लोक कला कितने प्रकार के होते हैं? - lok kala kitane prakaar ke hote hain?

एक ऐसी अभिव्यक्ति जिसके द्वारा मनुष्य अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करता है कला कहलाती है अर्थात कला से तात्पर्य ऐसे भावों से है, जो मनुष्य द्वारा उत्पन्न किया जाता है।

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दूसरे शब्दों में कला शब्द का अर्थ ऐसे समस्त भाव प्रदर्शन से है. जो वास्तविक रूप से भावनाओं का प्रदर्शन करते हैं इसका प्रकाशन किसी भी रूप में किया जा सकता है।अतः इसके अन्तर्गत कविता संगीत नाटक नृत्य आदि भी आते है। यह कला का भाव रूप में प्रकाशन है।

इससे हमारा तात्पर्य यह है कि संसार की ये समस्त वस्तुएँ जिन्हें मनुष्य ने अपने जीवन को सुन्दर बनाने के लिए भाव प्रकाशन का रूप दिया है ये सब कला है।

इनका अंकन चाहे पेन्सिल कागज द्वारा शब्दों द्वारा, कविता द्वारा नाट्य द्वारा तथा लेखों द्वारा ही क्यों न किया गया हो वह कला है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं “मानव की कल्पना द्वारा निर्मित अद्भुत रचना जो सबको चकित कर दे कला है।”

कला की परिभाषा

समयानुसार कला की परिभाषा बदलती रही है। अतः कला की परिभाषा किन्हीं विशेष शब्दों में नहीं दी जा सकती है। यहाँ यह कहना उचित प्रतीत होता है कि ऐसी समस्त मानवीय कृति जो आनन्द की अनुभूति कराती है, यही कला है

अर्थात “जीवन के प्रत्येक अंगों को नियमित रूप से निर्मित करने को ही कला कहते हैं।” समय-समय पर कुछ विद्वानों ने अपने विचार कला की परिभाषा के प्रति व्यक्त किए हैं, कुछ जो निम्न है

“समतल परातल पर तीन ठोस ज्यामितिक आकृति का अनुकरण कला है।” -प्लेटो

प्लेटो की इस परिभाषा से हमें ज्ञात हो जाता है कि उस समय कला का क्या क्षेत्र था ? कला की कसौटी पर यही वस्तु कसी जाती रही होगी, जिसकी तीन भुजाएँ ड्राइंग पेपर पर प्रदर्शित की जाती रही हो, जैसे एक क्यूब एक विद्वान ने कला की परिभाषा इस प्रकार दी है- “कला जीवित रखने के लिए ही है।”

“एक तल पर चाहे वह सम हो या असम, पानी, तेल या सूखे रंगों में से एक अथवा एक से अधिक रंगों से आलेखन करके आकृति में लम्बाई चौढ़ाई मोटाई दर्शाने को कला कहते हैं।”- रायकृष्ण दास

यह परिभाषा प्लेटो की आर्ट की परिभाषा से मिलती-जुलती है। यद्यपि यह भारतीय कला के विज्ञान की परिभाषा है।

औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात कला की परिभाषा मनोवैज्ञानिक ढंग से होने लगी तथा इसके द्वारा पूर्ण परख की जाने लगी कला की नई परिभाषा मनोवैज्ञानिक आधार इस प्रकार दी गई “कला कल्पनात्मक जीव की अनुभूति है।

संगीत की भावना पर जो आधारित तो वह कला है। -स्कोपन डीवर

कला हमारी भावनाओं की अभिव्यक्ति है। -टालस्टाय

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कला के प्रकार

प्राचीन भारतीय कला की जानकारी हमें प्राचीन वैदिक सहिताओं एवं सूत्र साहित्यों ग्रंथों एवं महाभाष्यों के अध्ययन से मिल जाती है।

इन समस्त साहित्यिक सामग्रियों का अध्ययन करने के पश्चात् यह जानकारी प्राप्त होती है कि “प्राचीन भारत में चौसठ प्रकार की कलाओं से लोग परिचित थे।” यह अलग बात है कि समय के साथ-साथ इन कलाओं में भी परिवर्तन होता गया।

कालान्तर में इनकी संख्या घटती गई। मनुष्य इनको भूलता गया। चौसठ से उनकी संख्या अडतालिस हो गई और फिर कुछ समय के पश्चात बत्तीस, सोलह तथा आठ रह गई. जो आज भी कला के आठ अंगों के नाम से प्रसिद्ध है।

औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात 18वीं सदी में कला की परिभाषा सीमित हो रह गई तथा आठ अंगों से घट कर केवल निम्नलिखित छ ही रह गए

(1) संगीत

(2) नृत्य

(3) कविता

(4) मूर्तिकला

(5) चित्रकला अथवा रंजना कला तथा

(6) भवन निर्माण कला |

उपर्युक्त कलाओं को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया-

(1) गतिशील तथा

(2) स्थिर

संगीत, नृत्य तथा कविता गतिशील कला के अन्तर्गत तथा शेष तीन की गिनती स्थिर कला में होने लगी। गतिशील कलाएँ प्राचीन कला से ही अपना अलग स्थान ग्रहण करती चली आ रही है किन्तु स्थिर के तीनों अंगों की शाखाएँ बहुत समय तक एक साथ फलती फूलती रही है।

परन्तु यह भी अलग-अलग स्थान प्राप्त कर चुकी है। अलमार वर्तमान अध्ययन में केवल रंजनकला अथवा कला ही रह गई।

लोक कला कितने प्रकार के होते हैं? - lok kala kitane prakaar ke hote hain?
कला के प्रकार

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1) संगीत कला

वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला की अपेक्षा संगीत कला अधिक उत्कृष्ट रूप में देखी जा सकती है, जिसका आधार नाद या स्वर होता है। इस कला के द्वारा व्यक्त भाव अधिक सूक्ष्म तथा स्पष्ट होते हैं। संगीत कला का विशेषज्ञ अपनी कला से श्रोता को रुला भी सकता है और हँसा भी इसमें पूर्वोक्त कलाओं की भीति गतिमान नहीं होते हैं।

2) नृत्य कला

नृत्यकला की गणना भी काला के अच्छे रूप में होती है। नृत्य के द्वारा कला की उन्नति होती है।

3) कविता या काव्यकला

काव्य का स्थान ललित कलाओं में सर्वश्रेष्ठ है। इसके आधार शब्द और अर्थ हैं। जहाँ संगीत कला में केवल स्वरों का प्रयोग होता है, वहाँ काव्य कला में स्थर और व्यंजन दोनों ही प्रयुक्त होते हैं। संगीत विशेषज्ञ एक दो स्वरों के आरोह और अवरोह के द्वारा श्रोता को भाव-विभोर कर सकता है किन्तु यह भाव विभोर की स्थिति स्थायी नहीं होती, जबकि कवि व्यंजनों और स्वरों के प्रयोग तथा उनके अर्थ के द्वारा चिरस्थायी प्रभाव डाल सकता है।

4) मूर्तिकला

वास्तु कला के मुकाबले में मूर्तिकला अधिक विकसित एवं उन्नत कला है। इसमें रूप, रंग तथा आकार होता है। लम्बाई, चौडाई और मोटाई भी होती है। यह कला वास्तु की अपेक्षा अधिक रूप में उत्कृष्ट है क्योंकि इसके साधन अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म है, यह कला वास्तुकला की अपेक्षा उत्कृष्ट मनोभावों को व्यक्त कर सकती है।

5) भवन निर्माण कला या वास्तुकला

वास्तुकला को स्थापत्य कला के नाम से भी पुकारते हैं। इस कला के अन्तर्गत भवन निर्माण मंदिर, मस्जिद, बांध, पुल आदि के निर्माण का कार्य होता है। वास्तुकला के आधार के रूप में इंट पत्थर, सीमेंट लोहा, लकड़ी आदि है और साधन के रूप में कभी वसूली कुदाल आदि। वास्तुकला में लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई तीन तत्व होते हैं। वास्तुकला द्वारा व्यक्त भावों की अपेक्षा अन्य कलाओं द्वारा व्यक्त भाव अधिक आकर्षक होते हैं। सूक्ष्मता उनकी विशेषता है।

6) रंजन कला या चित्रकला वास्तुकला

मूर्तिकला के मुकाबले में चित्रकला अधिक उत्कृष्ट तथा कला है। यद्यपि वास्तु तथा मूर्तिकला के समान रूप रंग और आकार इसमें होता है किन्तु इस कला के मान तीन-लम्बाई चौड़ाई और मोटाई न होकर केवल दो लम्बाई और चौड़ाई ही होते हैं रंग बुश के साधन है। वास्तु एवं मूर्ति को अपेक्षा चित्रकला मनोभावों को अधिक स्पष्ट करती हैं।

कला के अन्य विभेद

ललित कला

ऐसी कलाएँ जिनके द्वारा कलाकार को अपनी स्वतंत्र प्रतिमा से सृजनात्मक कृति निर्माण करने का अवसर मिले जैसे चित्रकला, वास्तुकला, संगीत नृत्य नाटक साहित्य।

शास्त्रीय कला

जब निश्चित सिद्धान्तों व उच्च आदर्श को लेकर कला निर्मित की जाती है तो यह शास्त्रीय कला कहलाती है। भारतीय कला में वात्सायन के कामसूत्र में चित्रकला के छ अंगों का एवं मानसार में स्थापत्य रचना के सिद्धान्तों का विवरण है। नृत्य के विविध रूपों जिनमें ताण्डव, लास्य कथक, मणिपुरी रास, भरतनाट्यम कुचिपु आदि आते हैं एवं संगीत में छः राग व छत्तीस रागिनियों का सिद्धान्तों पर आधारित विकास भारतीय शास्त्रीय कला के उदाहरण हैं।

लोक कला

दैनिक जीवन में व्याप्त परम्परागत रूप की कला लोक कला कहलाती है। लोक कला में परम्परागत रूपों, रीति-रिवाजों व धार्मिक विश्वासों को महत्व दिया जाता है। यह प्रशिक्षित कलाकारों की कला न होकर सामान्य व्यक्तियों की कला होती है जिसके पीछे परम्परागत रूप का अनुकरण निहित है और कालान्तर में यह जातिगत आचरण से जुड़कर लोकजीवन की धड़कन बन जाती है। लोक कलाएँ लोक जीवन में आनन्द उल्लास व उत्साह का संचार कर रीति-रिवाजों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित कर सामाजिक जीवनधारा को अखण्ड प्रवाहित रखती है। सहज स्वच्छन्द आकार व स्वाभाविक लय लोककला के गुण होते हैं। इसमें सृजनशील कलाकार की प्रतिमा व कौशल की सूक्ष्मता के स्थान पर सामान्य मोटा रूप व स्वाभाविक लय मुख्य तत्व होते हैं। लोक कला के अनेक रूप मिलते हैं जैसे अल्पना रंगोली माण्डणे महदी रचाना होई. गीत-संगीत, नृत्य विवाहादि अवसरों पर दीवारों पर चित्रण आदि।

अकादमिक कला, स्थापित कला

ऐसी कला, जिसमें नवीनता या प्रयोगशीलता का स्थान नहीं होता।

भारतीय कला की प्रमुख विशेषताएँ

कला की अपनी एक देशगत विशेषताएँ होती है जो उसकी मौलिकता को बनाए रखती है। ये विशेषताएँ उसे एक स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान करती है। भारतीय कलाकारों ने भी सौंदर्य निपुणता एवं बारीकी के साथ वास्तुकला मूर्तिकला चित्रकला एवं शिल्पकला के क्षेत्र में उत्तम कृतियों का निर्माण किया। कला के माध्यम से भारतीय कलाकारों ने भारतीय आस्या विश्वास एवं संस्कृति का स्पष्ट वर्णन किया है। इनकी कृतियों में गति लयपूर्णता एवं संवेदनशीलता दिखाई पड़ती है। भारतीय कला को कतिपय विशेषताएँ भी हैं जो इस प्रकार है

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प्राचीनता

भारतीय कला के साक्ष्य सैन्य काल से ही मिलने लगते है। अतः इनकी प्राधीनता स्वयं सिद्ध है।

धार्मिकता

भारत एक धर्म प्रधान देश है जिसका प्रभाव कला पर भी दिखाई पड़ता है। भारतीय कला में समस्त धर्मों का समावेश था जिसका प्रमाण प्राप्त मूर्तियों से मिलता है।

पारंपरिकता

भारतीय कलाकारों ने अपनी कृतियों में प्राचीन कला शैली की परम्पराओं का सुन्दर समन्वय किया है।

प्रतीकात्मकता

भारतीय कला में प्रतीकात्मकता का बड़ा महत्व है। प्रारम्भिक बौद्ध एवं जैन धर्म की प्रतिमाएँ प्रतीकात्मक रूप में निर्मित किये जाते थे।

अनामता

भारतीय कला कृतियों में उसके कर्ता के नाम का सर्वथा अभाव है।

भावात्मकता

भारतीय कला भावना प्रधान भारतीय कलाकारों ने अपनी भावनाओं को प्रस्तर मूर्तियों में पुरो दिया है। ये भावनाएँ बाह्य एवं आन्तरिक दोनों रूपों में इनकी कृतियों में दिखाई पड़ती है।

विभिन्न कला पद्धतियाँ

मन में आये हुए विचारों को कला के माध्यम से प्रदर्शित करने के लिए निम्न प्रकार की कला पद्धतियाँ अपनायी जाती है. जो इस प्रकार है-

धूलि चित्रण

रंगों के चूर्ण या पाउडर द्वारा चित्र रचना करना पूर्ति चित्रण कहलाता है। जैसे-रंगोली सांझी. चौक पूरना आदि।

इसमें चूर्णित रंगों को बुरक कर रेखांकन की विधि से चित्र का बाह्याकार अंकित कर लिया जाता है, उसके पश्चात् आवश्यकतानुसार अलग-अलग क्षेत्रों को विभिन्न रंगों से भर देते हैं।

पेस्टल चित्रण

पेस्टल विशुद्ध और साधारण चित्रण माध्यम है पेस्टल चित्रण हेतु खुरदुरा व कढ़ा घरातल अधिक उपयुक्त होता है। प्रायः विभिन्न धूमिल रंगलों की भूमि पर पेस्टल रंगों से चित्रण किया जाता है। पेस्टल रंग गोल या चौकोर बत्तियों के रूप में मिलते हैं। इनसे छोटे स्ट्रोक से लेकर बड़े स्ट्रोक तक बारीक से बारीक सभी प्रभाव देना समय है। चित्र में रंग भरते समय मंग का चूर्ण भी बनता रहता है अतः उसे या तो हल्की से उड़ा देना चाहिए या कागज पर से धीरे से देना चाहिए।

टेम्परा चित्रण

टेम्परा का माध्यम जलीय द्रव में तैलीय अथवा मोम पदार्थ के मिश्रण से निर्मित किया जाता है। जिस समय इस माध्यम का प्रयोग किया जाता है तो इसमें जल भी मिलाया जा सकता है किन्तु सूखने पर इसका तैलीय अंश चित्र पर एक चमकदार एवं पारदर्शी पतली झिल्ली का निर्माण कर देता है टेम्परा का माध्यम अण्डे की जर्दी (yolk) सम्पूर्ण अण्डा अण्डे की सफेदी आदि रहे हैं। गोद, ग्लेसरीन तथा अलसी के तेल से भी इस प्रकार के माध्यम का निर्माण हो सकता है। दूध की रेसीन का भी प्रयोग किया जाता रहा है।

चित्रकला

प्रायः मोटा और कड़ा कागज इसके हेतु उपयुक्त रहता है जो पानी को न सोखे चिकना, मध्यम खुरदुरा अथवा अधिक खुरदुरा कई प्रकार के धरातलों में निर्मित व्हाटमैन (Whatman) मार्का कागज इसके हेतु अच्छा माना जाता है। आजकल हाथ से बना कागज भी उपलब्ध है। यह काटमैन कागज के समान उत्तम नहीं है।

जल रंग चित्रण हेतु प्रायः सेबल हेयर के श उपयुक्त रहते हैं। छोटे हैण्डल वाले गोल ब्रश ही अधिकांशतः प्रयोग में लाये जाते हैं किन्तु मोटे कार्य के लिए फ्लैट का भी प्रयोग किया जाता है।

वाश तकनीक

यह तकनीक बंगाल शैली के चित्रकारों व जापानी चित्रकारों के सहयोग से विकसित हुई। इस चित्रण हेतु सबसे उपयुक्त कागज सफेद कैण्ट पेपर व हैण्डमेड पेपर है।

जल रंगों से वाश लगाने की दो विधियों है एक स्थानीय वाश और दूसरा सम्पूर्ण वाश स्थानीय वाश में किसी आकृति के एक खण्ड में पतला पतला रंग बार-बार लगाया जाता है एक बार का रंग सूख जाने पर चित्र को धोकर ब्लाटिंग पेपर से सुखा लेते हैं और पुनः रंग भरते है।

इस क्रिया को तब तक दुहराते रहते हैं जब तक कि इच्छित प्रभाव उत्पन्न न हो जाय। सम्पूर्ण वाश की पद्धति में सम्पूर्ण चित्र में अलग-अलग स्थानीय रंग भरकर सुखा लेते हैं।

इसके पश्चात् चित्र को पानी से भिगोकर पुनः सुखाते हैं। ऐसा करने से पहले भरे हुए रंग पक्के हो जाते है और यदि कहीं अधिक गाढ़े रंग लग गये हो तो ये पुल सम्पूर्ण चित्र पर वाश लगाते हैं।

जब वाश का रंग सूख जाता है तो प्रकाश वाले स्थानों को तूलिका से गीला करके रंग उठा लेते हैं। शेष कार्य को रंग लगाकर तथा सीमा रेखांकन के द्वारा पूर्ण करते हैं। यदि एक बार में वाश अच्छा न लगे तो उसे तुरन्त घो देते हैं और सूख जाने पर पुनः वाश लगाते हैं।

जाते हैं। सूख जाने पर इच्छित रंगों के पतले घोल से लाइनोकट, लिनोलियम कट-लिनोलियम के टुकड़े पर चित्र या आकृति काटकर छापने की कला वाश के अतिरिक्त अलग-अलग क्षेत्रों में पतला रंग आवश्यकतानुसार हल्का-गहरा करके अथवा छाया- प्रकाश का प्रभाव उत्पन्न करते हुए भी लगाया जाता है।

इसमें बाह्य सीमांकन की आवश्यकता नहीं है। शीघ्रतापूर्वक यथार्थमूलक आकृतियों चित्रित करने अथवा दृश्य-चित्रण में यह विधि बहुत उपयोगी है।

कोलाज

कागज अथवा कपड़े के टुकड़ों को चित्र तल पर चिपका कर तैयार की गई चित्र कृतियों कोलाज कृतियाँ कहलाती है।

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पेपरमेसी

कागज की लुगदी के साथ गोंद मेथी व खड़िया मिश्रित करके सीधे में दबा कर प्रतिकृति निकालने की विधि को पेपरमेसी कहते हैं।

माण्डणा

राजस्थान मांगलिक अवसरों पर आग चौक, फर्श या दीवार को सजाने के लिए माण्डमा रचने की परम्परा है। गोबर व पीली मिट्टी में हरमध (हिरमिजी) या झीकरे का पानी मिलाकर चबूतरों आगन व कच्चे मकानों की दीवारों को लीपा जाता बाद में खड़िया मिट्टी तथा लाल झीकरे द्वारा माण्डणा लिखा जाता है।

थापा

हाथ का छाप विधि को थापा कहते हैं। विवाह द मांगलिक अवसरों पर ईश्वरीय आशीर्वाद के प्रतीक के रूप में व अलंकारिकता की अभिवृद्धि के उद्देश्य से हाथ का छाप दीवार या अन्य धरातल पर अफित करके उसकी पूजा की जाती है।

घर्षणचित्र-फ्रोताज

एक अतियथार्थवादी चित्रणपद्धति है। इसमें लकड़ी ईंट व पत्थर जैसे पदार्थों की खुरदरी सतह पर कागज रखकर उस पर पेंसिल कोयला या क्रेयान से रगड़ा जाता है जिससे कागज पर अनपेक्षित आकारों का निर्माण होता है। इससे कई अद्भुत दृश्य या आकृतियों नजर आती हैं जैसे कि वनस्पति सागर, काल्पनिक प्राणी आदि। इसका आविष्कार अतियथार्थवादी चित्रकार माक्स एन्स्ट ने किया। 1926 में उन्होंने इस पद्धति से बनाये चित्रों की मालिका को “निसर्ग का इतिहास” नाम से प्रकाशित किया।

मोम चित्रण

मोम के रंगों से चित्रण की प्राचीन विधि जो अब अप्रचलित है। इसमें गोम में मिलाये हुए रंगों को पिघलाकर लगाया जाता था। प्राचीन ग्रीस व रोम में इस विधि से दीवारों व फलको पर चित्रण किया जाता था। ग्रीक मोमचित्र उपलब्ध नहीं है, किन्तु मिस्र में प्राप्त अनेक शव पेटिकाओं पर ऐसे मोमचित्र सुरक्षित है।

पट-चित्र

कपड़े पर बनाया चित्र जिसे लपेट कर रखा जा सकता है। प्राचीन काल में बौद्ध भिक्षु धर्म प्रचार के लिये पट-चित्र बनाकर देश-विदेश की यात्राओं में अपने साथ ले जाते थे। आज पट चित्र के पिछवई, फाड़ जैसे अनेक आधुनिक स्वरूप मिलते हैं।

छींट, बातिक

कपड़े पर अलंकारिक आकृति या चित्र बनाने की एक विधि इस विधि में प्रथम कपड़े पर पिछले ए मोम से आकृति बनायी जाती है। शेष हिस्से को लाख के रंगों से रंजित करने के पश्चात मोम को हटाया जाता है।

फड (पट-चित्र)

प्राचीन काल में ये चित्र काष्ट के पटरों पर बनाए जाते थे और अब पर-पत्री के रूप में बनाये जाते हैं। इन पर किसी महानायक का जीवन चित्रित होता है या किसी धार्मिक या पौराणिक कथा को चित्रित किया जाता है। फड़ को एक ओर से खोलकर दूसरी ओर लपेटते जाते हैं और सामने आये चित्र की भोपाओं द्वारा माकर व वाद्यपत्रों पर संगीत देकर प्रभावी ढंग से व्याख्या की जाती है। राजस्थान में विशेषकर भीलवाड़ा क्षेत्र में इस पद्धति का बहुतायत उपयोग होता है। पाबूजी की कथा को फड़ पर लाल व हरे रंगों चित्रित किया जाता है और मोपा लोग उस कथा को लोकवाद्य सवनहत्ता पर गाकर वर्णन करते हैं।

पच्चीकारी

आधुनिक युग में अलंकरण व चित्र रंगीन पत्थर कांच या मार्बल के टुकड़ों को मसाले में बिठाकर बनाया जाता है। प्राचीन काल में मिस्र व मेसोपोटामिया में छोटे पैमाने पर इस पद्धति से अलंकरण किया जाता था। बिजाटाइन साम्राज्य में जस्टिनियन के शासनकाल में सर्वोत्कृष्ट दर्ज के बड़े आकारों के व चमकीले पच्चीकारी चित्र बनाये गये। वर्तमान समय में मार्बल के अतिरिक्त नवीन आविष्कृत सामग्री का उपयोग करके दीवारों व फर्श पर पच्चीकारी की जाती है।

लिपि-लेखन कला

विश्य की भिन्न कलाओं के अन्तर्गत विविधता लिए हुए लिपि लेखन कला भी आती है जिसका प्रमुख उद्देश्य अक्षरों के वस्तु-निरपेक्ष सूक्ष्म सौंदर्य को विकसित कर चित्ताकर्षक रूप में विषय को प्रस्तुत करना होता है। अनेक विदेशी भाषाओं में लिपि-लेखन के विभिन्न आकर्षक रूप मिलते हैं। चीन में चित्रलिपि पर आधारित लेखन कला का प्रयोग आज भी विद्यमान है जिसके प्रभाव से यूरोपीय आधुनिक वस्तुनिरपेक्ष कला के विकास की गति को बढ़ावा मिला है। यूरोप में गोधिक, इंटेलिक, रोमन जैसी लिपियों का अपना विशेष सौंदर्य है और इस सुन्दरता को लिए हुए लिपियों के साथ चित्रित बाइबल की आइरिश, रोमानेका कैरोलिंजियन मध्ययुगीन पाण्डुलिपियाँ इतिहास प्रसिद्ध है। भारतीय अपभ्रंश शैली की पोथियों की सुन्दर लिपि लेखन के साथ सचित्र रचना हुई। मुगल व ईरानी कला में फारसी लिपि के विविध रूप मिलते हैं जैसे कूफी नख, नस्तालिख व शिकिस्त प्रस्तर–स्तम्भों एवं शिलाओं पर भी उभारदार एवं नतोदार लिपिका अलंकारिक लेखन हुआ है। सौन्दर्य लिपि-लेखन से कलाकार को आत्मिक अभिव्यक्ति का आनन्द ते मिलता ही है, उसके साथ निर्मित कृति के सौन्दर्य की

अभिवृद्धि से यह पाठक को प्रेरित कर विषय को अधिक ग्राह्य बनाती है। लिपि-लेखन कला स्वर्ण-चूर्ण का भी प्रयोग हुआ है, जिससे कृति को आकर्षक व दुर्लभ स्वरूप प्राप्त हुआ है।

फ्रेस्को भित्ति चित्र

यूरोप में फंस्को चित्रण मुख्यतः दो विधियों से किया जाता रहा है। प्रथम विधि में पलस्तर की हुई सूखी दीवार पर जलरंगों से चित्रण किया जाता है जिसे फस्को सक्को (Fresco Secco) कहते हैं। इससे बनाये चित्र स्थायी रहते हैं और न उनमें रंगों की एकसी चमक होती है। दूसरी विधि में गौले पलस्तर पर जतरंगों में काम किया जाता है। विधि के रंग पक्के हो जाते हैं व पलस्तर को हटाये बिना चित्र को मिटाया नहीं जा सकता। इस विधि फेरको (Fresco (Bran) कहते इस विधि का प्रयोग इटली में लगभग 14वीं से 16वीं सदी तक हुआ विधि में साधारण पलस्तर पर विशेष आरिकाक्कातो पलस्तर (Arricaccato) चढ़ाया जाता है। जिस पर चित्र का रेखांकन उतारा जाता है। अब इसके ऊपर फिर उतने हिस्से पर पलस्तर चढ़ाया जाता है जितने पर एक दिन में चित्रण हो सके इसे इन्तोनाको (Intonaco) कहते हैं। इस तरह विभिन्न हिस्सों में कार्य करके मित्तिचित्र पूरा किया जाता है। भित्तिचित्रण की भारतीय विधियों विविध प्रकार की हैं।

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कला चित्रण के लिए उपयुक्त सामग्री

मिश्रण पट्टिका मिश्रण फलक

अंगूठे में पकड़ने के लिए छेदवाली पट्टिका जिस पर रंगों को निकालकर मिश्रित किया जाता है।

पेंसिल

18वीं सदी के अन्त तक छोटी तुलिका को पेंसिल कहते थे। अब ग्रेफाइट से बनी वर्तिका को पेंसिल कहते हैं।

हार्ड पेंसिल

H.2H.3H. 4H ये ज्यामितीय कला में प्रयुक्त होती है।

सॉफ्ट पेंसिल

B. 20. 38, 48. 68 ये कोमल रेखांकन हेतु प्रयुक्त की जाती हैं।

आरेखण पट्ट

आधार के तौर पर लिया गया चिकना पट्ट जिस पर चित्र बनाने के लिए कागज या कैनवास लगाया जाता है।

ब्रिस्टल बोर्ड

महीन रेखांकन के लिए उपयुक्त अत्यधिक चिकना सफेद रंग का कागज का फलक •

हार्ड बोर्ड

विशेष रूप से सख्त बनाया गया गत्ता जो चित्रण में धरातल के रूप में काम में लिया जाता है।

कैनवास, पट

तैलचित्रण के लिए विशेष तरीके से लेपित छालटी सन या रूई का कपड़ा।

कैनवास बोर्ड

कैनवास जैसी बनावट का कैनवास की तरह लेपित बोर्ड |

फलक, पट्ट

टीवार या छत का हिस्सा या उस पर स्थायी रूप से जोड़ा हुआ धरातल जिस पर प्रायः चित्रकारी या शिल्पकार्य किया जाता है।

वसली

मुगल काल में चित्ररचना के लिए तीन-चार पहले कागजों को चिपकाकर उनकी मोटी परत बनायी जाती थी। बाद में कागज की अच्छी तरह से घुटाई करके मोटा चिकना भरातल बनाया जाता था फिर चित्रण कार्य होता था। चित्र रचना के लिए इस प्रकार बनाया मोटा कागज वसली कहलाता है।

आधार छड़ी चित्रकारी करते समय चित्रकार द्वारा हाथ के नीचे आधार के रूप में रखी जाने वाली छड़ी। • अलसी का तेल- यह तैलचित्रण के कार्य में लिया जाता

है।

शुष्कक

चित्रण करने के पश्चात् रंग कम समय में सूख -जाने हेतु उनमें मिलाया जाने वाला पदार्थ

तिपाई

चित्र बनाते समय आधार के लिए उपयुक्त लकड़ी के टेक। •

कागज का आकार

कागज का उत्पादन साधारणतया निम्नलिखित आकारों में किया जाता है

(1) मी 20 x 15.5

(6) रॉयल 24X19 । (4)

(5) डबल एलेफेट 40″ x 26.75°

(b) इंटिरियन 53×31

(2) मीडियम 22 x 17.5 इम्पीरियल 30.5″ x 22.5″

कागज की मोटाई एक रीम कागज के वजन में मार्च जाती है।

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दृष्टिजन्य मिश्रण

प्रभाववादी रंगाकन पद्धति के अनुसार रंगों को प्रत्यक्ष मिश्रित करने के बजाय मिन्न रंगों को सही छटाओं को चुनकर उनके धब्बों को विशुद्ध रूप में समय अंकित किया जाता है। दूर से देखने पर ये धर्म एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं और जगमगाता मिश्रित रंग नजर आता है। समीपवर्ती मिन रंगों के धब्बों को मिश्रित रूप में देखने की क्रिया को दृष्टिजन्य मिश्रण कहते है व यह मिश्रित प्रभाव रंगों के प्रत्यक्ष मिश्रण से अधिक चमकीला व आकर्षक होता है।

भूकृतियाँ

भूमि से प्राप्त मिट्टी, कंकड रेती जैसे पदार्थों को लेकर जमीन पर की गयी रचनाएँ राबर्ट मिसन राबर्ट मोरिस ने इस तरह की भूकृतियों की रचनाएँ की

कार्टूश

चारों तरफ मुढी हुई कुण्डली नुमा अलंकरण में युक्त आयताकार या अण्डाकार सख्ती वास्तुकला चित्रकला, मूर्तिकला व स्मारकों में इसका उपयोग अभिलेख आदर्श विचार या गुलचिह्न अंकित करने के लिए किया जाता रहा है। .

जैव रूप कला

वस्तु निरपेक्ष कला का प्रकार जिसमें आकारों को प्रत्यक्ष सृष्टि के सजीव प्राणियों व वनस्पति के रूपों में पृथक्करण से बनाया जाता है।

स्थिरीकरण

चौक, पेंसिल कार्बन या पेस्टल जैसे अस्थिर माध्यमों में बनाये चित्रों को कागज पर उचित दय का छिड़काव करके स्थिर करना। •

भारत की प्रमुख लोक कला क्या है?

कलमकारी, कांगड़ा, गोंड, चित्तर, तंजावुर, थंगक, पातचित्र, पिछवई, पिथोरा चित्रकला, फड़, बाटिक, मधुबनी, यमुनाघाट तथा वरली आदि भारत की प्रमुख लोक कलाएँ हैं

कला कितने प्रकार के होते हैं?

अधिकतर ग्रंथों में कलाओं की संख्या 64 मानी गयी है। "प्रबंधकोश" इत्यादि में 72 कलाओं की सूची मिलती है। "ललितविस्तर" में 86 कलाओं के नाम गिनाये गये हैं

कला क्या है और उसके प्रकार?

कला का अर्थ (kalaa kya hai) कला से तात्पर्य रेखा आकृति, रंग, ताल तथा शब्द, जैसे-- रेखाचित्र, रंजनकला, मूर्तिकला, नृत्य, संगीत, कविता एवं साहित्य के रूप में मानव की प्रवृत्तियों का बाहारी अभिव्यक्ति हैं। कला न ज्ञान हैं, न शिल्प हैं, न ही विद्या हैं, बल्कि जिसके द्वारा हमारी आत्म परमानन्द का अनुभव करती हैं, वही कला हैं।

राजस्थान की लोक कलाएं कौन सी है?

थाम – विवाह के समय लगन मंडप में तैयार किया गया मांडणा। यह दाम्पत्य जीवन में खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। चैकड़ी – होली के अवसर पर बनाए गए मांडणे जिसमे चार कोण होते है जो चारों दिशाओं में खुशहाली का प्रतीक माने जाते है। थापा – मांगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा घर की चैखट पर कुमकुम तथा हल्दी से बनाए गये हाथों के निशान।