दंड के सिद्धांत कौन-कौन से हैं - dand ke siddhaant kaun-kaun se hain

परिचय:- नीतिशास्त्र मे कर्मो का विशेष महत्व है । कर्म अच्छे भी होते है और बुरे भी । कर्मो के लिए फल का भी विधान है । अच्छे कर्मो के लिए अच्छा फल तथा बुरे कर्मो का बुरा फल प्राप्त होना चाहिए । एक अन्य दृष्टिकोण से विचार करने पर अच्छे शुभ कर्मो के लिए पुरस्कार की व्यवस्था होती है तथा बुरे या अशुभ कर्मो के लिए दण्ड का विधान है । दण्ड तथा पुरस्कार एक रूप मे नैतिक प्रेरक भी है । व्यक्ति दण्ड के भाय से बुरे कार्य करने से बचता है । तथा पुरस्कार के प्रलोभन मे अच्छे कार्य करने को प्रेरित होता है । पुरस्कार प्रशंसा के रूप मे भी हो सकता है तथा स्वर्ग प्राप्ति की सम्मभावना के रूप मे भी । इसी प्रकार दण्ड भी निंदा के रूप मे भी हो सकता है तथा नर्क की प्राप्ति के भय के रूप मे भी दण्ड का अर्थ को भिन्न भिन्न विद्वानों मे भिन्न भिन्न रूप से स्पष्ट किया है कुछ विद्वानों ने अनुचित कार्य करने वाले व्यक्तियों को सुधारने के लिए दण्ड का विधान माना है तथा कुछ ने दण्ड का उद्देश्य मानते है अनुचित कार्यो के रोकथाम के लिए दण्ड की व्यवस्थ को हमारे समाज मे आवश्यक मानते है ।


दण्ड के सिधान्त :-

प्रचिंनकाल से ही अनुचित या समाज –विरोधी कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिए दण्ड की व्यवस्थ रही है । इसी प्रकार दण्डशस्त्र के विभिन्न सिधान्त प्राचीलित है । मुख्य सिद्धांतों का संक्षिप्त परिचय है ;-


1) दण्ड का प्रतिशोधात्मक सिधान्त :-

दण्ड के सिद्धांतों मे एक प्राचीन सिधान्त प्रतिशोधत्मक सिद्धांत retributive theory भी है । दण्ड के इस सिद्धांत का आधार ,जैसे को तैसा या tit for tat है । अर्थात अनुचित कार्य करने वाले व्यक्ती को उसके अनुचित कर्म के बदले मे अवश्य ही दण्ड दिया जाना चाहिए । सीजीवीक ने भी इस विषय मे कहा है की दण्ड का व्यवस्थापन सामाजिक सुरक्षा के लिए किया गया है तथा इस संदर्भ मे प्रतिशोधात्मक सिद्धांत सर्वश्रेष्ठ है । प्राचीन जर्मन दंड व्यवस्था मे भी आंखो के बदले आँख तथा दांत के बदले दांत की बात काही गई है । कान्ट ने भी इसी सिधान्त का समर्थन किया था । वास्तव मे इस सिधान्त का मुख्य आधार नैतिक –न्याय है । इस सिधान्त के अनुसार आच्छे कार्य के लिए पुरस्कार तथा बुरे कार्य के लिए दंड की व्यवस्था है दंड के इस सिधान्त का स्पष्टीकरण उदाहरण द्वारा भी दिया जा सकता है । यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की हत्या कर देता है तो उसे प्राण दंड दिया जाना चाहिये ।इससे भिन्न यदि कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के बच्चो या पत्नी की हत्या कर देता है तथा उस व्यक्ति को दंड देने के लिए उसके बच्चो या पत्नी हत्या कर देनी चाहिये । इस तथ्य को ध्यान मे रखते हुए कहा जा सकता है की दंड के इस सिद्धांत की विशेषता यह है की दंड द्वारा अपराधी के अपराधिक कृत्य के द्वारा दूसरे व्यक्ति के जीने के अधिकारो का हनन या अतिक्रमण किया गया है उसको भी उसी प्रकार के अधिकारो से वंचित कर दिया जाये । दंड के सिद्धांत को लागू करने पर अपराधी जब यह देखता तथा अनुभव करता है की दंड वस्तुत उसी के अनुचित कर्म का प्रतिफल है जब वह अपराधी से तथा अपराध से घूणा करने लगता है । दंड का यह सिद्धांत प्राय ; सभी आदीम समाजो मे पाया जाता था । इस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करते हुए कहा जाता जाता है की मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृति है की प्रत्येक मनुष्य यह चाहता है की जो व्यवहार उसके साथ किया है वह वही व्यावाहर दूसरों के साथ करे । इस प्रकार कहा जा सकता है की दण्ड के प्रतिशोधतमक सिधान्त का उद्गम वस्तुत मनुष्य की मूल प्रवुती मे निहित है तथा सभ्यता के प्रारम्भिक चरण मे दण्ड वास्तव मे बादले या प्रतीकार की भवनावश ही प्रदान कीया जाता था ।


प्रतिशोधात्मक सिधान्त की आलोचना :-

-दण्ड के इस सिधान्त को आज उचित नहीं माना जाता तथा इसकी आलोचना मे निम्नलिखित बाते काही जाती है

1. इस सिधान्त मे एक व्यवहरिक कठिनाई यह है की इस सिधान्त के अंतर्गत अपराध के अनुपात का निर्धारण करना संभव नहीं है । यदि त्रुटिवश अपराध की तुलना मे अधिक दण्ड दिया जाता है तो वह भी उचित नहीं तथा उसे अन्यायपूर्ण ही कहा जायेग । यदि अपराध की तुलना मे कम दण्ड दिया जाता है तो उसे भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है ।


2. कुछ विद्वानो ने तो यहा तक कहा दिया है इस दण्ड व्यवस्था के परिणामस्वरूप अपराधो की संख्या मे कमी नहीं होती बल्कि बढ़ती ही है । वास्तव मे इस व्यवयसथा के अन्तगर्त अपराध को पुनः अपराधी पर दोहराया जाता है । इस प्रकार इस प्रकार अपराधो की संख्या दो गुणी हो जाती है ।


2) दण्ड का सुधारात्मक सिधान्त :-

दण्ड का एक अन्य सिधान्त सुधारात्मक सिधान्त Reformative Theory of Punishment है । दण्ड का यह सिधान्त वास्तव मे अपराधी के सुधार उपचार तथा दण्ड द्वारा उसको तथा समाज को शिक्षित करने की भावना पर अधारित माना जाता है । दण्ड के इस सिधान्त का उद्देश्य न तो प्रतीकार है और न ही अपराध की पुनरावूत्ति की रोकथाम करना है । इस सिधान्त का मुख्य उद्देश्य अपराधी का सुधार करना है । इस सिधान्त की मान्यता है की ....दण्ड का उद्देश्य दण्ड के लिए नहीं अपितु सुधार के लिए है इस सिधान्त के अनुसार दिये जाने वाले दण्ड का मुख्य उद्देश्य भविष्य मे अनुचित तथा आपराधिक कृत्यों की रोकथाम नहीं बल्कि अपराधी व्यक्ति की मानसिक चरित्र मे स्थायी परिवर्तन उत्पन्न करके उसे समाज का उतरदायी ,उपयोगी तथा सम्मानित सदस्य बनाना है ।


इस सिधान्त की मान्यता है की अपराधी पर दण्ड की अपेक्षा दया ,सहनभूति ,तथा मानवीय व्यवहार का अधिक अच्छा प्रभाव पड़ता है । इस प्रकार के व्यवहार से अपराधी ,अपराधो से दूर हटता है तथा एक सामान्य नागरिक बनने का प्रयास करता है । इस सिधान्त के समर्थको का विशवास है की आपराधिक व्यक्ति के चारीत्रिक तथा आचरण संबंधी लक्षण वास्तव मे जन्मजात नहीं होते अंत यदि ऐसे व्यक्ति की परिस्थितियो को परिवर्तित किया जाए तो उनकी आपराधिक वुत्ति को समाप्त किया जा सकता है ।


इविंग के अनुसार ---सुधारत्मक दंड वह होता है जिससे दंड की प्रक्रिया स्वमेव व्यक्ति मे सुधारात्मक दिशा की ओर परिवर्तन लाती है


सुधारात्मक सिधान्त की आलोचन:-


1. यह सत्या है की दंड का सुधारत्मक सिधान्त अन्य सिद्धांतों की तुलना मे श्रेष्ठ है तथा इसके पीछे मानवीय दुष्टिकोण है । परंतु इस सबके होते हुये भी इस सिधान्त की आलोचन की गई है जो निम्नलिखित है ।

2. यह सत्या है की दंड के सुधारात्मक सिधान्त मे अपराधी मे प्रति मानवीय दुष्टिकोण अपनाने की बाते काही गयी है । परंतु व्यवहार मे यह बहुत कठिन है ।

3. कुछ दंड शास्त्रियों का विचार है की अपराध के लिए कठोर दंड की व्यवस्था होनी ही चाहिए । यदि कठोर दंड की वावस्था नहीं होती तो अपराधियो एव अपराधो की संख्या मे वृद्धि होने लगती है ।


3) दंड का प्रतिशोधात्मक सिधान्त या निरोधात्मक सिधान्त

Detervant or preventive theory of punishment

इस सिधान्त के अंतर्गत स्वीकार किया गया है की दंड का मुख्य उद्देश्य अपराधो की रोकथाम तथा निवारण है । इस सिधान्त का समर्थन मुख्य रूप से बेन्थ्म ने किया था । इस सिधान्त की मान्यता है की दंड की व्यवस्था होने की स्थित मे व्यक्ति आपराधिक कार्यो को करने मे संकोच करता है । इस सिधान्त के विषय मे रूसो ने स्पष्ट कहा है .......विधि का मूल्य इससे आंकना चाहिए की उसने कितने अपराधो को घटित होने से रोका न की इस बात से की उसने कितने अपराधियो को दंडित किया । यदि अपराधी को सार्वजनिक रूप से दंडित किया जाए तो देखने वाले व्यक्ति भी अपराध करने से बचेंगे । तुम्हें भेड़ चुराने के लिए दंड नहीं दिया जा रहा बल्कि इसीलिए दंड दिया जा रहा है की भविष्या मे भेड़ो की चोरी न हो । स्पष्ट है की दंड के इस सिधान्त का मुख्य उद्देश्य समाज मे अपराधो को घटना है ।

आलोचन

1. कुछ अपराधि ऐसे होते है जिन्हे दंड का कोई भी प्रभाव या चिंता नहीं होती है । उदहरण के लिए मानसिक रूप से दुर्बल या असामान्य व्यक्ति ऐसे व्यक्तियो के लिए इस प्रकार की व्यवस्था का कोई महत्व नहीं है ।


2. दंड के इस सिधान्त के विरुद्ध एक आक्षेप यह भी है की इस सिधान्त मे साधारण अपराधो के लिए भी कठोर दंड दिये जाते है । यह उचित नहीं है यह अमानवीय है तथा इससे समाज मे विद्रोहा की आशंका बनी रहती है ।

दंड के प्रमुख सिद्धांत कौन से हैं?

दंड का मुख्य उद्देश्य भय उत्पन्न करना या अपराधों की रोकथाम करना नहीं है बल्कि न्याय की स्थापना करना भी है। यह सिद्धांत कहता है कि, उचित यही है कि अपराधी व्यक्ति को उतना ही दण्ड दिया जाए, जितना अपराध की प्रवृत्ति के अनुकूल हो।

दंड के कितने सिद्धांत हैं?

दंड के सिद्धान्त (Theories of Punishment) अतः किसी व्यक्ति ने जिस अनुपात में कोई अपराध किया है तो उसे उसी अनुपात में प्रतिक्रिया होती है। अतः किसी व्यक्ति ने जिस अनुपात में कोई अपराध किया है तो उसे उसी अनुपात में दंडित करना प्रतिकारवाद है। ऽ दंड के सुधारवादी सिद्धान्त के अनुसार दंड का लक्ष्य अपराधी को शिक्षित करना है।

दंड के कितने प्रकार होते हैं?

भारतीय दंड संहिता पांच प्रकार की सजा का प्रावधान करती है, अर्थात्। (5) जुर्माना। इस प्रकार, 1 जनवरी, 1956 से प्रभावी, 1955 के अधिनियम 26 द्वारा संशोधित भारतीय दंड संहिता की धारा 53 के तहत 'आजीवन कारावास' को सजा के रूप में अधिकृत किया गया है।

दंड का सबसे पुराना सिद्धांत क्या है?

निषेधात्मक सिद्धान्त की मान्यता है कि अपराधी को दण्ड देने से जिसके प्रति अपराध हुआ है उसे उसका 'बदला' मिल जाता है। यह सभी सिद्धान्तों में सबसे बुरा सिद्धान्त है क्योंकि इसमें समाज का कल्याण या समाज की सुरक्षा की भावना नहीं है।