प्रश्न 1. Show प्रश्न 2. (ख) मूर्ति पर सरकंडे का चश्मा यह उम्मीद जगाता है कि देश के नागरिक अपने-अपने ढंग से देश के निर्माण में अपना योगदान देकर देशभक्ति का परिचय देते हैं। इसमें बड़े ही नहीं बच्चे भी शामिल हैं, क्योंकि यह सरकंडे का चश्मा किसी गरीब बच्चे ने ही बनाया है। (ग) हालदार साहब के लिए सुभाषचन्द्र बोस की मूर्ति पर चश्मा लगाना 'इतनी सी बात' नहीं थी। वह उनके लिए बहुत बड़ी महत्त्वपूर्ण बात थी, क्योंकि यह बात उनके मन में आशा जगाती थी कि अब भी हमारे देश के कस्बे कस्बे में देशभक्ति की भावना जीवित है। इसी खुशी और आशा से वे भावुक हो उठे थे। प्रश्न 3. प्रश्न 4. बताने के साथ-साथ वह हँसता भी जाता था जिससे उसकी तोंद भी थिरकने लगती थी और उसके पान वाले लाल-काले दाँत खिल उठते थे। वह बात बनाने और हँसी उड़ाने से भी उस्ताद था। इसके साथ ही वह भावुक भी था। कैप्टन की मृत्यु का समाचार सुनाकर स्वयं उदास हो गया था और उसकी आँखों में आँसू भी आ गये थे। प्रश्न 5. वह देशभक्ति की भावना से पूरित होकर ही सुभाषचन्द्र बोस की मूर्ति की आँखों पर चश्मा लगाता रहता था, ऐसे व्यक्तियों की कमियाँ या कुरूपता को नहीं देखना चाहिए और न उनकी हँसी उड़ानी चाहिए। यदि हम उसकी तरह देशभक्ति न कर सकें तो भी हमें उसका कम से कम सम्मान तो करना ही चाहिए। अतः पान वाले की वह टिप्पणी उचित नहीं थी। रचना और अभिव्यक्ति - प्रश्न 6. (ख) पानवाला यद्यपि कैप्टन के प्रति उपेक्षा दर्शाता था, फिर भी वह संवेदनशील व्यक्ति था। उसे कैप्टन की मृत्यु पर अत्यधिक दुःख हुआ था। उसे अनुभूति हुई थी कि कस्बे में कैप्टन जैसा देश-प्रेमी और कोई नहीं था। इसीलिए वह कैप्टन को याद करके उदास हो गया था और उसकी आँखों में आँसू आ गये थे। (ग) कैप्टन के मन में अपार देशभक्ति की भावना थी। वह देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले नेताजी के प्रति अत्यधिक सम्मान रखता था। इसी कारण वह बिना चश्मे वाली नेताजी की मूर्ति पर बार-बार आकर चश्मा लगा देता था। इससे उसकी. देशभक्ति का परिचय मिलता था। प्रश्न 7. प्रश्न 8. (ख) हम अपने इलाके के चौराहे पर ऐसे व्यक्ति की मूर्ति लगाना चाहेंगे, जिसने देश व समाज के हितार्थ कोई उल्लेखनीय कार्य किया हो। इस दृष्टि से हम भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री की प्रतिमा स्थापित करवाना चाहेंगे, क्योंकि आज के स्वार्थी और भ्रष्टाचारी युग में उनका जीवन सरलता एवं ईमानदारी का जीवन सभी के लिए प्रेरणादायी रहेगा। (ग) उस मूर्ति के प्रति हमारे व अन्य लोगों के उत्तरदायित्व होंगे कि उस मूर्ति की नित्यप्रति सफाई होती रहे। इस मूर्ति के बारे में लोगों को जानकारी मिलती रहे और उस मूर्ति वाले व्यक्ति के जन्मदिन एवं पुण्यतिथि पर कार्यक्रम आयोजित किए जाते रहें। प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. इसी प्रकार 'आइडिया' शब्द में जो भाव है वह हिन्दी भाषा के शब्द 'विचार', 'युक्ति' या 'सूझ' में नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि अन्य भाषाओं के प्रयुक्त होने वाले शब्द हमारी भाषा को समृद्ध करते हैं। यदि उनका प्रयोग कथन की स्वाभाविक रीति के आधार पर होता है तो वे वक्ता और श्रोता दोनों को ही प्रभावित करते हैं। भाषा अध्ययन - प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. पाठेतर सक्रियता - प्रश्न 1. (ख) हम अपने इलाके के शिल्पकार, संगीतकार, चित्रकार एवं दूसरे कलाकारों के काम की प्रशंसा करके उनको प्रोत्साहन दे सकते हैं एवं उन्हें दूसरी जगहों पर उचित पारिश्रमिक के साथ काम दिलाकर उनको महत्त्व दे सकते हैं और उन्हें पुरस्कार देकर या दिलवाकर सम्मानित कर या करवा सकते हैं। प्रश्न 2. भवदीय प्रश्न 3. ये बेचारे रोज अपना माल गठरियों में बाँधकर साइकिलों और कन्धों पर रखकर गली-गली बेचते फिरते रहते हैं। सरकार चाहे तो इनके लिए रियायती दरों पर वाहनों की व्यवस्था कर सकती है और इन्हें बैंकों आदि से आसान ब्याज दरों पर कर्ज दिला सकती है। इनके साथ ही सामान रखने के केन्द्र खुलवा सकती है। ये फेरी वाले गांव-गांव घूमकर ग्रामीणों को अपना सामान बेचते हैं और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। एक तरह से ये फेरी वाले चलते-फिरते बाजार हैं। इसलिए इनकी समस्याओं पर भी विचार किया जाना चाहिए। प्रश्न 4. सप्रसंग व्याख्याएँ 1. पूरी बात तो अब पता नहीं, लेकिन लगता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी नहीं होने और अच्छी मूर्ति की लागत अनुमान और उपलब्ध बजट से कहीं बहुत ज्यादा होने के कारण काफी समय ऊहापोह और चिट्ठी पत्री में बरबाद हुआ होगा और बोर्ड की शासनावधि समाप्त होने की घड़ियों में किसी स्थानीय कलाकार को ही अवसर देने का निर्णय किया गया होगा, और अंत में कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर - मान लीजिए मोतीलाल जी को ही यह काम सौंप दिया गया होगा, जो महीने-भर में मूर्ति बनाकर 'पटक देने' का विश्वास दिला रहे थे। कठिन शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक स्वयंप्रकाश द्वारा लिखित 'नेताजी का चश्मा' कहानी से लिया गया है। इसमें शहर के मुख्य चौराहे पर लगी सुभाषचन्द्र बोस की संगमरमर की प्रतिमा के बारे में चर्चा है। जिसे हाई-स्कूल के ड्राइंग-मास्टर ने बनाई थी। व्याख्या - लेखक स्वयंप्रकाश ने सुभाषचन्द्र बोस की बनी प्रतिमा पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि इस मूर्ति के बनने और लगने के पीछे की पूरी बात तो पता नहीं किन्तु मूर्ति की बनावट देखकर प्रतीत होता है कि देश के अच्छे मूर्तिकारों की जानकारी यहाँ के स्थानीय लोगों को नहीं थी या फिर इस मूर्ति को बनाने में लगने वाले खर्चे का अनुमान कर, उपलब्ध बजट से ज्यादा का खर्चा होने पर, काफी उलझन भरी स्थिति में तथा शासन द्वारा दिए गए समय तथा उनको चिट्ठी-पत्री में हुए समय बरबाद के कारण किसी स्थानीय कलाकार को ही मूर्ति बनाने का जिम्मा दे दिया होगा। अंत में यही सब सोचकर कस्बे के एक स्कूल के इकलौते ड्राइंग मास्टर मोतीलाल जी को सुभाषचन्द्र बोस की मूर्ति बनाने का काम सौंप दिया गया होगा। और मोतीलाल जी द्वारा अवश्य यह विश्वास दिलाया गया होगा कि महीने भर में इस मूर्ति को बनाकर 'पटक' दिया जायेगा। विशेष :
2. जीप कस्बा छोड़कर आगे बढ़ गई तब भी हालदार साहब उस मूर्ति के बारे में सोचते रहे और अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कुल मिलाकर कस्बे के नागरिकों का यह प्रयास सराहनीय ही कहा जाना चाहिए। महत्त्व मूर्ति के रंग-रूप, कद का नहीं, उस भावना का है वरना तो देशभक्ति भी आजकल मजाक की चीज होती जा रही है। कठिन शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक स्वयंप्रकाश द्वारा लिखित कहानी 'नेताजी का चश्मा' से लिया गया है। इस अवतरण में हालदार साहब ने नेताजी की मूर्ति एवं उसके पीछे छिपे देशभक्ति के भाव-विचार के बारे में सोच रहे हैं। व्याख्या - हालदार साहब हर पन्द्रहवें दिन कस्बे से गुजरते थे। उन्होंने चौराहे पर लगी नेताजी की मूर्ति देखी किंतु उसके आँखों पर चश्मा नहीं होने से तनिक उदास हुए। दूसरी बार फिर उधर से गुजरे तो काले फ्रेम का मोटा चश्मा मूर्ति की आँखों पर लगा देखकर मुस्कुराए। उन्होंने सोचा यह भी ठीक है मूर्ति संगमरमर की और चश्मा वास्तविक। यह देख संजीव पास बुक्स जीप आगे बढ़ गई। इसके बाद भी हालदार साहब मूर्ति के बारे में सोचते रहे और अंत में उनकी सोच का यही परिणाम निकला कि कुल मिलाकर कस्बे के स्थानीय नागरिकों का मूर्ति को चश्मा पहनाने का प्रयास प्रशंसा के योग्य है। महत्त्व मूर्ति के रूप, रंग, कद का नहीं होता है बल्कि उस भावना का होता है, जो सबके दिलों में मौजूद रहती है। उस देशभक्ति की भावना के मन में प्रदीप्त होने के कारण ही यह मूर्ति लगी और सामर्थ्यनुसार उस पर चश्मा भी लगाया गया। वरना तो देशभक्ति की सोच व उसके प्रति कर्त्तव्य-भावना भी लोगों के मध्य मजाक का विषय बनती जा रही है। लोग देशभक्तों का मजाक बनाते हैं। विशेष :
3. अब हालदार साहब को बात कुछ-कुछ समझ में आई। एक चश्मेवाला है जिसका नाम कैप्टन है। उसे नेताजी की बगैर चश्मेवाली मर्ति बरी लगती है। बल्कि आहत करती है, मानो च असुविधा हो रही हो। इसलिए वह अपनी छोटी-सी दुकान में उपलब्ध गिने-चुने फ्रेमों में से एक नेताजी की मूर्ति पर फिट कर देता है। लेकिन जब कोई ग्राहक आता है और उसे वैसे ही फ्रेम की दरकार होती है जैसा मूर्ति पर लगा है तो कैप्टन चश्मेवाला मूर्ति पर लगा फ्रेम-संभवतः नेताजी से क्षमा माँगते हुए-लाकर ग्राहक को दे देता है और बाद में नेताजी को दूसरा फ्रेम लौटा देता है। वाह ! भई खूब! क्या आइडिया है। कठिन शब्दार्थ :
प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण लेखक स्वयंप्रकाश द्वारा लिखित 'नेताजी का चश्मा' कहानी से लिया गया है। इसमें हालदार साहब की चश्मों के बदलने के पीछे छिपी जिज्ञासा का वर्णन है। वे पान वाले से चश्मे बदलने वाले व्यक्ति के बारे में पूछते हैं। व्याख्या - हालदार साहब जब भी उस चौराहे से गुजरते उन्हें नेताजी की मूर्ति का चश्मा बदले हुए मिलता। उन्होंने समीप की दुकान जो कि पान की थी उसके मालिक से इसका कारण पूछा। पान व हालदार साहब को कुछ कुछ समझ में आया कि एक चश्मे बेचने वाला है जिसका नाम कैप्टन है। उसे नेताजी की बिना चश्मा लगी हुई मूर्ति बेकार लगती है, या यूँ कहे उसके दिल को चोट पहुँचाती है। उसके अनुसार नेताजी की मूर्ति को बिना चश्मे के बड़ी असुविधा हो रही हो इसलिए वह अपनी छोटी-सी चश्मे की दुकान से गिने-चुने चश्मे के फ्रेमों से एक कोई चश्मा नेताजी की मूर्ति को पहना देता है। लेकिन जब कोई ग्राहक मूर्ति पर पहने जश्मे जैसा समान चश्मा चाहता है तो कैप्टन मूर्ति पर से उतार कर. वह ग्राहक को दे देता है तथा मूर्ति को अन्य चश्मा पहना हुए संभवतः वह नेताजी की मूर्ति से माफी माँग कर अपनी मजबूरी जता देता है। किन्तु श्रद्धा व प्रेम वश वह उन्हें दूसरा फ्रेम पहना देता है। यह भी खूब आइडिया है। विशेष :
4. पानवाले के लिए यह एक मजेदार बात थी लेकिन हालदार साहब के लिए चकित और द्रवित करने वाली। यानी वह ठीक ही सोच रहे थे। मूर्ति के नीचे लिखा 'मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल' वाकई कस्बे का अध्यापक था। बेचारे ने महीने-भर में मूर्ति बनाकर पटक देने का वादा कर दिया होगा। बना भी ली होगी लेकिन पत्थर में पारदशी चश्मा कैसे बनाया जाए-काँच वाला-यह तय नहीं कर पाया होगा। या कोशिश की होगी और असफल रहा होगा। या बनाते-बनाते 'कुछ और बारीकी' के चक्कर में चश्मा टूट गया होगा। या पत्थर का चश्मा अलग से बनाकर फिट किया होगा और वह निकल गया होगा। उफ.....! कठिन-शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक स्वयंप्रकाश द्वारा लिखित 'नेताजी का चश्मा' कहानी से लिया गया है। हालदार साहब पान वाले से नेताजी की मूर्ति एवं उस पर न लगे ओरिजनल चश्मे (पत्थर का चश्मा) के बारे में पूछते हैं। व्याख्या - हालदार साहब जब चश्मे की वास्तविकता पान वाले से पूछते हैं तो पान वाला भी अत्यन्त खुश होकर उन्हें बताता है मानो यह बात उसके लिए बहुत मजेदार थी। उसने बताया कि मूर्ति बनाने वाला कस्बे के स्कूल का मास्टर था, जो चश्मा बनाना भूल गया। यह बात हालदार साहब को चकित भी करती है और द्रवित भी। क्योंकि उन्हें लगा इस मूर्ति के बनने की कहानी जो वह सोच रहे थे वह ठीक ही थी। मूर्ति के नीचे कस्बे के मास्टर मोतीलाल का नाम भी खुदा था। जो कि हर मूर्तिकार मूर्ति बनाने पर उसके नीचे लिखता है। बेचारे ने महीने भर में मूर्ति बनाकर देने का वादा किया होगा और बना कर भी दे दी होगी, लेकिन पत्थर की मूर्ति में पारदर्शी चश्मा बनाया जाये या काँच वाला, वो यह तय नहीं कर पाया होगा। यह कार्य तो बड़े सफल मूर्तिकारों द्वारा ही संभव हो सकता था और मोतीलाल ठहरा मास्टर, बेचारे से जैसी मूर्ति बन पड़ी उसने कोशिश की। मूर्ति को बनाने के बाद जरूर मास्टर ने चश्मा बनाने की भी कोशिश की होगी या तो असफल रहा होगा या फिर कुछ और सुन्दर, अद्भुत बनाने के चक्कर में वह टूट गया होगा। या फिर पत्थर का चश्मा बनाया भी होगा और फिर वह निकल गया, हो सकता है। विशेष :
5. हालदार साहब को यह सब कुछ बड़ा विचित्र और कौतुकभरा लग रहा था। इन्हीं खयालों में खोए-खोए पान के पैसे चुकाकर, चश्मेवाले की देश-भक्ति के समक्ष नतमस्तक होते हुए वह जीप की तरफ चले, फिर रुके, पीछे मुड़े और पानवाले के पास जाकर पूछा, क्या कैप्टन चश्मेवाला नेताजी का साथी है? या आजाद हिंद फौज का भूतपूर्व सिपाही? कठिन शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक स्वयंप्रकाश द्वारा लिखित 'नेताजी का चश्मा' कहानी से लिया गया है। हालदार साहब चश्मे एवं कैप्टन की कहानी से काफी प्रभावित थे इसलिए वे पान वाले से कैप्टन की जानकारी लेते हैं। व्याख्या - पान वाले ने जब हालदार साहब को बताया कि मूर्ति पर चश्मे लगाने वाले का नाम कैप्टन है तो हालदार साहब बहुत प्रभावित हुए। उन्हें सारी घटना आश्चर्य भरी एवं विचित्र लग रही थी। कारण, आज के समय में देश के प्रति या देशभक्तों को लेकर सम्मान व प्रेम की भावना लोगों में कम ही देखने को मिलती है। ऐसे समय में कैप्टन द्वारा मूर्ति को चश्मा लगाये जाने पर उसकी देशभक्ति स्वतः ही प्रकट हो रही थी। इन्हीं सब बातों पर विचार करते हुए हालदार अपनी जीप की तरफ बढ़ते हैं, फिर कुछ सोच कर रुकते हैं, पीछे मुड़कर पुनः पान वाले के पास जाते हैं और उससे कैप्टन के बारे में पूछते हैं कि चश्मेवाला कैप्टन, नेताजी का साथी है या फिर नेताजी द्वारा बनाई गई आजाद हिंद फौज का कोई पुराना सिपाही है? यह सब हालदार साहब इसलिए पूछते हैं कि आखिर पूरे कस्बे में सिर्फ कैप्टन को ही नेताजी के चश्मे की फिक्र क्यों है? उसकी देशभक्ति के पीछे कहीं उनका नेताजी का साथी या आजाद हिंद फौज का सिपाही होना तो नहीं है? विशेष :
6. हालदार साहब को पानवाले द्वारा एक देशभक्त का इस तरह मजाक उड़ाया जाना अच्छा नहीं लगा। मुड़कर देखा तो अवाक रह गए। एक बेहद बूढ़ा मरियल-सा लँगड़ा आदमी सिर पर गांधी टोपी और आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में एक छोटी-सी संदूकची और दूसरे हाथ में एक बाँस पर टँगे बहुत-से चश्मे लिए अभी-अभी एक गली से निकला था और अब एक बंद दुकान के सहारे अपना बाँस टिका रहा था। तो इस बेचारे की दुकान भी नहीं! फेरी लगाता है! हालदार साहब चक्कर में पड़ गए। पूछना चाहते थे, इसे कैप्टन क्यों कहते हैं? क्या यही इसका वास्तविक नाम है? लेकिन पानवाले ने साफ बता दिया था कि अब वह इस बारे में और बात करने को तैयार नहीं। कठिन शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक स्वयंप्रकाश द्वारा लिखित 'नेताजी का चश्मा' कहानी से लिया हुआ है। हालदार साहब ने कैप्टन चश्मे वाले के बारे में सुना ही था लेकिन जब उसे देखा तो चक्कर में पड़ गये। इसमें इसी बात का वर्णन किया गया है। व्याख्या - हालदार साहब ने जब पान वाले से कैप्टन की वास्तविकता जाननी चाही कि वह नेताजी का साथी था या आजाद हिन्द फौज का सिपाही, तो पान वाले ने कैप्टन की शारीरिक असमर्थता की हंसी उड़ायी। हालदार साहब को पान वाले द्वारा एक देशभक्त का इस तरह मजाक उड़ाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। उन्होंने जब मुड़कर कैप्टन को देखा तो मौन रह गए। कैप्टन मरियल-सा लंगड़ा बूढ़ा आदमी था। सिर पर सफेद गाँधी टोपी, आँखों पर काला चश्मा लगाए एक हाथ में छोटी-सी संदूकची लिए और दूसरे हाथ से पकड़े बाँस पर बहुत सहारे चश्मे लटकाए अभी-अभी गली से निकला था। गली से निकल कर बूढ़ा लंगड़ा कैप्टन एक बंद दुकान के सहारे चश्मे वाला बाँस टिका रहा था। हालदार साहब ने कैप्टन की ऐसी दशा देखकर सोचा कि इस बेचारे की तो अपनी कोई दुकान भी नहीं है! फेरी लगाता है अर्थात् घूम-घूम कर आवाजें दे दे कर अपने चश्मे बेचता है। हालदार साहब उसकी ऐसी दयनीय स्थिति देख कर पूछना चाहते प्टन क्यों कहते हैं? इसका वास्तविक या असली नाम क्या है? लेकिन पान वाले ने हालदार साहब को साफ कह दिया कि वो अब कैप्टन के बारे में कोई भी बात नहीं करेगा। विशेष :
7. दो साल तक हालदार साहब अपने काम के सिलसिले में उस कस्बे से गुजरते रहे और नेताजी की मूर्ति में बदलते हुए चश्मों को देखते रहे। कभी गोल चश्मा होता, तो कभी चौकोर, कभी लाल, कभी काला, कभी धूप का चश्मा, कभी बड़े कांचों वाला गोगो चश्मा, पर कोई न कोई चश्मा होता जरूर, उस धूल भरी यात्रा में हालदार साहब को कौतुक और प्रफुल्लता के कुछ क्षण देने के लिए। कठिन शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक स्वयंप्रकाश द्वारा लिखित 'नेताजी का चश्मा' कहानी से लिया गया है। इसमें हालदार साहब द्वारा बताया गया है कि निरन्तर दो साल तक नेताजी की मूर्ति के चश्मे किस प्रकार बदलते रहे। व्याख्या - दो साल तक हालदार साहब उस कस्बे से अपने काम के सिलसिले में गुजरते रहे और हर बार देखते कि नेताजी की मूर्ति पर लगा उनका चश्मा हमेशा बदलता रहा। मूर्ति पर लगा चश्मा कभी गोल फ्रेम का होता, तो कभी चौकोर फ्रेम का होता। कभी लाल काँच का बना होता तो कभी काले कांच का, कभी धूप का चश्मा लगा होता तो कभी बड़े-बड़े काले काँच का गोगो चश्मा लगा होता, कुल मिलाकर नेताजी की मूर्ति पर कोई न कोई चश्मा अवश्य ही लगा होता था। हालदार साहब कस्बे के बीच से निकलते हुए सदैव मूर्ति को जरूर निहारा करते थे क्योंकि उस धूलभरी यात्रा के मध्य नेताजी की मूर्ति व चश्मे की कौतूहलता उन्हें सदैव आनन्दित कर देती थी। विशेष :
8. और कुछ नहीं पूछ पाये हालदार साहब। कुछ पल चुपचाप खड़े रहे, फिर पान के पैसे चुकाकर जीप में आ बैठे और रवाना हो गए। बार-बार सोचते, क्या होगा उस कौम का जो अपने देश की खातिर घर-गृहस्थी-जवानी-जिंदगी सब कुछ होम देने वालों पर भी हँसती है और अपने लिए बिकने के मौके ढूँढ़ती है। दुःखी हो गए। पंद्रह दिन बाद फिर उसी कस्बे से गुजरे। कस्बे में घुसने से पहले ही खयाल आया कि कस्बे की हृदयस्थली में सुभाष की प्रतिमा अवश्य ही प्रतिष्ठापित होगी, लेकिन सुभाष की आँखों पर चश्मा नहीं होगा। क्योंकि मास्टर बनाना भूल गया। और कैप्टन मर गया। सोचा, आज वहाँ रुकेंगे नहीं, पान भी नहीं खाएंगे, मूर्ति की तरफ देखेंगे भी नहीं, सीधे निकल जाएँगे। कठिन शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक स्वयंप्रकाश द्वारा लिखित कहानी 'नेताजी का चश्मा' से लिया गया है। इसमें हालदार साहब को पता चलता है कि कैप्टन की मृत्यु हो गई है और इस कारण मूर्ति पर कोई चश्मा नहीं है जिससे वे अत्यन्त दुःखी होते हैं। व्याख्या - हालदार साहब ने कस्बे से गुजरते हुए देखा कि नेताजी की मूर्ति पर कोई चश्मा नहीं है तो उन्होंने पान वाले से पूछा, पान वाले ने बताया कि कैप्टन की मृत्यु हो गई है इसलिए मूर्ति पर अब कोई चश्मा नहीं है। यह सुन हालदार साहब बार-बार एक ही बात सोचने लगे कि इस देश के लोगों का क्या होगा जो उन स्वतंत्रता सेनानियों पर हँसते हैं जिन्होंने अपने देश के लिए घर-गृहस्थी, जवानी-जिन्दगी, सब कुछ बलिदान कर दिया और जो स्वयं को बेचने के लिए अर्थात् अपने मूल्यों को, देशप्रेम, स्वाभिमान को किसी भी कीमत पर दूसरों को बेचने के लिए तैयार हैं। आज कैप्टन के न रहने पर किसी और के मन में देशभक्ति की भावना नहीं है, इसी कारण नेताजी की मूर्ति आज बिना चश्मे के है। हालदार साहब सब सोचकर दु:खी हो गये। पन्द्रह दिनों बाद फिर उसी कस्बे से उनका गुजरना हुआ लेकिन उन्होंने तय कर लिया था कि कस्बे में नेताजी की मूर्ति अवश्य लगी होगी लेकिन सुभाषचन्द्र की आँखों पर चश्मा नहीं होगा, क्योंकि मूर्तिकार मास्टर चश्मा बनाना भूल गया और देशभक्त कैप्टन की मृत्यु हो गई, इसलिए वे अब उस चौराहे पर रूकेंगे नहीं, पान भी नहीं खाएंगे और ना ही मूर्ति की तरफ देखेंगे, सीधे निकल जाएंगे। विशेष :
9. आदत से मजबूर आँखें चौराहा आते ही मूर्ति की तरफ़ उठ गईं। कुछ ऐसा देखा कि चीखे, रोको ! जीप स्पीड में थी, ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारे। रास्ता चलते लोग देखने लगे। जीप रुकते-न-रुकते हालदार साहब जीप से कूदकर तेज-तेज कदमों से मूर्ति की तरफ लपके और उसके ठीक सामने जाकर अटेंशन में खड़े हो गए। मूर्ति की आँखों पर सरकंडे से बना छोटा-सा चश्मा रखा हुआ था, जैसा बच्चे बना लेते हैं। हालदार साहब भावुक हैं। इतनी-सी बात पर उनकी आँखें भर आईं। कठिन शब्दार्थ :
प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण लेखक स्वयंप्रकाश द्वारा लिखित 'नेताजी का चश्मा' कहानी से लिया गया है। कस्बे से गुजरते हुए हालदार साहब ने देखा कि कैप्टन की मृत्यु के पश्चात् भी मूर्ति पर चश्मा लगा है उसी का वर्णन किया गया है। व्याख्या - कैप्टन की मृत्यु होने के बाद नेताजी की मूर्ति से चश्मा गायब हो गया था और पूरे कस्बे में किसी को उस देशभक्त की मूर्ति की कोई चिन्ता नहीं थी। सबके दिलों में देश और स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति आदर सम्मान की भावना खत्म होती जा रही थी। ऐसे में हालदार साहब दुःखी और चिंतित अवस्था में कस्बे से यह सोचकर गुजरते हैं कि वे मूर्ति को बिना देखे, बिना पान खाएँ, वहाँ से सीधे निकल जाएंगे किन्तु आदत से विवश हालदार साहब जैसे ही कस्बे के मध्य से निकले; उनकी आँखें स्वतः ही मूर्ति की तरफ घूम गईं, उन्होंने जो दृश्य देखा उसे देखकर चीख पड़े और ड्राइवर से कहा जीप रोको। जीप तेज गति में थी। ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारे जिसके कारण तेज आवाज हुई और रास्ते चलते लोग उन्हें रुक कर देखने लगे। जीप पूरी तरह रुक भी नहीं पाई थी कि हालदार साहब जीप से कूद कर तेज तेज कदमों से मूर्ति की तरफ दौड़ पड़े और ठीक मूर्ति के सामने जाकर सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए। को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दे रहे हों। उन्होंने देखा मूर्ति की आँखों पर सरकंडे की लकड़ी से बना हुआ छोटा-सा चश्मा लगा हुआ है। जैसा कि गाँव में बच्चे अकसर बना लेते हैं। यह सब देखकर हालदार साहब भावुक हो उठे और उनकी आँखों में पानी भर आया क्योंकि यह इतनी सी या छोटी बात नहीं थी। नेताजी की आँखों पर चश्मा होना इस बात की ओर संकेत करता है कि देश के प्रति; स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति आज की पीढ़ी के मन में आदर-प्रेम व सम्मान की भावना मौजूद है। विशेष :
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न
5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15.
प्रश्न 16. प्रश्न 17. निबन्धात्मक प्रश्न प्रश्न 1. उसे लगता कि मूर्ति में अधूरापन है इसलिए नेताजी को श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के लिए उनकी मूर्ति पर सुविधानुसार चश्मे बदलता रहता था। उसकी कमाई का जरिया चश्मे ही थे। अगर किसी ग्राहक को मूर्ति पर लगा चश्मा पसंद आ जाप्ता तो वह उसे उतार कर ग्राहक को तथा दूसरा चश्मा मूर्ति को लगा देता था। वह अपनी सद्भावना प्रकट करने हेतु मूर्ति को बिना चश्मे कभी नहीं रहने देता था। प्रश्न 2. मूर्ति के माध्यम से कस्बे के लोग तथा कैप्टन देश के प्रति अपनी भावना प्रकट करते थे। ऐसे में कैप्टन की मृत्यु के पश्चात् मूर्ति पर से चश्मे का गायब हो जाना उन्हें काफी कचोटता था। उन्हें लगता मानो संसार में देशभक्ति का अब कोई अर्थ नहीं रह.गया है। अचानक चश्माविहीन मूर्ति पर गाँव के बच्चों द्वारा बनाया हुआ- सरकंडे का चश्मा लगा देख हालदार साहब द्रवित एवं भावुक हो उठे। वो समझ गये थे कि देशप्रेम का भाव अब भी वर्तमान में लोगों के दिलों में मौजूद है। नयी पीढ़ी भी उन मूल्यों तथा देशप्रेम को समझती है तथा उनका सम्मान करती है। प्रश्न 3. देशभक्ति का कार्य देश को स्वच्छ रखकर, मजबूरों की सहायता करके, अन्न-जल व वस्त्र की व्यवस्था करके, शान्ति एवं सौहार्द बनाये रखकर तथा सभी धर्मों का सम्मान करके भी किया जा सकता है। इसी को व्यक्त करती कहानी 'नेताजी का चश्मा' में बताया गया है कि बड़े ही नहीं बच्चे भी देशभक्ति का कार्य करने में पीछे नहीं हैं। यथायोग्यतानुसार सभी अपने कार्यों में पूर्णरूप से संलग्न हैं। रचनाकार का परिचय सम्बन्धी प्रश्न - प्रश्न 1. कहानीकार स्वयंप्रकाश का जन्म सन् 1947 में इन्दौर (म. प्र.) में हुआ। उन्होंने मेकेनिकल इन्जीनियरिंग में शिक्षा प्राप्त की। नौकरी के लिए वे एक औद्योगिक प्रतिष्ठान में नियुक्त होकर राजस्थान में आ गए। वर्षों तक नौकरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवामुक्ति लेकर वे वर्तमान में भोपाल में रह रहे हैं। आजकल वे 'वसुधा' नामक पत्रिका के सम्पादक मण्डल में हैं। आठवें दशक से लेकर वर्तमान तक के कहानीकारों में स्वयंप्रकाश को अग्रणी माना जाता है। इनके तेरह कहानी संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें 'सूरज कब निकलेगा', 'आएँगे अच्छे दिन भी', 'आदमी जात का आदमी' और "संधान' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा 'बीच में विनय' और 'ईंधन' उनके चर्चित उपन्यास हैं। उन्हें अब तक पहल सम्मान, बनमाली पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि पुरस्कारों से पुरस्कृत किया जा चुका है। इस कहानी के माध्यम से कहानीकार ने बतलाया है कि चारों ओर से घिरे भूभाग का नाम ही देश नहीं होता है। देश उसमें रहने वाले नागरिकों, नदियों, पहाड़ों, पेड़-पौधों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों आदि से बनता है। इन सबसे प्रेम करने तथा इनकी समृद्धि के लिए प्रयास करने का ही नाम देशभक्ति है। 'नेताजी का चश्मा' कहानी कैप्टन चश्मे वाले के माध्यम से देश के करोड़ों नागरिकों के योगदान को रेखांकित करती है जो इस देश के निर्माण में अपने-अपने तरीके से सहयोग करते हैं। बड़े ही नहीं बच्चे भी इसमें योगदान करते हैं। चश्मे वाले को देखकर हालदार साहब चक्कर में क्यों पड़ गए?Answer: हालदार साहब के दिमाग में यह बात थी कि चश्मा वाला अवश्य कोई फौजी आदमी या नेताजी का साथी रहा होगा। लेकिन उस बूढ़े, मरियल और फेरी वाले व्यक्ति को देख कर हालदार साहब चक्कर में पड़ गये।
हालदार साहब के चकित होने का क्या कारण था?उत्तरः नेताजी की पत्थर की मूर्ति पर असली चश्मा देखकर हालदार साहब चकित होकर मुसकराए। 3. हालदार साहब की आदत पड़ गई, हर बार कस्बे से गुजरते समय चैराहे पर रुकना, पान खाना और मूर्ति को ध्यान से देखना।
हालदार साहब चौराहे पर क्यों रुके थे?हालदार साहब पहले मायूस हो गए थे क्योंकि हालदार साहब चौराहे पर लगी नेता जी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति को बिना चश्मे के देख नहीं सकते थे। जब से कैप्टन मरा था किसी ने भी नेता जी की मूर्ति पर चश्मा नहीं लगाया था। इसीलिए जब हालदार साहब कस्ये से गुजरने लगे तो उन्होंने ड्राइवर से चौराहे पर गाड़ी रोकने के लिए मनाकर दिया था ।
हालदार साहब को क्यों लगा कि सुभाष की आँखों पर चश्मा नहीं होगा?उत्तर- हालदार साहब सोच रहे थे कि कस्बे की हृदयस्थली में नेताजी की मूर्ति तो अवश्य होगी , मगर उनकी आँखों पर चश्मा नही होगा। क्योंकि नेताजी की मूर्ति पर चश्मा लगाने वाला कैप्टन तो मर चुका है। और किसी को कहां भला इतनी फुर्सत हैं कि वह नेताजी की मूर्ति पर चश्मा लगाए। बस यही सोचकर हालदार साहब मायूस हो गए थे।
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