अष्टावक्र ने राजा जनक को क्या ज्ञान दिया? - ashtaavakr ne raaja janak ko kya gyaan diya?

राजा जनक को ‘ज्ञान’ देकर अष्टावक्रजी चले गए और उस ज्ञान को धारण कर राजा जनक ‘देही’ से ‘विदेही’ बन गए । राजा जनक और ऋषि अष्टावक्र के बीच का संवाद ‘अष्टावक्र गीता’ के नाम से जाना जाता है ।

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Archana Agarwal (अर्चना अग्रवाल)

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January 1, 2021

अष्टावक्र ने राजा जनक को क्या ज्ञान दिया? - ashtaavakr ne raaja janak ko kya gyaan diya?

राजा जनक स्वयं ज्ञानी थे; किन्तु उन्हें ज्ञान किसी गुरु से प्राप्त नहीं हुआ था । उनका मानना था कि जैसे ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता, उसी प्रकार सद्गुरु से सम्बन्ध हुए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है । गुरु इस भवसागर को पार कराने वाले नाविक व उनका ज्ञान नौका के समान है ।

अत: ‘ज्ञानी राजा’ जनक ने ‘ज्ञानी गुरु’ की खोज के लिए राज्य में डंका पिटवा दिया कि जो कोई मुझे ‘ज्ञान’ का उपदेश देगा, उसे मनमाना धन प्राप्त होगा और यदि वह मुझे ज्ञान का उपदेश न दे सकेगा तो उसे बंदी-गृह में रहना होगा । लेकिन उसे बंदी-गृह की यातना नहीं भुगतनी होगी; बल्कि सुख के सभी साधन भोगने होंगे । घोषणा सुन कर बहुत-से ज्ञानी राजा जनक की सभा में पहुंचे; परन्तु ‘सच्चा ज्ञान’ न दे सके और उन्हें बंदी-गृह में सुखोपभोग के लिए जाना पड़ा ।

एक बार ऋषिकुमार अष्टावक्र के पिता भी धन के लोभ में राजा जनक की सभा में पहुंचे; परन्तु उन्हें भी हार मान कर बंदी-गृह में बंद होना पड़ा । अष्टावक्र को जब यह बात पता चली तो वे राजा जनक की सभा में पहुंचे । राज-दरबार में दरबारी सुन्दर पोशाक व आभूषणों में सज-धज कर बैठे थे और राजा जनक राजसी ठाट-बाट से अपने सिंहासन पर विराजमान थे । ऋषिकुमार अष्टावक्र के अंग आठ स्थानों पर टेढ़े थे । 

अष्टावक्र ने राजा जनक को क्या ज्ञान दिया? - ashtaavakr ne raaja janak ko kya gyaan diya?

मनुष्य की यह दुर्बलता है कि वह ब्रह्मा के विधान में अपनी टांग अड़ाता है । अष्टावक्र के टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर सभासदों की हंसी से राजा जनक की सभा गूंजने लगी । जहां ‘ज्ञान’ की चर्चा के लिए सभा जुड़ी हो, वहां शरीर की बनावट देखकर हंसना मनुष्य की ‘मानवता’ नहीं; वरन् ‘दुर्बला’ कही जाएगी । अष्टावक्र ज्ञान की चर्चा कर विजय प्राप्त करने आए थे; इसलिए वे सभासदों के व्यवहार से विचलित नहीं हुए; क्योंकि ज्ञानियों के लिए मान-अपमान सब समान होता है । अष्टावक्र ने सभासदों की हंसी का उत्तर और अधिक ठहाकों की हंसी से दिया ।

अष्टावक्र को इतनी जोर से हंसते देखकर राजा जनक ने उनसे कहा–’ऋषिकुमार ! आप क्यों हंस रहे हैं ?’

अष्टावक्रजी ने कहा–’यह प्रश्न तो मुझे आपसे करना चाहिए; क्योंकि आप लोग मेरे दरबार में पहुंचते ही हंसे थे ।’

राजा जनक ने कहा–’आपके टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर हम लोगों को हंसी आ गई, आपको दु:ख नहीं मानना चाहिए; परन्तु आप क्यों इतनी जोर से हंसे ?’

अष्टावक्र ने कहा–’मुझे तो आप लोगों के आंतरिक शरीर को देख कर हंसी आई । इतने सुन्दर शरीरों के अंदर कितनी कलुषता भरी पड़ी है ? ज्ञानी राजा जनक जिनकी सभा में ‘ज्ञान’ की चर्चा होनी है, उनके सभासद तथा स्वयं वे भी शरीर के रंग, रूप व बनावट के प्रेमी हैं । उनके यहां ‘ज्ञान’ की नहीं, ‘नश्वर शरीर’ की महत्ता है ।‘

यह सुन कर दरबार में सभी स्तब्ध रह गए । 

रात्रि में अष्टावक्रजी को राजा जनक के अंत:पुर में ठहराया गया और खूब सत्कार किया गया । किंतु राजा जनक की आंखों में नींद कहां ? ऋषिकुमार अष्टावक्र की बातें उनके मस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर रही थीं और उन्हें बेचैन कर रही थीं ।

राजा जनक रात्रि में ही अष्टावक्रजी के पास जाकर बोले–’ऋषिकुमार ! मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि आप मुझे ‘सच्चा ज्ञान’ प्रदान कर सकते हैं ।’

अष्टावक्रजी ने कहा–’ज्ञान प्रदान करने के लिए मुझे गुरु दक्षिणा चाहिए ।’ 

राजा जनक ने कहा–’आप मेरा पूरा खजाना ले लीजिए; परन्तु मुझे ज्ञान प्रदान कीजिए ।’ 

अष्टावक्रजी ने कहा–’यह खजाना तो राज्य का है, इस पर आपका कोई हक नहीं है । मुझे तो अपना मन गुरु दक्षिणा में दीजिए ।’  

राजा जनक ऐसा करने को राजी हो गए । अष्टावक्रजी ने कहा–’मैं एक सप्ताह बाद आकर तुम्हें ‘ज्ञान’ प्रदान करुंगा; परन्तु यह याद रखना कि आपने अपना मन मुझे संकल्प कर दिया है ।’ 

इसके बाद अष्टावक्रजी अपने पिता को बंदी-गृह से छुड़ा कर घर पहुंचा आए । 

इधर राजा जनक की दशा बड़ी विचित्र हो गई । चलते-फिरते, खाते-सोते उन्हें यही ध्यान रहता कि उनके मन का संकल्प हो गया है । इसी चिन्ता में उनकी सभी क्रियाएं शांत हो गईं । एक सप्ताह बाद अष्टावक्रजी ने आकर जब राजा जनक से कुशल पूछी तो राजा जनक ने उत्तर दिया–’मेरी कुशलता तो अब आपके अधीन है, मन तो आपका हो चुका है और अब मैं जड़वत् हो चुका हूँ; किंतु मुझे इसी में परम शांति मिल रही है ।’

अष्टावक्रजी ने कहा–’इस जड़ता को तुम आत्मज्ञान के पास ले जाने वाली जड़ता समझो; क्योंकि अब तुम ज्ञान प्राप्त करने के योग्य हो गए हो ।’

ऋषिकुमार अष्टावक्र द्वारा राजा जनक को ज्ञान प्रदान करना 

अष्टावक्रजी ने कहा–’सांसारिक भोग मन के अधीन हैं । मन ही देही है, आत्मा विदेही है । मन जब-तक शरीर की ओर लगा रहता है, तब तक उसकी गति आत्मा की ओर नहीं हो पाती है । मनुष्य जब मन को ज्ञान के अधीन कर देता है; तब वह आत्मा की ओर बढ़ने लगता है और धीरे-धीरे सभी बंधनों से मुक्त होकर जीव सत्-चित्-आनंद बन जाता है । यह शरीर पंचकोशों से बना होता है । अन्न से इसकी उत्पत्ति होती है, इसलिए इसे ‘अन्नमय कोश’ भी कहते हैं । इसके भीतर ‘प्राणमय कोश’ है, उसके भीतर ‘मनोमय कोश’ और उसके बाद ‘विज्ञानमय कोश’ है ।  विज्ञानमय कोश के बाद ‘ आनंदमय कोश’ है । आनंदमय कोश में प्रवेश करते ही शरीर को सुख-दु:ख के झंझटों से छुटकारा मिल जाता है । इसके ऊपर है सर्वव्यापक ‘आत्मा’ । शरीर पर ज्ञान की सत्ता स्थापित होने पर ही ‘आत्मा’ की प्राप्ति होती है ।’

‘राजा जनक ! अब मैं इस ज्ञान के साथ आपका मन आपको वापिस कर रहा हूँ । अब मेरे आदेश से ज्ञान के अधीन होकर इस राज्य का संचालन कीजिए । समस्त जीवों में अपनी आत्मा का अनुभव कीजिए । सबसे परे होकर रहिए ।’राजा जनक को ‘ज्ञान’ देकर अष्टावक्रजी चले गए और उस ज्ञान को धारण कर राजा जनक ‘देही’ से ‘विदेह’ बन गए । राजा जनक और ऋषि अष्टावक्र के बीच का संवाद ‘अष्टावक्र गीता’ के नाम से जाना जाता है ।

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Archana Agarwal (अर्चना अग्रवाल)

मनुष्य के आत्म विकास के लिए जीवन में दैवीय गुणों को ग्रहण करना एकमात्र श्रेष्ठ और सरल उपाय है । इसी सत्य को जानकर चालीस साल पहले मेरी रूचि विभिन्न पुराणों व धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने में हुई । उसी ज्ञान को आप सब लोगों को अवगत कराने के पावन उद्देश्य से मैंने यह ब्लॉग लिखने का निर्णय लिया है । आशा करती हूँ कि आप मेरे इस प्रयास से अवश्य ही कुछ नयी जानकारी हासिल करेंगे ।

राजा जनक को ज्ञान कैसे हुआ?

सभी हारे हुए ब्राह्मण वापस आ गए, उनमें अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे। इसके बाद राजा जनक ने अष्टावक्र को अपना गुरु बना लिया और उनके आत्मज्ञान प्राप्त किया।

अष्टावक्र राजा जनक के दरबार में क्यों गया उसके साथ कौन था?

माता ने अष्टावक्र को सारी बातें सच-सच बता दीं। अपनी माता की बातें सुनने के पश्‍चात् अष्टावक्र अपने मामा श्‍वेतकेतु के साथ बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिये राजा जनक के यज्ञशाला में पहुँचे। वहाँ द्वारपालों ने उन्हें रोकते हुये कहा कि यज्ञशाला में बच्चों को जाने की आज्ञा नहीं है। इस पर अष्टावक्र बोले कि अरे द्वारपाल!

अष्टावक्र मुनि के पिता का क्या नाम था?

उनके पिता कहोड़ वेदपाठी और प्रकांड पंडित थे तथा उद्दालक ऋषि के शिष्य और दामाद थे। राज्य में उनसे कोई शास्त्रार्थ में जीत नहीं सकता थाअष्टावक्र जब गर्भ में थे तब रोज उनके पिता से वेद सुनते थे।

राजा जनक के गुरु का क्या नाम था?

राजा जनक के गुरु मुनि अष्टावक्र की तपस्थली है रामेश्वर धाम