणा मिली और बहुत 


आंग्ल प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है । 


8. इस काल के साहित्य में सामान्य जीवन के विषयों को ग्रहण किया 
गया । 

आधुनिक हिन्दी कविता की विभिन्न घाराए 

आधुनिक हिन्दी काव्यधारा का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिशचन्द्र से माना जाता 
है। भारतेन्दुजी के हिन्दी काव्यजगत में प्रादुर्भाव के साथ ही हिन्दी कविता के 
विषयों और उसके प्रकाशन के ढंग में महान्‌ क्रान्ति उपस्थित हुई । आधुनिक हिन्दी 
काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियो का अध्ययन करने के लिए हम उप्तके रचनाकाल को 
निम्नलिखित युगों में विभाजित कर सकते हैं-- 

१--भारतेत्दु युग--सन्‌ १८६८ से सन्‌ १६०३ तक का हिन्दी काव्य रचना 
का काल भारतेन्दु युग के नाम पै जाना जाता हे । यह आधुनिक हिन्दी कविता का 
प्रथम उत्थानकाल है। इस काल का प्रायः सम्पूर्ण काव्य भारतेन्दुजी या उनसे 
प्रभावित कवियों की रचना है । इस युग में राजभक्ति, देशप्रेम, सामाजिक दुरवस्था 














क य य मय 

२--द्विवेदी युग-सच्‌ १६०३ से सन्‌ १६१६ तक की आधुनिक हिन्दी 
कविता महावीरप्रसाद द्विवेदी के नाम पर द्विवेदी युग के अन्तर्गत आती है । इस 
युग की काव्यधारा में विचार स्वातन्त्र्य को प्रवृति) राजत तक. की प्रवृति, राजतीतिक चेतना का गहरा 
प्रभाव, काँग्रेस की प्रशंसा आदि विषयों को अपनाया गया । बुद्धिवाद का बढ़ता 
हुआ प्रभाव इस युग की कविता प्र लक्षित होता है । इस युग में कविता बुद्धिप्रधान, 
इतिवृत्तात्मक एवं गद्यात्मक हो चली । खड़ीबोली की काव्यभाषा के रूप में पूर्ण 
प्रतिष्ठा हुई और अतुकान्त प्रवृत्ति के आधार पर नवीन हिन्दी छन्द का विकास हुआ, 





कविता हिवेदोयुगीन उपदेशात्मकता की प्रवृत्ति से रहित व्यजनाभधान या उपदेशात्मकता की प्रवृत्ति से का विशार सिया और य छा व्यंजनाप्रधान थी । - 
बादी शैली में कल्पनाप्रवणता के कारण प्रकृति के मानवीय रागी न ससस दोली में कल्पनाप्रवणता के कारण प्रकृति के मानवीय रागों से समन्वित सजीव 


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६ 


दद मौ खिक-प रीक्ष पथ प्रद शिका 


चित्र प्रस्तुत किये गये | छायावादी कविता में रहस्य की भावना का चित्रण तथा 
स्थुल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह प्रतिफलित हुआ । छायावादी काव्यशैली में अमूत्त- 
विधान, प्रतीक-योजना, ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिक वक्रता विशेष महत्त्वपूर्ण हुए । 


४--प्रगतिवादी काव्यधारा--सनु १६३५ से १६४४ तक की हिन्दी कविता 


मावर्सवादी अर्थ-दर्शन से प्रभावित जनचेतना को अपना प्रतिपाद्य बनाकर प्रगति के 
पथ पर अग्रसर हुई । इसमें सामाजिक यथार्थवाद को महत्त्व दिया गया और अभि- 
व्यक्ति की सरलता का विशेष ध्यान रखा गया । 

५-"प्रयोगवाद--सनू १६४४ से १९५५ तक हिन्दी कविता की प्रयोगशील 
प्रवृत्ति विकास को प्राप्त हुई । इसमें कला को कला के लिये मानकर चलने की 
प्रवृत्ति एवं काव्य के रूप सम्बन्धी नवीन प्रयोग दिखलाई पड़े | इस कविता में सामथिक 
जीवन से लेकर यौन कल्पनाओ को प्रतिपाद्य बनाया गया। अधिकांश प्रयोगवादी 
कविताएँ घोर वयक्तिकता, बौद्धिकता एवं श्यृंगारिकता तथा फ्रायड के मनोविश्लेषण 
एवं कुठाओं की अभिव्यक्ति करने वाली हैं। उनमें रस-पक्ष एकदम दब गया 























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नई कविता अकविता का रूप धारण कर गई । वर्तमान में कुछ नवगीतकारों ने 
इसे नई गति प्रदान की हे । अभी इसका रूप सुस्थिर नहीं हुआ हे। नई कविता में 
कवि का लक्ष्य रस निष्पत्ति न होने होने से इसके रसास्वादन की समस्या विद्वान समीक्षकों 
के सामने भयावह रूप में उपस्थित है । 


भारतेन्दुकालीन कविता की विशेषताएं 


१--देश-प्रेम एवं राष्ट्रीय भावना--इस युग की कविता की मूलधारा देश- 
भक्ति की है। ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति का विरोध करते हुये स्वतन्त्रता का महत्त्व 
इस युग की कविता में अङ्कित हुआ है । 

२--जनवादी विचारधारा का स्वर इस युग की कविता का प्रमुख स्वर 
है। इसमें सामाजिक एवं आथिक सभी दृष्टि से मानवतावादी व्यापक दृष्टिकोण 
की अभिव्यक्ति हुई है । इस जनवादी विचारधारा की अभिव्यक्ति जनवाणी--ग्रामगीत 
में हुई है। 

३-प्राचीन परिपाटी की कविता--इस युग में प्राचीन परिपाटी की भक्ति 
एवं श्ुङ्गारपरक काव्य रचनाओं का निर्माण भी होता रहा । 

४--कला त्मकता का अभाव--इस युग की कविता में कलात्मकता के अभाव 
का कारण इस उत्थान में विचारों का संक्रान्तिकाल होना है । गद्य का बढ़ता हुआ 
प्रभाव एवं समाचारपत्रों का प्रचार भी इसके मूल में है। 

















आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ६६ 


५--काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोग--इस युग में खडीबोली का प्रयोग गद्य तक 
सीमित रहा । कुछ कवियों ने भी खड़ीबोलो में कविता करने का प्रयास किया किन्तु 
मुख्य प्रवृत्ति के रूप में ब्रजभाषा ही काव्य में प्रयुक्त होती रही । 

६--छन्द विधान के क्षेत्र में इस युग के कवियों ने कोई नवीन प्रयास नहीं 
किया, परम्परा से चले आते हुये छन्दों का ही उपयोग किया गया । किन्तु ग्रामगीतों 
का भारन्तेर्दुजी ने राष्ट्रीय विचारधारा के प्रचार के लिए प्रयोग किया तथा दूसरों को 
भी प्रेरणा दी। 


श्रीधर पाठक का कृतित्व (जन्म सम्बत्‌ १६३३ मृत्यु सम्वत्‌ १६८५) 
भारतेन्दुजी एवं उनके सहयोगियों ने काब्यघारा को नये विषयों की ओर 


उन्मुख किया किन्तु उन्होंने भाषा ब्रज ही रहने दी और पद्य के ढाँचे एवं अभिव्यंजना 
के ढङ्ग में तथा प्रकृति-चित्रण में भी प्राचीन परिपाटी का अनुकरण किया गया । 
पं० श्रीधरपाठक ने स्वच्छन्दत का परिचय देते हुये खड़ीबोली को काव्य का माध्यम 
बनाया तथा प्रकृति के परम्पराभुक्त वर्णन छ छोड़कर उसे अपनी आँखों से देवा । 

पाठकजी ने खड़ीबोली का पद्य में प्रयोग किया और उसके लिये सुन्दर लय 
और चढ़ाव-उतार के कई नये ढांचे प्रस्तुत किये । उन्होंने ख्याल या लावनी की लय 
पर 'एकान्तवासी योगी' की रचना की । इसी प्रकार सघुक्कडी शेली पर उन्होंने जगत्‌ 
संचाई सार की रचना की । अपनी परीक्षण' नामक रचना में पाठकजी ने उस परोक्ष 
दिव्य संगीत को ओर रहस्यपूर्ण संकेत किया जिसके ताल सुर पर यह सारा विश्व 
नाच रहा है। 

श्रीधर पाठक को पं० रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिककाल में काव्य क्षेत्र में 
स्वच्छन्दतावाद का प्रवर्तक माना है । 

श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद भी प्रस्तुत किये । उन्होंने 











गोल्डस्मिथ के 'टोवलर' नामक काव्य का 'श्रांतपथिक्र' नाम से खड़ीबोली में पद्यानु-. 


वाद किया । इसके अतिरिक्त भी पाठकजी ने खड़ीबोली में फुटकल कविताएँ लिखीं । 

पाठकजी ने ब्रजभाषा में भी कविताएं की । उनका 'ऊजड़ ग्राम' अंग्रेजी के 
'ेजरटेड विलेज! का ब्रजभाषा में पद्यानुवाद है । 

पं० रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में पाठकजी की प्रतिभा बराबर रचना के नये- 
नये मार्ग भी निकाला करती थी । 
द्विवेदीयुगीन कविता की विशेषताएं 

१. इस युग को कविता में देशभक्ति एवं राष्ट्रोय जागरण राष्ट्रीय जागरण का स्वर भारतेन्दु 
प की बगेका आप उह हमा आर सोस्ति राकी आस ना का विकास 
हुआ । अतीत गौरव के प्रति कवियों ने जनता का ध्यान आकपित करते हुए वतमा गौरव के प्रति कवियों ने जनता का ध्यान आकषित करते हुए वर्तमान 
हीन दशा से उसकी तुलना की । मंथिल्ीशरण गुप्त की भारत भारती भारत के 
जागरण का प्रतीक बनो । 





Re 


है, मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


२. जन्मभूमि की महिमा एवं कांग्रेस और स्वदेशी आन्दोलन की लहर द्विवेदी 
युग की कविता में प्रमुख रूप से अभिव्यक्ति पा सकी । यह इस युग की राजनीतिक 
चेतना का मुखरित स्वर था । 

३. मानवतावादों विचारधारा--इस युग में प्रथम बार मनुष्य को मनुष्य 
के रूप में देखा गया । काव्य अब उच्चवर्गीय जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र न रहकर 
तिम्तवग के जीवन के चित्रण को प्रस्तुत करने वाला बना । इस प्रकार काव्य दुःख 
और दैन्य से त्रस्त मानवता के जीवन को अभिव्यक्त करने में पूर्ण समर्थ हो गया । 

४. नारी स्वातरूप एवं समानता की भावना--नारी युगों से दलित एवं 
उपेक्षा की शिकार थी। स्वतन्त्रता आन्दोलन में वह सच्ची सहचरी बनी । स्त्री 
जाति की दुर्देशा को दूर करने की ओर समाज का ध्यान इस युग के कवियों ने आक- 
षित्त किया । 

५. सत्य और न्याय का समर्थेन किया गया तथा मानव सेवा को ईश्वर सेवा 
के रूप में चित्रित किया गया । 

६. बौद्धिकता का व्यापक प्रभाव- नवीन वैज्ञानिक युग के अनुकूल इस युग 
के कवि ने भी बौद्धिकता को अपनाया और वह भारतीय-संस्कृति की परीक्षा वैज्ञा- 
निक एवं ताकिक हृष्टि से करने लगा । 

७. श्रृंगार का बहिष्कार--आचायं महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इस युग की 
काव्यधारा को नैतिकता के कठोर बन्धन में जकड़ने एवं श्वृंगारकालीन अश्लीलता 
के बहिष्कार के प्रयास में प्रेम ओर सौन्दर्य को भी बहिष्कृत कर दिया । आदर्शवाद 
पर विशेष जोर दिया गया जंसे श्र'गार की मूरति राधा को लोकसेविका के रूप में 
हरिऔधजी ने अपने 'प्रियप्रवास' महाकाव्य में प्रस्तुत किया । 

८. इतिवृत्तात्मकता एवं गद्यात्मकता--इस युग के प्रारम्भकाल में काव्य 
गद्यात्मक हो चला था, अन्तिम चरण में मंथिलीशरण गुप्त ने साकेत? में कुछ सुन्दर 
गीतों की योजना की । द्विवेदीयुग की कविता की कल्पनाविहीनता, इतिवृत्तात्मकता 
एवं गद्यात्मकता प्रसिद्ध है । 

९. प्रकृति का आलम्बन के रूप में चित्रण--इस युग की कविता में सच्चा 
प्रकृति प्रेम प्रतिफलित हुआ है, यथा श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी आदि की 
कविता में । 

१०. अंग्रेजी कविताओं के अनुवाद की इस युग में प्रचुरता रही । बंगला से 
काव्य-सामग्री ली गई और मराठी से शंली ग्रहण की गई । 

११. नवीन एवं सामान्य लोकजीवन के विषयों का निरूपण इस युग में 
प्रमुख रूप से हुआ। अतः नवीन सामाजिक विषयों की ओर कवियों का ध्यान 
आकर्षित हुआ । 

१२. खड़ीबोली की इस युग में काव्य-भाषा के रूप में पूर्ण रूपेण प्राण 





आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय 8६ 
प्रतिष्ठा हुई किन्तु भाषा गद्यात्मक हो गई । क्योंकि द्विवेदीजी ने गद्य औरपद्य का 
पद-विन्यास भी एकसा करने का आदर प्रस्तुत किया । 

१३, छन्द के क्षेत्र में स्वच्छन्दता की ओर मूकाव--द्विवेदीजी कविता में तुकबन्दी 
के विरोधी और छन्द के क्षेत्र में स्वच्छन्दतावादी थे । उन्होंने अतुकान्त छन्दों को भी 
महत्व दिया । यह खड़ीबोली हिन्दी का अपना विशिष्ट छन्द बन गया और ब्रज- 


भाषा के प्राचीन छन्दों को छोड़ दिया गया । मैथिलीशरण गुप्त ने हिन्दी छन्द 
प्रयुक्त किया । 
हरिऔध एवं गुप्तजी में आधुनिकता 

अयोध्या सिह उपाध्याय हरिऔध खडीवोली के प्रथम श्रेष्ठ कवि हैं। | कवि हैं । प्रिय- 
प्रवास खड़ीबोली हिन्दी का सर्वप्रथम महाकाव्य है । 
__ हरिओऔधजी ने अपनी रचनाओं में सामाजिक भावना को सवंप्रमुख स्थान 
दिया है । उन्होंने पौराणिक कथानकों के आधार पर अपने महाकाग्यो का सृजन किया 
किन्तु उसमें आधुनिकता का समावेज्ञ करके उन्हें नवीन रूप प्रदान किया । उनकी 
रचनाओं के सभी प्रमुख पात्र समाज-सेवको के रूप में चित्रित हुये हैं । प्रियप्रवास के 
राधा-कृष्ण भक्ति एवं रीतिकालीन कवियों के राधा-कृष्ण से सर्वथा भिन्न हैं। भक्तिः 
कालीन राधा-कृष्ण अनन्य प्रेम के आदर्श हैं तो रीतिकालीन राधा-कृष्ण नायकः 
नायिका के रूप में अवतरित हुए हैं और श्युज्ञार रस की सामग्री प्रस्तुत करते हैं। 
प्रियप्रवास के राधा-कृष्ण आधुनिकता की भावना से परिपूर्ण समाज-सेवा की लगन 
लिए हुए लोकसेवक-सेविका के रूप में हमारे सामने आते हैं । हरिऔधजी की राधा 
एक महान्‌ लोक-सेविका हैं । उन्होंने लोकहित के लिए स्वहित का बलिदान कर 
दिया है-- 





प्यारे जीवें, जगहित करें, गेह चाहे न आवें । 
लोकाराधन में लगी राधा की यही कामना है कि उसके प्रियतम कुष्ण भी 
जगहित में लगे रहें चाहे घर न आयें । इनकी राधा भी सूर की राधा की भाँति 
बिरह-व्यथा में मग्न नहीं हैं, वे ब्रजवासियों की सेवा में लगी हुई हैं। इनकी राधा 
पौराणिक राधा से नितान्त भिन्न आधुनिका हैं । इसके साथ ही उपाध्यायजी ने राम 
और कृष्ण को आदर्श मानवों के रूप में चित्रित किया है, अलौकिक अवतारों के रूप 
में नहीं । उनके अलौकिक कमों की हरिओधजी ने वैज्ञानिक युग के अनुकूल नवीन 
व्याख्या प्रस्तुत करके उन्हें लौकिक एवं बुद्धिसंगत रूप देने की चेष्टा की है। उदा- 
हरणाथ गोवर्धन पर्वत को ऊ गलो पर उठाने सम्बन्धी श्रीकृष्ण के अलौकिक कमं की 
उपाध्यायजी की यह व्याख्या देखिये 
लख अपार प्रसार गिरीन्द्र में 
ब्रज धराधिप के प्रिय पुत्र का 
सकल लोग लगे कहने उसे, 
रख लिया उ गली पर इयाम ने ॥ 


६३ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


उपाध्यायजी के काव्य में आधुनिकता का समावेश अनेक रूपों में मिलता 
है । इनके काव्यों में देश-प्रेम से बढ़कर विश्‍व-प्रेम का संदेश भरा है, व्यक्तिगत 
आँगुऔं की धारा को मानव जाति की कल्याण कामना के सागर में डुबो दिया है। 

मंथिलीशरण गुप्त --गुप्त शी आधुनिक काल के महान्‌ राष्ट्रकवि हैं। उन्होंने 
अपने यूग के साथ चलने का प्रयत्न किया है । विकासशील होने के कारण उनकी 








काव्य साधना में सदेव नवीनता बनी रही । युग के प्रत्येक मोड़ पर आपके काव्य में 
नवीन काव्यस्वर दिखायी पड़ा हे । पर नवीनता अपनाने के फेर में उन्होंने प्राचीन 
का त्याग नहीं कर दिया । नवीन और प्राचीन दोनों के श्रेष्ठ तत्त्वो का सामंजस्य 
आपके काव्य की विशेषता है । आर्य संस्कृति की सात्त्विक भावनाओं का उनके द्वारा 
सर्वाधिक सफल चित्रण हुआ है । 

मैथिलीशरण गुप्त जातीय कवि भी हैं और राष्ट्रीय कवि भी। गुप्तजी के 

ब्य की सबसे बड़ी विशेषता समय के आवाहन का साथ देना है। समय के अनुसार 

उत्तरोत्तर परिवर्तित होती हुई भावनाओं और विचारों को, और इसी प्रकार काव्य- 
प्रणालियों को, उन्होंने बराबर अपनाया और तदनुकूल रचनाएँ कीं । गुप्तजी ने युग 
की आवाज को सुनकर और पहचानकर उसे बड़े कोशल के साथ छन्दोबद्ध किया है। 
इसी दृष्टि से गुप्तजी आधुनिक हिन्दी के प्रतिनिधि कवि कहे जाते हैं । 

गुप्तजी कला का उद्देश्य जीवन को ऊचा उठाने में मानते हैं। आदर्शवाद 
के प्रति उनका सहज झुकाव है । मर्यादा का उन्हें सदा ध्यान रहता हे । साकेत 
महाकाव्य में उन्होंने लांछिता कंकेयी के चरित्र को नवीन, मनोवैज्ञानिक और उदात्त 
रूप दिया हे । यशोधरा' में परित्यक्ता यशोधरा का नारी और जननी का त्याग 
भरा रूप सामने आया है। द्वापर' नामक काव्य में गुप्तजी ने यशोदा, नन्द, राधा, 
गोपी, गोप, बलराम, कृष्ण आदि पात्रों के हृदयस्थ भावों का स्वगत शैली में अभि- 
व्यंजन किया है । जय भारत” नामक अपने महाभारत के प्रसङ्ग पर लिखे काव्य में 
गुप्तजी ने आधुनिक सामाजिक समस्याओं पर संस्कृति के अनुरूप दृष्टिकोण प्रस्तुत 
किया है । 
साकेत का नामकरण 


साकेत महाकाव्य की रचना का उद्देश्य मैथिलीशरण के लिये उपेक्षिता 
उभिला के चरित्र का सहानृभूतिपूर्वक चित्रण करना था । इस रचना का नामकरण 
'उमिला' भी रखना सम्भव था किन्तु गुप्तजी ने इसका नामकरण पात्र या मनोवृरि 
या घटना विशेष के आधार पर न रखकर स्थान विशेष के आधार पर किया है। 


नामकरण की सार्थकता: 
१. कवि की दृष्टि प्रधानरूप से साकेत पर ही केन्द्रित है। वही समस्त 
घटनाओं का केन्द्र है तथा प्रधान पात्री उमिला का निवास स्थान है 
रामकथा का वर्णन कवि ने साकेत में हो विभिन्न पात्रों के द्वारा करवा 
दिया है । 











आघुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय 8३ 


२. उर्मिला निरन्तर साकेत में हो रहती है और कवि की दृष्टि उसी को 
ओर रहती है । अतः 'साकेत' ही सबका केन्द्र है। 
३, साकेत के प्रथम सात सर्गो तक श्रीराम भी साकेत में ही रहे हैं । शेष 
में राम-वियोग से पीड़ित साकेत का वर्णन है । 
४, इस महाकाव्य की आद्यस्त कथा का सम्बन्ध साकेत से है। प्रारम्भ में 
लक्ष्मण-उमिला का सुखी गाहंस्थ्य जीवन चित्रित हुआ है, अन्त मे 
उनका फिर साकेत में ही मिलन हो जाता है। 
इस प्रकार साकेत का नामकरण सर्वथा उपयुक्त है । 
साकेत का नायक 

साकेत महाकाव्य में मैथिलीशरण गुप्त ने नायक के सम्बन्ध में एक नवीन 
प्रयोग किया है । इसका कोई एक नायक नहीं है । साकेत' में राम, उमिला, सीता 
और लक्ष्मण प्रमुख पात्र हैं किन्तु इनमें से कोई एक भी नायक या नायिका के पद पर 
आसीन होने योग्य नहीं है । 

गुप्तजी ने ब्रह्म' को साकेत का नायक बनाया है जो अष्टमूर्तियों के रूप. में 


विभाजित हो गया है--चार मूतियाँ राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुध्न और चार 
उनकी शक्तिस्वरूपा पत्तियाँ । हि. 

प्राचीन भारतीय काव्पशास्त्र - के अनुसार महाकाव्य में नायक को ही नायिका 
रूपी फल की प्राप्ति होती है या नायक की पत्नी ही नायिका होती है। साकेत में 
पुरुषों में राम का चरित्र और स्त्रियों में उमिला का चरित्र प्रभावशाली है । अतः 
नायक-नायिका सम्बन्धी भारतीय आदर्श की पूर्ति नहीं होती । 

यदि इसे नायिकाप्रधान महाकाव्य मानें और उमिला क महाकाव्य मानें और उभिला को नायिका मानें तब 
भी लक्ष्मण का चरित्र पुरुष पात्रों में राम के सम्मुख दब जाता है। महाकाव्य में तो 
नायक-नायिका का उत्कं ही प्रधान होता है । 

निष्कर्ष यह है कि जैसा मेथिलीशरण गुप्त ने स्वयं कहा है । साकेत में 'ब्रह्म' 
नायक है और वह आठमूतियों में विभक्त है, अतः ब्रह्म की आठों सूर्तियाँ नायक- 
नायिका हैं । 
आधुनिककाल के ब्रजभाषा के कवि 


पं० रामचन्द्रशुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास' में आधुनिककाल 
(संवत्‌ १६०० से ”") काव्यखण्ड में पुरानीधारा के अर्थात्‌ ब्रजभाषा-काव्य परम्परा 
के इन प्रसिद्ध कवियों की चर्चा की है-- 

१--सेवक--(जन्म सं० १८७२ मृत्यु संवत्‌ १६३८) ब्रजभाषा के अच्छे कवि 
थे । इनका वाग्विलास' ग्रन्थ नायिकाभेद का विशालकाय ग्रन्थ है। 

२- महाराज रघुराजसिह रीवाँ नरेश-- (उन्म सं० १८८० मृत्यु सं० १६३६) 


ह; मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


ने भक्ति और श्रृंगार कि अनेक काव्यग्रन्थ ब्रजभाषा में रचे । इनका 'रामस्वयंवर' 
वर्णनात्मक प्रबन्ध काव्य है । 

३--सरवार(कविताकाल सं० १६०२ से १९४०) बड़े ही मर्मज्ञ कवि हैं । 
इन्होंने 'साहित्य सरसी' 'बाग्विलास', पटऋतु, हनुमतभूषण, श्रृंगार रत्नाकर आदि 
अनेक काव्य-ग्रन्य बनाए । 

४--बाबा रघुनाथदास रामसनेही--ये अयोध्या के साधु थे। सं० १९११ में 
इन्होंने 'विश्रामसागर' में पुराणों की कथाएँ संक्षेप में प्रस्तुत कीं । 

५--ललिलकिशोरी- शाह कुन्दनलाल का काव्यकाल सं० १६१३ से १६३० 
तक है । इन्होंने भक्ति-प्रेम सम्बन्धी पद एवं गजलों की रचना की । 

६-- राजा लक्ष्मर्णासह--हिन्दी गद्य के प्रवत्तेकों में से एक थे । इनकी ब्रज- 
भाषा की कविता सहज मिठास से पूर्ण है । इन्होंने संस्कृत के शकुन्तला नाटक और 
मेघदूत काव्य (१६३८) का ब्रजभाषा में पद्यानुवाद प्रस्तुत किया । 

७--लक्षराम ब्रह्मभट्ट--इनका जन्म सं० १८९८ में बसी जिले में हुआ । 
इन्होंने अपने आश्रयदाताओं के नामे पर कुछ रचनाएँ की हैं--मानसिहाष्टक, 
प्रतापरत्नाकर, प्रेमरत्नाकर आदि । वतंमानकाल में ब्रजभाषा की पुरानी परिपाटी 
पर कविता करने वालों में ये बहुत प्रसिद्ध हुए । 

८---गोविन्द गिल्लाभाई--का जन्म सं० १६०५ में सिहोर (गुजरात) में 
हुआ । इनक्रे काव्यग्नन्थ--नीतिविनोद, श्रृंगार सरोजिनी, षटऋतु आदि हें । 

९-- नवीन चौबे-- (जन्म सं० १९१५ मृत्यु १६८६) ये मथुरा के रहने वाले 
थे। इन्होंने प्राचीन परिपाटी की कविता की । 

आधुनिककाल में कुछ ऐसे ब्रजभाषा कवि भी हुए जिन्होंने हिन्दी साहित्य की 
गति के प्रवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान करते हुए भी पुरानी परिपाटी की कविता से 
सम्बन्ध बनाए रखा । इनमें प्रमुख ये हैँ-- 





(१) भारतेनदु-हस्झ्चिन्द्र (२) पण्डित प्रतापनारायण मिश्र (३) अम्बिकादत्त_ 


व्यास (४) पं० बदरीनारायण चौधरी, (५) ठा० जगमोहन सिह (६) बावु रामकृष्ण वर्मा 
ये कवि बड़ी सरस श्वृंगारी तथा समस्या-पूति की कविता लिखने में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने 
कजलो, होली आदि जनगीतों का निर्माण भी किया। ठा० जगमोहनसिह के 
श्युंगारी कवित्त सवैयो का संग्रह कई पुस्तकों में है । 

इनके अतिरिक्त ला० सीताराम, अयोध्यासिह उपाध्याय, श्रीधरपाठक आदि 
ने भी ब्रजभाषा काव्य की रचना की । 

जगच्चाथदास रत्ताकर (जन्म संर १६२३ मृत्यु १६८६) पुरानी परिपाटी 
के ब्रजभाषा कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं । इनके हरिश्चन्द्र, गंगावतरण और उद्धवशतक 
| नामक तीन सुप्रसिद्ध प्रबन्ध काव्य हैं । 
रायदेवीप्रसाद पूर्ण (मृत्यु सं० १६७७), वियोगीहरि, दुलारेलाल भार्गव, 


आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय a५ 


एवं ताथूरामशंकर शर्मा, ला० भगवानदीन, पं० गयाप्रसाद शुक्ल सनेही आदि अन्य 
ब्रजभाषा के आधुनिककाल के कवि हैं । 
छायावाद की परिभाषा 

आचायय पं० रामचन्द्र्ुक्ल ने छायावाद के ममे का भली-भांति प्रकाशन नहीं 
किया है । उन्होंने छायावाद के दो रूप माने हँ" 

(१) एक वह जिसमें रहस्यभावना की प्रधानता है। 

(२) दूसरा वह जिसमें प्रतीकों का प्राचुयं 


महादेवी वर्मा ने छायावाद की छः प्रमुख विशेषताओं का ही निरूपण 

किया हैन 

१. छायावादी व्यक्तिगत अनुभव में प्राण संचार अर्थात्‌ कवि व्यक्ति रूप 
में जो अनुभव कर उसकी स्वच्छन्द अभिव्यक्ति करता हे । 

२. छायावादी कविता में प्रकृति के अनेक रूपों में एक महाप्राण का अनुभव 
रहता है । इसे सर्वात्मवाद कह सकते हैं 

३. छायावादी काव्य में असीम के प्रति अनुरागजच्य आत्मविसर्जन का 
भाव या रहस्यवाद एक प्रधान प्रवृत्ति है ! 

४. छायावादी काव्य में स्थूल की प्रतिक्रिया में सूक्ष्म सौन्दर्य सत्ता की ओर 
कवियों ने अपनी जागरूकता प्रदशित की है । 

५. छायावादी काव्य में युगानूप वेदना की विवृति है जिसके मूल में 
मानव के प्रति संवेदना की भावना एवं सेवामय जीवनदर्शन की 
अभिव्यक्ति है । 

६. छायावादी काव्य में रहस्यवाद तथा वेदनाभाव आदि प्रवृत्तियों की 

अभिव्यक्ति के लिए युगानूरूप प्रतीकों को अपनाया गया है। ये प्रतीक 
प्रमुख रूप से प्रकृति से ग्रहण किए हैं । 


७. छायावादी काव्य में गीतात्मक पद्धति एवं लाक्षणिक वक्रता तथा 
































८. छायावादी काव्य में मानवीकरण, विशेषण विपर्यय, अगुतं के लिए 
मूतं का प्रयोग किया गया।_ 

प्रसाद काव्य की प्रमुख विशेषताएं 

छायावाद के प्रवर्तक महाकवि जयशंकरप्रसाद का 'कामायनी नामक अमर 'कामायनी' नामक अमर 
महाकाकव्य दै । प्रसादजी की काव्य रचनाओं को देखने पर प्रतीत होता है कि वे 
मूलतः प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं, जिनका लक्ष्य आनन्द है । 

प्रसादजी के काव्य में प्रेमभावना के तीन रूप इस प्रकार हैं--- 

(१) वैयक्तिक तथा ईश्वरोन्मुख प्रेमप्रसाद के काव्य में प्रेम, विलास एवं 


i निर नका 


रे मोखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


सौन्दर्य का सुन्दर चित्रण है । आपका लौकिक एवं वंयक्तिक प्रेमवर्णन अलौकिकता 
की ओर संकेत करता है । त 

(२) प्रकृति प्रेम--प्रसादजी ने प्रकृति के बडी उदात्त कल्पना से मनोरम एवं 
भयंकर दोनों रूपों के चित्र प्रस्तुत किये हें । E 

(३) प्राचीन गौरव के प्रति प्रेम--प्रसादजी को भारत की प्राचीन संस्कृति के 
प्रति उत्कट प्रेम है । उनका प्राचीन संस्कृति के प्रति अनुराग न केवल काव्य में वरन्‌ 
नाटकों में भी अभिव्यक्त हुआ.है । 

प्रसादजी के काव्य में सीन्दर्य-चित्रण तीन प्रकार है-- 

(१) मानवीय सोन्दर्य--पुरुष, नारी एवं वाल सौन्दर्य का कलात्मक अङ्कून 
प्रसादजी ने समानरूप से किया है । 

(२) भाव सौन्दयं--यौवन के प्रसादजी ने बड़े माभिक एवं सजीव और 
हृदयग्राही चित्र प्रस्तुत किये हैं । 

(३) आध्यात्मिक सौन्दयं--प्रसाद का रहस्यवाद या दार्शनिक विचारधारा 
आध्यात्यिक सौन्दर्यं से ओतप्रोत है । उनका दर्शन शैवमत पर आधारित आनन्दवाद है। 

प्रसादजी की काब्यकलापक्षान्तर्गत प्रमुख विशेषताएँ ये हैं--ध्वन्यात्मकता, 
लाक्षणिक वक्रता, प्रतीक विधान, उपचार वक्रता, नवीन छन्दविधान एवं नवीन 
अलंकरण--साहृश्यमूलक अलकारों का प्राधान्य । 


प्रसाद का प्रकृति के साथ तादात्म्य 


छायावाद के प्रवर्तक कवि जयशंकरप्रसाद ने अपने साहित्य में प्राकृतिक 
सौन्दर्यं का मनोहारी चित्रण किया है। पं० नन्ददुलारे वाजपेयो का मत है कि 
'प्रकृति-विषयक प्रसाद की रचनाओं में सौन्दर्य के प्रति आकर्षण और उस सौन्दर्य के 
विषय की तात्विक जिज्ञासा तो मिलती है, परन्तु प्रकृति के प्रति २हस्यवादियों का 
सर्वात्मवादी दृष्टिकोण _प्रसाद' में विकसित नहीं हुआ है ।' कामायनी के आशासर्ग 
में जो थोड़े से प्राकृतिक रहस्यवाद का चित्रण है उसमें प्रसाद का रहस्यवाद प्रकृति 
पर आश्रित प्रतीत नहीं होता । प्रसादजी मुख्यतः मानवीय भावनाओं के 
कवि हैं। उनका रहस्यवाद भी मानव अनुभूतियों पर अधिक आश्रित है । डॉ० 
रामेइवरलाल खण्डेलवाल के शब्दों में प्रसाद प्रकृति को केवल प्रकृति के लिए तो 
प्यार नहीं करते । या तो वे उसे शिवतत्व के प्रकाशन के माध्यम क रू के माध्यम के रूप में देखते हैं 
या वे उसे मानव-सन्दर्भ में ही महत्त्व देते हे जोकि मनोविज्ञान की दट से जोकि मनोविज्ञान की दृष्टि से सर्वथा 
स्वाभाविक है ये-दोनों स्थितियाँ प्रकृति को एक गाम्भीय से परिवेष्टित कर देती हैं, 
वे कवि को केवल ऐन्द्रिय सौख्य तक ही सन्तुष्ट नहीं रहने देतीं ।' 


ES 


डॉ० खण्डेलवाल ने प्रसाद के प्रकृति के साथ तादात्म्य का विवेचन करते 


हुए लिखा है 'प्रकृति के प्रति जिज्ञासा प्रसाद के स्वभाव की विवशता हैया ' के प्रति जिज्ञासा प्रसाद के स्वभाव की विवशता है या उसकी 


उत्तरदायी उनकी आत्मा की मननशीलता है, ' जिसे वे संकल्पात्मक अनुभूत के ५ उनकी आत्मा की मननशीलता है, ' जिसे वे संकल्पात्मक ति कै क्षेत्र में 












आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ९७ 


अत्यन्त ऊँचा स्थान देते हैं । मानव को महत्त्व देते हुए प्रकृति का आकलन प्रकृति 
बिषयक नैसर्गिक विकास-क्रम का हो द्योतक है ! चेतना की मात्रा में एक पड़ाव वह 
आता है जब प्रकृति मानव के ही नाते साथंक जान पड़ती है। केवल प्रकृति और 
उसके सुखोपभोग, मानव-समाज के दुखददं के युग में (छायावाद युग ऐसा ही 
था) विडम्बना मात्र जान पड़ने लगते हैं। इसप्रकार मानव-संदभं में ही प्रकृति को 
देखना एक ओर तो मनोविज्ञान-सम्मत है और दूसरी ओर वह प्रकृति विषयक, काब्य 
चेतना के नेसगिक क्रम से समधित व पोषित है । 'प्रसाद' साहित्य में ऐसे अनेक 
स्थल हैं जिनके आधार पर प्रकृति के साथ उनके हृदय का तादात्म्य घटित होने के 
प्रमाण उपलब्ध होते हैं । प्रसाद' को प्रकृति-विषयक रहस्य भावना कोरी बौद्धिकता 
की प्रसूति नहीं है, उसमें प्रकृति के रूप सौंदर्य का नितिमेष गम्भीर दर्शन व उसमें 
से व्यंजित किसी गृढ रहस्यमयी सत्ता का गम्भीर मानस-साक्षात्कार निहित है । फिर 
मी यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि 'प्रसाद' ने सामने फली वसुधा व आकास 
को देखकर अपना सहज उल्लास व्यक्त नहीं किया, प्रत्येक चिर-परिचित और 


सामान्य वस्तु पर उनकी सरल व मामिक इष्टि नहीं पड़ी ।' 
कामायनी में रूपक तत्त्व 

जयशंकरप्रसाद ने अपने महाकाव्य 'कामायनो' की भूमिका में लिखा है 
व्यदि श्रद्धा और मनु अर्थात्‌ सानव के सहयोग से मानवता का बिक्रास-ख्पक-है तो 
भी बड़ा भावमय और इलाघ्य है, यह मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनने में 


समर्थ हो-सकता-है ।' 








उन्होंने आगे इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है-- यह आख्यान इतना प्राचीन है 
कि इतिहास में ख्पक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया हैं । इसलिये मनु, श्रद्धा और 
इड़ा इत्यादि अपना ऐतिह सिक अस्तित्व रखते हुए सांकेतिक अथं की भी अभिव्यक्ति 
करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं ।' 

प्रसादजी ने इस रूपक का स्वरूप बताते हुए हुए लिखा है-मनु अर्थात्‌ मन के 
दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का सम्बन्ध क्रमशः श्रद्धा और इडा से भी सरलता 
से लग जाता है । 





इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कामायनी में प्रस्तुत अर्थ के साथ ही सांकेतिक 
अर्थ की भी अभिव्यक्ति हुई है । रूपक दृश्यकाव्य को कहते हैं, रूपक अलंकार भी है, 
शुक्लजी ने रूपक के लिये अन्योक्ति शब्द का भी प्रयोग किया है अर्थात्‌ प्रस्तुत अर्थ के 
साथ अप्रस्तुत अर्थ भी ध्वनित होता रहे । > 

कामायनी में प्रधान पात्र तीन हैं--श्रद्धा, मनु और इडा । तीन अन्य पात्र 
मानव, किलात और आकुलि हैं । दो अशरीरी पात्र काम और लज्जा हैं । 


७ 


NE x Sis Si 


टि मौखिक-परीक्षा पथश्रदर्शिका 


मनु और श्रद्धा का मिलन मन्वन्तर का प्रारम्भ है । इन दोनों के संयोग से 
मानव-सृष्टि के विकास की कथा महाकाव्य का प्रतिपाद्य है । 

दूसरी ओर मनु मन के, श्रद्धा हृदय की और इडा बुद्धि की प्रतीक है। मन 
चिन्ता का स्थान है, मनु भी । आशा के उदय के साथ मानव-मन में श्रद्धा का आवि- 
पं किन्तु अहं के आने पर आघात पहुँचता हे और श्रद्धाविहीन भन बुद्धि 
जाता है। मन पर आघात पहुँचने पर श्रद्धा वृत्ति स्वतः आ 





जाती है । 

सेवा, त्याग, ममता, करुणा, क्षमा आदि नारी हृदय की सभी उदात्तवृत्तियों 
की प्रतीक श्रद्धा है । 

इडा बुद्धि का प्रतीक है । इस पक्ष का भी कामायनी में इडा के रूप वर्णन 


बं उसके कार्यों के द्वारा सफलतापूर्वक निर्वाह हुआ है । 


मानवत्व की पूर्णता के लिये श्रद्धा और इड़ा दोनों की आवश्यकता है-- 


यह तर्कमयी तु श्रद्धामय 
तु मननशील कर कमं अभय 
असुर पुरोहित आसुरी प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं । 
कामायनी में तीन प्रतीक और भी हैं-जलप्लावन, त्रिलोक तथा मान- 
सरोवर । जलप्लावन इःद्रियों की निर्वाध उपासना का प्रतीक है । त्रिलोक ज्ञान, 
इच्छा, कर्म का सामंजस्य एवं सफल सुखी जीवन का प्रतीक है। मानसरोवर मानस 
समरसताजन्य आनन्द का प्रतीक है । 











कामायनी में श्रद्धा सग का महत्त्व 

आधुनिककाल के महाकवि जयशंकरप्रसाद का अमर महाकाव्य 'कामायनी' 
है। इसमें मनु भौर श्रद्धा के मिलन से मानव सृष्टि की उत्पत्ति की पौराणिक कथा 
काव्य के रूप में प्रस्तुत की गई है। 


कामायनी” महाकाव्य १५ सर्गो में विभाजित है। इसमें श्रद्धासगं तीसरा है । 
श्रद्धा सगं में हो प्रथम बार नायक मनु और नायिका श्रद्धा की भेंट होती है। मतु 


पुर्वंकाल में हुए खंड प्रलय से दुखी होकर विरक्त से हो गए हैं, श्रद्धा आकर उन्हें 
जीवन का सन्देश देती है । कंसा जीवन ? वैदिक संस्कृति में वणित जीवन-- 
शरीर मे विचर्षणम्‌ । (ते० उपनिषद) 
मेरा शरीर स्वस्थ और सबल हो । 
इसी भावना को श्रद्धा ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-- 
शक्तिशाली हो, विजयी बनो । 


ड संसार में विजय उमी को प्राप्त होती है, जो शक्तिशाली होता है। उसी के 
` जीवन में मङ्गलमय अभिवृद्धि सम्मुख प्रस्तुत होती है । मनुष्य अपनी बुद्धि से पूर्णता 





आधुनिककालोन हिन्दी पद्य साहित्य : संक्षिप्त परिचय ण 
एवं सफलता को प्राप्त कर सकता मन की सम्पूर्ण भावनाओं का पूर्ण रूप से 
परिष्कार करके मनुष्य अपनो चेतना का सुन्दर इतिहास प्रस्तुत कर सकता है । जब्र 
मनुष्य हृढ निश्चय के साथ उत्थान का प्रयास करता है तो पराजय का व्यापार 
विलासपूर्वक उसे हँमाता रहता है, उसमें शक्ति का क्रीड़ामय संचार करता है । शक्ति 
के व्यस्त और बिखरे हुए विद्युत्कणों का समन्वय करके-- 
विजयिनी मानवता हो जाप 

यही कामायनी महाकाव्य का सन्देश है, जो “श्रद्धा सर्ग' में 'श्रद्धा' के माध्यम 
से व्यक्त हुआ है । 
आँसू : एक बिरहकाव्य 

जय॒शद्ूरप्रमाद का बिप्रलंभ श्रृंगारप्रधान आँसू' एक उत्कृष्ट गीतिकाव्य 

। इसमें कवि जब अन्तमु ख होता है तो यक्रायक्र विरह-ब्यथा का हाहाकार अपने 

मानस में पाता है। बह व्यथा से चिल्लाता है, उसे अपना अस्तित्व दुखमय तथा 
प्रकृति उदास दिखलाई पड़ती हे । उसे अतीत की संचित स्मृतियाँ दुखदाई हो जाती 


हैं। उसे लगता है कि जीवन में अब बेकार सांसों का भार ढो रहा है। उसके सुख- 
शुन्य हृदय में इतनी वेदनात्मक करुण स्मृतियाँ हैं जितनी नीलगगन में तारिकाएँ। 
वह अपने व्यक्तिगत दु.ख को किसके सामने प्रकट करे । वेदना मानस में ही घुमड़तो 
रहती है, व्यथा रह-रहकर करवट लेती है । सुख सपना बन चुका है । कवि को अपने 
प्रेम सम्बन्ध के इतने शीघ्र समाप्त होने पर आइचय है । उसे मधुर मिलन-बेला की 
याद आती हैं, जब वह अपनी प्रेयसी के साथ संयोग में जीवन बिताता था । शशिमुख 
पर घुँघट डाले, आँचल में दीप सजाये उसरी प्रेयसी जीवन की गोधुली में आई थी । 
वह सजीव सूति तो उसको आँखों में बसी है, उसके दक्षंन से उसके मानस में लहर 
उठने लगी थीं किन्तु अब कामना सिन्धु हृदय मंथन से फेतिल हो बड़वाग्नि की छटा 
बिखेर रहा है। यही जलन आंसू में व्यक्त हुई है 









आँसू में सुख-दुख का सन्तुलन है । आँसू का अन्त विषाद में नहीं होता वरमू 
एक समझौते के साथ होता है । कवि ने अभाव को संसार का कठोर सत्य स्वीकार 
कर लिया है । वह अपनी करुणा में लोकमंगल की कामना भरकर आशा और 
उल्लास से भर उठता है । शिव के गरलपान की भाँति वह संसार का दुःख-दच्य- 
कलुष अपने आँसुओं से धो डालना चाहता है । आँसू में आध्यात्मिक संकेत भी है 
पन्त और प्रसाद का प्रकृति-चित्रण 


प्रसाद और पन्त दोनों ने छायावाद को प्रमुख प्रवृत्ति प्रकृति-प्रेम-वर्णन को 
अपनाया है किन्तु दोनों ने उसे भिन्न हष्टिकोण से देखा और चित्रित किया है । 


१. प्रसाद प्रकृति का भावोहीप्त चित्र प्रस्तुत करते हैं, वे पन्त के समान करते हैं, वे पन्त के समान - 
प्रकृति का सूक्ष्म व्योरेवार चित्र नहीं देते पन्त ने बहिजगत को महत्त्व 





| 


a ह्याना पी... मील वडया कार ह 


१०० 


१०. 


मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


दिया है तो प्रसाद ने मनोजगत को । प्रसाद प्रकृति के सूक्ष्म रूप में 
रमते हैं तो पन्त उसके जड़ रूप में । हः 
पन्त ने प्रकृति का संश्लिष्ट वर्णन किया है जो सूक्ष्म, कोमल एवं 
सुकुमार है। प्रसाद में दाशंनिकता के कारण प्रकृति मानव के उपभोग 








} । वे मानव के माध्यम से ही प्रकृति सौन्दयं को ग्रहण करते 
हे, स्वतन्त्र रूप में नहीं, अतः प्रसाद की प्रकृति निर्जीव है पन्त की 
सजीव । 

प्रसाद ने प्रकृति में मानव के माध्यम से सौन्दर्यं का आरोप किया 


पन्त ने प्रकृति को सौन्दर्यं की जननी माना है । 

प्रसाद-काब्य में प्रकृति के विभिन्न उपकरणों से नारी सौन्दर्य के सतोरम 
चित्र मिलते हैं, पन्त में ऐसे नहीं हैं । वरन उनके काव्य में तो प्रकृति 
ही नारी-रूप धारण करके आती है। 

पन्त का अनुराग प्रकृति के कोसलख्पों के प्रति और प्रसाद का कोमल 
एवं उग्र दोनों के प्रति समान रहा 

पन्त का प्रकृति के वसन्त एवं पतभर दोनों रूपों के प्रति अनुराग 

वे प्रकृति के अनन्य उपासक हैं। प्रसाद ने प्रकृति के वसन्त रूप से ही 


प्रेम व्यक्त किया 




















समान रूप से प्रबल है । प्रकृति का प्रत्येक व्यापार प्रसाद को उस 
व्यक्त सत्ता के द्वारा संचालित प्रतीत होता है। पन्तको प्रकृति मौत 

निमन्त्रण देती है 

प्रकृति में मानव-भावों का आरोप या मानवीकरण प्रसाद आर पन्त मे 

समान रूप से मिलता है। पन्त प्रसाद के समान प्रकृति में ममत्व एवं 

कोमलता के दर्शन करते हैं । 

अलङ्कार रूप या उपमान के रूप में प्रसाद और पन्त ने समान रूप से 
कृति का प्रयोग किया है । 

प्रसाद और पन्त ने समान रूप से प्रकृति का प्रतीक के रूप में उपयोग 

किया है । 











कवि निराला और उनका काव्य 


तराणा ता याच्या रा 
अपना उदात्त एवं ओजस्वी रूप प्रकट करता है। उनका कवि जीवन 'अना।मका 
नामक काव्य-संग्रह से प्रारम्भ होता है । विषयवस्तु की दृष्टि से उनकी काव्य रचना 
के निम्तलिखित रूप हे 


आधुनिककालीत हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय १०१ 


[गीत एवं भावसौन्दय से ल के 
संगीत एवं भावसोन्दयं से ललित हो गए हैं । 

(२) दार्शनिक रचनाएँ--इनमें निरालाजी ने अद्वौत दर्शन की अभिव्यक्ति 
की है । प्यावा 

(३) उदात्त, प्रौढ़ ओजप्रधान रचनाएँ--यथा निराला की 'राम की 
शक्तिपूजा! और 'सरोजस्मृति! | इन रचनाओं में कवि का क्रान्तिकारी ओजस्वी रूप 
स्पष्ट झलक रहा है । 

(४) व्यंग्यपुरित रचनाएँ--'कुकुरम्‌त्ता' संग्रह की कविता व्यंग्यपूरित है 
है जिसमें समाज-व्यवस्था के प्रति अत्यन्त गहरा और तीव्र व्यंग्य है। 


(५) प्रगतिशील रचनाएँ---विला' और “नये पत्त' की कविता समाजवाद के 


आदर्श को प्रस्तुत करती है । इनमें दीन-शोषित जन के प्रति सहानुभूति व्यक्त की 

(६) अन्य रचनाएं --अणिमा, आराधना, अर्चना आदि कविता-संग्रहों में 
कवि के चिन्तन की अन्य दिशाएँ एवं भावना के विविध क्षेत्र एवं रूपों का 
प्रकाशन है । > 
राप्त की शक्ति पुजा : एक परिचय 

क्रान्तिकारी महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की राम की शक्ति पूजा! 
एक महत्त्वपूर्ण रामकाव्य है । इसमें राम और रावण के युद्ध तथा तज्जन्य परिस्थितियों 
एवं घटनाओं का वर्णन है। सीता-हरण के पश्चात्‌ राम ने भी सुग्रीव-हनुमान की 
सहायता से रावण पर आक्रमण कर दिया। राम-रावण का घनघोर युद्ध हुआ। 
रावण की अतुलनीय वीरता के प्रदर्शन से राम की सेना थक गई। राम कोघित हो 
उठे । उनका शरीर बाणविद्ध थे, रक्तधारा प्रवाहित हो रही थी । दोनों दल्ल अपने- 
अपने शिविरों में लोटे । राम थके हुए शिला पर वेठे। अमावस्या की उस रात में 
उनके मन में सन्देह भरा हुआ था, किन्तु सीता की याद आते ही उनका मन रोमांचित 
हो उठा । उन्हें अपने दिव्यास्त्र याद आए । इसके बाद उन्हें रावण की विशाल मूर्ति 
का स्मरण हुआ, रावण अट्टहास कर उठा । राम का शंकित मन, झर-झर आंसू झरने 
लगे जैसे आकाश में तारे चमक उठे हों । हनुमानजी ने राम के आंसू देखकर क्रोधित 
हो भयानक शब्द किया और आकाश में पहुँच गए । वहाँ शिव के आदेश से महाशक्ति 
ने अंजना का रूप धारण कर उन्हें शक्ति प्राप्त करने को बात समझायी । हनुमानजी 
राम के चरणों में लोटे । राम से महाशक्ति की आराधना करने को कहा । हनुमान 
देवी दह से १०८ पुष्प लेने गए । राम शक्ति की आराधना में स्थित हुए, उनका मन 
आज्ञाचक्र पर जाकर स्थिर हो गया । आकाश काँपते लगा। आठवे दिन रामने 
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त की । अन्त में चढ़ाने के लिए एक ही कमल पुष्प 











र मोखिक-परीक्षा प थप्रदशिका 


शेष रहा, दुर्गा ने परीक्षा लेने के लिए पुष्प चुप्चाप चढा दिया । रामने नेत्र खोले 
कमल हाथ न आया, सोचा आराधना अपूर्ण रहेगी । उन्हें माँ का अपने लिए राजीव 
लोचन सम्बोधन याद आया । उन्होंने दक्षिण नेत्र निकालने की तंय्यारी की, शक्ति 
प्रकट हुई, उन्हें विजय का वरदान दे उनके बदन में लीन हो गयी । 


राम की शर्षित पुजा : एक खण्डकाव्य 

इस रचना का लघु आकार, विविध छन्दों का अभाव और सर्गों का अभाव 
इसे महाकाव्य की परिधि में नहीं आने देते । इसमें प्रकृतिचित्रण एवं मामिक रस- 
व्यञ्जना का भी महाकाव्योचित रूप नहीं है 

राम की शक्ति पूजा' खण्डकाव्य है। खण्डकाव्य का सा लघ आधार, लघ 
विस्तारवाला कथानक, तथा एक छन्द का कौशल है। 

इसको कथा एकदेशीय है । इसमें लंका के युद्क्षेत्र का वर्णन है तथा 
एकात्मकता है । 

इसमें भावात्मकता के कारण कहीं-कहीं गीतितत्त्व भी आ गया है। 

इसका कथानक पूर्वं नियोजित तथा पात्रों का उदात्त चरित्र एवं महानू 
उद्देश्य है । 

“राम की शक्ति पूजा' के लघु आकार को लक्ष्य करके विद्वानों ने इसे आख्या- 
नक कविता कहा है। किन्तु इसका कथानक नियोजित होने से यह आख्यान नहीं 
कहा जा सकता । 

इसे कुछ विद्वानों ने रूपक काव्य कहा है । राम के अन्तद्वन्द्व के रूप में कवि 
ने अपना निजी अस्तद्द नह प्रकट किया है। इसमें कवि की आत्मचेतना से काव्य 
अभिभूत है । इसमें कवि ने गतानुगतिकता के बन्धनो से आबद्ध हिन्दी कविता को 
मुक्ति दिलाने का प्रयत्न किया है। किन्तु इस काव्य में रूपकत्व भी पूर्णरूपेण नहीं 
घटता । इसमें अवचेतन मन की विज्ञप्ति होने से रूपक अनायास आ गया है, निराला 
का अभिप्रेत नहीं है 


पन्त की काव्य-साधना के सोपान 


कविवर सुमित्रानन्दन की काव्य-साधना का निरन्तर विकास होता रहा है । 
उनका आविर्भाव हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल के छायावादी युग में हुआ और 
वे आज तक निरन्तर काव्य साधना में लोन हैं । 











कविवर पन्त की काव्य़-साधना के सोपान इस प्रकार हैं-- 


(१) प्रकृति के सुकुमार कबि के रूप में--'वीणा” पन्तजी का प्रथम काव्य- 
संग्रह है । इसकी रचनाओं में कवि ने सरल बालोचित कोमलता के साथ प्रकृति से 
प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर लिया है । 





आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय १०३ 

(२) प्रकृति प्रेम में रहस्य की प्रवृत्ति का समावेश--'पहलव' पन्त का दूसरा 
काव्य-संग्रह है । इसमें कवि ने प्रकृति के साथ ही नारी सौन्दर्य का वर्णन भी किया 
है । उसके प्रकृति प्रेम में रहस्य की भावना भी मिल गई है । 

(३) प्रकृति से नारी-सौन्दर्य को ओर--पन्‍्त धीरे-धीरे मानसिक वासना की 
अभिव्यक्ति करने लगे और नारी-सौन्दर्य को प्रकृति-सौन्दर्य से बढकर मानने लगे । 
उनके ग्रन्थि और 'गुजन' काव्य-संग्रहों में उनका अन्तमु खी चिन्तन प्रकट 
होता है । Pe 

(४) अस्तुमु खी साधना गृ. जन' में हमें कवि पर दर्शन का प्रभाव दिखाई 
पड़ता है, अतः वह विवेकवादी बनकर आत्मकल्याण और विशवकल्याण की भावना 
पै भर उठता है । 

(५) -प्रगतिशील चेतना--पन्तजी धीरे-धीरे यथार्थवादी एवं विद्रोही बनकर 
सम्पूर्ण पूर्व मान्यताओं के विरोधी बन गए । उनके 'युगान्त' 'युगवाणो' और 'गरास्या' 
में यह नवीन स्वर प्रकट हुआ है । कवि कल्पना को त्यागकर यथार्थ के कठोर धरातल 
पर उतर आया है । यहाँ पन्त जन-साधारण को लेकर चले हैं। उनकी जनवाणो 
जनमानस का स्पर्श करने वाली है । _ र्‌ 





(६) अध्यात्म द्वारा साँस्कृतिक पुनुदत्थाव को ओर-पंतजी पुनः प्रगतिवाद 
का विरोधकर अध्यात्म द्वारा सांस्कृतिक पुनुरुत्यान का निरूपण 'स्वणंकिरण' और 


वणंधुलि' में करते हैं। 





७) अरविन्द दर्शन की अभिव्यक्ति--पन्तजी के उत्तरा' और 'अतिमा' 
नामक काव्य संग्रहो मे हुई है । 

(८) महाकवि के रूप में--पन्तजी ने 'लोकायतन' नामक महाकाव्य म 
महात्मा गान्धी के जीवन दर्शन को अपना प्रतिपाद्य बनाया है । इसमें उनका दाशनिक 











स्वर अधिक उभरा है । उन्होंने पुरुषोत्तम राम' शीर्षक से एक खण्डकाव्य की रचना 
भी को ३ क्ट 


महादेवीजी की संधिनी 


एम० ए० हिन्दी के पाठ्यक्रम में द्वितीय प्रश्नपत्र के अन्तर्गत महादेवी वर्मा 
का 'संधिनी' नामक काव्य-संग्रह निर्धारित है। इसमें महादेवीजी ने अपने पूर्वे 
प्रकाशित पाँच गीत संग्रहों से ही गीत प्रस्तुत किए हैं किन्तु इस संकलन में इस बात 
का पूर्ण ध्यान रखा गया है कि उनके काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों को व्यक्त करने वाले 
सभी प्रतिनिधि गीत इसमें स्थान पा सके । 

हादेवीजी के पूर्व प्रकाशित काव्य-संग्रह ये हे 
१--नीहार सन्‌ १६२४ से २८ तक के गीत 
२--रहिम...,- १९२८ से ३१ तक के गीत 





iris iene 


मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
०४ 


३--मी रणा--१९ ३११ से ३४ तक के गीत 


भावना के आधार पर ही पृष्ठभूमि में चित्र हैं। दीपशिखा के गीत इसी कारण 
प्रतीकात्मकता में सब संग्रहों से बढ़े हुए हैं । 

संधिनी के संबंध मै महादेवीजी ने कहा है कि 'संधिनी नाम साधना के क्षेत्र 
से सम्बन्ध रखने के कारण बिखरी अनुभूतियों की एकता का भी संकेत दे सकता है 
और व्यष्टिगत चेतना का समष्टिगत चेतना में संक्रमण भी व्यंजित कर सकेगा ।' 

संधिनी में ६५ गीत हैं। कुछ में प्रकृति चित्रण है, उनसे अधिक गीतों में 
रहस्य भावना है और कुछ में वेदना भाव की अभिव्यक्ति । 
महादेवी की वेदना के प्रेरक-तत्त्व 

महादेवीजी छायावादी कवयित्री हैं । करुणा की विवृति छायावाद की एक 
प्रमुख प्रवृति है। यह पाथिव दुःखानुभूति न होकर अलौकिक दु'खानुभुति है । 
महादेवीजी ने अपनी वेदना के चार प्रेरक कारण बताए है-- 

१. कल्पनाप्रवणता की प्रधानता । 

२. बौद्धधम की महाकरूणा से प्रभावित होकर सेवा के ठोस जीवन दशन 

को अपनाकर दु:खवाद के प्रति आस्था व्यक्त करना । 

६. सेवा के जीवन में भाने वाली कठिनाइयों से उत्पन्न वेदना । 

४. अलौकिक के प्रति आत्मविसर्जन का साकांक्षभाव । 

महादेवीजी के काव्य में उपयुक्त कारणों से उद्भूत वेदना का स्वरूप इस 
प्रकार है-- 

१. संसार के दुःख पर करुणा की भावना या व्यथा की आद्रता में सेवा 

का क्षकल्पमय जीवन । 


२. संसार तथा जीवन की नश्वरता एवं क्षणभंगुरता से निराशाजन्य विरक्ति 
की करुण भावना । 


३. सिरन्तन प्रियतम के प्रति आकुलतापूर्ण विरह-निवेदन । 
महादेवीजी का वेदनाभाव 


महादेवीजी के काव्य में विरहजन्य अथवा करुणाजन्य वेदनाभाव की 


प्रधानता है । महादेवीजी की वेदनानुभूति का अध्यय हैं। महादेवीजी की वेदनानुभति का अध्ययत करके हम इन निष्कर्षों पर 
पहुँचते हैं-- 3 


१, म्‌ हादेवीजी की वेदनानुभृति उनकी रह की वेदनानुभूति उनकी रहस्यानुभूति से अनुप्राणित है । 
र को वेदनानुभुति उनकी र RTC 


आघुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय १०५ 


इसकी तीव्रता के कारण महादेवीजी को कविताओं में आध्यात्मिक 
रंजना की प्रचुरता 


२. वेदनानुभूति महादेवीजी की कविता की चरम भाव-सीमा है । 


= वैदनानुमूति के कारण महादेवीजी के गीत गेय एवं प्रभावोत्यादक हो 
गए हैं । 


४. विरह ही महादेवीजी का आराध्य है, अतः उनकी वेदनानुभूति बेकली 

से भरी हुई है 

५, महादेवीजी के वेदनाभाव में रोमांटिक अवसाद के स्वर हैं, एकान्त- 

निष्ठा है, सूनापन है । 

६. महादेवीजी की वेदनानुभूति में कल्पना का माधुर्य भी है जिसमें नारी- 

भावनाओं का लावण्य दर्शनीय है । 

७. महादेवीजी की वेदनानुभूति करुणामूलक होने के कारण विश्व सेवा का 
ठोस जीवनदर्शन प्रस्तुत करती उनकी करुणा में सहानुभूति का 
प्राधान्य है । उन पर बौद्धों की महाकरुणा का प्रभाव स्पष्ट रूप से 
परिलक्षित होता है । 

- महादेवी की करुणा में अनुभूति की प्रधानता है, इसमें छायावाद की 
स्वप्निलता का अभाव है। _ आर 


महादेवीजी के काव्य में प्रकृति 


महादेवीजी प्रकृति को अपने भावात्मक दृष्टिकोण के कारण कल्पनाशील 








के किसी रूप को लघु या निरपेक्ष मानता है, न अपने जीवन को; क्योंकि वे दोनों ही 
विराट्‌ रूप-समष्टि में स्थिति रखते हैं और एक व्यापक जीवन में स्पन्दन पाते हैं ।' 
कमलाकान्त पाठक 
महादेवीजी ने छायावाद को प्रकृति के बीच जीवन का उद्गीथ कहा है। 
इसी से उनके काव्य में प्रकृति के स्वरूप एवं महत्त्व का परिचय मिल जाता है । 
उनके काव्य में प्रकृति का रम्य आधार है जिस पर कल्पनाओं की बहुरंगी 
और विविधरूपी सूक्ष्म रेखाओं से भावानुभूतियों के कोमल एवं करुण चित्र प्रस्तुत 
किए गए हैं । | 
महादेवीजी के प्रकृति वर्णन की विशेषताएं संक्षेप में इस प्रकार हैं-- 
१. प्रकृति छायावादी काव्य और महादेवी के काव्य की पृष्ठभूमि या 
आधारशिला हे । 
२. प्रकृति महादेवीजी की रहस्य साधना में विराट्‌ तक पहुँचने की साधना 
के माग में सदैव उनके साथ रही है। उन्होंने प्रकृति में एक ओर 








१०६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
बिराट की और दूसरी ओर अपने हृदय (भावों) की छाया 


देखी है। 


४, महादेवी ने प्रकृति मै विराट का प्रतिबिम्ब देखा है अतः उनकी रहस्या- 
नुभुति अत्यन्त कोमल हो गई है । 

५. अधिकांश रूप में प्रकृति के चित्रों में कवयित्री के भावों का प्रतिबिम्ब 
है किन्तु कहीं-कहीं उन्होंने प्रकृति के स्वतन्त्र चित्र भी प्रस्तुत किए हैं, 
यथा 'हिमालय' के वर्णन में । 

६. महादेवीजी ने आलंकारिक रूप में प्रकृति से उपमान भी ग्रहण किए हैं । 
उनके उपमान अधिकतर बसन्त और पावस ऋतु के हैं । पावस आँसू से 
सम्बद्ध है और बसन्त मुस्कान से उन्होने अनेक फूलों का उल्लेख 
किया है, प्रमुख रूप से कमल, हरसिगार तथा गुलाब का नाम है । 


अपरिहाये अंश है । 
८. प्रकृति से महादेवीजी ने अपनी रहस्यानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए 
प्रतीक लिए हैं । 
इस प्रकार प्रकृति ने महादेवीजी के काव्य के भावपक्ष का ही नहीं, कलापक्ष 
का भी श्रृंगार किया है । 


महादेवीजी के प्रतीक 


श्रीमती महादेवी वर्मा छायावादी कवियों में अपनी रहस्यानुभूति के लिए 
महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उनकी रहस्य-भावना प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त हुई है । 
उनकी रहस्य-भावना मैं दाम्पत्य प्रणय के सांक्रेतिक सूत्र को ग्रहण किया गया है । 
चिरस्तन प्रिय के प्रति अपने प्रणय को प्रदर्शित करने के लिए महादेवीजी ने प्रकृति से 
अनेक प्रतीक ग्रहण किए हैं। इन प्रतीकों के द्वारा उन्होंने अपनी प्रणयावस्था का 
विविधरूपी वर्णन किया है । 

महादेवीजी ने प्रकृति के उपकरणों से अधिकांश प्रतीक ग्रहण किए हैं, जैसे-- 
आकाश, सांध्यगगन, तारे, चाँदनी, ओस, वर्षा-मेघ, वर्षा-मेघ, बसन्त, वायू, विभिन्न पुष्पलता 
आदि, पर्वेत, वन आदि । महादेवीजी ने 'सांध्यगीत' में इन सभी प्रतीको को प्रस्तुत 
किया है । संसार के प्रति विराग और प्रियतम (परमात्मा) के प्रति अनुराग की 


22: 


आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-सा हित्य : संक्षिप्त परिचय १०३ 


भावना की अभिव्यक्ति सान्ध्यगगन के प्रतीक के द्वारा की गई है जिसमें एक ओर 
अन्धकार की कालिमा होती है और दूसरी ओर संध्या की लालिमा । 

दीपशिखा' में महादेवीजी ने 'दीप” को साधना के प्रतीक के रूप में अनेक- 
विध प्रस्तुत किया है। मन्दिर का दीप' एकाको है, निरन्तर जलकर, अपने को 
गलाकर प्रकाश दे रहा है--साधक भी दीप के समान साधना में रत रहता है 
विश्व की सेवा' का जीवन भी दीपक की भांति होता है। महादेवीजी ने अपने 
आध्यात्मिक जीवन के- हृदय के भाव-- दुःख, सुख, वेदना, पीडा, प्रेम, आनन्द, 
स्वप्न आदि की अभिव्यक्ति प्रतीकों द्वारा की है। उन्होंने प्रियतम से मिलन की 
आकांक्षा, उसके तम के परदे से आने की अभिव्यक्ति भी प्रतीको के द्वारा की है । 

मुस्काता संकेत भरा नभ अलि कया प्रिय आने वाले हैं ! 

उन्होंने अपने जीवन को 'विरह का जलजात' बताया है । परमात्मा से वियुक्त 
होकर ही तो आत्मा का अस्तित्व है । इसी प्रकार उन्होंने अपनी तुलना सजल मेघ से 
की है--वे विश्व सेवा में अपने जीवन का अणु अणु गला देना चाहती हैं । 

इस प्रकार महादेवीजी ने अपनी गूढ़ रहस्य-साघता की अभिव्यक्ति प्रतीकों 
के माध्यम से की है। . 


आधुनिक रहस्यवाद की भावना का स्वरूप 


आधुनिक रहस्यवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-- 
(१) रहूस्योन्मुख जिज्ञाता--रहस्यवादी कवि अपनी आत्मा के साथ उस 


अनन्त शक्ति का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उन्मुख होता है। ब्रह्म को सत्ता में 


आस्था भी इसी जिज्ञासा के साथ उत्पन्न होती है । 
(२) अह्वत चिन्तन - ब्रह्म ओर जीव की एकता की भावना अह्वत चिन्तन है । 


आधुनिक रहस्यवादी कविता में वेदान्त के अद्वेतवाद का माधुर्यंभावपूर्ण वर्णन है । 


(३) सांकेतिक दाम्पत्य भाव--आधुनिक रहस्यवादी कवियों ने रहस्यभावना 
को कबीर के सांकेतिक दाम्पत्य भावसुत्र में बांधकर एक निराले सम्बन्ध की 
सृष्टि की । 

(४) सिलन-विरह को भावना--उन्होने दाम्पत्य-भाव-सूत्र को चरम परिणति 


तृक पहुँचा दिया है । इसमें मिलनाकांक्षा ही नहों वरन्‌ मिलन के स्पष्ट संकेत भी 





(५) वेदनाभाव की अनुभूति-कष्ट सहना प्रेमका आदिम नियम है । प्रेम में. 
दो प्रकार से कष्ट होता है, त्याग एवं विरह से। विरह से प्रेम करने के लिए पूर्ण 


परम प्रेममय के प्रति विश्वास भीतर की पीड़ा और व्याकुलता की अनुभूति से 
आता है । 





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१०६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
(६) सार्वभौम भावना--भत्ति क्षेत्र में उपास्य की एक देशीय या धर्म विशेष 

में प्रतिष्ठित भावता के स्थान पर रहस्यवादी कवि सावंभौम या विश्व-मानवताबाद 

की भोर बढ़ता है । री हट 

(७) प्रकृति सम्बन्धी रहस्यभावना--आधुनिक रहस्यवाद में प्रकृति सम्बन्धी 

जिज्ञासा बहुत व्यक्त हुई है । यह विराट्‌ प्रकृति उस अनन्त रमणीय की छाया है-।- 
(5) प्रतीक पद्धति--रहस्यवादी-अपनी रहस्यभावना को, सूक्ष्म भावनाओं 
को केवल प्रतीक पद्धति के द्वारा ही अभिव्यक्त कर सकता है । 
हिन्दी में रहस्यवाद के विविध रूप 
हिन्दी काव्य में आदिकाल से ही रहस्य को अनुभूति व्यक्त हुई है। यों तो 
रहस्य की प्रवृत्ति का प्रादुर्भाव ऋग्वेद से माना जा सकता है । देवताओं की स्तुतिओं 
में रहस्य की प्रवृत्ति पूणंरूपेण व्याप्त है । 
बाबू गुलाबराय ने पाँच प्रकार का रहस्यवाद माना हे-- 
| १. ज्ञान और दाशंनिकताप्रधाच रह्स्यवाद--जेसे कबीर, दादू, प्रसाद 
और निराला का । 
२, दाम्पत्य प्रेम और सौन्दयं सम्बन्धी रहस्यवाद--जंसे कबीर, जायसी 
और महादेवी का । 
३. साधनात्मक रहस्यवाद--जेसे गोरखनाथ और महायानी बौद्ध एवं 
HERMES रह CS ह्‌ 
शाक्तों का । 
¥. भक्ति और उपासना सम्बन्धी रहस्यवाद--सू ओर उपासना सम्बन्धी रहस्यवाद र, तुलसी आदि का । 
५. प्रकृति सम्बन्धी रहस्यवाद--पन्त, प्रसाद और महादेवी का । 
TRS CSS ST SU 
हिन्दी कविता में दुःखवाद का रहस्य 
हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल में छायावादी कविता में वेदनाभाव या 
दुःखवाद की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। छायावाद में वेदनाभाव की यह अभिव्यक्ति 
निम्नलिखित रूपों में प्रतिफलित हुई है-- 

१. विगत अतीत के प्रति मोहासक्ति और तज्जन्य दुख की अभिव्यक्ति, 
यथा प्रसाद की आँसू कविता में । 2 

२. संसार की नश्वरता के सन्दर्भ में उत्पन्न होने वाली विषाद की भावना 
-¬पन्तजी की परिवतंन शीषंक कविता में । 

३. प्राकृतिक स्वर्गीय आनन्दोल्लास के परिप्रेक्ष्य में जगत और उसके जटिल 
जीवन से उत्पन्न चिन्तापूर्ण मलिनता--पन्त की कविताओं में इस 
प्रकार की दुःख भावना यत्र-तत्र मिलती है । 

४. यांत्रिक सभ्यता के 2. भावनाओं की अभिव्यक्ति में दुःख की छाया 
प्रसाद के साहित्य में मिलती है । 








रके 





आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचब १०९ 


प, सौन्दर्यं की खोज और उसकी अस्पष्टता के कारण निराशाजन्य 
अवसाद की भावना का उदय--यह दु.खवाद पन्त को कविताओं में 
मिलता है । 

६. अज्ञात और चिरन्तन ब्रह्मा के प्रति रहस्यात्मक आकपंण एवं उसके 
बिरह में वेदनाभाव की मामिक अनुभूति हमें महादेवी की काव्य- 
रचनाओं में मिलती है । 

छायावादी वेदनानुभूति के कई परिणाम हुए-- 

() कुछ कवि पलायनवादी या हालावादी या हिप्पीवादी हो गये । 

(7) कुछ कवियों में यह वेदनानुभूति सेवा के ठोस जोवन-दर्शंन का 
आधार बनी । 

पा) इस वेदनानुभूति से कवि में व्यक्तिवाद अधिक उभरकर आया । 

हालावाद 

छायावाद में व्यक्तिगत लालसा एवं आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को विशेष 

हत्त्व_दिया गया । उसमें स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्त का विकास हुआ । यह एक 
प्रकार की विद्रोह की भावना थी जिसमें समाज के बन्धनो को व्यक्तिगत आकांक्षाओं 














गाये । यही 'हालावादी' काव्यधारा कहलाई । बच्चन इस धारा के प्रवर्तक थे । 





छायावादी युवा कवियों को फारसी के उमर खय्याम को रुचाइयो के रूप 
में अपनी अतृप्त आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति का एक सरस माध्यम मिला । उन्होंने 
उमर खय्याम की आध्यात्मिक भावना और गुढ़ 


को ग्रहण किया और उसके द्वारा प्रयुक्त प्रतीक 
और यथार्थ अर्थ किया] | 

इस प्रकार _हालावादी कविता में मादकता, सुरा और सुन्दरी का बाहुल्य 
हो गया । उमर ख्थ्याम की गहन आध्यात्मिक हृष्टि को न समझकर उन्होंने मधुशाला 
का लौकिक अर्थ ग्रहण किया । हालावाद में कवियों ने अपनी अतृप्ति तथा अहंननित 
कुण्ठाओ की स्वच्छन्द अभिव्यक्ति की है । इस काब्य में मस्ती के छिछले एवं पथ 
अष्ट करने वाले खुमार का प्राधान्य हो गया । न 

हालावाद के प्रवतंक कवि बच्चन के अतिरिक्त अन्य कवियों ने भी कुछ 
हालावादी रचनाएँ प्रस्तुत कीं । इनमें ये प्रमुख हें--पद्मकान्त मालवीय, हृदयतारायण 
पांडेय हृदयेश, बालकृष्ण शर्मा नवीन, अंचल, भगवतीचरण वर्मा । 

हालावाद प्रमुख रूप से सन्‌ १६३३ से १६३६ तक चला। बच्चन की. 
हालावाद की तीन रचनाएँ ये हैं-- मधुशाला”, मधुबाला, मधुकलश । स्वयं बच्चन ने 
भी अपने परवर्ती काव्य में हालावादी उद्दाम वासना को छोड़ दिया और इसके 
स्थात पर विषाद का स्वर उनकी रचनाओं में उभरने लगा । 








गको को छोड़कर लौकिक अर्थे 


सुरा, सुन्दरी, जाम आदि का लौकिक 
































शिक स्या 9222 _ 


११ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
0 


आधुनिक हिन्दी कविता में प्रकृति चित्रण के विभिन्न रूप 

मानव और प्रकृति का सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। मानव 
ने अपने भावों को प्रकृति से संयुक्त किया है, वह निरन्तर प्रकृति से प्रभावित होता 
है और अपने भावों की छाया उसमें देखता है । कवियों ने प्रकृति के द्वारा एक ऐसी 
प्रेरणा-यू जनात्मक प्रेरणा-उद्बोधनात्मक प्रेरणा प्राप्त की है--इस प्रकार कविता 2 भें 
प्रकृति चित्रण की अनिवायंता सहज ही समझ में आ जाती है। हमारे वेदिक 
साहित्य में प्रकृति के विविध रूपों का देवता-देवी के रूप में चित्रण हुआ । वेदिक साहित्य 
का निर्माण तो प्रकृति की गोद में ही हुआ। हमारे उपनिषद्‌ आदि दर्शनों का 
निर्माण भी अरण्यों में हुआ। हमारे आषं महाकाव्य रामायण और महाभारत में 
भौ प्रकृति वर्णन की परम्परा मिलती है और हिन्दी साहित्य में भी य परम्परा 
अक्षुण्ण बनी हुई है । प्रकृति और कवि की कल्पना का प्रगाढ सम्बन्ध है । 


आधुनिक हिन्दी काब्य में हमें प्रकृति-चित्रण के विभिन्न रूप दिखलाई 
पडते हैं बन 


१. प्रस्तुत या आलम्बन के रूप में प्रकृति का यथातथ्य या संश्लिष्ट _ 


चित्रण । 
२. मानवीय भावों से संयुक्त प्रकृति का रूप । 


३. मानवीय भावों की छाया को लेकर पृष्ठभूमि के रूप में किया जाने 
वाला प्रकृति चित्रण । 


४. उद्दीपन के रूप में प्रकृति _चिरकाल से मानवीय भावों को उद्दीप्त 


करती रही है, संयोग में जो प्रकृति आनन्द की भावना को उद्दीष्त 


करती है, वही प्रकृति वियोग में दुख या विप्रलम्भ की भावना को उद्दीप्त_ 


करती है । 


५. प्रतीक रूप में प्रकृति के उपकरण कवि के सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति 
में सहायक हैं, यथा फूलों का खिलना प्रसन्नता का प्रतीक है । 


६. बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में प्रकृति मानवीय भावों की अभिव्यक्ति 


करती है--मानव प्रकृति से प्रभावित होता है और प्रकृति मानव के 
दुख में उदास और सुख में प्रसन्न दिखाई पडती है । 


* अर्लेकरण के रूप में प्रकृति का उपयोग अनादिकाल से किया जा रहा 
है। वेदों में भी प्रकृति का उपमान के रूप में प्रयोग हुआ है। मानव 
सौन्दर्य के उपमान प्रकृति के उपकरणों में अनन्तकाल से ढूढे जाते 


रहे हैं । 


६. दूतिका के रूप में प्रकृति का प्रयोग कालिदास आदि रससिद्ध सस्कृत 
> SM न NL BBS ऱ्य 


आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय १११ 


के महाकवियों ने प्रारम्भ किया और हरिऔध और गुप्त जसे आधुनिक 
कवि भी उसका प्रयोग करते हैं । 

१०, रहस्यात्मक रूप में प्रकृति का चित्रण मध्यकालीन सन्तों और छायावादी 
कवियों ने अपनो रहस्य भावना की अभिव्यक्ति के लिए किया है । 

११. मानवीकरण के रूप में प्रकृति पर चेतन व्यक्तित्व का आरोप करना 
वेदों से ही चला आ रहा है | छायावादी कविता में इसका विशेष 
उत्कषं दिखाई पड़ता है । 

कचि नरेन्द्र शर्मा का कवित्व 

कविवर नरेन्द्र शर्मा पर छायाबादी सुमित्रानन्दन पन्त के व्यक्तित्व एवं काव्य 
का गहरा प्रभाव पड़ा । फिर भी मूलतः गोलिकाव्यकार के रूप में नरेन्द्र का व्यक्तित्व 
हमें 'शूल फूल' प्रभात-फेरी' और प्रवासो के गीत में! दिखाई पडा, जिसमें देश की 
दासता, मानव की गुलामी, सामाजिक्र-व्यबस्था एव व्यक्तिगत अभाव कवि को प्रेरणा 
दे रहे हैं । उसका काव्य धरती का काव्य है, पार्थिव काव्य है, मांसलता, वासना मानव 
की नैसगिक भूख के रूप में चित्रित हैं । साथ ही यह बरती का कवि शोषणरहित 
नए समाज का सपना भी देख रहा हे । प्रवासी के गीत' में कवि को प्रौढता एवं 
गम्भीरता प्रकट हुई है-- 

साँझ होते ही न जाने छा गई केमी उदासी। 
क्या किसी की याद आई ओ विरह व्याकुल प्रवासी ॥ 

नरेन्द्र शर्मा की कविता में भावनाओं की गहराई एवं अनुभूति की मार्मिकता 
है । उत्तराद्ध काल की प्रमुख रचनाएं-हंसमाला, रक्तचन्दन, कदली वन और 
ब्रौपदी आध्यात्मिकता का पुट लिये ह्ये हैं 

न्द्र शर्मा 'प्रभात फेरी' आदि पूर्वाद्ध काल की रचनाओं में एक सशक्त नई 

प्रतिभा के रूप में काव्य क्षेत्र में उदित हृए और उनकी स्वस्थ दृष्टिने समाज को 
अनुगामी शक्तियों को बल दिया । उनकी मधुर कविताओं ने एक माधुयंपूर्ण वातावरण 
की सृष्टि की । अब वे अपनी काव्य प्रतिभा का बम्त्रई के सिनेमा जगत्‌ में विकास 
कर रहे हैं। 
प्रगतिव।द का आन्दोलन 





१६३५ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक' सम्मेलन' का सभापतित्व करते हुए कहा 
था कि लेखक स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है । समाज की अग्रगामी मानवतावादी 
विचारधारा का समर्थन साहित्य के द्वारा सदेव से होता रहा है। इसी सम्मेलन के 
साथ प्रगतिशील लेखक संघ की भी स्थापना हुई। इस प्रकार प्रेमचन्द भारत में 
प्रगतिशील साहित्यकारों के अगुआ बने । उनके बाद छायावादी कवि सुमित्रानन्दन 








११२ भौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
पन्त कल्पना की उड़ान छोड़कर धरती के कवि बने, उन्होंने युग की वाणी को अपनी 
'युगबाणी' में प्रस्तुत किया और ग्राम की ओर मुडे तो 'ग्राम्या' लिखी 
आज सत्य, शिव, सुन्दर करता 
नहीं हृदय आकर्षित; 
क्योंकि--स्वर्ण पींजड़े में है बच्दी 
मानच आत्मा निश्चित । 


हिन्दी में प्रगतिशील आन्दोलन को आगे बढ़ाने वालों में रामधारीसिह_ 


दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, राहुलजी, डॉ० भगवतशरण उपाध्याय, यशपाल और 
रांगेय राघव आये इन्होंने प्रगतिशील साहित्य को सबल बनाया । इस परम्परा को 
आगे बढ़ाने वालों में रामविलास शर्मा, शिवमंगलसिह सुमन, नाग'जु न, उपन्द्रनाथ 
अइक, मक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, नरेश मेहता आदि हैं । साहित्य के सभी क्षेत्रों 
में-- कविता, उपन्यास, कहानी, निबन्ध तथा आलो का प्रभाव एवं 
स्वरूप जन आन्दोलन से अनुप्राणित होकर निखर उठा और इस प्रकार साहित्य की 











जिक चेतना की अन्यतम देन दो है जिसमें मानव को, समाज में जीवित मानव को 
चलते-फिरते संघर्ष करते हुए यथार्थं रूप में प्रदर्शित किया है । 


प्रगतिवादी काव्य की प्रमुख विशेषताएँ 
प्रगतिवादी काव्य युग की माँग को पूरा करने_ वाला साहित्य है। इसकी 
प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-- 


(१) प्रगतिवादी काव्य में सामाजिक यथार्थवाद को प्रमख आधार बनाया 
है । इसकी शक्ति इस बात में है कि वह समाज के वास्तविक जीवन के निकट है। 














है। इस प्रकार जीवन और काव्य को अधिकाधिक घनिष्ठ बनाने की चेष्टा 
हई है। 

) बौद्धिकता ओर व्यंग का प्रसार-प्रगतिवादी काव्य में आधुनिककाल 
को बौद्धिक दृष्टि का रूप जन-जीवन की समस्याओं में दिखाई पड़ता है । 


(४) परिवर्तन की पुकार अथवा क्रात्ति की भावना--प्रगतिवादी काव्य में _ 


प्राचीन के प्रति विद्रोह एवं क्रान्ति की भावना मुखरित हुई है । 


(५) सांस्कृतिक समन्वय की भावना--प्रपतिवादी काब्य में विश्व संस्कृति 


की कल्पना की गई है जिसमें धर्म, जाति, वणं इत्यादि के भेद से रहित सांस्कृतिक _ 


समन्वय की चर्चा की गई है। 
(६) राष्ट्रीयता एवं अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना प्रगतिवादी काव्य में 


राष्ट्रीयता की भावना का स्वरूप जनपद एवं ग्राम के प्रति प्रेम-भावता में. को भावना का स्वरूप जनपद एवं ग्राम के प्रति प्रेम-भावता में व्यक्त हुआ 


आधुनिककालीन हिन्दी पद्य-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ११३ 


है । पह भी सामाजिक यथार्थवाद की भावना से अनुप्राणित है। शोषित वर्ग के 
जीवन के हाहाकार का चित्रण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हुआ है । 

(७) मानवता को महत्ता का प्रकाशन--प्रगतिवादी कवि मानवता की अप- 
रिमित शक्ति में विशवास रखता हुआ कहीं भी निराश नहीं होता । 

(८) प्रेम का सुष्ठु एवं सामाजिक रूप- इस प्रेम में छायावादी दुरूहता नहीं 
है। इसमें रूप एक जाल नहीं जो जीवन को एकाङ्की वना रहा हो । वह तो वास्त- 
विकता का आभास दे र । यहां आलोक एवं स्ने 

(९) नारी स्वातन्त्र्य की पुकार-प्रगतिवादी नारी की पीड़ित एवं पददलित 
अवस्था से प्रभावित होकर, सामन्तवादी स्त्री-पुरुष-सदाचार के दृष्टिकोण को संकुचित 
मानकर प्रगतिवादी उसके स्वातन्थ्य की पुकार लगाता है । > 

(१०) शोषित एवं शोषक वर्ग--प्रगतिवादी काव्य समाज को शोषित एवं 


अभिव्यक्ति करता है । 

१ (११) प्रगतिवादी काव्य जनसाधारण के उपभोग की वस्तु है। अतः वह 
अत्यन्त सरल है । छन्द की दृष्टि से प्रगतिवादी कवियों ने जनगीत एवं लोकगीतों 
की शेली अपनाकर नई धुनों का सृजन किया । भाषा की दृष्टि से प्रादेशिक बोलियों 
के शब्द-समूह को प्रमुखता प्रदान की और प्राचीन रूढ़िवादी अलङ्कार योजना को 
छोड़कर नवीन रूपक, उपमान एवं प्रतीक प्रस्तुत किये हैं 

प्रगतिवादी कवियों का कलापक्षगत आदर्श यही है कि सरल अभिव्यक्ति की 
प्रणाली के द्वारा जन-मन का संस्पर्शं हो सके और कला को दैनिक जीवन के लिए 
उपयोगी बनाया जाय । 

प्रयोगशील कविता--प्रयोग और रूप 


प्रयोगशील कविता के प्रवर्तक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञोय 
माने जाते हैं। उनके अनुसार “प्रयोगशील कविता में नए सत्यों या नई यथार्थताओं 
का जीवित बोध भी है, उन सत्यों के साथ नए रागात्मक सम्बन्ध भी, और उनको 
पाठक या सहृदय तक पहुँचाने यानी साधारणीकरण की शक्ति है! |. 
गिरिजाकुमार माथुर के अनुसार प्रयोगों का लक्ष्य है व्यापक सामाजिक 
सत्य के खण्ड अनुभवों का साधारणीकरण करने में कविता को भावानुकूल माध्यम 
` देना, जिसमें “व्यक्ति' द्वारा इस 'व्यापक' सत्य का सर्वबोधगम्य प्रेषण सम्भव 
हो सके ।' 
पं० नन्ददुलारे वाजपेयी जैसे मूधंन्य समीक्षकों ने प्रयोगवाद को स्वस्थ प्रवृत्ति 
नहीं माना । उनके अनुसार 'किसी भी अवस्था में यह प्रयोगों का बाहुल्य वास्तविक 
साहित्य-सृजन का स्थान नहीं ले सकता । प्रयोग में और काव्यात्मक निर्माण या 


[ 








११४ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
सृजन में जो मौलिक अन्तर है उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । विशेषकर काव्य 
का क्षेत्र प्रयोगों की दुनिया से बहुत दूर है । डॉ० नगेन्द्र ने प्रयोगवादी काव्य की 
दुरूहता, साधारणीकरण का त्याग, उपचेतन मन के अतुभव-खण्डों के यथावत्‌ चित्रण 
का आग्रह और काव्य के उपकरणों और भाषा के एकान्त वैयक्तिक और अनगंल 
प्रयोग कौ लक्ष्य करके उसे उत्तम रसकाव्य नहीं माना । उन्होंने प्रयोगवाद को 
व्य की एक शाली विशेष माना है । हु 

गिरिजाकुमार माथुर नवीन 'प्रयोगों का लक्ष्य व्यापक सामाजिक सत्य के 
खण्ड अनुभवों को साधारणीकरण करने में कविता को नवानुकूल माध्यम देना 
बताते हैं जिसमें व्यक्ति द्वारा इस “ब्यापक सत्य” का सर्वबोधगम्य प्रेषण सम्भव 
हो सके ।' 

प्रयोगवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं--- 

१. कल्पनाशीलता के स्थान पर यथार्थवाद का भाग्रह -- 


() सामाजिकता का अभाव 
(7) कल्पनाशीलता की नवीन प्रक्रिया 
(ए) लघुता के प्रति दृष्टिपात _ 
(४) बौद्धिकता की प्रतिष्ठा _ 
२. मांसल प्रेम और दमित वासना की अभिव्यक्ति का प्राच्यं । 
३. भावक्षेत्र में प्राचीन रूढ़ियों को, कला के क्षेत्र में छन्द विधान तथा 


भाषा शली के प्रति विद्रोह । 


४. अतृप्त रागात्मकता की अभिव्यक्ति । 


सामाजिक एवं राजनेतिक विद्र. पता के प्रति व्यंग्य । 


६. वेचित्र्य का प्रदर्शन मानसिक कुठा एवं उलभनों की अभिव्यक्ति के 
लिए । 
७. प्रङ्ृति-चित्रण में कवि ने अपने अहं को परिवेष्ठित किया है । 
८. व्यापक सौन्दर्यबोध एवं लघुता में सौन्दयं दर्शन । 
९. शेली शिल्प की नवीन मान्यताएं 
() प्रतीक विधान की प्रचुरता 
गा) नवीन उपमानों की सृष्टि 
(५) शेली के नवीन प्रयोग __ 
(¡४) शब्द-चयन में नवीन प्रयोग 
(४) छन्दःयोजना में लोकगीतों की धुन 
(५) ध्वन्यात्मकता, स्वरमंत्री रंगों का ता स्वरमत्री, रंगों का सूक्ष्म ज्ञान एवं गंध चित्र । 











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आधुनिककालीन हिन्दी पच्च-साहित्य : संक्षिप्त परिचय ११५ 


नई कविता की विद्येषताएँ 


१. नई कविता में छायावादी रिक्तता को भरने का प्रयास हुआ है । नई 
कविता के मुजेता काव्य के घिसे ब्िम्बों से सन्तुष्ट नहीं है । उन्होंने 
नवीन बिम्बों को अपनाया है, जो स्वातं त्योत्तरकाल की नवीन चेतना 
की अभिव्यक्ति में समर्थ हों । 


२. नई कविता में पाथिव जगत की समग्रता का बोध हआ है और सभी 
प्रकार को विघटन की प्रशृत्तियों का खण्डन तथा मानव को विद्याल 
विश्व के परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास हआ है। 


३. नई कविता में प्रश्‍नानुकूलता है, पुराने मूल्यों के विघटन का चित्रण 
और नए मूल्यों का ग्रहण है। इसे अज्ञोयजी ने व्यक्ति की खोज 
कहा है । 

४. नई कविता में कवि ने युगानुरूप भावसंकुलता की अभिव्यक्ति के लिए 
नवीन लय और भाषा का अन्वेषण किया है । 


५. नई कविता में आकर्षण का नहीं विकषंण का भी वर्णन है 


६. नई कविता में व्यंग करना, चोट करना, ध्यान में डूबे हुए को जँसे 
रोक देना, झक कोर देना--उसका स्वभाव है । 

७. नई कविता का लक्ष्य रसानुभूति कराना ही है अतः इस विषण्ण युग 
के कवि की दृष्टि रस निष्पत्ति की ओर नहीं जाती । 

८. नई कविता का लक्ष्य विचार संयक्त भावाभिव्यक्ति के द्वारा मानव 


व्यक्तित्व के प्रति अधिक से अधिक आत्मविश्वास उत्पन्न करना है | 


१ 

९. नई कविता में गद्यमयता का प्राधान्य है । नए कवियों का विश्वास | 

कि गद्य में भी एक रस होता है । | 

१०. नई कविता में प्रतीकात्मकता भी गजब की चमत्कारी है । । 
आधुनिकतस हिन्दी कविता के विभिन्न रूप 


(१) प्रगतिवादी या प्रगतिशील काव्य--जिसमें सामाजिक यथार्थवाद को | 
विशेष महत्त्व दिया है । इस पर मार्क्स दर्शन का प्रभाव भी परिलक्षित होता है । 
रांगेयराघव आदि प्रगतिवादी कवि है । 


(२) गीतिकाव्य या गीतकाव्य--इसमें कवि सम्मेलन में गाये जाने वाले 
गीत आते हैं, जिनका महत्व वहीं तक सीमित रहा है । छायावादी शैली के गीतकार 
कवि सम्मेलनों में विशेष रूप से लोकप्रिय हुए हैं। इनके गीत सुन्दर, आकर्षक एवं 
गेय होते हैं जिनमें प्रेम और सोन्दयं के साथ ही आध्यात्मिकता की अभिव्यक्ति जीवन- 
तत्त्व के माध्यम से हुई है । नीरज, वीरेन्द्रमिश्र आदि गीतिकाव्यकार हैं । 








११६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 

(१) प्रबन्ध फाव्य--वर्तमान युग में छायावादी शैली पर कुछ प्रबन्ध काव्य 
भी लिखे गए हैं । इनमें कहीं-कहीं 'नई कविता' की शैली भी प्रयुक्त है। नरेन्द्र शर्मा 
ने 'द्रौपदी' में तारी समाज के प्रति मौलिक एवं नवीन हष्टिकोण नई शैली द्वारा 
प्रतिपादित किया है । 

(४) प्रयोगवादी काव्य--इसके प्रवर्तक अज्ञ यजी हैं । 

(५) नई कविता--नई कविता में प्रयोगवाद की प्रयोगशीलता विकसित हुई 
है--अदक, धर्मवीर भारती, गिरिजावुमार माधुर आदि ने तार सप्तक' की परम्परा 
को आगे बढ़ाया है । तीन तारसप्तकों में प्रयोगवाद के तीन सोपान हें । तीसरा सोपान 


नई कविता के नाम के अभिहित हे । 


वमर (६) अकविता-- नई कविता के साथ ही अकविता का भी विकास हुआ है । 
नई कविता को गद्यमयता उसे अकविता को कोटि में लाने वाली है । 


(७) नवगीत या नयागीत--यह्‌ नवीनतम आन्दोलन है । नवगीत में लोक 

जीवन का रस है । ये गीत जहाँ से उठे हैं वहां की जमीन के रस को लिए हुए हैं । 

वगीतकारों में शम्भूनाथ सिह, वीरेन्द्र मिश्र, नीरज, नरेश मेहता, घमंवीर भारती 
भोर बच्चन प्रभृति लोकप्रिय हुए हैं। | 








८ 


साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय 


भारतीय काव्यशास्त्र 

शब्द शक्ति 

शब्दों के अथो का बोध कराने वाले अर्थ-व्यापारों को शब्द-शक्ति कहते हैं । 
शब्द तीन प्रकार के हैं-- 

(१) वाचक (२) लक्षक और (३) व्यंजक । 

शब्दार्थं तीन प्रकार के हैं-- 

(१) वाच्यार्थं (२) लक्ष्यां (३) व्यंग्यार्थ । 

शब्द के अर्थों की बोधक शक्तियां भी तीन प्रकार की हैं-- 

(१) अभिधा (२) लक्षणा और (३) व्यञ्जना । 

अभिधा-मुख्यार्थं का प्रत्यक्ष वोध कराने वाली, साक्षात्‌ संकेतित' करने 
वाली अभिधा शक्ति है । शब्द का वाच्यार्थं या मुख्यार्थं समने में व्याकरण, कोश, 
व्यवहार, व्याख्या, उपमान, आप्तवाक्य आदि आधार हैं। 

लक्षणा--जब शब्द के मुख्यार्थ में बाधा पड़े, वह असंगत लगे और उससे 
एक भिन्न एवं संबंधित अर्थ की प्रतीति किसी रूढि अथवा वक्ता के कथन के प्रयोजन 
से होती हो--तो ऐसा लक्ष्याथं लक्षणा शक्ति से प्राप्त होता है । 

लक्षणा के रूढि और प्रयोजन के आधार पर दो भेद हैं। लक्षणा के गौणी 
और शुद्धा के रूप में भी.दो भेद हैं, और गोणी के भी सारोपा और साध्यवसाना 
के रूप में दो भेद हैं । लक्षणा छः प्रकार की होती है । 

व्यञ्जना- शब्द की जिस शक्ति में शब्द या शब्द समूह के वाच्यार्थ तथा 
लक्ष्यार्थ से भिन्न अर्थ की प्रतीति हो अर्थात्‌ साधारण अर्थं को छोड़कर विशेष अर्थ 
का बोध हो, उसे व्यञ्जना कहते हैं। जब शब्द में से वाच्यार्थ से भिन्न प्रतीयमान 

११७ 





| 


११८ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
अर्थ प्राप्त होता है, अप्रत्यक्ष अथं प्राप्त होता है तो उसे व्यंग्यार्थ कहते है । यह अर्थ 
न तो मुख्यार्थ है और न लक्ष्यार्थ वरनु व्वन्थार्थ या व्यंग्याथं है । व्यञ्जना के दो भेद 
होते हैं--- 

(१) शाब्दी व्यञ्जना 

(२) आर्थी व्यञ्जना । 

शाब्दी व्यञ्जना अभिधामूला और लक्षणामूला नामक दो भेद वाली 
होती है । 
रीति और शेली 

रीति शब्द का व्यूत्पत्तिलब्ध अर्थ है गति”, 'मागं', 'पन्थ', 'वीथी' आदि । 
काव्यशास्त्र में पद-रचना-पद्धति को रोति कहा जाता है । वामन ने लिखा है-- 

____ विशिष्ट पदरचना रीतिः । 

विशिष्ट प्रकार की अभिव्यक्ति की पद्धति को रीति कहते हैं । हिन्दी में आज 
जिसे शैली कहते हैं, वह यही रीति है। हने 

आचार्य वामन ने रीति को काव्य की आत्मा माना है । इनसे पूर्व रीति को 
गुण के रूप में माता जाता था । दण्डी ने रीति के लिए 'काव्य-मार्ग' पद प्रयोग 
किया था । उन्होंने प्रत्येक कवि के मार्ग को भिन्न कहा । वामन ने गुणों को रीति का 
प्राण माना-- 


विशेषोगुणात्मा । 
ये गुण शब्दगत और अर्थगत दो प्रकार के होते है । थंगुण के अन्तगेत 
रस, अलंकार आदि आते हैं । गुणों के आधार पर तीन रीतियाँ वामन ने निर्धारित 
कों--वंदर्भी, गौड़ीय और पांचाली । इनमें वेदर्भी रीति समग्नगुण गु फित 
कही गई। 


रीति और शेली सें अन्तर 


१. रीति शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्रियों ने पद-रचना की विशिष्ट रीति 
के लिए किया हे । शैली का अर्थ है विशेष काव्य-रचना अथवा अभि- 
व्यञ्जना पद्धति । 

२. रीति के अन्तर्गत दस गुणों का वर्णन आता है, शेली से कवि-स्वभाव 
का तादात्म्य माना जाता है । 

३. शैली शब्द शील' से बना है । इसका अभिप्राय ऐसे कार्य के ढंग से 
जिससे कर्ता के स्वभाव, रुचि, शील, प्रकृति, चरित्र एवं मनोवृत्ति का 
परिचय प्राप्त हो सके । इस प्रकार शैली का लेखक के व्यक्तित्व से 
घनिष्ठ सम्बन्ध माना जाता है । 

४, शैली का दूसरा अर्थ अभिव्यञ्जना पद्धति है और यह अंग्रेजी के स्टाइल 
का पर्यायवाची शब्द है । 


साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय ११६ 


५. प्रसिद्ध विद्वान मर्री ने शैली को भाषा का विशिष्ट गुण एवं रूप बताया 
है जो रचयिता के भावों एवं विचारों को भली-भाँति सम्प्रेषित करता है । 

६. रीति के अन्तर्गत प्रसाद, समता, माधुर्य, सौकुमार्यं आदि दस गुण आते 
हैं तो शैली के गुण सरलता, स्वाभाविकता, भावानुकूलता, प्रवाहात्म- 
कता, अर्थ-गोरव, प्रभविष्णुता, सुष्ठु शब्द एवं वाक्य विन्यास, नाद 
सौन्दर्य आदि माने जाते हैं । 

७. विष्कर्ष--रीति सामान्य अभिव्यञ्जना पद्धति की द्योतक है, शैली 
लेखक के व्यक्तित्व से संयुक्त एक विशिष्ट अभिव्यजंना प्रणालो है । 
शीली काव्य अथवा साहित्य का अनिवार्य तत्व है। रीति का कवि के 
व्यक्तित्व से सम्बन्ध नहीं है, होली का उससे घनिष्ट सम्बन्ध है । 

काव्य के तत्त्व 
काव्य के दो पक्ष माने जाते हैं-- 
() भावपक्ष 
(॥) कलापक्ष 
भावपक्ष का सम्बन्ध मानव मन में अंकित विभिन्न अनुभूतियों से है । काव्य 
में भावपक्ष प्रधान भावों के अभाव में काव्य सम्भव नहीं है। स्थायी भाव नौ 
माने गए हैं, जिनसे नौ रसों की स॒ष्टि होती है-श्वंगार, हास्य, करुण, , रौद्र, वीर 
भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त । स्थायीभाव ही जब काव्य के द्वारा जाग्रत 
होकर रसरूप में परिणत हो जाते हैं तो पाठक उनमें आनन्द प्राप्त करता है । 

कलापक्ष का सम्बन्ध काव्य के भाव या अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करने 
की प्रणाली से है । इसके अन्तर्गत हम इन चार बातों का अध्ययन करते हैं-- 

() भाषा 

() _छन्द 

(गा) अलंकार और 

(र) वर्णन शेली 

काव्य में भावपक्ष और कलापक्ष का नित्य सम्बन्ध है, जहाँ एक का दूसरे से 
बिछोह हुआ वहाँ काव्य की अन्तरात्मा को अपने को प्रकट करने की सामर्थ्यं नहीं 
रह जाती । 

काव्य के चार तत्त्व इस प्रकार हैं-- 

« मुल उपादान स्वरूप भावतत्त्व 


१ 
२. भावतत्त्व का आधार उपस्थित करने के लिए कल्पनातत्त्व 
३. कल्पना को व्यवस्थित करने के लिए बुदितत्व २ 
४ 


इस सुव्यवस्थित सामग्री को प्रभावात्मक रूप से दूसरों तक पहुँचाने के 
लिए सुन्दर शेली तत्त्व की अपेक्षा होती है । 





I A डी 


१९७ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
कल्पना तरव 

काव्यू में कल्पना तत्त्व का महत्व सर्वेविदित है । काव्य का मुलाधार भावपक्ष 

है और भावपक्ष की सहकारी कल्पना है । कल्पना तत्त्व के स्वरूप का विवेचन संक्षेप 
में इस प्रकार कर सकते हैं-- 

१. कल्पना पूर्व अनुभूतियों पर आधारित होती है । 

२. कल्पना प्रायः भविष्य की ओर अभिमुख होती है । 

३, कल्पना की क्रिया इच्छा-प्रेरित होती है । 

४. कल्पना स्वच्छन्द या बुद्धि के नियन्त्रण से मुक्त होती है । 

५, कल्पना जब हमारे मन में सक्रिय होती है, उस समय उसके सम्बन्धित 
विषय का इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्षीकरण नहीं होता अर्थात्‌ कल्पना का 
आलम्बन अप्रत्यक्ष होता है । 

६. कल्पना की सामग्री बिम्बों, स्मृतियों एवं चिन्तन शक्ति के रूप में 
मस्तिष्क में संचित रहती है । इसका सबसे गहरा सम्बन्ध बिम्ब्र-विधान 
से है। 

७. कल्पना का कार्ये अतीत अनुभवों को नया रूप प्रदात करना है या 
पूर्वकाल में उपलब्ध ज्ञान सामग्री को नये रूप में प्रस्तुत करना है । 

काव्य में जो बिम्बविधान होता है उसमें हमें कवि की कल्पनाशक्ति की प्रवृत्ति 


एवं स्वरूप का परिचय मिलता है। इस प्रकार कल्पना का सर्वाधिक गहरा सम्बन्ध 
काव्य में बिम्बविधात (७०) से है। 
rene रि पन सलाह ee 
वक्रोक्ति और क्रोचे का अभिव्यंजनावाद 

पाइचात्य विचारक क्रोचे ने अभिव्यंजनावाद की निराली व्याख्या की है । 
उसके अनुसार अभिव्यक्ति ही कला है, उसमें भावपक्ष का महत्त्व नहीं है। | 

साहित्य के दो पक्ष होते है--भावपक्ष और कलापक्ष । क्रोचे ने कलापक्ष को 
ही कला माना है। प्रश्‍न है कि यदि अनुभूति नहीं है तो अभिब्यक्ति पक्ष दुर्बल हो 
जायगा । अतः अनुभूति और अभिव्यक्ति अनन्योच्याश्नित हैं । वस्तुतः क्रोचे कला के 
लिए कला” को मानने वाला विचारक है । 

रामचन्द्र शुक्ल ने पाश्चात्य अभिव्यंजनावाद की चर्चा करते हुए लिखा है 
‘किसी बात को कहने का ढंग हो सब कुछ है, वात चाहे जैसी या जो हो अथवा कछ 
ठीक ठिकाने की भी न हो।' काव्य के क्षेत्र में शुक्लजी इस अभिव्यंजनावाद को 
वाग्वंचित्र्यवाद कहते हैँ । 

क्रोचे न चे कला के क्षेत्र मै सांचे या फॉर्म को ही सत्र कुछ मानता है । वस्तुका 
उसको दृष्टि में कोई महत्व नहीं है। 7777 

वक्रोक्ति पाश्चात्य अभिव्यंजनावाद से पृथक भारतीय काव्यशास्त्र का 
चमत्कारिक सिद्धान्त है । इसमें काव्य के समस्त उपादानों का समुचित विवेचन है । 








| 


साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय १२१ 


तक के अनुसार “विदग्धजन को आनन्द प्रदान करने वाला वक्रतापूर्ण काव्य व्यापार 


राव्य है ॥ 'वेदग्व्यभङ्गीभणिति'। जिस व्यापार में शब्द और अर्थ- अशिव्यंजना 


गीर अभिव्यंग्य क दर समन्वय होता हे । 


अभिव्यंजनावाद शुद्ध कलावादी दृष्टिकोण है तथा काव्य को जीवन और 
जगत्‌ से भिन्न कर देता है । वक्रोक्तिवाद जीवन के रूप व्यापारों, भावों एवं विचारों 
की अभिव्यंजना को काव्य का सर्वस्व मानता है । 
एवय की आत्मा क्या है ? 


आत्मा का अर्थ प्राण अथवा चेतनता अथवा अनिवाय॑ तत्व है। वामन ने 
| काव्य की आत्मा या अनिवार्य तत्व 'रीति' को माना--रीतिरात्मा काढ्यस्य । 
आनन्दवधंन ने ध्वनि को काव्य की आत्मा घोषित किया--ध्वनिरात्मा काव्यस्य । 
स्तक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा (जीवितम) माना । साहित्यदपंणकार ने 
रस को काव्य की आत्मा मानते हुए काव्य का लक्षण इस प्रकार किया है- वाक्य 
रसात्मक काव्यम्‌ । इसप्रकार रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति और रस को काव्य की आत्मा 
माना गया है । seer Se 
आनन्दवर्धन ने 'रीतिवाद' का खण्डन करते हुये ध्वनि को काव्य की आत्मा 
माना । उन्होंने गुण और अलंकार में व्यंग्य की अनिवार्य सत्ता के कारण उसे भी ध्वनि 
के अंतर्गत लिया है । प्रतीयमान अर्थे ही व्यंग्य अर्थ है, ध्वनि है और वह महाकवियों 
की वाणी में रहा करता है 
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु सहाकवीनाम्‌ 
आगे चलकर मम्मट और विश्वनाथ ने भी अलङ्कार, गुण और रीति तथा 
दोष का स्वरूप भी ध्वनि के सर्वोत्कृष्ट भेद “रस” पर निर्धारित किया है । कुन्तक ने 
वक्रोक्तिवाद में वक्रोक्ति को वंदर्ध्यभङ्जीभणिति या कविकर्म कौशल से उत्पन्न 
वेचित्र्यपूर्ण कथन कहा है! उन्होंने वक्रोक्ति को एक ओर अलङ्कार कहा है, दूसरी 
ओर प्रकारान्तर से ध्वनि । इसप्रकार ध्वनि ही काव्य का अनिवार्यं आन्तरिक तत्व है 
ओर अलङ्कार, रीति आदि बाह्मपरक तत्त्व इसी के परिपोषक के रूप में स्वोकृत हैं । 
घ्वनिवादी आनन्दवर्धन ने ध्वनि को काव्य की आत्मा और रस को घ्वनि का 
एक भेद माना है । आनन्दवर्धन के अनुकर्त्ता मम्मट ने भी रस को काव्य का सर्वोपरि 
प्रयोजन माना है । विश्वनाथ ने तो स्पष्ट ही रस को काव्य की आत्मा मानकर 
काव्य को परिभाषा ही इसप्रकार की है-वाक्यं रसात्मकं काव्यम्‌ । चकि आत्मा 
आन्तरिक तत्त्व की द्योतक है, अतः काव्य की आत्मा आन्तरिक तत्त्व होना चाहिये । 
अलङ्कार, रीति और वक्रोति बाह्य तत्त्व हैं। ध्वनि और रस ही आन्तरिक 
तत्त्व हैं। इनमें से ध्वनि तत्त्व अधिक व्यापक होने से काव्य की आत्मा माना जाना 
चाहिये । चित्रकाव्य में रस तत्त्व का अभाव रहता है किन्तु ध्वनि तत्त्व का भाव 
अपरोक्ष रूप में रहता है। अतः ध्वनि तत्त्व ही सभी प्रकार के काब्यानन्द का साधन 


१२२ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
बनने की क्षमता रखने के कारण काव्य की; आत्मा या अनिवार्य तत्त्व है। रस 
अपनी सीमा में परिबद्ध होने के कारण काव्य की आत्मा नहीं हो सकता । 

ध्वनि का अत्यन्त सूक्ष्म एवं विशद विश्लेषण आनन्दवर्धनाचायं ने अपने 
ध्वन्यालोक में किया है, जिसे आगे चलकर मम्मट ने अपने काव्यप्रकाश में प्रस्तुत 
किया । 
काव्य के गुण 

वामन ने गुण को शब्दार्थ का धर्म माना है और उनकी सत्ता स्वतन्त्र 
मानी । ध्वनिवादी आचार्यों ने गुणों को काव्य का उत्कर्ष साधक माना है । 

आगे चलकर आचार्यों ने गुणों को रस के साथ सम्बद्ध मानते हुए रस का 

धमं भी माना और शब्दार्थं का धर्म भी, मूलतः वे काव्यात्मा के--अन्तरंग व्यक्तित्व 
के धर्म हैं गौणरूप से काव्य के बहिरंग व्यक्तित्व या शरीर के (शब्दार्थ रूप) 
उत्कपंक हैं । 

मम्मट ने केवल तीन गुण माने हैं तथा अन्य आचार्यो द्वारा मान्य बीस 
गुणों का इन तीन में (माधुर्य, ओज और प्रसाद में) अन्तर्भाव कर दिया । उन्होंने 
गुणों को रस का धर्म माना हे । ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने चित्त की तीन वृत्तियाँ 
मानीं--द्र ति, दीप्ति और प्रसन्नता । इन्हीं के आधार पर मम्मट ने तीनों की 
व्याख्या की । 

भरतमुनि और दण्डी ने गुणों की संख्या दस मानी और वामन ने उनके 
शब्दगत तथा अर्थगत दो वगे करके उन्हें बीस माना । दस गुण ये हैं--ओज, प्रसाद 
माधुयं, श्‍लेष, समता, समाधि, सौकुमायं, उदारता, अर्थाभिव्यक्ति तथा कान्ति । 

रीतिकालीन आचार्यों ने मम्मट के आधार पर तीन गुणों को माना है । उन्होंने 
माधुयं, ओज और प्रसाद में ही अन्य गुणों का अन्तर्भाव दिखाया है । 

काव्य में गुणों का महत्त्वपूर्ण स्थान सभी आचायं मानते हैं और उन्हें काव्य- 
शोभा के मूल विधायक मानते हैं-- 
काव्यशोभायाः कर्तारो धर्माः गुणाः 


काव्य सम्प्रदायो का संक्षिप्त परिचय 


संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य लक्षण के प्रसंग में आचार्यो में जो वैभिन्य 
दिखलाई पड़ा, इस कारण अनेक सम्प्रदाय बन गये । ये काव्य सम्प्रदाय पाँच हे 
/) (१) अलङ्कार सम्प्रदाय--आचार्य 
शि (२) गुण सम्प्रदाय--आचार्य दण्ड 
(३) वक्रोक्ति सम्प्रदाय--आचाय वे 
(४) ध्वनि सम्प्रदाय--आचाय आनन्दवर्धन और अभिनवगुष्त 
(५) औचित्य सम्प्रदाय--आचाये क्षेमेन्द्र । र 

















साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय १२३ 


अलङ्कार मत के प्रवर्तक भामह ने काव्य लक्षण में अलङ्कार को काब्य की 
आत्मा निरूपित किया । इन्होंने रस को भी रसवत्‌ अलङ्कार के अन्तगंत माना । 


गुण या रीति सम्प्रदाय के प्रधान प्रतिपादक आचाय वामन हैं जिन्होंने रीति 
(पदों की विशिष्ट रचना) को काव्य की आत्मा माना। पदों की रचना में यह 
विशिष्टता गुणों के कारण उत्पन्न होती है, अतः इस सम्प्रदाय को गुण सम्प्रदाय भी 
कहते हैं । वामन ने रस का कान्ति गुण के अन्दर निर्देश करके रस की महत्ता पर 
अलङ्कारवादियों से अधिक जोर दिया । उन्होंने वक्रोक्ति के अन्तर्गत ध्वनि का अन्त- 
भवि भी किया है । अलङ्कार सम्प्रदाय की अपेक्षा रीति सम्प्रदाय की आलोचना-हष्टि 
गहरी तथा सूक्ष्म है । 

वक्रोक्ति सम्प्रदाय के आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन सिद्ध 
करते हुए अपने ग्रन्थ का नाम 'वक्रोक्तिजीवितम्‌' रखा । कुम्तक के शब्दों में वक्रोक्ति 
'वेदग्ध्यभङ्गीभणिति' है। ये ध्वनिमत से भी परिचित हैं। उनकी वक्रोक्ति की 
कल्पना इतनी उदात्त, व्यापक एवं बहुमुखी है कि उसमें ध्वनि पूर्णरूप से आ जाती 
है । कुन्तक की विश्लेषण एवं विवेचन शक्ति बड़ी मार्मिक है । 

ध्वनि सम्प्रदाय भरतमुनि के रस मत की व्याख्या है । इसमें रस को व्यंग्य के 
रूप में काव्य की आत्मा बताया है । भलद्धार सम्प्रदाय में ध्वनि की कल्पना बड़ी 
सुक्ष्म है । ध्वनिवादी आचार्यो ने गुण, दोष, रस, रीति आदि काव्य तत्त्वों की सुन्दर 
व्याख्या की है । 


Sf 


औचित्य सम्प्रदायवादी क्षेमेन्द्र ने 'औचित्य-विचार-चर्चा' में औचित्य को 
काव्य का प्राण सिद्ध किया है । उन्होंने औचित्य की भावना को रस, ध्वनि आदि 
समस्त काव्य तत्त्वों की मूल भावना माना है । उन्होने औचित्य को रस का जीवनभूत 
प्राण माना है। रस का परम रहस्य औचित्य से उसका निबन्धन है । इस औचित्य 
को पद, वाक्य, अर्थ, रस, कारक, लिंग, वचन आदि अनेक स्थलों पर दिखलाकर 
क्षेमेन्द्र ने साहित्यरसिको पर महान्‌ उपकार किया है । किन्तु इस तत्त्व की उद्‌- 
भावना क्षेमेन्द्र से ही मानना भयङ्कर ऐतिहासिक भूल होगी । औचित्य का मूलतत्त्व 
आनन्दवर्धन ने ही उद्घाटित किया है ।' (पं> बलदेव उपाध्याय) 
अलंकार सम्प्रदाय 

इस सम्प्रदाय के संस्थापक भामह है । उनका ग्रन्थ 'काव्यालङ्कार' है । यह 
काव्यशास्त्र का प्रमुख सम्प्रदाय है । काव्यशास्त्र का प्राचीन नाम अलंकारशास्त्र था । 
भामह से लेकर रुद्रट तक अलङ्कार सम्प्रदाय का स्वर्णयुग रहा है । यों तो भरतमुनि 
ने भी नाम्यशास्त्र में चार अलंकारों का विवेचन किया है किन्तु सम्प्रदाय के रूप में 
इसकी स्थापना भामह ने अलंकारों की वैज्ञानिक व्याख्या करके की। उन्होने 
अलंकार को सम्पूर्ण काव्यशास्त्र एवं काव्य का सर्वस्व माना है । 


१९४ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिकां 


अलंक्ृति ही काव्य का सर्वस्व है । रस और भाव का अन्तर्भाव भी अलंकारों 
में है ॥--भापह 

भामह ने ३८ अलंकारों का प्रतिपादन किया । उनके बाद दण्डी ने 'काव्यादर्ण! 
में अलंकारों का सारगभित विवेचन किया । 

दण्डी के बाद उद्भट तीसरे प्रसिद्ध अलंकार-आचार्य हुए । इनके ग्रन्थ का 
नाम 'अलंकार-सार संग्रह' है । उन्होंने अलंकारों का सूक्ष्म विश्लेषण करके ५० 
अलंकारों का निरूपण किया । उनकी वैज्ञानिक वर्गीकरण की पद्धति उपयोगी सिद्ध 
हुई । 

वामन ने भी अलंकार सम्प्रदाय को पुष्ट किया उन्होंने रस, ध्वनि, गुण, दोष, 
रीति सभी को अलङ्कार के अन्तर्गत कर दिया । 

आचार्य रुद्रट के समय अलङ्कारों की संख्या ७० तक पहुँची । 

मम्मट के काव्यप्रकाश में भी अलड्कारों का विवेचन हुआ है । अन्य अलङ्कार- 
शास्त्र के आचार्य ये हैं--प्रतिहारेन्दुराज, रुव्यक, भोज, राजशेखर, जयदेव, पण्डितराज 
तथा अप्पय दीक्षित । 


वक्रोक्ति सम्प्रदाय 


भारतीय काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति को विशेष महत्त्व दिया है। कुन्तक ने तो 
वक्रोक्तिजीवितम्‌' ग्रन्थ की रचना करके उसे काव्य का प्राण ही सिद्ध किया है । 
इसी आधार पर वक्रोक्ति सम्प्रदाय चल पड़ा । ज्म 

वक्रोक्ति का अर्थ आचार्यो ने 'वदग्ध्यभंगीभणिति' किया है । अर्थात वंदग्य- 
पुर्ण शैली की उक्ति वक्रोक्ति है । इसमें विदग्धता, कवि-कमं-कौशल, उसकी भंगिमा 
रहती है । विचित्र वर्णन शैली को वक्रोक्ति कहा हे । 

भामह और दण्डी ने वक्रोक्ति को सर्वालङ्कारमुला माना । ऐसा कोई अलङ्कार 
नहीं जिसमें 'बक्रोक्ति' न हो । चमत्कारपूर्ण कथन उपमादि अलङ्कारों के रूप में मूल 
रूप में वक्रोक्ति ही है । 

कुन्तक ने वक्रोक्ति को महत्ता प्रदान की किन्तु इसके द्वारा उन्होंने काव्य के 
बहिरंग का ही प्रकाशन किया । काव्य का अन्तरंग तो रस ही रहा । 

कुन्तक ने वक्रोक्ति के निम्नलिखित छः भेद किए हैं-- 

(१) वणं विन्यास-वक्रता 

(२) पद-पूर्वाद्धे वक्रता 

(३) प्रत्यय-वक्रता 

(४) वाक्य-वक्रता 

(५) प्रकरण-वक्रता और 

(६) प्रबन्ध-वक्रता । 


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साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय १२५ 


रस काव्य का अन्तरंग पक्ष है और वक्रोक्ति बहिरंग । अतः 'बक्रोक्तिजीवितम्‌ 
सद्धान्त विद्वानों के द्वारा ग्रहीत नहीं हुआ । किन्तु काव्य के कलापक्ष के अन्तर्गत 
इसका महत्त्व बना रहा । 
ध्वनि सम्प्रदाय 

ध्वनिकारों ने भरत मुनि के रस सिद्धान्त से प्रेरणा प्राप्त की किन्तु उनका 
घ्वनिवाद सम्पूर्णतया उस पर आश्रित नहीं २ 2 

ध्वन्यालोक' के द्वारा घ्वनि सम्प्रदाय की स्थापना होती है । इसकी कारिकाओं 
के लेखक का नाम ज्ञात नहीं है। आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक को वृत्ति प्रस्तुत की 
अतः उन्हीं के नाम से ध्वन्यालोक प्रसिद्ध है । ध्वन्यालोक में लिखा है कि 'काब्य की 
आत्मा ध्वनि है, ऐसा मेरे पूर्ववर्ती विद्वानों का भी मत है'-- 

काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधेयं: समान्मातपूर्वेः ' अभिनवगुप्त ने अपने 
ध्वन्यालोक लोचन में उपयुक्त कारिका की व्याख्या करते हुए लिखा-- 

तेन रस एव वस्तुतः आत्मा 

वस्त्वलंकारध्वनिस्तु सर्वथा रसं प्रति पर्यवस्यते । 

अर्थात्‌ ध्वनि के त्रिविध प्रकार (वस्तु, अंलकार और रस) रस में ही पर्यवसित 
हो जाते हैं। अतः काब्य की वास्तविक आत्मा रस ही है, किन्तु वह संया ध्वनि- 
संपृक्त है । 

ध्वनि सिद्धान्त की आधारशिला व्यञ्जनाशक्ति है । रस की अनुभूति शब्दो- 
च्चारण से या वाच्याथं से संभव नहीं, वह तो व्यंग्यार्थ प्रतिपादिनी शक्ति व्यञ्जना 
से ही संभव है । रस के रहस्य को व्यञ्जना शक्ति ही स्पष्ट करने में सक्षम हो सकती 
है । व्यञ्जना शक्ति का ध्वनि सिद्धान्त के प्रतिपादन में प्रमुख स्थान है । 

आचार्य मम्मट, विश्वनाथ तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने घ्वनि सिद्धान्त या 
सम्प्रदाय का पोषण किया । 
रस सम्प्रदाय 

इसके प्रवर्तक भरतमुनि माने जाते होने अपने नाट्यशास्त्र में "रस 


को काव्य का अनिवार्य तत्त्व माना है । यद्यपि रस की चर्चा भरतमुनि से पूवं नन्दिके- 


इवर कर चुके थे किन्तु उसकी सम्प्रदाय के रूप में स्थापना नाट्यशास्त्र में ही हुई-- 
नहि रसाइते कड्चिद्थः प्रवतंते । 
तभी से रस को काव्य की आत्मा के रूप में माना जाने लगा । 
आगे चलकर कुछ आलंकारिकों ने रस का विवेचन अलंकार के अस्तगंत किया, 
कुछ ने स्वतन्त्र रूप में। प्रथम वग में भामह, दण्डी, वामन हूँ । द्वितीय वर्ग में 
आनन्दवर्धन, जयदेव, राजशेखर एवं विश्वनाथ । 
साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने रस को काव्यात्मा घोषित करते 


हुए काव्य को परिभाषा इसप्रकार को--- 
वाक्य रसात्मकमू काव्यम्‌ । 


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११६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
पण्डितराज जगन्नाथ ने 'रमणीयार्थ' कहकर रस का स्मरण किया । 
रीतिकालीन आचार्य श्रीपति ने तो रस के अभाव में काव्य की सत्ता ही 

नहीं मानी-- 

जदपि दोष बिनु गुन सहित, अलंकार सो हीन। 
कविता वनिता छवि नहीं, रस बिन तदपि प्रवीन ॥। 
रस के साथ ही अलंकार सम्प्रदाय भी चलता रहा, जिसमें रस को अलंकार 
के अन्तगंत माना गया । और कैशवदास जंसे आचार्यो ने भूषन बिन न विराजही' 
कहकर अलंकार को महत्ता प्रदान की । 

रस निष्पत्ति का क्या अर्थ है? 
भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटक में रस की स्थिति का वर्णन करने 

के पश्चात्‌ इसकी निष्पत्ति कंसे होती है, यह बताने के लिए इस सुत्र (वाक्य) का 

प्रयोग किया हे-- 
विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्‌ रसनिष्पत्तिः । 
अर्थात्‌ विभाव, अनुभाव और व्यभिचारि भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति 
(अभिव्यक्ति) होती है। भरत का तात्पर्यं यह है कि स्थायी भाव--विभाव, अनुभाव 
और व्यभिचारि भाव के संयोग द्वारा रसरूप को प्राप्त करते हैं-- 
नाना भावोपहिता: स्थायिनः । 
अर्थात्‌ सहृदयजन के हृदय का स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और 
संचारी भाव के संयोग को प्राप्त करके परिपाक को प्राप्त होता है तो रस के रूप 
में व्यक्त (निष्पन्न) हो जाता है । रस निष्पत्ति के तीन साधन ये हैं-- 
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव । 
स्थायी भाव तो स्वयं रस के रूप में अभिव्यक्त होता है, भतः यह साधन 
नहीं है। स्थायी भाव को रस के रूप में परिणति या रसाभिव्यक्ति साध्य हे और 
उपयु क्त तीन तत्त्व साधन हैं । 
भरतमुनि के रससुत्र में प्रयुक्त निष्पत्ति' शब्द का अर्थ अभिनवगुप्त ने 
अभिव्यक्ति माना है अर्थात्‌ व्यञ्जना द्वारा प्राप्त अथे । अभिनवगुप्त ने रस को 
व्यंग्याथे पर आश्रित माना है अतः “रस निष्पत्ति! का अर्थ है रस की अभिव्यक्ति-- 
अभिव्यक्ति माने अभिव्यङ्गय होना--व्यग्यार्थ बन जाना । 

रस के अंग 

रस के सम्बन्ध में भरतमुनि का प्रसिद्ध रससूत्र इसप्रकार है— 
विभावानुभावव्यभिचारिक्षयोगाद्र सनिष्पत्तिः। _ 
काव्यप्रकाश में मम्मट ने कहा है कि स्थायी भाव ही विभावादि के संयोग 
से रस के रूप में अभिव्यक्त होता है-- 

व्यक्तः स तविभावाद्य : स्थायीभावो रसः स्मृतः । 





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साहित्यालोचन या काव्यक्षास्त्र का संक्षिप्त परिचय १२७ 


स्थायी भाव--वे प्रमुख एवं स्थायी भाव जो सदैव हृदय में सुप्तावस्था 
में विराजमान रहते हैं और जिनकी संख्या आचार्यों ने नो मानी है । 

ये स्थायी भाव विभाव आदि कारणों से जाग्रत हो जाते हैं। विभाव के दो 
रूप हुँन 

(१) थालम्बन विभाव और (२) उद्दीपन विभाव । विभाव स्थायी भावों को 
रस दशा में परिणत करने वाले प्रमुख कारण हैं। आलम्बन विभाव उन्हें कहते हैं 
जिसका आलम्बन लेकर स्थायी भाव जाग्रत होते हैं, जसे रति स्थायी भाव का 
आलम्बन ललना आदि रूप है । यह आलम्बन विभाव जनक कारण है । 

उद्दीपन विभाव उपर्युक्त रूप में जाग्रत हए स्थायीभाव को उद्दीप्त करता है, 
अतः यह परिपोषक कारण कहलाता है । 

अनुभाव इन कारणों से जाग्रत स्थायी भाव के कार्य हैं या जाग्रति के चिन्ह हैं 
जँसे कि रति के कटाक्ष आदि । व्यभिचारी या संचारी भाव सहकारी कारण हैं जो 
रत्यादि स्थायी भावों को जाग्रति एवं पुष्टि में सहायता प्रदान करते हैं ज॑से चिन्ता, 
रलानि आदि । 

इस प्रकार स्थायीभाव रस के रूप में परिणत होता है । इसके कारण इस 
प्रकार हैं-- 

जनक कारण--आलम्वन विभाव 

परिपोषक कारण--उद्दीपन विभाव 

सहायक कारण--संचारी भाव 

कार्य--अनुभाव 

अन्तिम अवस्था--रसावस्था 
विभाव और अनुभाव का स्वरूप 

संसार में जो पदार्थ सामाजिक के हृदय में वासना के रूप में स्थित रति, 
उत्साह आदि भावों का उद्बोधन करते हैं, वही काव्य में वणित होने पर विभाव 
कहलाते हैं । ये दो प्रकार के होते हैं-आलम्बन विभाव और उद्दीपन विभाव । 

आलम्बन विभाव- काव्य नाटकादि में वणित जिन पात्रों का आलम्बन 
करके सामाजिक के रति आदि स्थायी भाव रस के रूप में परिणत होते हैं, उन्हे 
आलम्बन विभाव कहते हैं । 

उद्दीपन विभाव--जो रस को उद्दीप्त करते हैं उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं-- 

उहीपनविभावास्ते रसमुहीपयान्ति ये । ~ साहित्यदर्पण 

ये दो प्रकार के होते हैं--(१) आलम्बनगत चेष्टाएं (२) बाह्य वातावरण । 

अनुभाव--रति आदि स्थायी भावों को प्रकाशित करने वाली आश्रय की बाह्य 
चेष्टाएं अनुभाव कहलाती हैं-- 

अनुभावयन्ति इति अनुभाव : । 


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१२८ मौखिक-परीक्षा पथप्रदर्शिका 


जो भाव के पीछे आवे, वह अनुभाव है । अनुभाव उत्पन्न हुए रति आदि 
स्थायी भावों का अनुभव कराने के कारण अनुभाव कहलाते हें । अर्थात्‌ भावों के बे 
कार्य जितके द्वारा भावों का अनुभव होता है अनुभाव कहलाते हैं । ये चार प्रकार 
के होते हैं 
[गिक--शरीर सम्बन्धी चेष्टाएँ। 


(१) अ 
(२) वाचिक - वाणी के व्यापार को वाचिक कहते हैं । 
(३) आहार्य- वेशभूषा, अलंकरण आदि । 


(४) सात्त्विक सत्त्र के योग से उत्पन्न शारीरिक चेष्टाएँ। 
इन्हें सत्तिक भाव भी कहते हैं। ये आठ माने गए हैं-स्तम्भ, स्वेद 
रोमाञ्च, स्वरभंग, वेपथु, बैवण्यं, अश्न और प्रलय । अनुभाव की विद्यमानता 
निम्नलिखित बिहारी के दोहे में देखिये--- 
भोहन्‌ त्रासति मुंह नटति आंखनि सों लपटाति। 
ऐचि छुड़ावति करु, इ ची, आगे आवति जाति॥ 
इसप्रकार भावों की प्रेरणा से आश्रय (व्यक्ति) जो चेष्टाएँ करता है, उन्हें 
रस-सिद्धान्त की शब्दावली में अनुभाव कहते हैं। अनुभाव का अर्थ है भाव के पीछे 
उत्पन्न होने वाला-— 
अनु पश्चात्‌ भावो यस्य सोऽनभावः । 


पाश्चात्य काव्यशास्त्र में अनुभावों को 'कार्य' के अन्तर्गत रखा है । अनुभावों 
के अन्तर्गत भावप्रेरित कायं आते हैं । 

अनुभावों के चार वर्ग इस प्रकार हैं-- 

(१) आंगिक--इसमें शारीरिक चेष्टाएँ एवं क्रियाएं रहती हैं । 

(२) वाचिक--इसमें वार्तालाप-संभाषण रहता है 

(३) सात्विक--इसके अन्तगंत सूक्ष्म मानसिक क्रियाएं आती हैं । 

(४) आहार्य-इसके अन्तर्गत वेश-भूषा सम्बन्धी परिवर्तन आ जाते हैं। 
हमारी वेशभूषा मनः स्थिति से सम्बन्धित होती है अतः आचार्यो ने इसे अनुभाव के 
अन्तर्गत माना । 

निष्कर्ष यह कि भावों की अभिव्यक्ति जिन माध्यमों से हो सकती है तथा 
भावों की प्रेरणा से हम जो भी कुछ करते हैं, वह सव अनुभाव है। अनुभावों का 
भावों से अत्यन्त गहरा सम्बन्ध है तथा इनका क्षेत्र व्यापक है । 
भ्जुगार रस 

श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति है। 

रति स्थायी भाव का आश्रय स्थल या उदय नायक या नायिका दोनों में से 


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साहित्यालोचन या काव्यक्षास्त्र का संक्षिप्त परिचय १२९ 


किसी के हृदय में हो सकता है । रति स्थायी भाव के उदय का जनक कारण या आल- 
म्बन विभाव उत्तम प्रकृति, गुण खूप सम्पन्न, चिर साहचर्य से युक्त श्रेष्ठ नायक या 
नायिका है । रति स्थायी भाव का परिपोषक कारण या उद्दीपन विभाव नायक- 
नायिका की वेश-भुषा, शारीरिक चेष्टाए" आदि आलम्बनगत उद्दोपन विभाव हैं और 
ऋतु सौन्दर्य, सरिता-तट, चन्द्र ज्योत्स्ना, मधुऋतु, एकान्त स्थल, उपवन, कविता, 
मधुर संगीत, मादक वाद्य, पक्षियों का कलरव, चित्र आदि वातावरणगत उद्दीपन 
विभाव हैं । रति स्थायीभाव के जाग्रत होमे पर कार्य रूप अनुभाव इस प्रकार है--- 
संयोग में प्रेम पूर्ण आलाप, परस्पर देखना, स्पर्श, आलिंगन, चुम्बन, कटाक्ष, स्वेद 
और कम्प आदि । 

वियोग के अनुभावों में अथु, वैवर्ण्य, प्रलाप आदि मुख्य हैं । 

रति स्थायी भाव को रस दशा में परिणत करने में सहकारी भाव या संचारी 
भाव ये हैं--- 

औत्सुक्य, लज्जा, जड़ता, चपलता, हर्ष, मोह, चिन्ता आदि । 
वीररस और रोद्ररस में अन्तर 


~ 


रौद्र और वीररस की भूल प्रवृत्ति प्राय: एक सी है। वीररस की चरम 
परिणति रीद्र रस हे । आचार्य विश्वनाथ ने इनका साम्य दिखाते हुए लिखा है---दोनों 
रसों में शत्रुपक्ष, आलम्बन विभाव एवं उसकी चेष्टाए, उद्दीपन विभाव तथा प्रायः 
एक से अनुभाव हूँ । 

दोनों में अन्तर 

१. रोर का स्थायीभाव क्रोध है जो स्थिर है। वीररस का स्थायीभाव. 

उत्साह है, यह स्थिर न रहकर युद्ध करने के लिए प्रवृत्त करता दि 
२. दोनों रसों में व्याप्त क्रोध का रूप भिन्न है । रोद्रान्तगंत क्रोध में पाश- 


विकता होती है | वीररस के अन्तर्गत क्रोध भावात्मक है । 


३. क्रोध में प्रतिक्रिया की भावना रहती है, उत्साह में ऐसा नहीं है । 
क्रोधी पुरुष रौद्र रस में अपने से निर्बल व्यक्ति पर बरस पडता 
है, उसे नष्ट करने पर तुल जाता है ! परन्तु वीररस का क्रोध अपने 
समान पराक्रमी शत्र से डटकर लोहा लेता हे । 

४. दोनों रसों में नेत्र लाल हो जाते हैं किन्तु दोनों की लालिमा में भिन्नता 
है । रोद्र रस में उत्पन्न रक्तता क्रोधी के आपे से बाहर होने की द्योतक 
है जबकि वीर रस में उत्पन्न रक्तता शत्र, से ब्रदला जेने की भावचा से 
होती है। 

रसों की संख्या 


इस समय हम नौ रस मानते हैं किन्तु ईसवी के प्रारम्भ में 'नाट्यशास्त्र' के 
प्रणेता भरतमुनि’ ने काव्य या नाटक में आठ रसों की स्थिति मानी थी--- (5 


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१३० मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


श्यु'गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स तथा अद्भुत ये आठ रस्‌ 
ही भरतमुनि के अनुसार "नाद्ये रसाः स्मृताः’ नाट्य के रस माने गए । 
आचार्य दण्डी ने भी काव्यादर्श में इन्हीं आठ रसों को माना। उद्भट ने 
आगे चलकर नौ रस माने । उन्होंने शान्तरस को भी जोड़ दिया-- 
श्यृंगारहास्य करुणरोद्रबीर भयानकाः । 
बीभत्साद्भुतशान्ताइच नव नाट्ये रसा स्मृताः। 
आनन्दवर्धन ने नौ रसों का वर्णन कर दिया किन्छु उनके परवर्ती धनञ्जय ने 
दसरूपक में पुनः आठ रस ही साने । उन्होंने रूपक में शान्त रस की स्थिति स्वीकार 
नहीं की । 
अभिनवगुप्ताचार्य ने काव्य और नाटक दोनों में शान्त रस की स्थिति 
घोषित की। 
एवम्‌ ते नवच रसाः । 
भोज ने सरस्वती कंठाभरण' में नौ रसों के अतिरिक्त प्रेयान्‌, उदात्त और 
उद्धत रसों को मान्यता दी । 
आचार्यं विश्वनाथ ने नौ रसों के अतिरिक्त वात्सल्य को दसवा रस माना । 
रूप गोस्वामी ने भक्ति को रस माना और उसे प्रधान रस घोषित किया | 
इस प्रकार ग्यारह रस हो गए । 
भट्टनायक का साधारणीकरण 


भरतमुनि के रससूत्र की जिन चार आचार्यो ने व्याख्या की उनमें भट्टनायक 
अपने साधारणीकरण के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। इनके मत का दार्शनिक आधार सांख्य 
दर्शन है । २ 

भट्टलोल्लट, ने रस की निष्पत्ति' का अर्थ 'रस की उत्पत्ति” करके 'उत्पत्ति- 
वाद' का प्रवर्तन किया । 

रांकुक ने कहा कि रस की उत्पत्ति नहीं होती वरन्‌ अनुमिति होती है, अतः 
निष्पत्ति का अर्थ अनुमति है । 

भट्टनायक ने कहा कि रस की निष्पत्ति का तात्पर्यं उसकी उत्पत्ति, अनुमिति 
अभिव्यक्ति आदि से न होकर यह भावकत्व व्यापार से भावित रस, भोजकत्व द्वारा 
भोगा जाता है । 

भट्टनायक की व्याख्या वस्तुपरक न होकर आत्मपरक है । उन्होंने विभावादि 
के साधारणीकृत होने की वात कही । अभिधा शक्ति तो मुख्यार्थ बताने वाली है । 
इसके अतिरिक्त उन्होंने दो व्यापार माने जो रस-व्यञ्जना में महत्त्वपूर्ण हैं, यथा-- 

(१) भोजकत्व व्यापार तथा 

(र) भावकत्व ब्यापार । 


साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय १३१ 


रसानुभूति न व्यक्तिगत होती है न परगत । जब स्थायीभाव विभावादि के 
द्वारा भाव्यमान होता है तब उसकी रसदझ्ा में परिणति भावकत्व व्यापार द्वारा 
साधारणीकरण होने से होती है । साधारणीकरण होने के अनन्तर भोजकत्व व्यापार के 
द्वारा सामाजिक रस की साक्षरात्मक अनुभूति करता है । यही रस की भोगदशा है। 
इस प्रकार रस की भोज्य दशा ओर रस की भोग या भुक्त दशा पर भट्टनायक ने 
जोर दिया है । 

भोजकत्व तथा भावकल्व को भट्टनायक ने अभिधा शक्ति के ही दो ब्यापार 
माना हवै । 
साधारणीकरण किसे कहते हैं ? 

साधारणीकरण की चर्चा रस-प्रकरण में आती है। रस निष्पत्ति के सम्बन्ध 
में भरतमुनि का प्रख्यात सूत्र विभावानुभावव्यभिचारि संयोगाद्‌ रस निष्पत्ति: है । 
इसकी व्याख्या चार प्रसिद्ध आचार्यो ने की । उनके नाम ये हैं--लोल्लट, शंकुक, 
भट्टनायक और अभिनवगुप्त । भट्टनायक ने सर्वप्रथम साधारणीकरण शब्द का प्रयोग 
करते हुए इसके आधार पर रसनिष्पत्ति की व्याख्या की, जिसे अभिनवगुप्त ने भी 
स्वीकार किया । वर्तमान युग में साधारणीकरण का विवेचन करने वालों में आचार्य 
पं० रामचन्द्र शुवल और डॉ० नगेद्ध प्रमूख हैं। 

भट्टनायक की साधारणीकरण की मान्यता इस प्रकार है--साधारणीकरण 
वह व्यापार है जिसके द्वारा काव्यसृष्टि सें कविनिर्भित पात्र व्यक्ति विशेष न रहकर 
सामान्य बन जाते हैं। अर्थात्‌ वे किसी देश एवं काल की सीमा में बद्ध न रहकर 
सावंदेशिक एवं सार्वकालिक बन जाते हैं और इस प्रकार उनका जीवनचरित सहृदय 
सामाजिक के लिए संवेद्य बन जाता है । जव काव्य के पात्र सामान्य बन जाते हैं तो 
उनके इस स्थिति में उपस्थित होने पर सहृदय भी अपने पूर्वाग्रहों से विमुक्त होकर 
उन सामान्यीक्कत या साधारणीक्कत पात्रों के सुख-दुःख से प्रभावित होने लगता है 
और रसकी निष्पत्ति सम्भव हो जाती है। जब नाटक में प्रदर्शित राम और सीता 
रामत्व और सीतात्व छोड़कर मानव मात्र बन जाते हैं (साधारणीकरण व्यापार के 
द्वारा) तब वे सहृदय के रसास्वाद का कारण बन सकते हैं अन्यथा नहीं । यही 
भट्टनायक का साधारणीकरण है'--तत्र सीतादिशब्दः परित्यक्त-जनकतनयादिविशेषा: 
स्त्रीमात्रवाचिन: । 
कया रस सुख दुःखात्सक हैं ? करुण आदि रसों का आस्वाद केसा होता है? 

सहृदयजन श्वृज्भार आदि नवरसों का समान रूप से आस्वादन करते हैं और 
उनसे वे आनन्द की प्राप्ति करते हैं। मम्मट ने स्पष्ट कहा है 

नवरसरुचिरां कविवाङ निमिति ह्वादेकमयीम्‌ भवति ॥ 
अर्थात्‌ नवरस की रुचिर कवि की काव्य सृष्टि केवल आल्हादक ही होती है । 
किन्तु संस्कृत के सुप्रसिद्ध काव्याचायं नाव्यदर्पण के कर्ता रामचन्द्र-गुणचन्द्र 


१३२ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


मे लिखा है--सुख दुःखात्मकोरसः। उनका अभिमत है कि श्रृंगार वीर, हास्य, 
अद्भुत और शान्त ये पाँच रस सुखात्मक है, और करुण, रोद्र, बीभत्स और भयानक 
थे चार रस दुःखात्मक हैं । प्रथम वर्ग के रस तो निविवाद रूप से सुखात्मक हैं । 
द्वितीय वर्ग के रसों को सुखात्मक मानने में रामचन्द्र-गुणचन्द्र को आपत्ति है। 
किन्तु उन्होंने ऐसा संकेत दिया है कि ये रस सुखास्वाद प्रदान करते हैं । नाख्यदपंण 
में उन्होंने लिखा है- 

पानकमाधुर्यमिच च्च तीक्षणा55स्वादेन 

बुःखा55स्वादेन सुतरां सुखानि स्वदन्ते इव इति ॥ 

अर्थात्‌ जिस प्रकार पानक (खट्टु-मीठे-तीखे पेय) की मिठास दुःखास्वादजनक 

तीक्ष्ण पदार्थ के मिश्रण से और भी अधिक सुखास्वाद की प्रदायक है वैसे ही करुण 
आदि चार दुःखवर्ग के रसों में भी दुःख का मिश्रण सुखास्वाद प्रदान करता हे । 
साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ का मत है कि करुण आदि रस सुखात्मक हैं क्योंकि 
महृदय-जन इसे देखने के लिए सदेव उन्मुख रहते हैं-करुणादावपि रसेजायते यत्परं 
सुखम्‌ । प्रत्येक स्थायी भाव अपरिपकवावस्था में लौकिक सुख-दुख का कारण बनता 
है किन्तु परिपक्वावस्था में वह केवल अलौकिक आनम्द की सृष्टि करता है। अतः 
करुण, रौद्र, वीभत्स और भयानक रस दुःखात्मक न होकर श्रृङ्गार आदि रसों की 
भांति सुखात्मक आस्वाद वाले हैं । 


श्ुद्गार रस को 'रसराज' क्‍यों माना जाता है ? 
रीतिकालीन (श्वज्भारकालीन) आचार्य एवं कवियों ने श्रुद्धार को रसराज 
माना है । केशवदास ने रसिकप्रिया में लिखा हे-- 
सबको केसवदास कहि नायक है सिंगार । 
सोमनाथ आचायं ने भी कहा है -- 
नवरस को पति सरस अति रस सिंगार पहिचानि। 
महाकवि देव ने भी श्शङ्गार को रसराज कहा है-- 
भूलि कहत नवरस सुकबि सकल मुल सिंगार । 


संस्कृत के आचायों ने श्रृङ्गार को रसराज या रसपति घोषित न करके भी 
उसके महत्त्व का निरूपण किया है। भरतमुनि ने संसार में जो कुछ भी पवित्र, 
विशुद्ध एवं उज्ज्वल तथा दर्शनीय हैँ, उसकी श्शुङ्गाररस से उपमा दी है। अन्य 
आचार्यों ने भी माना है कि श्शङ्गाररस में ही ऐसी रस्यता है जिससे आबालवृद्ध ओत- 
प्रोत हैं । आनन्दवर्धन अपने ध्वन्यालोक में स्पष्ट लिखते हैं कि 'श्रद्धार ही सर्वाधिक 
मधुर और परम आह्वादक रस है-- 
शगार एव मधुरः परः प्रह्वादलो. रसः । 


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साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचयं १३३ | 
भोजराज ने तो केवल श्रृद्धार को ही रस की संज्ञा दी है । क्योंकि यही भाव 
सामाजिक को मुख की पराकाष्ठा शृङ्गार प्रदान करता है-- 
येन शृद्धरीयते स श्डुंगारः । 
भोज ने श्रृंगार रस का मनोव॑ज्ञानिक सूक्ष्म विश्लेषण करके उसे सर्वंभावाधार' 
सिद्ध किया है । 
आगे चलकर साहित्यदपंणकार विश्वनाथ ने भी ख्वंगाररस की व्यापकता का 
समर्थन किया है । अतः शज्धार को हम 'रसराज' या 'रसपति' या सर्वप्रमुख' या 
“सर्वोत्कृष्ट' रस कह सकते हैं । 
महाकाव्य के लक्षण 


जीवन के विविध रूपों एवं अवस्थाओं के चित्रण पर जोर दिया है। महाकाव्य की 


शेली उदात्त होती है अतः वह युग-युग की रचना बन जाता है। 'महाकाव्य के 


१. महाकाव्य में उत्पाद्य या अनुत्पाद्य लम्बी पद्यवद्ध कथा होती है । इसमें 
नायक के समंग्र जीवन का चित्रण होता है । A 
` २. कथानक की समग्रता प्रसंगानुसार अवान्तर कथाओं से विस्तार को 
प्राप्त होतीहै। | | 

३. महाकाव्य कौ कथावस्तु सर्ग भै विभक्त एवं नाटकीय गुणों से युक्त 
होत्री है। 

४. उसमें जीवन के विविध रूपों का दर्शन होता है । सृष्टि के विशाल पट 
पर बह्‌ कथा लिखी जाती है, अतः उसमें नदी, पर्वत, झरने, विभिन्न | 
ऋतुओं, नगर, वन आदि का भी वर्णन रहता है । ] 

५. महाकाव्य का नायक उच्चकुलीन एवं गुणसम्पन्न एवं उदात्त चरित्र 
वाला होता है। क्र 

६. महाकाव्य में प्रतिनायक का भी विस्तार से वर्णन होता है । 

७. महाकाव्य में नायक की विजय का प्रदशन होता है । 

५. महाकाव्य में रस की स्थिति आवश्यक है, साथ ही _उसका कोई महान्‌ 
उद्देश्य होता है । 

पाश्चात्य काव्यशास्त्र के अनुसार महाकाव्य 


पाश्चात्य काव्यशास्त्र में महाकाव्य को 'एपिक काव्य' कहते हैं। उनका ) 


अपना भारतीय आचार्यों से भिन्न आदर्श है । उनके अनुसार महाकाव्य के लक्षण 
इसप्रकार हैं-- 


१. महाकाव्य विशाल आकार का वर्णनात्मक काब्य होता है। 





मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


१३४ 

२. महाकाव्य में जातीय भावों की प्रधानता होती है । 

३, महाकाव्य की विषयवस्तु लोकविश्रुत या ऐतिहासिक होती है 

४. महाकाव्य के पात्र शॉयं-गुण-प्रधान होते हैं। देवी पात्रों का भी 
कथानक में योग रहता है । 

५. महाकाव्य में नायक को केन्द्र बनाकर समस्त कथावस्तु एकसूत्र में 
अनुस्युत रहती है । 

६, महाकाव्य में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिये । 

पाइचात्य काव्यशास्त्र में महाकाव्य के दो भेद माने गए हैं--- 

१. ऐपिक ऑफ ग्रोथ-इसे बावू गुलाबराय ने विकासशील महाकाव्य कहा 
है। इसमें महाकाव्य की भव्यता और हृश्यकाव्य की सजीवता 
रहती है । 

२. ऐपिक ऑफ आर्ट--इसमें कलात्मकता का प्राधान्य रहता है । 

मुक्तक काव्य 


काव्य को दो भागों में विभक्त किया है--प्रबन्ध ओर मुक्तक । प्रबन्धकाव्य 
के दो भेद--मकाकाव्य और खण्डकाव्य हूँ । किन्तु संस्कृत में प्रबन्धकाव्य के ये भेद 
नहीं मिलते । संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य के दो भेद इसप्रकार हैं-महाकाव्य और 
गीतिकाव्य । गीति के अन्तर्गत खण्डकाव्य भी आ जाते हैं । 

हिन्दी में मुक्तक काव्य के अन्तर्गत केवल मुक्तक गीति आती है, खण्ड 


काव्य नही । 


मुक्तककाव्य की विशेषता एँ--- 


Re 
Re 
३. 


ह. 


इसमें प्रत्येक पद्य या गोत अपने में पूर्ण एवं स्वतन्त्र होता है । 
सरसता या गीति इसका अनिवायं तत्व है । 


इसमें कलासज्जा का विशेष ध्यान रहता है। थोडे शब्दों में भावों का 


प्रकाशन मुक्तक का समुन्नत रूप है। 

इसमें वयक्तिक अनुभूतियों का प्राधान्य रहता है । 

इसमें कथन का अन्नुठापन, उक्ति-वैचित्य, स्वाभाविक अलंकृति, भाषा 
का लालित्य एवं संगीतात्मकता रहती है। 


इसमें भाव और कला का अद्भुत समिश्रण रहता 








विषय के आधार पर मुक्तक के भेद इसप्रकार हो सकते हैं--नीति, वीरता 
भक्ति, श्हंगार, स्तुति, आत्मानुप्वृति, वियोग, शोक (गीति) आदि। शोक गीति को 
अंग्रेजी में एंलिजी कहते हें । गीति को अंग्रेजी में लिरिक कहते हैं। 

आचार्य रामचन्द्रशुक्ल ने मुक्तक काव्य की उपमा 'गलदस्ते! से दी 
है । मुक्तक तारतम्य ओर प्रसङ्ग के पूर्वापर बन्धन से मुक्त होते के कारण मुक्तोन 


मुक्तम' है । 


ME 





साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचयं १३५ 
गीतिकाव्य के तत्त्व एवं रूप 


गीतिकाव्य में कवि की आत्माभिव्यक्ति का प्राधान्य होता है, संगीतात्मकता 


रहती है, इसीलिए वह गीत या गीति कहलाता है । ये गीत या गीति प्रायः दो प्रकार 
होते हैं न्य 


९ 
() विषयप्रधान गीत 
(६) बिषयीप्रधान गीत 
अंग्रेजी साहित्य के 'लिरिक' के अनुकरण पर हिन्दी में भी विविध प्रकार के 
गीतों की सर्जना हुई । इनमें ये छः प्रकार के गीत प्रमुख हैं-- 
१) सम्बोधि गीत--पन्त की 'छाया' कविता । 
२ 


( 

(२) 

(३) मुत्त 

(४) चतुष्पदी--प्रभाकर माचवे की "नारी के प्रति! । 
(५) 

( 


६) लोकगीत--प्रगतिवादी गीत । 
गीतिकाव्य के प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं-- 
_(१) विषयी की या कवि की आत्माभिव्यक्ति की प्रधानता । 
(२) गेयता, संगीतात्मकता अथवा लयात्मकता । 
(३) रागात्मक अथवा भावात्मक अनुभूति की तीव्रता । 
(४) प्रवाहमयता । - 
(५) सौन्दयंमयी सुकोमल कल्पना । 
(६) आकार की संक्षिप्तता तथा 
(७) कोमलकान्त सरल पदावली का प्रयोग । 


महादेवी वर्मा ने गीतिकाव्य को सुख-दुख की भावावेशमयी अवस्था की तीव्र 
संकल्पात्मक अभिव्यक्ति माना है जो अपनी तीव्रता में लयात्मक या संगीतात्मक 
होती है । _ 


हिन्दी में विविध प्रकार के मुक्तक-काव्य 
डॉ० शम्भूनार्थासह ने हिन्दी-साहित्य की मुक्तक परम्परा का अध्ययन करके 
उसके विविध प्रकारों का वेज्ञानिक वर्गीकरण इस प्रकार किया है । 
१. संख्याश्चित मुक्तक काव्य--यथा सतसई, शतक, बावनी, पचासा 
आदि । 
२. वर्णमालाश्रित मुक्तक काव्य--इसमें प्रत्येक पंक्ति वणंमाला के अक्षर से 
प्रारम्भ होती है, जैसे ककक संज्ञक--ककहरा, अखरावट, बारहखड़ी 
आदि । ये चमत्कारी मुक्तक काव्य हैं । 


१३६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदर्शिका 


३. छन्दाथित मुक्तक काव्य--लोकप्रिय छुन्दों के आधार पर मुक्तक काव्य 
की प्राचीन परम्परा है--'दोहावली', 'कविता (कवित्त) वली' आदि । 

४, रागाश्ित मुक्तक काऽ्य--लोकप्रचलित गीतों की लय पर मुक्तक काव्य- 
रूपों का विकास हुआ, यथा--रास, लावनी, रेखता । 

५, ऋतु उत्सवादि पर आश्रित मुक्तक काव्य--यथा चर्चेरी, फागु, होरी, 
बारहमासा आदि । 

६. पूजा धमं पर आशित मुक्तक काव्य--स्तोत्र, आरती, स्तुति, स्तवन 
आदि । 


नाटक के तत्त्व 


संस्कृत के आचार्यो ने काव्य के दो रूप माने हैं-- 

(|) हृश्यकाव्य या नाटक या रूपक । 

(7) श्रव्य काव्य या महाकाव्य भौर गीतिकाव्य आदि । 

दृश्यकाव्य या रूपक या नाटक को आचार्यो ने महत्त्व देते हुए लिखा है 
-काब्येषु नाटकं रम्यम्‌' क्योंकि नाटक में प्रभावोत्पादक शक्ति अधिक होती है । उसका 
अभिनय रंगमंच पर होता है और बहुत से ऐसे भाव, जिनको शब्दों के द्वारा रूप नहीं 
दिया जा सकता, अभिनेताओं की भावभंगी से मृतिमान हो उठते हैं । 

भारतीय (संस्कृत) नाट्यशास्त्र के अनुसार नाटक के निम्नलिखित चार तत्त्व 
माने गए हैं-- 

(१) वस्तु--कथानक । 

(२) नेता--पात्र और उनका चरित्र-चित्रण । 

(३) रस--उद्देश्य। । , 

(४) अभिनेयता । _ 

पाश्चात्य नाट्यशास्त्र के अनुसार नाटक के निम्नलिखित छः तत्त्व माने 
गए! हैँ 

१--कथवास्तु | 

२--पात्र और उनका चरित्र-चित्रण्‌ । 

३--संवाद। 

४--देशकाल और वातावरण । 

५--उहोश्य॥ __ 

६--शेली। 

पोर्वात्य धारणा के अनुसार नाटक सुखान्त ही होना चाहिए । पाश्‍चात्य 
धारणा सुखान्त और दुखान्त दोनों प्रकार के नाटकों को मानती है । 


नाटक की कथावस्तु में अवस्थाएं, अ्थंप्रकृतियां और सन्धियाँ 
त्ताटक की कथावस्तु सुसंगठित हो, ऐसा विचार करके प्राचीन आचार्यो ने 


छः | 


साहित्यालोचन या काग्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय १३७ 


इसकी सुव्यवस्था के विधान प्रस्तुत किए हैं ! उन्होंने कार्य की हृष्टि से कथावस्तु की 
पाँच अवस्थाएँ निरूपित की हैं. 

() आरम्भ, (४) प्रयत्न, () आप्त्याशा (४) नियताप्ति और (४) 
फलागम। . ; ठ 

_ नोटक की कथावस्तु के वे चमत्कारपूणं अंग जो कथानक को प्रधान फल की 
प्राप्ति की ओर अग्रसर करते हैं, अर्थप्रकृति कहलाते हैं। यह अथंप्रकृति वस्तुविव्यास 
से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है । इसके पांच भाग इस प्रकार हैं-- 

() बीज, () बिन्दु, () पताका (४) प्रकरी और (४) कार्य । 

उपयु क्त पाँचों कार्यावस्थाओ तथा अर्थप्रकृतियो के योग से विस्तारी कथानक 
के पाँच अंश हो जाते हैं। डॉ० श्यामसुन्दरदास के झाब्दों में "एक ही प्रधान प्रयोजन 
के साधक उन कथानकों का मध्यवर्ती किसी एक प्रयोजन के साथ सम्बन्ध होने को 
सन्धि कहते हैं ।' इस प्रकार अथंप्रकृति और अवस्थाओ के मेल से सन्धि बनती ठे । 
इसके पाँच भेद होते हैं 

() मुख सन्धि, (7) प्रतिमुख सन्धि, (7) गर्भ सन्धि (४) विमं सम्धि 
और (४) निर्वहण सन्धि । 
कहानी के तत्त्वों का निरूपण 

कहानीकारों एवं समीक्षकों ने कहानी के छः तत्त्व बताए हैं 

१---कथावस्तु, २-- चरित्र-चित्रण, ३--संवाद या कथोपकथन, ४-- देशकाल 
मर वातावरण, ५--वर्णन झली तथा ६--उद्देश्य । 

१--कहानी में किसी न किसी कथानक को लेकर उसका क्रमिक विकास 
करते हूँ । कथानक दो प्रकार का होता है--() स्थूल और (7) सूक्ष्म । घटना 
प्रधान कहानियों में स्थूल कथानक की प्रधानता रहती है । इसमें लेखक चरित्र, 
वातावरण, भाव या विचार की उपेक्षाकर केवल घटनाओं द्वारा ही चमत्कार अथवा 
कौतूहल की सृष्टि करता है । कथानक के क्रमिक विकास की पाँच अवस्थाएँ ये हैं-- 
प्रारम्भ, आरोह, चरम स्थिति, अवरोह तथा उपसंहार (उद्देश्य की पूर्ति) 

२ पात्र और उनका चरित्र-चित्रण- कहानी में पात्र थोड़े रहते हैं । कहानी 
में थोड़े और प्रभावशाली पात्र रखे जाते हैं। उनके निर्माण एवं चरित्र-चित्रण में 
लेखक अपने जीवन और संसार सम्बन्धी ज्ञान एवं अनुभव तथा मनोवैज्ञानिक 
विश्लेषण प्रस्तुत करता है । पाठक के हृदय में कहानी के पात्रों के प्रति सहानुभूति 
का उदय होता ही उनके चित्रण की सफलता का प्रमाण है । घटना प्रधान कहानी 
में भी मानव और उसका चरित्र रहता ही है, चरित्रप्रधान कहानियों में तो इसी 
की प्रधातता सर्वोपरि रहती है। कहानी में संक्षिप्तता के कारण किसी पात्र के 
सम्पूर्ण जीवन को नहीं, उसके जीवन के अंश को केन्द्र बनाकर मामिकता से प्रस्तुत 


करते हैं । पात्रों के चरित्र चित्रण की चार पद्धतियाँ हैं--() वर्णन पद्धति () संकेत 


पद्धति (7) कथोपकथन पद्धति (¡४) घटना पद्धति । 


१३८ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


पात्रो का चरित्र विश्लेषण तीन प्रकार से किया जाता है-- 

१--तिरपेक्ष विशलेषण--अन्य पुरुष द्वारा । 

२--आत्म विश्लेषण--स्वयं पात्र द्वारा अपना विश्लेषण । 

३--मानसिक ऊहापोह द्वारा विष्लेषण । 

३--कथोपकथन या सम्वाद तस्थ-यह कहानी का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है 
जिसके द्वारा पात्रों के चरित्र-चित्रण में सहायता मिलती है, साथ ही कहानी की 
रोचकता एवं सजीवता बढ़ जाती है । यद्यपि यह नाटक का प्राणतत्त्व है, फिर भी 
कहानी में सम्वाद तत्त्व आवश्यक अङ्ग के रूप में स्वीकार किया गया है--“इससे 
कहानी में आकर्षण, सजीवता और पाठकों को जिज्ञासा वृत्ति को प्रेरणा मिलती है । 
कहानी के विकास में यह उस कलात्मक श्यृंखला का काये करता है जो एक घटना 
का कहानी की अन्य आगे आने वाली घटनाओं से हमारा तादात्म्य जोड़ती रहती 
है/--डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल । 

कहानी में संक्षिप्त, गतिशील, भावोद्बोधक एवं क्रियोत्तोजक सम्वाद उपयुक्त 
रहते हैं । 

४ देश काल ओर बातावरण--इसे संक्षेप में वातावरण कहते हैं । इसी 
के परिप्रेक्ष्य में सम्पूर्ण घटनाओं का औचित्य एवं अनीचित्य देखा जाता है, अतः 
कहानीकार वातावरण चित्रण में संक्षिप्तता के साथ ही अपने विशद ज्ञान एवं उर्वर 
कल्पना से उचित वातावरण प्रस्तुत करते हैं। यह वातावरण दो प्रकार का होता 
है-() भौतिक तथा (४) मानसिक । 

५ वर्णन शेली--शैली का सम्बन्ध कहानी के सम्पूर्णं तत्त्वों से रहता है। 
कहानी में संक्षिप्तता उसका प्राण है, इसके विधान में शैली ही समर्थ है । कहानी की 
शैली संक्षिप्त, व्यंजनाप्रधान, . संकेतात्मक होती है । इसके दो पक्ष हैं--भाषापक्ष 
एवं रूप विधान । भाषा शुद्ध संस्कृतगर्भित (प्रसादजी की), जनभाषा या व्यावहारिक 
भाषा (प्रेमचन्दजी की), लाक्षणिक एवं प्रतीकात्मक भाषा (उग्रजी की) और गम्भीर 
साहित्यिक भाषा (जतेन्द्रजी की) होती है । 

रूप विधान की दृष्टि से कहानी के छः प्रकार हैं-आत्मचरितात्मक, वर्णना- 
त्मक, पत्रात्मक, संवादात्मक, डायरी-रूपात्मक और मिश्रित रूपात्मक । 

६--उद्देश्य--कहानी का कोई न कोई उद्देश्य होता है । उसका उद्देश्य 
केवल मनोरंजन नहीं होता । प्रेमचन्दजो ने कहानी का उद्देश्य मनोरंजन और मान- 
सिक तृप्ति प्रदान करना माना है । 
सफल और श्रेष्ठ कहानी की कसोटी 

यह्‌ प्रश्‍न बड़ा टेढ़ा हे । कहानी वही सफल कही जा सकती है जिसमें प्रभाव 
साम्य हो । किसी भी कलाकृति की कसौटी प्रभाव साम्य है। कहानी गद्य की एक 
बिशिष्ट विधा है ओर संक्षिप्ता या उद्देश्य उसके अनिवार्य तत्त्व हूँ । जिस कहानी 





साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय १३९ 


में संक्षिप्तता का पूर्ण निर्वाह किया जाता है और कोई निश्चित उद्देश्य होता है, वही 
कहानी प्रभाव साम्य उत्पन्न करने में समर्थ होती है । संक्षिप्तता कहानी के सभी तत्त्वो 
में समात रूप से रहनी चाहिए । 
कहानी की सफलता की दूसरी कसौटी वह मनोवैज्ञानिक सत्य है जिसमें 
लेखक का जीवन और जगत के प्रति संवेदनात्मक दृष्टिकोण ऋलकता है । कहानी में 
पात्र का चरित्र-चित्रण उद्देश्य के अनुरूप संक्षिप्त रहता है किन्तु जितना भी रहता है 
ह मामिक तथा मनोवेज्ञानिक होना चाहिये । 
प्रभाव और स्वाभाविकता कहानी के प्रधान गुण हैं और प्रभाव की एकता 
के लिए पाठक में पात्रों के प्रति संवेदना एवं सहानुभूति उत्पन्न करना आवश्यक है 
कहानी में एक संक्षिप्त घटना या संवेदना को ही आकर्षक रूप में कलात्मक ढ्ज़्से 
प्रस्तुत किया जाता है । डा० रामरतन भटनागर के शब्दों में 'प्रभाव की एकता के 
लिए यह आवश्यक है कि कहानी किसी एक विशिष्ट दृष्टिकोण, परिस्थिति या 
उद्देश्य को लेकर चले और उसी विशेष दृष्टिकोण, परिस्थिति या उद्देश्य को लेकर 
समाप्त हो जाय । गुलेरीजी की 'उसने कहा या? एक श्रेष्ठ कहानी है जिसका शीर्षक 
बड़ा ही मासिक एवं प्रभावोत्पादक है । 
कहानी और उपन्यास का अन्तर 
कहानी उपन्यास का लघु संस्करण नहों है। कहानी और उपन्यास के 
आकार को उन दोनों में भेदक मानकर ही यह कहा जाता है कि कहानी लघु संस्क रण, 
है और उपन्यास 'बृहद्‌ संस्करण” । वस्तुतः दोनों नितान्त एवं स्वतन्त्र साहित्यिक 
रचनाएँ हैं । इन विधाओं का साहित्य में स्वतन्त्र रूप से विकास हुआ है । 
कहानी और उपन्यास में आकार भेदक तत्त्व नहीं है। इनमें विषय-वस्तु, 
रचना-विधान, शेली और उद्देश्य भेदक तत्त्व हैं । 
__संझ्षिप्तता एवं उद्देश्य कहानी के दो अनिवार्य तत्त्व हे और इन्हीं के अनुरूप 
अन्य तत्त्व (पात्र एवं चरित्र-चित्रण, संवाद, वातावरण आदि) ढाल लिए जाते हैं । 
_ उपन्यास में समग्रता एवं विविधता अनिवार्य है । इसी के अनुरूप उसके अन्य 
तत्त्व होते 
यों कहानी और उपन्यास के तत्त्व समान हैं--कथानक, चंरित्र-चित्रण 
संवाद, वातावरण, शेली और उद्द श्य- किन्तु इन तत्त्वों की संघटना में बहुत अन्तर 
है । कहानी में एक सूक्ष्म संवेदना को लेकर कहानीकार तीव्र गति से उद्देश्य की ओर 


बढ्ता है, परिसमाप्ति ही उसका लक्ष्य हे । उपन्यास में अनेक स्थूल संवेदनाओं को 


अनेक सूक्ष्म संवेदनाओ में विभक्तकर उपन्यासकार धीमी गति से चलता है, अनेक 
घटनाओं की अवतारण करता हुआ कहीं सुलकाता और कहीं उलमाता है । 
` _ संक्षिप्तता कहानी का प्राण है तो व्यापकता उपन्यास का । यह बात सभी 


तत्त्वों में लागु होतो हे । शेली में संक्षिप्त या लक्षणा प्रधान या ध्वनियुक्त और विशद 





49) मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


कथात्मक होती है । प्रेमचम्द के शब्दों में हम कहानी ऐसी चाहते हैं कि वह थोड़े 
शब्दों में कही जा सके । उसमें एक वाक्य, एक शब्द भी अनावश्यक न आने पाये । 
उसका पहला ही वावय मन को आकषित कर ले और अस्त तक मुग्ध किए रहे । 

डॉ० जगन्नाथ शर्मा के शब्दो में 'उपन्यास जीवन के विविधक्षेत्रों की झाँकी 
देकर सारै रहस्यों और वस्तुस्थितियों से परिचित कराकर हमारे भीतर एक पूर्ण 
विधायक सन्तुष्टि उत्पन्न कर देता है.।' 

सारांश यह है कि कहानी और उपन्यास गद्य साहित्य की दो स्वतन्त्र विधाएँ 

हैं, जितका जन्म भिन्न लक्ष्य एवं उद्देश्य से हुआ हैं, जिनके प्राण तत्वों में भिन्नता 
है। आकार की दृष्टि से इन दोनों विधाओं का एक दूसरे को संक्षिप्त एवं बृहद्‌ 
संस्करण कहना उचित नहीं है । 

कहानी और निबन्ध 

कहानी और निबन्ध गद्य की दो भिन्न विधाएँ हैं । इनमें साम्य और वैषम्य 

संक्षेप में इसप्रकार है-- 

१. कहानी और निवन्ध में विषय की दृष्टि से अन्तर कम प्रतीत होता है 
क्योंकि दोनों ही जीवन की किसी घटना या विचार को लेकर 
चलते हैं । 

२. निबन्ध में निबन्धकार प्रमुख होता है, कहानी में कहानीकार पात्रों-के 
द्वारा अपने भाव व्यक्त करता है। | 

३. कथानक के अभाव में कहानी साकार नहीं हो पाती, निबन्ध में विचारों 
का प्राधान्य होता है । 

४, कहानी का उद्देश्य मनोरंजन के साथ रुचि परिष्कार एवं सद्वृत्तियों 
को जागृत करना है, निबन्ध में इसके साथ ही ज्ञानवद्धन है । 

५. कहानी के तत्त्व चरित्र, सम्वाद, वातावरण, वर्णन, घटना आदि हैं, 
निबन्धकार को निबन्ध में इन तत्त्वों की संयोजना नहीं करनी 
पड़ती । निबन्ध में केवल विचारों को श्टुंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत 
करना होता है । i काया 


कहानी और रेखाचित्र में अन्तर 
जैनेन्द्रकुमार के अनुसार यदि रेखाचित्र में एक पहलू होता है तो कहानी में 


दो, और अंगर रेखाचित्र में दो मानिए तो कहानी में तीन, यानी अगर रेखाचित्र भै 
केवल लम्बाई ही है तो कहानी में लम्बाई के अतिरिक्त चौड़ाई भी होती है।” डॉ० 





लक्ष्मीनारायण लाल के अनुसार कहानी की परिधि में रेखाचित्र भी आ जाता है। 
रेखाचित्रः की प्रमुख विशेषता चरित्र की प्रधानता तथा घटना के उतार चढाव का 
अभाव अब आधुनिक कहानियों में भी मिलने लगा है । संक्षेप में रेखाचित्र कहानी 
` का एक खंण्डचित्र होता है । 


| 
| 
| 
| 
| 
| 
| 
] 





साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय १४१ 


कहानी और रेखचित्र स्वतन्त्र एवं पृथक विधाएं हैं। उनके अन्तर को हम 
इसप्रकार समक सकते हैं-- 


१ 


कहानी में कल्पना की प्रधानता या जीवन की कोई माभिक घटना 
| संवेदना, विचार आदि होता है । रेखाचित्र तो यथार्थ के आधार पर 
करती है, आधार क 
कहानी में क्षिप्रता एवं गति होती है, रेखाचित्र में स्थिरता और 
ठहराव । कि 
कहानी में सामाजिक भाव रहता है, रेखाचित्र में वेयक्तिक अभिरुचि 
एवं प्रभाव अंकन होता है ।_ | ल्न, 
कहानी और रेखाचित्र दोनों में वस्तु, व्यक्ति या दृश्य को केन्द्र बनाते 


हँ. । कहानी में वस्तु, व्यक्ति या पात्र का अंशरूप चित्रित होता है तो 
रेखाचित्र में पात्र के चरित्र की सम्पूर्ण बाह्य रेखाएं समग्र रूप प्रस्तुत 
करती हैं । 

कहानी के विभिन्न उद्देश्य होते हैं, उसमें रसात्मकता का प्राधान्य 
रहता है। रेखाचित्र का लक्ष्य चरित्र का शब्द की रेखा से चित्र 
प्रस्तुत करते हुए चारित्रिक विशेषताओं पर ही बल दिया जाता है, 


अतः उसमें सांकेतिकता का प्राधान्य होता है, रसात्मकला का नहीं। 


| ही साकार होता है, उसमें कल्पना तो साहश्य के रूप में अलंकरण 





नाटक और उपन्यास 


संस्कृत के आचार्यों ने नाटक को 'इश्य-काव्य' की संज्ञा दी है। उपन्यास 
इसके विपरीत श्वव्य या पाठ्य काव्य' है । ये दोनों विधाए अपने शिल्प विधान की 


दृष्टिसे भी 


नितान्त भिन्न हैं। संक्षेप में इनके भेदक तत्त्वों का निरूपण इस प्रकार 


कर सकते हैं-- 


१. 


नाटक अभिनेय रचना है, अतः नाटककार रंगमंच के प्रतिबन्धो से 
प्रतिबन्धित र उपन्यास पूर्णतया स्वतन्त्र पाठ्य रचना है । 
नाटक में लेखक स्वयं कुछ नहीं कहता, पात्रो के मुख से बोलता है 
उपन्यास में लेखक स्वयं भी बहुत कुछ कहता है और पात्रों के चरित्र 
तथा घटनाओं पर अपने विचार व्यक्त करताहै। | 
कथावस्तु के क्षेत्र में नाटककार को सामाजिकों का घ्यान रखना पड़ता 
है। नाटक की कथावस्तु दो भागों में विभक्त होती है--हृश्य तथा 
सूच्य । उपन्यासकार को इन प्रतिबन्धों का सामना नहीं करना 
पड़ता । 

चरित्र चित्रण के क्षेत्र में भी नाटककार को संकोच-वृत्ति से काम लेना 
पड़ता है । उसे थोड़े से दृश्यों एवं संवादों के द्वारा ही चरित्र चित्रण 


१४२ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


करना पडता है । उपन्यासकार अपने पात्रों के चरित्र का विस्तार भी 
कर सकता है । उपन्यासों में संवाद तत्त्व सजीवता का विधायक है । 

५, देशकाल और वातावरण में नाटककार और उपन्यासकार को समान 
रूप से सजग रहना पड़ता है । केवल इतना ही अन्तर हे कि नाटककार 
को उसे दृश्य रूप में दिखाना होता है और उपन्यासकार उसका वर्णन 
मात्र कर देता है।, 0 

६, उपन्यास तथा नाटक दोनों का लक्ष्य जीवन की विवेचना करना है । 
नाटककार जीवन की व्याख्या समभने का भार दर्शक पर छोड़ देता 
है, उपन्यासकार स्वयं जीवन की विवेचना करता है । 


रेखाचित्र 
रेखाचित्र के दो मूल उपादान हैं--एक तो है वास्तविकता का शब्दों की, 
रेखाओं में सजीव जैसा चित्रण । दूसरे, इस तल्लीनता को प्राप्त करने के लिए 
णित वस्तु या व्यक्ति के प्रति लेखक का घनिष्ठ रागात्मक सम्बन्ध आवश्यक हे । 
क्योंकि व्यक्ति-विशेष की चारित्रिक विशेषताओं के उभार को रेखाचित्र की एक 
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता माना जाता है । रेखाचित्र का लक्ष्य व्यक्ति के चरित्र 
के विभिन्न कोणों को संवेदनात्मक रूप से हमारे सम्मुख प्रस्तुत करना है। इसीलिए 


व्यक्ति से लेखक का आत्मीयता पूर्ण गहरा सम्बन्ध आवश्यक हे । 
रेखाचित्रकार किसी व्यक्ति की चरित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन करने के 


लिए उसकी बाह्य रूपरेखा, वेशभूषा का निरूपण करता है। फिर विभिन्न परिस्थि- 


तियों भें रखकर उसकी मुद्राओं, चेष्टाओं, चाल-ढाल के द्वारा उसकी मनःप्रवृत्तियों 
का विश्लेषण करता है । वह चित्रात्मक शेली का प्रयोग करता है जिसमें भावात्म- 
कता, सांकेतिकता एवं संक्षिप्तता रहती है। इस प्रकार वह पात्र के प्रति पाठकों के 


हृदय में संवेदना जागृत करता है । 

संक्षेत में रेखाचित्र के उपादान ये हैं- 

१. वास्तविक चित्रण--याथातथ्य निरूपण, जिसमें लेखक की कल्पना का 
अभाव रहता है । 

२. लेखक की दृष्टि एक ओर ही केन्द्रित होने के कारण वंविध्य नहीं 
रहता । 

३, लेखक पात्र की चारित्रिक विशेषताओं को उभारकर प्रस्तुत करता है 
ओर उसके प्रति अपनी संवेदना भी । इस प्रकार स्वानुभुत संवेदना के 
द्वारा वह पाठकों की संवेदना जाग्रत करने में समथे होता है। 


४. उसकी शैली चित्रात्मक होती है जिसमें भावात्मकता, सांकेतिकता एवं 


संक्षिप्ता रहती है । रहती है । 











साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय १४३ 


विद्वानों ने हिन्दी रेखाचित्रों में व्यवहृत नौ शलियों का उल्लेख किया है। 
उनके नाम ये हैं (१) कथात्मक शैली (२) निवन्ध शैली (६) तरंग शेली (४) वर्णना- 
त्मक शेली (५) सम्बाद शेली (६) सुक्ति शैली ( 
तथा (९) आत्म-कथात्मक शली। २. 
रेखाचित्र के तत्त्व 


हिन्दी गद्य में रेखाचित्र को एक नवीन विधा ही कहा जाएगा, यों तो शब्दों. 
की रेखाओं में भावों एवं चित्रों को साहित्यकार अनादिकाल से बांधता रहा है किन्तु 
एक विशिष्ट एवं स्वतन्त्र अस्तित्व वाली विधा के रूप में इसका जन्म आधुनिककाल 
में ही हुआ है। 

रेखाचित्र में वर्णन की वास्तविकता या यथार्थता की विश्वसनीयता और 
विषय की अनुभूति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसमें घटनाओं एवं परिस्थितियों का संक्षिप्त 
वर्णन केवल चित्र को उभारने या पाठक की संवेदना को जगाने के लिए ही होता 
है। कहानी या उपन्यास की भाँति वातावरण का विशेष विस्तार रेखाचित्र में अपे- 
क्षित नहीं हैं । 

प्रभाव साम्य या एकात्मकता रेखाचित्र की निजी विशेषता है। उसमें विवि- 
चता का अभाव तथा वर्ष्यं विषय का केन्ट्रीयकरण होता है । इसका विषय एकात्मक-- 
एक व्यक्ति, वस्तु या दृश्य या भाव होता है । 

रेखाचित्र में पात्र के बाह्य एवं आम्यतंर का चित्र खींचा जाता है। उसकी 
मुद्राओं, चेष्टाओं एवं चारित्रिक विशेषताओं का मामिक वर्णन किया जाता है । 

रेखाचित्र की शैली में मामिकता के साथ पैनापद रहता है, संक्षिप्तता-- 
रेखामात्र ही इस विधा के प्राण हैं। क्योंकि रेखाचित्र में एक व्यक्ति या एक वस्तु ही 
उद्दिष्ट रहती है ! 
रेखाचित्र और कहानी 


१. कहानी कल्पित भी हो सकती है और यथार्थ भी किन्तु रेखाचित्र तो 
वास्तविक (यथार्थ) व्यक्ति के चरित्र पर ही आश्रित होता है। 
२. कहानी में गतिशीलता होती है, रेखाचित्र में स्थिरता । 


३. कहानी में सामाजिकता का प्राधान्य होता है, रेखाचित्र वैयक्तिक 





५. कहानी में तीव्रता एवं उद्देश्याभिमुखता का महत्त्वपुर्ण गुण है, वह 


को इस तीब्रता का अभाव रहता है तथा धीरे-धीरे सहज स्वाभाविक 
ढंग से व्यक्ति के चरित्र का उद्घाटन किया जाता है। 


७) डायरी शैलो (८) सम्बोधन शैली 





१४४ मोखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 

६, कहानी का लक्ष्य मनोरंजन, संवेदनशीलता एवं उद्बोधन होता है 
रेखाचित्र का लक्ष्य केवल चरित्र का उद्घाटन । 

७. कहानी एक रसात्मक रचना है, रेखाचित्र में उतनी रसात्मकता नहीं 
होती । 

८, रेखाचित्र में कहानी की अपेक्षा सांकेतिकता का विशेष महत्त्व है । 


गद्यकाव्य के उपादान 
गद्यकाव्य आधुनिक हिन्दी साहित्य की एक स्वतन्त्र विधा है। इस प्रकार 
के गद्य में भावावेग के कारण एक प्रकार का लययुवत झंकार होता है जो 
सहृदय पाठक के चित्त को भावग्रहण के अनुकूल बनाता है। डॉ० गोविन्द 
त्रिगुणायत के अनुसार गद्य काव्य के प्रमुख तत्व संक्षेप में इस प्रकार है, 
काव्य में--- 
१. अभिव्यक्ति का माध्यम गद्य होना चाहिये । 
२. भावना और कल्पना की प्रधानता होनी चाहिये । 
२. रमणीयता और सरसता की पूर्ण प्रतिष्ठा होनी चाहिये । 
४. कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक भाव और चित्रों को स्पष्ट 
करने की क्षमता होनी चाहिये । हर 
५. प्रतीकात्मकता, रूपकात्मकता, अन्योक्तिपरकता और अभिव्यक्ति सम्बन्धी 
विशेषता होनी चाहिये! ||| 


६. भाषा भावपूर्ण, चित्रात्मक और घ्वनिमूलक होनी चाहिये जिससे अभि- 


व्यक्ति में एक विचित्र प्रवेग तथा मामिकता आ जावे । 
७. उसमें किसी प्रकार की कथात्मकता 


की मुक्त निर्वाध अभिव्यक्ति है । 


८. यह विधा उत्तम प्रतिभा से उदूभूत होती है क्योंकि यह सृजनात्मक 


प्रेरणा से प्रकट होती हैं. । 

९. बुद्धि तत्व इसमें नितान्त अप्रधान रहता है। 
कला कला के लिए या जीवन के लिए 

साहित्यालोचन में यह प्रश्‍न गंभीर रूप से विवादास्पद बना हुआ है कि 
“कला कला के लिए' है अथवा कला जीवन के लिए' है। उसकी जीवन के लिए 
उपयोगिता है । प्रेमचन्दजी ने कला को जीवन के लिए मानते हुए लिखा था 'जिस 
साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें 
गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सोन्दयं-प्रेम न जाग्रत हो, जो हममें सच्चा संकल्प 
ओर कठिनाईयों पर विजय पाने की सच्ची हृता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे 
लिए बेकार है; वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं ।' 


हीं पाई जाती । वह एक प्रकार 





FF ST PT शक्कर ०... 


साहित्यालोचन या काव्यशास्त्र का संक्षिप्त परिचय १४५ 


कला कला के लिए' सिद्धान्त का पालन-पोषण फ्रांस में हुआ । वहां से यह 
विचारधारा इ गलेंड पहुँची । आस्कर वाइल्ड ने लिखा है 'काव्य सदाचार अथवा 


दुराचार की प्रतिपादिका कोई पुस्तक नहीं है। जो कुछ है, वह इतना ही है कि कोई 


भारतीय मनीषियों ने काव्य को 'तवरसरुसिरां' “ल्लादैकमयीम' 'अनन्यपर 
तन्त्रताम' और 'कान्तासम्मित' तयोपदेशयुजे' कहकर उपने रससृष्टि घोषित किया है । 
उनके लिए काव्यकला जीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति रही है और हमारी समस्त 
वृत्तियाँ सम्यता की आवश्यकतानुसार जाग्रत होती हैं । तालस्ताय का मत है कि 
“कला समभाव के प्रचार द्वारा विश्व को एक करने का साधन है । कला जीवन की 
सुन्दर अभिव्यक्ति है । 

मम्मट ने काव्यप्रकाश में काव्यकला के प्रयोजनों का _निरूपण करते हुए 
बट sO UTES] 
कज | काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । 
॥ सद्यः परनिवृत्तये कान्तासम्मित तयोपदेशयुजे ॥ 

अर्थात्‌ काव्य की रचना एवं भावना यशको प्राप्ति के लिए, धन-सम्पत्ति 
के अर्जन के लिए, लोकव्यवहार के ज्ञान के लिए, त्रिविध ताप संताप के निवारण 
के लिए, काव्यानुशीलन के साथ ही साथ अलौकिक आनन्द के लाभ के लिए और 
इसप्रकार के उपदेश के लिए की जाती हे, जो कान्ता के हारा प्रियतम को दिया 
गया हो ।' 


इसप्रकार काव्यकला का प्रयोजन कला नहीं हो सकता, कला स्पष्ट ही 


भारतीय आचार्यो की दृष्टि में जीवन को उन्नत करने का एक महान्‌ साधन रही है । 


१० 


हरू 
पाश्चात्य समोक्षा-सिद्धान्त 


प्लेटो के काव्य सिद्धान्त--अनुकरण सिद्धान्त 


यूनानी दाशंनिक प्लेटो ने अपने युग की ऐन्द्रिय आनन्दवाली कविता में 
सुधार करने का प्रयत्न किया । प्लेटो ने मूल सत्य का कर्ता ईश्वर को माना, उसके 
सत्य को अनुकृति यह सृष्टि है और इसका अनुसरण काव्य । अतः काव्य सत्य सें दूर 
भी है और अनुकरण के सिद्धान्तानुसार समीप भी । > का 

प्लेटो ने अनुकरण के सिद्धान्त को एक दाशंनिक की भाँति अज्ञानताजन्य 
माना, अतः कविता भी उन्हें अज्ञान से उत्पन्न तथा सत्य से दूर ज्ञात होती है । प्लेटो 
का मत था कि कवि यश एवं अर्थप्राप्ति के लिए पाठकों को वासनोत्तेजक सामग्री 
देता है, आत्मा के सत्य का उद्भावन नहीं करता । 


का सच्चा चित्र इस प्रकार प्रस्तुत करे कि उससे मानव स्वभाव में जो कुछ भी महान्‌ 
है, उसका समर्थन हो । प्लेटो ने काव्य में शिवम्‌ पर बल दिया, सुन्दरमु को 
भुला दिया। वे नीतिवादी बन बैठे क्योंकि उनके युग की कविता उच्छुङ्कलता की 
पोषक थी । _ 











अरस्तू का काव्यसत्य 
अरस्तु का निश्चित विचार था कि काव्य मानव-जीवन तथा जीवन के 
शाइवत एवं सावंभोम तत्त्व की अभिव्यक्ति करता है। उन्होंने लिखा है, 'कवि का 
१४६ 





Sennen 


i a Rane mars 


पाइचात्य समीक्षा-सिद्धान्त १४७ 


कमं, जो कुछ हो चुका है, उसका वर्णन करना नहीं है, वरन्‌ जो कुछ हो सकता है 
या आवश्यकता के नियम के अधीन सम्भव है, उसका वर्णन करना है। अरस्तु ने 
सत्य के दो रूप बताए हैं--- 

(१) व्यापक और सार्वभौम सत्य और 

(२) सीमित एवं विशेष सत्य । 

जो घटित हो चुका वह देशकाल की सीमा में आबद्ध होकर सीमित और 

विशेष सत्य बन गया है । जो सम्भाव्य है वह देश-काल की सीमा से रहित सावंभौम 
सत्य है । काव्य-सत्य भी वस्तु-सत्य की अपेक्षा अधिक महान्‌ होता है! 

डॉ० नगेन्द्र ने अरस्तु के काव्यसत्य के सम्बन्ध में ये सात निष्कर्ष प्रस्तुत 

किए हैं-- 

१. काव्यसत्य वस्तुसत्य या तथ्य का पर्याय नहीं है । 

२. जो हो चुका है, हो रहा है या होता है, वही सत्य नहीं है, वरन्‌ जो हो 
सकता है, जो नवीन विधान के अनुसार सम्भाव्य है, वह भी 
सत्य है! 

३. वस्तु जगत्‌ का यथार्थ ही सत्य नहीं है, मानव आदर्श, मानव-विइवास 
तथा परम्परागत मानव घारणाएं भी सत्य हैं । 

४. वस्तु-जगत्‌ में जो असम्भव, असंगत है वह भी किसी सुन्दर उद्देश्य की 
प्रेरणा से काब्यसत्य की परिधि में आ जाता है । 

५. काव्य का सत्य देशकाल की सीमा से मुक्त होने के कारण वस्तु सत्य 
की अपेक्षा भव्यतर होता है । 

६. पर यह सत्य अमूर्त विचाररूप नहीं होता--इसकी अभिव्यक्ति का 
माध्यम भूतं और निश्चित होता है। आकस्मिक घटनाएँ इसमें 
निषिद्ध हैँ । 

७. काव्य का सत्य निरंकुश नहीं होता, उस पर विवेक का अंकुश 
होता है । 

पाइचात्य आचार्यो हारा निरूपित काव्य का लक्षण एबं तत्त्व 

अरस्तु के अनुसार काव्य दह रचना है जिसमें अनुकरण, सांमजस्य, लय 

और छन्द के माध्यम से विशिष्ट प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति की गई हो । 


डॉ० जानसन--'काव्य वह छन्दोबद्ध रचना है जो कल्पना तथा तकं के 
सहयोग से आनन्द और सत्य का समन्वय करती है ।' 


रस्किन--श्रेष्ठ भावों के लिए श्रेष्ठ आधारों की कल्पना के द्वारा व्यञ्जना 
करना काव्य है ।' 

पाश्चात्य आचार्यो ने काव्य के चार तत्त्व माने हैं-- 

(१) भावतस्व--यह काव्य में सर्वाधिक ब्यापक एवे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। 


१४८ मौखिक-परोक्षा पथप्रदशिका 


यह कविता का प्राण है । भावप्रधान कविता ही श्रेष्ठ कविता होती है । अतः काव्य 
में भावतत्त्व की प्रधानता रहती है । 

(२) कल्पना तत्व--यह एक ऐसी शक्ति है जो निराकार को साकार करके 
उससे हमारा साक्षात्कार करा देती है । कल्पना विविध दृश्यों को, निराकार वस्तुओं 
और भावों को आकार देती है तथ्य को चित्रमय बनाती है तथा चरित्र या पात्र के 
व्यक्तित्व को साक्षात करती है । काव्य में हमें सत्य का हृइ्यों, पात्रों, घटनाओं, रूपों 
आदि के द्वारा साक्षात्कार कल्पना के द्वारा होने से यह महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। कल्पना 
की सामर्थ्यं ही कवि की सच्ची प्रतिभा की परिचायक है । 

(३) बुद्धितत्व--काव्य में बुद्धि भावना की आधारभूमि प्रस्तुत करती है, 
वह कल्पना को भी नियन्त्रित करती है । काव्य में बुद्धि भावना की अनुगामिनी भृत्या 
फे रूप में आती है। 

(४) झली तत्त्व--इसे काव्य का कलापक्ष कहते हैं। यह भावानुसारिणी 
हो तो उत्तम हे । यह विचारों का परिधान हे । इसके दो रूप हैं--शब्द तत्त्व और 
अथे-तत्त्व । शैली का आकर्षक एवं प्रवाहपूर्ण होना आवश्यक है तभी वह पाठकों को 
आकर्षित कर सकेगी । 

काव्य में इन चारों तत्त्वों का सुन्दर संयोग रहता है । 
पाइचात्य आचार्यो हारा महाकाव्यों का वर्गीकरण 

अरस्तु ने महाकाव्यों का वर्गीकरण सरल, जटिल, नेतिक और करुण चार 
प्रकार में किया किन्तु यह मान्य नहीं हुआ । कुछ अन्य विद्वानों ने रस के आधार पर 
महाकाव्यों का वर्गीकरण किया, कुछ ने उद्देश्य के आधार पर । किन्तु ये वर्गीकरण 
मान्य नहीं हुए । 

महाकाव्यों का वर्गीकरण समय (रचना-समय) के आधार पर किया गया-- 

() विकसनशील महाकाव्य (६? 0 G7०७।॥)-यह अनेक व्यक्तियों 
की रचना होती है। विभिन्न समयों में विभिन्न व्यक्तियों की रचना विकसनशील 
महाकाव्य है यथा 'इलियड' तथा 'ओडेसी' | इनमें कवि अपने युग की वीर भावनाओं 
को किसी इतिहासप्रसिद्ध वीर-पान्न के माध्यम से प्रस्तुत करता है। इस प्रकार 
विभिन्न कवि उसमें अपने युग की भावनाएं जोडते जाते हैं। हिन्दी में आल्हा-ऊदल- 
काव्य का विकास भी युगों में हुआ हे । 

(7) साहित्यिक महाकाव्य (लघ ॥7।०)--ये एक व्यक्ति द्वारा एक 
निश्चित समय की रचना हैं। इसमें काव्य के भाव एवं कलापक्ष पर विशेष ध्यान 
दिया जाता है । कवि अपनी बहुज्ञता तथा पांडित्य प्रदर्शन करता है। 

विषय के आधार पर महाकाव्यों के छः प्रकार हैं-- 

(१) ऐतिहासिक महाकाव्य (२) धामिक तथा नैतिक महाकाव्य (३) शास्त्रीय 
महाकाव्य (४) प्रतीकात्मक महाकाव्य (५) रोमांचक महाकाव्य (६) मनोवैज्ञानिक 
महाकाव्य । 





ह समौक्षा-सिद्धान्त 


१४९ 
स्वच्छन्दता बाद (Romanticism) 


सुमित्रानन्दन पन्त ने आधुनिक हिन्दी कविता की छायावादी धारा को 
पाइचात्य या अंग्रेजी साहित्य के रोमांटिसिज्म (स्वच्छन्दतावाद) का हिन्दी रूपान्तर 
कहा हे । अंग्रेजी साहित्य में १८ वीं शती के अन्तिम दशक तथा १९ वीं शती के 
प्रारम्भकाल में नव्यक्षास्त्रवाद के द्वारा जकडे हुए काव्य नियमों के प्रति विद्रोह हुआ 
और स्वच्छन्दतावाद का आन्दोलन चल निकला । इसका उद्भव तत्कालीन परि- 


स्थितियों का स्वाभाविक परिणाम था । नब्यशास्त्र की प्रतिक्रिया में इसका जन 
आ । 


अंग्रेजी काव्य में स्वच्छन्दतावाद की प्रमुख प्रवत्तियो का वि इलेंषण विद्वानों ने 
निम्नलिखित शीर्षको के अन्तर्गत किया है 


१. विद्रोह की भावना--भाषा-शैली और विषय दोनो क्षेत्रों में स्वच्छन्दता- 
वाद विद्रोह या प्रतिक्रिया प्रकट करता है । 

२. कृत्रिमता से मुरि 
अलंकरण की प्रवृत्ति को छोड़ सरलता, सहजता तथा प्रकृति की ओर 
आने का आग्रह किया । 

३. कल्पनाप्रवणता का प्राधान्य और प्रकृति के रम्य हश्यों के प्रति 
आकर्षण । वह प्रकृति की सत्ता में ईश्वरीय सत्ता की कलक देखने 


लगा । 


४. कल्पना या स्वप्नलोक में पलायन की प्रवृत्ति और यथार्थ जगत की 
कठोरताओं के प्रति अचि । 








*. अदभुत एवं आइचयं के प्रति मोह, अतः संकेतात्मकता एवं अतिमानवीय 


वातावरण का सुजन हुआ! 


६. स्वच्छन्दतावादी कवि व्यक्तिनिष्ठ है, समाजनिष्ठ नहीं । वह काव्य 
के माध्यम से आत्माभिव्यक्ति करता है । 
७. वेदना की विवृत्ति- स्वच्छन्दतावादी कवि अपने को संघर्ष से थका 


विषादमय मानता है, वह काल्पनिक विषाद में डूब जाता है। वह 
अपनी वेदना, व्यथा, कुण्ठा, उदासी निराशा आदि का चित्रण करता है 


८. सौन्दर्यं भावना का प्राचुयं--सृष्टि मे सवंत्र सौन्दर्य है । कवि काल्पनिक 


सौन्दर्य से अपनी अतृप्त आंकाक्षाओं की तृप्ति करता है । 
६. प्रकृति प्रेम--रोमांटिक कवियों का प्रकृति से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है । 

















वादी कविता वयक्तिक अनुभूतियों से सम्बन्धित है, अतः सहज ही उसमें 
गेयता आ गयी हे । वैयक्तिक अनभतियो का प्रकाल ह अनुभूतियो का प्रकाशन स्वच्छन्दतावाद 


का गौरव भी है और न्यूनता भी क्योंकि इसमें लोकमंगलकी प्रत्यक्ष 
भावना नहीं है । इसमें लोकहृष्टि का एक प्रकार से अभाव है. नहीं है । इसमें लोकहृष्टि का एक प्रकार से अभाव है 





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६५० मौखिक-परीक्षा पदप्रदशिकाँ 
शोकगीति या ए लिजी 
अंग्रेजी साहित्य में ऐलिजी या शोकगीतियाँ बहुतायत से मिलती है, उन्हीं के 

अनुकरण पर संस्कृत तथा हिन्दी में भी शोकगीतियाँ बनीं । संस्कृत में बी० एन० 

दातार ने पं० नेहरू की मृत्यु पर एक शोक गीत लिखा । हिन्दी में निराला का 

सरोज स्मृति’ शीर्षक एक उत्तम शोकगीत है । शोकगीति की रचना-- 

(¡) किसी मृत व्यक्ति के संबंध में की जाती है। 

(४) कवि उस मृत व्यक्ति के महत्त्व का वर्णन करते हुए उसकी मृत्यु 
पर शोक प्रकट करता हैं । 

(7) इसमें स्वाभाविकता रहती है वरना शोकगीति का गंभीर वातावरण 
हास्यास्पद बन जावे और वह प्रभावहीन हो जाए । 


शोकगीत कई प्रकार के होते हैं--- 

१. एक व्यक्ति के मृत के प्रति शोक को व्यक्त करने वाले शोकगीत । 

२. सम्पूर्ण समाज का मृत के प्रतिशोक व्यक्त करने वाला गीत । 

३. किसी नगर या भवन के विध्वंस पर जन-मानस का दुःख वर्णन करने 

वाला करुण गीत, विध्वंस-विषादमयगीत । 

४. किसी मृत व्यक्ति के गुण-वर्णन करने वाला शोकगीत । 

ग्रीक काव्य में पेस्टोरल एंलिजी भी होती है जिसमें मृत व्यक्ति के प्रति 
आलंकारिक या चामत्कारिक ढंग से शोकव्यक्त करते हें । कवि अपने को गोप मानता 
है और मृत मित्र को भी गोप मानकर गोपों के स्वच्छन्द जीवन का चित्रण करते 
हुए मित्र की मृत्यु से उत्पन्न दुख का वर्णन करता है। ऐसे चित्रण में सहज 
स्वाभाविकता के स्थान पर कृत्रिमता रहती है । 


बिम्ब (7920) 
बिम्ब शब्द का साहित्य में विशेष महत्त्व हे । काव्य को बिम्बात्मक अनुभूति 


कहा जाता है । 'बिम्ब' शब्द का अर्थ छाया, प्रतिच्छाया, अनुकृति आदि के अर्थ में 
होता है । बिम्ब में साहश्य एवं समानता का भाव भी निहित है। 
_ विश्वकोश में 'चेतन स्मृतियो' को बिम्ब कहा है जो मौलिक विचारों की 


उत्तेजना के अभाव में उस विचार को सम्पूर्ण या अंशतः प्रस्तुत करती हैं--- 











Perception, in whole or in part, in the absence of the original 
Stimulus to the perception 

काव्य में बिम्ब-ग्रहण की चर्चा हम पढ़ते हूं । बिम्ब एक मानसिक व्यापार 
है, जिसका प्रत्यक्ष आधार न होकर मानसिक संवेदना ही आधार है। अतः प्रत्यक्ष 
के लिए अप्रत्यक्ष का आश्रय लिया जाता है, जो दो प्रकार का होता है-- 


"णू भौतिक वातावरण तथा (२) काल्पनिक बिम्ब 
55255 कय 








---->>>> आ कि 





हि | समीक्षा-सिद्धान्त १५१ 


कवि के द्वारा बिम्ब को ग्रहण कर उसे अपनी कला से सजीव रूप प्रदान 
किया जाता है । काव्य में बिम्ब ग्रहण के चार आधार ये हुँ 

(१) अनुमुति ` ८ 

(२) भावन 

(३) आवेग तथा 

(४) ऐखियता या संवेदना या अनुकृति । बिम्ब किसी भी ऐन्द्रिय अनुभूति 
की अनुकृति हो सकता हे । 
अरस्तु का विरेचन का सिद्धान्त ((909799) ¢ 


औषधियों से शारीरिक विकारों की शुद्धि मानी गई है। लक्षणा से इसका अर्थ हुआ 
कुण्ठा वाले मन को परिष्कृतकर शुद्ध करने का माध्यम देना] न 

.. डॉ० नगेन्द्र के अनुसार अरस्तु का अभिप्राय मनोविकारो के उद्रेक और 
उसके शमन से उत्पन्न मनःशान्ति हे ।' विरेचन के द्वारा उन्होंने त्रासदी की अनिष्ट 
भावना को दूर करके सामाजिक हृदय के द्वारा शांति प्राप्ति की चर्चा की है । त्रास 
तथा करुण प्रत्यक्ष जीवन में दुखद अनुभूतियाँ हैं किन्तु काव्य में (त्रासदी में) ये 
साधारणीकृत होकर आती है, अतः आनन्द प्रदान करती हैं । 


अरस्तु का विरेचन सिद्धान्त भारतीय रसवाद के बहुत समीप है । अरस्तु ने जे 


विरेचन सिद्धान्त के द्वारा काव्य पर अश्लीलता ओर अनैतिकता के आरोपों का. 


निराकरण किया । 
भारतीय काव्यशास्त्र ओर विरेचन का सिद्धान्त 


१. भारतीय काव्यशास्त्र में शोक स्थायीभाव अमिश्र रहता है । अरस्तु का 
त्रासद प्रभाव एक प्रकार का मिक्न भाव है । 

२. भारतीयों ने भयानक को पृथक्‌ रस माना है। अरस्तु ने करुण के 

साथ त्रास को (भयानक को) मिश्र माना है । 

भारतीयों का आनन्द भावात्मक है, अरस्तु का अभावात्मक । 

४. भारतीय करुणरस उद्दोग का शमन मात्र न होकर उसका भोग भी है; 
इससे भावों का परिष्कार होता है। किन्तु अरस्तु के विरेचन में 
करुणरस उद्दोग का शमन है, अरस्तु दु:ख का अभाव ही आनन्द मानते 
है । भारतीय दुःख में भी सुख का अनुभव करते हैं । 


०७ 


| 
॥ 
4 
| 
| 





१५१ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


५, भारतीय आनन्द की कल्पना गंभीर है, अरस्तु की आनन्द की 
परिकल्पना 'प्लेजर' है । 

अरस्तु के विरेचन सिद्धान्त का महत्त्व इस बात में है कि इस सिद्धान्त से 
इस समस्या का पूर्ण समाधान हो जाता है कि दुःखमूलक अनुभूतियों से विरेचन के 
द्वारा सुखानुभूति होती है । यह मनोबंज्ञानिक तथ्यपूर्ण सिद्धान्त परवर्ती समीक्षकों 
द्वारा भी अपनाया गया । 
अरस्तु द्वारा त्रासदी (77१९०१५) में कथानक को चरित्र की अपेक्षा अधिक 
महत्त्व 

अरस्तु ने त्रासदी की सूक्ष्म व्याख्या करते हुए उसका जीवन तत्त्व कथानक 
को माना है । उन्होंने त्रासदी के प्रमुख रूप से चार भेद किये हैं-- 
(१) जटिल त्रासदी 
(२) करुण त्रासदी 
(३) नंतिक त्रासदी तथा 

(४) सरल त्रासदी । 

अरस्तु ने त्रासदी के छहों भागों में कथानक को ही सर्वप्रमुखता दी । 
उन्होंने चरित्र के अभाव में भी त्रासदी की सत्ता को स्वीकार किया है। इसके आठ 
कारण (डॉ० नगेन्द्र द्वारा विवेचित) यहाँ प्रस्तुत हैँ- 

१. त्रासदी अतुकृति है, व्यक्ति की नहीं, कार्य की व जीवन की । 

२. जीवन कायं-व्यापार का ही नाम है, अतः जीवन की अतुकृति में 
कार्य-व्यापार का ही प्राधान्य रहना चाहिये । 

३. काव्यगत प्रभाव का स्वरूप हे सुख अथवा दुख और यह कार्यों पर 
निर्भर करता है । अतः कार्य या घटनाएं ही त्रासदी का साध्य हैं । 

४. चरित्र कार्य-व्यापार (कथानक) के साथ गौण रूप से स्वतः ही आ 
जाता है । 

५, बिना कार्य-व्यापार के त्रासदी नहीं हो सकती, पर वह बिना चरित्र- 
चित्रण के हो सकती है। 

६. चरित्र व्यंजक भाषण, विचार अथवा पदावली--चाहे वह कितनी ही 
परिष्कृत क्यों न हो--वंसा सारभूत, कारुणिक प्रभाव उत्पन्न नहीं कर 
सकती जसा कथानक तथा घटनाओं के कलात्मक संगुम्फन से 
होता है । 

७. त्रासदी में सबसे प्रबल रागात्मक तत्त्व, स्थिति-विपयंय तथा अभिज्ञान 
कथानक के ही अङ्ग हैं । 

८. यही कारण है कि नवोदित कलाकार भाषा के परिष्क्रार तथा चरित्र- 
चित्रण में तो पहले सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, पर कथानक का सफल 
निर्माण करने में उन्हें समय लगता है । 








क समीक्षा-सिद्धान्त १५३ 


त्रासदी की अनुभूति 


प्लेटो लिखता है वह तत्त्व जो हमारी व्यक्तिगत आपदाओं से दबा हुआ 
रहता है, और जिसके क्रन्दन व विलाप की प्रवृत्ति को निर्वाध अभिव्यक्ति नहीं दी 
जा सकती, कवियों द्वारा इन्हीं, सहज प्रवृत्तियों का परितोष और प्रसादन किया 
जाता है । 

अरस्तु ने विरेचन प्रक्रिया के द्वारा त्रासदी के करुण एवं त्रास भावों का 
परिष्कार मानकर उसे गुखात्मक माना है । मिल्टन ने अरस्तु के भाव की व्याख्या करते 
हुए लिखा है “अरस्तु ने नाटकों को इसलिए महत्त्वपूर्ण बतलाया है कि वह भय और 
करुणा के संचार से पाठकों के स्वाभाविक गुणों का परिमार्जन करते हैं और उनकी 
अधिकता को हटाकर उनके आचरण का संशोधन करते हैं । जिस प्रकार यह प्राकृतिक 
सत्य है कि विष से विष उतर जाता है उसी प्रकार रंगशाला में अवगुणों के अभिनय 
तथा अनुकरण प्रदर्शन से मनुष्य की बुराइयाँ हट जाती हैं ।' 

त्रासदी की अनुभूति अप्रत्यक्ष एवं कलागत होने के कारण जीवन की अनुभूति 
से भिन्न होती है और दुखात्मक न होकर सुखात्मक होती है। डॉ० नगेन्द्र ने इस 
रागात्मक प्रभाव के निम्नलिखित छः रूप बताये हैं--- 

(१) अन्ततः आस्वाद रूप होता है । 

(२) मानव दुर्बलता की करुण विवशता चेतना से उद्भूत त्रास और करुणा 
की उदबुद्धि पर आश्रित रहता है । 

(३) नेतिक क्षोभ और वितृष्णा से मुक्त होता है । 

(४) आश्चयं समन्वित होता है । 

(५) प्रत्यक्ष तथा ऐर्द्रिय अनुभूति न होकर भावित' अनुभूति रूप होता है । 

(६) कवि कौशल के प्रति प्रशांसा भाव से मुक्त रहता है । 
कासदी-स्वरूप एवं विभिन्न प्रकार 


प्लेटो ने लिखा है ईर्ष्या अथवा द्वेष की भावना ही कामदी का आधार है। 
सौंदर्य, ज्ञान, धन तथा अहम्‌ भाव जब अपनी सीमा का उल्लंघन करता है तो उसके 
प्रति हमें घृणा होने लगती है और हम उसकी हंसी उड़ाते हैं । अपने मित्रों के दुर्भाग्य 
पर हमें कभी-कभी हँसी आती है, और इस भावना में हर्ष तथा दुख का मिश्रण 
रहता है ।' 

अरस्तु ने कामदी का उद्भव फिलाक (?॥॥]।।०) गीतों के प्रमुख गायको 
से माना है। वे उसे सुखकारक मानते हैं किसी व्यक्ति को हँसी उड़ाना उसकी निन्दा 
करना है, सुखांत कामदी (९०७००५५) का मूल उद्देश्य व्यक्ति विशेष की हँसी उड़ाना 
न होकर निम्त वर्ग के समाज का अनुकरण करना है ।' 

सर फिलिप सिडनी का कथन है कि 'कामदी का ध्येय हास्य प्रकट करता 


नहीं है क्योंकि वह्‌ तो केवल हमारे जीवन के साधारण अवगुणों का उपहासपुर्ण 





१५४ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
प्रदर्शन मात्र है । हमारे घरेलु तथा निजी जीवन के दोषों का स्पष्टीकरण कामदी का 
प्रधान ध्येय है । कामदी का ध्येय दर्शकों को आनन्दपू्ण शिक्षा देना है ।' 

प्रकार-- (१) शास्त्रीय कामदी, (२) रूमानी कामदी, (३) भावप्रधान कामदी, 
(४) सामाजिक कामदो, (५) समस्यामूलक कामदी । 


ये रूप विषय के आधार पर हैं। कामदी में निम्न, मध्य एवं उच्च वर्ग के 
कार्यकलाप एवं समस्याओं का वर्णन रहता है । 
सकलन त्रय 


यूनानी नाट्य सिद्धान्तो में संकलन त्रय का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इससे नाटक 
के प्रदर्शन में अधिक से अधिक वास्तविकता भाती है। समय, स्थात और कार्य के 
संकलन से कथानक का स्वाभाविक विस्तार दिखाया जा सकता है । 

पाश्चात्य आचायों ने स्थान और काल की एकता की अपेक्षा कार्य की एकता 
को विशेष महत्त्व दिया है । स्थान और समय का संकलन तो उसके अङ्ग मात्र कहे 
जा सकते हैं कार्यं की एकता से नाटक में स्वाभाविकता रहती है और सामाजिक 
की रुचि बनी रहती है । 

भारतीय नाट्य सिद्धान्तों में संकलन त्रय का स्पष्ट रूप से विवेचन नहीं हो 
सका है । किन्तु भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में “रस निष्पत्ति' के प्रसङ्ग में रस की 
निष्पत्ति में कार्य की एकता को महत्त्वपूर्ण बताया है, इस प्रकार कार्य के संकलन के 
अभाव में रस निष्पत्ति में बाधा पड़ती है । 

वर्तमान काल में स्टेज या रंगमंच का विकास होने से स्थान तथा समय के 
संकलन का उतना महत्त्व नहीं रहा किन्तु कार्यं की एकता या संकलन के अभाव में 
तो अभिनय में सामाजिक की रुचि का ह्वास हो जायेगा । 


कहानी का स्वरूप 


पाश्चात्य विद्वानों ने कहानी की विभिन्न परिभाषाएँ की हैं । सुप्रसिद्ध अंग्रेजी 
के साहित्यकार एच० जी» वेल्स ने कहानी को बीस मिनट में पढ़ी जाने वाली 
रचना माना । सुप्रसिद्ध रूसी कहानीकार चेखेव ने कहानी की वर्ण्यं वस्तु का 
विवेचन किया । आर० एल० स्टीवेन्सन ने कहानी में जीवन के किसी पक्ष का 
सरल विवेचन माना जिसमें प्रभावान्विति हो । एडगर एलन पो ने कहानी को 
संक्षिप्त आकार का आख्यान माना, जो एक ही बैठक में पढ़ा जा सके तथा प्रभा: 
वोत्पादक एवं स्वतः में पूर्ण हो । 

कहानी की विशेषताएं संक्षेप में छः हैं--(३) लघु आकार (२) संवेदना को 


एकता (३) प्रभावान्विति (४) सत्य का आधार (५) मनोवंज्ञानिकता तथा 
(६) सक्रियता अर्थात्‌ गतिशीलता का प्राधान्य । 





अमन समीक्षा-सिद्धान्तं १५५ 


निबन्ध 


विद्वानों का मत है कि हिन्दी में निवन्ध एक नवीन विधा है जो पाश्‍चात्य 
विद्वानों की देन है । यों तो भक्तिकाल में महाकवि बनारसीदास जंन ने कुछ अध्या- 
त्मकपरक निबन्ध त्रजभाषा में लिखे थे किन्तु हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल में 
निबन्ध का जो रूप मिलता है, वह निश्चय हो पाइचात्य प्रभावापन्न है । 

डॉ० जॉनसन के अनुसार "निबन्ध बुद्धि का शिथिलतापूर्ण विलास है, इस 
रचना में अनियमितता एवं अपरिपववता रहती है। इसमें श्रृंखला और व्यवस्था 
नहीं पाईं जाती ।' 

मरे महोदय के अनुसार--'किसी विशिष्ट विषय पर या विषय की शाखा 
पर मर्यादित लम्बाई की रचना निबन्ध कहलाती है ।' 

संक्षिप्त आक्सफोर्ड कोश के अनुसार 'निबन्ध किसी विषय पर लिखी एक 
साहित्यिक रचना है जो साधारणतया गद्यात्मक और संक्षिप्त होती है । 

चाल्से लंब नामक प्रख्यात अंग्रेजी निवन्धकार एस्से या निबन्ध में व्यक्तिगत 
विचारों को एक कलात्मक सूत्र में पिरो देने का प्रयास करते हैं । 

पं० रामचन्द्र शुक्ल ने भी लिखा है-- आधुनिक पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार 
निवन्ध उसी को कहना चाहिये जिसमें व्यक्तित्व अर्थात्‌ व्यक्तिगत विशेषता हो ।' 
उन्होंने लिखा है कि निबन्ध लेखक अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वच्छन्द गति 
से इधर-उधर टूटी हुई सूत्र शाखाओं पर विचरता चलता है। यही उसकी अर्थे 
सम्बन्धी व्यक्तिगत विशेषता है ।' 

डॉ० जॉनसन ने एस्से को स्वच्छन्द मन की तरंग माना था जिसमें तारतम्य 
और सुघटन के स्थान पर विश्यृंखलता का प्राधान्य रहता था किन्तु अब अंग्रेजी में 
एस्से की सर्वमान्य विशेषता इन छाब्दों में व्यक्त की जा सकती है 'एस्से सीमित 
आकार एवं विस्तृत शेली में लिखी हुई रचना है ।' 

आधुनिक निबन्ध के जन्मदाता माईकेल दि मोन्तेन (फ्रच) थे जिन्होंने 
'बिचारों, उद्धरणों तथा कथाओं के मिश्रण' को एस्से बताया था। हडसन निबन्धों 
की एक प्रमुख विशेषता व्यक्तित्व का प्रकाशन' मानते ह-The true essay i$ 
essentially personal. 


निबन्ध का स्वरूप 


१. यह एक लघु रचना है जिसे सरलता से पढ़ा ओर समका जा सके । 

२. इसमें सिद्धान्त प्रतिपादन के स्थान पर सामास्य बातों को रोचक ढंग 
से क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करते हैं । 

३. इसमें एक साथ अनेक भावों की व्यंजना न होकर एक भाव, विषय, 
विचार या अनुभूति का एकान्वितिपूर्ण वर्णन रहता है । 

४, इसमें क्रमबद्धता के साथ लेखक की आत्मामिव्यक्ति भी रहती है । 





१५६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


५, चिस्तन-मनन की सरणि से लिकले हुए स्वानुमुत विचारों को निबन्ध 
में प्रस्तुत करके लेखक हमें प्रभावित करता है । 
६. नित्रस्ध का सौन्दर्यं एवं रोचकता उसकी शैली पर निर्भर है । 
रिपोर्त्ताज 
हिन्दी गद्य में हमें एक नई विधा रिपोर्ताज पिछले पख्रह-बीस वर्षो से दिखाई 


दे रही है । रिपोर्ताज फ़च भाषा का दाब्द है, तथा अंग्रेजी भाषा के रिर्पोट शब्द से 
साम्य रखता है । हिन्दी में इसे वृत्त-निदेश के रूप में ग्रहण किया है। सम्बाददाता. 


समाचार पत्र के लिए रिपोर्ट के रूप में समाचार प्रस्तुत करता है किन्तु साहित्य में 
तथ्यों का अद्भुन समाचारपत्र शेली में न होकर कलात्मक साहित्यिक शैली में होता 


है जिसमें कल्पना ओर भावुकता का पुट रहता हे तथा पाठक के भावों को उद्बुद्ध 


करने की शक्ति । 
रिपोर्ताज में वस्तुगत तथ्य की रेखाचित्रात्मक शैली में प्रभावोत्पादक ढंग 


से (कलात्मक रूप में) अभिव्यक्ति की जाती है । इसका लक्ष्य पाठक को वस्तु या 


घटना का सत्य हृदयगंम कराना ही नहीं होता, वरन्‌ उसके भावों को जगाना 


होता है। 
` रिपोर्ताज में रोचकता होती है । उसमें कथा तत्त्व का सूक्ष्म विवरण रहता 
है । वर्णन की सरसता के कारण रिपोर्ताज कहानी के निकट आ जाता है। रिपोर्ताज 


में कहानी से अन्तर इतना ही है कि इसमें घटना-प्रवाह की क्रियाशीलता या गति में 
तीब्रता नहीं होती । क्ट रि पत 


संवेदना भी रहती है। नर NE 
समालोचना का स्वरूप 


आलोचना का शब्दार्थ है, अच्छी प्रकार से चारों ओर देखना ।' साधारण 
रूप से आलोचना या समालोचना शब्द का अथे गुण-दोष का विवेचन ही ग्रहण 
किया जाता है । 

समालोचना का अर्थ है 'सम्यक्‌ रूप से किसी विषय पर तत्वतः विचार 
करना । साहित्य यदि जीवन की व्याख्या है तो आलोचना उस व्याख्या की व्याख्या 
है । साहित्य में समीक्षात्मक, विश्लेषणात्मक एवं निर्णयात्मक हृष्टि से ग्रन्थों का 
अध्ययन करके उस पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मत प्रकट करना आलोचना है । 

हिन्दी में हमें समालोचना पाइचात्य सम्पर्क से प्रभावित मिलती है। यों तो 
भारतीय (संस्कृत) काव्यशास्त्र तीन हजार वर्ष प्राचीन है किन्तु चु कि हिन्दी साहित्य 
में पाइचात्य विधाए भी अपतायी गई, अतः पाइचात्य साहित्यालोचन के सिद्धांत भी 
लिए गए । जैसे, हिन्दी नाट्य-रचना पर पाश्चात्य प्रभाव है तो उप्ते समभने के 
लिए पाश्‍चात्य नाट्यालोचन को भी समभना होगा । 


७ 


_ रिपोर्ताज में कलाकार को सुक्ष्म एवं मनोवंज्ञानिक इष्टि के साथ ही उसकी 


0000 0000 000 








हि समीक्षा-सिद्धान्त १५७ 
मैथ्यू आनंल्ड ने लिखा है--'संसार में सर्वाधिक सुन्दर वस्तु और भावना 
का ज्ञान तथा उसे निष्पक्षता तथा योग्यता के साथ एक नवीन भावधारा में प्रवाहित 
करना ही समालोचना का उद्देश्य है।' 

फ्रेंच विद्वान्‌ वु्नंटियर के अनुसार समालोचना के तीन उद्देश्य हैं-- 

(१) किसी वस्तु या वक्तव्य का अर्थ करना । 

(२) उसका वर्गीकरण करना और 

(३) उस पर निर्णय देना । 


वेसिल वसंफील्ड ने लिखा है 'कला भर साहित्य के क्षेत्र में अपना निर्णय 
प्रकट करना समालोचना है। समालोचक वह व्यक्ति है जो अपने क्षेत्र में आई 
समस्त कृतियों के मूल्यांकन का ज्ञान रखता है और उन पर अपना मत निर्धारित 
करने की योग्यता भी रखता है ।' 

डॉ० श्यामसुन्दरदास ने लिखा है--साहित्य-क्षेत्र में ग्रन्थ को पढ़कर, 
उसके गुण-दोष का विवेचन करना और उसके सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करना 
आलोचना है।' 


डाँ० द्यामसुन्दरदास ने चार प्रकार की समालोचना का निरूपण किया है 

(१) सैद्धान्तिक (२) व्याख्यात्मक (३) निर्णयात्मक तथा (४) स्वतन्त्र एवं 
TEN 

कुछ अन्य विद्वानों ने आधुनिक समालोचना के चार अन्य रूपों की भी 
चर्चा की है-- 


(१) मनोवंज्ञानिक (२) ऐतिहासिक (३) तुलनात्मक और (४) प्रभावात्मक । 
समालोचक के गुण M2 


आज के साहित्य के क्षेत्र में बड़ी स्वछन्दता है। कोई भी अज्ञानी मनुष्य 
कलम चलाकर समालोचक बनाने का दावा कर रहा है । अंग्रेजी विद्वान पोप ने 
लिखा सर्वप्रथम प्रकृति का अनुसरण करो, क्योंकि प्रकृति का चित्र साहित्य में प्रति- 
बिम्बित है । इसके पश्चात्‌ अहंकाररहित होकर नेतिक और आध्यात्मिक बातों पर 
विचार करो ।' 

पाश्चात्य विद्वानों ने समालोचक के नौ गुण बताए हैं-(१) सुनिद्चितता _ 
(२) स्वातन्त्र्य (३) मुझ (४) श्रेष्ठ विचार (५) उत्साह (६) हादिक अनुभूति 
(७) गम्भीरता (८) ज्ञान तथा (६) अथक परिश्रम । | ni 

संस्कृत के आचायो ने समालोचक में सात गुणों का आधान आवश्यक माना 
था--(१) उपक्रम, (२) उपसंहार (३) अभ्यास (४) अपूर्वता (५) फल (६) अर्थवाद 
और (७) उत्पत्ति-विवेक । इन सात बातों का ज्ञान एक समालोचक के लिए अत्यन्त 
आवश्यक हे । 





I ORION आवक 


ERS NEE रा 





१४८ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


आलोचक को विषय का पूर्ण ज्ञान तथा लेखक के साथ सहानुभूति होनी 
चाहिए । बह निष्पक्ष, द्वोपरहित एवं निर्भय होना चाहिए। उसे अपनी समालोचना 
बिषय तक सीमित रखनी चाहिये । पांचवी एवं मुख्य बात है उसके द्वारा शिष्ट एवं 
उचित भाषा के प्रयोग की । छठी बात है उसे देशकाल का भेद होना आवश्यक है । 


आदर्शवाद 

साहित्य के क्षेत्र में यथार्थवाद और भादर्शवाद का विवाद बहुत प्राचीन है। 
ये दो विचारधाराएं हूँ । अंग्रेजी शब्द [4९4] (आइडियलिज्म) के हिन्दी पर्याय 
के रूप में आदशंवाद शब्द को ग्रहण किया जाता है । प्राचीन काल से ही साहित्य में 
दोनों विचारधाराएं चलती रही हैं । 

आदर्शवाद का आधार न्याय एवं आशावाद हे । इसमें सत्य की खोज, न्याय 
की आस्था एवं मानवता पर बल दिया गया है। इसमें शाश्वत आत्मा को प्रधान 
माना है अतः भौतिक मूल्यों की उपेक्षा है भौर कल्पना और विचारशक्ति को प्रधानता 
दी गई है । आदशंवादी साहित्यकार सदैव सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा करते हुए 
सद्वृत्तियों की विजय दिखाता है । डॉ० नगेन्द्र ने आदशंवाद के दो भेद किए हैं-- 

(१) कल्पनाविलासी आदशंवाद--कल्पनाशील साहित्यकारों द्वारा अपनाया 
जाता है 

(२) व्यावहारिक आदर्शवाद में संयम, विवेक एवं महत्त्वकांक्षा को बल देते हैं 
तथा नैतिक आदर्श एवं प्रेरणादायक उपदेश रहते हैं । 

आदशंवाद क्या होना चाहिये' का विवेचन करता है। यह मनुष्य की 
उदात्तवृत्तियों के उत्थान पर बल देता है । यह जीवन की यथार्थता एवं संघर्षो में भी 
उदात्तीकरण पर बल देता है। अंग्रेजी के महान्‌ समीक्षक लोंजाइनस का उदात्त 
आदशंवाद से उद्भूत है । इसका सम्बन्ध मानव की भावना के सर्वतोन्मुखी रूप से 
है । यह एक महत्त्वपूर्ण विचारधारा है। जो यथार्थ की त्रुटियों का निदान प्रस्तुत 
करती है । इसे भावात्मक या कल्पनात्मक मात्र नहीं कह सकते, क्योंकि यह यथार्थ 
विमुख नहीं है। 
प्रतीकवाद (Symbolism) 

पाश्चात्य समीक्षा के क्षेत्र में प्रतीकवाद का प्रारम्भ १८८६ ई० में जीन 





प्रतीकवाद में यथार्थवाद का विरोध देखकर इसे यथारथंवाद का विरोधी माना 
गया । कवि ने इसमें आदशं एवं सौन्दर्य तत्त्वों का समावेश किया । प्रतीक में 


अभिव्यंजना का रूप मिलता है। उसकी सहायता से कल्पना अधिक सूक्ष्म, संक्षिप्त 
एव सुदन्र घन जाती हे । 








पा ती समीक्षा-सिद्धान्त १५६ 


प्रतीकवाद का सम्बन्ध स्वच्छन्दतावाद से भी है क्‍योंकि कबि व्यक्तिगत रूप 
से प्रतीकों के रूप में दृश्यों का चित्रण करता है। 


प्रतीकवाद भाषा की शिथिलता एवं लचीलेपन पर आधारित है। प्रतीक _ 


किसी अव्यक्त की प्रचलित किन्तु अन्यरूप अभिव्यक्ति का साधन है । इसमें साहृश्‍्यवाद 
तथा प्रत्यक्ष बिम्बवाद भी है । प्रतीक का आधार अव्यक्त सत्ता मानी जाती है 
जो अमूर्त, अहृदय एवं अनुपमेय होने से सुक्ष्म एवं रहस्यमयी है । प्रतीको का प्रयोग 
साहित्य ओर विज्ञान दोनों में होता है । साहित्य में इनका प्रयोग सवंजीववाद की 
अभिव्यक्ति के लिए होता है, रूपकच्छल तथा उपमानच्छल से भी प्रतीक प्रयुक्त होते 
हैं । प्रतीक चरित्र-प्रतिनिधित्व भी करते हैं। प्रतीक के द्वारा विषय की व्याख्या, 
सुप्त एवं दमित अनुभूति का जागरण तथा अलंकरण आदि कार्य किए जाते हैं । 
प्रतीकवादी आन्दोलन का लक्ष्य था कि यथार्थ या अतियथाथंवादी नग्न 


चित्रणों को रोका जाय । प्रतीकों के माध्यम से साहित्यकारों ने अतियथार्थवाद की 


नग्नता को छिपाने का कार्य किया । यहद यथार्थवाद और आद शंवाद के बीच की 


कड़ी भी बना । 
अतियथार्थवाद (Surrealism) 


अतियथार्थवाद को हम यथार्थवाद का 'अतिपरक' विकृत रूप कह सकते हैं 
जिसमें संसार को घृणा, क्लेश, दुख, आत्याचार, शोषण आदि का निवास माना जाता 
है। कलाकार समाज की अत्यन्त कलुषित भावनाओं की अभिव्यक्ति को ही अपना 
ध्येय मानता है। वह आदशंपरक दृष्टिकोण को व्यर्थ समझकर उसकी उपेक्षा 
करता है । 

अतियथार्थवाद (७77९३]।७) का उद्भव उन्नीसवीं शती में वाल्तेयर से 
हुआ । बीसवीं शती में इसका विशेष प्रसार हुआ । 

अतियथाथंवाद के सम्बन्ध में हर्बट रीड लिखते हैं 'स्वतःचालित लेखन से 
हमारा तात्पर्य मन की उस अवस्था से हे जिसमें अभिव्यक्ति तत्काल तथा नैसगिक 
रूप मे होतो है जहां कि भाव-चित्र और उसकी शाब्दिक प्रतिकृति में समय का कोई 
अन्तर नहीं पड़ता ।' 

इस प्रकार अतियथार्थवाद में-- 

१. जीवन का ऐकान्तिक काल्पनिक पक्ष रहता है । 

२. इसमें नेतिक आदशों का विरोध रहता है । 

३. इसमें सभी प्रचलित मान्यताओं का विरोध रहता है । 

४. अतियथार्थवादी कलाकार स्वच्छन्दता का कट्टर समर्थक होता है । 

५. वह अपनी रचना में व्यक्ति के अन्तविरोधो का चित्रण करने के किए 

उसकी कलुषित भावनाओं को ही प्रधान रूप से प्रस्तुत करता है । 








१६० मौखिक-परीक्षा पथप्रदर्शिका 


अस्तित्ववाव (Fxistentialism) 
पाइचात्य साहित्य में अस्तित्ववाद का सिद्धान्त इस आधार पर प्रचारित 
हुआ कि मनुष्य सार्वभौम तत्व का निर्माण नहीं करता ।_ मृत्यु, संघर्ष, दुःख आदि 


मानवीय स्थिति की सीमायें हैं जिन्हें मनुष्य भूला रहता है, उनसे बचने की चेष्टा 


करता है, किन्तु बच नहीं पाता । 

अस्त्विवाद पाइचात्य विचारधारा में अपना विशेष महत्त्व रखता है। यह 
आधुनिकतम विचारधारा है। इसका विवेचन फ्रांस के सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं साहित्य- 
कार पॉल सात्रे ने किया है। जमंनी के हसरेल, हेडेगर तथा डेनमाक के कीकंगार्ड 
आदि विद्वानों ने इस विचारधारा का पोषण एवं विकास किया और इसे विश्वभर में 
फेलाने में सहयोग दिया । 


अस्तित्ववाद का विकास पराभववाद से हुआ और आध्यात्मिक संकट से 
उभरने के लिए १९वीं शती में आदर्शवाद या मिश्चितवाद का आश्रय लिया गया 
किन्तु आगे चलकर आदशंवादी स्वच्छन्दतावाद का रूप अनास्था या अराजकता 
उत्पन्न करने वाला हुआ । इसी समय पराभववाद और इससे अस्तित्ववाद का जन्म 
हुआ । इसप्रकार-- 


१. अस्त्विवाद आशा के स्थान पर निराशा को महत्त्व देता है । 
२. अस्तित्ववाद आध्यात्मिक संकट की व्याख्या करके उसे प्रतिभा से 


वातावरण प्रस्तुत करता है। 

३. अस्तित्ववादी का काव्य में भावात्मकता की ओर भुकाव होता है यद्यपि 
प्रधानता तकं की भी होती हे । 

४. अस्तित्ववादी अस्तित्व को सारतत्व से भी अधिक प्रधानता देता है । 
सारतत्व में (समष्टिगत तथा व्यष्टिगत) वह व्यष्टिगत सारतत्व को 
ही विशेष महत्त्व देता है । 

५. अस्तित्ववादी सारतत्व के स्थान पर अस्तित्व को महत्त्व--प्रधानता देता 


है क्योंकि व्यक्ति की रुचि-अरुचि तो केवल उन पदार्थों से सम्बन्धित है, 


जिनका अस्तित्व होता है। अर्थात जो सत्य है उसका अस्तित्व है और 
जिसका अस्तित्व है वही सार है । 


६. अस्तित्ववाद में प्रत्येक प्रत्यक्ष सत्ता का अस्तित्व माना जाता है और 


उसे सत्य माना जाता हे । 


७. अस्तित्ववाद में व्यक्ति का चित्रण छाघारण की अपेक्षा विशेष है । यह 
आत्मगत विवेक पर अधिक बल देता है । 








पाइचात्य समीक्षा-सिद्धान्त १६१ 


८. अस्तित्ववाद में उत्तरदायित्वहीनता के कारण 


ही उच्छुङ्ललता की 
प्रवृत्ति है 


९. अस्तित्ववादी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता । उसकी मान्यता 
ह्‌ कि-- 


|| ANH existing being are born without reason, continue 
॥ through weakness and die by accident 
| 


१०. अस्तित्ववादी एक छोर पर क्षुद्रता और दसरे छोर पर निस्सोमता की 
स्थिति मानता है । पहला छोर मनुष्य है दूसरा निस्सीम शुन्य, दोनो में 
अस्तित्व विद्यमान. है । 

११. | साहित्य में हम अस्तित्ववाद का यह रूप देखते हैं 


कि इसमें मानव के 
। अस्तित्व को विशेष महत्त्व प्रदान करते हए 


से बनाये रखने की 
|| रक्षात्मक क्रिया या संघर्ष का वर्णन रहता है । इसमें युग-संस्कृति के 
पराभव के तत्त्वों की सैद्धान्तिक व्याख्या रहती है । 

१२. { अस्तित्ववादी की शेली एवं भाषा काव्यमयी है, वह सौन्दर्यवादी है । 
दर्शन में जिसे आत्मचेतना कहते हैं अस्तित्ववादी साहित्य में उसे 
आन्तरिकता कहते हैं और अपने व्यक्तित्व को असीम जगत से पुथक 
रखकर उसको क्षुद्रता का आकलन करते हैं । दूसरी ओर वह निस्सीम 
शुन्य का भी वर्णन करते हूँ । 


टो० एस० इलियट की आलोचना प्रणाली 


इलियट ने कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा (शक्ति) को एक दूसरे के लिए 
पूरक मानकर क्रान्ति प्रस्तुत की इलियट ने बताया कि किसी कवि के समीक्षात्मक 
सिद्धान्तों का साहित्यालोचन की दृष्टि से तो महत्त्व है ही साथ ही उस विशिष्ट कवि 
द्वारा रचित साहित्य के सन्दर्भ में भी उसका महत्त्व है । 

कवि का दृष्टिकोण उसके साहित्य में निहित होता है। कवि के समीक्षा 
सिद्धान्तों में भी उसका दृष्टिकोण रहता है । 

इलियट की मान्यता है कि कवि की कविता और उसके समीक्ञा-सिद्धान्त दोनों 
ही युग की विचारधारा को प्रभावित करते हैं। इलियट ने भी अपने काव्य एवं 
समीक्षात्मक विच गो से आधुनिक साहित्य जगत्‌ को समान रूप से प्रभावित किया । 

इलियट ने कवियों को सुझाव दिया कि वे साहित्य में युगीन चेतना लाने 
वाले विचारों की भावयित्री शक्ति से तथा उन विचारों की कारयित्री प्रतिभा से 
समीक्षा भी प्रस्तुत करें ताकि किसी कवि के मत से एकमत न होने वाले समीक्षक 
उनकी अपनी रुचि विशेष से खण्डन- मण्डन रूप आलोचना न करें । 


११ = 








| 
| 


NERS 


टाल री ७2७... ७3७ +« >नं-न नंद“ 


हे मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


इलियट का मत है कि आलोचना के क्षेत्र में परम्परा का अनुगमन रूढ़िवाद 
नहीं फहा जा सकता । प्राचीन परम्पराएँ मानव के वर्तमान जीवन को प्रभावित करती 
हैं और भावी जोवन के विकास की आधा रभूमि होती हैं । 

इलियट ने उत्कृष्ट समीक्षा उपे माना है जो सहृदय में ऐसी हृष्टि निमित कर 
दे जिससे वह साहित्य के अध्ययन एवं रसास्वादन की क्षमता उत्पन्न कर सके। 
आलोचना का दृष्टिकोण लोकहृष्टि होना चाहिए । 

इलिएट ने नाटक में गद्य की अनिवार्यता मानी है। काव्य में कल्पना की | 
अतिशयता उचित नहीं है । - 








२० 


भाषाविज्ञान का संक्षिप्त परिचय 


भाषाविज्ञान का प्रतिपाद्य 


मानव और मानव के बीच व्यवहार के लिए जिन ध्वनि संकेतों का व्यवहार 
किया जाता है, उनसे जो भाषाएँ बनतो हैं--उनका विवेचन भाषाविज्ञान का 
प्रतिपाद्य है । 

भाषाविज्ञान के मुख्य प्रकरण ये हैं-- 

१- भुमिका--इसके अन्तर्गत भाषाविज्ञान का इतिहास, भाषा की उत्पत्ति, 
भाषाओं के वर्गीकरण आदि का विवेचन होता है । 

२-"*्वनि विचार--इसके अन्तर्गत ध्वनि का स्वरूप, ध्वनियन्त्र, ध्वनिविकार 
और उसके कारणों का विवेचन होता है । 

२--अर्थविचार--इसके अन्तर्गत अर्थ के परिवर्तन एवं उनके कारणों का 
विवेचन होता हे । इसमें अर्थ का विस्तार, संकोच एवं अर्थास्तर का विचार किया 
जाता है । 

४--रूप विचार--इसमें भाषा के रूप या सम्बन्धतत्त्वों का विचार होता 
हे । इसी के आधार पर भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण किया जाता है । 

५--वाक्य विचार--इसके अन्तगंत भाषा में वाक्य के संगठन एवं अन्वय 
पक्ष का विचार होता हे । 

६--समाज विचार--भाषा से समाज प्रभावित होता है । भाषा समाज की 
की अजित वस्तु है। अतः भाषा के द्वारा समाज की संस्कृत का अध्ययन भी 
होता है । 





| 
| 
{ 
| 


१६४ 


मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


भाषाविज्ञान की उपयोगिता 


१. 


भाषाविज्ञान के द्वारा चिरपरिचित भाषा के सम्बन्ध में जिज्ञासा की 
बुष्ति होती है । 

इसके द्वारा संसार की भाषाओं का अध्ययन होने से मानव मात्र की 
ऐक्य भावना और पारस्परिक सहयोग को प्रोत्साहन मिलता है । 
भाषा-विज्ञान के द्वारा प्रागतिहासिक संस्कृति का ज्ञान होता है । इससे 
किसी जाति की किसी काल विशेष की मनोवृत्ति का १रिचय भी प्राप्त 
होता है । 

भाषाविज्ञान का कई अन्य शास्त्रों तथा विज्ञानों से सम्बन्ध है और ये 
परस्पर उपकारी हैं--यथा इतिहास, पुरातत्व, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र 
आदि से । 

भाषाविज्ञान द्वारा प्राचीन साहित्य के अर्थ, उच्चारण प्रयोग आदि 
सम्बन्धी समस्याओं का समाधान होता है । 

भाषाविज्ञान के द्वारा भविष्य की भाषा, लिपि एवं मानसिक स्तर का 
अनुमान लगाने तथा इस जानकारी के आधार पर उन्हें पतन से बचाने 
के प्रयास में भी सफलता मिलना सम्भव है । 


भाषाविज्ञान और व्याकरण 


२. 


इन दोनों का प्रतिपाद्य भाषा' है किन्तु दोनों की पद्धतियाँ भिन्न हुँ। 
व्याकरण की पद्धति 'कला” है, भाषाविज्ञान की “विज्ञान! । व्याकरण 
में भाषा के साधु-असाधु-प्रयोग जानने के लिए नियम रहते हैं । भाषा- 
विज्ञान में तुलना और इतिहास की प्रक्रिया से विभिन्न भाषाओं का 
अध्ययन किया जाता है । 

व्याकरण पूर्णता का निरूपण करता है। इसमें पूर्णं या साधु या शुद्ध 
भाषा का निरूपण एवं उसके नियमों का कथन होता है । भाषा विज्ञान 
में भाषा को विकसनशील संस्था मानकर उसे पूर्ण कभी नहीं माना 
जाता । 

व्याकरण का क्षेत्र सीमित है। व्याकरण एक भाषा का, उसके रूपों का 
विचार करता है। भाषाविज्ञान का क्षेत्र व्यापक है, उसमें अनेक देश 
और काल की भाषाओं का तुलनात्मक विवेचन होता है तथा भाषा के 
पाँचों तत्त्वों -ध्वनितत्ब, अर्थतत्व रूपतत्व, वाक्य तत्व, समाज तत्व 
का विचार किया जाता है । 

व्य' रण को अध्ययन शली स्थिर होती है, उसके निश्चित नियम स्थिर 
होते है । भाषाविज्ञान की शैली विकासशील होती है । उसमें तुलना 
और इतिहास की प्रक्रिया को प्रधानता दी जाती है 








भाषा विज्ञान का कद परिचय १६५ 
': व्याकरण अतीत से वतंमान की ओर आता है, भाषा के अशुद्ध रूप को 
देखकर नियम बनाकर शुद्ध रूप को स्थिर करता है । भाषाविज्ञान 
वर्तमान रूप से अतीत रूप की खोज में संलग्न होता है । 
भाषा विज्ञान का क्षेत्र व्याकरण से विस्तृत है। हम भाषा विज्ञान को 
व॑य्याकरणों का व्याकरण कह सकते हैं। 
भाषा की परिभाषा एवं उसके अंग 


भाषा की परिभाषा सामान्य रूप से इम प्रकार की जा सकती है 'जिन ध्वनि 
चिन्हों के द्वारा मनुष्य परस्पर विचार विनिमय करता है, उनको समष्टि रूप से भाषा 
कहते हैं ।' 

भाषा की प्रवृत्ति परिवतंन या विकास की होती है । भाषा एक विकसनशील 
संस्था कही जाती है । 

भाषा के प्रमुख अंग इस प्रकार हैं-- 

() ध्वनि तत्व--भाषा ध्वन्मिय होती है । 

(छ) रूप तत्व--भाषा में रूप होता है जिसे व्याकरणिक तत्त्व या सम्बन्ध 
तत्त्व कहते हैं । 

(पा) अर्थ तत्व--भाषा में अर्थबोध की शक्ति होती है । 

(४) वाक्य तत्त्व--भाषा एक मनुष्य की पूरी बात दूसरे मनुष्य तक पूरे रूप 
में पहुँचाती है । 

(४) समाज तत्त्व--भाषा में समाज की समस्त भावनाएँ प्रतिफलित होती हैं । 
भाषा समाज का प्रतिबिम्ब है । भाषा के दो पक्ष होते है--वक्ता तथा श्रोता। इस 
प्रकार भाषा एक अजित सामाजिक वस्तु है । 
भाषा को उत्पत्ति-सम्बन्धी विविध वाई 

भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने जो मत प्रस्तुत किए हैं, 
संक्षेप में इस प्रकार हैं-- 

(१) देवी उत्पत्ति--परम्परावादी लोगों का मत है कि भाषा ईश्‍वर ने उत्पन्न 
की और सृष्टि के णमा हें ही पूर्णतया निष्पन्न अच्स्था में मन” जो फदप्न की । 

(२) सांकेतिक उत्पत्ति -रूसो ने भाषा की 5 त्ति के सम्बन्ध में अपने 
विचार प्रकट ।५५ हं, ३५% अनुसार प्रारम्मिककाल में मानव सकता स काम 
चलाता था, जब इनसे काम न चला तो मनुष्यों ने एकत्र होकर भाषा का निर्माण 
किया । 

(३) धातु सिद्धान्त--मैक्समूलर के अनुसार आदिकालीन मानव में ऐसी 
शक्ति थी कि किसी बाह्य वस्तु की छाप उसके मानस पट पर पड़ते ही मुख से स्वतः 
तदनुकूल ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति हो जाती थी । इसी शक्ति के बल पर धातुओं का 
निर्माण हुआ और आगे चलकर भाषा का विकास हुआ । 





१६६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदर्शिका 

(४) अनुक्केरणमुलकतावाद--आदि मानव ने. अपने चारों ओर के पशु-पक्षियों 
की ध्वनियों का अनुकरण करके कुछ शब्द बनाए और आगे विकसित होने पर भाषा 
बनी । 

(५) मनोभावाभिव्यञजकताबाद--आदिकालीन मानव भावप्रधान था अतः 
भावावेश में उसके मुख से हप, दुःख, क्रोध आदि भावों की व्यञ्जक ध्वनियाँ (ओह, 
धिक, अहा, छिः, घत्‌) निकल पड़ती थीं, इनसे शब्द बने और भाषा का विकास 
हुआ । हू 
(६) श्रम-परिहरण पुलकतावाद--त्वारे नामक पाश्चात्य विद्वान्‌ ने कल्पना 
की कि कठोर परिश्रम से सांस जोर से चलती है और स्वर तंत्रियों में कम्पन से कुछ 
ध्वनियाँ स्वतः ही निकल पड़ती हैं-- हैया, यो हे हो आदि । 

(७) अनुरणनमूलष तावाद--डिग डोंग मत के अनुसार जड़ पदाथं पर चोट 
करने से जो ध्वनि निकलती है वह प्रत्येक पदार्थ की अलग होती है, यथा झन भन, 
कलकल, मर मर, ठक ठक आदि । 

उपयुक्त सात मतों में प्रथम तीन विद्वानों द्वारा सर्वथा त्याग दिए गए हैं। 
शेष चार मतों से भाषा की उत्पत्ति की समस्या का आंशिक समाधान ही होता है। 
स्वीट नामक विद्वान्‌ ने अपना 'समन्वित विकासवाद' का सिद्धान्त उपस्थित किया 
है। उनके अनुसार भाषा में प्रारम्भ में अनुकरणमूलक, मनोभावामिव्यंजक और 
प्रतीकात्मक शब्द रहे होंगे । और आगे चलकर भाषा का विकास हुआ होगा । 

भाषा में स्वीट के बताए हुए शब्दों के अतिरिक्त औपचारिक शब्दो का भी 
विशेष स्थान है । 'उपचार का अथे है ज्ञात के द्वारा अज्ञात की व्याख्या ।' शब्द निर्माण 
एवं अर्थ विस्तार में उपचार का महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है। जैसे अग्रेजी का 'पाइप' 
शब्द गड़रिए के बाजे और पानी के जल के लिए समान रूप से प्रयुक्त होता हे । 
भाषा का विकास अथवा परिवर्तन 

भाषा के विकास या परिवतंन को उसका विकार भी कहते हैं । भाषा में 
परिवर्तन के अनेक कारण हैं, उनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं 
बाह्य कारणे 

(१) शारीरिक विभिन्नता के कारण--स्वरयन्त्र की विभिन्नता के 
कारण विभिन्न लोगों का उच्चारण भिन्न होता है। यह कोई महत्त्वपूर्ण कारण 
नहीं है। 

(२) भौगोलिक विभिन्नता--विद्वानों का मत है कि पहाड़ी प्रदेश और मैदानी 
इलाके के लोगों की भाषा में अन्तर होता है किम्तु हमें इस कारण से भाषा में कोई 
विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ता । 

(३) जातीय मानसिक अवस्था के भेद से भी भाषा में परिवर्तन हो जाता है। 
निम्न मानसिक अवस्था में भाषा के रूप में परिवतंन हो जाता है, उच्चावस्था में 


' जातीय उल्लास एवं ओज से भाषा का रूप बदल जाता है 


~ 





भाषाविज्ञान का संक्षिप्त परिचय के ६७ 


(४) अभ्यन्तर कारण--प्रयत्नलाघव या आभ्यन्तर कारण-प्रयत्नलाघव 
या मुविधा के कारण हमारा मन आगे की घ्वनियों पर दौड़ जाता है. अतः अनेक 
ध्वनि विपययं हो जाते हैं । कहीं परस्पर घ्वनियों का विनिमय होता है. कहीं ध्वनि 
या अक्षर-लोप हो जाता है । कहीं ध्वनियों का समीकरण हो जाता है । इस प्रकार 
प्रयत्नलाघव ही भाषा-परिवर्तन का प्रमुख कारण है। इसके अनेक रूप हैं। यह 
परिवर्तन ध्वनि में होता है । प्रयत्नलाघव के अन्तर्गत संधि नियम आते हैं । विदेशी 
शब्दों में प्रयत्नलाघव से स्वाभाविक रीति से परिवर्तन हो जाता है, यथा टाइम का 
टेम आदि । इसी प्रकार स्वरभक्ति, अग्रागम, उमयमिश्रण और स्थानविपययं भी 
प्रयत्नलाघव के कारण होते हैं । 
ध्वनि-वर्गीकरण 

भाषाविज्ञान में घ्वनियों का वर्गीकरण स्थान और उच्चारण-रीति की 
दृष्टि से-- 

(१) श्वास और (२) नाद, में किया जाता है । 

इवास--जब ध्वनि स्वरतन्त्रियो के एक दुसरे से पृथक रहने पर उत्पन्न होती 
है, तो उसे इवास कहते हैं । 

नाद--जब स्वरतन्त्रियों से मिले रहते पर हवा धक्का देकर इनके बीच से 
निकलती है, तो उस समय उत्पन्न होने वाली ध्वनि 'नाद' कहलातो है । 

ये ध्वनियाँ अपनी अभिव्यक्ति के अनुसार दो वर्ग की हैं-- 

स्वर ध्वनियाँ--जव स्वरयन्त्र भीतर से आती हुई इवास को विकृत करते हैं 
तब घोष उत्पन्न होता है, जिसकी स्थिति सभी स्वरों में रहती है । 

अतः स्वर वह सघोष ध्वनि है जिसके उच्चारण में इवास नालिका से आती 
हुई श्वास अबाध गति से धाराप्रवाह मुख से निकल जाती है । 

व्यंजन ध्वनियाँ स्वर के अतिरिक्त शेष ध्वनियां व्यञ्जन कहलाती हैं । वे 
सघोष या अघोष ध्वनि, जिनके मुख विवर से निकलते में पूर्णरूप से अथवा थोड़ी 
मात्रा में बाधा पड़ती है, व्यंजन कहलाती हैं । 

अन्तर- (१) स्वरों के उच्चारण में स्पर्श या संघर्ष नहीं होता है किन्तु 
व्यंजनों के उच्चारण में थोड़ा बहुत स्पशं या संघं अवश्य होता है । 

(२) व्यंजन की अपेक्षा स्वर बहुत लम्बा और अधिक दूर तक सुनाई 
पड़ता है । ८ 

(३) व्यञ्जनों का उच्चारण स्वरो के सहयोग से ही पूर्ण होता है। 

(४) स्वर सभी नाद होते हैं, परन्तु व्यञ्जनों में कुछ नाद होते हैं, और कुछ 
इवास । 








१६८ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
स्वराधात 
उच्चारण में ध्वनि लहरियो के छोटी-बडी होने से एक लयात्मकता आ जाती 
है । उच्चारण में जब किसी एक शब्द या शब्दांश पर शेष भाग की अपेक्षा अधिक 
बल दिया जाता है, तो उसे स्वराघात कहते है । फेफड़ों से जब इवास निकलती है तब 
जितने बल से उसमें झटका लगता है, उतना ही अन्तर स्वरों में हो जाता है । यह 
बल उच्च, मध्य और निम्न होता है । स्वराघात तीन प्रकार का होता है-- 
वक (१) संगीतात्मक (२) बलात्मक (३) रूपात्मक । संगीतात्मक स्वराघात में 


संगीत के सरगम की भांति सुर ऊँचा या नीचा किया जाता है। इसका सीधा 





संगीतात्मक स्वराघात मिलता है । 


सम्बन्ध स्वर-तन्त्रियो से है। वैदिक संस्कृत में 
तेलुगु में भी संगीतात्मकता है। 
(२) बलात्मक स्वराघात--इसमें आवाज ऊंची नीची नहीं की जाती वरनू 
सांस को धवके के साथ छोड़कर जोर दिया जाता है । इसका सम्बन्ध फेफड़ों से 
पत नका कक 
(३) रूपात्मक स्वराघात--किसी विशेष व्यक्ति के बोलने में उस व्यक्ति 


का विशेष ढंग होता है, जिसे हम लहजा कहते हैं। यह खूपात्मक स्वराघात है । 
भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के स्वर भिन्न-भिन्न होते हैं। _ 
अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ 


प्रकृति और मानव मन में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है | अतः मनुष्य के 
विचारों में भी परिवर्तन होता है। वे सदेव समान नहीं रहते । भाषा विचारों की 
वाहिका है, अत: भाषा के शब्दों एवं अर्थों में भी परिवर्तन होता है । अर्थ परिवर्तन 
की पाँच दिशाएँ इस प्रकार हैं-- 

१. अर्थापकर्ष--जब शब्द के अर्थ का अपक्षं हो जाय, यथा काकभुमुण्डि 
शब्द ऋषि के लिए प्रयुक्त था, अब जन सामान्य में उसका प्रचलित 
अर्थ काला गेंवार' हो गया । 

२. अर्थापदेश--अ्थं का अयदेश--शौच शब्द का अर्थ पवित्रता था, इसको 
टट्टी जाने के अथं में प्रयुक्त कर दिया, गन्दा कर दिया । प्रभाती शब्द 
का अथं प्रार्थना था, इसे दाँतौन के लिए प्रयुक्त करते हैं । 

३. अर्थोत्कपं-साहस शब्द डाका डालने के अर्थ में प्रयुक्त होता था, अब 
इसका उत्कर्ष हुआ और अब यह अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होता है । 

४. अर्थःसंकोच-मृग शब्द पशुमात्र के लिए था, अब इसका अथं संकुचित 
होकर केवल 'हिरन' अर्थ रह गया । 

५, अर्थःविस्तार--राजा शब्द आदरणीय के लिए प्रयुक्त होने लगा, यह 
अर्थं का व्यापक होना है। 














भाषाविज्ञान का संक्षिप्त परिचय १६६ 


अर्थ परिवर्तन के कारण इनसे भिन्न हैं । उपयु'क्त अर्थपरिवर्तत की दिशाओं 
के मूल में स्थित कारणों का अध्ययन 'अर्थरिवर्तन के कारण” के अन्तर्गत होता है । 

बौद्धिक नियम--जब अर्थ के अनुसार भाषा में परिवर्तन होता है तब उन 
विकारों का बुद्धितत कारण होता है । उन कारणों का विचार करके जो नियम स्थिर 
किये जाते हैं, वे बौद्धिक नियम कहलाते हैं किन्तु जब केवल अर्थों में विकार तथा 
कारण दिया जाता है, तब वे अर्थ विचार के अस्तगंत आते हैं। ध्वनिनियम और 
बौद्धिक नियमों में भी थोड़ा अन्तर है । 
बल के अपसरण से अर्थ-परिवर्तन 

भाषा विज्ञान में अर्थविज्ञान महत्त्वपूर्ण है। अर्थ विकास के बहुत से नियम हैं 
जिनमें 'बल का अपसरण' भी अर्था में परिवर्तन का कारण बन जाता है। 

किसी शब्द के उच्चारण में यदि केवल एक ध्वनि पर बल दिया जाय तो 
धीरे धीरे शेष ध्यनियाँ कमज़ोर पड्कर विलुप्त हो जाती हैं । इसी प्रकार किसी शब्द 
के अर्थ के प्रधान पक्ष को हटाकर जब बल दूसरे अर्थ पर आ जाता है तो प्रधान अर्थ 
विलुप्त हो जाता है। यथा--गोस्वामी--बहुत-सी गायों का स्वामी । बहुत-सी 
गायों के स्वामी का धनी होना एवं सम्मानित होना स्वाभाविक है । अतः धीरे-धीरे 
इसका अर्थ 'माननोय' हुआ । वहीं एक भावना कार्य करने लगी--जो अधिक गायों 
को सेवा करेगा, वह धर्मात्मा भी होगा ।' इस प्रकार बल के अपसरण से 'गोस्वामी' 
शब्द गायों के स्वामी' अर्थ से चलकर माननीय धार्मिक व्यक्ति' का वाचक हो 
गया । इस अर्थ में यह मध्ययुगीन सन्तो के नाम के साथ प्रयुक्त होता है । 
अयोगात्मक भाषाएं 

आकृतिमूलक वर्गीकरण के अनुसार भाषाएँ दो भागों में विभक्त की 
गई हैं-- 

(१) अयोगात्मक या निरवयव भाषाएँ 

(२) योगात्मक या सावयव भाषाएँ 

अयोगात्मक भाषाओं में प्रत्येक शब्द अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है। किसी 
शब्द के कारण उसमें किसी प्रकार का आन्तरिक या बाह्य परिवर्तन नहीं होता। 
सम्बन्ध तत्त्व और अर्थ तत्त्व को प्रकट करने के लिए शब्द की अलग-अलग शक्ति 
होतो है और उन शःदों का परस्पर सम्बन्ध केवल वाक्य में उनके स्थान से पता 
चलता है । 

अयोगात्मक भाषा को व्यासप्रधान या स्थातप्रधान या धातुप्रधान या 
निपातप्रधात या निरवयव या एकाक्षर एकाच्‌ आदि नाम से अभिहित किया 
जाता है । 

चोनी भाषा इसका सर्वोत्तम उदाहरण है । इसका कोई व्याकरण नहीं होता । 
वाक्य में एक ही शब्द स्थान और प्रयोग के अनुसार संज्ञा, विशेषण, क्रिया और 


११७० मौखिक-परोक्षा पथप्रदशिका 
क्रिया विशेषण आदि हो सकता है । फिर भी उस शब्द में विकार नहीं आ पाता । 
यथा-- 

ता जिन >-बड़ा आदमी 

जिन ता==आदमी बड़ा (है) 
डॉ० चटर्जी का भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गोकरण 

ग्रियसंन ने भारतीय आर्यभापाओं को तीन उपशाखाओं में विभक्त करके 
उसके अन्तर्गत छः भाषा समुदाय माने हैं । डॉ० चटर्जी ने उनसे भिन्न इस प्रकार 
वर्गीकरण किया है-- 

(१) उत्तरवग-मिधी, लहँदा, पंजाबी । 

(२) पश्चिमी वगं--गुजराती 

(३) मध्यवर्ती वर्ग---राजस्तानी, पश्चिमी हिन्दी, पुर्वी हिन्दी, बिहारी, 

पहाडी । 

(४) पूर्वी बर्ग--असमी, बङ्गला, उड्या । 

(५) दक्षिणो वर्ग--मराठी । 

ग्रियंसन ने भारतीय भाषाओं को बहिरंग, मध्यवर्ती एवं अन्तरंग उपशाखाओं 
में विभक्त किया था । चटर्जी के अनुसार सुदूर पश्चिम एवं पूर्वं की भाषाओं का 
्रियर्सन द्वारा एक वर्ग में रखना उचित नहीं था । 


हिन्दी भाषा का ऐतिहासिक विकास क्रम 


डॉ० बडथ्वाल ने अध्ययन के आधार पर सिद्ध किया है कि सम्भवतः ईसवी 
सन्‌ ७७८ से पहले से ही हिन्दी बोलचाल की भाषा थी। यह्‌ निष्कर्ष उन्होंने 
'कुवलयमालाकथा' में तिरे मेरे आउ' कथन (मध्यप्रदेश के व्यापारी के मुख से, से 
लगाया है। 

डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने हिन्दी भाषा के विकास का क्रम इस प्रकार बताया है— 

(१) प्राचीन काल- (१००० ई० से १५०० ई० तक) इस बीच हिन्दी का 
विकास हुआ किन्तु उस पर अपभ्रश और प्राकृतों का प्रभाव बना रहा । हिन्दी की 
बोलियों के निश्चित स्पष्ट रूप विकसित नहीं हो पाए । 

(र) मध्यकाल--(१५०० ई० से १८०० ई०) जब हिन्दी की बोलियों 
(्रजभाषा, अवधी और खड़ीबोलो) का समुचित विकास हुआ और वे स्वतन्त्रता- 
पूवंक अपने पंरों पर खड़ी हो सकी । इस काल में हिन्दी से अपभ्रश का प्रभाव 
हट गया । 

(३) आधुनिककाल (१८०० ई० के अनन्तर) धीरे-धीरे खड़ीबोली साहित्य के 
आसन पर विराजमान हुई ओर अन्य बोलियो को दबा दिया। यद्यपि ये बोलियां 
अपने-अपने क्षेत्रों में आज भी जीवित हैं, किन्तु साहित्य क्षेत्र में इनका प्रभाव 
न्यून है। 


आ 


क्क 





222. 


भाषाविज्ञान का संक्षिप्त परिचय १७१ 


हिन्दी की प्रमुख बोलियां 

हिन्दी के दो रूप हैं-- 

(१) पश्चिमी हिन्दी और (२) पूर्वी हिन्दी । 

पश्चिमी हिन्दी का सम्बन्ध शोरसेनी प्राकृत से है । यह मध्यप्रदेश की वर्तमान 
भाषा है । इसकी निम्नलिखित पाँच उपभाषाएँ ह~ 

(१) खड़ोबोली - हिन्दी, उदू' तथा हिन्दुस्तानी या ठे5 हिन्दी इन समस्त 
रूपों का मूलाधार यही खड़ीबोली है । इसके बोलने वाले ५३ लाख से अधिक हैं । 

(२) ब्रशभाषा--यह शौरसेनी प्राकृत से उत्पन्न हुई मानी गई है। इसके 
बोलने वाले ७८ लाख के लगभग हैं । 

(४) कश्रौजी-- इसके बोलने वाले ४५ लाख है । इसका साहित्य नहीं है । 
यह ब्रजभाषा का हो एक उपरूप है । 

(४) बुन्देली-यह बुन्देलखण्ड में बोली जाती है, बोलने वाले ३९ लाख हैं । 

(५) बाँगरू--हरियाना की बोली या जाहू--बाँगड़ प्रदेश की भाषा है, इसमें 
पंजाबी और राजस्थानी का मिश्रण है । बोलने वाले २२ लाख हैं । 

पूर्वी हिन्दी का सम्बन्ध अद्ध मागधी प्राकृत से है। इसके अन्तर्गत ये तीन 
बोलियाँ आती हैं-- 

(१) अवघो--बोलने वाले १ करोड़ ४२ ल'ख । 

(२) बघेलो--बोलने वाले ४६ लाख, अवधी का दक्षिणी रूप है । 

(३) छत्तीसगढ़ी--बोलने वाले ३३ लाख हैं । इसका पुराना साहित्य नहीं है। 
देवनागरी लिपि में सुधार 

देवनागरी लिपि में सुधार के दो महत्त्वपूर्ण प्रयत्न हुए 

(१) हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन्‌ १९४१ में “लिपि सुधार समिति' की 
स्थापना की गई। इस समिति ने छोटो इ की मात्रा लगाने की अर्वज्ञानिकता का 
अनुभव कर उसमें परिवर्तन का सुझाव दिया। 

(२) उत्तरप्रदेश सरकार हारा आचार्य नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता में स्थापित 
“देवनागरी लिपि सुधार समिति! १६४७ । इस कमेटी ने देवनागरी लिपि के मूल 
सौंदर्य की रक्षा करते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये । 
लिपि में सुधार की आवश्यकता 

(१) विज्ञान के आविष्कार, प्रेस और टाइपराइटर का पूरा-पूरा लाभ उठाने 
और समय, शक्ति तथा धन की बचत के लिए लिपि में सुधार करने का आन्दोलन 


चला । 
(२) दूसरा कारण नागरी लिपि में एकता एवं एकरूपता लाने के लिए, 


ताकि एक राज्य का निवासी दूसरे राज्य की भाषा इसके माध्यम से सीख सके । 
कुछ विद्वानों का सुझाव था कि दक्षिण की भाषाएँ भी नागरी लिपि में लिखी 
जाये । इस प्रकार लिपि सुधार आन्दोलन के पीछे राष्ट्र की 'भावात्मकता' का 
सिद्धान्त था । 





| 
व य अनल Fv जक छट) 


१९ 


संस्कृत साहित्य का परिचय 


संस्कृत के आषं महाकाव्य 





रामायण और महाभारत को संस्कृत के आपं या मूल या उपजीव्य महाकाव्य 


कहते हैं । संस्कृत साहित्य की अधिकांश रचनाएँ इन 


नहीं दो महाकाव्यों से कथावस्तु 


लेकर निमित हुई हँ । ये हिन्दुधर्म के जातीय महाकाव्य कहे जाते हैं। 
संस्कृत के महाकाव्य 


र. 


टर 


३. 


x 


महाकवि कालिदास-- (ईसा पूर्व प्रथम शताव्दी) 

रचनाएँ--रघुवंश और कुमारसंभव _ 

महाकवि अश्वघोष--(ईसवी ७८) 

रचनाएँ-बुद्रचरित और सीन्दरनन्द 00१ 
महाकवि भतु मेण्ठ--[पाचवीं शती) 'हयग्रीववध' 


महाकवि प्रवरसेन--(पाचवीं शती) प्राक्कत भाषा में रचित महाकाव्य 


सेतुबन्ध या रावणवध 
महाकवि भारवि--(५५० ई०) किराताजु'नीय 
महाकवि भट्टि -(६०० ई०) भट्टिकाव्य' 
महाकवि कुमारदास-- (६०२ ई०) जानकीहरणम्‌' 
महाकवि माघ--(सातवीं शती) 'शिशुपालवघ' 
महाकवि भभिनन्द (अष्टम शती) रामचरित’ शती) “रामचरित! 
महाकवि रत्नाकर---(नवम शती) 'हरविजय' 
जैन महाकवि हरिचन्द्र--(११वीं शती) धमंशर्माम्युदय जा 


महाकवि श्रीहषं__ (१ २वीं शती) नंषधीयर्चा श्रीहषं--(१२वीं शती) नेषधीयचरित 


१७२ 





संस्कृत साहित्य का परिचय १७३ 


संस्कृत के नाटककार 


८. 


8, 
१०. 


११. 
१२. 


१३. 


१४. 
१५. 


महाकवि भास (ईसा पूर्व चतुर्थ शती) तेरह नाटक-- प्रसिद्ध 
नाटक-- प्रतिमा, दूतवाक्य, दरिद्र चारुदत्त, स्वप्नवासवदत्त । 
महाकवि कालिदास-- (ईसा पू० प्रथम शती) मालविकारिनिमित्न, 
विक्रमावंशीय, अभिज्ञान शाकुन्तल । 

महाकवि अश्वघोष--[७८ ई०) शारिपुत्रप्रकरण 

महाकवि शूद्रक--(४०० ई०) मृच्छकटिक 

विश्ाखदत्त-(४थी ५४वीं शती) मुद्राराक्षस 

महाकवि भवभूति (उवी शती) तीन नाटक--महावी रचरित, 
मालतीमाधव, उत्तररामचरित्‌. | 
श्रीहषंवद्ध न या हर्षदेव--(७वीं शती) तीन नाटक-- 
प्रियदशिका, रत्नावली और नागानन्द 

भदनारायण--(७वीं शती) वेणीसंहार 

मुरारि-(८०० ई०) अनर्घराघव 

शक्तिमद्र-(८०० ई०) आइचयंचूड़ामणि 
दामोदरमिश्र--(८५० ई० से पूर्व) हनुमन्नाटक 
राजशेखर--(दशमशतक ई०) चार नाटक--बालरामायण, 
बालभारत, विद्धशालभंजिका तथा कपू रमंजरी । 

दिङ राग--(१००० ई०) कुन्दमाला 

कृष्णमिश्र--(११०० ई०) प्रबोघचन्द्रो दय 

जयदेव--(गीतगो विन्दकार जयदेव से भिन्न) 

(१२०० ई०) - प्रसन्नराघव 











संस्कृत के ऐतिहासिक काव्य 


उद्‌भव-आार्षमहाकाव्य रामायण और महाभारत जातीय इतिहास हैं। 


> 


पुराणों में भी इतिहास का स्वरूप मुखरित है । शिलालेखों की प्रशस्तियों में हमें 
वास्तविक ऐतिहासिक काव्य के दशन होते हैं । 
अइ्वघोष (ईसवी प्रथम शती) बुद्धचरित प्रथम ऐतिहासिक काव्य 


बाणभट्ट (६०६-६४८ ई०) हार हयंचरित महान्‌ ऐतिहासिक गद्य काव्य 





वाक्पतिराज (७२६ ई०) गौडवहो या गौड़वध प्राकृत (महाराष्ट्री) भाषा में 


रचित ऐतिहासिक काव्य है । 


अज्ञातकवि (5०० ई०) का आयंमज्ज्ञूश्रीकल्प--बोद्ध महायान सम्प्रदाय का 


ऐतिहासिक काव्य है । 


महाकवि पद्मपुप्तपरिमल (१००५) नवसाहपाङ्कचरित १२ सर्गो का सुप्रसिद्ध 


ऐतिहासिक काव्य है । 


ब्र मौखिक-परीक्षा पथप्रदर्शिका 


महाकवि बिल्हण (१०८८ ई० से पूर्ण) विक्रमाडूदेवचरित--महाकाव्य का 
7 प्रतिबिम्ब- ऐतिहासिक विषय को लेकर रचित 

महाकवि शम्भु (१०८८-११०० ई०) राजेन्द्रकर्णपुर 

महाकवि कल्हण (११२७ से ११५१ ई०) राजतरङ्गिणी संस्कृत का 
i सर्वाधिक मह्त्वपुण ऐतिहासिक काव्य है 

जैनमुनि हेमचन्द्र (११६३ ६०) 'कुमारपालचरित' 

जल्हण (१२ वीं श०) सोमपालविजय 

अज्ञात कवि (१२०० ई०) का पृथ्वीराजविजय 

सन्ध्याकरन्दी (बारहवीं शती) रामपालच रित 

वामनभट्ट वाण (१५००) वेमभूपालचरित 


संस्कृत गीतिकाव्य 


ऋग्वेद में गीत का स्वरूप मंत्रों में देव स्तुति के रूप में--उषा की सुषमा 


सरस गीतकाव्य 


रामायण में गीतितत्व 

पाणिनि (स्थितिकाल ई० पू० ७०० के लगभग) गीतिकाव्य 

महाकवि कालिद्वास--(ई० पू० प्रथम शती) मेघदूत, ऋतुसंहार । 
सातवाहन हाल (ई० १७-२१) प्राकृत में 'गाथा सप्तशती! गीति रचना 
घटकपंर का गीतिकाव्य 

भतृ हरि (६०० ई०) शतकत्रय--श्वज्भार शतक, नीतिशतक, वैराग्य शतक । 
विज्जका या विजयाङ्का (६६० ई०) गीतिकाव्य, 

अज्ञात कवि की रचना श्वृङ्गारतिलक । 

कवि अमरुक-(स्थितिकाल ७०० ई०) रचना--अमरुक शतक, 

भल्लट (८वीं शती उत्तराद्धे) 'भल्लट शतक? 

शीला भट्टारिका (नवमशती) गीतिकाव्य 

जग्बू कवि का जिनशतक ओर चन्द्रदूत 

बिल्हण (१०६४ ई० लगभग) चौरपञ्चाशिका 

कविवर जयदेव (११०० ई०) गीतिगोविन्द 

कविवर नरहरि (श्रीहषं के अनन्तर स्थितिकाल) श्रद्धा रशतक 
कविराज धोयी (१-वीं शती) पवनटूत 

'गोवधंनाचार्य (१२वीं शती) आर्यामप्तशती 

विक्रम कवि (१४वीं शती) नेमिदुत 


ह... .. | 


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TE जा सन SSH VISE of कत ह CT SES, 


संस्कृत साहित्य का परिचय 


घनदराज (१४३४ ई०) श्रृङ्गार धनदशतकम्‌ 

दंवज्ञ सूर्यकवि (१६वीं शती पूर्वाद्धे) रामकृष्ण विलोम काव्य 

रुद्रकवि (१५५६-१६०५) भावविलास 

माधव भट्ट (१५७१ ई०) दानलोला 

पण्डितराज जगन्नाथ (स्थितिकाल १५३०-१६६५ ई०) 
चनाएँ--सुधालहरी, अमृतलहरी, लक्ष्मीलहरी करुणालहरी, गंगालहरी 

भामिनी विलास 

रूपगोस्वामी (१७वीं शती) हंसदत 

वेंकटाध्वरि (१६३७ ई०) लक्ष्मी सहस्र 

श्रीकृष्णदेव सावंभीम (१७वीं शताव्दी उत्तरा) पदादूदुत ॥ 

शिवभक्तदास--मिक्षा टन काव्य । 

नन्दकिशोर गोस्वामी--गुकदूत 

विश्वेश्वर पण्डित--कवोन्द्र कर्णाभरणम्‌ तथा रोमावली शतकम्‌ । 

गोस्वामी जनार्दन भट्ट-श्युंगारदातक 





न 


संस्कृत गद्य साहित्य 


वैदिक ग्य--कृष्णयजुर्वेद और अथवंवेद में गद्य । 


BS TE Se रट 


ब्राह्माण तथा उपनिषद्‌ ग्रन्थों में गद्य । 
महाभारत में गद्य का प्रयोग । f 
निरुक्त यास्क्र मुनि (७००-८०० ईऽ पू०) यह रचना संस्कृत गद्य में || 

रचित है । | 
टीका गद्य, शास्त्रीय गद्य--व्याकरण, ज्यौतिष तथा अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों में । | 


आख्यायिका गद्य का प्रारम्भ (ई० पू० चतुर्थ शती) कात्यायन के वातिक में 
तथा पतञ्जलि (२०० ई० पु०) के महाभाष्य 
में वासवदत्ता, सुमनोत्तरा तथा भँमरथी | 
आख्यायिकाओ की चर्चा । | 

शिलालेखीय गद्य--रुद्रदामन महाक्षत्रप का १५० ई० का गिरनार का 

शिलालेख अलंकृत गद्य शली की रचना है । 
प्रयाग लेख--४०० ई० का गुप्तकालीन शिलालेख बाण की सी शेली में । ।क्‍ 
संस्कृत गद्यकाव्य का समृद्धि युग 
दण्डी--स्थितिकाल ६०० ई० के लगभग, रचनाएँ--दक्षक्रुमारचरित, 
अवन्तिसुन्दरी कथा । 
सुबन्धु--स्थितिकाल--६५० ई० के लगभग रचना-वासवदत्ता । 
बाणभट्ट--स्थितिकाल ६०६-६४८ और इसके अनंतर भी जीवित रहे । 
रचनाएं-कादम्बरी (कथा), हर्षचरित (आख्यायिका) । 





ह्म 


१७६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


धनपाल--(स्थितिकाल १००० ई०) तिलकमंजरी 
ओडयरेववयादीभसिह --(स्थितिकाल १००० ई०) गद्य चिन्तामणि 
बामनभट्ट बराण--(१५०० ई०) बेममूपालचरित 
भस्बिकादत्त व्यास--(१८५८-१६०० ई०) शिवराजविजय (रोमांस प्रधान 
उपन्यास) 
न्य आधुनिक गद्यक़ार--पं० हृषीकेश भट्टाचायं तथा पण्डिता क्षमाराव । 
संस्कृत चम्पुकाठ्प्र 
उद्भव--बैदिक साहित्य में गद्य-पद्यमयी वाणी वेद (अथवंवेद), ब्राह्मण 
(ऐतरेय), उपनिषद (कठोपनिषद्‌) आदि में उपलब्ध । 
वेदिकोत्तर काल--बौद्ध अवदान साहित्य में । 
दण्डी से पूर्व--(६०० ई०)--दण्डी ने अपने काव्यादर्श में चम्पू की परिभाषा 
करके उसके अस्तित्व की घोषणा की । 
त्रिविक्रम भट्ट-(९१५ ई०) प्रथम उपलब्ध चम्पूकाव्य--नलचग्पू या 
दमयन्तीच पू तथा मदालसा चम्पू । 
सोमदेवसूरि---(६५६ ई०) यशस्तिलक चम्पू । 
भोजराज (१००० ई० से १०५० ई०) रामायणचम्पू । 
सोड्ढल (१०६० ई०) उदयसुन्दरीकथा । 
हरिचन्द्र (११०० ई०) जीवन्धरचम्पू । 
अभिनव कालिदास (११वीं शती) भागवत्‌ चम्पू । 
अनन्तभट्ट--चम्पूभारत या भारतचम्पू । 
पं० आशाधर सूरि---(१२४३ ई०) भरतेश्वराभ्युदयचम्पू । 
अहंदास--( १६वीं श० उत्तराद्ध) पुरुदेवचम्पू । 
दिवाकर--( १२६६ ई०) अमोघराघव चम्पू ! 
कवि कर्णपूर--(१५२४ ई०) आनन्द वृन्दावन चम्पू । 
तिरुमलाम्बा--(१५२९-४०) वरदाम्बिका परिणय चम्पू । 
चिदम्बर--(१५८५-१६१४) पंचकल्याण चम्पू । 
शेषकृष्ण--(१६वीं शती उत्तराद्ध) पारिजातहरण चम्पू । 
देवज्ञ सूयं--- १५४१ ई०) नृसिहचम्पू । 
कृष्ण कवि (?६वींशती उत्तराद्धे) मन्दारमरन्द चम्पू । 
केशवभट्ट (१६८४ ई०) नृसिह चम्पू । 
वेङ्कटाध्वार्‌ (१६५०) नीलकण्ठ चम्पू, विश्वगुणादशंचम्पू, उत्तरचम्पू, 
वरदाभ्युदयचम्पू । 
नीलकण्ठ कवि (१६३६ ई०) नीलकण्ठविजय चम्पू । 
नल्लादीक्षित (१६८४-१७१०) धर्मेविजय चम्पू । 
श्रीनिवास कवि (१७५२ ई२) आनन्दरङ्ग चम्पू । 








१२ 
पालिभाषा और साहित्य 


पालि भाषा 

पाली शब्द की हमें अनेक व्युत्पत्तियाँ मिलती हैं- 
परियाय-पालियाय--पालियाय- पालि । 
पाठ--पाळि या पालि से उसकी निष्पत्ति हुई । 

'पंक्ति' शब्द से 'पालि' शब्द की व्युत्पत्ति हुई । 

ग्रामवाची 'पल्लि' शब्द से पालि' बना । 
प्राकृत-पाकट-पाअड--पाअल--पालि । 

प्रतिवेशवाची प्रालेय या या प्रालेपक शब्द से पालि शब्द बना । 

, अभिधातप्प दीपिका के अनुसार 'पा==पालेति, रवखतीति पालि; अर्थात्‌ 
जो रक्षा करती है या पालन करती है वह पालि है। 

“पालि ने त्रिपिटकों तथा अन्य ग्रन्थों के रूप में बुद्ध वचनों की रक्षा करने 
का महत्त्वपूर्ण कायं किया है और इस दृष्टि से उसके उस नाम की सार्थकता सिद्ध 
होती है । पालि शब्द की इस सापेक्ष्म व्युत्पत्ति को ही आज प्रामाणिक माना जाता 
है ।”—भरतसिहं उपाध्याय । 


पालि भाषा का उद्भव 
सिंहली परम्परा बुद्वयुगीन 'मागधी' बोली को ही पालि भाषा मानती है, 
इसी में 'त्रिपिटकों' का संकलन हुआ । 'मागधी? में भगवानु गौतम बुद्ध ने उपदेश 
दिए, अशोक के धर्मलेखो में प्रयुक्त हुई, उसी का विकसित रूप पालि है। 
पालि की रचनाएँ ये है--(१) छन्दोबद्ध गायाएँ (२) सुत्तक (३) निकाय 
(४) मिलिन्द पह्च आदि गद्य-प्च मिश्रित रचनाएँ । संस्कृत की गद्य-पद्य मिश्रित 
१७७ १२ 


७ ० १८ ०६ ८०५ ८० टुर 








२००२. । “रॉ 


है मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिक 


रचनाओं में भी पालि का विकास हुआ । त्रिपिटक और अशोक के धर्मलेखों की 
भाषा में थोड़ा अन्तर है । विद्वानों का मत है कि पालि मगध की मुलभाषा थी, 
और बुद्धकालीन मगध की लोकभाषा रही । नरूला के अनुसार इसका नि ¶ण 
मध्यदेश मथुरा और उज्जेन की बोलियों के सम्मिश्रण से हुआ। भरतसिह 
उपाध्याय ने लिखा है कि प्रामाणिक शोध से यह सिद्ध हो चुका है कि मगध की 
राजभाषा मागधी का ही नाम पालि है। इस भाषा का साहित्य रचता के लिए प्रयोग 
त्रिपिटक के संकलन काल (४०० ई० पु०) से ही सिद्ध होता है 
पालि और प्राकृत 

पालि और प्राकृत का घनिष्ट सम्बन्ध है । प्राकृत भाषाओं का विकास पालि 
के अनन्तर हुआ है । अतः विद्वानों ने पालि को प्राकृत की प्रथम अवस्था नाम दिया 
है । पालि से ही प्राकृत का विकास भी माना जाता है। सम्राट अशोक के समय में 
पालि के ये तीन रूप प्रचलित थे-- पूर्वी, पश्चिमी तथा पर्चिमोत्तरी । इन्हीं से बाद 
में प्राकृत के विभिन्न रूपों का विकास हुआ । 

भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में सात प्रकार की प्राकृतों की चर्चा की है-- 

मागधीप्राकृत, अवन्ती प्राकृत, प्राच्य, शौरसेनी या पश्चिमी प्राकृत, अधमागधी 
या पूर्वी प्राकृत, वाल्हीकी प्राकृत और दाक्षिणात्य प्राकृत । वंय्याकरण हेमचन्द्र ने 
इन सात के अतिरिक्त दो अन्य प्राकृतों का निरूपण किया--पैशाची प्राकृत और 
लाटी प्राकृत । इसप्रकार प्राकृतों के नो भेद हो गए । 

साहित्य की हृष्टि से पाँच प्राकृत मुख्य हैं--मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, 
महाराष्ट्री और पैशाची । पेशाची' प्राकृत में एकमात्र महत्त्वपूर्णं रचना गुणाढ्य की 
वृहत्कथा अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है । महाराष्ट्रीप्राकृत भाषावेज्ञानिकों के द्वारा 
सर्वाधिक चर्चित है । 

साम्य--(१) पालि और प्राकृत दोनों के ध्वनि समुह में साम्य है । 

(२) विसगं का लोप पालि और प्राकृत में समान है । 
(३) श्‌ ष्‌ के स्थान पर पालि और प्राकृतों में प्रायः 'स' मिलता है । 

मूर्धन्य ध्वनि पालि और प्राकृत दोनों में ही अनुपलब्ध है । 

पालि और मागधी, अधंमागधी तथा शौरसेनी में थोड़ा ध्वनि और रूप का 
अन्तर मिलता है । 
पालि ओर संस्कृत 

बोद्ध धमं की धामिक भाषा पालि है किन्तु भाषाविज्ञान की हष्टि से ये दोनों 
भाषाएँ वेदिक भाषा से उद्भूत हुई मध्यकालीन भारतीय आयंभाषाएं है । इन दोनों 
में निम्नलिखित अन्तर हैं-- 

१. संस्कृत व्याकरण द्वारा नियमबद्ध होकर सीमित हो गई, पाली का 

स्वच्छन्द विकास होता रहा। 





हि भाषा और साहित्य १७६ 

२. संस्कृत विद्वानों की भाषा थी तो पालि जन-सामान्य की । 

३. संस्कृत स्थिर भाषा है तो पालि विकसित । पालि प्रवाहपूणं जल की 
भांति जन-जन की वाणी के रूप में विकसित होती रही । संस्कृत की 
गति व्याकरणानुमोदित होने से बद्ध हो गई। 

४, संस्कृत से किसी विशिष्ट भाषा का विकास नहीं हुआ, पालि से प्राकृत, 
प्राकृत से अपञ्र'श और अपश्न श से आधुनिक भाषाओं का विकास हुआ । 
संस्कृत से उत्तरवर्ती भाषाओं ने जीवनतत्त्व अवश्य ग्रहण किया है किन्तु 
प्रत्यक्ष रूप से उससे किसी भाषा का विकास नहीं हुआ है । 

संस्कृत का स्थिर रूप है पालि का विकसनशील । संस्कृत सीमित है पालि 

विस्तृत एवं प्रवाहपूर्ण । पालि जननशील है । 
पालि के व्याकरण 

१. 'कच्चायन व्याकरण” पालि भाषा का प्रथम व्याकरण है । इसके अन्य 
नाम ये हैं--कात्यायन व्याकरण, कच्चायन-गन्ध । 

२. कच्चायन व्याकरण को रचना सातवीं शताब्दी के वाद हुई--भरतसिह 
उपाध्याय । 

३. कच्चायन की दो अन्य रचनाएँ मिलती हैं-'महानिरुत्तिगन्ध' (महा- 
निरुक्तिग्रन्य) तथा चुल्लनिरुगन्ध' (संक्षिप्तनिरुक्ति ग्रन्थ) । 

४. कच्चायन व्याकरण पर पहला भाष्य आचार्य विमलबुद्धि ने ११ वीं 
शती में न्यास नाम से लिखा, जिसका दूमरा नाम “मुखमत्त दोपिनो' 
है । इस पर अन्य टीकाएं मिंहली एवं बर्मी विद्वानों ने लिखीं । इस पर 
बहुत से व्याख्या ग्रन्थों का निर्माण हुआ । 

५, पालि का दूसरा व्याकरण 'मोग्गाल्लान व्याकरण' है । इसमें कच्चायन 
व्याकरण की अपेक्षा भाषा-उपादानों का संयत, व्यवस्थित एवं सर्वाङ्गीण 
विवेचन है । इसका दूसरा नाम मागध सद्दलक्खण' है । इसके आधार 
पर अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है । 

६. पालि का तीसरा व्याकरण 'अग्गवसंकृत सहतीति' है । बरमी भिक्षु 
अम्गवंश ने ११५४ ई० में सहनोति व्याकरण की रचना कीजो 
कच्चायन व्याकरण पर आधारित है । 

इन तीन व्याकरणों के सम्प्रदायों के अतिरिक्त पालि को बहुत-सी व्याकरण 

बनाई गई । 
पालि ध्वनि समूह 
पालि भाषा में ४३ वर्ण होते हैं । पालि में वर्णमाला का सूत्र इस प्रकार 


है— 


अआदयोतितालीसवण्णा । 





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१ मोखिक-परीक्षा पथप्रदशिक्ा 


पालि का एक वैय्याकरण कच्चायन केवल ४१ वर्ण मानता है। वह ए और 
ओ को वर्ण नहीं मानता । 

मोग्गल्लान व्याकरण का रचयिता एवं अन्य परवर्ती वैय्याकरण इन्हें भी बर्ण 
मानते हैं, बयोंकि संयुक्ताक्षर से पूर्व आने वाले ए और ओ हस्व होते हैं । 

प्रारम्भिक अ, आ आदि दस वर्ण स्वर होते हैं--दसादोसरा-- 

स्वर--अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऐं, ए, ओं, ओ तथा शेष ३३ वर्ण व्यञ्जन होते 
हैं । इनके सम्बन्ध में पालि का सूत्र है-- कादयो व्यंजना 

काव्य--क ख गघ डर 

तालव्य--च छ ज रू ज॑ । 

मूर्धन्य--ट ठ ड ढ ण ल ल्ह 

दन्‍त्य--त थ द ध न 

ओष्ट्य-पफबभम 

अन्तस्थ-यरलव 

ऊष्म--स 

प्राणध्वनि--ह 

निग्गहीतं--अं 





संस्कृत और पालि का घ्वनि समूह 

१. ऋ ऋ, ल्‌ ऐ ओ स्वरों का पालि में प्रयोग नहीं मिलता । 

२. पालि में दो नए ह्वस्व ए ओ मिलते हैं जो संस्कृत के ए और ओ ही हैं । 

३. पालि में विसगं नहों मिलता । 

४. पालि में श्‌ ष्‌ व्यञ्जन नहीं मिलते । 

५. ल्‌ ल्ह व्यञ्जनों का पालि में संस्कृत की अपेक्षा अधिक प्रयोग होता | 
है । ढु का स्थान लहनेले लिया है। | 

६. स्वतन्त्र स्थिति में 'ह' प्राणध्वनि व्यञ्जन होते हुए भी यूर्‌ल्‌वूया | 
अनुनासिक से संयुक्त होने पर उसका एक विशेष प्रकार से उच्चारण : 
होता है, जिसे पालि में वैय्याकरणों ने ओरस या हृदय से उत्पन्न | 
कहा है । 

पालिभाषा का महत्त्व 


१. भाषाविज्ञान की दृष्टि से--हम हिन्दी के ध्वनि समूह के पूर्ण ज्ञात के 
लिए मध्यकालीन आर्यंभाषाओं का अध्ययन करते हैं, उनमें पालि 
प्रमुख भाषा है । 

२. अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों की दृष्टि से-पालि का क्षेत्र व्यापक है । सिंहल, 
बरमा, श्याम आदि देशों की भाषाओं के विकास में पालि भाषा का 


पालि भाषा और साहित्य 


क. ८१ 


महत्त्वपूर्ण योगदान होने से उन देशों से सांस्कृतिक सम्बन्ध दृढ़ करने में 
पालिभाषा का अध्ययन सहायक है । 

३. बोद्ध धर्म की ष्टि से-बोद्ध धर्म का सर्वाङ्गीण अनुशीलन पालि 
भाषा के अध्ययन के विना सम्भव नहीं है । इस दिशा में बौद्ध धर्म 
का विदेशों में प्रसार देखते हुए अन्तर्राष्ट्रीय एकता में यह भाषा 
सहायक हो सकती है । 

४. साहित्य की दृष्टि से--इसमें कथा साहित्य का चरम निदशंन है। 
धामिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों का भी पालि साहित्य में 
समावेश हुआ है। 

५. इतिहास की दृष्टि से--पालि त्रिपिटकों में तत्कालीन भारतीय इतिहास 
की अमूल्य सामग्री समाहित है । 

६. भौगोलिक दृष्टि से--प्राचीन भारत के भूगोल को जानने के लिए 
प्राचीन पालि साहित्य उपादेय है । मगध, कोसल आदि जनपदों की 
सीमा का ज्ञान पालि साहित्य से हो सकता है । 

७. धर्मं ओर दर्शन की हृष्टि से--इस भाषा में बौद्ध धर्म एवं दर्शन 
निहित है । 

इस प्रकार प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं विचारधाराओं का अध्ययन करने 

में पालिभाषा का अध्ययन सहायक है । 


पालि साहित्य का विकास 


पालि साहित्य में त्रिपिटक सर्वाधिक प्राचीन हैं । बुद्ध के मूल वचन त्रिपिटक 
में संकलित हैं । त्रिपिटक का अर्थ है तीनपिटक या पिटारियां जिनके नाम ये हैं-- 
सुत्त पिटक, विनयपिटक, अभिधम्म पिटक । 

सुत्त पिटक में तर्क एवं प्रश्नोत्तरों के रूप में बुद्ध के उपदेश हैं। यह थिटक 
पंचनिकाय या शास्त्र मे विभक्त है--दीघ निकाय, माज्झम निकाय, संयुक्त निकाय, 
अंगुत्तर निकाय तथा खुहक निकाय । 

विनयपिटक एक बौद्ध धर्म संबंधी आचारों की व्याख्या करनेवाला पूर्ण ग्रन्थ 
है जिसकी वस्तु तीन ग्रन्थों में विभक्त है- सुत्त विभंग, खन्धक, और परिवार । 

अभिधम्म पिटक में बुद्ध दर्शन का चिन्तनपूणे विवेचन है। यह सात ग्रन्थों 
में विभक्त है-- धम्मसंगणि, विभंग, घातुकथा, पुग्गलपञ्जति, कथावत्थु, यमक 
पट्ठान । 

त्रिपिटक के अनन्तर अनुपिटक साहित्य लिखा गया । 'मिलिन्नपन्ह' पालि के 
प्राचीन ग्रन्थों में त्रिपिटकों के बाद अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । इसका संकलन 
महास्थविर नागसेन ने किया | इसमें सात अध्याय हैं । इसमें तत्त्वज्ञान, साहित्य, 
इतिहास और भूगोल आदि विषयों का अपूर्व संयोग है । 








रबर मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


मिलिन्दपन्ह के अनन्तर आचारय बुद्धदत्त की क्ृतियाँ 'अभिधम्मावतार' तथा 
'चिनय वितिच्छय मिलती हैं।' 

बुद्धदत्त के समकालीन बुद्धघोष ने महत्त्वपूर्ण अनुपिटक साहित्य की रचना 
की । बुद्धघोष के समय में ही बौद्धों ने पालि के स्थान पर संस्कृत अपनाना प्रारम्भ 
कर दिया था । 

बुद्धघोप के अनन्तर अट्ठकथाकार' के रचयिता थेर धम्मपाल का नाम 
महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने बुद्धघोष के 'विसुद्धिमग्ग' पर भी 'परमत्यमंज्ूपा' नामक 
पाण्डित्यपूर्ण टीका प्रस्तुत की । 

तदुपरान्त पालिभाषा में वंशग्रन्थ लिखे गए--यथा -- 

दीपबंश, महावंश, चुलवंश, बुद्धघोपुप्पत्ति, सद्धमसंग्रह, महाबोधिवंश, 
थुपबंश आदि । 

पालि में उन्नत काव्य की परम्परा नहीं मिलती । त्रिपिटक में बुद्ध के उदात्त 
विचार मिलते है किन्तु वह काव्य न होकर उपजीवी ग्रन्थ हैं। पालि में दो प्रकार के 
काव्यग्रन्थ लिखे गए-_वर्णनात्मक और आख्यानात्मक । 
जातक कथा के भाग 


प्रत्येक जातक कथा पाँच भागों में विभक्त रहती है । उसमें-- 

(१) वर्तमान घटना रहती हे । बुद्ध के जीवन में जो घटता घटी उसे 
पच्चुपन्नवत्थु कहते हैं । 

(२) पूर्वजन्म का वृत्त--इस जन्म की कथा को लक्ष्य बनाकर बुद्ध अपने 
पुत्रे जन्म की कथावृत्त से इसे जोड़कर जो उपदेश देते हैं उसे अतीतवत्थु कहते हैं । 

(३) प्राचीन एवं पद्य अंश पूर्वजन्म के वृत्तान्त के आधार पर कहीं वर्तमान 
घटना गढ़ ली जाती हैं तो उसे गाथा कहते हैं। गाथाएँ जातक का प्राचीनतम 
अंश हैं । 

(४) गाथाओं की व्याख्या को वेय्यकरण या अत्थवण्णना कहते हैं 

(५) समोधान या उपसंहार के अन्तर्गत पूवं जन्म के वृत्त के पात्रों का बुद्ध 
के जीवन काल के पात्रों के साथ सम्बन्ध मिलाया जाता है । 

जातक गद्य-पद्य मिश्रित रचना है। इसमें गाथा भाग प्राचीनतम है। शेष 
अंश उसकी व्याख्या के रूप में है अत्थवण्ण्ता है । सम्पूर्ण जातक में उपयुक्त 
पंचावयवो का होना आवश्यक है । गाथा और उसकी व्याख्या समस्त अंश को जातक 
कहते हैं । 
जातक कथाएं : एक परिचय 


संस्कृत की नीति कथाओं में मानवेतर पशु-पक्षी आदि को पात्र बनाकर 
नीति या नैतिक उपदेश प्रस्तुत किए जाते हैं। जातक कथाओं में पशु, पक्षी, देव 


SIRT 000 0000 


पालि भाषा और साहित्य क... च 


आदि पात्र हैं। ये पात्र मानवेतर हैं। इन पात्रों के माध्यम से जातकों में अलौकिक 
और अतिमानवीय घटनाओं का समावेश किया जाता है । 

जातक कथाएँ नीति कथा से इस रूप में भिन्न है कि इनका उद्दृश्य भगवान 
बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथा प्रस्तुत करना है न कि कोई नैतिक उपदेश । भगवान बुद्ध 
के पूर्वजन्म की कथाओं में उपदेश भी अनुस्यूत हैं। ये जन-साहित्य का रूप प्रस्तुत 
करते हैं । विभिन्न कथानकों का अध्ययन करके पाश्चात्य विद्वान्‌ विन्टरनिट्ज ने 
उनको सात भागों में बाटा है-- हे 

१, व्यावहारिक नीति-सम्बन्धी कथाएँ । 
२. पशुओं की कथाएं । 
३, हास्य और विनोद से पूर्ण कथाएं । 
४. रोमांचकारी लम्ब्री कथाएँ या उपन्यास । 
५, नेतिक वर्णन । 
६. कथन तथा 
७. धामिक कथाएँ । 

इनमें पशु-कथाएँ विशेष महत्त्वपूर्ण एवं साहित्यिक रूप रखती हैं । इन कथाओं 
में मानव-जाति की विकृति और पग्नु जाति का उत्कर्ष प्रदर्शित है । जातक कथाओं से 
तत्कालीन युग का परिचय मिलता है । अतः भारतीय इतिहास में इनका विशेष 

हत्त्व है । 

जातक साहित्य में तात्कालिक सासाजिक जीवन 


१. जातक साहित्य से हमें तत्कालीन भारत की वर्ण-व्यवस्था का परिचय 
मिलता है । समाज में चतुवंर्ण व्यवस्था प्रचलित थी। इस काल में 
रक्त शुद्धि के प्रति विशेष मोह था । 

२. जातक साहित्य से पता चलता है कि विवाह में सजातियों को ही महत्त्व 
देते थे क्योंकि हंस कौरी के सहवास से अयोग्य सन्तान उत्पन्न होती है। 
अन्तर्जातीय विवाह विगहंणीय था । समान गोत्रियों की अपेक्षा भिन्न 
गोत्रियों में विवाह सम्बन्ध होते थे । 

३. जातक रचनाकाल में कन्या के विवाह की अवस्था २० से लेकर ३० 
वर्ष तक अच्छी समझी जाती थी, उन्हें योग्य वर के वरण की 
स्वतन्त्रता थी । 

४. जातक साहित्य से पता चलता है कि रक्त-शुद्धि एवं सदाचरण पर जोर 
था । अवैध सन्तान की समाज में अच्छी स्थिति नहीं थी | 

५, जातक रचताकाल में 'भात' सामान्य भोजन था। ब्राह्मण मांस-भोजी 
थे । तथा उनके अनुसार बुद्धिमान मांस-भोजी को हिसाजन्य पाप नहीं 
लगता था । सुअर का मांस दावतों में खाते थे । 





१८४ मौखिक-परीक्षा पथप्रदश्चिका 

६, जातक साहित्य में तत्कालीन व्यसनों की चर्चा भी है, यथा वेश्यागमन, 
सुरापान आदि । 
उस काल में समाज में अंधविश्वास का रूप समाज में दृढ़ था । 
उस काल में साहित्य के अध्ययन एवं शिक्षा का प्रचार था, तक्षशिला 
शिक्षा केन्द्र था । 
, उस काल में समाज में परस्पर मंत्री के भाव पर अधिक बल देने थे । 

१०, उस काल में दास प्रथा थी, राक्षस विवाह होते थे। डाके-चोरी भी 

होते थे । 

११. उस काल में भारतीय समाज में विरक्त लोगों का भी अभाव नथा । 

इस प्रकार जातक साहित्य तत्कालीन भारतीय समाज एवं संस्कृति की 
व्यापक जानकारी कराने वाला है । 
गोतम बुद्ध के उपदेश तथा बोधिसत्त्व 

गौतम बुद्ध ने चार आर्यसत्यों द्वारा मानव जीवन की वास्तविकता का उदू- 
घाटन किया है-- 

(१) दुःख (२) दुःख समुदय (३) दुःखनिरोध तथा (४) दुःखनिरोधगामी 
मागं । 

गौतम बुद्ध ने मानव मात्र के लिए कमं क्लेश को शान्त करने वाला कल्याण- 
कारी अष्टांगिक मागं बताया-- 

(१) सम्यक दृष्टि (२) सम्यक्‌ संकल्प (३) सम्यक्‌ वचन (४) सम्यक्‌ कमं 
(५) सम्यक्‌ जीविका (६) सम्यक्‌ प्रयत्न (७) सम्यक्‌ स्मृति तथा (द) सम्यक्‌ 
समाधि । 

गौतम बुद्ध ने छः पारमिताओं (पूर्णताओं) को भिक्षुओं का सर्वस्व 
माना है— 

(१) दान (२) शील (३) क्षान्ति (४) वीयं (५) ध्यान और प्रज्ञा । 

बोधिसत्व महायान सम्प्रदाय का शब्द है । इसका शाब्दिक अर्थ है 'बोधि 
प्राप्त करने की इच्छा रखने बाला व्यक्ति'--- 

बोधौ सत्वं अभिप्रायोऽस्येति बोधिसत्त्वः । यह अवस्था साधक के जीवन 
का एक मात्र उद्देश्य है जिसके लिए वह महामंत्री और महाकरुणा का अनुष्ठान 
करता हे । बोधिसत्व की सप्तविध पूजा इस प्रकार हैं-- 

(१) बन्दना (२) पूजा (३) पापदेशना (४) पुण्यानुमोदन (६) अध्येषणा 
(७) बोधिचित्तोत्पाद तथा (८) परिणामना । 





र्ड 


विशेष कवि : () सूरदास 
स्थितिकाल एवं परिचय 


आचार्य पं० रामचद्ध शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है कि सूरदास का 
“जन्मकाल संवत्‌ १५४० के आसपास तथा मृत्युकाल सं] १६२० के आसपास ही 
अनुमित होता है ।' डॉ० दीनदयाल गुप्त ने अनुसन्धान करके लिखा हे कि “सूरदास 
की जन्म तिथि सं० १५३५ की वैशाख शुक्ला पंचमी मंगलवार ही सिद्ध होती है।' 
“सूर निर्णय' के आधार पर उनका १६३८ विक्रमी तक जीवित रहना सिद्ध होता है। 
अतः उनकी मृत्यु सं० १६४० के आसपास मानी जा सकती है । 

परिचय--पं० रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-- साहित्य लहरी के अन्त में एक 
पद है जिसमें सूर अपनी वंशपरम्परा देते हैं। उस पद के अनुमार सूर पृथ्वीराज के 
कवि चन्दबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे । चन्द कवि के कुल में हरीचन्द हुए जिनके सात 
पुत्रों में सबसे छोटे सूरजदास या सूरदास थे । शेष ६ भाई जब मुसलमानों से युद्ध 
करते हुए मारे गये तब अंधे सूरदास बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे । एक 
दिन वे कुएँ में गिर पड़े और ६ दिन उसी में पड़े रहे । सातवे दिन कृष्ण भगवान्‌ 
उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें दृष्टि देकर अपना दर्शन दिया । भगवान्‌ ने कहा कि 
दक्षिण के एक प्रबल ब्राह्मण कुल द्वारा शत्रुओं का नाश होगा ओर तू सब विद्याओं 
में निपुण होगा । इस पर सूरदास ने वर माँगा कि जिन आँखों से मैंने आपका दर्शन 
किया उनसे और कुछ न देखु' और सदा आपका भजन करू । कुएँ से जब भगवान्‌ ने 
उन्हें निकाला तब वे ज्यों के त्यों अंबे हो गये और ब्रज में आकर भजन करने लगे । 
वहाँ गोसाईजी ने उन्हें अष्टछाप में लिया ।! पं० रामचन्द्र शुक्ल ने इस पद को 
प्रक्षिप्त मानकर लिखा है 'हमारा अनुमात है कि “साहित्य-लहरी' में यह पद पीछे 

१८५ 





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१५६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


किसी भाट कै द्वारा जोड़ा गया है । शुक्लजी ने “चौरासी वेष्णवों की वार्ता' के सूरदास 
के वृत्त को ही प्रामाणिक माना है जिसके अनुसार इतना ज्ञात होता है कि वे पहले 
गऊधाट (आगरा और मथुरा के बीच) पर एक साधु या स्वामी के रूप में रहा करते 
थे और शिष्प किया करते थे । गोवद्धन पर श्रीनाथजी का मन्दिर बन जाने के पीछे 
जब वल्लभाचार्यजी गऊघाट पर उतरे तब सूरदास उनके दर्शन को आये ओर उन्हें 
अपना बनाया एक पद गाकर सुनाया । आचार्यजी ने उन्हें अपना शिष्य किया और 
भागवत की कथाओं को गाने योग्य पदों में करने का आदेश दिया । उनकी सञ्ची- 
भक्ति और पद रचना की निपुणता देख वल्लभाचार्यजी ने उन्हें अपने श्रीनाथजी के 
मन्दिर की कीत्तेन सौंपी । संवत्‌ १५८० के आसपास सूरदासजी वल्लभाचायंजी 
के शिष्य हुए होंगे और शिष्य होने के कुछ ही पीछे उन्हें कीत्तंन सेवा मिली होगी । 
तब से वे बराबर गोवद्ध न पर्वत पर ही मन्दिर की सेवा में रहा करते थे, इसका 
स्पष्ट आभास उनकी 'सूरसारावली' के भीतर मौजूद है ।” 
सुरदास की रचनाए 

इनकी तीन रचनाएं बताई जाती हैं-- 

(१) सूरसागर, 

(२) सूरसागर सारावली, तथा 

(३) साहित्य-लहरी । 

डॉ० ब्रजेश्‍वर वर्मा ने सूरसागर को स्फुट पदों का संग्रह न मानकर एक क्रम- 
बद्ध प्रबन्ध-कल्पना संयुक्त भागवत के आधार पर रचा ग्रन्थ माना हे । इसमें कृष्ण की 
ब्रजलीला की रूपरेखा बनाने के लिए ही श्रीमद्भागवत का आधार लिया है। इसके 
अतिरिक्त सूर ने अनेक नवीन प्रसङ्गों की अवतारणा की है । यह सूरदास की प्रामा- 
णिक रचना है। 

'सारावली' को डॉ० दीनदयाल गुप्त ने प्रामाणिक नहीं माना है। डॉ० 
ब्रजेशवर वर्मा ने साहित्य लहरी! को सूरदास की रचना नहीं माना है । 
सुर साहित्य की विशेषताएं 

डॉ० मु शीराम शर्मा ने सूर साहित्य की निम्नलिखित विशेषताओं का विस्तार 
से विवेचन किया है-- 

(१) वात्सल्य रस की पूणं प्रतिष्ठा एवं वेशिष्ट्य । 

(२) हरिलीला का श्ृङ्गारपरक निरूपण । 

(३) सूरसागर में व्यंग्यप्रधान काव्य की सृष्टि । 

(४) भावराशि का हष्टकूट शेली में प्रस्तुतीकरण । 

(५) सुर की प्रखर एवं तीब्र कल्पना, अन्तःभावों के सूक्ष्म एवं अनेकविध 
चित्रण । 

(६) चित्रात्मकता एवं सजीवता । 

(७) भावात्मकता हरिलीला वर्णन में आवश्यक । 





विशेष कवि : सूरदास 


(८) पुष्टि सम्प्रदाय का सैद्धान्तिक आधार | 
(६) वक्रोक्तियाँ या उक्ति चमत्कार का वैभव तथा 
१०) आध्यात्मिकता की भावना हरिलीला के वर्णन में । 


( 


सुर का वात्सल्य रस 


डॉ० मुन्शीराम शर्मा ने लिखा है कि “वात्सल्य रस के शृङ्गार को ही भाँति 
। पक्ष हैं->संयोग और वियोग । संयोग वात्सल्य के तो नहीं पर वियोग वात्सल्य के 
चार भेद किये जा सकते हैं-- 
(१) प्रवास को जाते हुए 
(२) प्रवास में स्थित 
(३) प्रवास से लौटते हुए तथा 
(४) करुण वियोग वात्सल्य । 
संयोग वात्सल्य के उदाहरण 
जसोदा हरि पालने झुलावे । 
xX > > 
हों बलि जाउ छब्रीले लाल को । 
xX > x 
आँगन स्याम नचावहीं जसुमति नंदरानी । 
भेट > >< 
छोटी-छोटी गुडियाँ अंगुरियां छोटी छबीलो, 
नख ज्योति मोती मानों कमल दलन पर । 
> xX xX 
| स्याम कहा चाहत से डोलत, 
बुफे हूते बदन दुरावत सुधे बोल न बोलत । 
मातृ हृदय की वात्सल्य भाव-सरिता-- 
सेरो नान्हरिया गोपाल, बेगि बडी किनि होहि । 
कृष्ण के मधुरा चले जाने पर यशोदा के हृदय के भावों की व्यंजना वियोग 
वात्सल्य के अन्तर्गत आती है-- 
जसोदा बार-बार यों भाख । 
| है कोऊ ब्रज में हितू हमारो, चलत गोपार्लाह राखे । 


> >< xX 
नन्द ब्रज लीज ठोंकि बजाय! 
xX xX > 


विह्लल भई जसोदा डोलति, दुखित नंद उपनंद । 


isi i i 





७०७७ sme सहर 


sem ३४० 


(नन मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


सुर की राधा 
सूर की राधा का नाम हमें भागवत, महाभारत, हरिवंशपुराण, ब्रह्मपुराण, 
विष्णुपुराण आदि किसी भी प्राचीन संस्कृत ग्रन्य में नहीं मिलता । महाकवि भास के 
नाटकों में भी इनका नाम नहीं मिलता । पंचतन्त्र के पंचम शताब्दी के संस्करण में 
राधा का नाम आया है । पांचवीं शताब्दी के बाद निर्मित संस्कृत साहित्य में राधा 
का नाम मिल जाता है । देवगिरि और पहाड़पुर की मूत्तियों में, धारा के अमोघवपं 
के ६८० ई० के शिलालेख में और मुज (९७४ ई०) के तामपत्र में तथा आनन्द, 
वर्धन के ध्वन्यालोक में राधा का उल्लेख है । सूर ने राधा और कृष्ण में सांख्य की 
प्रकृति और पुरुष का रूप देखा हे -- 
ममार्द्धश स्वरूपा त्वं मूल प्रकृतिरीशवरी । सुर ने लिखा है-- 
प्रकृति पुरुष एके करि जानहु बातति भेद करायो । 
गोपी ग्वाल कान्ह दुइ नाहीं, ये कहुँ नेक न न्यारे। 


x > > 
राधा हरि आधा आधा तनु एकं है ब्रज में हु अवतरि । 
> > > 


सुर स्याम नागर इह नागरि एक प्राण तन ह्व है । 
भ्रमरगीत का अर्थ 


अमर का गीत 'ञ्रमरगोत' है । भ्रमर सम्बन्धी गान या भ्रमर को लक्ष्य करके 
लिखे गए पद “भ्रमरगीत' हैं । यह 'भ्रमरगोत' का शाब्दिक अर्थ है । हिन्दी साहित्य 
में इस शब्द का प्रयोग विशेष अथं में होता रहा है। कृष्ण भक्ति काव्य-धारा में 
अमरगीत” का सम्बन्ध राधा-गोपी-नन्द-यशोदा तथा श्रीकृष्ण के ज्ञानाभिमानी 
सखा उद्धव के सम्वाद से है। 
डॉ० सत्येन्द्र ने लिखा है--“भ्रमर शब्द भी अर्थविकास की हृष्टि से भ्रमर 
नामक कीट से अर्थंविस्तार करके कृष्ण का पर्याय हुआ और तब पति का भी पर्याय 
हो गया। लोकगीतों में भी यही भ्रमर 'भॅवरजी' होकर पति के लिए रूढ़ ही हो 
गया है ।” 
यदि डॉ० सत्येन्द्रजी की व्याख्या को मानें तो भ्रमरगीत का अर्थ होता 
भिवरजी (नायक श्रीकृष्ण) को लक्ष्य करके लिखी गयी कविता ।' 
उद्धव का वर्ण भ्रमर के समान था और कृष्ण का भी । उद्धव योगी होने के 
नाते पीतवस्त्रधारी थे और कृष्ण भी पीताम्बरधारी थे। अतः गोपियाँ उद्धव और 
कृष्ण दोनों को भ्रमर कहती हैं-- 
मधुकर ! जानत हैं सब कोऊ। 
जसे तुम ओर मीत तुम्हारे गुननि निपुन हौ दोऊ। 
पाके चोर हृदय के कपटो, तुम कारे अरु बोऊ ॥ 


विशेष कवि : सूरदास 
१८९ 
गोपियो ने श्रीकृष्ण द्वारा गोपियो से प्रेम करके म 
को निर्मोही भ्रमर का एक फूल से रस लेकर उड़कर 
लगाया है । भ्रमर और कृष्ण दोनों भ्रमणर्श 
माने गए हें 
इसीलिए श्रीकृष्ण के लिये 'भ्रमर' एक प्रतीक है— 
कोउ कहै री ! मधुप भेस उन्हीं को धारयो । 
स्याम पोत गु'जार बैन किकिन झनकारयो । 
चा पुर गो-रस चोरि के आयो फिर यहि देश । 
इनको विलग जनि मानहु कोऊ कपटी इनको भेत । 


अमरगीत एक पद्पदी छन्द भी है। कृष्ण काव्यास्तगंत अमरगीत श्रीमदू: 
भागवत के दशम स्कन्ध के 


थुरा जा बंठने की घटना 
कर दूसरे पर बंठजाने से साहश्य 
गील, चांचल्य एवं शठ नायकत्व की मूरति 


वा वे वादि के ४७ वें अध्याय के भ्रमर प्रसङ्ग पर आधारित 
है। वहाँ १२ व से २१ वे यलोक तक भ्रमर को लक्ष्य करके कहे-गए गोपियों के 
उपालम्भ का मार्मिक वर्णन हुआ । गोवियाँ भ्रमर के माध्यम से उद्धव पर व्यंग्य 
करती हुई उन्हें तथा श्रीकृष्ण को उनके शठ नायकत्व पर बहुत खरी-खोटी मुनाती 
हैं । श्रीमदूभागवत्‌ के इस उपालम्भ-प्रसंग का भक्तिकालीन एवं परवर्ती काव्य में 
श्रमरगीत' के रूप में विकास हुआ है । 

अमरगीत की प्रबन्धात्मकता 


क्या 'भ्रमरगीत प्रवन्धकाव्य है ? क्या उसमें कथासूत्र अनुस्यूत हैं? यह 
प्रश्न बड़े विवादास्पद हैं । श्रमरगीत एक भावप्रधान मुक्तककाव्य है क्योंकि उसमें 
प्रबन्धकाव्य का सा स्वाभाविक कथा का विकास नहीं दिखलाई पडता । यद्यपि 
भ्रमरगीत में हमें भावना का क्रमबद्ध विकास दिखाई पड़ता है किन्तु अपनी भाव- 
प्रधानता के कारण भ्रमरगीत एक गीतिकाव्य है । 
कृष्ण मथुरा में हैं । कंस को मारने के पश्चात्‌ भी परिस्थितिवश वे गोकुल 
नहीं लौट पात । उन्हें ब्रजवासियों के स्मरण से अधीरता होतो है । उनके मित्र उद्धव 
न्हे ज्ञानोपदेश देते हैं किन्तु कृष्ण तो प्रेम के रंग में रंगे हैं। वे उद्धव का ज्ञानगवं 
चूर करने के लिए उन्हें गोपियों को ज्ञानोपदेश के लिए गोकुल भेजते हैं। उनका 
विचार निगुणवादी उद्धव को गोपियों के उपदेश से सगुणवादी ही बनाने 
का है। 
यह है भ्रमरगीत की भूमिका । इसके अनन्तर उद्धव के गोकुल प्हुँचने पर 
गोपियों की प्रतिक्रिया, गोपी-उद्धव सम्वाद तथा उद्धव का प्रेम के रंग में रंगकर 
मथुरा लौटकर आना प्रवस्ध का विकास है। उद्धव कृष्ण को गोकुल चलने की प्रेरणा 
देते हैं यह इस प्रसंग का उपसंहार है । इस प्रकार भ्रमरगीत में एक अन्विति दिखाई 
देतो है । यद्यपि यह मुक्तक शेली में लिखा हुआ भावप्रधान काव्य है, फिर भी इसमें 
जो कथा-सुत्र मिलता है, प्रबन्ध का स्वाभाविक विकास मिलता है, वह सूरदास के 





(६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदर्शिका 


प्रबन्ध-शिल्प का परिचायक है । इस प्रकार सुर ने इस मुक्तक रचना को भाव की 
हृष्टि से अन्वित रखकर मामिक बना दिया है । 
सुर के भ्रमरगीत में विप्रलम्भ थंगार 
श्रृंगार के दो पक्ष हैं-संयोग और वियोग या विप्रलम्भ । विप्रलम्भ के 
आचार्यों ने चार भेद किए हैं-- 
(१) पूर्वराग-यह मिलन के पूर्व का वियोग है । 
(२) मान--मिलन की अवस्था में नायक-नायिका परस्पर रूठकर मान करते 
हैं उसके कारण वियोग मान-वियोग कहलाता हे । 
(३) प्रवास--नायक के विदेश जाने पर नायिका को उसके बिछोह का 
दुःख प्रवास विप्रलम्भ' होता है । 
(४) करुण--प्रिय से मिलन की सम्भावना न रहने पर 'करुण विप्रलस्म' 
होता है । 
भ्रमरगीत में प्रवास विप्रलम्भ' प्रधान है । श्रीकृष्ण मथुरा चले जाते हैं, 
गोपियाँ उनके रथ के चक्रों से उठने वाली धुल को नयनो में अथु भरे अपलक देखती 
रहती हैं । जब बहुत प्रतीक्षा के वाद भी श्रीकृष्ण नहीं लोटते तो गोपियों का प्रवास 
विप्रलम्भ’ 'करुण विप्रलस्भ' में परिवर्तित हो जाता हे । 
सूरदास ने अपने भ्रमरगीत में विप्रलम्भ का अत्यन्त पुष्ट, श्लिष्ट एवं 
उत्कृष्ट चित्रण प्रस्तुत किया है जिसमें हृदय की विभिन्न भाव दशाओं का समावेश 
करके कविने उसे अत्यन्त मामिक बना दिया है । उन्होंने भावों के तीव्र वेग को शब्दों 
में बाँधकर, भावों के अन्तद्व नह का सजीव चित्रण करके, विरह की वेदना को हृदय 
में छिपाकर मुस्कराती हुई विरहिणी गोपियों का चित्रण करके अपने भ्रमरगीत में 
विप्रलम्भ का विशिष्ट रूप प्रदर्शित किया है । 
सूर ने अपने विरह-वर्णन में परम्परा मात्र का अनुसरण न करके विरह की 
विभिन्न अवस्थाओं का मार्मिक चित्रण क्रिया है । भ्रमरगीत में गोपी-विरह ही 
प्रधान है । उद्धव कृष्ण का सन्देश लेकर आते हैं-- 
निरखत अंक स्यामसुन्दर के 
बार बार लावति छाती। 
लोचन-जल कागद मसि मिलिक, 
हृ गई स्याम स्याम को पातो । 
गोपियों की विरह भावना को सूरदास ने बहुत व्यापक दिखाया है, गोपियाँ 
उद्धव को बताती हैं-- 
देखियत कालिन्दी अति कारी । 
कहियो पथिक जाय हरि सों, ज्यों भई विरह-जुर-जारी । 
योपियाँ परम वियोगिनी हैं, उनका साहश्य अन्धे कवि सूरदास ने जलहीन दीन 


~ 


विशेष कवि : सूरदास : | 


कुमुदिनी से दिखाया है जो सूर्य के प्रकाश ने जला डाली 
हृई मछली से, वसे ही वे भी व्याकुल हैं, जन्म 


कैसे व्यक्त करें 


है, अथवा जल से बिछुडी 
भरण का प्रश्‍न और इस विरह को 


ज्यों जल-हीन दीन कुमुदिनि बन रवि प्रकाश की डाढ़ी । 
जिहि विधि मौन सलिल ते ज्छुरे, तिहि अति गति अकुलानी । 
सुखे अधर न कहि आवे कछु वचन रहित मुख बानो ॥ 
उद्भव के ज्ञानोपदेश से गोपियाँ झुकला उठती हैं और उपालम्भ देती हुँ 
कभी फटकारती हैं--- 2 
रहु रे मधुकर, मधु मतवारे ! 
कहा करों निगुन ले क॑ हों, जीवहु कान्ह हमारे । 
मिलन की आकुलता गोपियों के विरह को चरमावस्था पर पहुँचा देती है । 
विरह-व्यथा के साथ मिलन की अभिलाषा बड़ी दीनता भरी वाणी में व्यंजित 
हुई है । 
सूर ने विरह की आचार्यो द्वारा मान्य दक्षाओं का चित्रण किया है । उद्धव 
ज्ञानी से प्रेमो बनकर लोटते हैं और कृष्ण को गोकुल जाने के लिए प्रेरित करते हैं 
इसी में सूर के विप्रलम्भ श्वुँगार की पूर्ण सफलता निहित है। 
सुर का संयोग-श्वू गार 


श्वृद्गार का संयोग पक्ष प्रेमी-प्रेमिका के नख शिख वर्णन, हास-विलासःक्रीड़ा- 
विनोद, आलिंगन चुम्बन एवं सुरत के व्यापारों से पुर्ण रहता है। सूरदास के 
भ्रमरगीत में उनका विप्रलंभ अत्यन्त मामिक बन पड़ा है । सुर ने संयोग-श्युगार का 
वर्णन भी मामिक किया है। उन्होंने 'लरिकाई के प्रेम का स्वाभाविक विकास 
दिखाया है । उन्होंने राधा-कृष्ण के श्रृंगार का उत्तरोत्तर विकास दिखलाने में अभूत- 
पूर्व सफलता प्राप्त की है । 
सुर के संयोग-श्ृंगार में कृष्ण नायक हैं ओर राधा नायिका तथा गोपियाँ 
राधा की सहायक । कृष्ण का बहुनायकत्व दिखाकर सुरदास ने खण्डिता नायिका का 
रूप भी प्रस्तुत किया है किन्तु मुख्य केन्द्र राधा ही हें । 
राधा और कृष्ण के प्रेम का विकास अत्यन्त स्वाभाविक वातावरण में 
होता हे-- 
नैन नैन मिलि परी ठगोरी। 
कृष्ण उस विशाल नयनों वाली से पूछते हैं-- 
पूछत श्याम कोन तु गोरी। 
राधा चपलता के साथ कहती है कि नन्द-यशोदा के दूध दही चोर 
लड़के को देखने को आई हुँ। बड़ा आकर्षक वार्ता का क्रम है। यह क्रम निरन्तर 
विकसित होता जाता है-- 





अकी 


MT - 2००: 2णर्वाएजफ 7 7 


१९२ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


बाँह तुम्हारी नंफु न छांड़ों, महर खोशि हैं हमको । 
आचार्यों द्वारा निरूपित संयोगावस्था का चित्रण करने में सूर किसी से पीछे 
नहीं रहते-+- 
आलिगन दै अधर दशन खंडि कर गहि चिबुक उठावत । 
नासा सों नासा ले जोरत नन नंन परसावत॥ 
सूर ने राधा-कृष्ण के अभिसार, दूतिका-प्रसंग, मान, ईर्ष्या आदि के अनेक 
चित्र प्रस्तुत किये हैं। यह प्रेम साहचर्यजनित अनुराग है। सूर की रागानुगा भक्ति 
संयोग-श्रुंगार के वर्णन में मुखरित हो उठी है -- 
नीबी ललित गही जढुराई । 
जबहि सरोज धरयो श्रीफल पर, जघुमति गई आइ । 
चुम्प्रत अंग परस्पर जनु जुग चन्द फर हित चार। 
दसननि वसन चापि सु चतुर अति करत रंग विस्तार । 
गुन सागर अस रस सागर मिलि, मानत सुख व्यवहार । 
डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा ने लिखा है कि 'रात्रि के समय राधा की शोभा का वर्णन 
करने में कवि सुर ने उपमाओं का अन्त कर दिया है। अति सूक्ष्म कटि, विशदू 
मितम्ब, भारी पयोधर वाली सुकुमारी जब कन्दुक क्रीड़ा करती है, तो उसका चंचल 
अंचल हट जाता है और फटी कंचुकी और सटे कुच दिखाई देने लगते हैं । दोनों के 
मिलाप से ऐसा जान पड़ता है मानो नील जलद ने विधु को बन्धु बना लिया है और 
नभ में अनियारी कला का उदय हो गया ।' 
भक्ति की पावन छाया में यह यौवन रस, चुनरी, पीताम्बर, लालसा मिलत, 
आलिंगन, चुम्बन, सुरति आदि का वर्णन लोकोत्तर सोमा का श्ुंगार है । कुष्ण ब्रह्म 
के प्रतीक हैं, गोपियां जीवात्मा की। राधा ब्रह्म की प्रकृति या शक्ति है। दोनों के 
संयोग के अनन्यभाव का प्रतिपादन करने के लिए ही सूरदास ने संयोग श्युंगार का 
पूर्णता एवं पराकाष्ठा का वर्णन क्रिया है, जो अत्यन्त सफल एवं मार्मिक है । 


सुर का रामकाव्य 


“सूर सारावली' में सुर ने रामचरित प्रस्तुत किया है। डॉ० रामचन्द्र 
विल्लोरे ने लिखा है कि 'सूरसागर के नवम स्कन्ध के बालकाण्ड से लेकर उत्तरकाण्ड 
तक निहित केवल १५७ गेय पदों में सूर ने एक ओर गाहस्थ्य जीवन के समस्त 
प्रमुख रूपों की झाँकी प्रस्तुत की है तो दूसरी ओर रामकथा के प्रायः सभी मार्मिक 
प्रसंगों को अपनी हृदयानुभूति के रस व रङ्ग में डुबोकर चित्रित किया है। 
श्रीमद्‌भागवत की रामकथा से भी यह अधिक भावपूर्ण है। सुर सारावली की 
रामकथा तो सूरसागर की कथा से भी अधिक विस्तृत एवं ब्यवस्थित है।' सूर राम 
मौर कृष्ण में अन्तर नहीं देखते । उन्होंने सुरसागर में राम और कुष्ण को एक मात- 
कर युगपत्‌ स्तुति की है। वे तो राधा को भी सीता के रूप में देखते हैं । 








विशेष कवि : तुलसीदास Es 
सूर ने रामकाव्य की रचना एक परम्परा निर्वाह एवं घामिक समन्वय को 

भावना से की है । उन्होंने भावों की मामिकता की दृष्टि से रामकथा के कुछ प्रसंगों 

को चुतकर अपने गीतिकाव्य में प्रस्तुत किया । सूर की समन्वय की भावना तो इस 

बात में भी स्पष्ट है कि उन्होंने जंनियो के प्रथम तीर्थद्धर ऋषभदेव की बधाई 

बिस्तार से लिखी है । 

विशेष कवि : (॥) तुलसीदास 


स्थितिकाल एवं परिचय--पं० रामचन्द्र शुक्ल ने तुलसीदास का जन्म 
सम्वत्‌ १५५६ माना दै। गोसाई चरित में तुलसी का जन्म सम्वत्‌ १५५४ दिया है 
शिवस्िह सरोज में लिखा है कि गोस्वामीजी सम्वत्‌ १५८३ के लगभग उत्पन्न हुए 
थे | डॉ० प्रियंसत और पं० रामगुलाम दिवेदी के अनुसार तुलसी का जन्म सम्वत्‌ 
१५८६ है । अन्त में सम्वत्‌ १६८० में काशी में तुलसीघाट पर तुलसी ने श्रावण 
कृष्णा तीज शनि को महाप्रस्थान किया 
सम्बत्‌ सोलह सौ असो, असो गंग के तोर । 
श्रावण इयाना तोज शनि, तुलसी तज्यो शरीर ॥ 





ठाकुर शिवर्सिह सेंगर, पं० रामगुलाम द्विवेदी मिर्जापुरी तथा अन्य बहुत से 
मानस के टीकाकार एवं हिन्दी साहित्य के समालोचक तुलसोदासजी का जन्मस्थान 
3 


सहयोग भी प्रदान किया है । 

अन्तःसाक्ष्य के आधार पर कुछ विद्वान गोस्वामीजी का जन्मस्थान सोरों 
(मानस में शुकर क्षेत्र का वर्णन है) मानते हैं। पं० गौरीशङ्कर द्विवेदी, रामनरेश 
त्रिपाठी आदि विद्वान तुलसीदास का जन्मस्थान राजापुर मानते हैं। स्वर्गीय 
डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा है “राजापुर की जनश्रुति का अब कुछ प्राचीनतर 
रूप तुलसीदास के सोरों के साक्ष्य का अँशतः समर्थन करता है; दोनों स्थानों के 
साक्ष्यों में अन्तर यह है एक तो सोरों की सामग्री वहाँ के बदरिया गाँव में ससुराल 
का उल्लेख करती है और राजापुर की जनश्रुति यहाँ के मह॒वाँ गाँव में ससुराल होने 
का उल्लेख करती है, और दूसरे, सोरों की सामग्री कवि की राजापुर-यात्रा का कोई 
उल्लेख नहीं करती और राजापुर की जनश्रू ति के अनुसार कवि सोरों से आकर 
राजापुर इतने काल तक रहता है कि वहाँ पर एक बस्ती उसके तत्वावधान में बस 
जाती है और उसमें बहुत-सी प्रथाएँ उनके उपदेशों का आधार ग्रहण करके चल 
पड़ती हैं। इस दशा में थोड़ी देर के लिए सोरों की सामग्री तथा राजापुर की 
उपयु क्त जनश्व ति के साक्ष्य में जहाँ पर अन्तर है वहाँ पर यदि राजापुर की जनश्रुति 
को माना जाय तो भी सन्त तुलसी साहिब के उल्लेख इसका स्पष्ट विरोध करते हैं । 
इसलिए यह एक बिकट समस्या है कि सोरों के निकटवर्ती प्रांत मै--हाथरस सोरों 

१३ 





| 


१६४ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
के निकट ही है--राजापुर जन्मस्थान होने का प्रमाण मिले और राजापुर और 
उसके आस-पास सोरों जन्मस्थान होने का प्रमाण मिले । फलस्वरूप दोनों पक्षों के 
प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर यह कहना कठिन है कि दोनों में कौन-सा स्थान कबि 
का जन्म स्थान है, और यह भी सर्वथा अराम्भव नहीं कि कोई तीसरा स्थान इस 
पुनीत पद का अधिकारी हो । यह अवश्य निश्चय प्रतीत होता है कि गोस्वामीजी 
बहुत समय तक राजापुर रहे थे । और यात्रा उन्होने कदाचित्‌ उसी सूकर क्षेत्र की 
थी जो सोरों कहलाता है ।' 

तुलसी-काव्य का वर्गीकरण 

पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने तुलसी काव्य का वर्गीकरण इस प्रकार किया है- 


॥ वि | 

प्रबन्ध निबन्ध(सोहर शेली) मुक्तक 
सा क नाक 0 

रामचरितमानस महाकाव्य | | 


(दोहा-चौपाई छन्द शैली) जानकी मं० पार्वती मं० रामलला नहछू | 











१ २ ३ है 
| | | | | 
कवित्त शेली दोहा वरवे गीत दोहा चौपाई 
| शेली शैली शैली शैली 
| | | 
कवितावली तथा | बरवे रामायण | वैराग्य संदीपनी 
हनुमान वाहक |... 5 | १२ 
| | | | 
दोहावली सगुनावली राम क्ष्ण विनय 
६ ७ गीतावली गीतावली पत्रिका- 
& १० ११ 


तुलसी का काव्यलक्षण 
तुलसी ने मानस के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए काव्य के सम्बन्ध में 
अपने विचार व्यक्त कर दिए हैं-- 
वर्णानामर्थंसंघानां. छन्‍्दसामपि । 
मंगलानां च कर्तारो वन्दे वाणीविनायको ॥ 
तुलसीदास ने इस इलोक में अपना काव्यलक्षण सम्बन्धी मत प्रकट कर 
दिया है । उनके अनुसार काव्य में निम्नलिखित पाँच तत्त्वो की योजना आवश्यक है । 
१--वर्ण अर्थात्‌ भावानुकूल भाषा । 
२--अर्थ अर्थात्‌ शब्दशक्ति से प्राप्त वाच्य, लक्ष्य एवं व्यंग्य अर्थ । 





विशेष कवि : तुलसीदास प्‌ ही &५ 


३--रस अर्थात्‌ नवरस रुचिर तथा भक्तिरस । 
४--छन्द अर्थात्‌ भावानुकूल छन्द योजना । 
५--मंगल-काव्य में कवि लोकमंगल की और अपने मंगल की साधना 
करता है-- 
कीरति भनिति भूति भलि सोई । 
सुरसरि सम सब कहे हित होई। 
तुलसी ने शब्द और बर्थ के सहित भाव को साहित्य माना है-- 
गिरा अरथ जल बीच सम कहिअल भिन्न न भिन्न । 
रामचरितमानस में 
निगु ण-सगुण-- तुलसीदास ने ब्रह्मा-राम से भी नाम को बड़ा कहकर सहज 
ही निगुण और सगुण मार्ग के भीतर की सारी खाई पाट दी है तत्त्वज्ञान कुछ भी 
हो, नाम निःसन्देह मनुष्य को भवसागर पार करा देता है ।' 
--डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी 


रस 
“रामचरितमानस केवल विशुद्ध काव्य-दृष्टि से लिखा हुआ कथा ग्रन्थ नहीं 
है । उसमें भक्तिरस की प्रधानता है ।' >-डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी । 


चरित्र चित्रण में अलोकिता 
चरित्र-चित्रण में तुलसीदास की तुलना संसार के गिने-चुने कवियों के साथ 
ही की जा सकती है। उनके सभी पात्र उसी प्रकार हाड-मांस के जीव हैं, जिस 
प्रकार काव्य का पाठक, परन्तु फिर भी उनमें अलोकिता है । सबसे अद्भुत बात यह 
है कि इन चरित्रों की अलौकिकता समक में आने वाली चीज है ।' 
न डौँ० हजारीप्रसाद द्विवेदी 
लोकनायक तुलसीदास 
“तुलसीदास के काव्यों में उनका निरीह भक्त रूप बहुत स्पष्ट हुआ है, पर 
वे समाज सुधारक, लोकनायक, कवि, पण्डित और भविष्य-स्रष्टा थे ।' 
>-डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी 
तुलसी और प्राचीन राम साहित्य 
गोस्वामीजी ने मानस में स्वयं कहा है कि--'नानापुराणनिगमागम सम्मतं? 
उनकी रामायण में नाना पुराण, निगम, आगम आदि का सार तत्त्व प्रस्तुत किया 
है । इसके अतिरिक्त कुछ और भी है--क्वचित्‌ अन्योऽपि । 
यह अन्य क्या है ? इसके तीन रूप हैं--- 
१. संस्कृत के रामकाव्य एवं नाटक भादि । 





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१९६ मोखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


२. प्राकृत भाषा में निबद्ध राम साहित्य । 

३, अपभ्रंश भाषा में निश्रद्ध राम साहित्य । 

संस्कृत में राम साहित्य वाल्मीकि रामायण से लेकर महाभारत, पद्मपुराण, 
ब्रह्माण्ड पुराण, श्रीमद्भागवत्‌, नुसिहपुराण, विष्णुपुराण, अग्निपुराण आदि पुराणों 
में मिलता है । इनके अतिरिक्त कुछ पौराणिक रामायण संस्कृत में रचित हैं, यथा 
अध्यात्मरामायण, महारामायण, आनन्दरामायण, भुशुण्डि रामायण । इनके अतिरिक्त 
महाकवि कालिदास के रघुवंश तथा महाकवि अभिनन्द का 'रामचरित', भट्टि का 
भट्टिकाव्य या रावणवध, भौमकमदुकृत रावणाजु नोय, कुमारदास का जानकीहरण, 
क्षेमेन्द्र का रामायण मन्जरी, मल्लिनाथ का “रघुवीर चरित' संस्कृत के रामकाव्य हैं। 

संस्कृत से रामनाटक महाकवि भास से प्रारम्भ होते हैं। भवभूति का 
उत्तररामचरित, मुरारि का अनर्थराघव, राजशेखर का वालरामायण, मधुसूदन और 
दामोदर मिश्र का 'हनुमन्नाटक' तथा जयदेव का प्रसन्नराघव संस्कृत के राम नाटक हैं । 

तुलसी पर अध्यात्म रामायण, उत्तररामचरित, हनुमन्नाटक तथा प्रसन्नः 
राघव नाटक एवं रघुवंश महाकाव्य का प्रभाव पड़ा हैं । 

तुलसी पर्‌ प्राकृत और अपश्रश रामसाहित्य का भी व्यापक प्रभाव पड़ा 
है । उन्होंने प्राकृत के कवियों को परम सयाने' कहकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की 
है । उन्होंने प्राकृत में रचित जैन कवि विमलसूरि की प्राकृत रामायण” या “पउम 
चरिउ' से कुछ परम्पराएँ तथा रूढ़ियाँ ग्रहण की है । 
विशेष कवि : (7) जयशंकरप्रसाद 

परिचय--प्रसादजी का जन्म वाराणसी के सुप्रसिद्ध एवं सम्पन्न सु'घनी साहू 
के वेश्य परिवार में माघ शुक्ला द्वादशी संवत्‌ १९४६ को हुआ था । उनके जीवन का 
अवसान १५ नवम्बर सन्‌ १६३७ अर्थात्‌ संवत १६६४ में ४८ वर्ष की अल्पायु में 
यक्ष्मा से हो गया । 

रामनाथ सुमन ने प्रसादजी के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में लिखा है--'व्यक्ति की 
दृष्टि से जयशंकरप्रसाद एक उच्चकोटि के महापुरुष थे । वह कवि होने के कारण 
उदार, व्यापारी होने के कारण व्यवहारशील; पुराण, शास्त्र, संस्कृत-काव्य आदि के 
विशेष अध्ययन के कारण प्राचीनता की ओर भुके हुए; भारतीय आचारों एवं भारतीय 
सम्यता के प्रति ममता रखने वाले तथा एक सीसा तक पाश्चात्य सभ्यता के गुणों 
के प्रशंसक थे । उन्नीसबीं शताब्दी ने उन्हें रोमांस के प्रति झुकाव, मस्ती, विलासिता, 
पूर्ण सरसता और झझटो से यथासम्भव अलग रहकर सामान्य सुख के साथ जीवन 
बिताने के भाव प्रदान किए और बीसवीं शताब्दी ने उन्हें यौवन का प्रवाह, परिवतं- 
नोन्मुखी प्रवृत्ति, भारतीयता की ओर. झुक्राव, विदग्धता तथा अस्थिर वेदना, का 


दान दिया । इसलिए प्रसादजी हिन्दी कविता के पुराने और नए स्कूल की बीच की 
कड़ी हैं । 








विशेष कवि : जयशंक हर | 
विशेष का शाक रप्रसादं १६७ 


प्रसाद-युग-युग प्रवर्तक जयशंकरप्रसाद 


भारतेन्दु के बाद आधुनिक युग फे सबसे बड़े साहित्य विधाता जयशंकरप्रसाद 
(१८८६-१९३७) हैं । उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा से साहित्य की विभिन्न विघाओं 
के विकास में अभूतपूर्व सहयोग प्रदान किया । इस प्रकार वे भारतेन्दु की भांति युग 
प्रवतंक हैं । छायावाद युग को हम प्रसाद-युग कह सकते हैं । काव्य के क्षेत्र. में प्रसाद 
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जी 'छायावाद' के प्रवर्तक हैं, तो कहानी के क्षेत्र में भावप्रधान कलात्मक कहानी' 
की नवीन विधा के प्रतिष्ठापक हैं और “कंकाल' उपन्यास के द्वारा उन्होंने हिन्दी को 
पहला वस्तुवादी उपन्यास प्रदात किया । 

उनका काब्य अनुभूतिभ्राण है । उनके नाटक पाइचात्य और पोर्वात्य 
पद्धतियों का सुन्दर सामञ्जस्य प्रस्तुत करते हैं । भारतेन्दु के बाद उन्हीं में युग की 
सबसे अधिक सृजनात्मक प्रतिभा के दर्शन होते हैं । प्रेमचन्द का क्षेत्र उपन्यास-कहानी 
तक सीमित है । प्रसाद ने नवीन साहित्यिक चेतना प्रदान को और अमर साहित्य की 
रचना को । 
प्रसादजी विभिन्न विघाओ के प्रवतेक 


१. प्रसादजी सच्चे अर्थो में 'छायावाद' के प्रवर्तक हैं । कामायनी छायावाद 
का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है । 

२. प्रसादजी गीतिनाव्य के प्रवर्तक हैं। उन्होंने करुणालय नामक गीति 
नास्य की रचना की । 

३, प्रसादजी एकांकी के प्रवर्तक हैं, उन्होंने एक घट, सज्जन और 
प्रायश्चित एकांकी नाटकों की रचना की । 

४,  प्रसादजी ने भावप्रधान कलात्मक कहानी कला का प्रवर्तन किया, उनके 
आकाशदीप, छाया, इन्द्रजाल आदि संप्रहों में ऐसी ही कहानियाँ 
संकलित हैं । 

५,  प्रसादजी ने जगन्नाथदास रस्ताकार के प्रभाव से ब्रजभाषा में काव्य 
रचना का प्रारम्भ किया । उनके चित्राधार में उनकी ऐसी बहुत-सी 
रचनाएँ हैं जिनकी रचना नए छन्दों में ब्रजभाषा में हुई है । 

६. प्रसादजो ने अंग्रेजी के साँनेट छन्द को चित्राधार में प्रस्तुत किया । 

७, . प्रसादजी ने कंकाल के द्वारा हिन्दी की वस्तुवादी उपस्यासधारा का 
प्रवर्तत किया । 

८. प्रसादजी ने ऐतिहासिक नाटकों की रचना राष्ट्रीय भावना से को 
और सांस्कृतिक पुनुरुद्वार का प्रयास किया । 

8. प्रसादजी ने भाषा शेली के क्षेत्र में भी नवीनता प्रस्तुत की । 
उनकी भाषा शैली तत्समप्रधान है। भाषा में काव्यात्सकता का 
प्राधान्य है। उनकी भाषा में जीवन का सारतत्व प्रस्तुत करने 





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{९३ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


बाली सूक्तियाँ हैं । उनकी भाषा में रस संचार की असाधारण 
शक्ति है। 

प्रसादजी द्विवेदी युग के उपरान्त हिन्दी की नई जीवन चेतना का प्रतिनिधित्व 
करते हैं। 
प्रसादजी की रचनाएं 

प्रसादजी ने विविधमुखी साहित्य का सूजन किया । उन्होंने साहित्य की 
निम्नलिखित विधाओं को सम्पन्न बनाया-- 

(१) काव्य-चित्राधार, करुणालय, प्रेमपथिक, महाराणा का महत्त्व, काननः 
कुसुम, आँसू, झरना, लहर, कामायनी । 

(२) नाटक--सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्षी, विशाख, 
अजातशत्रु, जन्मेजय का नागयज्ञे, कामना, स्कन्दगृष्त, एक घूःट, चन्द्रगुप्त, 
धू. वस्वामिनी । 

(३) उपन्यास-कंकाल, तितली, इरावती । 

(४) कहानी- छाया, चित्रधार, प्रतिध्वनि, आकाशदीप, आँधी, इन्द्रजाल । 

(५) चम्पु--उवंशी, प्रेम राज्य । 

(६) निबन्ध--काव्य और कला । 
(७) पत्रिकाए--सम्पादन- इन्दु, जागरण और हंस । 

उपयु क्त रचनाओं के नाम उनके रचनाकाल के क्रम को ध्यान में रखकर 
प्रस्तुत किए गए हैं । 

प्रसादजो के काव्यप्रन्थ (कामायनी के अतिरिक्त) : 
खड़ीबोली की रचनाएँ 

महाराणा का महत्त्व--यह एक ऐतिहासिक काव्य है। इसमें कवि ने 
महाराणा प्रताप की वीरता का वर्णन किया है। इसमें राष्ट्रप्रेम की भावना 
निहित है । 

प्रेमपथिक-- इसकी रचना कवि ने ब्रजभाषा में की । बाद में उसे परिवर्तित 
परिवद्धित तुकान्तविहीन हिन्दी रूप (खड़ीबोली) में प्रस्तुत किया । इसमें कवि प्रेम और 
यौवन फे कवि के रूप में आया है। 

काननकुसुम--प्रसादजी की खड़ीबोली की स्फुट कविताओं का प्रथम संग्रह 
है । इसमें प्रकृति के सुन्दर चित्र हें । इसमें चित्रकूट, भरत, शिल्प-सौन्दयं, कुरुक्षेत्र, 
वीर बालक, श्रीकृष्ण जयन्ती आदि आख्यानक कविताएँ भी हैं । 

आँसु--यह कवि का एक वियोग-श्वङ्गारप्रधान काव्य है। इसमें कवि ने 
प्रेमी की भर और अतीत की स्मृति का मार्मिक चित्रण किया है । इसमें नारी 
में निदेय भावो को आरोपित किया है और प्रकृति को उद्दीपन एवं प्रतीक रूप में 
प्रस्तुत किया है । 





कब्जा 


विशेष कवि : जयशंकरप्रसाद 


४ पझरना--यह एक प्रेम काव्य है । इसमें उन्मुक्त प्रेम के गीत हैं। इन तला में 
कवि की प्रेरणा व्यक्तिगत अनुभूति है । 


लहर--इसमें कवि के प्रौढ़ गीत है । कवि एक चिन्तनशील कलाकार के रूप 
में हमारे सामने झाता है । 


अन्य कविताओं में अशोक की चिन्ता” और 'प्रलय की छाया! ह। 
ब्रजभाषा की काव्य रचनाएं 


१. आख्यानक कविताएं () अयोध्या का उद्धार () बन मिलन (॥) प्रेस 


राज्य । 


२. स्फुट कविताएं--भक्तिपरक रचनाएँ 
(१) चित्राधार 

(२) प्रेमपथिक 

(३) एकान्तवासी योगी 


प्रसादजी की नाट्यकला के सूल तत्त्व 


र 


प्रसादजी के सभी नाटक देश प्रेस की उत्कट भावना से अनुप्राणित हैं । 

उनके नाटकों में हमें देश में छिड़े हुए स्वतन्त्रता आन्दोलन एवं 

राष्ट्रीयता की पुकार के स्पष्ट दर्शन होते हैं । 

देश प्रेम की भावना से अनुप्राणित हो प्रसादजी ने प्राचीन भारतीय 

सांस्कृतिक आदर्शो को विशेष महत्त्व प्रदान किया । उनके नाटको में 

सांस्कृतिक पुनुरुत्थान का निश्चित प्रयत्न है । 

सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रसादजी ने प्राय: 

अपने नाटकों के लिए भारत के गौरवमय इतिहास को आधार बनाया 

है । उन्होंने अपने ऐतिहासिक ज्ञान का नाटकों में पूर्णरूप से समाहार 
किया है । 

प्राचीन इतिहास का चित्रण भावुक कवि प्रसाद ने काव्य शैली में किया 
है । भावावेश में ही उनकी भाषा कल्पना और अलंकारों का अधिक 
उपयोग करती है। काव्यात्मक भाषा में प्रसाद ने वर्तमान भारत से 
भिन्न एक स्वर्णयुग का चित्रण किया है । 

प्रसादजी की काव्य शैलो उनकी गम्भीर दाइनिक प्रवृत्ति के सर्वथा 
अनुकूल है । उनके नाटकों में हास्य का अभाव है । इसीसे उनके नाटक 
करुण सुखान्त (प्रसादान्त) हैं । 

प्रसादजी ने अपनी दार्शनिक दृष्टि का अपने पात्रों के चरित्र चित्रण 
में भी उपयोग किया है । उन्होंने आदर्श पुरुष एवं नारी पात्रों का 
सृजन किया है । उनके नायक बहि नव और अन्तद्वन्द् दोनों में सफलता- 
प्राप्त करते हैं । 





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। 


३०५ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
७, प्रसादजी के नाटकों के संवाद मनोवैज्ञानिक एवं स्वाभाविक तथा सफल 
हैं । बाणी ही मनुष्य चरित्र की द्योतक है, मनोवेगानुसार पात्रों की 

भाषा में परिवर्तन होता है । 

८, प्रसादजी ने अपने नाटक में पथ्यों का या गीतों का प्रयोग किया है। 
उनके स्वगत कथन भी मार्भिक हैँ। नाटक की रचना कथोपकथन, 
संगीत और नृत्य पर ही निर्भर है। गीत रंगमंच पर मनोरंजन के 
सबसे सुन्दर साधन हैं । प्रसादजी के नाटकों में सुन्दर गीत भरे पड़े 
हैं प्रसादजी के गीतों की नाटकीय उपयोगिता में क्रमश; विकास 
होता गया है। 

प्रसादजी : एकांकी के प्रवर्तक 

जयशंकरप्रसाद ने हिन्दी में एकांकी का सूत्रपात किया । डॉ० रामचरण 
महेन्द्र के अनुसार सज्जन, करुणालय, गीति एकांकी तथा प्रायश्चित प्रसाद की 
एकांकी जगत्‌ में प्रयोगात्मक रचनाएँ हैं । उनके एक घूठ से एकांकियों के विकास में 
एक नया युग प्रारम्भ होता है। एकघू ट नवीन दिशा का पथ-प्रदर्शक एकांकी नाटक 
बना । नई शैली के वास्तविक हिन्दी एकांकी का प्रारम्भ प्रसाद के एक घूट (१६२९ 
ई०) से होता है। वर्तमान एकांकी टेकनीक का इसमें पूर्ण रूप से निर्वाह हुआ है 
तथा इसी कारण यह एक सफल एकांकी है ।' 

सज्ज्ञन--प्रसादजी का प्रथम मौलिक एकांकी है जिसमें प्राचीन एवं नवीन 

नाट्य प्रणालियों का समन्वय मिलता हे । यह लघु आकार का एकांकी रूपक है। 
इसकी रचना संस्कृत तथा प्राचीन हिन्दी नाट्य शैली पर हुई है । 

करुणालय--यह्‌ एक गीति एकांकी या लघु हृश्य-नाट्य है । जिसकी रचना 

तुकान्तविहोन मात्रिक छन्दो में हुई है। यह कवित्व एवं नाट्यकला दोनों दृष्टि से 
असफल है । 

चित्राधार-के एकांकी प्रसादजी की उदीयमान प्रतिभा के द्योतक हैं तथा 

उन पर पड़ते हुए पाश्‍चात्य एकांकी टेकनीक के प्रभाव के द्योतक है । 

एक घू८--इससे विद्वात्‌ सभीक्षकों ने नई होली के आधुनिक हिन्दी एकांकी 

का प्रारम्भ माना है । इसमें वर्तमान एकांकी टेकनीक का पूर्ण निवाह हुआ है तथा 
पाइचात्य प्रभाव भी स्पष्ट परिलक्षित होता है । इसका कथानक भी भावात्मक 
आदशंवाद से अनुप्राणित है क्योंकि इसका उद्देश्य सामाजिक उत्पीड़न का चित्रण एवं 
पीड़ित मानवता को विश्‍वकल्याणकारी आशीर्वाद सुनाना है । 


कंकाल : एक यथार्थवादी उपन्यास 


प्रसादजी का कंकाल एक यथार्थवादी उपन्यास है जिसका उद्देश्य समाज के 
अत्याचारो से व्यक्ति को मुक्ति दिलाना है। पाप का प्रेरक समाज है, अतः पाप का 
दायित्व समाज के ऊपर है । समाज के बाहर कहीं पाप नहीं, समाज ही भय, प्रलोभन 


विशेष कवि : जयशंकर प्रसाद 


एवं जड़ संस्कारों से व्यक्ति को पाप की प्रेरणा देता है, जिससे व्यक्ति >>] हुआ 
'कंकाल' का रूप धारण कर लेता है। 

कंकाल का कथानक डक भारतीय समाज की सारी दुर्बंलताओं का 
चित्रण करता है । उसका विशाल पट है । विशेषकर हिन्दुओं के तीर्थस्थलों को चुन 
कर प्रसादजी ने पाप के स्वरूप का उद्घाटन किया है। पं० नन्ददुलारे वाजपेयो ने 
लिखा है कंकाल एक व्यंगपूर्ण उपन्यास है । यह प्रचलित समाज के हह आवरण, 
उसकी शिष्टता और सम्यता के कवचको भेदकर प्रहार करता है, और बलपूर्वक 
हमारी चेतना को जगा देता है । 

कंकाल में आधुनिक समाज के मध्यम श्रेणी के नागरिकों का यथार्थे वित्रण 
है । इसमें गृहस्थ और साधु, समाजसुधारक एवं वेश्या, पादरी एवं समिति के सदस्य 
सभी के जीवन की विडम्बना को प्रस्तुत किया है । इसमें आर्यसमाजियों के भाषण 
और सनातनधर्मियों के प्रवचन, ईशाई मिशनरियों का प्रचार एवं सूफियों की कव्वाली 
भी हैं। उपन्यास का वातावरण हमारे लिये सुपरिचित घरेलू जीवन का सा है। यही 
कारण है कि इस यथार्थवादी उपन्यास का पाठक पर ब्यापक प्रभाव पड़ता है। 
ग्राम्य जीवन का उपन्यास तितली 

जयश्ञंकरप्रसाद ने तितली में ग्राम्य-जीवन का चित्र अंकित किया है। उन्होंने 
तितली में ग्राम्य-जीवन का यथार्थ चित्रण किया है। उन्होंने इसमें ग्राम्य समाज की 
पारिवारिक समस्या एवं स्त्री-पुरुष की मूल प्रवृत्तियों की भी छानबीन की है । तितली 
में ग्राम्य समाज की जर्जरावस्था का चित्रण है । इसमें धामपुर गाँव का चित्रण है । 

चरित्र चित्रण की दृष्टि से इसमें प्रधान पात्र तितली या बंजो है । तितली 
और मधुवन का जोड़ा है। दोनों मिलकर ग्राम सुधार में लग जाते हैँ। तितली 
आदर्श चरित्र की मूक, सेवा-भावी, उदार, स्वाभिमानिनी और हृढ़ नारी है, जो अपने 
कार्य में स्वावलम्बन के साथ जुटी रहती है। (डॉ०पद्मसिह शर्मा कमलेश) नारी 
पात्रों में ज्ञैला का स्थान तितली के बाद है। अनवरी, मंना, श्यामदुलारी, माधुरी, 
राजकुमारी आदि अन्य गौण नारी पात्र हैं । 

पुरुषपात्रों में बावा रामनाथ और मधुवन प्रधान हैं । इन्द्रदेव, सुखदेव चौबे, 
रामजस, महग, श्यामलाल; रामाधार पाण्डे आदि अन्य पात्र हैं । इन्द्रदेव का चरित्र 
गौण पात्रों में विशिष्ट है । 

प्रसादजी ने तितली में ग्राम्य चित्रण में सामन्तीय वातावरण के चित्र प्रस्तुत 
किये हैं । उनकी दृष्टि भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों पर बनी हुई है । तितली 
प्रसादजी का अत्यन्त सफल एवं कलात्मक उपन्यास है ॥ 

कहानीकार के रूप में--प्रसादजी के पाँच कहानी संग्रह हैं-- 


छाया (१९९२) 
प्रतिध्वनि (१९२६) 





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३०६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


आकाशदीप (१६२९) 

आँधी (१६३१) 

इन्द्रजाल (१६३६) 

प्रसादजी की कहानियाँ विविध प्रकार की हैं। मुख्य रूप से उनकी कहानियाँ 
निम्नलिखित वर्गों में विभक्त की जा सकती हैं--- 

(१) ऐतिहासिक कहानियाँ, यथा--सालवती, गुण्डा 
यथार्थवादी कहानियाँ, यथा--ग्राम, घीसू 
भावात्मक कहानियाँ, यथा--प्रतिध्वनि, बनजारा 
प्रेममूलक कहानियाँ, यथा--रसियाबालम, देवदासी 
रहस्यवादी कहानियाँ, यथा समुद्रसंतरण, उस पार का योगी 
प्रतीकात्मक कहानियाँ, यथा--प्रलय, गुदड़ सांई' 
आदर्शवादी कहानियाँ यथा-ब्रतभंग, विजया 
समसामयिक कहानियां; यथा-विराम चिन्ह 
प्रागंतिहासिक कहानियाँ, यथा--चित्र मन्दिर 
मनोवेज्ञानिक कहानिया, यथा--मधुआ 

आचार्यं रामचन्द्र शुक्ल ने प्रसादजी की कहानियों को दो वर्गों में 
बाँटा है 

(१) किसी मधुर मामिक रचना के सहारे किसी ऐतिहासिक कालखण्ड का 
चित्र दिखाने वाली, यथा--आकाशदीप, समता, स्वर्ग के खण्डहर । 

(२) घटना और संवाद दोनों में गूढ़ व्यञ्जना और रमणीय कल्पना के सुन्दर 
समन्वय के साथ चलने वाली, यथा-वनजारा । 


आकाशदीप : एक भावात्मक कहानी 


प्रसादजी की सुप्रसिद्ध कहानी 'आकाशदीप' एक भावात्मक कहानी है । इसका 
कथानक अत्यन्त संक्षिप्त एवं मामिक तथा अपने आपमें पूर्ण है। वह मानव जीवन 
की गहराई से मिलकर एक हो गया है। इस कहानी में चंपा के हृदय का दुःखदद्वन्द् 
प्रकट हुआ है । बुद्धगुप्त के चरित्र की रेखाएं भी भली भांति उभरी हुई हैं। वह 
जलदस्यु ही नहीं वीर ओर क्षमाशील भी है । वह मातृभूमि को भी प्यार करता है । 

चंपा के अन्तद्वद्र के आधार पर ही कहानी स्वच्छ एवं वेगपूर्ण गति से 
पर्यवसान की ओर बढ़ती है। इस कहानी में प्रसादजी के सर्वोत्तम कथोपकथन का 
रूप मिलता है । प्रेम और घृणा का इन्द्र चम्पा को झकझोर देता है । 

इस कहानी को प्रसादजी ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि देकर मामिक बना दिया 
है । डॉ० भटनागर ने लिखा है 'प्रतिहिसा, प्रेम और त्याग से भरी प्राचीन युग की 
यह कहानी प्रसाद की ऐतिहासिक प्रतिभा और उनके स्वस्थ स्वच्छन्तावाद का बड़ा 
सुन्दर उदाहरण है। जहाँ एक ओर ऐतिहासिक चित्रपटी को इतिहास की सारी 


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विशेष कवि : जयशंकरप्रसाद २०३ 


सचाई देकर उभारा गया है, वहाँ दूसरी ओर मानव-हुदय के संघर्ष का अत्यन्त 
सजीव और मनोवेज्ञानिक चित्रण भी उपस्थित किया गया है ।' 


फ्रॉयड का कला संबंधी सत 


फ्रॉयड के मत ने साहित्य को बहुत प्रभावित किया है। आज जो साहित्य में 
(दमित वासना' या 'कुण्ठा' की चर्चा होती है, यह सब फ्रायड की देन है । फ्रायड का 
मत था कि मनुष्य की जो वासनाएँ इस हृश्य जगत्‌ में पूर्ण नहीं हो पातीं, उन्हें वह 
स्वप्नजगत्‌ में अवश्य प्राप्त करता है। अतः स्वप्नों में उसकी दमित वासना का 
प्रकाशन होता है । 

कलाकार के लिए कल्पना जगत्‌ का महत्त्व सवंविदित है । वह अपनी ' दमित 
वासना' या कुठा' को प्रत्यक्ष रूप से, प्रतीकों के माध्यम से अपनी कला में व्यक्त 
करता है । साहित्य का मूलाधार कल्पना है और कल्पना में व्यक्ति की कुण्ठाएँ जाग्रत 
रहती हैं, अतः कला में अवरुद्ध वासनाओं का चित्रण होना स्वाभाविक है। जिस 
कवि के काव्य में श्रंज्धार-भावना का आधिक्य है, उसकी दमित वासनाएँ ही इस 
रूप में उभरकर आती हैं । कवि अपनो कुण्ठा एवं दमित वासनाओं को अपने गीतों 
के माध्यम से व्यक्त करता है । 

किन्तु फ्रायड का यह मनोवंज्ञानिक फॉमू ला चिकित्सा विज्ञान में चाहे सफल 
हुआ हो काव्य-समीक्ष। के क्षेत्र में तो यह विकृत ही सिद्ध हुआ क्योंकि कला के 
ऐतिहासिक विवेचन से सिद्ध हो चुका है कि संधार की अब तक की श्रेष्ठ कलाकृतियां 
अधिकांश में विवेकवान तथा आचारनिष्ठ महापुरुषों द्वारा प्रस्तुत की गई है ।” 
कवि या कलाकार लोकमंगल की साधना में ही अपने उच्च विचारों को रूप देता 
है। उसकी प्रेरक शक्ति लोकमंगल की भावना होती है, अतः कला को आचारहीन 
या दमित वासनाओं का प्रकाशन नहीं मावा जा सकता । 


PPP 


१४ 
निबन्ध 


शिक्षा समस्या 

(नोट--गत वर्ष एम० ए० हिन्दी को परीक्षा में निबन्ध के प्रश्नपत्र में भारत 
की शिक्षा समस्याओं के सम्बन्ध में एक विषय रखा गया था, फिर भी इस विषय का 
महत्त्व बना हुआ हे और मौखिक परीक्षा में इसके सम्बन्ध में प्रश्‍न पूछे जा सकते हैं, 
अतः संक्षेप में हम यहाँ कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं) 

महरब- देश की सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान शिक्षा में ही 
निहित है । अतः राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्या शिक्षा की है । 

शिक्षा का स्वरूप--प्राचीन भारत में डॉ० अनन्त सदाशिव अलतेकर के मता- 
नुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य एवं आदर्श थे-- 

१--दिक्षार्थी के चरित्र का रूपान्तर और उन्नति । 

२-- नेतिक भावनाओं का सम्यक्‌ विकास । 

३--व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास । 

४-नागरिक और सामाजिक कत्तव्यों के पालन की भावना भरना । 

५--सामाजिक योग्यता तथा सुख की वृद्धि । 

६-- राष्ट्रीय परम्पराओं और संस्कृति का संरक्षण तथा प्रचार-प्रसार । 

प्राचीन भारत में शिक्षा को ऋषि ऋण माना जाता था अर्थात्‌ अध्ययन एवं 
परम्परा पोषण के द्वारा आयंजन ऋषि ऋण चुकाते थे । 

प्राचीन भारत के महान्‌ शिक्षा केन्द्र--ऋषियों के आश्रम तथा बाद में तक्ष- 
शिला और नालन्दा विश्वविद्यालयों का विकास हुआ । 

शिक्षा के विषय--प्राचीनकाल में शिक्षा के विषय इस प्रकार थे- वेद, 
संहिता, उपनिषद्‌ ब्राह्मण, आयुर्वेद, व्याकरण, दर्शन, धमंशास्त्र, साहित्य, राजनीति, 

२०४ 


sms चाल बज 





निबन्ध ह ०५ 
ज्योतिष, देवदर्शन, विधान, तर्कशास्त्र, देव-विद्या, जन-विद्या, सपंविद्या, तन्त्रशास्त्र, 
ललित कला और सन्य प्रशिक्षण । 

आधुनिक काल--आंग्ल शिक्षा पद्धति का अंग्रेजों ने भारत में प्रचार किया 
और भारतीयता का समूल नाश कर दिया । अंग्रजी शिक्षा का माध्यम बनी । 

समस्पा--स्वतन्त्रता के पश्चात्‌ भारत में शिक्षा का प्रसार बहुत तीब्रता से 
हुआ, शिक्षण संस्थाएँ बढी किन्तु शिक्षा का स्तर गिर गया। भाषा के माध्यम के 
कारण अनेक पेचीदगी उत्पन्न हुई । यद्यपि भाषा का प्रश्न विशुद्ध सांस्कृतिक चा 
किन्तु उसे राजनीतिक बना लिया । आज की शिक्षा-प्रणाली भारतीय संस्कृति के अनुरूप 
नहीं है । उसमें प्राचीनता तथा आधुनिकता का स्वर्णिम समन्वय आवश्यक है । 
शिक्षा की समस्याएं 


(१) भाषा और शिक्षा--प्रत्येक भाषा की अपनी संस्कृति होती हे । अतः 
भाषा समस्या पर शिक्षा के मंच से, शेक्षणिक दृष्टि से ही विचार करना चाहिये । 

(२) शिक्षा का नैतिक आधार--प्राचीनकाल से ही हमारे देश में शिक्षा का 
निश्चित नैतिक आधार रहा है । संस्कृति का शिक्षा पर काफी प्रभाव पड़ता है। 
एक प्रकार से उत्कृष्ट शिक्षा व्यवस्था समाज की अनेकानेक आवश्यकताओं की पूर्ति 
में सहयोग प्रदान करती है ।' 

शिक्षा के दो कत्तव्य हैं-- 

() सामाजिक संस्कृति का संरक्षण और 

(3) सामाजिक संस्कृति का संवाहन । 

वैदिककाल से ही हमारे देश में शिक्षा को मुक्ति का मार्ग माना गया है-- 

सा विद्या या विमुक्तये 

इसी प्रकार इसे गुप्त घन कहा है । यह्‌ प्रमुख गुरु है। विद्याहीन पशु-तुल्य 
है--विद्याविहीनः पशुः । विद्या को मनुष्य का तीसरा नेत्र कहा है, यह सब संशय का 
छेदन करने वाली है । इससे अमरत्व की प्राप्ति हो सकती है-- 

विद्ययामृतमरनुते । 

किन्तु आज शिक्षा के क्षेत्र में अनेतिकता का प्रसार हो रहा है। छात्रों में 
अच्छे संस्कार डालने की ओर न माता-पिता का ध्यान है, न अध्यापकों का । छात्रों 
में नैतिक आदशों के प्रति रुचि उत्पन्न करना, सदाचार का पालन, नागरिकत्व की 
कर्तव्यनिष्ठा, आत्मसंयम, धेयं एवं उत्साह आदि गुणों के द्वारा चारित्रिक विकास 
शिक्षा का प्रधान लक्ष्य होना चाहिए । 

(३) शिक्षा में बर्ग भेद--उच्चवगं के लोग शिक्षा के लिए अपने बच्चों को 
पब्लिक स्कूलों या विदेश में भेजते हैं, अतः समाज में विषमता उत्पन्न होती है । जन- 
शिक्षा और पू जोपतियों की शिक्षा में भेद हो रहा है। इससे सामान्य वर्ग के शिक्षाः 
थियों के मध्य शिक्षा से कुण्ठा व असन्तोष का विकास हो रहा है। 


= 


२०६ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 

(४) शिक्षा और राजनीति--यह शिक्षा-क्षेत्र की सबसे भयङ्कर समस्या है। 
राजनीतिक हस्तक्षेप से शिक्षा के क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता और तीव्र 
असन्तोष की भावना फैल रही है । यह समय की माँग है कि राजनीति को शिक्षा से 
पृथक्‌ किया जाय । 

(५) शिक्षितों की बेरोजगारी अतः शैक्षिक नियोजन की आवश्यकता--आज 
शैक्षिक नियोजन' के द्वारा ही बढ़ती हुई बेरोजगारी एवं असन्तोष पर काबू पा सकते 
हैं । ऐसा करने से राष्ट्र को कुशल एवं योग्य विद्वान्‌ प्राप्त होंगे और बेकारी तथा 
भ्रष्टाचार की समस्याएँ भी हल होंगी । 


राज्य के कत्तंव्य 
१, स्थानीय आवद्यकताओं के अनुसार विविध प्रकार के विद्यालयों की 
स्थापना । 
२. प्राथमिक शिक्षा को अनिवायं रूप से लागु करना । 
३. शिक्षा की आथिक व्यवस्था में सहयोग देना । 
४. शिक्षा पर सामान्य नियन्त्रण और निरीक्षण । 

(६) शैक्षिक प्रशासन में समायोजन- भारतीय शैक्षिक प्रशासन में समुचित 
समायोजन का अभाव शिक्षकों की दुर्दशा का कारण है । निजी और सरकारी संस्थाओं 
के कार्यों में समायोजन, शासनतन्त्र (राज्य का शिक्षा विभाग तथा केन्द्रीय शिक्षा- 
मन्त्रालय) के विभिन्न स्तरों में समायोजन, शिक्षा के विभिन्न स्तरों में समायोजन, 
शिक्षा के विभिन्न रूपों में समायोजन का कार्य केन्द्रीय स्तर पर ही हो सकता है-- 
ऐसा कोठारी आयोग ने भी माना है । 
कोठारी शिक्षा आयोग का प्रतिवेदन 

शिक्षा मानव इतिहास के वर्तमानकाल में अत्यन्त आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण 
है । विज्ञान-युग में शिक्षा और शोध के द्वारा ही देश का विकास सम्भव है । कोठारी 
शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन के महत्त्वपूर्ण सुझाव ये हैं--- 

१. शिक्षा के सभी स्तरों पर कार्य-अनुभव--श्रम एवं उत्पादक कार्य के 
रूप में तथा सामाजिक सेवा शिक्षा के अंग के रूप में समाविष्ट 
करना । 

२. नेतिक शिक्षा पर बल तथा सामाजिक उत्तरदायित्व का बालकों में 
विकास करना । 

३. माध्यमिक शिक्षा का औद्योगीकरण करना । 

उच्च शिक्षा के केन्द्रों तथा स्थलों को अधिक सक्षम बनाना तथा देश 
में उच्च अन्तरराष्ट्रीय स्तर के कुछ विश्वविद्यालयों की स्थापना 
करना । 

५. शालाओं के शिक्षकों के प्रशिक्षण एवं स्तर पर विशेष बल देना । 


® 











निबन्ध २०७ 


६. शिक्षा पुननिर्माण में कृषि की शिक्षा तथा कृषि में शोध एवं सम्बन्धित 
विज्ञानों को प्राथमिकता देना । 

७, शिक्षा के प्रत्येक स्तर तथा क्षेत्र में उच्चस्तरीय संस्थाओं का विकास 
करना । 


कोठारी आयोग ने प्रथम बार भारतीय शिक्षा के सभी स्तरों एवं समस्याओं 
पर विचार किया और राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप स्थिर करने का प्रयास किया । 

“इस आयोग ने देश में ऐसी शिक्षा के विकास का स्वरूप प्रस्तुत किया जिससे 

उत्पादन में वृद्धि हो, राष्ट्रीय एवं सामाजिक एकीकरण की वृद्धि हो, देश को शिक्षा 

के माध्यम से संसार में हो रहे वैज्ञानिक एवं टेकनीकल विकास का लाभ प्राप्त हो 
तथा बालक सामाजिक उत्तरदायित्वपूर्ण जीवन जीने का प्रशिक्षण लें ।” 

शिक्षा में प्रयुक्त होने वाली श्रव्य-दुश्य सामग्री 

शिक्षा में आधुनिक बैज्ञानिक युग में हृ्य-श्रव्य सामग्री के सहयोग से अध्यापन 

सरल एवं प्रभावशाली हो गया है । दृश्य-श्रव्य सामग्री आठ प्रकार की है । 

१. चार्ट, पोस्टर, चित्र, नक्गे, रेखाचित्र, खाके तथा ग्राफ । 

२. वास्तविक पदार्थ तथा प्रतिमान । 
३. इयामपट, सूचनापट तथा फ्लैनल ग्राफ । 
४. चित्र विस्तारक यंत्र । 
५. फिल्म स्ट्रिप । 
६. फिल्म । 

७. ग्रामोफोन । 

८. रेडियो, टेलीविजन तथा टेपरिकार्डर । 

विस्तार सेवाओं के द्वारा संग्रहालय शिक्षा में योगदान कर सकते हैं- 

१. संग्रहालयों की शाखाएं विद्यालयों में, उनके उपयोगार्थ स्थापित कर, 
योग्य शिक्षकों के द्वारा उनका प्रयोग । 

२. आवश्यक वस्तुएँ स्कूलों को कुछ समय के लिए उधार देना । 

३. संग्रहालयो में योग्य और विशेषज्ञ अध्यापकों को अतिरिक्त रूप से 
नियुक्त कर उनके द्वारा संग्रहालय सेवा प्राप्त करने के लिए आये हुए 
छात्र दलों को उचित मार्ग दर्शन करना । 

४. संग्रहालय में संग्रहीत वस्तुओं के फोटो, चित्र, स्लाइड, फिल्म आदि 
तैयारकर उन्हें स्कूलों के उपयोगार्थं वितरित करना । 

५, संग्रहालयों में चित्रकला आदि सिखाने के लिए अव्यवसायी पाठयक्रमों 
को संचालित करता । 

६. समाचार-पत्र, बुलेटिन, उपयोगी पुस्तकों का प्रकाशन और रेडियो 
वार्ताओं का प्रसारण करना । 





| 
| 


२०८ 


मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


शिक्षा में भाषा का महत्त्वपुर्ण प्रश्‍न 


अंग्रेजों द्वारा भारत में शिक्षा प्रसार के तीन कारण 


१, 


प्रजातन्त्र विचारधारा के समर्थक होने के कारण जनता में शिक्षा प्रसार 
आवश्यक था । 

प्रशासन में भारतीयों का सहयोग एवं सेवाएँ प्राप्त करने के लिए 
भारतीयों को शिक्षित करता आवद्यक था । 

शिक्षा की आड़ में पाइचात्य धर्म, साहित्य एवं संस्कृति का प्रचार 
करना अभीष्ट था । 


हिन्दी का अध्ययन भाषा के रूप सें 


१, 
२. 


हिन्दी देश की जन भाषा है अतः उसका अध्ययन अनिवाय॑ है । 

यह सम्पूर्ण देश में बोली और समभी जाती है अतः जनःसम्पकं की 
भाषा है। 

यह भारत की राजभाषा है, संघ का काम हिन्दी में ही होना है और 
राष्ट्रीय सेवाओं के लिए आयोजित परीक्षाओं में भी इसका स्थान 
होगा । 

अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी हिन्दी का महत्त्व बढ़ रहा है । 

हिन्दी का साहित्य श्रेष्ठ है । 

हिन्दी भारत की सांस्कृतिक एकता की प्रतीक है । हिन्दी के माध्यम से 
ही भारत की समन्वित संस्कृति की अभिव्यक्ति संभव है । 

हिन्दी और भारत की अन्य भाषाओं का शब्द भंडार समान रहने से 
भारत में सर्वत्र हिन्दी का सीखना सरल है। 

हिन्दी की वैज्ञानिक नागरी लिपि श्रेष्ठ होने से इसका सीखना 
सरल है। 


राजभाषा के रूप में हिन्दी का अध्ययन 


१. 


हिन्दी जहाँ मातृभाषा है, वहाँ इसे पाठ्यक्रम का अनिवार्य विषय 
बनाया तथा इसे माध्यम के रूप में भी स्वीकार किया । 

कुछ अहिन्दी भाषी राज्यों ने हिन्दी को पाठ्यक्रम का अनिवार्यं विषय 
बनाया किन्तु माध्यम नहीं बनाया । 

कुछ अहिन्दी भाषी राज्यों में सामान्य हिन्दी को पाठ्यक्रम में अनिवायं 
किया गया किन्तु उसके प्राप्ताङ्क कुल योग में जोड़े नहीं गए । 

कहीं कहीं पर सामान्य हिन्दी को अनिवायं नहीं किया है किन्तु उसके 
अध्यापन की व्यवस्था है । 


निबन्ध २०९ 
भाषा समस्या : त्रिभाषा फामू ला 


इसका हल निभाषा सूत्र बताया जाता है । डॉ० राधाकृष्णन्‌ आयोग 


(१९४९) का निष्कर्ष था कि उच्च शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो और कुछ समय 
तक अंग्रेजी को काम में लाया जाय । माध्यमिक 
१९५३) ने भाषा के संबंध में तीन निष्कर्ष प्रस्तुत किए-- 


| १, मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा को सामान्यतः सम्पूर्ण माध्यमिक शिक्षा का 
| माध्यम बनाएँ । हक 
१, पुर्व माध्यमिक स्तर पर प्रत्येक बालक को कम से कम दो भाषाएँ 


पढ़ाई जाएँ । अंग्रेजी तथा हिन्दी को जनवर वेसिक स्तर का समाप्ति 
पर प्रारम्भ किया जाय किन्तु दो भाषाओं को एक साथ न प्रारम्भ 


किया जाय। 
३. उच्चतर माध्यमिक स्तर पर कम से कम दो भाषाएँ पढ़ाई जायें जिनमें 


शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग 





























सिफारिश की-- _ 
१. मातुभाषा या क्षेत्रीय भाषा 
) २. अंग्रेजी और __ 











कोठारी आयोग (नियुक्ति १६६४, प्रतिवेदन १६६६) का संशोधित त्रिभाषा 
पुथ 


१ मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा 


२. केन्द्र की राजभाषा या सहराजभाषा 
३. एक आधुनिक भारतीय भाषा या विदेशीभाषा जिसे नं० १ या नं० २ 
में न लिया गया हो और जो शिक्षा के माध्यम से भिन्न हो । 
भाषा की समस्या अब तीन रूपों में हमारे सामने उपस्थित है-- 
| १. शिक्षा के माध्यम की 
२. प्रशासन की भाषा की और 
३. सम्पर्क भाषा की । 


१४ 





| 


२१० मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


शिक्षा-भाषा का वैज्ञानिक दृष्टि से चुनाव 


(१) शिक्षा भाषा एवं क्षेत्रीय भाषा में अस्तर--क्षेत्रीय भाषा का क्षेत्र संकुचित 
होता है और यह निरन्तर परिवर्तनशील होती है। इसमें शब्दों की भी बोलने, 
लिखने, पढ़ने एवं समभने में एकरूपता नहीं रहती । शिक्षा-भाषा स्थायी हानी 
चाहिए जिसमें ज्ञान संग्रह निर्वाध रूप से निरन्तर चलता रहे । 

(२) शिक्षा-भाषा जनसाधारण की भाषा से भिन्न होनी चाहिए--णिक्षा 
भाषा का निर्माण जनसाधारण में प्रचलित एवं व्यावहारिक शब्दों से नहीं होता । 
उसे जनसाधारण के योग्य बनाने का प्रयास करने पर तो वह शिक्षा-भाषा होने की 
योग्यता खो बेठेगी । 





(३) शिक्षा भाषा सुसंस्कृत एवं व्याकरण में नियमों में--निबद्ध होनी 


चाहिये । 

(४) संस्कृत भाषा स्थायी है, उसका व्याकरण उत्तम है, उसमें एकरूपता है, 
उसमें शिक्षा-भाषा के सभी गुण हैं। आज यह भाषा युगों से चल रही है। इसमें 
विज्ञान- ज्ञान की निधि सुरक्षित रह सकती है क्योंकि इसका रूप नहीं बदलता । 

इस हृष्ट से संस्कृत ही शिक्षा भाषा बनने की योग्यता रखती है, अन्य कोई 
भी भाषा नहीं क्योंकि उन सबका रूप बदलता रहा है । 


अंग्रेजी की अनिवार्यता क्यों ? 


आज भाषा समस्या का मूल अंग्रेजी के समर्थकों की हठवादिता में खोजा जा 
सकता है । आजादी के बाद आशा थी कि अंग्रेज और उनकी अंग्रेजी की गुलामी से 
` मुक्ति मिलेगी किन्तु भंग्रेजी-भक्तों ने इस आशा पर तुषारापात कर दिया । इसीलिए 
अंग्रेजी विरोधी आन्दोलन हुए । 
अंग्रेजी इस समय कुछ राज्यों में अनिवायं नहीं रही, कुछ में बनी हुई है। 
शासन की बागडोर अंग्रेजी के समर्थकों के हाथ में है। जब तक समस्त सरकारी 
सेवाओं में हिन्दी को अनिवार्य नहीं किया जाता, इसे माध्यम भाषा के रूप में स्वीकार 
नहीं किया. जाता, सम्पूर्ण देश में उच्च विश्वविद्यालयीन शिक्षा से अंग्रेजी माध्यम को 
नहीं हटाया जाता, तब तक हिंन्दी को अपना उचित स्थान प्राप्त नहीं होगा । अंग्रेजी 
का अध्ययन तो भारत में अब भी स्वदेशी या राजकीय या उच्च वर्ग की भाषा के 
रूप में हो रहा है । देश के कल्याण के लिए, स्वतन्त्र चिन्तन के लिए, मानसिक 
गुलामी से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करना आवश्यक 
है। हिन्दी ही देश की सम्पकं भाषा या राष्ट्रभाषा है और उसको इसी खूप में 
विकसित करना चाहिये । भाषा के प्रश्‍न को राजनीतिक प्रश्‍न बनाना अत्यन्त दुर्भाग्य- 
पूर्ण होगा । 


५ 





१. निबन्ध ३१२ 


काव्य में अभिव्यंजनावाद बनाम वक्रोक्तिवाद 
रामचन्द्र शुक्ल -- अभिव्यंजनावाद 'किसी बात को कहने का ढुंग ही सब 









कुछ है, बात चाहे जंसी या जो हो अथवा कुछ ठिकाने कौ भी न ही । काव्य में 
मुख्य वस्तु है आकार या सांचा, जिसमें वस्तु या भाव ढाला जाता है। तात्पर्य 


| यह है कि अभिव्यंजना के ढंग का अनूठापन ही सब कुछ है, जिस वस्तु या भाव की 
| अभिव्यंजना की जाती है वह क्या है केसा है ? यह सब काव्य-क्षेत्र के बाहर की 
बात है ॥_ न शः क 

आचार्य शुक्ल ने उपयु क्त शब्दों में पाश्चात्य अभिव्यंजना के सिद्धान्त की 
व्यंग्यपूर्ण समीक्षा की है । उन्होने अभिव्यंजनावाद का विश्लेषण करते हुए लिखा 
है इस वाद में तथ्य इतना ही है कि उक्ति ही कविता है, उसके भीतर जो अर्थ 
छिपा रहता है वह स्वतः कविता नहीं है । पर यह बात इतनी दूर तक नहीं घसीटी 
जा सकती कि उस उक्ति की मामिकता का अनुभव उसकी तह में छिपी हुई वस्तु 
या भाव पर बिना दृष्टि रखे ही हो सकता है । बात यह है कि 'अभिव्यंजनावाद' 
की नक्काशीवाला सौंदर्य मान कर 
ई सम्बन्ध नहीं । अन्य कलाओं को 
छोड़कर यदि हम काव्य को ही ले तो इस अमभिव्यंजनावाद को 'वाग्वेचित्र्यवाद' ही 
कह सकते हैं और इसे अपने यहाँ के वक्रोक्तिवाद का विलायती उत्थान मान 
सकते हैं ।' 

उपयुक्त शब्दों में गुक्लजी ने इटली के क्रोचे द्वारा प्रवतित अभिव्यंजनाबाद 
की समीक्षा की है । उन्होंने अभिव्यक्ति को श्रेष्ठता को कलावाद की संज्ञा दी है। 
क्रोचे कला के क्षेत्र मै रूप ([7077) को ही प्रधानता कला के क्षेत्र में रूप (F7०७) को ही प्रधानता देता है, वस्तु को नहीं । वस्तु 


तो प्रातिभ ज्ञान है जो रूप में ढलकर कल्पना बन जाती है, अतः इसका मूल तो 











भी 'कलावाद' की तरह काव्य का लक्ष्य बेलबूटे 
चला है, जिसका मामिकता या भावुकता से 



























अभिब्यंजना ही हुई । इनके अनुसार सौन्दर्य उक्ति में ही होता है' क्रोचे ने लिखा 














आचार्यो ने माना है । इस प्रकार वक्रोक्तिवाद भारतीय काव्यशास्त्र का वह सिद्धांत 
है जिसमें काव्य के समस्त उपादानों का विवेचन रहता है । क्रोचे का अभिव्यंजनावाद 
इससे भिन्न है। वहाँ वस्तु को एक साधन माना है, उसका कोई मूल्य स्वीकार नहीं 
किया है । क्रोचे ने कला में अनुभूति या भावपक्ष को नगण्य माना है । किन्तु माना है न किन्तु वक्रो- 
क्तिवाद में अभिव्यक्ति को महत्त्व देते हुए भी विषय-पक्ष की उपेक्षा नहीं की गई है। 








| 
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Sr” 


२१२ मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 
झभिव्यंजनावाद पर आक्षेप--- 

१, 'क्रोचे काव्य को कवि की जिस आध्यात्मिक प्रक्रिया का परिणाम 
मानता है, उसका सम्बन्ध काव्य के श्रोताओं तथा पाठकों भादि से 
बिलकुल नहीं रखा गया है । 

२, यदि कविता मन की सक्रिय अवस्था में अनुभूतियों के प्रकाशन का 
व्यापार है, तो उक्त आधार के सुन्दर या असुन्दर होने का कला के 
श्रेणी विभाग का, प्रश्‍न कंसे उठ सकता है? कोई काव्य समाज की 
नैतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है या नहीं, इसका भी निर्णय 
कैसे होगा ?' 

३, उसने काव्य-व्यापार का निरूपण करते हुए जीवन और जगत से 
उसका सम्बन्ध स्थापित नहीं किया । 'मन की सक्रिय आध्यात्मिक 
चेष्टा ही काव्य का सूजन करती है'--इस कथन में बाह्य-जगत और 
उसके सम्बन्धों का कहीं भी उल्लेख नहीं है । 

हिन्दी-गीतिकाव्य का विकास 

वेदों में साम का विशेष महत्त्व है क्योंकि साम' या 'गायन' में आकर्षण की 
अद्भुत शक्ति होती है । हमें वेदमन्त्रो में ही गीतिकाव्य का उद्भव मिलता है । मन्त्रों 
में ही जहाँ मन्त्र द्रष्टा का उल्लास फूट पड़ा है, वहां उसके उच्छवासों से गीतिकाव्य 
की सृष्टि हो गई है। ऋग्वेद में उषा को कवि ने कहीं कमनीय कन्या के रूप में 
चित्रित किया है, कहीं स्मितवदना युवती के रूप में और कहीं प्रणय-मिलन के लिए 
तत्पर प्रेमिका के रूप में। 

बौद्ध घमं में भी हमें थेरी गाथाएं मिलती हैं जो गेय हैं। यह गीति तत्त्व 
स्त्रोतो में भी प्रायः विद्यमान हैं । 

आदिकाल--वीरगीतों में हमें गीतितत्त्व मिलता है। आगे चलकर गीत 
गोविन्द के अनुकरण पर विद्यापति ने इस गीतितत््त को अपनाया और उसे उत्कर्ष 
प्रदात किया। इसीसे उन्हें हिन्दी में गीतिकाव्य परम्परा का प्रवर्तक माना 


जाता है । 
भक्तिकाल--सन्तकाव्य में भी गीतितत्त्व अपने मामिक रूप में कबीर के पदों 


में आया है । कृष्ण काव्य में गीतितत्व का विशेष महत्त्व है । सूरदास आदि'अष्टछापी 
कवियों तथा अन्य कृष्णभक्त सम्प्रदाय के कवियों के काव्य में भी गीति तत्त्व का 
पर्याप्त विकास हुआ । भ्रमरगीत के रूप में विरह गीतों का विकास हुआ । मीराबाई 
के पदों में गीति की बंयक्तिकता का चरमोत्कर्ष दिखलाई पड़ता है। रामकाव्य में 
तुलसी की विनय-पत्रिका में कवि ने आत्माभिव्यक्ति करते हुए गीतितत्व को 
अपनाया है । 

रीतिकाल- उन्मुक्त या रीतिमुक्त कवियों के काव्य में हमें गीतितत्त्व 
मिलता है । 


| 
व 
। 











निबन्धं ३१३ 
आधुतिककाल--भारतेन्दु युग में लोक एवं भक्तिगीतों का प्राच्य रहा । इन 
दिनों लोक केवद्य भक्ति गीतों की बाढ़ आ गई । द्विवेदी युग का गोतिकाव्य गद्यात्म- 
कता के बोझ से दब सा गया है । 
छायाचाद- इस युग में गीतिकाव्य का चरम विकास हुआ । महादेवीजी 
के गीतों में उनकी वेदनानुभूति एवं रहस्यानुभूति की मार्मिक व्यंजना हुई है। 
पन्तजी के गीतों में प्रकृति का सुकुमार चित्र है । प्रसादजी के गीतों में भी सुख- 
दुःख, विरह-मिलन और देश प्रेम और प्राकृतिक हृश्य सौन्दर्यं को मार्मिक अभिव्यक्ति 
हुई दै। निराला ने गीतिकाव्य को ओज प्रदान किया । पन्त में प्रगीतात्मक 
सामर्थ्यं अदभुत है, गीति प्रतिभा अपेक्षाकृत कम । महादेवी के 
वेग है । 
गीतिकाव्य के तीन प्रधान लक्ष्य ह-- 

१. रागात्मकता । 

२. वैयक्तिकता या निजीपन । 

३. अनुभूति का प्राधान्य एवं तीव्र वेग । 

अर्थात्‌ गीतिकाव्य में स्वानुभूति एवं गेयता को विशेष महत्त्व दिया गया है। 
शुद्ध गीति में स्वानुभूति प्रधान रहती है, प्रगीत सुक्तको में संगीतात्मक पदावली का 
संयोजन । गीतकाव्य के आकार एवं वृत्ति के अनुसार बारह भेद किये गए हैं-- 

(१) प्रेम गीत, (२) व्यंग्य गीत, (३) घामिक गीत, (४) शोक गीत, (५) युद्ध 
गीत, (६) वीर गीत, (७) नृत्य गीत, (८) सापाजिक गीत, (९) उपालम्भ गीत, 
(१०) गीतिनाट्य, (११) सम्बोधन गीत, और चतुदंशपदी (सॉनेट) । 

नवगीत--छायावादी गीतों पर पाश्चात्य गीतिकाव्य का विशेष प्रभाव पड़ा । 
वर्तमान नई कविता' के अन्तर्गत 'नवगीत' या “नया गीत” आन्दोलन भी चल पड़ा 
है । इसमें भावाभिव्यक्ति, गेयता, अनुभूति की सघनता एवं भाषा के नवीन प्रयोग 
तथा प्रतीकों को विशेष महत्त्व दिया है। इसमें लयात्मकता की विशेषता भी 
दर्शनीय है । 


काव्यलक्षण या काव्य का स्वरूप 


गीतों में अनुभूति का 


कवि की परिभाषा इस प्रकार है--'कवयति सर्वज्ञानाति सर्व वर्णयतीति 
कबि' अर्थात्‌ जो कविता करता है, सबको जानता है और सबका वर्णन करता है 
उसे कवि कहते हैं कवि को मनीषी, परिभू और स्वयंभू भी कहा गया है । 

काव्य कवि का कम है--किवयतीति कविः तस्य कमे काव्यम्‌ ।' सर्वप्रथम 
भरतमुनि ने नाथ्यशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में काव्य को (श्रव्य काब्य को) “कोमल एवं 
ललित शब्दों की रचना कहा--मुदुललितपदाढ्यं । 'अग्निपुराण मै काव्य को ऐसी 
रचना माना जिसमें अभीष्ट अथं संक्षेप में कहा हो, जिसकी पदावली अविच्छिन्न हो 
भौर जिसमें अलंकार और गुण हों तथा दोष रहित हो ।' 


Et मौखिकनपरीक्षा पथ प्रदर्शिका 


भामह ने काव्यलक्षण संक्षेप में प्रस्तुत किया 

शब्दाथों सहितो काव्यमु । 

(जिस रचना में शब्द और अर्थ का सहित भाव हो वह काव्य है। डॉ० 
नगेरद्र के शब्दों में भामह की मंशा इस परिभाषा में यह थी सहित अर्थात्‌ सामंजस्य- 
पूर्ण शब्दार्थ को काव्य कहते हैं ।' आनन्दवर्धन ने शब्दार्थ को काव्य का शरीर और 
ध्वनि को उसकी आत्मा बताया । मम्पट ने अपने से पूर्ववर्ती परिभाषाओं का समी- 
करण करते हुए काव्यप्रकाश में लिखा-- 

तद्दोषो शब्दाथों सगुणावनलंकृति पुनःक्वापि 

अर्थात्‌, जो रचना अदोष हो, शब्द और अर्थ से युक्त हो, सगुण हो और यदि 
कहीं-कहीं अतंलकृत भी हो, काव्य है। अर्थात्‌ मम्मट ने काव्य की आत्मा ध्वनि 
मानी है और गुण को काव्य का प्राण प्रतिष्ठापक साना तथा अलंकारों को शरीर की 
शोभा बढ़ाने वाला । 

चन््रालोक के रचयिता जयदेव ने अलंकार की स्थिति को प्रधानता देते हुए 
लिखा--निर्दोषा लक्षणवती सरीतिगुणभूषिता । 

'शालंकार सानेक वृत्ति वाक्काव्य नामभाक्‌ ।' अर्थात्‌ ऐसा वाक्य काव्य है 
जो निर्दोष हो, सभी लक्षणों से युक्त हो, रीति आदि गुणों से विभूषित हो, तथा 
अलंकार, रस और वृत्तियों आदि से परिपूर्ण हो। साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने 
काव्य को रसमय वाक्य कहा है 

रसात्मकं वाक्यं काव्यं । 

पण्डितराज जगन्नाथ ने रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्दयुक्त वाक्य को काव्य 

कहा है- 
रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यस्‌ । 

रमणीयार्थ का तात्पर्य उन्होंने यह माना है कि जिसके ज्ञान से लोकोत्तर 
अर्थात्‌ अलौकिक आनन्द की प्राप्ति हो ॥! 

हिन्दी के आचार्यो (रीतिकालीन) ने संस्कृत के आचार्यों की परिभाषा के 
आधार पर ही प्रायः काव्य के स्वरूप का लक्षण दिया है । केशव, सोमनाथ, कुलपति 
आदि रीतिकालीन आचायों का काव्यलक्षण प्रसिद्ध है । 

पं० रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में 'जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा 
कहलाती है उसी प्रकार हृदय को मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इस 
मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य को वाणी जो शब्द-विधान करती आयी है उसे 
कविता कहते हैं ।' 


परिशिष्ट 


मौखिक परीक्षा के सम्बन्ध में परामर्श 


आगरा विश्वविद्यालय की एम० ए० हिन्दी उत्तरार्ध परीक्षा में १०० अङ्कु 
की मीखिक-परीक्षा भी १९७० से प्रारम्भ की गई है । मौखिक-परीक्षा का लक्ष्य य 
देखना है कि एम० ए० हिन्दी साहित्य की उपाधि प्राप्त करने के लिए तत्पर परीक्षार्थी 
को हिन्दी साहित्य का ज्ञान भी है या नहीं । कहों वह रट-र्टाकर या नकल करके 
तो पास नहीं होना चाहता है ? मौखिक परीक्षा में परीक्षार्थी के ज्ञान और व्यक्तित्व 
दोनों की परीक्षा हो जाती है । उसने विषय को कहाँ तक समका हैं तथा वह कहाँ 
तक इस सर्वोच्च उपाधि का अधिकारी है, इसका आकलन करते हुंए ही परीक्षक 

ङ्क प्रदान करते हूँ । 

प्रायः यह परीक्षा निवन्ध के अन्तिम प्रश्‍नपत्र के बाद ठीक १५ दिन के 
उपरान्त होती है। इसकी सूचना अन्तिम प्रश्नपत्र (निवन्ध) के दिन हो परीक्षा 
भवन में दे दी जाती है कि अमुक केन्द्र पर मौखिक परीक्षा होगी । मौखिक परीक्षा 
में बाहर से दो विद्वान आते हैं जो प्रायः पांच-दस मिनट तक परीक्षाथियों से विविध 
प्रकार के प्रश्‍न करते रहते हैं । 

हमारे उपयुक्त कथन सेतो आप यही निष्कर्ष निकालेगे कि मौखिक 
परीक्षा की सीमा एकदम निस्सीम है । इसके अन्तगंत सभी प्रकार के प्रश्‍न पूछे जा 
सकते हैं । वस्तुस्थिति यह है कि प्रायः पाठ्यक्रम में पूर्वाद्धं और उत्तरां में निर्धारित 
आठौं प्रश्‍तपत्रों की पुस्तकों के विवि पहलुओं पर प्रश्न पूछे जाते हैं। साथ ही 
परीक्षक यह भी जानना चाहते हैं कि परीक्षार्थी ने अष्टम प्रश्नपत्र में किस विषय 
पर निबन्ध लिखा है और उस निबन्ध में क्या लिखा है, उस पर भी बहस होती है । 
अतः परीक्षार्थी को चाहिए कि निबन्ध का प्रश्नपत्र दे चुकने के उपरान्त भी उसने 

२१५ 


कच 
गक मल 





हर मौखिक-परीक्षा पथप्रदशिका 


जिस विषय पर निबन्ध लिखा है, उसका पुनः गभीर अध्ययन मौखिक परीक्षा के 
लिए अवश्य करें बयोंकि निबन्ध के सम्बन्ध में प्रन मौखिक परीक्षाओं में प्रायः पूछे 
पूछे जाते हैं । 

हसी प्रकार अन्य प्रइनपत्रों में जसे उपन्यास है--उसका लेखक कौन है? 
उसका नायक कौन है ? उससे कौन-कौन प्रमुख पात्र हैं ? आपको कौन पात्र सर्वाधिक 
प्रभावित करता है और क्यों ? कहानी संग्रह में कौन-सी कहानी आपको अच्छी लगी 
और क्यों ? श्रेष्ठ कहानी में क्या विशेषता होनी चाहिए ? आपके संकलन में कौन- 
सी कहानी सर्वश्रेष्ठ है और क्यों ? आचाये पं० रामचन्द्र शुक्ल के चिन्तामणि में 
संकलित निबन्ध विचारप्रधान हैं या विषयप्रधान ? विचारप्रधान निबन्धो की 
विशेषता बताइये ? निबन्ध किसे कहते हैं ? 

एकांकी नाटक का उद्भव हिन्दी में कब हुआ ? हिन्दी का प्रथम एकांकीकार 
कौन है ? प्रमुख एकांकीकारों के नाम बताइये ? हिन्दी के प्रमुखनाटककारों के नाम 
बताइये ? प्रसादजी के नाटकों की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं क्या प्रसादजी ने शेवस- 
पीयर के चरित्र चित्रण की विशेषताओं को अपनाया है ? स्कन्दगुप्त में अन्तहंन्ह और 
वैचित्य की भावना क्या पाश्चात्य व्यक्ति-वंचित्यवाद से प्रभावित है ? देवसेना के 
चरित्र की क्या विशेषताएं हैं ? 

रस से क्या तात्पयं है ? काव्य की परिभाषा बताईए ? काव्य में रस की 
कया स्थिति है ? अनुभाव किसे कहते हैं ? व्यभिचारी भाव या संचारी भाव किसे 
कहते हैं ? 

यदि आपने प्राचीन भाषाओं में पालि या संस्कृत ली है तो उस पर भी प्रश्न 
पूछे जा सकते हैं । इसी प्रकार यदि इनके स्थान पर विशेष कवि लिया है तो उस पर 
प्रश्‍न पूछ सकते हैं, यथा--सूरदास की जन्मतिथि बताइये ? तुलसीदास की जन्मभूमि 
बताइये ? राजापुर को जन्मभूमि मानने वाले क्या तक देते हैं । सूरदास जन्म से अन्धे 
थे या बाद में अन्धे हुए ? जयशंकरप्रसाद का आँसू लौकिक विरह काव्य है या 
रहस्यवादी काव्य है ? 

इसी प्रकार निबन्ध के प्रश्‍न पत्र में जो विषय पूछे जायेंगे और परीक्षार्थी जिस 
विषय पर निबन्ध लिखेगा, उस विषय पर अनेक प्रकार के प्रश्‍न पूछे जायेंगे । सामान्य 
विषयों पर भी प्रश्‍न पूछे जा सकते हैं, जैसे भाषा-समस्या, शिक्षा समस्या, विद्यार्थियों 
में अनुशासनहीनता की समस्या ? इसी प्रकार यदि साहित्यिक विषय पर निबन्ध 
लिखा है, जसे काव्य में बिम्ब ग्रहण एक अच्छा महत्त्वपूर्ण विषय है, इस पर निबन्ध 
लिखने को आ सकता है, तो मौखिक परीक्षा में प्रश्‍न होगा कि काव्य में बिम्ब ग्रहण 
से क्या तात्पयं है ? किसी कवि के बिम्ब बताइए ? छायावादी कवियों के बिम्ब 
बताइए ? नई कविता पर भी निबन्ध आ सकता है, तो इस सम्बन्ध में भी प्रश्‍न पूछे 
जा सकते हैं । 








परिशिष्ट 


२१७ 


पाठ्यक्रम का पुनर्वोक्षण 


प्रथम प्रश्नपत्र में आधुनिक गद्य रखा है । इसमें जयशंकरप्रसाद का ऐतिहासिक 
नाटक स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य; भगवतीचरण वर्मा का सामाजिक समस्याप्रधान 
ऐतिहासिक उपन्यास चित्रलेखा; आचार्य चतुरसेन शास्त्री का ऐतिहासिक उपन्यास 
सोमनाथ; आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल का निवन्धसंप्रह चिन्तामणि; महादेवी वर्मा 
की स्मृति को रेखाएं; तथा बाबू गुलाबराय एवं किरणकुमारी गुप्त द्वारा सम्पादित 
कथाकुसुमाङ्जलि की कुछ कहानियाँ पाठ्यक्रम में निर्धारित हैं । 

द्वितीय प्रश्‍नपत्न में आधुनिक पद्य रखा है । इसमें आधुनिककाल के सर्वश्रेष्ठ 
त्रजभाषा के कवि जगन्नाथदास रत्नाकर का उद्धवशतक नामक प्रबन्धकाव्य; महादेवी 
वर्मा की कविताओं का संग्रह सम्धिनी' महाकवि जयशंकरप्रसाद के सुप्रसिद्ध महाकाव्य 
कामायनी के चार सर्ग (चिन्ता, आशा, श्रद्धा और लज्जा); मंथिलीशरण गुप्त के 
महाकाव्य साकेत के चार सर्ग, सुमित्रानन्दन पन्त का कविता संग्रह रश्मिबंध तथा 
क्रान्तिकारी महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का खण्डकाव्य राम की शक्तिमुजा 
पाठ्यक्रम में निर्धारित हैं । 

तृतीय प्रइनपत्र में मब्यकालीन साहित्य रखा है। महाकवि सूरदास का 
अमरगीतसार; गोस्वामी तुलसीदासजी की विनयपत्रिका; महाकवि बिहारीलाल की 
बिहारी सतसई; महाकवि केशवदाप की रामचन्द्रिका; (संक्षिप्त) तथा घनानन्द का 
'घनानन्द कवित्त' पाठयक्रम में निर्धारित हैं । 

चतुर्थे प्रश्नपत्र में प्राचीन साहित्य रखा है । महात्मा कबीरदास का 'कबोर- 
काव्य कोस्तुभ', चन्दबरदायी के महाकाव्य पृथ्वीराज रासो का अंशभूत 'कयमास बध'; 
मलिकमोहेम्मद जायसी का महाकाव्य पद्मादत तथा विद्यापत्ति की पदावलियों का 
संकलन 'विद्यापति वेभव' पाठयक्रम में निर्धारित है । 

पंचम प्रश्नपत्र में हिन्दी साहित्य का इतिहास तथा साहित्यालोचन या काव्य- 
शास्त्र रखा है । काव्यशास्त्र या साहित्यालोचन के अन्तर्गत भारतीय तथा पाश्चात्य 
दोनों के समीक्षा सिद्धान्तों का अध्ययन करना है । 

षष्ठ प्रश्नपत्र में भाषाविज्ञान तथा हिन्दी भाषा का इतिहास तथा लिपि का 
विकास पाठ्यक्रम में है। 

सप्तम प्रइनपत्र में प्राचीन भाषाओं के अन्तर्गत पालि या संस्कृत हैं और विशेष 

कवियों में सुरदास, तुलसीदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ओर जयशंकरप्रसाद हैं । 

अष्टम प्रश्नपत्र में पाठ्यक्रम में तो उच्चकोटि के साहित्यिक विषय पर 
निबन्ध पूछने की बात कही गई है किन्तु पिछले दो वषं से सामान्य विषयों पर भी 
निबन्ध पूछे जाते है । ® 

















दुनिया के अनेक संग्रहालय में बड़े लोगों के पत्रों का संकलन क्यों रखा जाता है?

तमाम महान हस्तियों की तो सबसे बड़ी यादगार या धरोहर उनके द्वारा लिखे गए पत्र ही हैं। भारत में इस श्रेणी में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को सबसे आगे रखा जा सकता है। दुनिया के तमाम संग्रहालय जानी मानी हस्तियों के पत्रों का अनूठा संकलन भी हैं। तमाम पत्र देश, काल और समाज को जानने-समझने का असली पैमाना हैं।

पत्रों को विरासत कहने के पीछे क्या उद्देश्य है तर्क सहित उत्तर दीजिए?

यदि किसी स्कूल में ऐसा होता है तो अच्छा है, लेकिन यहाँ जिस " पुस्तकालय" की बात हम कर रहे हैं उसका तात्पर्य है बच्चों को विभिन्न प्रकार की पुस्तकें उपलब्ध कराना तथा साथ ही ऐसे मौके उपलब्ध कराना जहाँ वे इन पुस्तकों से अन्तःक्रिया कर सकें ।

पुराने समय में पत्र का अधिक महत्व क्यों था?

प्रश्न-9 पुराने समय में पत्रों का अधिक महत्व क्यों था? उत्तर – पुराने समय में अन्य संचार साधनों के आभाव होने के कारण पत्रों का अधिक महत्व था। उस समय में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने कभी किसी को पत्र न लिखा या न लिखाया हो या पत्रों का बेसब्री से इंतजार न किया हो।

पत्रों की क्या विशेषता है?

पत्र जो काम कर सकते हैं, वह संचार का आधुनिकतम साधन नहीं कर सकता है। पत्र जैसा संतोष फ़ोन या एसएमएस का संदेश कहाँ दे सकता है। पत्र एक नया सिलसिला शुरू करते हैं और राजनीति, साहित्य तथा कला के क्षेत्रों में तमाम विवाद और नई घटनाओं की जड़ भी पत्र ही होते हैं।