कबीर के विचार वर्तमान परिप्रेक्ष्य में : कबीर के विचार The Thoughts of Kabir in the Present perspective"हिंदी-साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा धनी व्यक्तित्व लेकर कोई अन्य लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।" - हजारी प्रसाद द्विवेदी Show कबीर का साहित्य भारतीय चिंतन के विभिन्न आयामों का संकलन हैं। सम कालिक संत रज्जबदास, मलूकदास सहजोबाई, दादूदयाल, सूरदास का संत साहित्य उल्लेखनीय योगदान रहा है लेकिन अग्रिम पंक्ति में कबीरदास का नाम लिया जाता है। इसका कारण है कि कबीर का साहित्य आम जन भाषा का ही था। कबीर की भाषा शैली लोगों के जुबान पर थी। कबीर स्वंय कोई साहित्य नहीं लिखा, उन्होंने जो बोला वो लोगों की जुबान पर चढ़ जाता था। कबीर के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है भाषा की सरलता। गूढ़ से गूढ़ बातें भी सरल ज़बान में समझाने का हुनर था कबीर के पास। पांडित्य दिखाने के लिए उन्होंने कठिन शब्दों का चयन करने के बजाय सरल शब्दों का चयन किया जिससे उनका सन्देश आम जन तक पहुंच गया। साहित्य समाज का दर्पण होता है। कबीरदास ने समाज में जो भी विसंगतियाँ, अन्धविश्वाश, रूढ़िवाद, धार्मिक पाखंड, आचरण की अशुद्धता देखी उसे लिखा। कबीर के सबसे बड़ी विशेषता है की उन्होंने कभी पाण्डित्यवाद नहीं दिखाया, सरल शब्दों और बोल चाल की भाषा में अपनी बात रखी। कबीर ने समाज की इकाई व्यक्ति पर जोर दिया। "बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय". वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी कबीर के विचार महत्वपूर्ण हैं। आज के समाज में हर कोई दूसरों के दोष देखता है, स्वंय का विश्लेषण नहीं करता है। यही कारन है की समाज में वैमनश्य और ईर्ष्या बढ़ रही है। कबीर ने व्यक्ति के आचरण की शुद्धत्ता पर बल दिया और अवसारवाद, स्वार्थ, ढोंग और चिंता जैसी बुराइयों से दूर रहने को कहा जो आज भी प्रासंगिक है। कबीर की और एक बात सबको आकर्षित करती है वो है उनका सरल शब्दों का चयन। कबीर का उद्देश्य कभी प्रकांड पांडित्य दिखाना नहीं रहा है। सरल से सरल शब्दों में गूढ़ से गूढ़ बात को कह देना ही कबीर का गुण है। एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा। वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक। काँकर-पाथर जोरि के मस्जिद लियो चुनाय। एकहि जोति सकल घट व्यापत दूजा तत्त न होई। वर्तमान समय में आर्थिक कद ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा का पैमाना बनकर रह गया है। व्यक्तिगत गुण गौण हो चुके। कबीर ने इस मानवीय दोष को उजागर करने में कोई कसर नहीं रखी। वर्तमान में देखें तो नेता का बेटा नेता बन रहा है। चूँकि उसे अन्य लोगों की तरह से संघर्ष नहीं करना पड़ता है, वो आम आदमी से आगे रहता है। अमीर और अधिक अमीर बनता जा रहा है और गरीब और अधिक गरीब। आर्थिक असमानता के कारन संघर्ष और तनाव का माहौल है। कबीर ने कर्मप्रधान समाज को सराहा और जन्म के आधार पर श्रेष्ठता को सिरे से नकार दिया। छः सो साल बाद आज भी कबीर के विचारों की प्रासंगिकता ज्यों की त्यों है। कबीर का तो मानो पूरा जीवन ही समाज की कुरीतियों को मिटाने के लिए समर्पित था। आज के वैज्ञानिक युग में भी बात जहाँ "धर्म" की आती है, तर्किता शून्य हो जाती है। ये विषय मनन योग्य है। ऊंचे कुल का जनमिया करनी ऊंच न होय । बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय धर्म और समाज के बीच में आम आदमी पिसता जा रहा है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य गौण जो चुका है। वैश्विक स्तर पर देखें तो आज भी धर्म के नाम पर राष्ट्रों में संघर्ष होता रहता है। विलासिता के इस युग में ज्यादा से ज्यादा संसाधन जुटाने की फिराक में मानसिक शांति कहीं नजर नहीं आती है। ईश्वर की भक्ति ही सत्य का मार्ग है। कबीर की मानव के प्रति संवेदनशीलता इस दोहे में देखी जा सकती है। चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय । जहाँ एक और हर एक सुविधा और विलासिता प्राप्त करने की दौड़ मची है, सब आपाधापी छोड़कर कबीर का मानना है की संतोष ही सुखी जीवन की कुंजी है जो आज भी प्रासंगिक है। कबीर ने मानव जीवन का गहराई से अध्ययन किया और पाया की धन और माया के जाल में फंसकर व्यक्ति दुखी है। साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये ज्ञान प्राप्ति पर ही भ्रम की दिवार गिरती है। ज्ञान प्राप्ति के बाद ही यह बोध होता है की "माया " क्या है। माया के भ्रम की दिवार ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही गिरती है। माया से हेत छूटने के बाद ही राम से प्रीत लगती है। आंधी आयी ज्ञान की, ढ़ाहि भरम की भीति माया जुगाबै कौन गुन, अंत ना आबै काज माया और तृष्णा का जाल चारों और फैला है। माया ने जीवन के उद्देश्य को धूमिल कर दिया है। जितने भी अपराध हैं उनके पीछे माया और तृष्णा ही एक कारण है। माया अपना फन्दा लेकर बाजार में बैठी है, सारा जग उस फंदे में फँस कर रह गया है, एक कबीरा हैं जिसने उसे काट दिया है। कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट माया का सुख चार दिन, काहै तु गहे गमार माया चार प्रकार की, ऐक बिलसै एक खाये कबीर या संसार की, झुठी माया मोह कबीर माया रुखरी, दो फल की दातार माया गया जीव सब,ठाऱी रहै कर जोरि खान खर्च बहु अंतरा, मन मे देखु विचार गुरु को चेला बिश दे, जो गठि होये दाम कबीर माया पापिनी, हरि सो करै हराम धन, मोह लोभ छोड़ने मात्र से भी ईश्वर की प्राप्ति हो ही जाए जरुरी नहीं है, बल्कि सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति की आवश्यकता ज्यो की त्यों बनी रहती है। पशु पक्षी धन का संचय नहीं करते हैं और ना ही पावों में जुटे पहनते हैं। आने वाले कल के लिए किसी वस्तु का संग्रह भी नहीं करते हैं लेकिन उन्हें भी सृजनहार "ईश्वर" की प्राप्ति नहीं होती है। स्पष्ट है की मन को भक्ति में लगाना होगा। कबीर पशु पैसा ना गहै, ना पहिरै पैजार वर्तमान समय में आध्यात्मिक साधना के लिए समय नहीं है। कबीर उदहारण देकर समझाते हैं की जीवन में ईश्वर भक्ति का महत्त्व है। जीवन की उत्पत्ति के समय सर के बल निचे झुक कर मा की गर्भ के समय को याद रखना चाहिए। हमने अपने बाहर एक आवरण बना रखा है। जीवन में सुख सुविधा जुटाने की दौड़ में हमारा जीवन बीतता चला जा रहा है और हम ईश्वर से दूर होते जा रहे हैं। जीवन क्षण भंगुर है और समय रहते ईश्वर का ध्यान आवशयक है। चकवा चकवी कैसे होते हैं?चक्रवाक दो फुट लंबा पक्षी है, जिसके नर ओर मादा करीब करीब एक जैसे ही होते हैं। मादा नर से कुछ छोटी होती है और उसका रंग भी नर से कुछ हलका रहता है। चक्रवाक सारे दक्षिणी पूर्वी यूरोप, मध्यएशिया और उत्तरी अफ्रीका के प्रदेशों में फैले हुए हैं, जहाँ यह झीलों, बड़ी नदियों तथा समुद्री किनारों पर अपना अधिक समय बिताते हैं।
चकवा चकवी का मतलब क्या होता है?चकवा ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ चक्रवाक] [स्त्री॰ चकई] एक पक्षी जो जाड़े में नदियों और बड़े जलाशयों के किनारे दिखाई देता है और बैसाख तक रहता है । उ॰—चकवा चकई दो जने, इन मत मारो कोय । ये मारे करतार के, रैन बिछोहा होय (शब्द॰) । विशेष—अधिक गरमी पड़ते ही यह भारतवर्ष से चला जाता है ।
चकवा चकवी का मिलन कब होता है?चकवा-चकवी के नाम से मशहूर चक्रवाक पक्षी सुनार नदी के कटन घाट पर अपना ठिकाना बना कर रहे हैं। यहां दो जोड़ा अक्सर दिखाई दे जाता हैं। जानकारों की मानें तो लद्दाख में पाए जाने वाला यह पक्षी जून-जुलाई में प्रजनन करता है। अक्टूबर माह तक प्रवासी पक्षी बन कर देश में कम ठंड होने वाले क्षेत्रों में आ जाता हैं।
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