शैक्षिक अवसरों की समानता में शिक्षक की क्या भूमिका है? - shaikshik avasaron kee samaanata mein shikshak kee kya bhoomika hai?

कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66) ने शिक्षा के समान अवसर के महत्त्व को दर्शाते हुए अपने प्रतिवेदन में यह व्यक्त किया कि “प्रत्येक समाज, जो सामाजिक न्याय को मूल्य देता है तथा सामान्य लोगों में सुधार लाने को तत्पर रहता है और सभी उपलब्ध गुणों का इन लोगों में प्रस्फुटन करना चाहता है, उसे जनसंख्या के प्रत्येक वर्ग के लिये अवसरों की समानता को सुनिश्चित करना चाहिये। यही एक समानता प्रधान तथा मानवीय समाज के निर्माण की गारण्टी होगी, जिसमें कमजोरों का शोषण कम से कम होगा।” कुछ शैक्षिक समाजशास्त्रियों ने ‘शिक्षा के समान अवसर को अग्र प्रकार परिभाषित किया है-

(1) लुइस क्रिसबर्ग के अनुसार, “समान गुणवत्ता वाले स्कूलों की समान रूप से सभी को उपलब्धि ‘समान अवसर’ का एक महत्त्वपूर्ण घटक है।

(2) एनिस ने कहा है कि “शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है सभी को शिक्षा के लिये समान मात्रा में अवसर उपलब्ध होना।”

(3) प्लेटो का विचार था कि, “प्रत्येक व्यक्ति को उसकी क्षमता के अनुसार शिक्षा मिलनी चाहिये।”

शैक्षिक अवसरों की समानता की आवश्यकता (Need of equality of educational opportunities)

शैक्षिक अवसरों की समानता की आवश्यकता के लिये निम्नलिखित बिन्दु आवश्यक हैं-

1. एकीकृत समाज का निर्माण करने के लिये- वर्तमान समय में साम्प्रदायिक और जातीय संघर्षों ने देश की एकता और सामाजिक प्रगति-दोनों के लिये खतरा पैदा कर दिया है। देश के लोगों में स्थानीय, प्रादेशिक, भाषायी तथा अपने राज्य के प्रति आसक्ति में वृद्धि हुई है। इस कारण लोगों के हृदय में सम्पूर्ण भारत-भूमि का चित्र नहीं आता। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए एकीकृत समाज के निर्माण में शिक्षा अवसरों की समानता की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

2. लोकतन्त्र और स्वतन्त्रता को सुरक्षित करने के लिये- लोकतन्त्र को एक शासन तथा जीवन-शैली के रूप को सुदृढ़ बनाने के लिये, प्रत्येक नागरिक को शिक्षित बनाना नितान्त आवश्यक है। इसलिये शिक्षा के अवसरों की समानता लाना अनिवार्य है। शिक्षित नागरिक स्वतन्त्रता की रक्षा भली-भाँति कर सकते हैं।

3. समतामूलक और मानवतायुक्त समाज की स्थापना के लिये- सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्रदान करने के लिये समतामूलक समाज की स्थापना अति आवश्यक है। शिक्षा परिवर्तन का सशक्त साधन है, जो सुनिश्चित करेगा कि लोग जाति, सम्प्रदाय, लिंग, भाषा, आर्थिक पिछड़ेपन आदि के कारण से वंचित न रह जायें। अंतएव सामाजिक व्यवस्था को स्थिर रखने के लिये शिक्षा के अवसरों की समानता होना नितान्त रूप से अनिवार्य है।

4. सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि करने के लिये- समाज को गतिशील बनाने के लिये यह आवश्यक है कि इसकी समस्त विषमताओं को कम किया जाये। शिक्षा के अवसरों की समानता से समाज शिक्षित होगा और उसका ध्यान सामाजिक विषमताओं की ओर जायेगा।

5. व्यक्तियों में निहित प्रतिभा और योग्यता की पहचान के लिये- वर्तमान समय में राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शिक्षित और योग्यतायुक्त के अभाव को अनुभव किया जा रहा है। सामान्य बुद्धि के लोग समाज में बराबर बँटे होते हैं। इनमें से प्रतिभाओं को खोजना और पहचानना होता है। खोज और पहचान का यह कार्य शिक्षा के अवसरों की समानता से सम्पन्न हो सकता है।

6. राष्ट्रीय विकास के लिये- यदि हम भारत राष्ट्र को प्रगति के पथ पर अग्रसर करना चाहते हैं तो अधिक से अधिक व्यक्तियों को शिक्षा की सुविधा देना आवश्यक है। शिक्षा आयोग ने कहा है-“हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थियों की योग्यता और संख्या पर ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के उस महत्त्वपूर्ण कार्य की सफलता निर्भर करती है, जिसका प्रमुख प्रयोजन हमारे रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाना है।” इस दृष्टि से शिक्षा अवसरों की समानता अति आवश्यक है।

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अनुसार, “शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक उद्देश्य शैक्षिक अवसरों की समानता प्रदान करना है एवं पिछड़े अथवा अपर्याप्त सुविधाएँ प्राप्त वर्ग या व्यक्तियों को अपने विकास के लिए शिक्षा प्राप्त करने के योग्य बनाना है।”

शैक्षिक अवसर की समानता से तात्पर्य, “समाज के प्रत्येक सदस्य को लिंग, जाति, धर्म, स्थान तथा भाषा आदि की भिन्नता होते हुए भी शिक्षा प्राप्त करने के अपनी योग्यता के आधार पर समान अवसर प्राप्त होंगे।” दूसरे शब्दों में, शैक्षिक अवसरों की समानता से आशयसमाज के प्रत्येक सदस्य को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा प्राप्त करने के अवसर समान रूप से प्राप्त होंगे। ताकि सभी बालक अपनी योग्यता, क्षमता, रुचि एवं आकांक्षओं के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने से वंचित न रह सके। अतः शिक्षा के अवसर की समानता प्रजातान्त्रिक देश की अनिवार्य आवश्यकता है।

शिक्षा के अवसर की असमानता के कारण– निम्नलिखित हैं—

(1) शिक्षा सुविधाओं का अभाव– भारत के विभिन्न राज्यों में शिक्षा का प्रसार समान रूप से नहीं है और न अभी हो रहा है। निर्जन एवं पहाड़ी क्षेत्रों में मीलों तक विद्यालय नहीं हैं। फलत: उस क्षेत्र के निवासियों को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त नहीं होते हैं ।

(2) निर्धनता– भारत की अधिकांश जनता “गरीबी रेखा” के स्तर से नीचे है। उन्हें रोटी-रोजी जुटाने से ही फुरसत नहीं मिलती। छोटेछोटे मासूम बच्चे होटलों में नौकरी करते, रेल में सामान बेचते, बूटपालिश करते शहरों में देखे जा सकते हैं। गाँवों में उन्हें पशु चराते, खेत में मजदूरी करते या कार्य करते हुए देखा जा सकता है। एक ओर गगन चुम्बी अट्टालिकाएँ हैं, ऐश्वर्य के शाही ठाठ उपलब्ध हैं तथा दूसरी ओर ऊपर वर्णित गरीबी । भला ऐसी परिस्थितियों में शिक्षा के समान अवसरों की कल्पना कैसे की जा सकती है ।

(3) शिक्षा संस्थाओं के स्तर में अन्तर– आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न कुछ शिक्षा संस्थाओं में बालकों को उत्तम कोटि का वातावरण, शिक्षा व्यवस्था, पाठ्य सहगामी क्रियाएँ यदि क्रियाकलापों के अच्छे अवसर प्राप्त होते हैं जैसे—देहरादून स्कूल, राजस्थान में विद्याभवन उदयपुर आदि । जबकि अधिकांश विद्यालय आकाश के नीचे किसी वृक्ष की छाया में लगते हैं जहाँ पर शिक्षा सुविधा की बात तो दूर, पर्याप्त मात्रा में शिक्षक भी उपलब्ध नहीं होते हैं ।

(4) बालक-बालिकाओं में भेद– भारतीय समाज में बालक’ बालिकाओं में अन्तर समझा जाता है। बालिका को परिवार में हेय दृष्टि से देखा जाता है। बालक की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाता है और बालिका की उपेक्षा की जाती है। संविधान ने नारी-पुरुष को समानाधिकार दिया है किन्तु क्या समाज ने उसे स्वीकार किया है ? फलतः बालकों की शैक्षिक समानता के अवसर की बात ढोंग है।

(5) शैक्षिक भिन्नता– एक ओर सैनिक एवं पब्लिक स्कूल हैं जहाँ सम्पन्न वर्ग के बालक ही अध्ययन कर सकते हैं जो समस्त प्रकार की सामग्री से परिपूर्ण हैं। दूसरी ओर एक नीम के वृक्ष के नीचे लगी पाठशाला, जहाँ शिक्षक को बैठने हेतु आसन की व्यवस्था भी नहीं है। यही नहीं, इनके पाठ्यक्रम, शिक्षण व्यवस्था आदि में जमीन आसमान का अन्तर है ।

(6) पारिवारिक वातावरण– भारत सदियों से गुलाम रहा है। सामाजिक वर्ग भेद एवं जाति व्यवस्था ने समाज में छुआ-छूत को जन्म दिया । फलतः प्रत्येक जाति की अलग-अलग सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवस्था बनी । वर्तमान में भारतीय पारिवारिक वातावरण में इतनी भिन्नता है कि जिसे शब्दों में नहीं लिखा जा सकता । धनी एवं सम्पन्न वर्ग के बच्चों को समस्त प्रकार की शैक्षिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं, दूसरी ओर एक झोपड़ी में सारा परिवार रहता है। अतः शिक्षा के समान अवसर की बात दिवा- स्वप्न है।

शैक्षिक अवसरों की समानता की क्या आवश्यकता है?

इसलिए शैक्षिक अवसरो की समानता की आवश्यकता होती है, ताकि हर हर जाति वर्ग के लोगों को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त हों और वह शिक्षित होकर अपने समुदाय जाति और देश के विकास में सहयोग दे सके।

शिक्षा के अवसरों की समानता का क्या अर्थ है शैक्षिक अवसरों के महत्व को प्रतिपादित कीजिए?

शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है राज्य द्वारा देश के सभी बच्चों के लिए स्थान जाति, धर्म अथवा लिंग आदि किसी भी आधार पर भेद किए बिना एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क रूप से सुलभ कराना और उनकी इस शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों का निवारण करना।

शिक्षा में समानता और समानता से आप क्या समझते हैं?

शिक्षा में समानता का अर्थ है कि सभी विद्यार्थियों को समान पहुँच तथा जाति, वर्ग, प्रदेश, धर्म, लिंग आदि के भेदभाव के बिना समान अवसरों की प्राप्ति हो । निष्कर्षतः समान अवसर उचित तथा पारदर्शी होना, स्वीकार्य भाषा का उपयोग, तथा लोगों का आदर करना है। यह दृष्टिकोण, अभियान तथा मूल्यों का आधार होना चाहिए।

शैक्षिक अवसरों की समानता के लिए क्या उपाय किए गए हैं?

शैक्षिक अवसरों की समानता के उपाय.
यथासंभव छात्रों के घर के पास शिक्षा संस्थायें स्थापित की जानी चाहिए।.
छात्रावास सुविधाओं को बढ़ाया जाना चाहिए।.
छात्रों को यातायात साधन उपलब्ध कराया जाना चाहिए।.
निर्धन छात्रों को छात्रवृतियाँ अधिक संख्या में दी जानी चाहिए।.
शैक्षिक विकास की स्पष्ट व समान नीति तैयार की जानी चाहिए।.