मैं जब, हमारे मन मिलन के मंदिर में आया तो तुम्हें ना पाकर मेरी आँखें उदासी के समुन्दर में डूब गईं....ना जाने क्यों, हमेशा से, मेरे मन में एक अनजानी आशंका अपना डेरा जमाये रहती थी कि एक दिन तुम मुझे यूँ मंझधार में छोड़ कर चली जाओगी...शायद मेरे अनजाने भय ने, अपना चमत्कार दिखाया और वैसा ही हो गया जिसका डर मुझे हमेशा से सालता था कि एक दिन तुम मुझे बिना बताये, मेरी नजरों से अचानक ओझल हो जाओगी. मैंने कितने सपने संजोये थे कि तुम्हारे साथ स्विट्ज़रलैंड की वादियों में तो कभी
विएना की झील में नौका विहार करूँगा ...तो कभी हम दोनों, दुनिया की नजरों और गमो से दूर, रिओ के किसी अनजाने समुद्री बीच पे इक दूसरे के साथ अठखेलियाँ करंगे. खैर, तुम जो भी फैसला लोगी अच्छा ही होगा...क्योंकि मेरी ख़ुशी तो सिर्फ तुम्हारी ख़ुशी
में ही है...अगर तुम इसे पढ़ने की इनायत बख्शो तो शायद मुझे कुछ समझ पाओ...यूँ तो पहले भी तुम मुझसे अक्सर, किसी ना किसी बात पे खफा होकर, मुझे अकेला छोड़ जाती थी... मैं हर बार तुम्हारे सामने झुकते हुए तुम्हें मना लाता और तुम भी थोड़ी नजाकत और नखरों के बाद मान जाती...हम फिर से अपनी अपनी रूहानी दुनिया में खो जाते...यह जानते हुए भी कि मेरी और तुम्हारी दुनिया इस धरती के दो ध्रुवों की दूरी पे है. मैं रात भर करवट बदल बदल कर सोचता ..शायद आज की रात तुम आओ और तुम्हारे इंतजार में आधी आधी नींद में जागकर तारे देखता...शायद उसे मेरा
भेजा हुआ सन्देश, चाँद से मिल जाए...पर तुम्हें ना आना था ना तुम आई...अब मैंने भी अपने दिल को समझा लिया कि शायद मेरी किस्मत में किसी का प्यार ही नहीं...फिर तुमसे ही क्यों उम्मीद रखूं? लगता है इस जन्म में शायद इंतजार ही मेरी साधना है, शायद मुझे इस साधना में अभी और कष्ट झेलने और देखने बाकी हैं! तुम जब तक मुझे नहीं मिली थी, मेरी जिन्दगी एक वीरान रेगिस्तान की तरह
थी...तुम्हारे आने के बाद इसमें हुई उम्मीदों की बारिश की बौछारों ने इसे हरा भरा बनाया...जहां कल तक सन्नाटे का आलम था, तुमसे मिलने के बाद वहां उत्तेजना और उम्मीदों का नखलिस्तान गुलजार होने लगा, जहां उमंगो की नदी सूख कर अपना दम तोड़ चुकी थी...वहां उल्लास का सागर हिलोरें लेने लगा था...तुम्हारे पल-पल के साथ की ख़ुशी में, मेरा आँगन इतना रोशन हो गया था कि लगता ही नहीं था जैसे यहां कभी निराशाओं और बदहाली का कोई रेगिस्तान भी था. शायद हमारा मिलना ही इन
जालिम नक्षत्रों के अनुकूल ना था...वरना हम दो विपरीत ध्रुवों में रहने वाले...तुम अपने परलोक को सुधारने में व्यस्त और मैं इस लोक को भोगने वाला कैसे और क्यों मिले यह भी एक राज रह गया, तुम आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक और सूक्षमता को खोजती रही और मैं अपनी स्थूलता में उलझा उसमें तुम्हें ढूंढता रहा...ढूंढ हम दोनों ही रहे थे...मैं तुम्हें और तुम किसी और को. शायद तुम्हारे मन में सूक्ष्मता इतनी समा गई कि तुम्हें मेरे स्थूल शरीर की भावनायें और जरूरत, गैरजरूरी और बचकानी लगती होंगी...तुम्हें मेरी मोहब्बत पे हंसी आती होगी और शायद तुम्हें मेरी
इबादत एक मक्कारी और फ़रेब लगती होगी? हम दोनों भी कितने अजीब और अलग थे...तुम मुझे संत बनाना चाहती थी और मैं इंसान बनने की असफल कोशिश कर रहा था...तुम अपने संकल्प से कष्ट, आभाव और दुःख को अपने जीवन की चुनौती समझ कर हंसी हंसी झेलती रही...वहीं मैं जीवन में नयी-नयी उमंगों को खोजता कि अगर जीवन में सुख, भोग और विलासिता नहीं तो फिर जीवन का अर्थ ही क्या है...न तुम गलत थी न मैं?
तुम्हारा........... दिलीप |