छिपी बेरोजगारी से आप क्या समझते हैं - chhipee berojagaaree se aap kya samajhate hain

प्रच्छन्न बेरोज़गारी एक ऐसी स्थिति है जहाँ श्रम बल का एक हिस्सा बिना नौकरी के रह जाता है या उन जगहों पर काम कर रहा होता है जहाँ पहले ही अधिकतम उत्पादकता पहुँच चुकी होती है। यह बेरोजगारी है जिसका कुल उत्पादन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। एक अर्थव्यवस्था छिपी हुई बेरोजगारी दिखाती है जब उत्पादकता खराब होती है और बहुत से श्रमिक कुछ नौकरियों पर काम करते हैं। यह भी देखें: नरेगा जॉब कार्ड के बारे में सब कुछ

प्रच्छन्न बेरोजगारी को समझना

प्रच्छन्न बेरोजगारी, जिसे छिपी हुई बेरोजगारी भी कहा जाता है, विकासशील देशों में होती है जहां बड़ी आबादी श्रम बल में अधिशेष पैदा करती है। यह ज्यादातर अनौपचारिक श्रम बाजारों में होता है, जो बड़ी मात्रा में श्रम का उपभोग करने में सक्षम होते हैं। प्रच्छन्न या गुप्त बेरोजगारी अधिकतम क्षमता पर बेरोजगार आबादी के किसी भी हिस्से को संदर्भित कर सकती है। हालांकि, यह अभी भी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के आधिकारिक बेरोजगारी आंकड़ों में नहीं गिना जाता है। प्रच्छन्न बेरोजगारी में वे लोग शामिल हैं जो अपनी क्षमता से बहुत कम काम करते हैं, जिनकी नौकरियों में उत्पादकता कम है और जो सक्रिय रूप से नौकरियों की तलाश नहीं कर रहे हैं लेकिन काम करने में सक्षम हैं। 400;">प्रच्छन्न बेरोजगारी का वर्णन करने का एक और तरीका यह है कि लोग काम कर रहे हैं लेकिन प्रभावी ढंग से नहीं। कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय के बारे में भी पढ़ें

प्रच्छन्न बेरोजगारी के प्रकार

  1. अल्प रोजगार : जो लोग अंशकालिक काम करते हैं लेकिन पूर्णकालिक नौकरी करना चाहते हैं और कर सकते हैं, वे प्रच्छन्न बेरोजगारी के तहत अर्हता प्राप्त कर सकते हैं। यही बात उन लोगों पर भी लागू होती है जो अपने कौशल सेट के नीचे काम स्वीकार करते हैं। ऐसे मामलों में छिपी हुई बेरोजगारी को 'अल्परोजगार' भी कहा जा सकता है।
  2. बीमारी और विकलांगता: हालांकि वे नियमित रूप से नियोजित लोगों की तरह सक्रिय रूप से कार्य नहीं कर सकते हैं, बीमार और विकलांग लोग अर्थव्यवस्था में योगदान करने में सक्षम हो सकते हैं। बीमारी की स्थिति में इस प्रकार की प्रच्छन्न बेरोजगारी अस्थायी होती है। इस श्रेणी के लोगों को अक्सर देश के बेरोजगारी आंकड़ों के हिस्से के रूप में शामिल नहीं किया जाता है।

    बेरोज़गारी (Unemployment) या बेकारी किसी काम करने के लिए योग्य व उपलब्ध व्यक्ति की वह अवस्था होती है जिसमें उसकी न तो किसी कम्पनी या संस्थान के साथ और न ही अपने ही किसी व्यवसाय में नियुक्ति होती है। किसी देश, राज्य या अन्य क्षेत्र में पूरे श्रम करने वाले लोगों की आबादी में बेरोज़गारों का प्रतिशत उस स्थान का बेरोज़गारी दर (unemployment rate) कहलाता है। अगर वह लोग जो बालक, वृद्ध, रोगी या अन्य किसी अवस्था के कारण अनियोज्य (unemployable)- यानि रोज़गार के लिए अयोग्य - हों काम न करें तो उन्हें बेरोज़गार की श्रेणी में नहीं गिना जाता है और न ही उनकों बेरोज़गारी दर में सम्मिलित करा जाता है।[1][2][3]

    बेरोज़गारी का अस्तित्व श्रम की माँग और उसकी आपूर्ति के बीच स्थिर अनुपात पर निर्भर करता है। बेरोज़गारी के दो भेद हैं - असंतुलनात्मक (फ्रिक्शनल) तथा ऐच्छिक (वालंटरी)। ऐच्छिक बेरोजगारी का प्रभाव उस समय होता है जब मजदूर अपनी वास्तविक मजदूरी में कटौती को स्वीकार नहीं करता। समग्रत: बेरोजगारी श्रम की माँग और पूर्ति के बीच असंतुलित स्थिति का प्रतिफल है।

    प्रोफेसर जे. एम. कीन्स "अनैच्छिक बेरोजगारी" को भी बेरोजगारी का भेद मानते हैं। "अनैच्छिक बेरोजगारी" की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा है - 'जब कोई व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी से कम वास्तविक मजदूरी पर कार्य करने के लिए तैयार हो जाता है, चाहे वह कम नकद मजदूरी स्वीकार करने के लिए तैयार न हो, तब इस अवस्था को अनैच्छिक बेरोजगारी कहते हैं।' यदि कोई व्यक्ति किसी उत्पादक व्यवसाय में कार्य करता है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह बेकार नहीं है। ऐसे व्यक्तियों को पूर्णरूपेण रोजगार में लगा हुआ नहीं माना जाता जो आंशिक रूप से ही कार्य में लगे हैं अथवा उच्च कार्य की क्षमता रखते हुए भी निम्न प्रकार के लाभकारी व्यवसायों में कार्य करते हैं।

    बेकारी के निदान के प्रयास[संपादित करें]

    जापान में बेरोजगारी (१९५३ से २००९ तक)

    सन् 1919 ई. में अंतरराष्ट्रीय श्रमसम्मेलन के वाशिंगटन अधिवेशन ने बेरोजगारी अभिसमय (Unemployment convention) संबंधी एक प्रस्ताव स्वीकार किया था जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय सत्ता के नियंत्रण में प्रत्येक देश में सरकारी कामदिलाऊ अभिकरण स्थापित किए जाए। सन् 1931 ई. में भारत राजकीय श्रम के आयोग (Royal Commission on Labour) ने बेरोजगारी की समस्या पर विचार किया और निष्कर्ष रूप में कहा कि बेरोजगारी की समस्या विकट रूप धारण कर चुकी है। यद्यपि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रमसंघ का "बेरोजगारी संबंधी" समझौता सन् 1921 ई. में स्वीकार कर लिया था परंतु इसके कार्यान्वयन में उसे दो दशक से भी अधिक का समय लग गया।

    सन् 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट में बेरोजगारी (बेरोजगारी) प्रांतीय विषय के रूप में ग्रहण की गई। परंतु द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के बाद युद्धरत तथा फैक्टरियों में काम करनेवाले कामगारों को फिर से काम पर लगाने की समस्या उठ खड़ी हुई। 1942-1944 में देश के विभिन्न भागों में कामदिलाऊ कार्यालय खोले गए परंतु कामदिलाऊ कार्यालयों की व्यवस्था के बारे में केंद्रीकरण तथा समन्वय का अनुभव किया गया। अत: एक पुनर्वास तथा नियोजन निदेशालय (Directorate of Resettlement and Employment) की स्थापना की गई है। हम ये रोक सकते हैं।

    • संरचनात्मक बेरोजगारी : सरचनात्मक बेरोजगारी वह बेरोजगारी है जो अर्थव्यवस्था मे होने वाले संरचनात्मक बदलाव के कारण उत्पन्न होती है।
    • अल्प बेरोजगारी : अल्प बेरोजगारी वह स्थिति होती है जिसमें एक श्रमिक जितना समय काम कर सकता है उससे कम समय वह काम करता है। दूूसरे शब्दो में, वह एक वर्ष में कुछ महीने या प्रतिदिन कुछ घंटे बेकार रहता है। अल्प बेरोजगारी के दो प्रकार है-
      • दृष्य अल्प रोजगार: इस स्थिति में, लोगो को सामान्य घन्टों से कम घन्टे काम मिलता है।
      • अदृष्य अल्प रोजगार : इस स्थिति में, लोग पूरा दिन काम करते हैं पर उनकी आय बहुत कम होती है या उनको ऐसे काम करने पडते हैं जिनमें वे अपनी योग्यता का पूरा उपयोग नहीं कर सकते।
    • खुली बेरोजगारी : उस स्थिति को कह्ते है जिसमे यद्यपि श्रमिक काम करने के लिये उत्सुक है और उसमें काम करने की आवश्यक योग्यता भी है तथापि उसे काम प्राप्त नही होता। वह पूरा समय बेकार रहता है। वह पूरी तरह से परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर आश्रित होता है। ऐसी बेरोजगारी प्राय: कृषि-श्रमिको, शिक्षित व्यक्तियों तथा उन लोगों में पायी जाती है। जो गावों से शहरी हिस्सों में काम की तलाश में आते हैं पर उन को कोई काम नही मिलता। यह बेरोजगारी का नग्न रूप है।
    • मौसमी बेरोजगारी: इसका अर्थ एक व्यक्ति को वर्ष के केवल मौसमी महीनो में काम प्राप्त होता है। भारत में कृषि क्षेत्र में यह आम बात है। इधर बुआई तथा कटाई के मौसमों में अधिक लोगों को काम मिल जाता है किन्तु शेष वर्ष वे बेकार रहते हैं। एक अनुमान के अनुसार, यदि कोई किसान वर्ष में केवल एक ही फसल की बुआई करता है तो वह कुछ महिने तक बेकार रहता है। इस स्थिति को मौसमी बेरोजगारी माना जाता है।
    • चक्रीय बेरोजगारी : ऐसी बेरोजगारी तब उत्पन्न होती है जब अर्थव्यवस्था में चक्रीय ऊंच नीच आती है। तेजी, आर्थिक सुस्ती, आर्थिक मंदी तथा पुनरुत्थान चार अवस्थाएं या चक्र है जो एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं हैं। आर्थिक तेजी की अवस्था में आर्थिक क्रिया उच्च स्तर पर होती है तथा रोजगार का स्तर भी बहुत ऊंचा होता है। जब अर्थव्यवस्था में कुल ज़रुरत के घटने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
    • छिपी बेरोजगारी : छिपी बेरोजगारी से पीडित व्यक्ति वह होता है जो ऐसे दिखाई देता है जैसे कि वह काम में लगा हुआ है, परन्तु वास्तव में ऐसा नही होता।

    जैसे कि किसी काम के लिए दस लोगों की अवश्यकता है परन्तु उससे ज्यादा होते हैं ऐसे अवसर में यह होता है |जेसे एक खेत में 10 लोग काम पूरा कर सकते हैं लेकिन उस खेत में उसी काम को 15 लोग कर रहे है तो वे 5 लोग फालतू मे ही काम पर लगे हुए है ्तू

    छिपी बेरोजगारी से आप क्या समझते है?

    अर्थव्यवस्था में घटना, जिसमें मनुष्य हैकाम की जगह और औपचारिक रूप से नियोक्ता के साथ संबंध बनाए रखता है, लेकिन वास्तव में रोजगार अनुपस्थित है, जिसे छिपे बेरोजगारी कहा जाता है।

    छिपी हुई बेरोजगारी कहाँ पाई जाती है?

    छिपी बेरोजगारी ग्रामीण क्षेत्रों में पाई जाती है। ✎... ग्रामीण क्षेत्रों में पाई जाने वाली बेरोजगारी 'प्रच्छन्न बेरोजगारी' यानि 'छिपी बेरोजगारी' पायी जाती है। प्रच्छन्न बेरोजगारी वो बेरोजगारी होती है, इसमें एक श्रमिक काम तो कर रहा होता है, लेकिन उसकी उस कार्य में अधिक आवश्यकता नही होती है।

    छिपी हुई बेरोजगारी का दूसरा नाम क्या है?

    इस प्रकार की अल्प बेरोजगारी को छिपी हुर्इ कहते है क्योंकि यह उन लोगो की बेरोजगारी है, जिनके पास कोर्इ रोजगार नहीं है और बेकार बैठे हुए है, से अलग है (खुली बेरोजगारी)। इसलिए इसे प्रच्छन्न बेरोजगारी भी कहा जाता है।

    छिपी बेरोजगारी क्या है in English?

    | छिपी बेरोजगारी (Hidden unemployment)