शहरों के विकास का लक्ष्य क्या है? - shaharon ke vikaas ka lakshy kya hai?

आज के दौर में हर इंसान गाँव की गलियों को छोड़ शहरों की सड़कों पर भटकना चाहता है, गाँव की सुकून भरी जिंदगी को छोड़ शहरों में दिनभर की थकान पाना चाहता है, कोयल की कूक और चिड़ियों की चहचहाहट को छोड़ भागती गाड़ियों का शोर सुनना चाहता है, मिट्टी की भीनी खुशबु को छोड़ कारखानों और गाड़ियों के धुएँ को अपनाना चाहता है, पेड़ों से मिलने वाली ताजा हवा को छोड़ प्रदुषण भरी साँसें लेना चाहता है। आधा मानव समुदाय यानी 3.5 अरब लोग आज शहरों में रहते हैं और अनुमान है कि 2030 तक 10 में से 6 व्‍यक्ति शहरों के निवासी होंगे। शहरों में बस्ती जिंदगियों का एक कारण यह भी है कि शहर, संवहनीय विकास की बुनियाद हैं। वहीं पर विचार, वाणिज्य, विज्ञान और उत्पादकता पनपते हैं। शहरों में लोगों को आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से सम्पन्नता के अवसर मिलते हैं किंतु यह ऐसे संपन्न शहरों में ही संभव है, जहाँ लोगों को उत्कृष्ट रोजगार मिल सके तथा जहाँ भूमि संसाधनों पर बढ़वार का बोझ न हो।

दुनिया के शहरों ने पृथ्‍वी की सिर्फ 3% जमीन घेर रखी है लेकिन ऊर्जा की कुल खपत का 60-80% और पृथ्‍वी का 75% कार्बन उत्‍सर्जन शहरों में होता है। आने वाले दशकों में करीब 85% शहरी विस्‍तार विकासशील देशों में होगा। हमारी तेजी से फैलती शहरी दुनिया में भीड़ बढ़ रही है, बुनियादी सेवाओं का अभाव है, उपयुक्‍त आवास की कमी है और बुनियादी ढांचा कमजोर हो रहा है, जिसके कारण ताजे पानी की आपूर्ति, सीवेज, रहन-सहन के माहौल और जन स्‍वास्‍थ्‍य पर दबाव पड़ रहा है। दुनिया में 30% शहरी जनसंख्या तंग बस्तियों में रहती है और सहारा के दक्षिण अफ्रीकी देशों में आधे से अधिक शहरी निवासी तंग बस्तियों में रहते हैं। यदि हम भारत की बात करें तो यहाँ भी शहरीकरण तेजी से हो रहा है। 2001 और 2011 के बीच देश की शहरी जनसंख्‍या में 9.1 करोड़ की वृद्धि हुई। अनुमान है कि 2030 तक भारत में एक-एक करोड़ से अधिक की जनसंख्‍या वाले 6 मेगा शहर होंगे।

सतत विकास के संवहनीय शहर तथा समुदाय लक्ष्य के अंतर्गत भारत सरकार के स्‍मार्ट सिटी मिशन, जवाहरलाल नेहरू राष्‍ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन और अटल पुनर्जीवन एवं शहरी कायाकल्‍प मिशन शहरी क्षेत्रों में सुधार की चुनौती का सामना करने के लिए कार्य कर रहे हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना का उद्देश्‍य 2022 तक सबके लिए आवास का लक्ष्‍य हासिल करना है। इसके साथ ही इस लक्ष्य के अन्य उद्देश्य सबके लिए उपयुक्त, सुरक्षित और सस्ते आवास तथा बुनियादी सेवाओं की सुलभता सुनिश्चित करना, तंग बस्तियों की स्थिति सुधारना, सुरक्षित, सस्ती, सुलभ और संवहनीय परिवहन प्रणालियों तक पहुँच जुटाना, सार्वजनिक परिवहन के विस्तार से सड़क सुरक्षा सुधारना, महिलाओं, बच्चों, विकलांगों और वृद्धजनों तथा लाचारी की स्थिति में जीते लोगों की जरूरतों पर विशेष ध्यान देना, देश की सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक धरोहर के संरक्षण एवं सुरक्षा के प्रयास मजबूत करना, आदि शामिल हैं।

शहरी मामलों की मामूली जानकारी रखने वालों के लिए भी, सबसे बड़ी ख़बर तो ये थी कि इस महामारी ने हमारे शहरों में कैसी उठा-पटक मचाई और कैसे उसकी कमियों को उजागर किया.

शहरों के विकास का लक्ष्य क्या है? - shaharon ke vikaas ka lakshy kya hai?

Charis Tsevis — Flickr/CC BY-NC-ND 2.0

बहुत से लोग ये मानते हैं कि कोविड-19 की महामारी, वर्ष 2020 में मानव जीवन में उथल-पुथल मचाने वाली सबसे बड़ी घटना थी. शहरी मामलों की मामूली जानकारी रखने वालों के लिए भी, सबसे बड़ी ख़बर तो ये थी कि इस महामारी ने हमारे शहरों में कैसी उठा-पटक मचाई और कैसे उसकी कमियों को उजागर किया. शहरों की इन कमियों के सामने आने से साफ़ हो गया है कि ये तल्ख़ सच्चाई हमारी आधुनिक दुनिया (या पोस्ट मॉडर्न वर्ल्ड) के उस विचार से मेल नहीं खाती कि शहर ही विकास के इंजन हैं.

विकसित देशों के शहर हों या विकासशील देशों की तीसरी दुनिया वाले शहर, दोनों से ही दो कड़वी सच्चाइयां हमारी ओर ताक रही हैं-पहला तो ये कि शहर भले ही तमाम देशों की अर्थव्यवस्था के विकास के आर्थिक इंजन हों, लेकिन वो उन करोड़ों लोगों के लिए घर नहीं बन सके हैं, जो काम करने के लिए शहर पहुंचे; और दूसरी बात इस महामारी जैसे किसी संकट में, शहरों का वो बदनाम सार्वजनिक बुनियादी ढांचा ही है, जिसने इस मुश्किल वक़्त में समाज के कमज़ोर तबक़े की मदद की ज़िम्मेदारी निभाई है, न कि उस निजी क्षेत्र ने, जिसकी ज़ोर-शोर से तारीफ़ें की जाती हैं.

इस महामारी ने शहरों की उदासीनता को उजागर कर दिया है. पिछले 25 वर्षों से शहरी योजनाएं और डिज़ाइन बनाने, उनमें लचीलापन और टिकाऊपन लाने, तकनीक के इस्तेमाल से स्मार्ट सिटी बनाने की जो चर्चाएं दुनिया भर में चल रही थीं, उनका खोखलापन भी इस महामारी ने बेपर्दा कर दिया है.

इन बातों के साथ साथ अन्य चुनौतियों की जानकारी होने के बाद, दोबारा उसी ढर्रे पर लौट जाना बड़ी मूर्खता होगी, जिसमें पहले की ही तरह शहरों के नीति निर्माण, शहरी माहौल बनाने को लेकर परिचर्चा और वैश्विक मंच पर अन्य दृष्टिकोणों से तालमेल बनाने की कोशिश की जाए. इस महामारी के दौरान दुनिया भर के शहरों में जो प्रकोप देखने को मिला, वो मानवता ने पिछली एक सदी में पहली बार देखा था. इस महामारी ने शहरों की उदासीनता को उजागर कर दिया है. पिछले 25 वर्षों से शहरी योजनाएं और डिज़ाइन बनाने, उनमें लचीलापन और टिकाऊपन लाने, तकनीक के इस्तेमाल से स्मार्ट सिटी बनाने की जो चर्चाएं दुनिया भर में चल रही थीं, उनका खोखलापन भी इस महामारी ने बेपर्दा कर दिया है.

वर्ष 2021 में शहरों को लेकर होने वाली परिचर्चाओं में इस महामारी से न बच पाने के दुष्प्रभावों और इससे सबसे बुरी तरह प्रभावित लोगों को शामिल किया जाना चाहिए. इनमें से कई कहानियों को मीडिया और आम नागरिकों ने अपने अपने तरीक़े से दर्ज किया है. लेकिन, बाक़ी क़िस्से निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच की खाइयों में समा गए. लेकिन, अब ऐसे क़िस्सों को बयान करने से आगे बढ़ना होगा. ये घटनाएं हमें कुछ सवाल उठाने के लिए बाध्य करती हैं कि आख़िर ये गड़बड़ियां किसकी ग़लती का नतीजा हैं. इसके बाद कुछ और सवाल भी उठते हैं कि शहरों की योजनाएं कौन बनाता है? किसके लिए बनाता है? ये योजनाएं कैसे बनाई जाती हैं? और, ऐसी कौन सी नीतियां हैं जिनके कारण आज शहर,  संकट के दौरान इनमें रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए नर्क सरीख़े कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गए. तो, क्या हमारे शहरों ने हमें धोखा दे दिया है और क्या शहरी नीति निर्माण पूरी तरह से असफल रहा है?

आधी से ज़्यादा आबादी शहरी बस्तियों में

अगर इन सवालों के जवाब में कोई हिचकिचाते हुए भी हां में सिर हिलाता है तो ये बात साफ़ हो जानी चाहिए कि पिछले सौ वर्षों से भी ज़्यादा समय से शहरी नीति निर्माण को निर्देशित करने वाले तत्वों को नए सिरे से निर्धारित करने की ज़रूरत है. ये वो तत्व हैं जो कम से कम बीसवीं सदी की शुरुआत से पूरी दुनिया में अपनाए जाते रहे हैं. हमें जिन तीन प्रमुख बातों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है, वो इस तरह हैं: a) शहर जिनकी परिकल्पना और निर्माण नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के आर्थिक केंद्रों के तौर पर की गई, b) नीति निर्माण जो ज़्यादातर स्थायी-तकनीकी-लचीलेपन के आयाम पर ज़ोर देते हैं, c) दिमाग़ को हैरान कर देने वाले वो मंच जो दुनिया के तमाम शहरों में रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने में असफल रहे.

ऐसा क्यों है कि असमानता-जीवन के लिए ज़रूरी सेवाओं, अवसरों और संपत्ति के मामले में शर्मसार करने वाली असमानता को शहरी विकास का अटूट अंग मान लिया गया है? अगर करोड़ों लोग विकास की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं, तो क्या इसे वाक़ई विकास कहा भी जा सकता है?

इनकी संख्या हैरान करने वाली है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, वर्ष 2018 में दुनिया की 55.3 प्रतिशत आबादी शहरी बस्तियों में रह रही थी; वर्ष 2030 में दुनिया की कुल आबादी में से 60 प्रतिशत के शहरों में रहने का अनुमान लगाया जा रहा है. दुनिया भर के शहरों में रहने वाला हर तीसरा इंसान पांच लाख से ज़्यादा आबादी वाले शहरों में रह रहा होगा. इनमें से 28 प्रतिशत लोग दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में रह रहे होंगे. तो, संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि शहरों में रहने वाली कुल जनसंख्या के 9 प्रतिशत या 75.2 करोड़ लोग, दस लाख से अधिक आबादी वाले दुनिया के बड़े शहरों में ठुंस कर रहने को मजबूर होंगे.

ऐसे में केवल परिचर्चा के लिए नए मंच गठित करने से काम नहीं चलने वाला. वैसे भी शहरी मामलों पर चर्चा के लिए वैश्विक नीतिगत संस्थानों और थिंक टैंक की कोई कमी नहीं है. ऐसे में ज़रूरी ये है कि इनसे सख़्त सवाल किए जाएं. उन्हें पुनर्विचार के लिए मजबूर किया जाए. ऐसे मंचों की ग़लतियों को ज़ोर-शोर से उठाना ज़रूरी है. उन्हें परिचर्चा के नए तरीक़े अपनाने के लिए बाध्य करना भी आवश्यक है, जिससे कि शहरों के निर्माण और उनके स्थायी विकास के लिए नई दृष्टि अपनाई जा सके. आज आवश्यक ये है कि शहरों के निर्माण की प्रक्रिया में निजी हितों और मुनाफ़ा कमाने की सोच से ऊपर उठा जाए. आख़िर शहरों के नीति निर्माण के मंचों के केंद्र में समानता और मानवता के विचारों को क्यों नहीं लाया जाता? ऐसा क्यों है कि असमानता-जीवन के लिए ज़रूरी सेवाओं, अवसरों और संपत्ति के मामले में शर्मसार करने वाली असमानता को शहरी विकास का अटूट अंग मान लिया गया है? अगर करोड़ों लोग विकास की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं, तो क्या इसे वाक़ई विकास कहा भी जा सकता है?

विकसित देश हों या विकासशील देश, अगर शहरी योजना निर्माण के मौजूदा मंच  स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, ज़मीन के मसले, बुनियादी ढांचे, विरासत के संरक्षण, ग़रीबी, जलवायु परिवर्तन और स्थायी विकास जैसे मसलों को अपने में समाहित करते हैं, तो शहरों के वैश्विक नीति निर्माण के नए मंचों की स्थापना से कोई ख़ास लाभ नहीं होने वाला है. शहरी योजना निर्माण के मौजूदा मंच संयुक्त राष्ट्र, प्रभावशाली अमीरों के दान से चलने वाले संगठन, निजी संस्थान, शहरों पर केंद्रित विश्वविद्यालय और स्कूल, विशेषज्ञता वाले और ग़ैर सरकारी संस्थान और अन्य व्यापक प्रभाव रखने वाले संस्थान पूरी दुनिया में हैं. अगर हम इनमें से कुछ के नाम का ज़िक्र करते हैं, तो उससे कोई ख़ास अर्थ नहीं निकलेगा. अगर ऐसे संस्थानों के ज़रिए, शहरी नीति और योजना के निर्माण ने शहरों को असमान, न चल सकने वाले और न रहने लायक़ ठिकानों में तब्दील कर दिया है, तो क्या दुनिया को वाक़ई, ईमानदारी से किसी नए वैश्विक मंच की ज़रूरत है?

अब समय आ गया है कि शहरों में ग़रीबी की समस्या को एक महामारी की हक़ीक़त के रूप मे देखा जाए, बल्कि हमें शहरों में बढ़ती ग़ुरबत को शहरों के वैश्विक नीति निर्माण का नतीजा मानना चाहिए. अब हमें शहरों के ग़रीबों के लिए आवाज़ उठानी होगी. ये ऐसा वर्ग है, जिसके बारे में विश्व बैंक का आकलन है कि इसकी तादाद कोविड-19 के बाद और बढ़ेगी. 

बेहतर तो यही होगा कि शहरी योजना निर्माण के कुछ मौजूदा मंचों को ही नए सिरे से ढालकर और नए मक़सदों के साथ काम करने के लिए तैयार किया जाए, जिससे कि वो अपने घिसे पिटे फ्रेमवर्क के दायरे और थकाऊ आयामों से बाहर निकलकर अपने शहरों को उन बहुसंख्यक लोगों के लिए टिकाऊ और समावेशी बना सकें, जो वहां अभी रह रहे हैं. शहर और शहरों का निर्माण अधिक भागीदारी वाला लोकतंत्र बनाया जाना चाहिए न कि कम. शहरी नीतियां बंद दरवाज़ों के भीतर और ख़ुद को मसीहा समझने वाले लोगों द्वारा नहीं बनाई जानी चाहिए; शहरी नीतियों का निर्माण भागीदारी वाला होना चाहिए, बल्कि इसमें सबसे निचले तबक़े को हिस्सेदार बनाना चाहिए. ये नीतियां उनसे सलाह-मशविरों पर आधारित होनी चाहिए, जो सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं, और ये स्थानीय या क्षेत्रीय ज़रूरतों पर आधारित होना चाहिए. ये मान लेना बचकानी सोच पालने जैसा होगा कि कोई नया मंच चमत्कारिक तरीक़े से हमें इस दिशा में ले जाएगा. बेहतर यही होगा कि मौजूदा मंचों को ही नए सिरे से ढाला जाए, जिससे उनमें भागीदारी बढ़े, वो पहले से अधिक लोकतांत्रिक और समावेशी हों.

जिस तरह की परिचर्चाएं ये मंच आयोजित करते हैं और जैसे निष्कर्ष निकालते हैं, उससे ये बात अब सिर्फ़ मंचों या शहरीवाद के जुमलों की नहीं रह जाती. ये मामला राजनीति का है और किसी भी मंच के विज़न का है-फिर वो मौजूदा मंच हों या कोई नया-अब उन्हें करोड़ों बाशिदों के लिए शहरों को ज़्यादा समावेशी और टिकाऊ बनाना होगा. शहरों की नए सिरे से परिकल्पना करने की ज़रूरत है. ये परिकल्पना ऐसी होनी चाहिए, जो बंद दरवाज़ों के भीतर रहने वाले समुदायों और तरक़्क़ी वाले ऐसे द्वीपों के परे होनी चाहिए, जो शहरों के बिखरते बुनियादी ढांचे और भयंकर ग़रीबी और गंदगी वाली बस्तियों से गुज़रने वाली सड़कों के ज़रिए आपस में जुड़े रहते हैं. बात अब शहरों को बाज़ार, पूंजी व श्रम के आदान-प्रदान, बैंकिंग और परिष्कृत वित्तीय व्यवस्थाओं के केंद्र समझने से आगे बढ़ने की है.

वैश्विक शहर की परिकल्पना

शहरी विकास की विचारक, सस्किया सैसेन ने 1991 के अपने अध्ययन में एक ऐसे वैश्विक शहर की परिकल्पना की है, जो आपस में जुड़े सूचना और धन के लेन-देन के केंद्र हैं, जो देशों की सीमाओं से परे हैं. इससे हमारे दौर के शहर 19वीं सदी के शहरों से नाटकीय रूप से अलग होंगे. हालांकि, इस नज़रिए की कमी ये है कि इससे सार्वजनिक स्थान ख़त्म हो जाएंगे, ग़रीबी के गढ़ विकसित हो जाएंगे और बहुत अधिक असमानता जैसी समस्याएं भी होंगी.

अब समय आ गया है कि शहरों में ग़रीबी की समस्या को एक महामारी की हक़ीक़त के रूप मे देखा जाए, बल्कि हमें शहरों में बढ़ती ग़ुरबत को शहरों के वैश्विक नीति निर्माण का नतीजा मानना चाहिए. अब हमें शहरों के ग़रीबों के लिए आवाज़ उठानी होगी. ये ऐसा वर्ग है, जिसके बारे में विश्व बैंक का आकलन है कि इसकी तादाद कोविड-19 के बाद और बढ़ेगी. अब शहरों को हमें इस नज़रिए से देखना होगा कि भले ही ये करोड़ों लोगों के लिए रोज़गार के अवसर मुहैया कराते हैं. लेकिन, ये शहर घटिया और भीड़ भरी आवासीय व्यवस्था के जनक भी हैं, जहां साफ पानी और सैनिटेशन की सुविधाओं की कमी है. शिक्षा और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है. जहां आपदा और जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाओं का दुष्प्रभाव अधिक देखने को मिलता है. शहरों के सबसे ग़रीब बच्चों के अपना पांचवां जन्मदिन मनाने से पहले मरने की आशंका, ज़्यादातर ग़रीब देशों में गांवों के सबसे ग़रीब बच्चों से अधिक होती है. ये बात हमें यूनीसेफ ने वर्ष 2018 में बताई थी.

शहर केवल वाणिज्य और निजी कारोबार के केंद्रों से कहीं आगे बढ़कर हैं. ख़ास तौर से वर्ष 2021 में, नीति निर्माण की परिचर्चाओं की शुरुआत इसी बिंदु से होनी चाहिए. अनुमान लगाया जा रहा है कि इस दशक के अंत तक दिल्ली दुनिया का सबसे बड़ा शहर होगा और मुंबई दुनिया का छठवां सबसे बड़ा शहर होगा. अब सवाल ये नहीं है कि वो कितने अमीर शहर होंगे. बल्कि, अब सवाल ये पूछा जाना चाहिए कि अब इन शहरों का विकास किस तरह से किया जाए कि वो सामाजिक रूप से समावेशी, समानता वाले और ऊर्जावान शहर बनें.

शहर के विकास का लक्ष्य क्या है?

Solution : शहर के विकास के निम्नलिखित लक्ष्य होने चाहिए <br> (i) सड़कों व परिवहन व्यवस्था का उचित प्रबंध, (ii) जल की उत्तम व्यवस्था, (iii) बिजली की व्यवस्था, (iv) शिक्षा व्यवस्था, (v) सफाई की व्यवस्था ।

गांवों के विकास का लक्ष्य क्या क्या होना चाहिए?

मूलभूत विकास की ओर बढ़ रहे कदम लेकिन इस चुनौती को स्वीकार करते हुए केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने कई लक्ष्य निर्धारित किए हैं। 2019 तक एक करोड़ पक्के मकान, सभी 5 लाख 93 हजार 7सौ 31 गांवों को पक्की सड़कों से जोड़ना। 2018 तक सभी गांवों में बिजली की व्यवस्था करना। 2022 तक सभी बेघरों को रहने के लिए आवास मुहैया करना।

विकास की परिभाषा क्या है?

'विकास' एक निरंतर गतिशील प्रक्रिया है, जो जीवन के हर क्षेत्र में उच्चतर स्थिति को प्राप्त करने का लक्ष्य रखती है। विकास शब्द का अर्थ संकुचित न होकर व्यापक है। साधारण शब्दों में विकास का अर्थ प्रगति, उन्नति, अच्छा जीवन , कल्याण आदि है। विकास शब्द का संबंध समाज के प्रत्येक पहलू से है।