BSEB Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 1 are the best resource for students which helps in revision. Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 1प्रश्न 1. लक्षण-
फैलने के कारण-
प्रश्न 2. लक्षण-
उपचार एवं रोकथाम-
प्रश्न
3.
उपचार व रोकथाम-
प्रश्न 4. रोग का कारण-
संक्रमण कारक एवं उद्भव काल-
मुख्य लक्षण-
उपचार तथा रोकथाम-
रोकथाम-
प्रश्न 5. सामाजिक विकास की अवस्थाएँ-जन्म के समय बालक उस समय तक दूसरे बालकों में रूचि नहीं लेता है जब तक उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति सामान्य ढंग से होती है। दो माह की आयु तक बालक बहुत तीव्र उत्तेजनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करता है। तीन माह की आयु
तक बालक विभिन्न ध्वनियों में भेद पहचानने लगता है। वह दूसरे के मुखमंडल की भाव-भंगिमाओं को समझने लगता है। चार माह का बालक समायोजन करने लगता है। पाँच-छ: माह की आयु में वह क्रोध तथा मित्रता का भाव समझने लगता है। आठ-नौ माह में वह वाणी संबंधी ध्वनियों का अनुसरण करने लगता है। एक वर्ष का बालक अपरिचितों को देखकर डरने लगता है। प्रश्न 6. विभिन्न संवेगों को दो वर्गों में बाँटा जाता है-
1. दुःखद संवेग- जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है तब अपने कार्य में बाधा डालने के परिणामस्वरूप भी गुस्सा करने लगता है, जैसे जब वह खिलौनों से खेलना चाहे उस समय उसे कपड़े पहनाना, उसे कमरे में अकेला छोड़ देना, उसकी इच्छा की पूर्ति न करना आदि। प्रायः सभी बच्चों के गुस्सा होने के कारण अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु गुस्सा होने पर सभी एक-सा व्यवहार करते हैं जैसे रोना, चीखना, हाथ-पैर पटकना, अपनी सांस रोक लेना, जमीन पर लेट जाना, पहुँच के अन्दर जो भी चीज हो उसे उठाकर फेंकना या फिर ठोकर मारना आदि। (ii) भय (Fear)- क्रोध के विपरीत, शिशु में भय पैदा करने वाले उद्दीपन अपेक्षाकृत कम होते हैं। शैशवावस्था में शिशु प्रायः निम्न स्थितियों में डरता है। अंधेरे कमरे, ऊँचे स्थान, तेज शोर, दर्द, अपरिचित लोग व जगह, जानवर आदि। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है उसके मन में भय की संख्या और तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है। भय को बढ़ाने वाली निम्न
दो स्थितियाँ हैं- (i) अचानक तथा अप्रत्याशित स्थिति- बच्चे के सामने जब कोई अप्रत्याशित स्थिति आती है तो वह अपने आप को उसके अनुरूप एकदम ढाल नहीं सकता है। यही कारण है कि जब बच्चे के सामने कोई अपरिचित व्यक्ति आता है तो वह डर जाता है। डर कर शिशु चिल्लाकर या सांस रोककर अपने आपको डरावनी स्थिति से दूर करने की कोशिश करता है और अपना सिर घुमाकर चेहरे को छिपाने का प्रयत्न करता है। जब बच्चा चलना सीख जाता है तब वह भाग कर किसी व्यक्ति के पीछे या किसी चीज के पीछे छुप जाता है और डरावनी स्थिति से दूर होने की प्रतीक्षा करता है। (iii) ईर्ष्या (Jealousy)- ईर्ष्या का अर्थ है-किसी के प्रति गुस्से से भरा विरोध करना। ईर्ष्या प्रायः सामाजिक स्थितियों द्वारा उत्पन्न होती है। जब परिवार में नया शिशु आता है तब छोटे बच्चे में उस शिशु के प्रति ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है क्योंकि उसे लगता है कि उसके माता-पिता जो पहले केवल उससे प्यार करते थे, अब उस शिशु से भी प्यार करने लगे हैं। दो वर्ष से पाँच वर्ष के बीच बच्चे में ईर्ष्या सर्वाधिक होती है। छोटा बच्चा कई बार अपने से बड़े भाई अथवा बहन से भी ईर्ष्या करने लगता है क्योंकि उसे लगता है कि उनका ध्यान अधिक करना या फिर बीमारी . या डर होने का दिखावा करके बड़ों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करता है। 2. सुखद संवेग- सभी बच्चे अपनी खुशी मुस्करा कर या हँस कर प्रकट करते हैं। इस आयु में बच्चा हँसने के साथ बाँहों और टाँगों को भी हिलाता है। बच्चा जितना अधिक खुश होता है, उतनी ही अधिक उसकी शारीरिक गतियाँ होती हैं। डेढ़ वर्ष का बच्चा अपनी ही चेष्टाओं पर मुस्कराता है। दो वर्ष का होने पर वह दूसरों के साथ मिलकर हँसने लगता है। (ii) स्नेह (Affection)- बच्चे में लोगों के प्रति स्नेह की अनुक्रियाएँ धीरे-धीरे विकसित होती हैं। बच्चे का किसी के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार उस व्यक्ति की ओर आकर्षित होकर उसकी गोद में आने के प्रयास से दिखाई देता है। पहले शिशु उस व्यक्ति के चेहरे को ध्यान से देखता है, इसके पश्चात् अपनी टाँगें चलाता है, बाँहों को फैलाकर हिलाता है तथा मुस्करा कर अपने शरीर को ऊपर उठाने की कोशिश करता है। प्रारम्भ में चूँकि शिशु के शरीर की गतियाँ असमन्वित होती हैं इसलिए वह उस व्यक्ति तक पहुँचने में असफल होता है। छः माह का होने पर शिशु उस व्यक्ति के प्रति स्नेह दिखाता है और धीरे-धीरे अपरिचित व्यक्ति भी बच्चे के स्नेह के पात्र बन जाते हैं। दो वर्ष का होने पर बच्चा परिचित व्यक्तियों के स्थान पर अपने आप से तथा अपने खिलौनों से स्नेह करने लगता है। घर में पालतू जानवर होने पर शिशु उससे डरे बिना उसके साथ खेलता है और उससे प्यार करने लगता है। प्रायः शिशु अपना स्नेह प्रकट करने के लिए चिपटना, थपथपाना, सहलाना या चूमने जैसी क्रियाएँ करता है। जिन बच्चों को अपने स्नेह की भावना को व्यक्त करने के सभी सामान्य अवसर नहीं मिलते हैं, उनके शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे उनके सामाजिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। (iii) जिज्ञासा (Curiosity)- जन्म के दो-तीन माह पश्चात् तक शिशु की आँखों का समन्वय भली-भाँति विकसित नहीं होता है और उसका ध्यान केवल तीव्र उद्दीपन से ही आकर्षित होता है। लेकिन आयु वृद्धि के साथ जैसे ही शिशु साफ-साफ और अलग-अलग देख सकता है वैसे ही कोई भी नई या असाधारण बात से आकर्षित होता है बशर्ते उसका नयापन इतना अधिक न हो कि भय पैदा कर सके। शिशु का भय कम होने के साथ उसकी जिज्ञासा बढ़ती है। शिशु अपनी जिज्ञासा को मुँह खोलकर, जीभ बाहर निकालकर, चेहरे की मांसपेशियाँ कस कर तथा माथे पर’ बल डालकर अभिव्यक्त करता है। एक से डेढ़ वर्ष का बच्चा जिज्ञासा जागृत करने वाली चीज की ओर झुककर उसे पकड़ने की कोशिश करता है और उस चीज के हाथ में आ जाने पर उसे हिलाता, खींचता व बजाता है। प्रश्न 7.
वाक
दोष- इनके कारण बच्चा हकलाने लगता है और उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। तंत्रिकी (Neurological) दोष- ये दोष केन्द्रीय नाड़ी मण्डल की अस्वस्थता के कारण उत्पन्न होते हैं जैसे दिमागी-पक्षाघात, (Cerebralpalsy), मिर्गी (Epilepsy), तथा सिजोफेरेनिया। दिमागी पक्षापात में मस्तिष्क के ठीक कार्य न करने के कारण विभिन्न अंगों में भी पक्षाघात हो जाता है। अनियंत्रित आक्रमण के कारण मूर्छा आना और सन्तुलन खोना मिर्गी के रोगी के आम लक्षण हैं। विशेष शिक्षा तथा शैक्षणिक संस्थाओं की आवश्यकता (Need for Special Education and Educational Institutions)- इन बालकों की विकलांगता के अनुसार अलग-अलग प्रकार की शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होती है। बधिरों के लिए ओष्ठपठन तथा अंधों को विशेष ब्रेल लिपि द्वारा पढ़ाया जाना आवश्यक है। अतः इन बालकों को उचित उपकरण दिये जाने से ये शिक्षा प्राप्त करने में किसी भी सामान्य बालक की बराबरी कर पाते हैं। अन्य शारीरिक विकलांगताओं जैसे लंगड़ापन, हाथ कटा होना आदि पर बनावटी पैर तथा हाथ लगा कर विकलांगता को एक हद तक दूर किया जा सकता है। ऊँचा सुनने वाले बच्चों की भी श्रवण यंत्रों द्वारा बधिरता को दूर किया जा सकता है। इससे ये अन्य बालकों की भाँति शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। मानसिक न्यूनता वाले बच्चों के लिए विशेष संस्थानों की आवश्यकता होती है क्योंकि इसका मानसिक विकास उनकी उम्र के सामान्य बालकों से कम होता है तथा वे कुछ भी सीखने में अधिक समय लगाते हैं। अतः इन्हें इनके कौशल को पहचान कर शिक्षा दी जानी चाहिए जो इनकी आगे चलकर आजीविका भी प्रदान करे। प्रश्न 8.
प्रश्न 9. सामाजिक विकास की अवस्थाएँ :
6 माह की अवस्था में
7 से 8 माह की अवस्था में
9 माह की अवस्था में
12 माह की अवस्था में
13 माह की अवस्था में
18 माह की अवस्था में
21 माह की अवस्था में 22 माह की अवस्था में
2 वर्ष 3 माह की अवस्था में 2 वर्ष 6 माह की अवस्था में 3 वर्ष की अवस्था में
प्रश्न 10.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बाल्यावस्था के बहुत सारे रोग होते हैं जिससे बचाव के लिए प्रतिकारिता की जाती है ताकि बच्चे स्वस्थ रहें। प्रश्न 11.
अब आप उपर्युक्त सभी सुविधाओं की योग्यताओं का अध्ययन करेंगे। संबंधी व पड़ोसी (Relatives and Neighbours)- घर पर ही रहकर बच्चे की अच्छी देखभाल करने में सहायता कर सकते हैं व करते हैं। बड़े-बूढ़ों का परिवार में होना बच्चों के लिए बहुत बड़ा वरदान है। दादा-दादी, नाना-नानी से बच्चों को प्यार व सुरक्षा मिलती है। पड़ोसी भी अपने परिवार से अलग अपना ही परिवार होता है। माता की अनुपस्थिति में पड़ोसी बच्चे की वैकल्पिक देखभाल में सहायता कर सकते हैं। ऐसी देख-रेख आम तौर पर अल्पकालीन ही होती है। अगर पड़ोसी के पास समय हो और वह विधिवता देखभाल करने के लिए तैयार हो तो उससे खुलकर बात करनी चाहिए ताकि आप उसकी सहायता का उचित पारिश्रमिक उसे दे सकें। किराये पर ली गई सहायता (Hired Help)- अमीर शहरी घरानों में यह व्यापक रूप से पायी है। आया/नौकरानी की अच्छी तरह छानबीन करके उसकी विश्वसनीयता व योग्यता परख कर ही उसे रखना चाहिए। क्या आपने आया/नौकरानी को रखने से पहले पुलिस शिनाख्त के बारे में सुना है ? अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए माता-पिता को इन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए। क्रेच (Creche)-“यह एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चे को सही देखरेख में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों।” क्रेच एक आवासी देखभाल केंद्र है। अपना कार्य समाप्त करके माता-पिता बच्चों को घर ले जाते हैं। क्या आप कभी क्रेच में गए हैं ? क्रेच में तीन साल तक की आयु तक के बच्चों को रखा जाता है। यहाँ बच्चों को योग्य कर्मियों की देख-रेख में रखा जाता है। इस कारण माताएँ निश्चिन्त होकर अपना कार्य कर सकती हैं। प्रश्न 12. 1. माता या पिता की मृत्यु हो जाने पर- जब माता या पिता में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है तो ऐसी स्थिति में बच्चों को पालना कठिन हो जाता है। अतः घर के बाहर वैकल्पिक व्यवस्था का सहारा लेना पड़ता है। 2. एकाकी परिवार का होना- आज औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के कारण एकाकी परिवार का प्रचलन लोकप्रिय है। यदि माता-पिता कामकाजी हैं तो घर में बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहता है। अतः बच्चों की देखभाल के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ती है। 3. माता का घर से बाहर काम करना- जब महिला (माता) को घर से बाहर जाकर काम करना पड़ता है तो बच्चों की देखभाल के वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है। 4. वैवाहिक संबंध टूटने पर- जब वैवाहिक संबंध टूटता है तो बच्चे की देखभाल की जिम्मेवारी किसी एक अभिभावक पर आ जाती है। फलतः अपने व्यावसायिक दायित्वों को पूरा करने में तथा बच्चों की देखभाल में अनेक दिक्कतें आती हैं। इस बजट से वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है। 5. परिवार के प्रतिमान में परिवर्तन- आज दिन-प्रतिदिन परिवार के प्रतिमानों में परिवर्तन हो रहा है और पारिवारिक संबंधों में कमी आ रही है। फलस्वरूप बच्चों की देखभाल हेतु वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है। 6. रिश्तेदारों के संबंधों में परिवर्तन- आज रिश्तेदारों के संबंधों में भी परिवर्तन हुआ है। इस वजह से आपसी स्नेह में कमी आयी है और व्यक्ति दूसरे की जिम्मेदारियों को उठाने में रूचि नहीं रखता है। इस कारण माता-पिता को घर के बाहर विकल्प ढूँढने पड़ते हैं। 7. पड़ोसियों के संबंधों में परिवर्तन- पहले पारिवारिक संबंधों में पड़ोसियों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता था। परंतु आज पड़ोसियों के संबंधों में परिवर्तन आ गया है। शहर में तो लोग अपने पड़ोसियों को जानते भी नहीं है। अतः आज पड़ोसियों के भरोसे बच्चे को नहीं छोड़ा जा सकता है। प्रश्न 13.
प्रश्न 14.
अब आप उपर्युक्त सभी सुविधाओं की योग्यताओं का अध्ययन करेंगे। भाई-बहन की देखभाल (Sibling Care)- निम्न आर्थिक स्थिति के परिवारों में यह आम है। छोटे-छोटे बच्चे आयु में कुछ बड़े बच्चों की देख-रेख में छोड़ दिये जाते हैं। आपको छः वर्ष का बच्चा अक्सर दो या तीन वर्ष की आयु के बच्चों की देखभाल करता दिखेगा। यह देखभाल कितनी सुरक्षित हो सकती है ? अधिक नहीं, क्योंकि छः वर्ष के बच्चे में शिशुपालन की योग्यता नहीं होती। कुछ बड़े बच्चे भी इसे देखभाल के लिए परिपक्व नहीं होते। इसलिए शिशुपालन के लिए कोई और उपाय खोजना चाहिए। संबंधी व पड़ोसी (Relatives and Neighbours)- घर पर ही रहकर बच्चे की अच्छी देखभाल करने में सहायता कर सकते हैं व करते हैं। बड़े-बूढ़ों का परिवार में होना बच्चों के लिए बहुत बड़ा वरदान है। दादा-दादी, नाना-नानी से बच्चों को प्यार व सुरक्षा मिलती है। पड़ोसी भी अपने परिवार से अलग अपना ही परिवार होता है। माता की अनुपस्थिति में पड़ोसी बच्चे की वैकल्पिक देखभाल में सहायता कर सकते हैं। ऐसी देख-रेख आम तौर पर अल्पकालीन ही होती है। अगर पड़ोसी के पास समय हो और वह विधिवता देखभाल करने के लिए तैयार हो तो उससे खुलकर बात करनी चाहिए ताकि आप उसकी सहायता का उचित पारिश्रमिक उसे दे सकें। किराये पर ली गई सहायता (Hired Help)- अमीर शहरी घरानों में यह व्यापक रूप से पायी जाती है। आया/नौकरानी की अच्छी तरह छानबीन करके उसकी विश्वसनीयता व योग्यता परख कर ही उसे रखना चाहिए। क्या आपने आया/नौकरानी को रखने से पहले पुलिस शिनाख्त के बारे में सुना है ? अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए माता-पिता को इन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए। क्रच (Creche)- “यह एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चे को सही देख-रेख. में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों।” क्रेच एक आवासी देखभाल केंद्र है। अपना कार्य समाप्त करके माता-पिता बच्चों को घर ले जाते हैं। क्या आप कभी क्रेच में गए हैं ? क्रेच में तीन साल तक की आयु तक के बच्चों को रखा जाता है। यहाँ बच्चों को योग्य कर्मियों की देख-रेख में रखा जाता है। इस कारण माताएँ निश्चिन्त होकर अपना कार्य कर सकती हैं। प्रश्न 15. 1. श्रम, समय एवं ऊर्जा की बचत- आहार आयोजन में आहार बनाने के पहले ही इसकी योजना बना ली जाती है। आवश्यकतानुसार यह आयोजन दैनिक, साप्ताहिक, अर्द्धमासिक तथा मासिक बनाया जा सकता है। इससे समय, श्रम तथा ऊर्जा की बचत होती है। 2. आहार में विविधता एवं आकर्षण- आहार में सभी भोज्य वर्गों का समायोजन करने से आहार में विविधता तथा आकर्षण उत्पन्न होता है। साथ ही आहार पौष्टिक, संतुलित तथा स्वादिष्ट हो जाता है। 3. बच्चों में अच्छी आदतों का विकास करना- चूँकि आहार में सभी खाद्य वर्गों को शामिल किया जाता है इससे बच्चों को सभी भोज्य पदार्थ खाने की आदत पड़ जाती है। इससे ऐसा नहीं होता कि बच्चा किसी विशेष भोज्य पदार्थ को ही पसंद करे तथा अन्य को ना पसंद करे। 4. निर्धारित बजट में संतुलित एवं रूचिकर भोजन- आहार का आयोजन करते समय निर्धारित आय की राशि को परिवार की आहार आवश्यकताओं के लिए इस प्रकार वितरित किया जाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित आहार का चुनाव संभव हो सके। आहार आयोजन करते समय प्रत्येक व्यक्ति की रुचि तथा अरुचि का भी ध्यान रखा जाता है और प्रत्येक व्यक्ति को संतुलित आहार भी प्रदान किया जाता है। आहार आयोजन के बिना कोई भी व्यक्ति कभी भी आहार ले सकता है। परंतु व्यक्ति की पौष्टिक आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ नहीं हो सकता है। आहार आयोजन के बिना परिवार की आय को आहार पर खर्च करने से बजट. भी असंतुलित हो जाता है। प्रश्न 16.
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