इस पोस्ट में हमलोग बिहार बोर्ड के कक्षा 10 के लोकतांत्रिक राजनीति के पाठ एक ‘लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी (Loktantra Mein Satta Ki Sajhedari)‘ के सभी महत्वपूर्ण टॉपिक को पढ़ेंगें।Loktantra Mein Satta Ki Sajhedari 1.लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Show इस अध्याय में यह जानने की कोशिश करेंगे कि सामाजिक विषमता के कारण लोकतंत्र में द्वंद्व में तत्त्व किस प्रकार अंर्तनिहित है? जातीय एवं सांप्रदायिक विविधता लोकतंत्र को किस प्रकार प्रभावित करता है? लिंग भेद के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवहार किस प्रकार परिवर्तित होता है ? किस तरह लोकतंत्र सारी सामाजिक विभिन्नताओं, अंतरों और असमानताओं के बीच सामंजस्य बैठाकर उनका सर्वमान्य समाधान देने की कोशिश करता है ? लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में लोग ही शासन के केन्द्र बिन्दु होते हैं। लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें लोगों के लिए एवं लोगों के द्वारा ही शासन चलाया जाता है। द्वन्द्ववाद का अर्थ- बातचीत या तर्क-वितर्क करना। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभाजन के स्वरूप-लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक विभाजन अलग-अलग स्वरूप तथा भेदभाव के विरोध का अलग-अलग तरीके होते हैं। क्षेत्रीय भावना के आधार पर सामाजिक बंटवारा और भेदभाव तथा विरोध और संघर्ष की शुरूआत होती हैं। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता में उत्तर भारत के बिहारी और उत्तर प्रदेश के लोगों के विरूद्ध हिंसात्मक व्यवहार इसका उदाहरण हैं। अमेरिका में नस्ल या रंग के आधार पर होता हैं और श्रीलंका में भाषा और क्षेत्र दोनों आधार पर होता हैं। भारत में सामाजिक विभाजन भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर होता हैं। सामाजिक भेदभाव एवं विविधता की उत्पति व्यक्ति को समुदाय या जाति का चुनाव करना उसके बस की बात नही हैं। कोई व्यक्ति जन्म के कारण ही किसी समुदाय का सदस्य बन जाता हैं। दलित परिवार में जन्म लेनेवाला बच्चा उस समुदाय का सदस्य हो जाता हैं। स्त्री पुरूष, काला, गोरा, लम्बा-नाटा आदि जन्म का परिणाम हैं। सामाजिक विभाजन जन्म आधारित नही होते हैं। बल्कि कुछ हम अपने इच्छा से भी चुनते हैं। जैसे कोई व्यक्ति अपने इच्छा से धर्म परिवर्तन कर लेता हैं। कुछ व्यक्ति नास्तिक बन जाता हैं। एक ही परिवार के कई लोग किसान, सरकारी सेवक, व्यापारी, वकील आदि पेशा अपनाते हैं। जिसके कारण उनका समुदाय अलग हो जाता हैं तथा समुदायां के हित साधना एक-दूसरे के विपरित भी हो सकती हैं। सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन में अंतर कोई आवश्यक नही हैं कि सभी सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का आधार होता हैं। संभव हो भिन्न समुदायों के विचार भिन्न हो सकते हैं। परन्तु हित सामान होगा जैसे मुंबई में मराठियों के हिंसा का शिकार व्यक्तियों की जातियाँ भिन्न थी, धर्म भिन्न होंगें, लिंग भिन्न हो सकता हैं। परन्तु उनका क्षेत्र एक ही था। वे सभी एक ही क्षेत्र उत्तर भारतीय थे। उनका हित समान था। वे सभी अपने व्यवसाय और पेशा में संलग्न थे। इस कारण सामाजिक विभिन्नता साजिक विभाजन का रूप नही ले पाता। सामाजिक विभिन्नता का अर्थ हैं कि एक समुह के लोग अपने जाति, धर्म, भाषा, सभ्यता के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं। सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में बहुत बड़ा अंतर हैं- सामाजिक विभाजन तब होता हैं जब कुछ सामाजिक अंतर दुसरी अनेक विभिन्नताओं सें ऊपर और बड़े हो जाते हैं। स्वर्णों और दलितो का अंतर एक सामाजिक विभाजन हैं। क्योंकि दलित सम्पूर्ण देश में आमतौर पर गरीब, वंचित एवं बेसहारा हैं और भेदभाव का शिकार है जबकि स्वर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं। अर्थात दलितों को यह महसुस होने लगता हैं कि वे दुसरे समुदाय के है। जब एक तरह का सामाजिक अंतर अन्य अंतरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसुस होने लगता है कि वे दुसरे समुदाय के हैं तो इससे सामाजिक विभाजन कि स्थिति पैदा होती है। अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अंतर सामाजिक विभाजन हैं। सामाजिक विभाजन में जाति राजनीति में सामाजिक विभाजन के सकारात्मक और नाकारात्मक दोनों पहलू की महता है। जाति व्यवस्था राजनिति में कई तरह की भूमिका निभाती हैं। एक तरफ राजनीति मे जातीय विभिन्नताएँ और असमानताएँ वंचित और कमजोर समुदायों के लिए अपनी बातें आगे बढ़ाने और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी माँगने की गुँजाइस भी पैदा करती हैं। तो दूसरी ओर सिर्फ जाति पर जोर देना नुकसानदेह होता हैं। राजनिति में जाति राजनीति में जातियों का अनेक पहलु होते हैं। जैसे-
चुनाव की जातियता में ह्रास की प्रवृति राजनिति में यह धारणा बन जाती हैं कि चुनाव और कुछ नहीं बल्कि जातियों का खेल हैं। परन्तु ऐसी बात नहीं है। राजनीति में अनेक अवधारनाएँ भी महत्त्वपूर्ण होती हैं।
ऊपर लिखे गए बातों से स्पष्ट होता है कि राजनीति में जाति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु दूसरे कारक भी असरदार होता है। Loktantra Mein Satta Ki Sajhedari सांप्रदायिकता राजनीति में धर्म समस्या के रूप में निम्नलिखित कारणों से खड़ी हो जाती है-
राजनीति में धर्म को इस तरह इस्तेमाल करना ही सांप्रदायिकता कहलाता है। सांप्रायिकता की परिभाषा- जब हम यह कहने लगते हैं कि धर्म ही समुदाय का निर्माण करती है तो साम्प्रदायिक राजनीति जन्म लेती है और इस अवधारणा पर आधारित सोच ही सांप्रदायिकता है। राजनीति में सांप्रदायिकता का स्वरूप-
धर्मनिरपेक्ष शासन की अवधारणा हमारे समाज में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना हेतु अनेक उपाय किये गए हैं-
लैंगिक मसले और राजनीति लैंगिक असमानता सामाजिक असमानता का एक महत्वपूर्ण रूप है। लैंगिक असमानता सामाजिक संरचना के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ता है। लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में ही परिवार में यह भावना घर कर जाती है कि भविष्य में लड़कियों की मुख्य जिम्मेवारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण तक ही सीमित होती है। उनका काम खाना बनाना, कपड़ा साफ करना, सिलाई-कड़ाई करना तथा बच्चों का पालन-पोषण आदि है। अगर वहीं मर्द घर के अंदर इन सभी कार्यों को करता है, तो उस पर समाज में छीटाकसी की जाती है। आधुनिक दौड़ में महिलाएँ जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। भारत कृषि प्रधान देश है और यहाँ के लोगों के आजीविका का मुख्य आधार कृषि है। किसान शब्द का जब उच्चारण किया जात है तो लोगों के दिमाग में पुरूष का चेहरा उभर कर आता है। जबकि सच्चाई यह है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पुरूषों की तुलना में कम नहीं है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं का योगदान बढ़ा हुआ है। इन बातों की पुष्टी निम्नलिखित आँकड़ों से होती है-
भारत की कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कम नहीं है, परन्तु दुख की बात यह है कि कृषि क्षेत्र में शामिल महिलाओं को पुरूषों की तुलना में कम मजदूरी दिया जाता है। मनुष्य जाति के आबादी में औरतों का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में खासकर राजनीति में इनकी भूमिका ना के बराबर है। पहले पुरुषों को ही सार्वजनिक मामलों में भागीदारी करने, वोट देने या सार्वजनिक पदों के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति थी। धीरे-धीरे राजनीति में मुद्दे उठे और महिलाओं को भी सार्वजनिक जीवन में अवसर प्राप्त होने लगा। सर्वप्रथम इंगलैंड में 1918 में महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ। उसके बाद धीरे-धीरे अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त होने लगा। आज प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति को देखा जा सकता है। यूरोपीय देशों में महिलाओं की भागीदारी सार्वजनिक तौर पर काफी ऊँचा है। भारत में अभी भी उतना संतोषजनक नहीं है। भारत का समाज अभी भी पुरुष-प्रधान है। औरतों के साथ कई तरह के भेद-भाव होते हैं। महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व- औरतों के प्रति समाज में घटिया नजरिया के कारण ही महिला आंदोलन की शुरूआत होने लगी। महिला आंदोलन की मुख्य माँगों में इनकी सत्ता में भागीदारी सर्वोपरी माँग थी। औरतों ने सोचना शुरू कर दिया कि जब तक महिलाओं की सत्ता में भागीदारी नहीं होगी तब तक इस समस्या का निबटारा नहीं होगा। भारत के लोकसभा में महिलाओं की संख्या 59 हो गई है जो कुल सीट का 11 प्रतिशत है। ग्रेट ब्रिटेन में 19.3 प्रतिशत तथा अमेरिका में 16.3 प्रतिशत महिला प्रतिनिधि है। विकसित देशों में भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी संतोषजनक नहीं है। राजनीति मे महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना लोकतंत्र के लिए शुभ होता है। लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी का क्या अर्थ है?सत्ता की साझेदारी का अर्थ है कि शासन में समान प्रतिनिधित्व देने के लिए विभिन्न सामाजिक दलों में सत्ता को विभाजित करना । सत्ता की साझेदारी लोकतंत्र की आत्मा है, जिसमें सांस्कृतिक तथा भाषा के भेदभाव के बिना सभी लोगों को राजनीतिक व्यवस्था में शामिल किया जाता है।
सत्ता की साझेदारी का क्या लाभ है?सत्ता की साझेदारी से बहुसंख्यकों के आतंक से बचा जा सकता है। बहुसंख्यक के आतंक से न केवल अल्पसंख्यक समूह तबाह हो जाता है बल्कि बहुसंख्यक समूह भी तबाह होता है। लोगों की आवाज ही लोकतांत्रिक सरकार का आधार बनाती है। इसलिये लोकतंत्र की आत्मा का सम्मान रखने के लिये सत्ता की साझेदारी जरूरी है।
सत्ता की साझेदारी के दो कारण क्या है?Solution : सत्ता की साझेदारी के दो कारण होते हैं। एक है समझदारी भरा कारण और दूसरा है नैतिक कारण।
सत्ता की साझेदारी किसकी आत्मा है?<br> (ii) लोकतंत्र की आत्मा-सत्ता की साझेदारी वास्तव में लोकतंत्र की आत्मा है। लोकतंत्र का अर्थ ही होता है कि जो लोग इस शासन-व्यवस्था के अंतर्गत हैं, उनके बीच सत्ता को बाँटा जाए और ये लोग इसी ढरें से रहें।
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