शिक्षण प्रतिमानों
को वर्गीकृत कीजिए। अनिर्देशात्मक शिक्षण प्रतिमान किन परिस्थितियों में प्रयोग किया जा सकता है ? शिक्षण प्रतिमानों का वर्गीकरण (Classification of Teaching Models)शिक्षण विधि के विभिन्न प्रतिमानों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है-
(1) दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान के अन्तर्गत-
(2) मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान के अन्तर्गत –
(3) आधुनिक शिक्षण प्रतिमान के अन्तर्गत –
(4) सामाजिक अन्तः प्रक्रिया स्रोत के अन्तर्गत –
(5) सूचना प्रक्रिया स्रोत (Information Process Centre)
अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान (Advance Organiser Model)इस प्रतिमान के प्रणेता डेविड ऑसबेल (David Ausbel) हैं। इस स्थिति में अध्यापक अपने शिक्षक के दौरान छात्रों के समक्ष कुछ बौद्धिक बिन्दु अग्रिम रूप से प्रस्तुत करता है। इसी के फलस्वरूप इस प्रतिमान के नाम को हम अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान के नाम से जानते हैं। इन बौद्धिक बिन्दुओं को अग्रिम रूप में रखने का प्राथमिक उद्देश्य कक्षा में बौद्धिक वातावरण का उत्पन्न किया जाना है ताकि छात्र उस कक्षीय वातावरण को अनुसरण कर सकें साथ ही छात्र उन बिन्दुओं से सम्बन्धित अपने विचारों, प्रत्ययों, तर्कों तथा अन्य होने वाली मानसिक क्रियाओं को सुसंगठित कर सकें या उन बिन्दुओं के चारों ओर घनीभूत कर सकें। वास्तव में ये अग्रिम व्यवस्थापन में दिये गये बौद्धिक बिन्दु एक क्रेन के हुक के रूप में कार्य करते हैं जो बालकों के मानसिक स्तरों पर झुककर उनमें से संबंधित प्रत्ययों को तथा सार्थक, तर्कसंगत प्रत्ययों को अपने हुक के द्वारा बाहर निकालकर छात्रों की मानसिक संरचनाओं एवं प्रक्रियाओं को और अधिक तीव्र बनाते हैं। ब्रूस ने अपनी पुस्तक ‘मॉडल्स ऑफ टीचिंग’ में भी लिखा है ऑसबेल के ज्ञान सम्बन्धी ढाँचे से तात्पर्य यह है कि “एक व्यक्ति का निर्धारित समय में विशिष्ट विषय-वस्तु के प्रति व्यक्तिगत ज्ञान किस रूप में संगठित, स्पष्ट या स्थायी होता है।” ऑसबेल के इस सिद्धान्त से सम्बन्धित लक्ष्यों को डॉ० उर्मिला कपूर ने इस प्रकार व्यक्त किया है”
ऑसबेल का सिद्धान्त ज्ञानात्मक संरचना के स्थायी अस्तित्व (Existing Cognitive Structure) को स्वीकार करता है। ऑसबेल के अनुसार किसी नवीन ज्ञान या प्रत्यय की धारणा इसी ज्ञानात्मक संरचना के स्थायी अस्तित्व पर निर्भर करती है। अतः इस प्रतिमान के अनुसार बालक के बौद्धिक क्षेत्रों में इतनी अभिवृद्धि एवं विकास कर देना है जिससे बालक किसी भी विषय को अर्थपूर्ण रूप में धारण कर सके। अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान के मूल तत्त्व (Basic Elements of Advance Organizer Model)अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान का आधार- प्रत्ययों एवं तथ्य बोध के आधार पर ज्ञान पुंज का विकास करना। इस प्रतिमान के मूल तत्त्व निम्नलिखित हैं- 1. उद्देश्य (Focus) – प्रत्ययों एवं तथ्यों का बोध कराना तथा ज्ञानात्मक पक्षों का विकास करना ही इनका प्रथम लक्ष्य है। 2. संरचना (Syntax) – इसकी संरचना में ऐसी व्यवस्था की जाती है कि पाठ्यवस्तु का बोध सार्थक रूप में कराया जा सके। प्रथम सोपान में क्रियाओं को सामान्य रूप से प्रस्तुत किया जाता है। द्वितीय सोपान में पाठ्यवस्तु को सीखने के क्रम में विशिष्ट क्रम में प्रस्तुत किया जाता है। अमूर्त पाठ्यवस्तु के प्रत्ययों को एक क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है। 3. सामाजिक प्रणाली (Social System) – ऑसबेल की धारणा थी कि अमूर्त विचारों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। जिस पाठ्यवस्तु का छात्र विश्लेषण कर लेता है उससे सम्बन्ध स्थापित करते हुये नवीन ज्ञान का बोध कराया जा सकता है। उसमें शिक्षक का स्थान प्रधान होता है तथा शिक्षक को अधिक क्रियाशील रहना पड़ता है। प्रभुत्ववादी सामाजिक वातावरण उत्पन्न किया जाता है। अधिगम परिस्थितियों के आधार पर शिक्षक क्रियाओं में परिवर्तन करता है। छात्रों एवं शिक्षक के मध्य अन्तःप्रक्रिया होती हैं। छात्रों को अवसर प्रदान किया जाता है कि वे पाठ्यवस्तु में सम्बन्ध स्थापित कर सकें। शिक्षक छात्रों को अभिप्रेरित भी करता है। 4. मूल्यांकन प्रणाली (Support System) – इस प्रतिमान का प्रयोग अमूर्त पाठ्यवस्तु के शिक्षण में किया जाता है। पाठ्यवस्तु के क्रमबद्ध ज्ञान के लिये यह एक अधिक उपयोगी प्रतिमान है। प्रत्ययों में सम्बन्ध स्थापित करने के लिए ऑसबेल का प्रतिमान अधिक उपयुक्त सिद्ध होता है। ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च स्तर के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी इसी का प्रयोग किया जाता है। ऑसबेल सिद्धान्त का पाठ्यक्रम में महत्त्व (Implication of Ausbel’s theory in Curriculum)ऑसबेल ने विषयवस्तु एवं ज्ञानात्मक ढाँचे (Cognitive Structure) के मध्य निश्चित सम्बन्धों की व्याख्या की है। ऑसबेल ने पाठ्यक्रम व्यवस्था हेतु प्रमुख रूप से दो सिद्धान्त दिये हैं—
1. विकासात्मक विभेदीकरण (Progressive Differentiation) – पाठ्यवस्तु के विकास की अवस्था में क्रमिक विभेदता की व्यवस्था करना ही विकासात्मक विभेदीकरण कहलाता है। जैसा कि नाम से ही बोध होता है इसमें ऑसबेल ने ऐसी व्यवस्था की है कि विषयवस्तु को सामान्य से विशिष्टीकरण की ओर ले जाना चाहिए। 2. एकीकृत समाधान ( Integrative Reconciliation) – एकीकृत समाधान से तात्पर्य उन नवीन ज्ञान या अधिगमित विचारों से है जो पूर्णरूपेण पूर्व अधिगमित विषय-वस्तु के साथ निश्चयात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है अर्थात् पाठ्यक्रम को इस प्रकार से व्यवस्थित किया जाना चाहिए कि नवीन विचार पूर्व सीखी गयी विषय-वस्तु चेतन रूप में सीधे जुड़ने वाले हों। ऑसबेल का सिद्धान्त एवं शिक्षण में प्रयोग (Ausbel’s Theory and its Implication in Teaching )अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान का प्रमुख कार्य ज्ञानात्मक ढाँचे (Cognitive Structure) को शक्तिशाली स्वरूप प्रदान करना ही है। यह नवीन ज्ञान के लिए छात्र की स्मृति में वृद्धि करते हैं। इसलिए ऑसबेल इस प्रतिमान को अधिगमित की जाने वाली विषय-वस्तु की प्रस्तावना सामग्री कहते हैं। इसका प्रमुख उद्देश्य है अधिगमित विषय-वस्तु को पूर्व ज्ञान से जोड़ लेना, उसको व्यवस्थित एवं संगठित करना तथा स्थायी सम्बन्धों को जन्म देना। ऑसबेल के अनुसार महत्त्वपूर्ण संगठन एवं व्यवस्था वह होती है जो बालक के नवीन ज्ञान को उसके पूर्व अधिगमित सामग्री से सफलतापूर्वक जोड़ देती है IMPORTANT LINK
Disclaimer Disclaimer: Target Notes does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: You may also likeAbout the authorइस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद.. शिक्षण प्रतिमान के कितने प्रकार हैं?(1) ऐतिहासिक शिक्षण प्रतिमान (Historical Models of Teaching) :. (2) दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान (Philosophical Teaching Model) :. (3) मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान (Psychological Teaching Model) :. (4) अध्यापक शिक्षा के लिए शिक्षण प्रतिमान (Teaching Models for Teacher Education) :. (5) आधुनिक शिक्षण प्रतिमान :. शिक्षण प्रतिमान के तत्व कौन कौन से हैं?शिक्षण प्रतिमान के तत्व (Elements of Teaching Models). लक्ष्य (Goal) ... . संरचना/अवस्था (Syntax or Phasing) ... . सामाजिक प्रणाली (Social system) ... . प्रतिक्रिया-सिद्धान्त (Principles of Reaction) ... . सहायक प्रणाली (Support system) ... . उपयोग (Application) ... . दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान (Philosophical Teaching Models). शिक्षण के प्रतिमान से आप क्या समझते हैं?शिक्षण प्रतिमान का अर्थ (Meaning of Teaching Model)
कक्षा में शिक्षक का यही प्रयास होता है कि वह ऐसा शिक्षण अधिगम वातावरण तैयार करे जिससे छात्रों को अधिकतम अधिगम की सम्भावना एवं सुअवसर प्राप्त हो सकें तथा अपने व्यवहार में वांछनीय उद्देश्यों के अनुरूप परिवर्तन भी कर सकें।
शिक्षण प्रतिमान क्या है शिक्षण प्रतिमान शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?Answer: शिक्षण प्रतिमान : शिक्षण प्रतिमान आंग्ल भाषा के टीचिंग मॉडल का पर्यायवाची है। प्रतिमान का अर्थ है किसी अमुक उद्देश्य के अनुसार व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया। अतः शिक्षण प्रतिमान में उसके पाठ्यक्रम,स्त्रोत, शिक्षण तथा अधिगम को कलात्मक एवं विस्तृत रूप प्रदान किया जाता है।
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