राज्य के आवश्यक तत्व में सबसे महत्वपूर्ण तत्व कौन सा है? - raajy ke aavashyak tatv mein sabase mahatvapoorn tatv kaun sa hai?

प्रश्न; राज्य की परिभाषा दीजिए एवं उसके मुख्य तत्वों का वर्णन कीजिए।

अथवा" राज्य की परिभाषा दीजिए। राज्य के आवश्यक तत्व कौन-कौन से हैं? उदाहरण सहित विवरण दीजिए। 

अथवा" राज्य क्या हैं? राज्य की परिभाषा दीजिए तथा इसके मुख्य संगठक तत्व बताइये।

अथवा" राज्य और सरकार में क्या अंतर है?

अथवा" राज्य से आप क्या समझते हैं? राज्य के आवश्यक तत्व बताइए।

उत्तर-- 

rajya arth paribhasha avashyak tatva; हम जानते है कि, राजनीति विज्ञान राज्य का अध्ययन हैं। अतः स्वाभाविक रूप में, राज्य शब्द का विस्तृत अध्ययन करना उपयुक्त होगा ताकि हम इसके अनिवार्य तत्वों, स्वभाव, कार्यों एवं उपत्ति के बारे में विभिन्न सिद्धान्तों को देख सके। हिन्दी में राज्य शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है। फ्रांस, ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, भारत आदि राज्य कहे जाते हैं, पर साथ ही न्यूयार्क, कैलिफोर्निया आदि जो प्रान्त संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्तर्गत हैं, वे भी राज्य कहलाते हैं। स्वतन्त्र भारत के संविधान के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, काश्मीर आदि भी राज्य हैं। यही नहीं, अनेक जमींदार व ताल्लुकेदार अपनी भूसम्पत्ति को भी राज्य व राज कहते हैं। बलरामपुर महमूदाबाद आदि केवल जमींदारियां थीं, यद्यपि उन्हें भी राज्य कहा जाता था और उनके स्वामी अपने को महाराजा व राजा कहते थे। 

मध्यकाल में सामन्त पद्धति के युग में न केवल राजाधिराजाओं द्वारा शासित प्रदेश ही राज्य कहलाते थे, बल्कि सामन्त राजाओं व ठाकुरों द्वारा अधिकृत प्रदेशों को भी राज्य कहा जाता था। अंग्रेजी शासन के समय में राजपूताना के अन्तर्गत जयपुर, जोधपुर आदि को भी राज्य कहते थे। इतना ही नहीं, जयपुर के महाराजा के अधीन जो अनेक रावराजा आदि थे, उनके प्रदेश भी राज्य कहे जाते थे। केवल हिन्दी भाषा में ही नहीं, अंग्रेजी में भी राजनीतिशास्त्र की अनेक संज्ञाओं का उपयोग इसी प्रकार अनिश्चित व विविध अर्थों में होता है। राज्य को अंग्रेजी में 'स्टेट' कहते हैं। जहाँ फ्रांस, ब्रिटेन आदि को स्टेट कहते हैं, वहां कश्मीर, जयपुर, न्यूयार्क आदि भी स्टेट कहे जाते हैं। पर राजनीतिशास्त्र में हमें जिस राज्य व स्टेट का प्रतिपादन करना है, उसमें प्रभुता व सर्वोपरिता  (Sovereignty) का होना अनिवार्य है। जो प्रदेश किसी अन्य के अधीन हो, जो सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न न हो और जिस पर किसी बाह्य सत्ता का नियंत्रण हो, वह राजनीतिशास्त्र की दृष्टि में राज्य नहीं होता। न्यूयार्क काश्मीर, बिहार आदि को यद्यपि सामान्यतया 'राज्य' भलेही कहा जाता हो, लेकिन राजनीतिशास्त्र जिस 'राज्य' पर विचार करता है, वह इनसे भिन्न है। फ्रांस, चीन, भारत आदि जो राज्य सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न (सॉवरेन) हैं, वे ही राजनीतिशास्त्र की दृष्टि में 'राज्य' हैं और उन्हीं पर यह शास्त्र विचार करता है। 

एक विषय के रूप में राजनीति विज्ञान की प्रकृति और क्षेत्र के बारे में आप पिछले लेख में पहले ही जान चुके हैं। आप जानते ही हैं कि यह विषय अन्य मुद्दों के साथ राज्य का भी सुव्यवस्थित रूप से अध्ययन करता है। इसी समय यह याद रखना भी जरूरी है कि, आधुनिक काल में राज्य के आधारभूत अध्ययन को एक व्यापक और जटिल क्रिया में बदलने का प्रयास किया गया है जिसे राजनीतिक प्रणाली कहा गया है। लेकिन यह आवश्यक है कि राज्य की संकल्पना और अन्य संघों के अध्ययन पर पुनः ध्यान दिया जाए, क्योंकि यह मूल विषय-वस्तु है।

राज्य का अर्थ (rajya ka arth)

राजनीति विज्ञान के अध्ययन का केंद्र-बिन्दु राज्य है। इस विषये मे राज्य के बारे मे सब कुछ जानने का प्रयास किया जाता है। राज्य आधुनिक युग की सर्वोच्च राजनीतिक इकाई है। प्रश्न यह है कि राज्य क्या है? राज्य कहते किसे है? राज्य का अर्थ क्या है? यानि राज्य की परिभाषा क्या है? 

राज्य को विद्वानों ने अनेक तरह से परिभाषित किया है पर इसकी कोई सार्वदेशीय या सार्वकालिक परिभाषा नही है। राज्य के स्वरूप निर्धारण के कई आधार है जैसे शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर, तत्वों के आधार पर, कानूनी दृष्टिकोण के आधार पर, उद्देश्य एवं कार्य के आधार पर, शक्ति की धारणा के आधार पर, बहु समुदायवाद के आधार पर, तथा उत्पत्ति के आधार पर। 

राजनीति विज्ञान मे मुख्य रूप से राज्य और उसकी उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है। " राज्य " शब्द का प्रयोग कई अर्थों मे किया जाता है। परन्तु राजनीति शास्त्र मे "राज्य" शब्द का सही प्रयोग चार तत्वों भू-भाग, जनसंख्या, सरकार, सार्वभौमिकता के आधार पर किया जाता है, जैसे भारत, चीन, सोवियत संघ, अमेरिका, इंग्लैंड इत्यादि राज्य की संज्ञा मे आते है। &lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;मैकियावेली&lt;/b&gt; ने सबसे पहले 'राज्य' के विचार का प्रतिपादन किया। &lt;b&gt;मैकियावली&lt;/b&gt; के अनुसार," सारी शक्तियाँ, जिनका अधिकार जनता पर होता हैं, चाहे वे राजतंत्र हो या प्रजातंत्र राज्य है।" इसके बाद तो राज्य के संबंध में कई विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये, किन्तु राज्य के संबंध में सभी की परिभाषाएं पृथक-पृथक हैं। इसलिए शुल्जे ने कहा हैं," राज्य शब्द की उतनी ही परिभाषाएँ हैं जितने राजनीति विज्ञान के लेखक।&lt;/p&gt;&lt;p&gt;राज्य राजनीति शास्त्र के अध्ययन का महत्वपूर्ण एवं केन्द्रीय विषय है। यदि राजनीति शास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाए तो हम पाते हैं कि इसके आधार स्तम्भ 'व्यक्ति' और 'राज्य'&amp;nbsp; है। अर्थात्&amp;nbsp; राजनीति शास्त्र के सभी सिद्धान्त व्यक्ति और राज्य के ईद-गिर्द घूमते है। गार्नर के अनुसार राजनीति शास्त्र का अन्त व प्रारम्भ राज्य के साथ ही होता हैं।&lt;/p&gt;&lt;p&gt;संगठित समाज एवं उद्देश्यों&amp;nbsp; की सिद्धि के लिए राज्य को प्रथम सोपान के रूप में स्वीकार किया गया है। इसलिये अनेक राजनीतिक चिन्तकों के द्वारा राज्य के महत्व को अपन-अपने स्तर&amp;nbsp; पर आधार मानकर प्रतिपादित किया गया है। अरस्तु के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के साथ-साथ राजनीतिक प्राणी है जिसका समाज के साथ-साथ राज्य में रहना बहुत जरूरी है, क्योंकि मनुष्य की अनेक मूलभूत आवश्यकताएँ राज्य के साथ जुड़ी हुई है। भारतीय राजनीतिक चिन्तक मनु राज्य को संगठित समाज की आधारशिला मानते हैं और कहते हैं कि समाज को अराजकता, अशांति, अन्याय व अव्यवस्था से मुक्ति दिलाने के लिए ईश्वर राज्य को उत्पन्न करता है। अरस्तु के अनुसार," राज्य जीवन के लिए बना है तथा सद्जीवन के लिए बना रहेगा।"&lt;/p&gt;&lt;h2 style="text-align:center"&gt;राज्य की परिभाषा (rajya ki paribhasha)&lt;/h2&gt;&lt;div&gt;राजनीति विज्ञान के विद्वानों मे राज्य के स्वरूप के बारे में मतभेद पाया जाता हैं जिसका प्रभाव उसकी परिभाषाओं पर भी पड़ा हैं। प्रत्येक विचारक अपनी मान्यताओं के अनुसार राज्य पर विचार करता हैं और फिर उस राज्य का स्वरूप भी बदलता रहा है। अतः राज्य की कोई परिभाषा सार्वदेशीय या सार्वकालिक नहीं हो सकती। शुल्जे ने ठीक ही कहा हैं कि, राज्य शब्द की उतनी ही परिभाषाएं हैं जितने की राजनीति के लेखक हैं। विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई राज्य की परिभाषाएं निम्न प्रकार से हैं--&lt;/div&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;अरस्तु के अनुसार,&lt;/b&gt; " राज्य परिवारों तथा ग्रामों का एक ऐसा संघ है जिसका उद्देश्य एक पूर्ण, एक आत्म-निर्भर जीवन की प्राप्ति करना है, जिसका महत्व एक सुखी सम्मानित मानव जीवन से है।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;हाॅलैंड के शब्दों मे,&lt;/b&gt; " राज्य मनुष्यों के उस समूह अथवा समुदाय को कहते है जो साधारणतः किसी प्रदेश पर बसा हुआ हो और जिसमे किसी एक श्रेणी अथवा बहुसंख्या की इच्छा अन्य सबकी तुलना मे क्रिया मे परिणत होती है।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;सिसरो के अनुसार,&lt;/b&gt; " राज्य एक ऐसा समाज है जिसमे मनुष्य पारस्परिक लाभ के लिए और अच्छाई की एक सामान्य भावना के आधार बंधे हुए है।&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;प्रो. लाक्सी के मतानुसार,&lt;/b&gt; " राज्य एक ऐसा क्षेत्रीय समाज है जो शासक तथा शासित मे विभाजित है और अपने निश्चित भौगोलिक क्षेत्र मे दुसरी संस्थाओं के ऊपर प्रभुता का दावा रखता हो।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;फिलिमोर के अनुसार,&lt;/b&gt; " राज्य वह जनसमाज है जिसका एक निश्चित भू-भाग पर स्थायी अधिकार हो, जो एक से कानूनों, आदतों व रिवाजों द्वारा बँधा हुआ हो, जो एक संगठित सरकार के माध्यम द्वारा अपनी सीमा के अंतर्गत सब व्यक्तियों तथा वस्तुओं पर स्वतंत्र प्रभुसत्ता का प्रयोग एवं नियंत्रण करता हो तथा जिसे भू-मण्डल के राष्ट्रों के साथ युद्ध एवं संधि करने तथा अन्तराष्ट्रीय संबंध स्थापित करने का अधिकार हो।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;गार्नर के अनुसार,&lt;/b&gt; " राज्य संख्या मे कम या अधिक व्यक्तियों का ऐसा संगठन है, जो किसी प्रदेश के एक निश्चित भू-भाग मे स्थायी रूप से निवास करता हो, जो बाहरी नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्र अथवा लगभग स्वतंत्र हो, जिसका एक संगठित शासन हो जिसके आदर्शों का पालन नागरिकों का विशाल समुदाय स्वाभावतः करता हो।"&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;गिलक्राइस्ट के अनुसार,&lt;/b&gt;" राज्य उसे कहते है जहाँ कुछ लोग एक निश्चित प्रदेश में एक सरकार के अधीन संगठित होते हैं। यह सरकार आन्तरिक मामलों में अपनी जनता की संप्रभुता को प्रकट करती है और बाहरी मामलों में अन्य सरकारों से स्वतंत्र होती हैं।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;विलोबी के अनुसार,&lt;/b&gt;" राज्य एक ऐसा कानूनी व्यक्ति या स्वरूप है जिसे कानून के निर्माण का अधिकार प्राप्त हैं।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;विल्सन के अनुसार,&lt;/b&gt;" राज्य एक निश्चित प्रदेश के अन्तर्गत नियम या विधि द्वारा संगठित लोगों का नाम हैं।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;प्लेटो के अनुसार,&lt;/b&gt;" राज्य व्यक्ति का विराट रूप हैं।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;कार्ल मार्क्स के अनुसार,&lt;/b&gt;" राज्य केवल एक ऐसी मशीन है जिसके द्वारा एक वर्ग, दूसरे वर्ग का शोषण करता हैं।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;एंजिल्स के शब्दों में,&lt;/b&gt;" राज्य बुर्जुआ वर्ग की एक समिति मात्र हैं।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;ट्रीट्स्के के अनुसार,&lt;/b&gt;" राज्य एक शक्ति है और हमें उसकी उपासना करनी चाहिए।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;बेटिल के शब्दों में,&lt;/b&gt;" राज्य मानव समाछ या राजनीति संस्था का वह रूप है जो अपनी शक्तियों के मिश्रण द्वारा सर्वसाधारण के हित की कामना करता हैं।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;गाँधी जी के शब्दों मे,&lt;/b&gt;" राज्य एक केन्द्रीत व्यवस्थित रूप में हिंसा का प्रतिनिधि हैं।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;बोदाँ के अनुसार,&lt;/b&gt;" राज्य कुटुम्बों तथा उसके सामूहिक अधिकार की वस्तुओं का एक ऐसा समुदाय हैं जो सर्वश्रेष्ठ शक्ति तथा तर्क-बुद्धि से शासित होता हैं।"&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;मैकाईवर के अनुसार,&lt;/b&gt;" राज्य उस समुदाय को कहते है जो अपनी सरकार द्वारा लागू किये जाने वाले कानून के अनुसार कार्य करता हैं जिसे इसके लिए बल प्रयोग की अनुमति है तथा जो एक निश्चित सीमा-क्षेत्र में सामाजिक व्यवस्था ही सर्वमान्य बाहरी स्थितियाँ बनाये रखता हैं।"&lt;/p&gt;&lt;h2 style="text-align:center"&gt;राज्य के आवश्यक तत्व (rajya ke avashyak tatva)&lt;/h2&gt;&lt;h2 style="text-align:left"&gt;&lt;script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"&gt; 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राज्य के आवश्यक तत्वों के संबंध मे विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग विचार किया है, विभिन्न विचारकों ने राज्य के तत्वों के सम्बन्ध में अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं। सिजविक ने राज्य के तीन आवश्यक तत्व बताये है-- जनता, भू-भाग तथा सरकार। ब्लंटशली के अनुसार, भू-भाग, जनता, एकता और संगठन राज्य के ये चार आवश्यक तत्व हैं। गैटिल ने भी जनता, प्रदेश सरकार तथा सम्प्रभुता ये चार तत्व राज्य के लिए आवश्यक माने हैं। वर्तमान मे इस संबंध मे गार्नर के विचारों को सर्वाधिक मान्यता प्रदान की जाती है। गार्नर के अनुसार राज्य के निम्नलिखित 4 आवश्यक तत्व है-- 

1. जनसंख्या 

राज्य मे जनसंख्या का होना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे किसी राज्य की कल्पना नही की जा सकती जिसमे कोई व्यक्ति नही रहता हो। इसलिए एक राज्य को राज्य तभी कहा जा सकता है जब उसमे एक निश्चित मात्रा मे जनसंख्या हो। 

जनसंख्या या आबादी के संबंध मे कोई निरश्चित नियम नही बनाया जा सकता आबादी कम या अधिक होना राज्य के अन्य तत्वों जैसे आकार, देश की परिस्थिति आदि पर निर्भर करता है। लेकिन एक आदर्श राज्य मे जनसंख्या कितनी हो यह विचारणीय है। प्लेटो ने " रिपब्लिकक " में आदर्श राज्य की जनसंख्या 5040 बतलाई है। इसी तरह अरस्तु ने भी कहा है कि जनसंख्या न बहुत अधिक हो और न कम। जनसंख्या इतनी हो कि उसका भरण-पोषण सरलता से हो सके और साथ ही राज्य की रक्षा भी उससे हो सके।

2. निश्चित भू-भाग 

राज्य के लिए एक निश्चित भू-भाग होना आवश्यक है। निश्चित भू-भाग राज्य का दूसरा आवश्यक तत्व है, जनसंख्या की तरह ही निश्चित भू-भाग के बिना भी राज्य की कल्पना नही की जा सकती। ब्लुन्शली के शब्दों मे " राज्य की शक्ति का आधार जनसंख्या है, इसका भौतिक आधार भूमि है। जनता तब तक है जब तक निश्चित भू-भाग या क्षेत्र हो। गिलक्राइस्ट के अनुसार," बिना निश्चित भूखंड के कोई भी राज्य सम्भव नही हो सकता।" अतः राज्य के अस्तित्व के लिए एक निश्चित भू-भाग आवश्यक है। कोई घुमक्कड़ कबीलों का (बंजरों का) अपना नेता सरदार होने पर भी उसे राज्य नही कहा जा सकता। इस सम्बन्ध मे विवाद है और यह दावे के साथ नही कहा जा सकता कि यह भू-भाग कितना होना चाहियें? राज्य के भू-भाग के संबंध मे निम्नलिखित तथ्य विचारणीय है राज्य की सीमाएँ निश्चित होनी चाहिए। राज्य के लिए भूमि का महत्व सिर्फ भौतिक दृष्टिकोण से ही नही बल्कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी है। निश्चित भू-भाग के बिना लोगों मे राष्ट्रप्रेम, एकता, बन्धुत्व आदि की भावनाएं नही आ सकती। 

3. सुसंगठित सरकार या शासन 

राज्य का तीसरा महत्वपूर्ण आवश्यक तत्व राज्य मे सरकार या शासन का होना है। सरकार को राज्य की आत्मा कहा जाता है। किसी निश्चित भू-भाग पर रहने वाले लोगों को तब तक राज्य नही कहा जा सकता, जब तक वहां कोई शासन न हो। ऐसी संस्था का होना आवश्यक है जिसका आदेश मानना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक हो।  राज्य की इच्छाओं और भावनाओं का पालन सरकार के द्वारा ही होता है। राज्य की शक्तियों का क्रियात्मक प्रयोग भी सरकार ही करती है। सरकार के अंदर प्राधिकरण आते है, जो सरकार के कार्यों को संचालित करते है, जैसे-- कानून का निर्माण करना और पालन करवाना तथा उल्लंघन करने वाले को दंड देना आदि। &lt;/p&gt;&lt;p&gt;गैटिल का मत है कि, संगठित सरकार के अभाव मे जनसंख्या पूर्णतः असंयमित, अराजक जनसमूह हो जायेगी और किसी भी सामूहिक कार्य का करना असम्भव हो जायेगा।&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;4. सम्प्रभुता&lt;/b&gt;&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;संप्रभुता राज्य होने की पहचान है। किसी समाज मे अन्य तीन तत्वो के होने पर भी जब तक उसमें संप्रभुता न हो वह राज्य नही बन सकता राज्य मे। नियमों को लागू करने वाली एजेन्सी हो सकती है परन्तु संप्रभुता नही हो सकती। संप्रभुता केवल राज्य की ही विशिष्टता है और यह राज्य का आवश्यक अंग भी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भारतवर्ष के पास अपनी जनसंख्या थी, उसका निश्चित भू-भाग तथा सरकार थी, किंतु सम्प्रभुता के अभाव मे उसे राज्य नही कहा जाता था।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;सम्प्रभुता से आश्य&lt;/b&gt; " राज्य का आंतरिक दृष्टि से पूर्णतः संप्रभु होना संप्रभुता है। राज्य के अंदर कोई भी व्यक्ति अथवा समुदाय ऐसा नही होता जो कि उसकी आज्ञाओं का पालन न करता हो। बाहरी दृष्टि से सम्प्रभुता का अर्थ है, राज्य विदेशी संबंधों के निर्धारण मे पुर्णतः स्वतंत्र होता है, परन्तु यदि राज्य स्वेच्छा से अपने ऊपर कोई बंधन स्वीकारता है तो इससे राज्य की सम्प्रभुता पर कोई प्रतिबंध नही होता।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;हाॅब्स, बैन्थम, आस्टिन, हीगल&lt;/b&gt; तथा अनेक विद्वानों ने राज्य की संप्रभुता को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताया है और उसे राज्य रूपी शरीर का प्राण माना है, परन्तु दूसरी ओर लास्की तथा कोल ने, जो मूलतः बहुलवादी विचारक है, राज्य की संप्रभुता पर प्रहार भी किया है। लास्की ने कहा है, " राज्य न कभी सही अर्थों मे संप्रभु था, न है और न रहेगा।" उन्होंने यह भी कहा कि राज्य भी अन्य संस्थाओं के समान एक संस्था है- अतः वह सर्वोच्च कैसे हो सकती है?&lt;/p&gt;&lt;h4 style="text-align:center"&gt;निष्कर्ष&amp;nbsp;&lt;/h4&gt;&lt;p&gt;राजनीति विज्ञान की परिभाषा के अनुसार राज्य में उपर्युक्त चारों तत्वों का होना आवश्यक है। इन तत्वों के अभाव में किसी भी संगठन को राज्य कहकर सम्बोधित नहीं किया जा सकता। राज्य के तत्वों पर विचार करते समय निम्नलिखित दो प्रश्न प्रायः हमारे मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं--&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;&lt;span style="color:red"&gt;1. क्या संघ की इकाईयां राज्य हैं?&amp;nbsp;&lt;/span&gt;&lt;/b&gt;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;संघ का निर्माण उसकी घटक इकाइयों से होता हैं। भारत और अमेरिका संघात्मक शासन प्रणाली के अच्छे उदाहरण हैं। भारतीय संविधान के अन्तर्गत राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, गुजरात इत्यादि भारतीय संघ की इकाइयों के लिए राज्य शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के अन्तर्गत भी संघ की इकाइयों के पास राज्य का निर्माण करने वाले प्रथम तीन तत्व-- भूमि, जनसंख्या तथा सरकार पूर्ण रूप से विद्यामान हैं परन्तु इनके पास संप्रभु शक्ति नहीं हैं। इनकी आन्तरिक सम्प्रभुता केन्द्रीय सरकार द्वारा नियन्त्रित होती है और इन्हें बाहरी संबंध बनाने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार सम्प्रभु शक्ति के अभाव के कारण इन्हें राज्य नहीं कहा जा सकता।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;b&gt;&lt;span style="color:red"&gt;2. क्या संयुक्त राष्ट्र संघ एक राज्य है?&lt;/span&gt;&lt;/b&gt;&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;कभी-कभी यह भी प्रश्न पूछा जाता है कि क्या संयुक्त राष्ट्र संघ एक राज्य हैं? औपेनहीन के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय का एक कानूनी निकाय हैं। इसे कानूनी व्यक्तित्व प्राप्त है जो इसके सदस्यों के व्यक्तित्व से विशिष्ट हैं। जिस प्रकार विभिन्न राज्य विभिन्न कार्यों को अपने 'नाम' से करते हैं उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के नाम से ही संगठन एवं एजेन्सियाँ कार्यरत हैं। जिस प्रकार राज्य के राजनयिक प्रतिनिधियों को अनेक उन्मुक्तियाँ एवं विशेषाधिकार दूसरे देशों में प्राप्त हैं, उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधियों को भी इसके सदस्य देशों में उन्मुक्तियाँ एवं विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। राज्यों की तरह संयुक्त राष्ट्र संघ का भी अपना विशिष्ट झण्डा हैं। औपेनहीम के अनुसार राज्य के चारों निर्णायक तत्वों के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यक्तित्व का विश्लेषण किया जाये तो यह कहा जा सकता है कि थोड़ी सीमा तक ये सभी तत्व संयुक्त राष्ट्र संघ में हैं। विश्व की समस्त जनता के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ कार्यरत हैं। भूमि की दृष्टि से सदस्य राष्ट्रों की सीमाएं एवं क्षेत्र संघ की कर्मस्थली कहा जा सकता हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रशासनिक ढाँचा एक रूप में उसकी सरकार ही हैं।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सहासभा, सुरक्षा परिषद् आदि की सिफारिशें राज्यों के लिए सम्प्रभु आदेश के समान नहीं हैं। प्रायः यह देखा गया हैं कि विभिन्न राज्य इसके आदेशों की अवहेलना करते हैं। ऐसी स्थिति में इसे राज्य नहीं कहा जा सकता।&lt;/p&gt;&lt;h4 style="text-align:center"&gt;राज्य और समाज में अंतर&amp;nbsp;&lt;/h4&gt;&lt;p&gt;राज्य और समाज में निम्नलिखित अंतर हैं&lt;/p&gt;&lt;p&gt;1. राज्य एक राजनीतिक व्यवस्था, समाज एक सामजिक व्यवस्था है। समाज से उन मनुष्यों का ज्ञान होता है जो परस्पर सामाजिक बन्धन में रहते हैं। राज्य समाज का वह यन्त्र है जिसके द्वारा समाज में शान्ति स्थापित होती है।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;2. समाज के पास प्रभुसत्ता नहीं रहती, राज्य के पास रहती है। राज्य के कानून भंग करने पर राज्य द्वारा दण्ड दिया जा सकता है।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;3. समाज राज्य से पहले बना है। जब मनुष्य संगठित नहीं था घुमक्कड तथा कबीलों के रूप में रहता था तब भी वहाँ समाज था। राज्य का विकास बाद में हुआ , जब मनुष्य ने सभ्यता से तथा संगठित होकर रहना सीखा। 4. राज्य मनुष्य के राजनीतिक पहलू से सम्बन्धित है, समाज नैतिक पहलू से।&lt;/p&gt;&lt;p&gt;5. समाज के लिए क्षेत्र आवश्यक नहीं, राज्य के लिए है। समाज स्थानीय भी और अन्तर्राष्ट्रीय भी हो सकता है।&lt;/p&gt;&lt;h3 style="text-align:center"&gt;राज्य और शासन&amp;nbsp;&lt;/h3&gt;&lt;p&gt;&amp;nbsp;हम लोग अपने दिन-प्रतिदिन के वार्तालाप में राज्य एवं शासन को पर्यायवाची मानते हैं। इस संबंध में एक फ्रेंच किसान की यह कथा बड़ी रोचक है कि वह अपने देश की लोकसभा के भवन में प्रवेश करना चाहता था। जब संतरी ने उसे टोका तो उसने कहा, " मैं राज्य से मिलना चाहता हूँ।" राज्य और शासन को एक मानने की प्रवृत्ति केवल जन-साधारण तक ही सीमित नहीं है, यह बहुत से राजनीतिक विचारकों में भी दिखाई देती है। उदाहरणार्थ, क्रोचे का कहना है कि राजनीतिक दृष्टि से राज्य एवं शासन एक ही चीज है।" इसी भाँति जी. डी. एच . कोल का विचार है कि," राज्य एक समुदाय की शासन व्यवस्था केअतिरिक्त कुछ नहीं है।" हैनरी कोईन, डब्लू जी. सुमनर, एच जी केलर तथा लास्की आदि विचारकों का भी यही मानना है। लास्की का कहना है कि राज्य एवं शासन का भेद व्यावहारिक महत्त्व का नहीं है वह सैद्धान्तिक रुचि का भले ही है। हमारे सामने राज्य का जो कार्य आता है। वह वस्तुतः शासन का कार्य होता है। राज्य और शासन को एक मानने की इस प्रवृत्ति के बावजूद हमें उनके शैक्षणिक भेद को समझ लेना चाहिए।&lt;/p&gt;&lt;h4 style="text-align:center"&gt;राज्य और सरकार में अंतर&amp;nbsp;&lt;/h4&gt;&lt;p&gt;राज्य और सरकार में निम्नलिखित अंतर हैं--&lt;/p&gt;&lt;p&gt;1. राज्य अमूर्त और सरकार मूर्त है। राज्य एक अमूर्त धारणा है जबकि सरकार एक मूर्त, ठोस यन्त्र है जो व्यक्तियों की निश्चित संख्या के योग से बनती है।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;2. सरकार राज्य की एजेण्ट होती है सरकार के माध्यम से राज्य अपनी इच्छा को प्रकट करता है। सरकार राज्य के लक्ष्यों को पूरा करती है और अपनी सभी शक्तियाँ राज्य से अर्थात उसके सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व जनता से ग्रहण करती है।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;3. सरकार राज्य का अंग है। सरकार राज्य के लिए आवश्यक चार तत्त्वों में से एक है जबकि राज्य अपने आप में एक व्यापक अवधारणा है।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;4. राज्य के पास राजसत्ता है सरकार के पास नहीं राजसत्ता राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। सरकार के पास राजसत्ता नहीं रहती, क्योंकि लोकतन्त्र में जनता सरकार की सभी शक्तियों का स्रोत मानी जाती है।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;5. सरकार परिवर्तनशील राज्य स्थायी राज्य का अस्तित्त्व स्थायी होता है तथा सदैव एक जैसा रहता है। राज्य के लिए आवश्यक चारों तत्त्वों का जहाँ संयोग होगा वहाँ राज्य बन जायेगा। परन्तु सरकारों के अनेक रुप होते हैं तथा सरकारें परिवर्तनशील होती हैं। सरकारों में परिवर्तन अनके कारणों से हो सकते हैं, जैसे निर्वाचन, सैनिक क्रान्ति, विद्रोह, आक्रमण आदि। किन्तु सरकार में परिवर्तन होने के पश्चात भी राज्य का अस्तित्व बना रहता है।&lt;/p&gt;&lt;h4 style="text-align:center"&gt;अधिकार और राज्य में संबंध&amp;nbsp;&lt;/h4&gt;&lt;p&gt;अधिकार और राज्य में क्या संबंध है? इस प्रश्न के हमें दो उत्तर मिलते हैं। एक उत्तर प्राकृतिक अधिकारों, के सिद्धांत के समर्थकों का है। इस सिद्धांत के अनुसार अधिकार राज्य के पूर्ववर्ती होते हैं। प्रकृति उन्हें मनुष्यों को प्रदान करती है। दूसरे शब्दों में वे जन्मजात होते हैं। अधिकारों और राज्य के संबंध के बारे में दूसरा उत्तर अधिकारों के कानूनी सिद्धांत के समर्थकों का है। इस सिद्धांत के अनुसार अधिकारों की सृष्टि राज्य द्वारा होती हैं। नागरिक केवल उन्हीं अधिकारों का उपभोग कर सकता है जो उसे राज्य द्वारा प्राप्त होते हैं म। राज्य के कानून नागरिक को जिस कार्य के करने की अनुमति नहीं देते, वह कार्य अधिकार का रूप नहीं धारण कर सकता।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;यद्यपि प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत में एक महत्त्वपूर्ण सत्य निहित है लेकिन उसे सर्वांश में स्वीकार नहीं किया जा सकता यह सही है कि राज्य समस्त अधिकारों की सृष्टि नहीं करता। लेकिन यह भी नहीं माना जा सकता कि अधिकारों का अस्तित्व राज्य संस्था से पृथक होता है या वे राज्य के नियंत्रण से सर्वथा स्वतंत्र होते हैं। यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि अधिकारों का उपभोग केवल एक सभ्य समाज में ही किया जा सकता है समाज से पृथक अधिकार नाम की किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता। आदिम समाज में मनुष्य शक्तियों का उपभोग करते थे अधिकारों का नहीं शक्तियों का मूल शारीरिक बल है जब कि अधिकार संपूर्ण समाज की सामान्य सहमति और सामान्य प्रेरणा पर आधारित होते हैं। इसी प्रकार जंगल के पशु शक्तियों का उपभोग करते हैं, अधिकारों का नहीं सभ्य समाज में विभिन्न व्यक्तियों की शारीरिक और मानसिक क्षमताओं में आकाश पाताल का अंतर होता है लेकिन इस अंतर के होते हुए भी वे सर्वसामान्य अधिकारों का समान रीति से प्रयोग करते हैं उदाहरण के लिए हम जीवन रक्षा के अधिकार को ले सकते हैं। इस अधिकार का प्रयोग लोग इसीलिए तो कर सकते हैं क्योंकि उनकी पीठ पर राज्य की शक्ति होती है। यदि उनकी पीठ पर राज्य की सत्ता न हो तो इस बात की शंका हो सकती है कि कुछ लोग इस अधिकार का उल्लंघन करें।&amp;nbsp;&lt;/p&gt;&lt;p&gt;सभ्य समाज में यदि कोई व्यक्ति इस अधिकार का उल्लंघन करता है, तो राज्य उसे दंड देता है। इस प्रकार हम यह नहीं कह सकते कि राज्य ही सब अधिकारों का स्रष्टा है। परंतु हम यह अवश्य कह सकते हैं कि राज्य अधिकारों की रक्षा करता है। इसी बात को &lt;span style="color:red"&gt;वाइल्ड&lt;/span&gt;&amp;nbsp; ने कहा है, " कानून अधिकारों की सृष्टि नहीं करते परंतु उन्हें स्वीकार करते और उनकी रक्षा करते हैं।" कहने का सार यह है कि अधिकारों का पालन केवल राज्य में कानूनों के अंतर्गत ही संभव है।&lt;/p&gt;&lt;p&gt;&lt;ins class="adsbygoogle" data-ad-client="ca-pub-4853160624542199" data-ad-format="auto" data-ad-slot="7864238180" data-full-width-responsive="true" style="display:block"&gt;&lt;/ins&gt; &lt;script&gt; (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); <script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js">

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राज्य के सबसे महत्वपूर्ण तत्व क्या है?

" सम्प्रभुता सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। सम्प्रभुता राज्य का प्राण है। इसके अभाव में राज्य अस्तित्व में नहीं आ सकता। किसी निश्चित प्रदेश में रहने वाले सरकार सम्पन लोग भी उस समय तक राज्य का निर्माण नहीं कर सकते, जब तक कि इनके अधिकार में सम्प्रभुता न हो।

राज्य के कुल कितने तत्व हैं?

जनसंख्या 2. निश्चित भू-भाग 3. सरकार 4. संप्रभुता ।

राज्य से आप क्या समझते हैं राज्य के आवश्यक तत्व की विवेचना कीजिए?

राज्य का अर्थ निश्चित भूभाग , जनसँख्या , सरकार और संप्रभुता। मैक्स वेबर ने राज्य को ऐसा समुदाय माना है जो निर्दिष्ट भूभाग में भौतिक बल के विधिसम्मत प्रयोग के एकाधिकार का दावा करता है। गार्नर ने राजनीति विज्ञान का आरंभ और अंत राज्य को ही बताया है वहीं आरजे गेटल ने राजनीति विज्ञान को राज्य का विज्ञान बताया है।