आलोक धन्वा का जन्म 2 जुलाई 1948 ई० में मुंगेर (बिहार) में हुआ। इनकी उम्र 74 साल(2022) की है| वे हिंदी के उन बड़े कवियों में हैं, जिन्होंने 70 के दशक में कविता को एक नई पहचान दी। उनका पहला संग्रह है- दुनिया रोज बनती है। ’जनता का आदमी’, ’गोली दागो पोस्टर’, ’कपड़े के जूते’ और ’ब्रूनों की बेटियाँ’ हिन्दी की प्रसिद्ध कविताएँ हैं। अंग्रेज़ी और रूसी में कविताओं के अनुवाद हुये हैं। उन्हें पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फ़िराक गोरखपुरी सम्मान, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति सम्मान मिले हैं। पटना निवासी आलोक धन्वा महात्मागांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में कार्यरत थे। कविता संग्रह दुनिया रोज बनती
आलोक धन्वा के कवि ने जिस दुनिया में आंखें खोलीं, वह मेरे जन्म से पहले की दुनिया थी लेकिन यही वह दुनिया थी जिसकी लगातार बढ़ती हुई गूँज से ही मैं आज अपनी दुनिया की शिनाख्त कर पाता हूँ । नक्सलबाड़ी के उस दौर में आलोक धन्वा बेहद सपाट लेकिन उतने ही प्रभावशाली क्रोध के कवि दिखाई पड़ते हैं। 1972 में लिखी जनता का आदमी हो या गोली दागो पोस्टर – आलोक धन्वा का अपने विचार के प्रति समर्पण ऊपरी तौर से बेहद उग्र और भीतर से काफी सुचिंतित नज़र आता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि 70 के बाद की एक पूरी काव्यपीढ़ी ही उस एक विचार की देन है। आलोक धन्वा इस दुनिया में अपनी आग जैसी रोशन और दहकती उपस्थिति दर्ज कराते हैं। भीतर-भीतर यही सुगबुगाहट किंचित नए रूप में जारी रहती है, जिसकी अभिव्यक्ति `भूखा बच्चा´ और शंख के बाहर´ जैसी छोटे आकार की कविताओं में दिखती है। 1976 में वे एक लम्बी कविता `पतंग´ लेकर आते हैं। यह कविता उसी विचार को ज्यादा सघन या सान्द्र रूप में प्रस्तुत करती है, जिससे आलोक धन्वा ने अपनी यात्रा शुरू की और मुझे पूरा विश्वास है कि इसमें उनकी आस्था अंत तक बनी रहेगी। कविता की शुरूआती पंक्तिया हैं – उनके रक्त से ही फूटते हैं पतंग के धागे – इसे बूझना कठिन नहीं कि किन लोगों की बात यहाँ की जा रही है। इस कविता में ही आलोक धन्वा की काव्यभाषा और बिम्बों में बदलाव के कुछ संकेत भी मौजूद हैं – धूप गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो – यह कविता आँधियों, भादो की सबसे काली रातों, मेघों और बौछारों और इस सबमें शरण्य खोजती डरी हुई चिडियों के ब्योरों मे उतरती हुई अचानक फिर अपनी पुरानी शैली में एक बयान देती है – चिडियाँ बहुत दिनों तक जीवित रह सकती हैं – यहाँ आकर पता चलता है कि यह पतंग दरअसल किस दिशा में जा रही है। इसी कविता के तीसरे खंड में फिर भाषा और बिम्बों का वहीं संसार दिखाई देने लगता है, जिससे यह कविता शुरू हुई थी – सवेरा हुआ – पूरी कविता में मौसम का बदलना और उसके साथ पतंग उड़ाने वालों का छत के खतरनाक किनारों से गिरकर भी बच जाना और फिर उन बचे हुए पैरों के पास पृथ्वी का तेज़ी से घूमते हुए आना – ये सब उसी जगह की ओर संकेत करते हैं, जहाँ से आम जन का संघर्ष और आलोक धन्वा की कविता जन्म लेती है। यहाँ फर्क भाषा और बिम्बपरक अभिव्यक्ति भर का है – आक्रोश और उसके उपादान वही पुराने हैं। मैं कभी नहीं भूलता लखनऊ दूरदर्शन पर आलोक धन्वा का वह काव्यपाठ, जिसमें वे इसी कविता को इतनी आश्वस्तकारी नाटकीयता के साथ पढ़ते हैं कि सुनने वाला स्तब्ध रह जाता है। शायद यही कारण है कि उस कविता-पाठ में मौजूद चार-पाच बड़े कवियों में से मुझे आज सिर्फ़ आलोक धन्वा का वह दुबला और कठोर चेहरा याद है। अगर मैं कहूँ कि संजय चतुर्वेदी की `भारतभूषण पुरस्कृत -पतंग´ की प्रेरणा भी आलोक धन्वा से ही आयी होगी तो संजय भाई शायद इस बात का बुरा नहीं मानेंगे – यहाँ मैं सिर्फ़ आरंभिक प्रभाव की बात कर रहा हूँ , काव्यात्मक मौलिकता की नहीं। ज़मीन की सबसे बारीक़ सतह पर तो – यहाँ आलोक इन जूतों और उसी सदा चमकते हुए विचार और जोश के साथ अनगिन वंचितों, पीड़ितों और ठुकराए-सताए गए अपने प्रियतर लोगों की दुनिया में एक नई और अनोखी यात्रा आरम्भ कर देते हैं। वे खिलाडियों, सैलानियों की आत्माओं, चूहों, गड़रियों, नावों से लेकर ज़मीन, जानवर और प्रकृति तक के नए-नए अर्थ-सन्दर्भ खोलते हुए कविता को ऐसे उदात्त अन्त तक पहुंचाते हैं – मृत्यु भी अब उन जूतों को नहीं पहनना चाहेगी इस कविता में विचार समेत कई मानवीय भावनाओं का तनाव टूटने की हद तक खिंचता है और फिर एक ऐसे शानदार आत्मकथ्य में बदल जाता है, जो सारे कवियों का आत्मकथ्य हो सकता है। 1988 में लिखी भागी हुई लड़किया उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है। इसमें आलोक धन्वा ने एक ऐसे संसार को हिन्दी जगत के सामने रखा जो आंखों के सामने रहते हुए भी अब तक लगभग अप्रस्तुत ही था। किसी लड़की के घर से भाग जाने का हमारे औसत भारतीय समाज में क्या आशय है, यह बहुत स्पष्ट बात है। जिस समाज में विशिष्ट सामन्ती परम्पराओं और आस्थाओं के चलते औरत की यौनशुचिता को ही आदमी की इज्जत माना जाता हो, वहाँ बेटी का प्रेम में पड़ना और फिर घर से भाग जाना अचानक आयी किसी दैवीय विपदा से कम नहीं होता। इक्कीसवीं सदी में भी जब पंचायतें ऐसी लड़कियों और प्रेमियों को सरेआम कानून की धज्जिया¡ उड़ाते हुए फांसी पर लटका देती हैं, तब आलोक धन्वा की ये पंक्तियाँ हमें अपने भीतर झाँकने का एक मौका देती हैं – घर की ज़जीरें – ये स्त्रीविमर्श से अधिक कुछ है। साहित्यिक विमर्श के आईने में ही देखें तो ये भागी हुई लड़कियां प्रभा खेतान की तरह सम्पन्न नहीं हैं और न ही अनामिका की तरह विलक्षण बुद्धि-प्रतिभा की धनी हैं। ये तो हमारे गली-मोहल्लों की बेहद साधारण लड़कियां हैं। प्रभा खेतान या अनामिका का स्त्रीविमर्श इनके लिए शायद कुछ नहीं कर सकता। इनके दु:ख और यातना दिखा देने में ख़ुद विमर्श की मुक्ति भले ही हो, इन लड़कियों की मुक्ति कहीं नहीं है। उनका घर से भाग जाना महज एक पारिवारिक घटना नहीं, बल्कि एक जानलेवा सामाजिक प्रतिरोध भी है। वे अपने आप को जोखिम डालती हुई अपने बाद की पीढ़ी के लिए सामाजिक बदलाव का इतिहास लिखने की कोशिश करती हैं। ये प्रेम किसी प्रेमी के बजाए उस संसार के प्रति ज्यादा है, जिसमें एक दिन उनकी दुनिया की औरतें खुलकर साँस ले सकेंगी। हमारे सामन्ती समाज को समझाती हुई कितनी अद्भुत समझ है ये कवि की – तुम्हारे टैंक जैसे बन्द और मजबूत घर से बाहर – आलोक धन्वा की कविता में वे लड़कियां घर से भाग जाती हैं क्योंकि वे जानती हैं कि उनकी अनुपस्थिति दरअसल उनकी उपस्थिति से कहीं अधिक गूंजेगी । वे लड़कियां अपने अस्तित्व की इस गूँज के लिए भागती हैं और तब तक भागती रहेंगी जब तक कि घर और समाज में उनकी उपस्थिति, अनुपस्थिति से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो जाती। ऐसी लड़कियों के सामाजिक बहिष्कार करने या उन्हें जान से मार देने वाली बर्बर पुरुषवादी मानसिकता को पहली बार कविता में इस तरह से एक अत्यन्त मार्मिक किन्तु खुली चुनौती दी गई है – उसे मिटाओगे – यदि आलोक धन्वा की प्रवृत्ति बदलाव के स्वप्न और सामाजिक वास्तविकता के बीच झूलते रहने की ही होती तो वे कभी न लिखते – लड़की भागती है – और साथ ही यह भी कि लड़की भागती है – वे सिर्फ़ लड़की के भागने की बात नहीं कहते बल्कि उसके मूल में मौजूद सामाजिक कारणों को भी स्पष्ट करते हैं। वे जब उसे तैराकी की पोशाक में जगरमगर स्टेडियम में दौड़ते हुए दिखाते हैं तो अपने बर्बर सामन्ती समाज में हावी वर्जनाओं और पाशविकता के अन्तिम द्वार को भी तोड़ देने की एक निजी लेकिन ज़रूरी कोशिश करते हैं। उनकी इस कोशिश में वे कहाँ तक जाते हैं ये भी देखने चीज़ है – तुम जो – मुझे लगता है कि अपनी कविता में इस सच से आँख मिलाने वाला यह विलक्षण कवि अपनी ज़िन्दगी में भी इससे ज़रूर दो-चार हुआ होगा। कविता में भी उसने इस सच को एक गरिमा दी है और कविता में झलकती उसकी आत्मा का यक़ीन करें तो अपने जीवन में भी वह इससे ऐसे ही पेश आयेगा। इस कविता का जो झकझोरने वाला अन्त है, वह तो बिना किसी वास्तविक और जीवन्त अनुभव के आ ही नहीं सकता। इस अन्त में करुणा और शक्ति एक साथ मौजूद हैं। इतना सधा हुआ अन्त कि दूसरी किसी बहुत बड़ी कविता की शुरूआत-सा लगे। जहाँ तक मैं जानता हूँ समकालीन परिदृश्य पर इस भावात्मक लेकिन तार्किक उछाल में आलोक धन्वा की बराबरी करने वाले कवि बहुत कम हैं। रानियाँ मिट गईं – यहाँ आकर मैं कथ्य के स्तर पर कवि से थोड़ा असहमत हो जाता हूँ । रानियाँ हों कि किसान औरतें – मेरी वर्ग चेतना के हिसाब से वे एक ही श्रेणी में आती हैं। रानी होना उन औरतों की प्रस्थिति मात्र थी, वरना थीं तो वे भी औरतें ही। उतनी ही जकड़ी हुई। मैं यहाँ तर्कजनित इतिहासबोध की बात कर रहा हूँ । कोई कैसे भुला सकता है, जौहर या सती जैसी कलंकित प्रथाओं को। भारतीय इतिहास में उन्हें भी हमेशा जलाया ही गया। इस कविता की औरतें ग़रीब और दलित भी हैं, इसलिए उनके अस्तित्व की अपनी मुश्किलें हैं लेकिन रानियों का यह चलताऊ ज़िक्र इस कविता के अन्त को थोड़ा हल्का बनाता है। बहरहाल मैं इस कविता की अपनी व्याख्या में अधिक नहीं जाना नहीं चाहता क्योंकि फिर वहाँ से लौटना मेरे लिए हर बार और भी मुश्किल होता जाता है। इस कविता ने मुझे आख्यान रचने की एक समझ दी है और परिणाम स्वरूप आज मेरे पास ख़ुद की कुछ लम्बी कविताएँ हैं। जब अग्रज सलाह देते हैं कि लम्बी कविता लिखनी है तो मुक्तिबोध को पढ़ो, तब वे आलोक धन्वा को भूल क्यों जाते हैं? मैं इस इलाक़े में कदम रखते हुए हमेशा ही मुक्तिबोध के अलावा आलोक धन्वा और विष्णु खरे को भी याद रखता हूँ । आज के समय में मेरे लिए ये दोनों ही लम्बे शिल्प के कविगुरू हैं। उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा – ये स्त्रियाँ ग़रीब मेहनकश स्त्रियाँ हैं जो हर सुबह अपनी आजीविका के लिए बरतन मांजने , कपड़े धोने या खाना पकाने जैसे कामों पर जाती हैं। ये भी ब्रूनो की वैसी ही बेटियाँ हैं जो ओस में भीगे अपने आँचल लिए अलसुब्ह काम पर निकल जाती हैं। कवि का स्कूल उनके रास्ते में पड़ता है इसलिए उसकी मां उसे उन्हें उनके हवाले कर देती है। क्या सिर्फ़ स्कूल के रास्ते में पड़ जाने का कारण ही पर्याप्त है? बड़ा कवि वह होता है जिसकी कविता में अनकहा भी मुखर होकर बोले। यहाँ वही अनकहा बोलता है – दरअसल वे स्त्रियाँ भी एक मां हैं। उन ग़रीब स्त्रियों के जिस वैभव की बात कवि कर रहा है, वह यही मातृत्व और विरल मानवीय सम्बन्धों का वैभव है। कई दशक बाद भी चौराहा पार करते कवि को वे स्त्रियाँ याद आती हैं और वह अपना हाथ उनकी ओर बढ़ा देता है। मुझे नहीं लगता कि यह सिर्फ़ अतीत का मोह है। मेरे लिए तो यह वर्तमान से विलुप्त होती कुछ ज़रूरी संवेदनाओं की शिनाख्त है। आलोक धन्वा `शरीर´ नामक तीन पंक्तियों की एक नन्हीं-सी कविता में लिखते हैं – स्त्रियों ने रचा जिसे युगों में – मैं सोचता हूँ कि इस कविता की तीसरी पंक्ति में आज मैं चला ढूंढने के बाद “उसी निजता को” – ये तीन शब्द शायद छपने से रह गए है। इस तरह ये कविता पहली दृष्टि में एक पहेली-सी लगती है लेकिन इसके बाद छपी हुई और इसी वर्ष में लिखी हुई `एक ज़माने की कविता´ में यह गुत्थी सुलझने लगती है। कविता का शुरूआती बिम्ब ही बेहद प्रभावशाली है, जहाँ डाल पर फलों के पकने और उनसे रोशनी निकलने का एक अनोखा अनुभव हमें बांधता है। ये कौन से फल हैं, पकने पर जिनसे रोशनी निकलती है और यह पेड़ कैसा है? जवाब जल्द ही मिलता है, जब मेघों के घिरने और शाम से पहले ही शाम हो जाने पर बच्चों को पुकारती हुई मां गाँव के बाहर तक आ जाती है। इसके बाद आता है एक निहायत ही घरेलू लेकिन दुनिया भर के कविकौशल पर भारी यह दृश्य – फ़सल की कटाई के समय – पिता की थकान और मां की बातों की मिठास के अन्तर्सम्बन्ध का इस तरह कविता में आना दरअसल एक समूचे लोक का अत्यन्त सहज और कोमल किन्तु उतना ही दुर्लभ प्रस्फुटन है। इन तीन पंक्तियों में एक समूची दुनिया समाई है। मैं सोचता हूँ हिन्दी कविता में ऐसी कितनी पंक्तियाँ होंगी ? यह कवि अपनी मां और परिवार के बारे में लिखते हुए कितनी आसानी से दुनिया की सभी मांओं के हृदय तक पहुँच जाता है। ऐसा करने के लिए यह ज़रूरी है कि कवि की आत्मा समूची स्त्री जाति के प्रति एक आत्मीय अनुराग और आदर से भरी हो। इस कविता के अन्त में कवि कहता भी है कि उसने दर्द की आँधियों में भी मां के गाए संझा-गीतों को बचाया है। इन गीतों या इनकी स्मृतियों को सहजते हुए आलोक धन्वा अपने दिल को और साफ़ – और पारदर्शी बना लेते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगता है जब रेल जैसी औपनिवेशिक मशीन को देखकर भी आलोक धन्वा इसी अकेले निष्कर्ष पर पहुँचते हैं – दुनिया रोज बनती है किसकी रचना है?आलोक धन्वा का जन्म 2 जुलाई 1948 ई० में मुंगेर (बिहार) में हुआ। इनकी उम्र 74 साल(2022) की है| वे हिंदी के उन बड़े कवियों में हैं, जिन्होंने 70 के दशक में कविता को एक नई पहचान दी। उनका पहला संग्रह है- दुनिया रोज बनती है।
दुनिया रोज बनती है कब प्रकाशित हुई?दुनिया रोज़ बनती है / आलोकधन्वा. आलोक धन्वा किसकी रचना है?
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