ऋग्वैदिक काल का आर्थिक जीवन (Economic Life of Rigvedic Period) ऋग्वेदकालीन अर्थव्यवस्था : ऋग्वैदिक काल की अर्थव्यवस्था पशुचारण (पशुपालन), कृषि और व्यापार-वाणिज्य पर निर्भर थी | विद्वानों के अनुसार ऋग्वैदिक आर्य मुख्य रूप से पशुचारक थे, कृषि उनका गौण व्यवसाय था | हमे इस काल में नियमित व्यापार के होने का कोई स्पष्ट प्रमाण नही मिलता है | ऋग्वेद में बुनकर, बढ़ई, कुम्हार, रथकार, चर्मकार इत्यादी शिल्पियों का वर्णन मिलता है | पशुपालनऋग्वैदिक काल में गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ता, घोड़ा, गधा आदि पशु पाले जाते थे | पशुओं में गाय का अत्यधिक महत्व था | ऋग्वेद में हमे गाय एवं सांड़ का इतना वर्णन मिलता है कि यह माना जा सकता है कि ऋग्वेदकालीन आर्य मुख्य रूप से पशुचारक थें | आर.एस.शर्मा लिखते है कि “वैदिककालीन आर्यों का गायों से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध था कि जब उन लोगों ने भारत में भैस को देखा तब उन्होंने उसे गोवाल की संज्ञा उसी प्रकार दी जिस प्रकार बेबीलोन निवासियों ने घोड़े को पहली बार देखकर पहाड़ी गधा कहा |” सम्भवतः ऋग्वैदिक समाज में सबसे महत्वपूर्ण कार्य गौ-पालन था | गाय को ‘अष्टकर्णी’ भी कहा जाता था क्योकि साधारणतया गाय के कान को आठ के निशान की तरह छेद दिया जाता था | गाय को आर्य सम्भवतः सबसे उत्तम धन मानते थे | गायों की चोरी विशेष रूप से होती थी | उनकी रक्षा हेतु देवताओं से प्रार्थना की जाति थी | इस काल के आर्यों के अधिकांश युद्ध गायों के कारण होते थे | ऋग्वेद में युद्ध का पर्याय ‘गविष्टि’ है जिसका अर्थ ‘गाय की खोज’ होता है | इस काल में गाय का इतना महत्व था कि ऋग्वेद में बहुत सारी भाषागत अभिव्यक्तियाँ गाय (गो) से सम्बन्धित है | ऋग्वेद में गाय के लिए ‘गो’ शब्द का उल्लेख भिन्न-भिन्न रूप में 176 बार हुआ है | उदाहरणस्वरूप गोमत (धनी व्यक्ति), गोप व गोपति (राजा या मुखियाँ), गोधूलि, गवयुती (दूरी), दुहिता (पुत्री, क्योकि वह गाय का दूध दूहन करती थी) | इन सब के आलावा ‘गोत्र’ शब्द का सम्बन्ध भी गाय से है, जो आर्य अपनी गायों के साथ एक ही गोष्ट में निवास करते थे उनको उसी गोत्र का माना जाने लगा | गाय के आलावा अन्य पालतू पशुओं में घोड़े को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था | घोड़ा आर्यों को युद्ध में विजय दिलाता था तथा तेज आवागमन का साधन था | कृषिपशुचारण (पशुपालन) की तुलना में कृषि का महत्व कम था फिर भी ऋग्वैदिक लोगों की खेती से सम्बन्धित जानकारी बेहतर थी | उन्हें विभिन्न ऋतुओं का भी ज्ञान था | खाद के प्रयोग का भी उल्लेख मिलता है | ऋग्वैदिक आर्य बैलों से खींचे जाने वाले हलों से खेती करते थे | जोते हुए खेत उर्वरा या क्षेत्र कहलाते थे | यह भी उल्लेख मिलता है कि हल में कभी-कभी एक साथ छह, आठ या बारह बैल तक जोते जाते थे | ये लकड़ी के फाल का प्रयोग करते थे | इस काल में आर्यों को बोवाई, कटाई व दावनी की जानकारी था | फसल को हँसिए या दराँती से काटा जाता होगा | आर्य खाद्यान्नों को सामूहिक रूप से ‘यव’ और ‘धान्य’ कहते थे | व्यापार एवं वाणिज्यऋग्वैदिक आर्य युद्ध-प्रेमी थे इसलिए यह आसानी से समझा जा सकता है कि व्यापार हेतु वस्तु-उत्पादन के लिए उनके पास समय का आभाव होगा | लेकिन इसके बावजूद वे वाणिज्य और व्यापार में संलग्न थे | व्यापारी ‘वणिक’ कहलाते थे | ‘पणि’ नामक अनार्य व्यापारियों का भी उल्लेख मिलता है, जो पशु सम्पत्ति की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध भी थे | व्यापार स्थल और जल दोनों मार्गों द्वारा होता था | आंतरिक व्यापार अधिकतर गाड़ियों रथों और पशुओं के द्वारा किया जाता था | वैदिक आर्यों को समुद्र के विषय में जानकारी थी अथवा नही, यह बात अभी तक स्पष्ट नही हुई है | यद्यपि हमे ऋग्वेद में आर्यों द्वारा सौ पतवारों वाली नौका से यात्रा करने का उल्लेख प्राप्त होता है तथापि विद्वान मानने है कि ऋग्वेद में वर्णित समुद्र शब्द मुख्यतया जलराशि का वाचक है | व्यापार मुख्यतया वस्तु-विनिमय द्वारा होता था | ऋग्वेद में एक स्थान पर सौ ‘निष्क’ के दान का उल्लेख मिलता है | निष्क को सोने का हार माना जाता है | कुछ विद्वान निष्क की तुलना मुद्रा से करते है | गायों का प्रयोग भी मुद्रा के रूप में किया जाता था | ऋग्वेद काल के व्यवसायों में बढ़ईगीरी, बुनाई, मृदभाण्ड बनाना, धातु का काम, चमड़े का काम आदि उल्लेखनीय है | बढ़ईगीरी एक अत्यंत लाभदायक व्यवसाय था | केवल वह ही रथ का निर्माण कर सकता था, जो युद्ध और आवागमन में इस्तेमाल होता था | इसके आलावा जब कृषि का विकास हुआ और हल का प्रयोग बढ़ा तब बढ़ई का और महत्व बढ़ गया | सूत, रेशम एवं ऊन से वस्त्र निर्मित किये जाते थे | कताई-बुनाई का काम स्त्री व पुरुष दोनों के द्वारा किये जाते थें | ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है सिंध और गंधार प्रदेश ऊनी वस्त्रों के लिए प्रसीद्ध थें | इस काल में गंधार प्रदेश की भेंड़े चिकने ऊन देने के लिए विख्यात थी | ऋग्वैदिक काल में आर्यों को लोहे का ज्ञान नही था | ऋग्वेद में ताम्बे (या कांसे) के लिए ‘अयस’ शब्द का सामान्य रूप से प्रयोग किया गया है | इससे पता चलता है कि उन्हें धातुकर्म की जानकारी थी | पाठकों को बता दे कि कालान्तर में जब लोहे की खोज हुई तब ताम्बे को ‘लोहित अयस’ और लोहे को ‘श्याम अयस’ कहा गया | ब्याज पर धन उधार देने की प्रणाली भी प्रचलित थी | साहूकार धन उधार देकर लोगो से ब्याज वसूलते थे | ब्याज के रूप में मूलधन का आठवाँ या सोलहवां भाग वसूलने का उल्लेख मिलता है | विद्वानों के अनुसार चूँकि इस समय समाज का मुख्य आर्थिक आधार पशुचारण था इसलिए राजा द्वारा प्रजा से नियमपूर्वक राजस्व (कर) प्राप्त करने की गुंजाइश अत्यधिक कम थी | इस काल में भूमि निजी सम्पत्ति नही होती थी इसीलिए ऋग्वेद में भूमि-दान का उल्लेख नही मिलता है जबकि गाय और दासियों के दान का उल्लेख कई स्थान पर मिलता है | ऐसा माना जा सकता है कि इस काल में आर्य गाय चराने, खेती करने और घर बसाने के लिए भूमि पर अधिकार करते होंगे परन्तु भूमि का प्रयोग निजी सम्पत्ति के रूप में नही किया जाता होगा | ऋग्वैदिक काल का आर्थिक जीवन से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्यऋग्वैदिक काल का आर्थिक जीवन से सम्बन्धित महत्वपूर्ण (Important Facts on Economic Life of Rigvedic Period) इस प्रकार है –
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