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नील कुसुम : रामधारी सिंह 'दिनकर' (हिन्दी कविता)Neel Kusum : Ramdhari Singh Dinkar1. नील कुसुम‘‘है यहाँ तिमिर, आगे भी ऐसा ही तम है, प्रेमिका ! अरे, उन शोख़ बुतों का क्या कहना ! इनमें से किसने कहा, चाँद से कम लूँगी ? ओ नीतिकार ! तुम झूठ नहीं कहते होगे, औ’ सुना कहाँ तुमने कि ज़िन्दगी कहते हैं, ज़िन्दगी, आह ! वह एक झलक रंगीनी की, रंगीनी की वह एक झलक, जिसके पीछे डूबती हुई किश्तियाँ ! और यह किलकारी !
ज़िन्दगी गोद में उठा-उठा हलराती है तुम लाशें गिनते रहे खोजनेवालों की, हो जहाँ कहीं भी नील कुसुम की फुलवारी, 2. चाँद और कविरात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली, मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते, मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे, 3. दर्पणजा रही देवता से मिलने ? आरती, फूल से प्रसन्न बिम्बित है इसमें पुरुष पुरातन यह स्वयं दिखायेगा उनको ढहती मीनारों की छाया, छाया छाया-ब्रह्माणी की झांकी उस भीत पवन की जो हिलती वसुन्धरा की झांकी, झांकी उस नयी परिधि की जो छिलके उठते जा रहे, नया (१९४६ ई०) 4. व्याल-विजयझूमें झर चरण के नीचे मैं उमंग में
गाऊँ। (1) (2) (3) (4) (5) (6) (7) (8) (10) (11) 5. किसको नमन करूँ मैं भारत?तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं
? भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ? तू वह, नर ने जिसे बहुत ऊँचा चढ़कर पाया था; वहाँ नहीं तू जहाँ जनों से ही मनुजों को भय है; तू तो है वह लोक जहाँ उन्मुक्त मनुज का मन है; भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है खंडित
है यह मही शैल से, सरिता से सागर से दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा
है 6. भावी पीढ़ी सेहम तुम में साकार नहीं तो छिपे हुए हैं।
ये कुछ भीगे कमल और ये गीली कलियाँ ? नयी बात क्या कहें ? नया हमने क्या सीखा? जिज्ञासा का धुआँ उठा जो मनु के सिर से, श्रम है केवल सार, काम करना अच्छा है, (१९५१ ई०) 7. चंद्राह्वानजागो हे अविनाशी ! रत्न-जड़ित-पथ-चारी, जागो, जागो शिल्पि अजर अम्बर के ! विभा-सलिल का मीन करो हे ! (१९४६ ई०) 8. ये गान बहुत रोये
तुम बसे नहीं इनमें आकर, बिजली बन घन में रोज हँसा करते हो, जिस पथ पर से रथ कभी निकल जाता है, कब तक बरसेगी ज्योति बार कर मुझको ? (१९५३ ई०) 9. जीवनपत्थरों में भी कहीं कुछ सुगबुगी है
? ध्वंस पर जैसे मरण की दृष्टि है, एक कण भी है सजल आशा जहाँ, मृत्यु का तन आग है, अंगार है; क्षार में दो बूंद आँसू डाल कर, चूम कर मृत को जिलाती जिन्दगी । निर्झरी बन फूटती पाताल से, खोज लेती है सुधा पाषाण
में, बाल भर अवकाश होना चाहिए, बीज की फिर शक्ति रुकती है कहाँ ? (१९५४ ई०) 10. आनंदातिरेकआनन्द का अतिरेक यह । हो मृत्यु की धारा अगर तो मुक्त बहने दो मुझे; कुछ और पाना व्यर्थ है, माँगा बहुत तुम से, नहीं कुछ और माँगूंगा; नींद है वह जागरण जब फूल खिलते हों; मीठा बहुत उल्लास यह, मादक बहुत अविवेक यह (१९५४ ई०) 11. भूदानकौन टोकता है शंका से ? चुप रह, चुप, अपलापी ! ओ सिकता में चंचु गाड़ कर सुख से सोनेवालो ! अपने को ही नहीं देख, टूक, ध्यान इधर भी देना, पहचानो, यह कौन द्वार पर अधनंगा आया है, (१९५२ ई०) 12. आशा की वंशीलिख रहे गीत इस अंधकार में भी तुम इन गीतों से यह तिमिर-जाल टूटेगा? तो लिखो, और मुझ में भी जो आशा है, (१९५४ ई०) 13. पावस-गीतअम्बर के गृह गान रे, घन-पाहुन आये। इन्द्रधनुष मेचक-रुचि-हारी, वृष्टि-विकल घन का गुरु गर्जन, तृण, तरु, लता, कुसुम पर सोई, (१९४७ ई०) 14. नींव का हाहाकारकांपती है वज्र की
दीवार। 15. लोहे के पेड़ हरे होंगेलोहे के पेड़ हरे होंगे, (1) आशा के स्वर का भार, रंगो के सातों घट उँड़ेल, (2) आवर्तों का है विषम जाल, जब-जब मस्तिष्क जयी होता, (3) इन मलिन ग्रहों के प्राणों में दीपक के जलते प्राण, (4) मानवता का तू विप्र! ले बड़ी खुशी से उठा, (5) लेने दे जग को उसे, कनकाभ धूल झर जाएगी, (6) जो चतुर चाँद का रस निचोड़ ये भी जाएँगे कभी, मगर, (7) शूली पर चढ़ा मसीहा को भींगी चाँदनियों में जीता, (8) जी उठे राम, जी उठे कृष्ण,
तलवार मारती जिन्हें, (9) ज्वालामुखियों के कण्ठों में बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, (1951) 16. संस्कारकल कहा एक साथी ने, तुम बर्बाद हुए, क्यों दुनिया तुमको पढ़े फकत उस शीशे में, तुम नहीं जानते बन्धु! चाहते हैं ये
क्या, सदियों का वह विश्वास, कभी मत क्षमा करो, जब डंकों के बदले न डंक हम दे सकते, (१९५० ई०) 17. जनतन्त्र का जन्म(२६ जनवरी, १९५०) जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख, फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, (1950) 18. नयी आवाजकभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ, [1] बताएँ भेद क्या तारे? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो, [2] सनातन है, अचल है, स्वर्ग चलता ही नहीं है; [3] धुओं का देश है नादान! यह छलना बड़ी है, [4] गगन में तो नहीं
बाकी, जरा कुछ है असल में, [5] नया स्वर खोजनेवाले! तलातल तोड़ता जा, [6] वहाँ क्या है कि फव्वारे जहाँ से छूटते हैं, [7] हृदय-जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले, 19. स्वर्ग के दीपक[उनके लिए जो हमारी कतार में आने से इनकार करते हैं] कहता हूँ, मौसिम फिरा, सितारो ! होश करो, सब है परेड में खड़े, जरा तुम भी तनकर, आगाही सुनते नहीं, सितारे हँसते हैं, मिट्टीवाले बँधकर कतार में चला करें, अच्छा, तब प्यारे ! और चार दिन मौज करो, मैं देख रहा हूँ साफ, कौंधती है बिजली मत हँसो कि मन में छिपी हमारी आँखों पर मैं देख रहा हूँ, शैल उलटकर गिरते हैं, क्या तुम संभाल लोगे इस व्योम-विवर्तन को ? 20. शबनम की जंजीररचना तो पूरी हुई. जान भी है इसमें? ढाँचे में तो सब ठीक-ठीक उतरा, लेकिन, भर सको अगर तो प्रतिमा में चेतना भरो, तैरता हवा में जो, वह क्या भारी होगा? सपनों का वह सारथी, यान जिसका कोमल, सपनों का वह सारथी, रात की छाया में, पपड़ियाँ तोड़ फूटते जिंदगी के सोते, छेनी-टांकी क्या करें? जिंदगी की साँसें, विज्ञान काम कर चुका; हाथ उसका रोको; मानव-मन को बेधते फूल के दल केवल, (1950) 21. तुम क्यों लिखते होतुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अंतरतम को यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से कहनेवाले जाने क्या-क्या कहते आए, अच्छा बोलो, आदमी एक मैं भी ठहरा, तारों में है संकेत? चाँदनी में छाया? दावा करते हैं शब्द जिसे छू लेने का, जो कुछ खुलता सामने, समस्या है केवल, तब क्यों रचते हो वृथा स्वांग मानो सारा, मिहिका रचते हो? रचो; किन्तु क्या फल इसका? धो डालो फूलों का पराग गालों पर से, सच्चाई की पहचान कि पानी साफ़ रहे (1950) 22. इच्छा-हरणधरती ने भेजा था
सूरज-चाँद स्वर्ग से लाने, माना, है अधिकार तुझे दानी सब कुछ देने का, (क्रमांक १५-२२ तक रचनायें पहली बार 'धूप और धुआँ' 23. कवि की मृत्युजब गीतकार मर गया, चाँद रोने आया, सूरज बोला, यह बड़ी रोशनीवाला था, बोला बूढा आकाश, ध्यान जब यह धरता, देवों ने कहा, बड़ा सुख था इसके मन की योगी था, बोला सत्य, भागता मैं फिरता, मर्दों को आई याद बांकपन की
बातें, नारियां बिलखने लगीं, बांसुरी के भीतर वे बड़ी बड़ी आँखें आंसू से भरी हुई, चिंतन में डूबा हुआ सरल भोला-भाला, चुपचाप जिन्दगी भर इसने जो जुल्म सहे, पर, इसे नहीं रोने का भी अवकाश मिला, बेबसी बड़ी उन बेचारों की क्या कहिये ? जाओ, कवि, जाओ मिला तुम्हे जो कुछ हमसे विष के प्याले का मोल और क्या हो सकता ? आवरण गिरा, जगती की सीमा शेष हुई, (1952) लोहे के पेड़ से कवि का क्या तात्पर्य है?Answer. Explanation: व्यक्ति द्वारा की गई मेहनत सब बदल देती है। लोहे के पेड़ हरे होंगे बताता है हिम्मत से और मेहनत से सब कुछ प्राप्त होता है।
कवि के अनुसार लोहे के पेड़ कैसे होंगे?का ध्यान नहीं करते 5. संसार कवि के .
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