सखि वे मुझसे कहकर जाते व्याख्या - sakhi ve mujhase kahakar jaate vyaakhya

सखि वे मुझसे कहकर जाते व्याख्या - sakhi ve mujhase kahakar jaate vyaakhya

हिंदी साहित्य में हास्यानुकृति यानि पैरोडी की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है, और इससे बड़े से बड़े कवि को भी बख्शा नहीं गया है और न ही कवियों ने इसका बुरा माना है। हरिवंश राय बच्चन जी की आत्मकथा (क्या भूलूँ क्या याद करूँ, परिशिष्ट २) में उल्लेख है कि जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मधुशाला को उसके प्रकाशन के भी पहले जब पहली बार सुनाई तो श्रोता तो विभोर हुए ही, सभापति प्रो. मनोरंजन प्रसाद सिंह ने वहीं बैठे-बैठे मधुशाला की कई रुबाइयों की पैरोडी लिख डाली और सुनाई भी।

आज के लोकप्रिय कवि कुमार विश्वास की पैरोडी डॉ सुकुमार अविश्वास Red FM पर बहुत पसंद की जाती है और कुमार विश्वास उस कार्यक्रम में आकर स्वयं पर इस विनोदपूर्ण परिहास का मजा लेते हैं। इसी तरह की पैरोडी का वो गुस्ताख़ी माफ़ कार्यक्रम में भी हिस्सा रहे हैं।

यहाँ यह कहना आवश्यक है कि किसी कविता की हास्यानुकृति लिखना आसान नहीं होता। जब कवि कविता लिखता है तो वो स्वच्छंद होता है कविता का छन्द, मीटर आदि चुनने के लिए; उसकी अपनी शैली होती है; वह केवल अपने मनोभावों की प्रेरणा से अविभूत होकर लिखता है। किन्तु हास्यानुकृति पर मूल कृति के छन्द और शैली के अनुकरण का अनुशाशन होता है। हास्यानुकृति लिखने वाले को अपने मन में मूल कवि की आत्मा का एक अंश उतारना पड़ता है। एक उम्दा हास्यानुकृति में मूल कवि की झलक दिखती है या उसकी ही कृति लगती है। इसलिए न केवल हास्यानुकृति को परिहास की तरह लें और उपहास न समझें, बल्कि उसमें निहित कला और प्रतिभा का भी आनंद उठायें। और जब कवियों को अपनी हास्यानुकृति बुरी नहीं लगती तो किसी और को "चाय से ज्यादा केतली गरम" चरितार्थ करने की क्या आवश्यकता है?

मूल कविता "सखि वे मुझसे कह कर जाते" के लेखक श्री मैथलीशरण गुप्त जी को समाज के सदियों से उपेक्षित वर्ग और व्यक्तियों का कवि कहा जाता है। दुनिया भर में राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान की तो स्तुति हुई, लेकिन लक्ष्मण से चौदह वर्षों का वियोग सहने वाली उसकी पत्नी उर्मिला का ध्यान मैथलीशरण जी को ही साकेत में आया। गौतम बुद्ध की बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं, स्तूप और अभिलेख मानवता को दिए गए ज्ञान हेतु उनका आज भी कृतज्ञ अभिनंदन करते हैं, लेकिन उस ज्ञान के लिए जिसे रात में चुपचाप त्यागा था, जिसने पुत्र राहुल के पोषण का समग्र दायित्व निभाया था, उस पत्नी यशोधरा को काव्य में स्मरण और अमर करने का काम मैथलीशरण जी ने ही किया। यशोधरा की अभिमानी वेदना "सखि वे मुझसे कह कर जाते" में अभिव्यक्त है। आप मूल रचना अवश्य पढ़ें, आपके अंदर वह भाव-संवेदना का ज्वार उठा देगी।

इस लम्बी भूमिका के बाद "सखि वे मुझसे कह कर जाते" की कहीं सुनी और याद रह गयी यह हास्यानुकृति प्रस्तुत है। जिस तरह यशोधरा को पति गौतम के तपस्या करने को जाने से आश्चर्य नहीं हुआ था, अपितु चुपचाप जाने से वेदना हुई थी, इस कविता की नायिका को कुछ वैसी ही व्यथा पति के चुपके से सिनेमा देखने जाने पर होती है:

लखन सिनेमा पति गए, नहिं अचरज की बात।
पर चोरी-चोरी गए, यही बड़ा व्याघात।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

कारण नहीं समझ में आता,
ले जाते तो क्या हो जाता,
शायद वे संकोच कर गए
मंहगाई के नाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

बच्चों का यदि साथ न भाता,
मुझसे यह क्यों कहा न जाता,
सेकेंड शो के होने तक तो
बच्चे भी सो जाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

मैंने बहुत खोजा लेकिन पता नहीं लगा पाया कि ये किसने लिखी है, इसको सुने २५ वर्षों से भी ज्यादा हो गए हैं। यदि आपको कोई जानकारी हो तो कृपया नीचे टिप्पणी में साझा करें। अगर मेरी स्मृति क्षीण है और इसमें कुछ त्रुटियां हैं तो वो भी साझा करें।

राजभवन की सुख-समृद्धि तथा ऐश्वर्य और भोग-विलास को हीन ही नहीं वरन् यशोधरा जैसी पत्नी तथा राहुल जैसे एकमात्र पुत्र का परित्याग करके निर्वाण के मार्ग में निकले भगवान बुद्ध की कथा इतनी महान बनी कि स्वयं बौद्ध धर्म के जन्म और विस्तार की प्रेरक कथा बन गई. 'जयद्रथ-वध' और ‘भारत भारती’ के प्रकाशन से लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे मैथिलीशरण गुप्त को 1930 में महात्मा गांधी ने कवि से राष्ट्रकवि कहा था.

अपने खंड काव्य 'यशोधरा' में उन्होंने भगवान बुद्ध की कथा को काव्य-कथा के रूप में प्रस्तुत किया है. इस रचना में गुप्त ने यशोधरा के त्याग की परम्परा को मुख्ख्य रूप से उद्घोषित किया है, जिसने भगवान बुद्ध के राजभवन लौटने और स्वयं यशोधरा के कक्ष में उससे भेंट करने जाने पर अपने बेटे राहुल का महान पुत्रदान देकर अपने मन की महानता को प्रतिष्ठित किया. राष्ट्रकवि की यह रचना मनोरंजक ही नहीं प्रेरक भी है.

आज राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जयंती पर यशोधरा के अंश

यशोधरा के अंश

सिद्धि-हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात;
पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते;
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना,
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना,
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में
हमीं भेज देती हैं रण में,
क्षात्र-धर्म के नाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

हुआ न यह भी भाग्य अभागा,
किस पर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा।
रहें स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते?
गये तरस ही खाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

जाएँ, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे?
रोते प्राण उन्हें पावेंगे?
पर क्या गाते गाते,
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

***
मिला न हा! इतना भी योग,
मैं हंस लेती तुझे वियोग!
देती उन्हें विदा में गाकर,
भार झेलती गौरव पाकर,
यह नि:श्वाय न उठता हा कर,

बनता मेरा राग न रोग।
मिला न हा! इतना भी योग।

पर वैसा कैसे होना था?
वह मुक्ताओं का बोना था।
लिखा भाग्य में तो रोना था

यह मेरे कर्मों का भोग!
मिला न हा! इतना भी योग

पहुँचाती मैं उन्हें सजाकर,
गये स्वयं वे मुझे लजाकर।
लूंगी कैसे?-वाद्य बजाकर,
लेंगे जब उनको सब लोग।
मिला न हा! इतना भी योग।

***
दूँ किस मुँह से तुम्हें उलहना?
नाथ, मुझे इतना ही कहना।
'हाय!, स्वार्थी थी मैं ऐसी; रोक तुम्हें रख लेती?
'जहाँ राज्य भी त्याज्य, वहाँ मैं जाने तुम्हें न देती?
आश्रय होता या वह बहना?
नाथ, मुझे इतना ही कहना।

विदा न लेकर स्वागत से भी वंचित यहाँ किया है;
हन्त! अंत में यह अविनय भी तुमने मुझे दिया है।
जैसे रक्खो , वैसे रहना!
नाथ, मुझे इतना कहना।

ले न सकेगी तुम्हें वही बढ़ तुम सब कुछ हो जिसके,
यह लज्जा यह क्षोभ भाग्य में लिखा गया कब, किसको?
मैं अधीन, मुझको सब सहना।
नाथ, मुझे इतना ही कहना!
***

पुस्तकः यशोधरा
लेखक: मैथिलीशरण गुप्त
विधाः कविता
प्रकाशकः लोकभारती प्रकाशन
मूल्यः 150/- रूपए- हार्डबाउंड
पृष्ट संख्या: 112