हल्दीघाटी का दूसरा नाम क्या है? - haldeeghaatee ka doosara naam kya hai?

महाराणा प्रताप की 475वीं जयंती वर्ष पर दैनिक भास्कर मेवाड़ शिरोमणि के अछूते पहलुओं को बता रहा है। आज की कड़ी में हम हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में बता रहे हैं जिसमें प्रताप के एक वार से मुगल सैनिक और उसके घोड़े के दो टुकड़े हो गए थे।

उदयपुर. अकबर और महाराणा प्रताप के बीच हुए हल्दीघाटी के युद्ध को महासंग्राम कहा गया। वजह ये कि 5 घंटे की लड़ाई में जो घटनाएं हुईं, अद्भुत थीं। इस युद्ध में महाराणा के एक वार से मुगल सैनिक और उसके घोड़े के दो टुकड़े हो गए थे। अबुल फजल ने कहा कि यहां जान सस्ती और इज्जत महंगी थी। इसी लड़ाई से मुगलों का अजेय होने का भ्रम टूटा था। मेवाड़ सेना में 3000 और मुगल सेना में 5000 सैनिक थे। फौजों से मरे 490 सैनिक। परिणाम भी ऐसा कि कोई हारा, जीता। इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने इसे थर्मोपॉली (यूनान में हुआ युद्ध) कहा है।

18 जून का दिन। मुगल सेना मेवाड़ की राजधानी गोगुंदा पर कब्जा करने निकली। मानसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना ने मोलेला में पड़ाव डाला था। इसे रोकने के मकसद से निकले प्रताप ने लोसिंग में पड़ाव डाला। मोलेला से गोगुंदा जाने को निकली मुगल सेना तीन हिस्सों में बंट गई। एक हिस्सा सीधे गोगुंदा की ओर मुड़ा, दूसरा हल्दीघाटी होकर और तीसरा उनवास की ओर।

देखा जाए तो मुगल न तो महाराणा प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर पूर्ण आधिपत्य जमा सके। यूं तो हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मुगलों का कुम्भलगढ़, गोगुंदा, उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था।

लेकिन इतिहास में दर्ज है कि 1576 में हुए हल्दीघाटी युद्ध के बाद भी अकबर ने महाराणा को पकड़ने या मारने के लिए 1577 से 1582 के बीच करीब एक लाख सैन्यबल भेजे। अंगेजी इतिहासकारों ने लिखा है कि हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको उन्होंने 'बैटल ऑफ दिवेर' कहा है, मुगल बादशाह के लिए एक करारी हार सिद्ध हुआ था।

कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में जहां हल्दीघाटी को 'थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़' की संज्ञा दी, वहीं दिवेर के युद्ध को 'मेवाड़ का मैराथन' बताया है (मैराथन का युद्ध 490 ई.पू. मैराथन नामक स्थान पर यूनान केमिल्टियाड्स एवं फारस के डेरियस के मध्य हुआ, जिसमें यूनान की विजय हुई थी, इस युद्ध में यूनान ने अद्वितीय वीरता दिखाई थी), कर्नल टॉड ने महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, युद्ध कुशलता को स्पार्टा के योद्धाओं सा वीर बताते हुए लिखा है कि वे युद्धभूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से भी नहीं डरते थे।

दिवेर युद्ध की योजना महाराणा प्रताप ने अरावली स्थित मनकियावस के जंगलों में बनाई थी। भामाशाह द्वारा मिली राशि से उन्होंने एक बड़ी फौज तैयार कर ली थी। बीहड़ जंगल, भटकावभरे पहाड़ी रास्ते, भीलों, राजपूत, स्थानीय निवासियों की गुरिल्ला सैनिक टुकड़ियों के लगातार हमले और रसद, हथियार की लूट से मुगल सेना की हालत खराब कर रखी थी।

हल्दीघाटी के बाद अक्टूबर 1582 में दिवेर का युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुगल सेना की अगुवाई करने वाला अकबर का चाचा सुल्तान खां था। विजयादशमी का दिन था और महाराणा ने अपनी नई संगठित सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया। एक टुकड़ी की कमान स्वयं महाराणा के हाथ में थी, तो दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे।

महाराणा प्रताप की सेना ने महाराज कुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर के शाही थाने पर हमला किया। यह युद्ध इतना भीषण था कि प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने मुगल सेनापति पर भाले का ऐसा वार किया कि भाला उसके शरीर और घोड़े को चीरता हुआ जमीन में जा धंसा और सेनापति मूर्ति की तरह एक जगह गड़ गया।

उधर महाराणा प्रताप ने बहलोल खान के सिर पर इतनी ताकत से वार किया कि उसे घोड़े समेत 2 टुकड़ों में काट दिया। स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के अधिकतर ठिकाने/ दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए। यहां तक कि मेवाड़ से गुजरने वाले मुगल काफिलों को महाराणा को रकम देनी पड़ती थी।

भारत वर्ष में आनासागर (अजमेर), तराइन, पानीपत, खानवा आदि ऐसी कई प्रसिद्ध युद्धभूमियां हैं जहाँ भारत माता के लाखों पुत्रों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग करके शत्रुओं को भारत भूमि से दूर रखने का प्रयास किया। इन युद्धों में भारतीयों को कम ही सफलताएं मिलीं। देव शक्तियों के दयालु होने एवं आसुरी शक्तियों के निर्दयी होने से शत्रु, येन-केन-प्रकरेण विजयी होते रहे और भारत भूमि में धंसते ही रहे किंतु जैसे गंगा सबको आत्मसात कर लेती है, सूर्य समस्त तम को हर लेता है, मिट्टी सबका परिमार्जन कर देती है और अग्नि समस्त अशुद्धि को जलाकर शुद्ध कर देती है, वैसे ही भारत भूमि, विभिन्न संस्कृतियों से आये उन समस्त आक्रांताओं को अपनी गोद में समेटती रही। इन रणभूमियों में भारतीयों को विजयें भले ही न मिली हों किंतु भारतीय वीरों की अमर गाथाएं विश्व भर में छा गईं। भारत की रणभूमियों में ‘हल्दीघाटी’ के रूप में एक और नवीन कड़ी जुड़ने का समय आ गया था।

गोगूंदा और खमणोर के बीच अरावली की विकट पहाड़ी श्रेणियाँ स्थित हैं। इनमें से एक तंग रास्ते वाली घाटी को हल्दीघाटी कहते हैं। नाथद्वारा से लगभग 13 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में खमणोर गांव है। इससे 4 कि.मी. के अंतर पर हल्दीघाटी स्थित है। यहाँ की मिट्टी हल्दी जैसे पीले रंग की है। इस कारण इसे हल्दीघाटी कहते हैं। यहाँ के पत्थरों पर पीली मिट्टी लगने से वे भी पीले दिखाई देते हैं।[1] हल्दीघाटी कुंभलगढ़ की पहाड़ियों में बालीचा गांव से लेकर खमनौर के पास भागल की झौंपड़ियों तक पूरे तीन मील की लम्बाई में फैली है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक यह घाटी लगभग उसी स्वरूप में थी जैसी कि वह पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में दिखाई देती थी। इस घाटी का मार्ग बहुत संकरा था। कहीं-कहीं घाटी इतनी चौड़ी थी कि पूरी फौज आराम से निकल जाये। इन चौड़े स्थानों में गांव बसे हुए थे।[2]

जब मानसिंह को ज्ञात हुआ कि महाराणा, कुम्भलगढ़ से निकलकर गोगूंदा आ गया है तो मानसिंह, माण्डलगढ़ से चलकर मोही गांव होते हुए खमणोर के समीप आ गया और हल्दीघाटी से कुछ दूर बनास नदी के किनारे डेरा डाला। इधर महाराणा भी अपनी सेना तैयार करके गोगूंदा से चला और मानसिंह से तीन कोस (लगभग 10 कि.मी.) की दूरी पर आ ठहरा।[3] इस प्रकार हल्दीघाटी के दोनों ओर सेनाएं सजकर बैठ गईं और मृत्यु की देवी भी अपना खप्पर वीरों के रक्त से भरने के लिये तैयार हो गई।

गोगूंदा और हल्दीघाटी के बीच भूताला गांव स्थित है। उस समय यह गांव दो पहाड़ियों के बीच स्थित एक तालाब के किनारे बसा था तथा गोगुंदा की अग्रिम चौकी के रूप में काम आता था। इस गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर ‘पोलामगरा’ नामक एक पहाड़ स्थित है। इसके भीतर प्राकृतिक रूप से एक गुफा बनी हुई है जो एक छोर से दूसरे छोर तक आर-पार होती है। सोलहवीं शताब्दी में इसे ‘मायरा की गुफा’ कहा जाता था। आजकल इसे ‘मायरा की धूणी’ कहते हैं। इस गुफा के प्रवेश द्वार पर खड़ा रहकर कोई भी व्यक्ति बहुत दूर से आते हुए सैनिकों को देख सकता था। महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के मैदान में उतरने से महले मायरा की गुफा में राजकोष एवं शस्त्रागार स्थापित किया ताकि संकट काल में भी मेवाड़ का कोष एवं आपातकालीन शस्त्रागार, शत्रु की दृष्टि से छिपा हुआ रह सके। इस गुफा की रक्षा का भार महाराणा प्रताप के कुंवर अमरसिंह को दिया गया। अमरसिंह की सहायता के लिये सहसमल एवं कल्याणसिंह को नियुक्त किया गया। भामाशाह का पुत्र जीवाशाह तथा झाला मान का पुत्र शत्रुशाल भी अमरसिंह की सेवा में नियत किये गये। [4]

युद्ध अभी दूर था किंतु हल्दीघाटी उसकी भयावहता को अनुभव कर रही थी। संभवतः उसे अनुमान हो गया था कि वह भारत की एकमात्र ऐसी युद्धभूमि सिद्ध होने जा रही थी जहाँ भाग्यदेवी हिन्दुओं के गले में न केवल विजयमाला पहनाने वाली थी अपितु हिन्दुओं को एक ऐसी अमर कीर्ति प्रदान करने वाली थी जिसका स्मरण करके वे युगों-युगों तक अपने पुरखों पर गर्व कर सकेंगे। हल्दीघाटी के शूरमाओं का गुणगान करने वाले इतिहास के लाखों पन्ने भले ही अभी भी भविष्य के गर्भ में फड़फड़ा रहे थे किंतु राष्ट्रदेवी, महाराणा की तरफ से लड़ने आये अपने स्वातंत्र्य-प्रेमी पुत्रों के उत्साह को देखकर रोमांचित थी और अपने भाग्य पर इठला रही थी। भैरव का डमरू ‘सिंधु राग’[5] बजाने लगा था और काली अपने खप्पर को लेकर हल्दीघाटी में नृत्य करने लगी थी। भैरव और काली को एक साथ आया देखकर अरावली की घाटियों में दूर-दूर से आकर चीलों और गिद्धों ने अपने डेरे जमा लिये थे। सियारों, भेड़ियों, जंगली कुत्तों और मांसभक्षी वन्यपशुओं के झुण्डों ने भी अपना रुख हल्दीघाटी की ओर कर लिया था।

अकबर ने मानसिंह के साथ गाजीखां बदख्शी, ख्वाजा मुहम्मद रफी बदख्शी, शियाबुद्दीन गुरोह, पायन्दा कज्जाक, अलीमुराद उजबक, काजीखां, इब्राहीम चिश्ती, शेख मंसूर, ख्वाजा गयासुद्दीन, अली आसिफखां, सैयद अहमदखां, सैयद हाशिमखां, जगन्नाथ कच्छवाहा, सैयद राजू, मिहतरखां, माधोसिंह कच्छवाहा, मुजाहिदबेग, खंगार और लूणकर्ण आदि अमीर, उमराव तथा 5000 सवार भेजे।[6] इस सूची में आये समस्त हिन्दू सेनापति (मानसिंह, जगन्नाथ, माधोसिंह, खंगार और लूणकर्ण) आम्बेर के कच्छवाहे थे। मानसिंह की सेना में 10 हजार घुड़सवार थे। इनमें 4000 कच्छवाहे राजपूत थे। 1,000 अन्य जातियों के राजपूत तथा शेष मध्य एशिया के तुर्क, उजबेग, कज्जाक, बारहा के सैय्यद और फतेहपुर सीकरी के शेखजादे थे।[7] शाही सेना की अगली पंक्ति के सामने सैय्यद हाशिम बारहा की अध्यक्षता में कुछ आगे लड़ने वाले लोग नियुक्त किये गये थे। जगन्नाथ कच्छवाहा और आसफअलीखां सेना के अगले दस्ते में थे। उनके निकट एक कोतल दस्ता माधोसिंह कच्छवाहा की अधीनता में नियुक्त किया गया था। सेना के बायें अंग में बारहा के सैय्यद थे। दायां अंग मुल्ला काजीखां बदख्शी और राव लूनकरन की अध्यक्षता में था और बीच का दस्ता स्वयं मानसिंह की अध्यक्षता में था।[8] 

यद्यपि आम्बेर के कच्छवाहे और जोधपुर तथा बीकानेर के राठौड़, गुहिलों से दोस्ती तोड़ चुके थे तथापि महाराणा के शेष बचे मित्र, महाराणा के लिये मरने-मारने को तैयार थे। ग्वालियर का राजा रामसिंह तंवर[9], अपने पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह तथा प्रतापसिंह को साथ लेकर महाराणा की ओर से लड़ने के लिये आया। भामाशाह और उसका भाई ताराचंद ओसवाल भी अपनी सेनाएं लेकर आ गये।[10] झाला मानसिंह सज्जावत[11], झाला बीदा (सुलतानोत)[12], सोनगरा मानसिंह अखैराजोत, डोडिया भीमसिंह, रावत कृष्णदास चूण्डावत, रावत नेतसिंह सारंगदेवोत[13], रावत सांगा, राठौड़ रामदास[14], मेरपुर का राणा पुंजा, पुरोहित गोपीनाथ, पुरोहित जगन्नाथ, पडिहार कल्याण, बच्छावत महता जयमल, महता रत्नचंद खेतावत, महासानी जगन्नाथ, राठौड़ शंकरदास[15], सौदा बारहठ के वंशज चारण जैसा और केशव आदि भी आ गये। हकमीखां सूर[16] भी मुगलों से लड़ने के लिये राणा की सेना में सम्मिलित हुआ।[17]

मेवाड़ की ख्यातों में मानसिंह के साथ 80,000 और महाराणा के साथ 20,000 सवार होना लिखा है। मुहणोत नैणसी ने कुंवर मानसिंह के साथ 40,000 और महाराणा प्रतापसिंह के साथ 9-10 हजार सवार होना बताया है।[18] अल्बदायूनी ने जो कि इस लड़ाई में मानसिंह के साथ था, मानसिंह के पास 5,000 और महाराणा की सेना में 3,000 सवार होना लिखा है।[19] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार मेवाड़ी सेना में 3,000 से अधिक घुड़सवार और कई सौ भील प्यादों से अधिक नहीं थे। मेवाड़ की छोटी सी सेना के अगले दस्ते में लगभग 800 घुड़सवार थे और यह दस्ता हकीमखां सूर, भीमसिंह डोडिया, जयमल के पुत्र रामदास राठौड़ तथा कुछ अन्य वीरों की देख-रेख में रखा गया था। उसके दायें अंग में 500 घुड़सवार थे और ये ग्वालियर के रामशाह तंवर एवं भामाशाह की अधीनता में थे। इस सेना का बायां अंग झाला ‘माना’ की अधीनता में था और बीच के भाग की अध्यक्षता स्वयं महाराणा के हाथ में थी। पुंजा के भील तथा कुछ सैनिक इस सेना के पिछले भाग में नियुक्त किये गये थे।[20]

युद्ध छिड़ने से कुछ दिन पहले कुंवर मानसिंह अपने कुछ साथियों के साथ निकटवर्ती जंगल में शिकार खेलने गया। महाराणा के गुप्तचरों ने उसे देख लिया तथा उन्होंने यह सूचना महाराणा को दी। इस पर कुछ सामंतों ने महाराणा को सलाह दी कि इस अच्छे अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिये और शत्रु को मार देना चाहिये परन्तु महाराणा ने झाला बीदा (झाला मान) की इच्छानुसार, यही उत्तर दिया कि इस तरह छल और धोखे से शत्रु को मारना क्षत्रियों का काम नहीं।[21]


[1] मेवाड़ में इस नाम से मिलती-जुलती एक और घाटी है जिसे हलदूघाटी कहा जाता था। यह घाटी उदयपुर से जयसमुद्र जाते समय मार्ग में आती है।

[2]  मोहनलाल गुप्ता, उदयपुर संभाग का जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन, पांचवां संस्करण, पृ. 243-244.

[3] श्यामलदास, पूर्वोक्त, भाग-2, पृ. 151.

[4] महाराणा प्रताप की एक बहिन झाला मान को ब्याही गई थी जिसके पेट से शत्रुशाल का जन्म हुआ था।

[5]  मेवाड़ तथा मारवाड़ की सेनाओं में युद्ध के समय सिंधुराग बजता था।

[6]  मुंशी देवीप्रसाद, अकबरनामा, पृ. 787-79; इकबालनामा, पृ. 303;  मुन्तखबुत्त्वारीख (डब्ल्यू. एच. लोए कृत अंग्रेजी अनुवाद), जि. 2, पृ. 236. अबुल फजल, अकबरनामा, एच. बैवरिज कृत अनुवाद, जि. 3, पृ. 236-37.

[7] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, पूर्वोक्त, पृ. 448.

[8] आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव, पूर्वोक्त, पृ. 448-449.

[9] रामशाह को महाराणा प्रताप की ओर से प्रतिदिन 800 रुपये सैनिक व्यय के रूप में दिये जाते थे।

[10] भामाशाह तथा ताराचंद, कावड़िया गोत्र के ओसवाल महाजन भारमल के पुत्र थे। भामाशाह को महाराणा सांगा ने अलवर से बुलाकर रणथम्भौर का किलेदार नियत किया था। जब हाड़ा सूरजमल रणथम्भौर का किलेदार निुयक्त हुआ तो भी रणथम्भौर का बहुत सा काम भामाशाह के हाथ में रहा। भामाशाह और उसका भाई ताराचंद वीर प्रकृति के पुरुष थे। महाराणा ने महासनी रामा के स्थान पर ताराचंद को अपना प्रधान बनाया था। वह गोड़वाड़ का हाकिम भी था और  उस समय बड़ी सादड़ी में रहता था। महाराणा, ताराचंद की बड़ी खातिर करता था। ताराचंद ने सादड़ी के बाहर एक बावड़ी और एक बारादरी बनवाई थी। उसके निकट ही ताराचंद, उसकी चार औरतें, एक खवास, छः गायिकाएं, एक गवैया और उस गवैये की औरत की मूर्तियां खुदी हुई हैं। -सरस्वती, भाग 18, सं. 2, पृ. 97.

[11] यह देलवाड़ा वाले झालों का पूर्वज था।

[12]  इसका दूसरा नाम मानसिंह था और यह बड़ी सादड़ी वालों का पूर्वज था।

[13]  रावत नेतसी का दादा रावत जोगा, महाराणा सांगा की तरफ से लड़ता हुआ खानवा के युद्ध में काम आया था। रावत नेतसी का पिता रावत नरबद, बहादुरशाह के विरुद्ध लड़ता हुआ चित्तौड़ की लड़ाई में पाडलपोल पर काम आया था।

[14] यह बदनौर वाले उसी प्रसिद्ध जयमल का सातवां पुत्र था जो उदयसिंह के समय चित्तौड़ घेरे के दौरान अकबर की बंदूक की गोली से घायल हो गया था और जिसके नेतृत्व में चित्तौड़ का दूसरा शाका हुआ था।

[15] शंकरदास का पिता ठाकुर नेतसी, महाराणा उदयसिंह की तरफ से, अकबर के विरुद्ध लड़ते हुए चित्तौड़ की लड़ाई में काम आया था।

[16] बाबर और हुमायूं ने भारत से अफगानों के दो राज्य समाप्त किये थे- पहला राज्य इब्राहीम लोदी का था जिसे बाबर ने समाप्त किया था और दूसरा राज्य शेरशाह सूरी के वंशज का था जिसे हुमायूं ने समाप्त किया था। इसलिये अधिकांश अफगान सरदार, हिन्दू शासकों के राज्यों में आकर रहने लगे थे। बहुत से अफगान लड़ाके, हिन्दू सरदारों की सेनाओं में भर्ती होकर मुगलों के विरुद्ध लड़ते रहते थे। महाराणा की सेना में भी अफगान हकीमखां सूर, प्रधान तोपची के रूप में नियुक्त था।

हल्दीघाटी का मतलब क्या है?

Haldighati = हल्दीघाटी (HaldiGhati) यह अरावली पर्वत शृंखला में एक दर्रा (pass) है। यह राजसमन्द और पाली जिलों को जोड़ता है। यह उदयपुर से 40 किमी की दूरी पर है। इसका नाम 'हल्दीघाटी' इसलिये पड़ा क्योंकि यहाँ की मिट्टी हल्दी जैसी पीली है।

हल्दीघाटी का राजा कौन है?

हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 को मेवाड़ के महाराणा प्रताप का समर्थन करने वाले घुड़सवारों और धनुर्धारियों और मुगल सम्राट अकबर की सेना के बीच लडा गया था जिसका नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह प्रथम ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप को मुख्य रूप से भील जनजाति का सहयोग मिला ।

हल्दीघाटी का युद्ध कौन हारा था?

राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास का सबसे चर्चित हल्दीघाटी युद्ध मुगल सम्राट अकबर ने नहीं बल्कि महाराणा प्रताप ने जीता था. साल 1576 में हुए इस भीषण युद्ध में अकबर को नाको चने चबाने पड़े और आखिर जीत महाराणा प्रताप की हुई.

बदायुनी ने हल्दीघाटी युद्ध को क्या कहा?

यह युद्ध राणा प्रताप और अकबर के मध्य हल्दीघाटी नामक तंग दर्रे (राजसमंद) में लड़ा गया। हल्दीघाटी का युद्ध इतना घमासान था कि अबुल फजल ने इसे खमनौर का युद्ध, बदायूंनी ने गोगून्दा का युद्ध और कर्नल टॉड ने इसे मेवाड़ की थर्मोपाइले कहा है।