मेरे अलावा पर्यावरण सब कुछ है - mere alaava paryaavaran sab kuchh hai

पर्यावरणवाद या परिस्थितिवाद (Environmentalism या Environmental rights) पर्यावरण संरक्षण तथा पर्यावरण के स्वास्थ्य के सुधार से सम्बन्धित विस्तृत दर्शन, विचारधारा तथा सामाजिक आन्दोलन है। पर्यावरणवाद, प्राकृतिक पर्यावरण की कानून द्वारा रक्षा, सुधार तथा पुनर्स्थापन का पक्ष लेता है। पर्यावरण को बचाने के लिए राजस्थान और देश के अन्य राज्यों में रह रहे बिश्नोई पंथ के लोगों का अहम योगदान रहा है । जोधपुर के खेजड़ली गांव में 12 सितंबर1730 को 363 बिश्नोई समाज के लोगों ने अपनी जान देकर पेड़ो की रक्षा की थी । यह बलिदान अमृता देवी बिश्नोई के नेतृत्व में हुआ इसमें चोरासी गांव के बिश्नोई समाज के लोग शामिल हुए। बिश्नोई पंथ के लोग विष्णु अवतार जाम्भोजी के शिष्य हैं।

प्राकृतिक संसाधनों का सम्बन्ध सीधे पर्यावरण के साथ जुड़ा हुआ है। अब तक पर्यावरण संरक्षण के लिए पर्यावरणवाद (environmentalism), हरित राजनीति (Green Politics), पर्यावरणीय नारीवाद प्रमुख अवधारणा रहे है, जो एक समाजिक आन्दोलन के रूप में प्राकृतिक संसाधनों, पर्यावरण संरक्षण, एवं पारिस्थितिकीय प्रणालियों की रक्षा के लिए, जिसमें पर्यावरण के प्रति समाजिक शिक्षा, पर्यावरण सक्रियता के माध्यम से पर्यावरणीय राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित किया जाता है और पर्यावरणीय मानको को अपने अवधारणाओं में निर्धारित किया जाता रहा है। ग्रीन राजनीति (Green Politics) एक पर्यावरण जनक्रांति है जबकि पर्यावरणीय राजनीति (Envirnment politics) का सम्बद्ध विकास के नाम पर संसाधनों का दोहन करना और विकास को ही प्राथमिकता मानकर पर्यावरण को नजर अंदाज किया जाना। पर्यावरण राजनीति एक नवीन अवधारणा के रूप में है, जिसमें राजनीति (च्वसपजपबे) को महत्व दिया जाता है और पर्यावरण (Envirment) को जान बूझकर नजर अंदाज किया जाता हैं। पर्यावरणीय राजनीति एक ऐसी राजनीतिक चाल (सडयंत्र) है, जिसमें राजनीति एक ऐसा तरिका है जिसके माध्यम से विभिन्न राष्ट्रों के पर्यावरणीय संसाधनों को प्राप्त किया जाता है व उनका दोहन करने का एक तरिका है। पर्यावरणीय राजनीति एक पूँजीवादी विकासवादी राजनीतिक (Capatiliesm Development Politics) की नमूना है जिसमें विकास के नाम पर संसाधनों की लूट मचाया हुआ है।

पर्यावरणीय राजनीति विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट है, जिसमें केवल राजनीति को ही महत्व दिया जाता है पर्यावरण जो विका की भेट चढ़ जाता है। आज नहीं हो रहा है वैज्ञानिकों के चेतावनी के बावजूद पर्यावरण संरक्षण जो विकास की भेट चढ़ रही है। ओर राजनीति लाभ जो वास्तव में आर्थिक लाभ से जुड़ा हुआ हैं जिसे पाने के लिए सभी राष्ट्र होड़ में लगे हुए है और इस लाभ की राजनीति ने पर्यावरण संरक्षण के लिए कोई भी ऐतिहासिक जिम्मेदारी उठाने, उसकी समय बद्ध जिम्मेदारी निभाने से मुंह चुरा लिया गया है। पर्यावरणी राजनीति विकास के नाम पर ऐसा प्रतिरूप (डवकमस) है जिसमें संसाधनों को पूंजी (ब्ंचपजंस) समझता है और प्राकृतिक सम्पदा को ‘‘कमोडिटी’’ के रूप में लिया जाता है। और जल, जंगल, जमीन और खनिज पदार्थो को बाजार मूल्य में रूपांतरित कर के देखती है क्योंकि राज्य का चरित्र राजनीतिक अर्थव्यवस्था का दिशा निर्धारक होता है। पर्यावरणीय राजनीति (म्दअपतउमदजंस च्वसपजपबे) जो कि विकास (क्मअमसवचउमदज) के नाम पर उपभोक्तावादी, बाजारवादी और सुविधापूर्ति बन चुका है। यह संसाधनों के प्रत्येक वस्तु को वैश्विक पूँजीवाद से जोड देना चाहता है। पर्यावरणीय राजनीति विकास का वह प्रतिरूप है जो कि शुद्ध ‘‘उपयोगितावाद’’ पर आधारित होते है और सचमुच में यह एक ऐसी विडंम्बना है कि यह सब कुछ देश के आधुनिकीकरण, राष्ट्रनिर्माण, बहुमुखी विकास और सकल घरेलू उत्पादन (जी0डी0पी0) में वृद्धि के नाम पर किया जा रहा है। ऐसा महसूस होता है मानो कि विकास और पर्यावरण के बीच में युद्ध छिड़ गया है। पर्यावरणीय राजनीति एक ऐसा नमूना (डवकमस) है जिसमें प्रकृति पर विजय प्राप्त कर पूर्ण उपयोगितावादी, उपभोगवादी संस्कृति का निमा्रण करना जो केवल सुविधापूर्ति के लिए, लोभ और लालच को पूरा करने का एक तरिका है, जो अपने आप को विकसित और अन्य राष्ट्रो को यह भ्रमित करता है कि तुम पिछड़ी राष्ट्र हो। .... तुम अभी विकासशील राष्ट्र हो और इन राष्ट्रो में ऐसी संस्कृति का पाठ पढ़ाना की अब तुम भी विकसित राष्ट्र बनो। पर्यावरण राजनीति (म्दअपतवदउमदज च्वसपजपबे) उन राष्ट्रो की राजनीति है जो वे उन राष्ट्रों को पिछड़ी हुई या अल्पविकसित बताकर उन्हें विकास के भ्रम जाल में डाला जाता है, उन्हें उनके प्राकृतिक संसाधनों को वैश्विक पूँजी से जोड़ा जाता है और जल, जंगल, जमीन को बाजार अर्थव्यवस्था का अविभाज्य हिस्सा बना कर भरपूर दोहन किया जाता है। असल में मेरा मानना यह है, कि विकसित, विकासशील, अल्पविकसित का यह तीन जो नारा या सिद्धान्त है वह वास्तव में पूर्णतः गलत है। मैं इसका विरोध करता हूँ। यह जो विकास के तीन नारे हैं, वे राष्ट्र अपने को जो विकसित समझते है, उनकी ये चाल है कि वे ये भूल कर बैठे है। अगर पूँजी एकत्र करना, इंफ्रस्ट्रर्क्चर खड़ा करना, उद्योग स्थापित करके, अधिक उत्पादन करना, सुविधाओं को ही बढ़ाना, संसाधनों का दोहन करना, संसाधनों के रूप में इस्तेमाल करना ही विकसित राष्ट्र का पैमाना है, तो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना है। आधुनिक औद्योगिक समाज बौद्धिक दृष्टि से चाहे कितना ही परिष्कृत क्यों न हो वह जिस नीव पर खड़ा है उसे ही खोखला कर रहा है। अब तक पर्यावरण संरक्षण, जलवायु परिवर्तन, जैसे मुद्धो पर दिसम्बर 2012 तक 165 संन्धिया एवं समझौते हुए है जिसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया है। इसका कारण यह है कि पर्यावरण संरक्षण, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्धों पर भी विभिन्न राष्ट्र समझौतो के दौरान लाभ-हानि को देखती है और यहाँ तो सृष्टि नष्ट होने के कगार पर है, इन राष्ट्रांे को लाभ हानि की पड़ी हुई है। आज पर्यावरण संरक्षण के नाम पर या जलवायु परिवर्तन, जैव विविद्यता, कार्बन कटौती, के नाम पर कई संन्धि, समझौता, प्रोटोकाल, सम्मेलन हुए है या हो रहे है, कोई ठोस नतीजा नहीं आ रहा है, केवल वे लोग मीटिंग में इटिंग करते है। पर्यावरण संरक्षण हितार्थ ही नहीं वरन् राष्ट्र की हर समस्या के निदान में आज भी पूर्ण प्रासंगिक है और पर्यावरणवाद (म्दअपतउमदजंसपेउ) जो कि आज एक समाजिक आन्दोलन (ैवबपंस डवअमउमदजे) का रूप धारण कर चुकी है। पर्यावरण कोई स्वाधीन राजनीतिक सिद्धान्त नहीं, यह एक विचारधारात्मक आन्दोलन (प्कमवसवहपबंस डवअमउमदज) है, जो पश्चिमी राजनीति में 1970 के दशक में उभरकर सामने आया है जो धीरे-धीरे पूरे विश्व में फैल गया। वातावरण के विज्ञान से गहरे सरोकार के कारण पर्यावरणवादीयों को परिस्थितिवादी (म्बवसवहपेजे) भी कहा जाता है और पर्यावरणवाद को पारिस्थिति विज्ञानवाद (म्बवसवहपेउ) की संज्ञा दी जाती है, चूँकी इस आन्दोलन के अर्न्तगत वातावरण में हरियाली कायम रखने पर बल दिया जाता है, इसलिए इससे प्रेरित राजनीति को हरितक्रान्ति (ळतममद डवअमउमदज) या हरित राजनीति (ळतममद च्वसपजपबे) की संज्ञा दी जाती है। कुछ देश जैसे न्यूजीलैण्ड, पश्चिमी जर्मनी और ब्रिटेन में ग्रीन पार्टी (ळतममद च्ंतजल) बनाये गये हैं इस आन्दोलन को कायम करने के लिए पर ज्यादा सफलता हासिल नहीं हुए है। पर्यावरण के आरम्भिक संकेत ई0 एफ0 शुमेकर (1973) की कृति ‘‘ैपउसम पे ठमंनजपनिससश् (लघुता से सुन्दरता है) में मिलते है। जिसके अन्तर्गत औद्योगिकीकरण समाज की समीक्षा प्रस्तुत की गई थी। आधुनिक औद्योगिक समाज बौद्धिक दृष्टि से चाहे कितना ही परिकृत क्यों न हो वह जिस नीव पर खड़ा है उसे ही खोखला कर रहा है। इस विकास के स्वरूप को एक चुनौति है कि धरती और इसके अपूरणीयकरण संसाधनों (छवद.त्मदमूंइसम त्मेवनतबमे) को ऐसी पूँजी (ब्ंचपजंस) समझने की भूल नहीं करनी चाहिए जिसका हम सृजन और व्यय या निवेश करते है। वस्तुतः बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का सृजन ही नहीं किया जा सकता, उन्हें बढ़ाना तो सर्वथा असभंव है। वे उनका अन्धाधुन उपयोग करके आधुनिक औद्योगिक समाज ऐसा व्यवसाय चला रहा है जो अपनी जमा पुँजी को खाए जा रहा है, वह अपनी ही क्रब खोद रहा है। धरती किसी कि निजी संम्पती (च्तपअंजम च्तवरमतजल) नहीं है यह हमे अपने पुर्वजों से उत्तराधिकार में नहीं मिली बल्कि यह हमारे पास भावी पीढ़ियों का धरोहर है। पारिस्थिति विज्ञान (म्बवसवहल) ने सिद्ध कर दिया है कि आर्थिक विकास की अंधी दौड़ ने हमारे पर्यावरण को कितना छती पहुँची है। पिछली कुछ वर्षों यह प्रचार तेजी से चल रहा है कि आंतकवाद ही इस देश के लिए खास खतरा है। मैं हर प्रकार की हिंसा का विरोधी हूँ और मानता हूँ कि वैचारिक शक्ति खत्म होने पर ही इंसान हिंसा, शक्ति का प्रयोग करता है। मैं इस बात को नहीं मानता हूँ कि आतंकवाद को जिस प्रकार आज परिभाषित किया गया है, उसी से देश को या दुनिया को खतरा है। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार या उत्तर प्रदेश में थोड़ा सा भ्रमण करके आइए तो आपको मालूम पड़ेगा कि आंतक के पीछे असल में कौन है ? खदान चलाने वालों एवं सेज निर्माण में लगी कंम्पनीयों से पीड़ित लाखों-करोड़ों जनता अपनी जान बचाने के लिए मारी मारी फिर रही है। इन्हे पाकिस्तान या इराक के आतंक से फिलहाल कोई खतरा नहीं इनके ऊपर दिन प्रतिदिन जो आतंक का कहर चल रहा है उससे उन्हें कौन मुक्ति दिलाएगा ? आज यही वजह है कि जल, जंगल, जमीन की लड़ाई में नागरिक और राज्य आमने-सामने हो रहे है, जिसे हम नक्सलवादी कहते हैं। भारतीय राज्य और आदिवासी भारत के बीच शत्रतापूर्ण अन्तर्विरोध हिंसक रूप में मौजुद रहते हैं। वास्तव में आदिवासी विकास को एक स्वतंत्र स्वायŸा घटना के रूप में नहीं देखता वह जीवन को सम्पूर्णता के रूप में देखता है। जैसे-जैसे वैश्वीकरण के तीन आधारभूत प्रक्रियाएं (उदारीकरण, नीजिकरण, विनिवेशीकरण) तीव्र होगी, उतना ही इनका जवाब जल, जंगल, जमीन पर बढ़ता जायेगा। दुनियाभर में मौसम परिवर्तन की बड़ी चर्चा है, पूँजीपति देश इस कोशिश में है कि उनके द्वारा पैदा किए जाने वाले कार्बन गरीब मुल्कों को बेचा जाए। धनी देशों की रूचि इस बात में है कि वे गंदगी पैदा करते रहे और गरीब देश उसे खरीदे यह भी सलाह दी जा रही है कि कार्बन खरीदने (कार्बन क्रेडिट व्यपार) के लिए जंगल के मालिक आदिवासियों को, जमीन के मालिक किसानों को, जंगल और जमीन से बेदखल करो। यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के साथ ही आधुनिक पर्यावरणीय समस्याओं का भी जन्म हुआ। पर्यावरणवाद औद्योगिकरण के प्रतिक्रिया के रूप में एक आन्दोलन है। अब तक पर्यावरण संरक्षण के लिए जो पर्यावरणवाद, ग्रीन राजनीति, पर्यावरणीय नारीवाद, जैसे अवधारणा एवं समाजिक आन्दोलन के साथ-साथ विभिन्न राष्ट्रों के मध्य पर्यावरण संरक्षण के लिए विभिन्न प्रोट्रोकाल, परमाणु परीक्षण पर संधि, जैव विविधिता, जलवायु परिवर्तन की समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास चल रही है। क्योटा प्रोटोकाल के अलावा अब तक कोई ठोस परिणाम नहीं निकला है। विकास की राजनीति ने पर्यावरण संरक्षण को नजर अंदाज किया परिणाम स्वरूप विकास ही एक संकट बन कर ऊभरा है। जिसे ‘‘विकास संकट’’ कहा जा सकता हैं। आप विकास के नाम पर जमीन को बाँट सकते हो पर अकाश को नहीं बाँट सकते हमें ऐसे विकास करना है, जिसमें प्रकृति भी बचाया जाए एंव विकास भी किया जाए। पर्यावरणीय नारीवाद (Envirmental Feminism)ः- पर्यावरणीय नारीवाद ने महिला को प्रकृति के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। ज्ञातव्य है कि समाज में प्राचीन काल से महिलओं के शोषण के लिए पुरूषों वर्ग ही जिम्मेदार रहा है। इसी तरह पुरूष वर्ग ने पर्यावरण संसाधन का अतिदोहन कर पर्यावरण को विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। अतः महिला और प्रकृति दोनो के दमन का श्रेय संयुक्त रूप से पुरूष वर्ग को ही है। ऽ सुसान ग्रिफ्रीन ;ॅवउंद ंदक छंजनतमद्ध 1984, एड्री कोलार्ड्र (त्ंचम व िजीम ूवतसक 1988), कोल्डकोट और लेलंड ;त्मबसंपउ जीम मतजी 1983) आदि विचारकों ने अपनी पुस्तक में इस बात को स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार से पुरूषों ने महिलाओं का शोषण व दमन किया है ठीक उसी प्रकार से पुरूषों ने पर्यावरण का शोषण किया है। वंदना शिवा और प्लावुड एडिना मर्चेन्ट आदि पर्यावरणविदांे का मानना है कि प्रकृति और महिला में समानता है क्योंकि दोनांे ही पोषण करते है। प्रकृति और महिला दोनांे में चक्रिय प्रक्रिया होती है तथा दोनांे ही शोषण के शिकार है। इस वर्ग का भी यह मानना है कि, प्रकृति के शोषण का सबसे अधिक असर महिलाओं पर ही पड़ता है क्योंकि ये प्रकृति पर अधिक निर्भर है। (जैसे-जलावन, पानी की व्यवस्था महिलाए ही करती है)। अतः प्रकृति से खिलवाड का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं पर ही पड़ता है क्यांकि महिलाएं प्रकृति के निकट होती है। वंदना शिवा ने अपनी पुस्तक (ैजंलपदह। सपअम रू ूवउमद मबवसवहल ंदक ैनतअपअंस पद प्दकपं) में हरितक्रांन्ति की विफलता का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार यह वृहद पूँजीपति के लक्षणों वाली विकास की परियोजना जिसे औद्योगीकरण (डवसकमअमसवचउमदजद्ध कहती है का दुष्प्रभाव ग्रामीण महिलाओं पर ही पड़ा है। महिलाओं की पहचान और भाग्य प्रकृति के साथ घुला मिला है। महिलाओं का सरल स्वभाव ही उसे पर्यावरण के साथ जोड़ता है। इसी कारण एण्डीकोलार्ड ने महिलाओं को प्रकृति का शिशु कहाँ है। इन्ही कारणा से महिलाएँ पर्यारण को क्षति पहुँचाने वाले सैन्यवाद, औद्योगिकरण (डवसकमअमसवचउमदजद्ध का विरोध करती है। इसी क्रम में हम चिपको आंदोलन को देख सकते है। 1970 के दशक में हिमालय क्षेत्रों में वनो का विनाश रोकने के लिए स्त्रीयों के जान देने की घटना के बाद इस आंदोलन को चिपको आन्दोलन का नाम दिया गया। यह आन्दोलन सफल आन्दोलन था जिसमें सुन्दर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, जैसे पर्यावरणविद्ो ने किया है। इसी प्रकार दक्षिण भारत में आप्पिकों आन्दोलन का श्री गणेश किया गया। इस संदर्भ में पर्यावरण महिलावाद का मानना है कि पुरूषो को भी महिला के समान अपने स्वभाव में करूणा ममता के भाव को लाना होगा। स्त्री के समान ही पुरूषों को पर्यावरण के साथ सम्बद्ध रखने होंगे। विकास या विनाश:- आज के तथाकथित विकास ने पूरी दुनिया को समेटकर एक भूमण्डलीय कृत गांव का रूप अवश्य दे दिया है, किन्तु मानवीय मूल्य संवेदनाएँ, समाजिक सरोकर और प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति हमारा संयत व्यवहार सब कुछ कही खो गया है। विकास के परिणामस्वरूप जन्मी अनेक समाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय समस्याएँ वस्तुतः हमारी वस्तुपरक भोगवादी दृष्टि के कारण है। हमने भोग वादी मॉडल को अपनाया है और यही हमारे जीवन तथा पर्यावरण के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहा है। ‘‘प्राकृतिक संसाधन से इंसान की आवश्यकतों की तो पूर्ति कर सकता है किन्तु उसकी लालच की पूर्ति नहीं कर सकता।’’ जीवन की मुख्य आवश्यकताएँ प्राप्त करना प्रत्येक मानव का अधिकार है, यह अधिकार तो पशुओं और पक्षियों को भी है, पर हम उनसे उनका भी अधिकार छिन रहे है। हमारी अधिकांश समस्याएँ वस्तुपरक भोगवादी दृष्टि से ही पैदा हुई है। विश्व की समाजिक विकास की दिशा राजनीतिक विकास से होकर होती है या राजनीतिक विकास ही समाजिक विकास को गतिशील बनाती पर अब जो विकास हो रहे है। उससे प्रदूषण बढ़ा है, शहरीकरण बढ़ा है, गाँव शहरी सीमाओं में समाएं हैं। अतिशय वन विनाश हुआ, हमारी विकास की गति ने जल प्रदुषण एवं जहरीले पानी, नदी जो अब हमे नाले में परिवर्तित दिखाई पड़ रहे है। हमारे विकास की गति से वन्य जीव, पशु, पक्षी जंगलो का विनाश हुआ है। विकास की गति ने वातावरण एवं पर्यावरण संतुलन को छिन्न-भिन्न हो रहे है, तो क्या यही विकास है?

यह विकास नहीं विनाश है जिसे हम अपना विकास समझ कर आँख बंद कर तेजी से चले जा रहे है। विकास के जिस पश्चिमी मॉडल, औद्योगिकी मॉडल ने पर्यावरण को तो छिन्न-भिन्न किया है साथ ही समाजिक बिखराव, समाजिक असमानता जो उनके ही परिणाम है।

औद्योगिकीकरण यूरोप, अमेरीका के बाद अफ्रिका एवं एशिया महाद्वीप में तेजी से बढ़ा है। परिणामस्वरूप नगरीकरण को बढ़वा मिला और लोग अधिक मात्रा में बेरोजगार हुए हैं। चूॅकि पहले हर व्यक्ति कुटीर उद्योग, हस्तशिल्प, स्वनिर्भर रोजगार कार्य प्रणाली में कार्यरत थे। मशीनों के अविष्कार ने इन लोगों को बेकार बना दिया जिससे समाज में असमानता चरम पर आ गयी। आज समाज में धर्म, जाति, के नाम पर समाज में जो वैमन्यस्यता दिखलाई पड़ती है उसका मूल कारण आर्थिक असमानता है जो औद्योगिक विकास का ही अभिशाप है। विकास ऐसा हो कि एक सुसंगत या सतत विकास हेतु प्रकृति और मानव का एकत्व अपरिहार्य है किन्तु आज ‘‘विकास’’ के नाम पर केवल संसाधनो का ह्रास हो रहा है जो आज के परिप्रेक्ष्य में केवल खाली झोला और खोखला स्वप्न है। अगर हम जंगल उजाड़कर, शुद्ध आक्सीजन को विषैली रूपो में तब्दील कर, माँ गंगा जैसी निर्मल नदी को विष में तब्दील कर, ग्लेशियर का सिर उखाड़ कर हम कौन-सा विकास करना चाहते है? लेकिन सच बात तो यह है कि हम अपने पर्यावरण का विनाश हम विकास के नाम पर ही कर रहे है। अनादि काल से प्रकृति पर विजय पा लेने की आशंका आधुनिक विज्ञान युग में हमें फलीभूत दिखाई पड़ने लगी है। हमारे इस घमंण्ड ने ही हमें विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है। यह तो आने वाला समय बतलायेगा कि हम अपनी इस आशंका को छोड़कर प्रकृति की छाया में मानवता को बचाना चाहते है या नहीं। विकास की भेट चढ़ती पर्यावरण के अलावा आदिम संस्कृति भी विकास की भेट चढ़़ती हुई दिखाई पड़ रही है, जो अपनी सुविधा के लिए, लाभ के लिए, लोभ के लिए, विकास के नाम पर संसाधनांे को एकत्रित कर दोहन कर रहे है। पिछले 30-35 वर्षो में हमारे समाज की जीवन पद्धति तथा सांस्कृति व सामाजिक मूल्यों में कुछ ऐसी गिरावट आई है कि जिसने भारत के समाज की समुचित अन्तर्धारा को ही प्रदुषित कर दिया है। चारों तरफ आज जिस प्रकार का संकट दिखलाई पढ़ रहा है, उससे ऐस महसूस होता है कि जैसे सारी दुनिया पागल हो गयी है और पर्यावरण से दुश्मनी निभाता, विकास महसूस हो रहा है कि जैसे इंसान ने प्रकृति के साथ ही युद्ध छेड़ दिया है। आज हमें नदियों के स्वच्छ पेयजल की जगह गंदे नालों का पानी पीना पड़़ रहा है। गंगा एवं यमुना जैसी प्रमुख नदियों का जल भी प्रदूषित हो गया है। इसमें सीवेज नालो एवं टेनरियों आदि का पानी भी मिलाया जा रहा है जिससे इसकी पवित्रता बाधित हो रही है। ‘‘प्रदूषण कम करने की आधुनिकता तो आई है किन्तु विकास के सोच में ही परिवर्तन नहीं आया है।’’ गंगा नदी- सभी नदियांे को महत्व दिया गया है, पर गंगा सबमें श्रेष्ठ है। गंगा नदी सभी नदियों की भगनी व माँ स्वरूपा है। धर्म परम्परा, संस्कृति और समाज के अनोखे संगम का प्रतीक है। ’’मानव के प्रत्येक संस्कार गंगा जल के बिना अपूर्ण है, गंगा हमारे देश की गुणकारी ही नहीं एक चमत्कारी नदी हैं।’’ हमारे विकास की प्रक्रिया ने उसके अस्तिव पर ही सवाल छोड़ रहे है। पहले तो गंगा के बारे मे कहा जाता था कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। जिसे रैदास भी मानते थे पर आज तो मन भी गंदा व तन भी गंदा इसीलिए गंगा भी गंदी हो गयी। ‘‘जरूरी था जिसे बेचना उसे बेच नहीं पाए। सभ्यता, संस्कृति और संस्कार बेच आए।। बिगड़ी हुई दशा को न मानो दिशा नई। जानोगे बाद में तुम, क्या क्या गॅवा आए।।’’ आज चंद लोगांे की सुख, सुविधा, आमदनी में इजाफा के लिए अधिकतर लोगांे के साथ पक्षपात हो रहा है, अपनी ही सुविधा के लिए, सुख के लिए, पर्यावरण के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है और जल, जंगल जमीन, आकाश, पताल, हर तरफ मनमाने प्रयोग किए।

प्रकृति द्वारा उपलब्ध साधनो का हद से अधिक दुरूपयोग किया। अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य प्राकृतिक वातावरण को लगातार नुकसान पहुँचाता चला जा रहा है। वैज्ञानिकांे द्वार बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद प्रकृति से अधिकतम पदार्थ प्राप्त कर लेने की इच्छा खत्म नहीं हो रही और प्रकृति का दोहन खूब हो रहा है। अपने लाभ के लिए मनुष्य द्वारा विकास के नाम पर कई ऐसे अविष्कार भी कर दिए गये जो जल, जंगल, जमीन में जहर घोल रहे हैं। प्रकृति के उपहारांे का ऐसा दुरूपयोग किया कि धरती, आकाश, पाताल जहाँ से मिल सकता था उसे लेने में कोई कसर बाकी न रखी। आज जो संकट ऊभरी है, इस बेहिसाब दोहन का नतीजा है। धरती माँ को बंजर बनाकर हम अपना ही भविष्य असुरक्षित कर रहे है। इस दुघर्टना को कैसे भूल सकते गोपाल गैस त्रासदी 3 दिसम्बर 1984 मध्यरात्रि में भोपाल स्थित यूनियन कार्बइड, इंण्डिखा लि0 के कारखाने के एक संयम से दुर्घटना वंश निकली गैस के कारण 2 हजार लोगो की जाने गई जिसमें मिथाइल आइसो-साइनेट (एम0आई0सी0) जैसे विषैले गैस निकली थी। समस्याएँ:- पास्थितिकीय तंत्र में जीवीय घटक, अजीवीय घटक, के साथ-साथ पारिस्थतिक तंत्र में कुछ खनिज तत्वों एवं गैसो का च्रक्रीयकरण में असंन्तुलन आया है। गैसों का चक्रीकरण जैसे कार्बन चक्र, नाइट्रोजन चक्र, फास्फोरस चक्र, जल चक्र और इसके अलावा वन पारिस्थतिक तंत्र, स्वच्छ जलीय तलाब का पारिस्थितिक तंत्र, खाद्यजाल में मानवीय हस्तक्षेप ने पर्यावरण को छित-बिछत किया है। ऽ ग्रीन हाऊस प्रभाव जिससे पृथ्वी की औसत तापमान में वृद्धि हुई है, भूमध्य तापमानो में 0.50ब् से 0.70ब् तक की वृद्धि हो चुकी है। 1958 से 1990 के मध्य कार्बनडाइक्साइ 5ः के हिसाब से वृद्धि हो रही है इसका मुख्य कारण औद्योगिकरण, वन अपरोपण, क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सी0एफ0सी0) का प्रयोग है। ऽ ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण वायुमण्डल में लगभग 36 लाख टन कार्बनडाई आक्साइड की वृद्धि हुई है और लगभग 24 लाख टन ऑक्सीजन समाप्त हो गया है। ऽ कार्बनडाई आक्साइड में वृद्धि के कारण विगत पचास वर्षो में पृथ्वी के औसत तापमान में 10ब् की वृद्धि हो चुकी है। अनुमान है कि ग्रीन हाउस प्रभाव की यही स्थिति रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापमान में 40ब् से 50ब् तक वृद्धि होगी। ऽ अनुमान के मुताबिक धुव्री क्षेत्रांे में ये वृद्धि 90ब् तक होगी। ऽ अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.60ब् की वृद्धि हुई तो आर्कटिक एवं अण्टार्कटिका के विशाल हिमखण्ड पिघल जायेंगे, जिससे समुद्र के जल स्तर में 10 इंच से 5 फुट तक ही भारी वृद्धि हो सकती है। ऽ पृथ्वी पर 12 करोड़ वर्षो तक राज्य करने वाले डायनासोर नामक दैत्याकार जीवांे का समाप्त होने का कारण सम्भवतः ग्रीन हाउस प्रभाव ही था। ऽ ओजोन कवच का छिद्र एंव त्वचा कैंसर, पृथ्वी से 50 ज्ञउ पर स्टेªटोस्फीयर में ओजोन का कवच स्थित है, जो सूर्य की पराबैगनी किरणों (नअ तंले) को अवशोषित करता है। पराबैगनी (नसजतंअपवसमज) किरणों से उत्परिवर्तन (डनजंजपवद), त्वचा का कैंसर (ैापद बंदबमत) तथा मोतियाबिन (ब्ंजंतनबज) जैसे रोग उत्पन्न होते है। ऽ अम्ल वर्षा, रेडियोधर्मी, अपशिष्ट पदार्थ भी कम या अधिक रेडियोएक्टिव होते है। तेल प्रदूषण या महासागरों में तेल रिसाव होना जलीय जीव को संकट जो हे उसके अस्तित्व को लेकर है। ऽ पर्यावरण जोखिम रिपोर्ट 2012 के मुताबिक शहरो में ऊर्जा के अधिक इस्तेमाल, कार्बन उत्सर्जन के अलावा बाढ़ और तुफाल जैसे जोखिमों का खतरा और रिपोर्ट के अनुसार ग्रीन हाउस गैस का वैश्विक उत्सर्जन का स्तर 36 अरब टन हो जायेगा। डेनमार्क की राजधानी 2500 से ज्यादा वैज्ञानिक पूरी तरह से सहमत थे की ग्लोब्ल वामिंग के दुष्परिणामों से यदि नहीं चेते तो युद्ध सी स्थिति बन सकती है। इस सदी के अंत तक समुद्र के जल में 1 मीटर की वृद्धि पायी गयी है। ऽ वन का विनाश जीवन को ऐसे गर्त में डाल रहा है जहाँ से निकलना संभव नहीं है। ऽ और पहाड़ों से विकास का भूत उतारना होगा, आज विकास के लिए पहाड़ो के सिर काटे जा रहे है। ग्लोबल वामिंग से प्रभावित होकर एवरेस्ट की ऊँचाई 8848 से 8844.43 मी0 हो गयी है। ऽ एक संर्वेक्षण के मुताबिक इस देश के 26 राज्यों के 180000 ग्रामीण क्षेत्रों पर पेयजल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौहान्स, नाइट्रेट व खारापन पाया गया है। संरक्षण पर प्रयास:- इक्वाडोर में नागरिकों के समान पेड़-पौधो और जीव-जन्तुओं को भी संवैधानिक अधिकार दिया गया है। मनुष्यों के समान ही जीवित रहने, विकास करने और जीवन चक्र आगे बढ़ाने का नैसर्गिक अधिकार है। ’’ग्लोबल ग्रीन’’ रहेगा तो विश्व में कही भी कोई दीन-हीन नहीं रहेगा। ‘‘पर्यावरण संरक्षण की दिशा में हम सभी को ध्यान देना होगा। नदियांे के संरक्षण के साथ-साथ हमें इसे रोजगार से जोड़ना होगा जिससे आम लोग भी पर्यावरण के संरक्षण से खुद को जोड़ सके।’’ आज जिस बात की जरूरत है वह है कि प्रकृति के संसाधनो का प्रकृति की शक्तियों का त्याग पूर्वक ग्रहण करना। किन्तु यही हमारी दृष्टि में नहीं है। सिर्फ हमारा ही नहीं है यह विश्व वन्यजीव, जलीयजीव, पहाड़ी जीवांे, का भी है इसलिए विकसित राष्ट्र या विकासशील राष्ट्र और पिछड़े राष्ट्र इस समस्या को एक दूसरे पर थोपने के बजाए अपनी जीवन शैली में क्रान्तिकारी नहीं लायंेगे तब तक ग्लोबल वार्मिग, मौसम परिर्वतन, पर्यावरण की समस्या हल नहीं होगा।

पर्यावरण समस्या जिसे इंसानों को खुद ही समझने की बात है। आप केवल प्रकृति को ही बचाने के लिए नहीं बल्कि अपने आप को बचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। आपका अस्तित्व भी प्रकृति के साथ है। अगर हम वर्तमान समस्या को सुलझाना चाहते है तो जरूरत है कि जिस बाजार व्यवस्था से समस्या उत्पन्न हुई है उसी बाजार व्यवस्था से समाधान ढुंढने का प्रयास न करे, समाधान के लिए उनकी ओर न देखे, जिन्होंने इस दुनिया को गर्त में लाकर खड़ा कर दिया है।