अश्क का पूरा नाम क्या है? - ashk ka poora naam kya hai?

उपेन्द्रनाथ अश्क जी का संक्षिप्त जीवनी- उपेन्द्रनाथ अश्क जी का जन्म पंजाब के जालंधर नगर में 14 जनवरी 1910 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने लाहौर से कानून की परीक्षा उतीर्ण किया। बाद में वे अध्यापन का कार्य किए। अश्क जी ने अपना साहित्यिक लेखन उर्दू में शुरू किया था किन्तु बाद में वे हिन्दी लेखक के रूप में जाने गए। 1932 ई० में मुंशी प्रेमचंद की सलाह पर उन्होंने हिन्दी में लिखना आरम्भ किया। 1933 में अश्क जी का दूसरा कहानी संग्रह ‘औरत और फितरत’ प्रकाशित हुआ जिसकी भूमिका मुंशी प्रेमचंद जी ने लिखा था। उनका पहला काव्य संग्रह ‘प्रातः प्रदीप’ 1938 में प्रकाशित हुआ बम्बई में रहते हुए उन्होंने फिल्मों की कई कहानियाँ, पटकथाएँ, सम्वाद और गीत लिखे, उन्होंने तीन फिल्मों में काम भी किया किन्तु चमक-दमक वाली जिंदगी उन्हें रास नहीं आई।

कृतियाँ:

उपन्यास: सितारों के खेल (1940), गिरती दीवारें (1947), बड़ी-बड़ी आँखें (1955), पत्थर अल पत्थर (1957), गर्म राख (1957), शहर में घूमता आइना (1963), एक नन्हीं किंदील (1969), बांधों न नाव इस ठाँव (1974), निमिषा (1980)   

कहानी संग्रह: अंकुर (1949), नासूर (1949), डाची (1949), पिंजरा (1949), गोखरू (1949), छींटे (1949), सत्तर श्रेष्ठ कहानियाँ (1958), पलंग (1961), आकाशचारी (1966), मुक्त, देशभक्त, कांगड़ा का तेली, टेबुललैंड, दाई की शाम के गीत, काले साहब, पिंजड़ा, अआड (?)

नाटक: जय-पराजय (1930) , स्वर्ग की झलक (1938) छठा बेटा (1940), अलग-अलग रस्ते (1943), कैद (1945), उड़ान (1946), तकल्लुफ (1948), पैंतरे (1952), अंजो दीदी (1955), अंधी गली (1955), बड़े खिलाड़ी (1967), भँवर आदि। 

एकांकी संग्रह: देवताओं की छाया में चरवाहे, तूफ़ान से पहले, कैद और उड़ान, अधिकार का रक्षक, स्वर्ग की झलक, साहब को जुकाम है, जोंक, पर्दा उठाओं पर्दा गिराओं, सुखी डाली, भँवर, लक्ष्मी का स्वागत, पापी, बतासिया जीवन साथी, आँधी, अंधी गली, मुखड़ा बदल गया, चरवाहे। 

काव्य: एक दिन आकाश ने कहा, प्रातः प्रदीप, दीप जलेगा, बरगद की बेटी, उर्म्मिया

संस्मरण: मंटो मेरा दुश्मन, फ़िल्मी जीवन की झलकियाँ, ज्यादा अपनी कम पराई (1959)

आलोचना: अन्वेषण की सहयात्रा, हिंदी कहानी: एक अतरंग परिचय

आत्मकथाएँ: रेखाएँ और चित्र (1955), मंटो मेरा दुश्मन (1956)

भेंटवार्ता (साक्षात्कार): कहानी के इर्दगिर्द

अंजो दीदी नाटक का मुख्य बिन्दु:

  • अंजो दीदी नाटक का प्रकाशन 1955 में हुआ था। इस नाटक का मंचन 30 जनवरी, 1954 को बम्बई हिंदी विद्यार्थी मंडल के द्वारा ‘सेंट जेवियर कॉलेज’ में हुआ था (स्रोत- नीलाभ प्रकाशन)
  • यह दो (2) अंकों का नाटक है। दोनों अंको में तीन-तीन दृश्य हैं।
  • पहला अंक का स्थान: दिल्ली में अंजली दीदी के बंगले की बैठक व खाने का कमरा समय 1933, गर्मियों का एक दिन है।
  • दूसरे अंक का स्थान: दिल्ली में अंजली दीदी का वही बैठक का स्थान व खाने का कमरा 20 वर्ष बाद 1953 सर्दियों का एक दिन है।

अंजो दीदी नाटक का उद्देश्य:

  • ‘अंजो दीदी’ यह नायिका प्रधान नाटक है। अश्क जी की सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रौढ़ नाट्यकृति है।
  • यह नाटक पारिवारिक और मनोवैज्ञानिक हैं। इसमें यांत्रिक ढाँचे में ढालने की प्रवृति है।

नारी की कठोर पारिवारिक नियंत्रण से परिवार विघटन की समस्या।

पात्र परिचय:

अंजली / अंजो दीदी (प्रमुख पात्र, लगभग 30 वर्ष)

श्रीपात: अंजो दीदी का भाई, 27, 28 वर्ष

इन्द्रनारायण: अंजो दीदी का पति, वकील, 38, 40 वर्ष

अनिमा: अंजो की सहेली

नीरज: अंजो का पुत्र, 11 वर्ष

मुन्नी: नौकरानी, 25 वर्ष

राधू: नौकर

दूसरा अंक का पात्र: बीस वर्ष बाद

ओमी: नीरज की पत्नी (अंजली की बहू)

अन्नो: नीरज की मौसी

नजीर: नीरज का दोस्त

श्रीपद: नीरज का मामा

मुन्नी, चपरासी. इन्द्रनारायण. नीरज: (उम्र 31 वर्ष)

नीलम: नीरज क बेटा 11 वर्ष 

अंजो दीदी नाटक का मुख्य कथानक:

अंजो दीदी नाटक के कथानक का अभिजात्य वर्ग के परिवार से संबंध है। नाटक की नायिका अंजो (अंजली) है जिनको नाना जी ने गोद लिया था। उन्हें उनके नाना जी से ही जीवन को नियंत्रित और अनुशासित रखने के संस्कार मिले थे। ये संस्कार उनपर हमेशा हावी रहते थे। उनके चेहरे पर हमेशा अखण्ड अहम् झलकता रहता था। उसने अपने जीवन के साथ परिवार के सभी सदस्यों यहाँ तक नौकरों के जीवन को भी अनुशासित कर रखा था। समय की पावंदी की सनक अंजली पर इस कदर सवार थी कि मनुष्य की सहज जिंदगी को घड़ी की तरह नियंत्रण बना देती थी।

नाटक डायनिंग कमरा से शुरू होता है। नाश्ते में देरी होने के कारण अंजो दीदी अपने काम करने वाली नौकरानी मुन्नी पर गुस्सा होती है। अंजो दीदी का कहना है कि जीवन एक महान गति  है; प्रातः एवं संध्या उसकी सुईयाँ हैं जो नियमबद्ध होकर एक दूसरे के पीछे घूमती रहती है।    

वह अपनी सहेली अनिमा से बात करते समय कहती है- “जिंदगी स्वयं एक महान घड़ी है। प्रातः-संध्या उसकी सुइयाँ हैं नियमबद्ध एक दूसरी के पीछे घूमती रहती है। मैं चाहती हूँ, मेरे घर भी घड़ी की तरह ही चले। हम सब उसके पुर्जे बन जाए और नियमपूर्वक अपना-अपना काम करते जाएँ।”

सुबह आठ बजे ही सबको नहा-धोकर नाश्ते के मेज पर उपस्थित हो जाना पड़ता था। उस समय तक नाश्ता नहीं पहुँचने पर मुन्नी को डांट पड़ती है। अहम् वादों व्यक्ति अपने विचारों और मान्यताओं को दूसरों पर थोपने का भरसक प्रयास करता है। इन्द्रनारायण अंजली  के पति हैं। विवाह के पहले वे मनमौजी, फक्कड़ और लापरवाह थे। उनका व्यक्तित्व इतना सशक्त नहीं था। किन्तु उनपर भी अंजली का अहम् वादी व्यक्तित्व नियंत्रण एवं अनुशासन का कठोर कुचक्र हावी हो जाता है। अनिमा जब कहती है, कि जीजाजी को तो बड़ा बुरा लगता होगा इस तरह का बंधन?

तब वह कहती है- “बुरा! बड़े सिटपिटाये थे पहले-पहल, पर मैं इन्हें ले ही आयी अपने ढ़ंग पर। सच कहती हूँ। मुझे नीरज पर इतनी जान नहीं खपानी पड़ी, जितनी तुम्हारे जीजाजी पर। कोई भी तो अकल न थी। न सफाई का ख्याल, न समय का…जानती हो, कितनी माथा-पच्ची करनी पड़ी है इसके साथ? कितनी-भूख हड़ताले की है? कितनी बार रूठकर पीहर जा-जा बैठी हूँ।” इन्द्रनारायण को नहीं चाहते हुए भी अंजो के अनुशासन और व्यवस्था को ओढ़कर जीना पड़ता है। वे चाहकर भी चाट, पानी के बताशे नहीं खा सकते थे। तुरंत प्रेस किया हुआ कोट, पतलून, हैट, टाई वैगेरह धारण करना पड़ता था।

अंजो का भाई श्रीपद बिल्कुल विपरीत स्वभाव का है। वह मनमौजी, फक्कड़ घुमक्कड़ है। उसने अपनी जिंदगी में कोई भी कड़ा नियम नहीं पाला है। जब जो जी चाहे कर के खुश रहता है। वह अंजो के घर आकर उसके सभी व्यवस्था तंत्र को हिलाकर रख देता है। श्रीपद अपने  भांजे से पूछता है कि तू क्या बनना चाहता है? तब वह कहता है, मैं क्रिकेट का कप्तान बनना चाहता हूँ। अंजो द्वारा समय के अनुसार नीरज को सिर्फ दो घंटे खेलने के लिए मिलता है। वह अपने बेटे से कहती है। क्रिकेट बड़ा निकम्मा खेल है। चोट लग जाती है। वह अपने बेटे को डिप्टी कमिश्नर बनाना चाहती है।

      इस प्रकार अंजली अपनी इच्छाओं को अपने बेटे पर लादकर उसकी इच्छाओं का गला घोट देती है। यही मानसिकता आज के जनमानस में भी देखने को मिलता है। हर माँ-बाप अपने बेटा-बेटी को डॉक्टर, इंजीनियर, आई०ए०एस० और आई०पी०एस० बनाना चाहते हैं। बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षाओं को थोपकर उनके इच्छाओं और शौक को दफ़न कर दिया जाता है। किसी भी काम में सफलता तभी मिलती है, जब उसे मन से किया जाए। इसके विपरीत बिना मन से किया गया काम ‘न घर का होता है न घाट का’

मनोविज्ञान के अनुसार इच्छाओं का कभी भी दमन नहीं करना चाहिए, परन्तु इस अंजो के घर में तो किसी के इच्छा को सम्मान ही नहीं किया जाता है। वह अपने घर वालों पर  अपनी पसंद, अपना विचार, अपनी आदतें थोपते चली जाती है। मनुष्य अपने जीवन को व्यवस्थित और सुचारू बनाने के लिए कुछ नियम बनाता है। परन्तु एक मनुष्य के द्वारा बनाया गया नियम हमेशा सभी के लिए उचित और फायेदेमंद नहीं हो सकता है, क्योकि हर मनुष्य का स्वभाव और प्रवृति अलग-अलग होता है। हर व्यक्ति अपने मन के अनुसार जीने की इच्छा रखता है। परन्तु कुछ लोग अपने ही नियमों और बंधनों के अनुसार सबको चलाना चाहते हैं। अंजो दीदी की तरह। इनके घर में नियम की पाबन्दियाँ अत्याचार की सीमा को पार कर जाती है। अंजली के पति इन्द्रनारायण के संवाद से स्पष्ट होता है- “और अंजो जैसे चलाती है, वैसे चलते जाते है, का अंजो! दिया कभी शिकायत का मौका हमने तुम्हें? (हँसते हैं) दिन में तीन बार नहाते हैं, चार-चार बार हाथ-पाँव धोते हैं, कम से कम चार बार खाते हैं और पाँच बार कपड़े बदलते हैं। सफाई वक्त की पाबंदी, सभ्य-समाज के तौर-तरीके-सबका पूरा-पूरा ख्याल रखते हैं। (हँसते हैं) अंजो के साथ शादी करने के बाद पता लगा कि हम तो अछूत थे, इसने आकर हमारा उद्धार कर दिया। इन्द्रनारायण के इस संवाद से उनकी विवशता स्पष्ट दिखाई देती है क्योकि वे फक्कड़, मनमौजी और शिष्टाचार के अत्याचार रूपी शिकंजे में फँसे हुए मर्माहत थे। स्प्रिंग जितना अधिक दबाया जाता है वह उतना ही दबती जाती है लेकिन थोड़ा सा भी शिथिल पड़ने पर वह दोगुना ताकत से उछल जाता है। वैसे ही अंजो ने अपने पति को इतना दबा दिया था कि वे अन्दर से विवश और व्याकुल थे। एक दिन इन्द्रनारायण का साला (श्रीपद) उन्हें दिलरुबा होटल ले जाता है और वहाँ पर उन्हें शराब पिलाता है। इस स्थिति में जब वे घर पहुँचे तब अंजो के अहम् और उसके व्यवस्था-तंत्र पर आसमान टूट पड़ता दिखाई देता है। अब इन्द्रनारायण जी का शराब पीकर आना रोज की बात हो जाती है, जो अंजू के लिए सहन करना असहनीय था। यह देखकर वह जहर खाकर आत्महत्या कर लेती है लेकिन उससे पहले वह बहु के रूप में ओमी को पसंद कर घर लेकर आ गई थी। अब बहु भी उससे सीखकर उसी रास्ते पर चलने लगी थी। अंजो के मृत्यु के बाद भी उसका कायदा-कानून बरकरार था। अंजो के मृत्यु के बाद इन्द्रनारायण शराब पीना छोड़ देते हैं और अंजो जैसा चाहती थी वैसा ही जीवन जीने लगते हैं।

उपेन्द्रनाथ अश्क की एकांकी का नाम क्या है?

प्रसिद्ध एकांकी– 'पर्दा उठाओ : पर्दा गिराओं', 'चरवाहे', 'तौलिए, 'चिलमन', 'कइसा साब : कइसी आया', 'मैमूना' 'मस्केबाजी का स्वर्ग', 'कस्बे का क्रिकेट', 'क्लब का उद्घाटन', 'सूखी डाली', 'चुम्बक', 'अधिकार का रक्षक', 'तूफान से पहले, 'लक्ष्मी का स्वागत', 'किसकी बात', 'पापी', 'दो कैप्टन', 'नानक इस संसार में'।

सम्राट अशोक का पूरा नाम क्या है?

उपेन्द्र नाथ अश्क (१९१०- १९ जनवरी १९९६) उर्दू एवं हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार तथा उपन्यासकार थे।

बड़े खिलाड़ी किसका नाटक है?

उपन्यास- गिरती दीवारे, गर्मराख, सितारों के खेल; नाटक- लौटता हुआ दिन, बड़े खिलाड़ी, जयपराजय; कहानी संग्रह- सत्तर श्रेष्ठ कहानियां, जुदाई की शाम के गीत, काले साहब, पिंजरा आदि।

उपेन्द्रनाथ अश्क का जन्म कब और कहां हुआ था?

14 दिसंबर 1910, जालंधर, भारतउपेन्द्रनाथ अश्क / जन्म की तारीख और समयnull